अपने पिता की पुण्यतिथि पर तिरुमूर्ति एक असामान्य भेंट चढ़ाते हैं: दस प्रकार के साबुन, नारियल के तेल की कई क़िस्में, और अपना सबसे क़ीमती उत्पाद: हल्दी पाउडर. साथ ही, सुंदरमूर्ति की माला चढ़ी तस्वीर के सामने लाल केले, फूल, नारियल, और एक जलता कपूर रखा है.
वह अपने फेसबुक पोस्ट में कहते हैं, "अप्पा के लिए इससे बेहतर श्रद्धांजलि क्या हो सकती है?" उनके पिता ने मंजल (हल्दी) की खेती छोड़ दी थी. लोगों के मना करने के बावजूद भी तिरु ने हल्दी की खेती करने का फ़ैसला किया. तिरु ने मुस्कुराते हुए कहा, “उन्होंने मुझे मल्ली (चमेली) उगाने की सलाह दी, क्योंकि इससे दैनिक आय होती है. जब मैंने मंजल लगाया, तो वे मुझ पर हंसे.” तिरु ने उन सभी को ग़लत साबित कर दिया. उनकी कहानी हल्दी की जीत की एक बेमिसाल कहानी है.
43 वर्षीय तिरुमूर्ति, तमिलनाडु के इरोड ज़िले के भवानीसागर ब्लॉक के उप्पुपल्लम गांव में, अपने बड़े भाई के साथ 12 एकड़ ज़मीन पर खेती करते हैं. वह मुख्य रूप से तीन फ़सलों की खेती करते हैं - हल्दी, केला, और नारियल. लेकिन वह उन्हें थोक में नहीं बेचते. उनका मानना है कि अगर क़ीमतों पर अपनी पकड़ न हो, तो थोक में बेचना व्यर्थ ही है. स्थानीय, राष्ट्रीय, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े व्यापारी, कॉरपोरेट कंपनियां, और सरकारें ही क़ीमतें तय करती हैं.
हल्दी के फलते-फूलते बाज़ार को देखते हुए भारत दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है. भारत ने साल 2019 में क़रीब 190 मिलियन डॉलर का निर्यात किया गया, जो वैश्विक व्यापार का 62.6 प्रतिशत है. इसके साथ ही, भारत हल्दी का आयात भी करता है. 11.3 प्रतिशत के साथ भारत विश्व में हल्दी का दूसरा सबसे बड़ा आयातक भी है. पिछले कुछ वर्षों में आयात में आए बड़े उछाल के कारण, देश के हल्दी उत्पादकों को नुक़सान का सामना करना पड़ रहा है.
घरेलू बाज़ार, जैसे इरोड की मंडियां, पहले से ही इन्हें निचोड़ रही हैं. हल्दी की क़ीमत बड़े व्यापारी और ख़रीदार तय करते हैं. जैविक उत्पादों के लिए कोई तरजीही क़ीमत नहीं है. बढ़ते समय के साथ, बाज़ार की अस्थिरता लगातार बढ़ती जा रही है. 2011 में, हल्दी की क़ीमत 17,000 रुपए प्रति क्विंटल थी. अगले साल, यह क़ीमत घटकर एक-चौथाई हो गई थी. साल 2021 में हल्दी की औसत क़ीमत तक़रीबन 7,000 रुपए प्रति क्विंटल रही.
अपनी चतुरता, दृढ़ता, और एक सोशल मीडिया अकाउंट की मदद से, तिरु ने गिरती हुई क़ीमत का एक सीधा समाधान खोज निकाला: क़ीमतवर्धन. हालांकि, उनकी इस कोशिश को व्यापक रूप से दोहराना संभव नहीं था, लेकिन यह तिरु की एक बड़ी उपलब्धि थी. वह बताते हैं, “एक नारियल जिसे सीधे खेत से 10 रुपए में हासिल किया जा सकता है, लेकिन मैं इससे तीन गुना अधिक कमाता हूं, क्योंकि मैं पहले इसका तेल निकालता हूं और फिर साबुन बनाता हूं. हल्दी की भी यही कहानी है. मैं हल्दी की खेती 1.5 एकड़ की ज़मीन पर करता हूं. अगर मैं इसे मंडी में 3,000 रुपए किलो बेचता हूं, तो मुझे हर किलो जैविक हल्दी पर लगभग 50 रुपए का नुक़सान होगा."
