पास में ही खेल रही अपनी छह साल की बेटी को जड़ नज़रों से देख रहीं अरुणा (28) कहती हैं, “वे मुझे मार ही डालते… यहां ‘वे’ का आशय अरुणा के ख़ुद के परिवार के सदस्यों से था, जो अरुणा के व्यवहार को समझ नहीं पा रहे थे. “मैं सामान इधर-उधर पटकने लगती थी. मैं घर में नहीं टिकती थी. कोई भी हमारे घर के आसपास भी नहीं फटकता था...”
वह प्रायः तमिलनाडु के कांचीपुरम ज़िले में स्थित अपने घर से भागकर आसपास के पहाड़ी इलाक़े में भटकती फिरती थीं. कुछ लोगबाग़ इस डर से उनसे दूर भागते थे कि वह कहीं उन्हें चोट न पहुंचा दे, तो कुछ ऐसे भी लोग थे जो उन्हें कंकड़-ढेलों से मार कर दूर भगाने की कोशिश करते थे. उनके पिता उन्हें पकड़ कर घर लाते थे और कई बार उन्हें बाहर भागने से रोकने के लिए कुर्सी से बांध देते थे.
अरुणा (बदला हुआ नाम) उस समय 18 साल की थीं, जब उनके घरवालों को उनके सिज़ोफ्रेनिया से ग्रसित होने का पता चला. यह बीमारी उनके सोचने, महसूस करने और व्यवहार करने के तौर-तरीक़ों पर असर डालती है.
कांचीपुरम में चेंगलपट्टु तालुका के कोंडांगी गांव की दलित कॉलोनी में अपने घर के बाहर बैठीं अरुणा अपने मुश्किल दिनों के बारे में बातचीत को बीच में ही रोक कर अचानक वहां से चली जाती हैं. गुलाबी नाईटी पहनी छोटे-छोटे बाल वाली यह लंबी-सांवली औरत थोड़ा झुक कर चलती है. वह एक कमरे वाली अपनी फूस की झोपड़ी में घुस जाती हैं और जब बाहर निकलती हैं, तो उनके हाथ में डॉक्टर की एक पर्ची और टैबलेट की दो पत्तियां हैं. वह अपनी दवाइयां दिखाती हुई कहती हैं, “एक के खाने से मुझे नींद आ जाती है. और, दूसरी गोली दिमाग़ की नसों से जुड़ी बीमारी के लिए है. अब मैं पहले से बेहतर नींद में सोती हूं. हर महीने दवा लेने के लिए मैं सेम्बक्कम [प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र] जाती हूं.”
अगर शांति शेष नहीं होतीं, तो शायद अरुणा की बीमारी का पता भी नहीं चल पाता.
शांति (61 साल) ने अरुणा को देखते ही उनकी बीमारी का अनुमान लगा लिया था, क्योंकि उन्होंने अरुणा जैसे सैकड़ों मरीज़ों की मदद की थी, जो सिज़ोफ्रेनिया से जूझ रहे थे. साल 2017-2022 के बीच शांति ने चेंगलपट्टु में 98 ऐसे मरीज़ों को चिन्हित किया था और उन्हें चिकित्सकीय देखभाल उपलब्ध कराने में उनकी मदद की थी. सिज़ोफ्रेनिया रिसर्च फ़ाउंडेशन (एससीएआरएफ़) के साथ एक अनुबंध के आधार पर बतौर सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, वह मानसिक स्वास्थ्य से ग्रसित लोगों को अपनी सेवा देने के कारण कोंडांगी गांव के लोगों के लिए अच्छी तरह से परिचित नाम थीं.
जब शांति कोई दस साल से भी पहले अरुणा से मिली थीं, तो उनके मुताबिक़, “तब वह युवा और छरहरी थी, और तब उसकी शादी भी नहीं हुई थी. वह इधर-उधर घूमती रहती थी और कुछ खाती-पीती भी नहीं थी. मैंने उसके घरवालों को उन्हें लेकर तिरुकालुकुंद्रम के मेडिकल शिविर में लाने के लिए कहा था.” यह शिविर हरेक महीने एससीएआरएफ़ द्वारा सिज़ोफ्रेनियों के रोगियों की पहचान करके उनका इलाज करने के उद्देश्य से लगाया जाता था.