खेती का जैविक तरीक़ा चुनने का मतलब है कि उनकी उत्पादन लागत, रासायनिक आधारित कृषि करने वाले किसानों की तुलना में बहुत अधिक होती है. फिर भी, वह अपने पड़ोसियों की तुलना में काफ़ी अच्छी खेती कर रहे हैं.
इरोड की सत्यमंगलम पहाड़ियों की तलहटी में, उनका खेत देहात की एक बेहतरीन परिभाषा गढ़ता है: अपने ऊपर बारिश वाले बादलों की छाया लिए, बैंगनी पहाड़ियों की एक पंक्ति, खेतों के पीछे खड़ी दिखती है. उनके हल्दी के पौधे अच्छे-ख़ासे लंबे हैं, उनकी चौड़ी पत्तियां हल्की बारिश और अक्टूबर की धूप, दोनों में नहाई हुई हैं. बया (टेलरबर्ड) चिड़िया, खेतों की सीमा पर लगाए गए नारियल के पेड़ों पर घोंसला बनाती हैं; वे ऊंचे स्वर में चहकती हैं, और उसके पत्तों के चारों ओर दौड़ लगाती हैं. यह इतना प्यारा दृश्य है कि थोड़ी देर के लिए किसान के रूप में उनके संघर्षों से ध्यान खींच लेता है. बाद में, वह अपने गुलाबी दीवारों वाले घर की ग्रे रंग की सीमेंट वाली फ़र्श पर अपनी गोद में चार साल की बिटिया को लिए धीरे-धीरे सावधानी से इस बारे में बात करते हैं. उनकी बिटिया की चांदी की पायल से चल, चल, चल की संगीतमय आवाज़ आती रहती है...
वह कहते हैं, “मैं हल्दी से तभी मुनाफ़ा कमा सकता हूं, जब मैं इसे अपने ग्राहकों को आधा किलो और एक किलो के पैकेट बनाकर बेचूं. और इनसे बनने वाले साबुन, तेल, और दूध वाले पेय बेचूं.” दूसरे शब्दों में कहें, तो वह जो कुछ उगाते हैं उसकी क़ीमत बढ़ा देते हैं. हल्दी की खेती करने वाले दूसरे किसानों की तरह ही, वह अपनी फ़सल को बड़ी मेहनत से उबालते, सुखाते, और पॉलिश करते हैं. लेकिन बाक़ी किसान अच्छी क़ीमत की उम्मीद में इसे स्टोर करते हैं या मंडी में बेचते हैं, तिरु अपनी उपज को गोदाम में रख देते हैं.
इसके बाद, वह छोटे-छोटे खेप में हल्दी की 'गांठ (कंद)' और 'लट्ठों' का पाउडर बनाते हैं. थोड़ी और रचनात्मकता का इस्तेमाल करके, वह इससे सौंदर्य प्रसाधन (ब्यूटी प्रॉडक्ट) और मिश्रित दुग्ध पेय बनाते हैं, और उन्हें प्रति किलो पर 150 रुपए की अतिरिक्त आमदनी हो जाती है.
वह बताते हैं, "लेकिन मैं सारे पैसों को अपने पास नहीं रखता." वह इन पैसों को दोबारा अपनी प्रिय ज़मीन में लगा देते हैं. उनका खेत न केवल उनके परिवार का भरण-पोषण करता है, बल्कि क्षेत्र में रोज़गार के अवसर भी पैदा करता है. “सीज़न के दौरान, मेरे खेत में रोज़ाना पांच पुरुष और तीन महिलाएं काम करती हैं. हर व्यक्ति को क्रमशः 400 और 300 रुपए दिए जाते हैं, और इसके साथ ही उन्हें चाय और बोंडा [एक स्वादिष्ट स्नैक] दिया जाता है. मुझे याद है जब हल्दी की वार्षिक फ़सल की कटाई की लागत, आज की 40,000 रुपए प्रति एकड़ की लागत का केवल दसवां हिस्सा ही थी. जब मैं मज़दूरों से पूछता हूं, तो वे कहते हैं कि पेट्रोल 100 रुपए लीटर है, शराब का एक क्वार्टर [180 मिली] 140 रुपए में मिलता है…” यह बताते-बताते तिरु हंसने लगते हैं. हालांकि, इन सबसे हल्दी की क़ीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं होती है.
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बाजरे से भूसी निकालती औरतों का गीत,
खाने की तलाश में भटकते जंगली सूअरों को भगाने के लिए
रतालुओं और हल्दी की रखवाली कर रहे किसान बजाते ढोल,
ये सब आवाज़ें पहाड़ों में गूंजती हैं
संगम-युग की कविता मलइपाडु कडाम से निकल
लेखक चेंतिल नाथन का कहना है कि तमिलनाडु और हल्दी का रिश्ता 2,000 साल पुराना है. उन्होंने अपने ब्लॉग ओल्डतमिलपोएट्रीडॉटकॉम (OldTamilPoetry.com) पर ऊपर दी गई पंक्तियों का अनुवाद किया है. वह कहते हैं, " मलइपाडु कडाम , संगम साहित्य की 10 लंबी कविताओं में से एक है."
भारतीय रसोई के नायक, हल्दी (करक्यूमा लोंगा) का अदरक से गहरा रिश्ता है. ज़मीन के अंदर का प्रकंद, जिसमें हल्दी की गांठ और लट्ठे पैदा होते हैं, का इस्तेमाल व्यावसायिक रूप से किया जाता है. कटाई के समय इन गांठों और लट्ठों को अलग कर दिया जाता है. बेचने से पहले उन्हें साफ़ किया जाता है, उबाला, तथा सुखाया जाता है, और अंत में उन्हें पॉलिश किया जाता है. नीलामी में लट्ठों को अच्छी क़ीमत मिलती है.
खाद्य इतिहासकार केटी अचाया अपनी पुस्तक 'इंडियन फ़ूड: अ हिस्टोरिकल कम्पैनियन' में कहते हैं, हल्दी शायद देश की मूल निवासी है. वह कहते हैं, "इसके आकर्षक रंग और रंगाई की क्षमता ने हरिद्रा [इसका संस्कृत नाम] को देश में जादू और रिवाज़ों में एक महत्वपूर्ण स्थान दिया है." रोज़मर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले मसाले, मंजल का इस्तेमाल पूरे भारत में अलग-अलग व्यंजनों और संस्कृतियों में व्यापक रूप से किया जाता है. एक चुटकी हल्दी पाउडर भोजन को पूरी तरह अपने रंग में रंग देता है, भोजन को हल्का स्वाद देता है, और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार करता है. करक्यूमिन, चमकीले पीले रंग का रंगद्रव्य, इसके औषधीय गुणों, मुख्य रूप से एंटीऑक्सिडेंट और एंटीइ नफ्लेमेटोरी के तौर पर इस्तेमाल के लिए निकाला जाता है.
हमारी दादी-नानी ने वैज्ञानिकों से बहुत पहले ही इस बात का पता लगा लिया था कि यह किस तरह काम करता है. उन्होंने हल्दी और काली मिर्च को दूध के साथ गर्म किया, जिससे उसमें करक्यूमिन की जैव उपलब्धता बढ़ गई, और परिवार में किसी को सर्दी-ज़ुकाम होने पर उन्हें पीने को दिया. स्टारबक्स के पास अब 'गोल्डन टर्मरिक लाटे' की एक रेसिपी है, जिसे शायद मेरी दादी कभी लेने नहीं देतीं. इसे बनाने में जई का दूध, झाग बनाने की मशीन, और वेनिला का इस्तेमाल किया जाता है.
हल्दी को शुभ माना जाता है. दक्षिण में विवाहित महिलाएं अपने गले में हल्दी से रंगा हुआ धागा पहनती हैं. मंजल नीराटु विला ('हल्दी स्नान समारोह') युवावस्था की एक रस्म है. यह रस्म एक युवा लड़की के पहली माहवारी के आने पर अदा की जाती है (कभी-कभी इन समारोहों में बड़े फ्लेक्स बोर्ड और बहुत अधिक संख्या में लोग शामिल होते हैं). मंजल एक प्रसिद्ध एंटीसेप्टिक (रोगाणु रोधक) भी था, और खुले घावों और त्वचा के रोगों पर इसे पेस्ट के रूप में लगाया जाता था. पालतू जानवरों की देखभाल के सामान बनाने वाले ब्रैंड इसी वजह से अपने उत्पादों में इसका इस्तेमाल करते हैं.