जब अरुणा के घरवालों ने उन्हें कोंडांगी से लगभग 30 किलोमीटर दूर तिरुकालुकुंद्रम ले जाने की कोशिश की, तब वह हिंसक हो उठीं और किसी को भी ख़ुद को हाथ तक लगाने नहीं दिया. इसके बाद, उनके हाथ व पांव बांधकर उन्हें कैंप ले जाया गया था. शांति कहती हैं, “मनोरोग-चिकित्सक ने मुझे हर 15 दिनों पर उसे एक इंजेक्शन देने को कहा था.”
दवाओं और सूईयों के अलावा हर पन्द्रहवें दिन शिविर में ही अरुणा की काउंसिलिंग भी की जाती थी. शांति बताती हैं, “उनका इलाज शुरू होने के कुछ साल बाद, मैं उन्हें लेकर सेम्बक्कम प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र गई.” पीएचसी में एक दूसरे एनजीओ (बनयान) ने एक मानसिक स्वास्थ्य शिविर लगाया हुआ था. शांति बताती हैं, “अरुणा अब पहले की बनिस्पत बहुत बेहतर है. वह ढंग से बातचीत भी कर लेती है.”
कोंडांगी गांव का केंद्र अरुणा के घर से कुछ ही गज की दूरी पर है. यहां नायडू और नाइकर जैसी प्रमुख जातियों के परिवार रहते हैं. शांति भी नायडू समुदाय की हैं. शांति का मानना है कि “चूंकि अरुणा अनुसूचित जाति की हैं, इसलिए उन्हें दलित बस्ती में रहते हुए बर्दाश्त कर लिया गया.” वह बताती हैं कि बस्ती में रहने वाले लोग पड़ोस में बसे नायडू-नाइकर परिवारों के घरों में नहीं आ-जा सकते हैं. “अगर अरुणा ने ग़लती से भी यहां क़दम रख दिया होता, तो दोनों समुदायों में झगड़ा होना तय था.”
चार साल के इलाज के बाद अरुणा की शादी कर दी गई. लेकिन उनके पति ने उन्हें तब छोड़ दिया, जब वह गर्भवती थीं. वह अपने मायके लौट आईं और अपने पिता व बड़े भाई के साथ रहने लगीं. चेन्नई में रहने वाली उनकी शादीशुदा बड़ी बहन अरुणा के बच्चे की देखभाल करने में उनकी मदद करती हैं, और अरुणा दवाइयों की मदद से अपनी बीमारी का ख़याल रलती हैं.
वह कहती हैं कि अपनी बेहतर सेहत के लिए वह शांति अक्का की शुक्रगुज़ार हैं.
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हाथ में लंचबॉक्स लिए हुए शांति प्रतिदिन सुबह 8 बजे घर से निकल जाती हैं. उनके पास चेंगलपट्टु तालुका के उन गांवों और बस्तियों के नामों की सूची होती है जिनका दौरा उनको करना होता है. मदुरंतकम स्थित बस-स्टैंड तक पहुंचने के लिए वह रोज़ एक घंटे पैदल (15 किलोमीटर) चलती हैं. “इसी जगह से दूसरे गांव जाने की सवारियां मिलती हैं.”
उनका काम पूरे तालुका में दौरा कर मानसिक व्याधियों के मरीज़ों की पहचान कर चिकित्सीय सुविधाएं मुहैया कराने में उनकी मदद करना था.
शांति उन दिनों को याद करती हुई कहती हैं, “पहले हम उन गांवों में जाते थे जहां पहुंचना आसान था. उसके बाद हम दूरदराज़ के इलाक़ों में जाते थे. इन इलाक़ों तक बस सेवा किसी ख़ास समय तक ही उपलब्ध रहती है. कई बार तो हमें सुबह आठ बजे से लेकर दोपहर एक बजे तक बस स्टैंड पर बस की प्रतीक्षा में खड़े रहना पड़ता था.”
शांति रविवार को छोड़कर महीने के सभी दिन काम करती रहीं. एक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में काम करते हुए उनका रूटीन लगातार तीन दशक तक एक जैसा ही बना रहा. दूसरों की नज़रों में भले ही उनका काम नगण्य रहा हो, लेकिन उनका काम इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत की 10.6 फ़ीसदी वयस्क आबादी मानसिक विकारों से जूझती है, और लगभग 13.7 प्रतिशत लोग ज़िंदगी के किसी न किसी मोड़ पर मानसिक रोग का शिकार होते हैं. लेकिन उनके उपचार में एक बड़ा अन्तराल नज़र आता है - और, 83 में से एक इंसान डॉक्टर के पास जा पाता है. सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित लगभग 60 प्रतिशत रोगियों को उस तरह की चिकित्सकीय सुविधाएं नहीं मिलतीं जिनकी उन्हें ज़रूरत है.
एक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में शांति ने अपना सफ़र 1986 में शुरू किया था. उस समय भारत के अधिकतर राज्यों में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं से संबंधित पेशेवरों की बहुत कमी थी. गिनती के जिन लोगों को इन विकारों के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित प्राप्त था वे बड़े शहरों में अपनी सेवाएं दे रहे थे. ग्रामीण इलाक़ों में उनकी कोई पहुंच नहीं थी. इस समस्या के निवारण के लिए 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (एनएमएचपी) की शुरुआत की गई. इस योजना का उद्देश्य सभी के लिए “न्यूनतम मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध और सुलभ” कराना था. इस कार्यक्रम में समाज के कमज़ोर और अभावग्रस्त लोगों पर विशेष रूप से ध्यान देने की बात कही गई थी.
साल 1986 में शांति ने एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में रेडक्रॉस के साथ काम करना शुरू किया था. वह शारीरिक रूप से अक्षमता के शिकार लोगों की तलाश करती हुई चेंगलपट्टु के भीतरी इलाक़ों का दौरा करती थीं और संस्था को उनकी तात्कालिक ज़रूरतों के बारे में रिपोर्ट देती थीं.
जिस समय एससीएआरएफ़ ने 1987 में शांति से संपर्क किया उस समय संगठन एनएमएचपी के अधीन रहकर कांचीपुरम ज़िले के तिरुपोरुर ब्लॉक में मानसिक रोगियों के पुनर्वास के अपने कार्यक्रमों पर काम कर रहा था. संगठन तब ग्रामीण तमिलनाडु में समुदाय आधारित स्वयंसेवकों के कैडरों को प्रशिक्षित करने के अनेक कार्यक्रम भी कर रहा थ. एससीएआरएफ की निदेशक डॉ. आर. पद्मावती कहती हैं, “स्कूल स्तर की पढ़ाई पूरी कर चुके समुदाय के लोगों की भर्ती कर उन्हें मानसिक विकारों से ग्रसित लोगों की लक्षणों के आधार पर पहचान करने के लिए प्रशिक्षित किया गया, ताकि उन्हें अस्पताल में चिकित्सा के लिए भेजा जा सके.” डॉ. पद्मावती इस संगठन से 1987 से जुड़ी हुई हैं.
इन शिविरों में शांति ने अलग-अलग मानसिक व्याधियों के बारे में जानकारी प्राप्त की और उनके लक्षणों को पहचानने के तरीक़े भी सीखे. उन्हें यह भी सिखाया गया कि इन विकारों से ग्रसित लोगों को चिकित्सा उपचार लेने के लिए कैसे तैयार किया जाए. वह बताती हैं कि आरंभ में उनको बतौर वेतन केवल 25 रुपए प्रति महीने मिलते थे. उन्हें मानसिक रूप से बीमार लोगों की पहचान कर उन्हें इलाज के लिए मेडिकल शिविरों में लाना होता था. वह बताती हैं, “मुझ पर और एक अन्य कार्यकर्ता को तीन पंचायतों की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. एक पंचायत में 2 से 4 तक गांव होते थे.” साल दर साल उनका वेतन बढ़ता गया. साल 2022 में एससीएआरएफ़ से अपनी सेवानिवृति के समय उन्हें 10,000 रुपए (भविष्यनिधि और जीवनबीमा के पैसे काटने के बाद) वेतन के रूप में मिल रहे थे.
इस काम के कारण उनको एक नियमित आमदनी का स्रोत मिल गया, जिसने आर्थिक मुश्किलों से उनके परिवार को बाहर निकालने में उनकी बहुत मदद की. शराब के लत के शिकार उनके पति ने परिवार में अपना योगदान न के बराबर दिया. शांति के 37 साल के बेटे इलेक्ट्रिशियन का काम करते है और हर रोज़ क़रीब 700 रुपए कमाते हैं. लेकिन उनकी आमदनी बंधी हुई नहीं है. उन्हें महीने में बमुश्किल 10 दिन ही काम मिल पाता है. यह उनकी बेटी और पत्नी के ख़र्च के लिए पर्याप्त नहीं है. शांति की मां भी उनलोगों के साथ ही रहती है. साल 2022 में एससीएआरएफ़ द्वारा संचालित सिज़ोफ्रेनिया कार्यक्रम के समाप्त होने के बाद शांति ने तंजावुर गुड़िया बनाने का काम शुरू कर दिया. इन्हें 50 की संख्या में बेचने पर शांति को 3,000 रुपयों की कमाई हो जाती है.