जब अमेरिकी शोधकर्ताओं ने हल्दी का पेटेंट कराया, तो भारतीय वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने 1997 में 15,000 डॉलर की क़ीमत पर एक वकील को काम पर रखा और तर्क दिया कि चूंकि हमारे देश में सदियों से इसका इस्तेमाल घाव भरने के लिए किया जाता रहा है, इसलिए इसमें “पेटेंट के लिए ज़रूरी ‘नवीनता’ मानदंड का अभाव है.“ हल्दी के "विवादास्पद पेटेंट" को रद्द करने के लिए, सीएसआईआर ने संयुक्त राज्य पेटेंट और ट्रेडमार्क कार्यालय की मदद ली.
शिवाजी गणेशन ने ज़रूर हामी भरी होती. इस प्रसिद्ध अभिनेता ने ‘वीरापांडिया कट्टाबोम्मन’ नाम की साल 1959 की फिल्म में, उपनिवेश विरोधी नायक वीरापांडिया कट्टाबोम्मन की भूमिका निभाई थी. यह फ़िल्म अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार जीतने वाली पहली तमिल फ़िल्म थी, और गणेशन सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीतने वाले पहले तमिल अभिनेता थे. कट्टाबोम्मन का ज़बरदस्त डायलॉग बोलते हुए उन्होंने करों का भुगतान करने के ब्रिटिश आदेश को खारिज़ कर दिया था: "क्यों? क्या तुमने हल्दी पीसकर मेरे समुदाय की महिलाओं की सेवा की है?”
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"मैं अपने पिता की मेहनत की फ़सल काट रहा हूं."
तिरुमूर्ति, इरोड के हल्दी उत्पादक
उन्होंने अक्टूबर 2021 में सत्यमंगलम की हमारी दूसरी यात्रा के दौरान पारी को बताया कि जब वह केवल 18 साल के थे, तबसे उन्होंने आजीविका के लिए खेती शुरू की थी. हमारी पहली यात्रा हल्दी की फ़सल की कटाई के समय, इसी साल मार्च के महीने में हुई थी. वह लहराते हल्दी के पौधों के बीच हाथों में सफ़ेद धोती की छोर पकड़े चलते हुए, हमें अपनी यात्रा के बारे में बताते हैं.
"अप्पा उप्पुपल्लम चले गए, यह अम्मा का मूल स्थान है, और उन्होंने 70 के दशक में केवल दस या बीस हज़ार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से ज़मीन ख़रीदी. अब यह क़ीमत 40 लाख हो चुकी है. आप 10 एकड़ ज़मीन नहीं ख़रीद सकते!" दसवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ देने वाले तिरु ने, 2009 में एक जैविक किसान के रूप में काम करना शुरू कर दिया था. उस समय वह 31 वर्ष के थे.
हालांकि, खेती उनकी पहली पसंद नहीं थी. उन्होंने कई नौकरियां की. पहले उनके पास घर पर एक मलिहई कडई, यानी किराने की एक दुकान थी. उन्होंने पूर्व में एलंद वडई (मीठा और खट्टा बेर), तिनपंडम (जलपान का स्नैक), चावल, सिगरेट, बीड़ी, और दीपावली के दौरान पटाखे बेचे हैं. व्यापार के उत्साह के कारण उन्होंने कई तरह के काम किए. वह केबल टीवी सेवा प्रदाता भी थे, उन्होंने दूध भी बेचा, फिर वे बेंगलुरु में अपनी बड़ी बहन के पास चले गए. वहां उन्होंने एक दोपहिया सर्विस स्टेशन चलाया, ऋण देने वाली एक छोटी वित्त कंपनी में काम किया, और अंत में उन्होंने कार ख़रीदने और बेचने का काम किया. वह बताते हैं, "मैंने 14 वर्षों में छह नौकरियां कीं. यह बेहद मुश्किल समय था; मैंने जी-तोड़ संघर्ष किया.”
वह बेंगलुरु के दिनों को सबसे मुश्किल वक़्त, "नाई पडाधा पाडु" बताते हैं, और इसकी तुलना मोंगरेल (मिश्रित नस्ल का कुत्ता) की कठिनाइयों से करते हैं. उनकी कमाई थोड़ी सी थी, और वह एक दोस्त के साथ 6 x 10 फ़ुट के कमरे में किराए पर रहते थे. इस छोटी सी तंग जगह के लिए उन्हें 2,500 रुपए का भुगतान करना पड़ता था.