सामुदायिक कार्यकर्ता के रूप में 30 से भी अधिक सालों तक काम करने के बावजूद शांति थकी नहीं. एनजीओ के साथ काम करते हुए अपने अंतिम 5 सालों उन्होंने चेंगलपट्टु के 180 गांवों और बस्तियों का दौरा किया. “मेरी उम्र ज़रूर अधिक हो गई थी, लेकिन मैंने काम करना नहीं छोड़ा,” वह कहती हैं. “हालांकि, इस काम से मुझे बहुत पैसे नहीं मिलते थे, लेकिन जितने मिलते थे उनसे मैं अपना और परिवार का गुज़ारा कर लेती थी. मुझे इसका मानसिक संतोष है. लोगों से भी मुझे सम्मान मिला.”
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सेल्वी ई. (49) ने भी सिज़ोफ्रेनिया से ग्रसित लोगों की तलाश करते हुए शांति के साथ चेंगलपट्टु के अंदरूनी हिस्सों के गहन दौरे किए. साल 2017 और 2022 के बीच सेल्वी ने तीन ब्लॉक पंचायतों - उतिरमेरुर, कट्टनकोलट्टुर और मदुरंतकम में फैले 117 गांवों का दौरा किया, और 500 लोगों तक चिकित्सकीय सुविधाएं पहुंचाने में मदद की. उन्होंने 25 से भी अधिक सालों तक एससीएआरएफ़ के लिए काम किया. अब उन्होंने ख़ुद को किसी अन्य परियोजना से जोड़ लिया है और अब डिमेंशिया (मनोभ्रंश) के मरीज़ों की पहचान करने का काम करती हैं.
सेल्वी का जन्म चेंगलपट्टु के सेम्बक्कम गांव में हुआ था. अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपनी शुरुआत एक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में की थी. वह सेनगुन्तर समुदाय से संबंध रखती हैं. इस समुदाय का मुख्य पेशा बुनाई करना रहा है, और इन्हें तमिलनाडु में अन्य पिछड़े वर्ग के यूप में वर्गीकृत किया गया है. वह कहती हैं, “मैंने 10वीं के बाद पढ़ाई नहीं की. कॉलेज जाने के लिए मुझे तिरोपोरुर जाना पड़ता, जो मेरे घर से आठ किलोमीटर दूर था. मैं पढ़ना चाहती थी, लेकिन मेरे माता-पिता मुझे दूर नहीं भेजना चाहते थे. इसलिए उन्होंने इजाज़त नहीं दी.”
क़रीब 26 साल की उम्र में शादी हो जाने के बाद सेल्वी अपने परिवार की अकेली सदस्य थीं, जो कमाती थीं. एक बिजली मिस्त्री के तौर पर उनके पति की आमदनी का कोई भरोसा नहीं था. इसलिए सेल्वी को अपनी मामूली सी आमदनी से ही अपने दो बेटों को पढ़ाने-लिखाने के साथ-साथ घर का ख़र्च भी चलाना पड़ता था. उनके 22 साल के बड़े बेटे ने छह महीने पहले ही कंप्यूटर साइंस में एमएससी की पढ़ाई पूरी की है. वहीं, छोटा बेटा (20) चेंगलपट्टु के एक सरकारी कॉलेज में पढ़ रहा है.
गांवों में जाना और सिज़ोफ्रेनिया के मरीज़ों को उपचार कराने के लिए प्रेरित करने का काम शुरू करने से पहले सेल्वी मरीज़ों की काउंसलिंग का काम करती थीं. उन्होंने 10 मरीज़ों के साथ यह काम तीन सालों तक किया. “मैं उनके पास हफ़्ते में एक बार जाती थी,” वह बताती हैं. “और, हर बार हम मरीज़ और उनके घरवालों से इलाज, डॉक्टर को फिर से दिखाने, खानपान और स्वच्छता की ज़रूरत और महत्व के बारे में बातचीत करते थे.”
शुरु में तो सेल्वी को समुदाय के भीतर कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. वह कहती हैं, “वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि कहीं कोई मानसिक समस्या भी है. हम उन्हें बताते थे कि यह एक बीमारी है और इसका इलाज संभव है. मरीज़ों के घरवाले इस बात पर भड़क उठते थे. वे घर के बीमार लोगों को अस्पताल के बजाय धार्मिक स्थलों पर ले जाते थे. इस काम में बहुत धैर्य रखना होता था, और मरीज़ों के घर बार-बार जाकर उनके परिजनों से मिलना होता था, ताकि उन्हें मनाकर मरीज़ को मेडिकल शिविर में लाया जा सके. जब मरीज़ यात्रा करने में असमर्थ होता था, तब डॉक्टर ख़ुद ही उसके घर जाते थे.”
सेल्वी ने अपने लिए काम करने का एक अलग तरीक़ा खोज निकला था. वह गांव के सभी घरों में जाती थीं. वह गांव की चाय की दुकानों पर भी जाती थीं, जहां लोगबाग़ इकट्ठे होकर गपशप करते थे. वह वहां स्कूल के शिक्षक से लेकर पंचायत के नेता तक से बातचीत करती थीं. उनकी सूचनाओं के स्रोत वही लोग थे. सेल्वी उन्हें सिज़ोफ्रेनिया के लक्षणों के बारे में बताती थीं, विस्तार से इसकी जानकारी देती थीं कि मेडिकल देखभाल और उपचार से उन्हें कैसे और क्या लाभ हो सकता है, और आख़िरकार उनसे अनुरोध करती थीं कि वे अपने गांव के ऐसे लोगों के बारे में बताएं जिनके भीतर मिलते-जुलते लक्षण दिखाई देते हों. सेल्वी कहती हैं, “शुरुआत में तो लोग हिचके, लेकिन कुछ लोगों ने हमें रोगी के घर के बारे में बताया और इशारे से दिखाया भी. बहुत लोग ठीक-ठीक लक्षणों को नहीं पहचान पाते हैं. वे बस मरीज़ की संदिग्ध हरकतों के बारे में हमें बताते हैं या कुछ लोग लंबी अनिद्रा के बारे में बताते हैं.”
सजातीय या एक ही गोत्र में विवाह की परंपरा का कड़ाई से पालन करने वाले समुदाय में पली-बढ़ी सेल्वी ने अनेक बच्चों को संज्ञानात्मक अक्षमताओं के साथ जन्म लेते देखा है. वह मानती हैं कि इस बात ने उनके भीतर मानसिक रोगों के लक्षणों और संज्ञानात्मक अक्षमताओं में विभेद करने की समझ विकसित की है. यह दक्षता उनके काम के लिए किसी वरदान से कम नहीं है.
सेल्वी के ज़रूरी कामों में एक यह सुनिश्चित करना था कि मरीज़ों की दवाएं उनको घर तक पहुंचा दी जाएं. भारत में दुर्भाग्यवश बहुसंख्य मानसिक रोगियों को अपने इलाज का ख़र्च ख़ुद ही वहन करना पड़ता है. लगभग 40 प्रतिशत मनोरोगियों को राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए 10 किलोमीटर से भी अधिक दूरी तय करनी होती है. सुदूर गांवों में रहने वाले लोगों के लिए नियमित रूप से उपचार की सुविधाओं को हासिल करना बहुत कठिन है. मानसिक विकारों से जुड़ी सामाजिक भ्रांतियां एक और बड़ी चुनौती है. इन बीमारियों के लक्षणों से जूझते लोग समाज की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते हैं, और समाज भी उनके लिए किसी तरह का भावनात्मक संबल देने के मामले में असंवेदना के साथ पेश आता है.
सेल्वी बताती हैं, “आजकल टीवी देखने से लोगों की राय थोड़ी बदली है. अब वे इतना डरते नहीं है. बीपी, सुगर वगैरह का इलाज करना आसान हो गया है. इसके बावजूद, जब हम मानसिक बीमारी से जूझ रहे लोगों के घरवालों से मिलते है, तो वे हम पर क्रोधित हो जाते हैं और हमसे उलझ पड़ते हैं. वे पूछते हैं, ‘हम क्यों आकर उन्हें परेशान कर रहे हैं...हमें किसने कह दिया कि वहां कोई पागल आदमी या औरत रहती है?’”