"जब मैं मार्च 2009 में सत्यमंगलम वापस आया, तो मैं खेती के पीछे पूरी लगन से जुट गया." उन्होंने अपने पिता द्वारा की जाने वाली गन्ने की खेती जारी रखी, और बाद में उन्होंने टैपिओका और प्याज की खेती भी शुरू कर दी.
वह आह भरते हुए बताते हैं, “मैंने ग़लतियां कीं और अपनी ग़लतियों से सीखा. साल 2010 में, प्याज के बीज की क़ीमत 80 रुपए किलो थी. कटाई के दौरान इसकी क़ीमत 11 रुपए तक गिर गई. मरण अडि [बहुत बड़ा आघात].” लेकिन दूसरी फ़सलों से उन्हें इस नुक़सान की भरपाई करने में मदद मिली. 2014 में - अपने पिता की मृत्यु के दो साल बाद, और अपने परिवार द्वारा मंजल की खेती छोड़े जाने के नौ साल बीत जाने के बाद - उन्होंने तय किया कि वह इसकी खेती फिर से करेंगे.
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कोई हल्दी से कमाई कर रहा है. ज़रूरी नहीं कि वह किसान ही हो...
इरोड के हल्दी उत्पादक किसान
पूरे तमिलनाडु में 51,000 एकड़ में हल्दी की खेती की जाती है और कुल उत्पादन 86,000 टन से अधिक का होता है. तमिलनाडु हल्दी उत्पादन में देश में चौथे स्थान पर है. इरोड ज़िला 12,570 एकड़ में मंजल की खेती के साथ, राज्य में सबसे आगे है.
तिरु की 1.5 एकड़ ज़मीन पर होने वाली हल्दी की खेती, उस सागर में एक बूंद की तरह है. उन्होंने जून 2014 में आधे एकड़ की ज़मीन पर मंजल उगाना शुरू किया, और अपने बाक़ी खेत में नारियल और केले की खेती करने लगे. जब हल्दी की उनकी एक टन की उपज हाथों-हाथ बिक गई, तो उन्हें लोगों का प्रोत्साहन मिला. लगभग एक तिहाई, यानी 300 किलो हल्दी का पाउडर उन्होंने 10 दिनों के भीतर ही अपने फेसबुक के संपर्कों के ज़रिए बेच दिया. उन्होंने अपने उद्यम को नाम दिया है - 'येर मुनई' - जिसका अर्थ है हल का फल, "क्योंकि यह एक ज़ोरदार उपकरण है." साथ ही, इसका लोगो भी शानदार है: एक आदमी, एक हल, और दो बैल. उनका यह प्रयास सफल रहा.
उत्साहित होकर उन्होंने अगले साल ढाई एकड़ में मंजल की खेती की, जिससे उन्होंने पांच हज़ार किलो की अच्छी उपज हासिल की, और महीनों तक उसके चार-बटा-पांचवें हिस्से के साथ अटके रहे. कोशिशों के बावजूद भी वह इसे जैविक उपज का प्रमाण नहीं दिला पाए. यह एक ऐसी मुश्किल प्रक्रिया है जो महंगी और थकाऊ है. अंत में हारकर उन्होंने इसे इरोड की एक बड़ी मसाला कंपनी को बेच दिया. उनसे उन्हें केवल एक थुंडु चीटु मिला, यानी हिसाब वाली एक छोटी पर्ची, जिस पर लिखा था: एक क्विंटल की क़ीमत 8,100 रुपए; और एक हफ़्ते बाद उन्हें उनकी क़ीमत के लिए राज्य से बाहर का एक चेक मिला जो 15 दिनों के बाद का था.
चेक भुनाने में तिरु को एक सप्ताह लग गया, और उस साल देश में नोटबंदी भी लागू हुई थी. वह कहते हैं, "2017 से मैं सावधान हो गया हूं, और केवल एक या डेढ़ एकड़ ज़मीन पर ही हल्दी की खेती करता हूं. और, हर दूसरे साल, मैं इसे परती छोड़ देता हूं, ताकि ज़मीन को 'आराम' दे सकूं."