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चेंगलपट्टु तालुका के मनमती गांव की सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता डी. लिली पुष्पम (44 वर्ष) भी सेल्वी की बातों से सहमत दिखती हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में, लोगों में मानसिक रोगों और उसकी चिकित्सा से जुड़ी अनेक भ्रांतियां हैं. लिली कहती हैं, “अनेक संशय हैं. कुछ लोगों को लगता है कि मनोचिकित्सक मरीज़ को अगवा कर उसे तरह-तरह की तक़लीफ़ें देगा. अगर हिम्मत जुटा कर वे इलाज के लिए आते भी हैं, तो भीतर से बहुत डरे होते हैं. हम उनको अपना पहचान-पत्र दिखाते हैं, उन्हें समझाते हैं कि हम यहां किसी अस्पताल से आए लोग हैं, लेकिन फिर भी उनके मन में हमारे बारे में संशय ख़त्म नहीं होता है. हमें बहुत सी समस्याओं से जूझना पड़ता है.”
लिली मनमती की एक दलित बस्ती में पली-बढ़ी हैं. इस बात ने उन्हें उपचारों के दौरान किए जाने वाले भेदभावों की अच्छी समझ दी है. अपनी यात्राओं के दौरान वह आए दिन इन अनुभवों से गुज़रती रहती हैं. कई बार तो अपनी जाति के कारण वह बड़ी विचित्र स्थिति में पड़ जाती हैं. इसलिए वह कहां रहती हैं, सामान्यतः यह बात लोगों को नहीं बताती हैं. वह कहती हैं, “अगर मैं उनको अपने घर का पता बता दूंगी, तो वे मेरी जाति जान जाएंगे और मेरे साथ भिन्न बर्ताव करने लगेंगे.” हालांकि, लिली एक दलित इसाई हैं, लेकिन वह चाहती हैं कि लोग उन्हें सिर्फ़ एक इसाई के रूप में जानें.
सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के साथ किस तरह का व्यवहार होता है, यह अलग-अलग गांवों पर निर्भर करता है. वह बताती हैं, “कुछ जगहों पर जहां अमीर और ऊंची जातियों के लोग रहते हैं, वहां हमें पानी के लिए भी नहीं पूछा जाता है. कई बार हम इतने थक चुके होते हैं कि हमें सिर्फ़ बैठने और खाने के लिए जगह की ज़रूरत होती है, लेकिन वे हमें इसकी भी इजाज़त नहीं देते हैं. हमें तब बहुत बुरा महसूस होता है. बहुत बुरा. तब हम 3-4 किलोमीटर और पैदल चलकर कोई ऐसी जगह तलाशते हैं जहां हम बैठकर खा सकें और थोड़ा सुस्ता लें. लेकिन ऐसे भी गांव हैं जहां लोग हमें न केवल पीने के लिए पानी देते हैं, बल्कि जब हम खाने बैठते हैं तो हमसे यह भी पूछते हैं कि हमे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है.”
लिली की शादी उनके फुफेरे भाई से ही हो गई थी, जब वह सिर्फ़ 12 साल की थीं और उनके पति उनसे 16 साल बड़े थे. वह कहती हैं, “हम चार बहनें हैं और मैं सबसे बड़ी हूं.” उनके परिवार के पास 3 सेंट ज़मीन थी जिनपर उनका मिट्टी का घर बना हुआ था. “मेरे पिता को एक ऐसा आदमी चाहिए था जो उनकी संपत्ति की रखवाली कर सके और खेती करने में उनकी मदद कर सके. इसलिए उन्होंने मेरी शादी अपनी बड़ी बहन के बेटे से कर दी.” यह शादी कामयाब नहीं रही. उनके पति उनके प्रति वफ़ादार नहीं थे और कभी-कभी उनके पास महीनों तक नहीं आते थे. और, जब वह आते थे, तब लिली की पिटाई करते थे. साल 2014 में किडनी के कैंसर से उनकी मौत हो गई. उनके दो बच्चे हैं - एक की उम्र 18 साल है और दूसरे की 14 साल. अब दोनों की परवरिश की ज़िम्मेदारी अकेले लिली पर है.