जनवरी में, वह क्यारी और फ़सलें तैयार करना शुरू कर देते हैं. उस समय वे हर 45 दिनों के लिए बाजरे की दो क्यारियां लगाते हैं. नाइट्रोजन और पोषक तत्वों के स्तर को सही करने के लिए, खेत को फिर से जोता जाता है. वह बताते हैं कि इसके लिए उन्हें 15,000 रुपए ख़र्चने पड़ते हैं. इसके बाद, वह ड्रिप सिंचाई करते हैं, हल्दी के लिए क्यारी तैयार करते हैं, और इसके लिए उन्हें अतिरिक्त 15,000 रुपए ख़र्चने पड़ते हैं. उन्हें एक एकड़ में 800 किलो हल्दी के गांठों की ज़रूरत पड़ती है, जिसके लिए उन्हें प्रति किलो 40 रुपए के हिसाब से कुल 24,000 रुपए चुकाने पड़ते हैं. 5,000 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से श्रम शुल्क की लागत भी आती है. एक महीने में बाद, जब बीज अंकुरित होते हैं, तब वह उसमें बकरी के गोबर की दो टन खाद डालते हैं. उनका दावा है कि बकरी का गोबर गाय के गोबर से ज़्यादा कारगर होता है. इसमें क़रीब 14,000 रुपए का ख़र्च आता है.
फिर लगभग छह बार निराई-गुड़ाई की जाती है. हर निराई-गुड़ाई में क़रीब 10,000 रुपए की लागत आती है (30 या 35 महिलाएं प्रति एकड़ पर काम करती हैं, जिन्हें 300 रुपए प्रतिदिन का भुगतान किया जाता है). मार्च में, कटाई की लागत लगभग 40,000 रुपए पड़ती है, और यह एक "निश्चित अनुबंध" के तहत होता है. आमतौर पर, क़रीब 20 पुरुषों और 50 महिलाओं की टीम आती है. वे एक दिन में काम ख़त्म कर देते हैं. अगर फ़सल विशेष रूप से अच्छी होती है, तो वे 5,000 ज़्यादा मांगते हैं.
अंत में, ताज़ा हल्दी को उबाला जाता है, सुखाया जाता है, और पॉलिश किया जाता है. रिपोर्टर ने यह बात एक लाइन में लिख दी है, लेकिन इसके पीछे किसानों को कई दिनों तक गहन कुशलता के साथ मेहनत करनी पड़ती है, और उत्पादन लागत में क़रीब 65,000 रुपए और जुड़ जाते हैं. और जैसे-जैसे ख़र्च बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे हल्दी का वज़न कम होते-होते लगभग आधा हो जाता है.
दस महीने और 2,38,000 रुपए निवेश करने के बाद, उनके पास बेचने के लिए लगभग 2,000 किलो सूखी हल्दी (एक एकड़ की उपज) बचती है. उत्पादन लागत 119 रुपए प्रति किलो आती है. (अन्य किसान, जैसे कोडुमुडी के केएन सेल्लामुत्तु भी जैविक खेती में लगे हुए हैं, उनका अनुमान है कि कम समय और कौशल वाली विधियों के साथ, ज़्यादा उपज वाली क़िस्मों की खेती करके लागत को लगभग 80 रुपए प्रति किलो किया जा सकता है).
तिरु अपने हल्दी पाउडर की क़ीमत, बहुत सोच-समझकर तय करते हैं. वह पाउडर के प्रति किलो के लिए 40 रुपए, और पैकेजिंग व कूरियर का अतिरिक्त 40 रुपए शुल्क जोड़ते हैं.
थोक में, यानी 20 किलो तक ख़रीदने वाली दुकानें, इस पाउडर को 300 रुपए प्रति किलो के हिसाब से ख़रीदती हैं. खेत से निकलते ही लेने पर इसकी क़ीमत 400 रुपए प्रति किलो होती है, और जब इसे भारत के भीतर कहीं भेजा जाता है, तो यह बढ़कर 500 रुपए प्रति किलो हो जाती है. दूसरे ब्रैंड अपने जैविक मंजल की क़ीमत 375 रुपए प्रति किलो से ऊपर ही रखते हैं और क़ीमत सभी ख़र्चों के साथ 1,000 प्रति किलो तक चली जाती है. इरोड मंडी में, व्यापारी एक किलो सूखी हल्दी - 950 ग्राम पाउडर के रूप में - लेते हैं, तो उन्हें इसके लिए 70 रुपए चुकाने होते हैं. और वह इससे तीन गुना से भी ज़्यादा कमा सकते हैं.
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"दरांती, बंदूक या डंडों का इस्तेमाल किए बिना ही कॉरपोरेट्स
ने किसानों का बुरा हाल कर दिया है."
पीके देवासिगमणि, अध्यक्ष, भारतीय हल्दी किसान संघ
टीएफ़एआई के अध्यक्ष देवासिगमणि कहते हैं, "मैंने कोशिश की, लड़ाई लड़ी, लेकिन हल्दी की उचित क़ीमत तय नहीं करवा पाया." पारी ने उनसे अक्टूबर की एक बरसात से भीगी शाम को इरोड के पास स्थित उनके घर पर मुलाक़ात की. वह कहते हैं, “सरकारें कॉरपोरेट कंपनियों की ओर बढ़ रही हैं, और कॉरपोरेट्स ही सरकारें बना रहे हैं. जब तक यह बदल नहीं जाता, तब तक न केवल छोटे, हल्दी के किसानों, बल्कि किसी भी किसान का कोई भविष्य नहीं है...अमेरिका में भी ऐसा ही हुआ है. खेती मुनाफ़े का सौदा नहीं रह गई है. वे आपको वहां अंग्रेजी में बताएंगे, हम इसे यहां तमिल में कहते हैं.”
वह आगे कहते हैं, “कॉरपोरेट कंपनियों ने सामंती व्यवस्था की जगह ले ली है और अब वे ही आज के नए प्रभावशाली ज़मींदार हैं. वे बड़े पैमाने पर सैकड़ों टन की उपज को प्रोसेस कर सकती हैं. कुछ टन वाला छोटा किसान क़ीमत के मामले में उनसे कैसे मुक़ाबला कर सकता है?”
इरोड के पास स्थित पेरुनदुरई विनियमित बाज़ार के परिसर में, हर दिन होने वाली नीलामी हल्दी के किसानों का नसीब तय करती है. केवल हल्दी के व्यापार वाले इस बाज़ार में कई स्टॉकिंग (भंडारण) यार्ड हैं, जिसमें हज़ारों बोरियों को स्टोर किया जा सकता है, और इसमें एक ऑक्शन (नीलामी) वाला शेड भी है. 11 अक्टूबर को, जब पारी ने नीलामी में भाग लिया, तो लट्ठों वाली एक क्विंटल हल्दी की सबसे 'ऊंची क़ीमत' 7,449 रुपए थी और गांठ वाली हल्दी की क़ीमत 6,669 रुपए थी. व्यापारी हमेशा तय क़ीमत का अंत '9' से करते हैं. मार्केट सुपरवाइज़र अरविंद पलानीसामी बताते हैं कि अंक विद्या में विश्वास के कारण ऐसा किया जाता है.
हल्दी की 50 खेप के नमूने प्लास्टिक की ट्रे में रखे गए हैं. व्यापारी प्रत्येक ट्रे को देखते हैं, नमूनों को तोड़ते हैं, सूंघते हैं, यहां तक कि फर्श पर नमूनों को पटकते हैं! वे वज़न करते हैं और इसे अपनी उंगलियों के बीच मसलते हैं. वे विवरण लिखते हैं और फिर बोली लगाते हैं. एक प्रमुख मसाला कंपनी के ख़रीद विभाग के सी. आनंदकुमार ने बताया कि वह केवल "अच्छी गुणवत्ता" वाली हल्दी ही लेते हैं. आज उन्होंने इन 459 नमूनों में से 23 को चुना है.
हम अरविंद के साथ उनके ऑफ़िस में जाते हैं, जोकि मंडी के ठीक बगल में है. वहां अरविंद हमें बताते हैं कि इस बाज़ार का सालाना कारोबार 40 करोड़ रुपए का है. कोडुमुडी की एल. रसीना नीलामी शेड की सीमेंट से बनी सीढ़ी पर बैठी थीं. उन्हें प्रति क्विंटल के लिए केवल 5489 रुपए की पेशकश की गई थी. उस समय उनके पास 30 क्विंटल हल्दी थी.
उनके पास भंडारण की कोई सुविधा नहीं है, जिसके चलते उन्हें हमेशा अपनी फ़सल को सरकारी गोदाम में लाना होता है, जहां उन्हें प्रति दिन 20 पैसे प्रति क्विंटल देना पड़ता है. कुछ किसान अच्छी क़ीमत की उम्मीद में, चार साल तक इंतज़ार करते हैं. सात महीने और मंडी के पांच चक्कर लगाने के बाद, रसीना ने तय किया कि वह अपनी उपज नुक़सान उठाकर ही सही, बेच देंगी.
देवासिगमणि कहते हैं कि कोंगु बेल्ट के तमाम किसान - जिसमें इरोड, कोयंबटूर, और सलेम ज़िले के किसान शामिल हैं - कृषि को एक अतिरिक्त व्यवसाय के रूप में देखते हैं. "अगर वे केवल इस पर आश्रित होते हैं, तो उन्हें जीवन में काफ़ी संघर्ष करना पड़ता है."
क़ीमतों के आधार पर वह अनुमान लगाते हैं कि तमिलनाडु में हल्दी की खेती करने वाले 25,000 से 50,000 किसान हैं. वह हंसते हुए कहते हैं, “यदि एक क्विंटल हल्दी की क़ीमत 17000 रुपए हो जाए, तो किसानों की संख्या बढ़कर 5 करोड़ हो जाएगी. और जब क़ीमत घटकर 5,000 प्रति क्विंटल हो जाए, तो मुश्किल से 10,000 किसान बचेंगे."
देवासिगमणि का एक सुझाव है: खेती में विविधता लाएं. वह कहते हैं, "इतनी बड़ी मात्रा में हल्दी उगाना बंद कर देना चाहिए. अगर कम उत्पादन होता है, तो हमें अच्छी क़ीमत मिल सकती है."
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"बड़ी पैदावार वाली हाइब्रिड हल्दी के बजाय देशी क़िस्मों की
खेती करें."
तिरुमूर्ति, इरोड के हल्दी किसान
पिछले साल मार्च में उन्होंने अपनी दो टन फ़सल की कटाई की थी - हल्दी का भूरे रंग का ढेर, मुरझाए पत्तों से ढका पड़ा था. इसका इंतज़ार था कि उसे उबाला और सुखाया जाएगा. ऐसा नहीं है कि तिरु आधुनिकता के विरुद्ध हैं: बल्कि वह तो सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन, वह विरासत में मिली फ़सलों की क़िस्मों पर भी विश्वास करते हैं, और इस बात से ख़ुश हैं कि हल्दी की ' इरोड लोकल ' क़िस्म को भौगोलिक पहचान दी गई थी.
वह उन अनुसंधान संस्थानों की आलोचना करते हैं जो केवल पैदावार के बारे में सोचते हैं. अधिक उपज पर ध्यान देने से, सिर्फ़ रासायनिक उर्वरकों का ख़र्च बढ़ता है. वह कहते हैं कि नीति बनाने वालों को खेती का ज़मीनी ज्ञान सीखने की ज़रूरत है. "सरकार हमारी उपज को उचित क़ीमत पर बेचने में हमारी मदद क्यों नहीं कर सकती?" उनकी पत्नी और बिजनेस पार्टनर गोमती उनकी इस बात से सहमत हैं. वे दोनों सुझाते हैं, "कृषि विश्वविद्यालयों के छात्रों को हमारे खेत में आने और काम करने दें. अगर वे वास्तविक दुनिया की समस्याओं को नहीं देख पाएंगे, तो वे केवल संकर क़िस्मों के आविष्कार के बारे में ही सोचेंगे." इनकी शिकायत समझी जा सकती है. बड़े, चमकदार संकर क़िस्मों की क़ीमत जैविक उपज की क़ीमत से 200 रुपए प्रति क्विंटल ज़्यादा है, लेकिन इन्हें उगाने में रसायन का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता है.
जब उन्होंने खेती शुरू की, तो पैसों की कमी थी. हल्दी जैसी वार्षिक फ़सलों से कमाई की उम्मीद उसके अगले साल की जा सकती है. तिरु अब बैंक लोन भी नहीं ले सकते, क्योंकि उनके पिता ने पहले ही बैंक से मोटा क़र्ज़ लिया था, और इसके लिए तिरु जमानतदार थे. और वह अब भी पिता द्वारा लिया गया 14 लाख का लोन चुका रहे हैं. इसलिए उन्होंने "रेंडु रूपा वट्टी" (प्रति सौ रुपए पर दो रुपए - प्रति माह का ब्याज़) या सालाना 24 प्रतिशत की दर पर एक स्थानीय अनौपचारिक स्रोत से उधार लिया है.
“मेरे कुछ फेसबुक दोस्तों ने भी मुझे छह महीने के लिए, बिना किसी ब्याज़ पर पैसे उधार दिए. शुक्र है कि मुझे अब उधार लेने की ज़रूरत नहीं है. मैंने अपने दोस्तों के पैसे वापस कर दिए. लेकिन