साल 2006 में, जब एससीएआरएफ़ ने उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में काम करने का प्रस्ताव दिया, उस समय तक लिली सिलाई का काम कर अपना गुज़ारा करती थीं, और हफ़्ते में 450-500 रुपए कमाती थीं, लेकिन उनकी यह कमाई ग्राहकों की संख्या पर निर्भर थी. वह बताती हैं कि स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता के रूप में उन्होंने काम करना इसलिए चुना कि इस काम में अच्छा वेतन मिलता था. कोविड-19 ने उनके 10,000 रुपए की मासिक आमदनी पर बुरा असर डाला. महामारी से पहले उनके बस किराये और फ़ोन रिचार्ज के ख़र्च का भुगतान संगठन द्वारा किया जाता था. वह कहती हैं, “लेकिन कोरोना के कारण दो साल तक बसों के किराए और मोबाइल के रिचार्ज के ख़र्चों का बोझ मुझे अपने 10,000 के वेतन से ही उठाना पड़ता था. यह बहुत मुश्किल था.”
चूंकि अब एनएमएचपी के अधीन एससीएआरएफ़ की सामुदायिक परियोजना का कार्यकाल समाप्त हो चुका है, इसलिए लिली को संगठन ने अपने डिमेंशिया वाले प्रोजेक्ट में काम पर रख लिया है. यह काम मार्च में शुरू हो चुका है और लिली को सप्ताह में एक दिन के लिए जाना पड़ता है. लेकिन, सिज़ोफ्रेनिया के रोगियों को उपचार मिल रहा है या नहीं, यह सुनिश्चित करने के लिए वह आज भी उन रोगियों को लेकर चेंगलपट्टु, कोवलम और सेम्बक्कम के सरकारी अस्पतालों में जाती हैं.
शांति, सेल्वी और लिली जैसी औरतें समाज के भीतर लोगों और समुदायों के स्वास्थ्य देखभाल के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. लेकिन, अब उन्हें 4-5 साल के अनुबंध पर काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है. एससीएआरएफ़ जैसे एनजीओ को तय समय तक चलने वाले परियोजना के हिसाब से अनुदान मिलता है, और इसी के हिसाब ये एनजीओ इन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को काम पर रख सकते हैं. एससीएआरएफ़ से जुड़ी पद्मावती कहती हैं, “राज्य स्तर पर एक व्यवस्था स्थापित करने के लिए हम सरकार से बात कर रहे हैं.” पद्मावती को भरोसा है कि ऐसा होने पर सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता लगातार और आसानी से काम कर सकेंगी.
अगर मानसिक स्वास्थ्य के उपचार का बजटीय आवंटन इतना कम नहीं होता, तो भारत में चीज़ें निश्चित रूप से भिन्न होतीं. साल 2023-24 में मानसिक स्वास्थ्य के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का बजटीय आकलन 919 करोड़ है, जो केंद्र सरकार के कुल स्वास्थ्य बजट का मात्र एक प्रतिशत है. इसका एक बड़ा हिस्सा - 721 करोड़ - बेंगलुरु के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान (निमहंस) के लिए चिन्हित कर दिया गया है. शेष राशि तेज़पुर के लोकप्रिय गोपीनाथ क्षेत्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान (64 करोड़ रूपये) और राष्ट्रीय दूरस्थ-मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (134 करोड़ रुपए) के लिए दे दी गई है. इसके अलावा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम, जो बुनियादी ढांचे और कर्मचारियों के विकास पर ध्यान देता है, को इस साल राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की ‘तृतीयक गतिविधियों’ के अंतर्गत शामिल किया गया है. और, इस स्तर पर मानसिक देखभाल के लिए राशि का आवंटन तय नहीं किया जा सकता है.
इधर मनमती में, लिली पुष्पम अब भी सामाजिक सुरक्षा का लाभ प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही हैं, जिसकी वह हक़दार हैं. वह कहती हैं, “अगर मुझे विधवा पेंशन के लिए आवेदन करना है, तो इसके लिए मुझे रिश्वत देनी होगी. मेरे पास उन्हें देने के लिए 500 या 1,000 रुपए नहीं हैं. मैं इंजेक्शन लगा सकती हूं, टेबलेट दे सकती हूं, और रोगियों की काउंसलिंग और उनकी दोबारा जांच भी करा सकती हूं. लेकिन मेरे इन तज़ुर्बों से एससीएआरएफ़ को छोड़ कर किसी को कोई लेना-देना नहीं है. मेरी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सिर्फ़ आंसू बहाना लिखा है. मैं बहुत हताश हूं, क्योंकि मेरी मदद के लिए कोई भी नहीं है.”
फ़ीचर फ़ोटो: शांति शेष की युवा दिनों की तस्वीर.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद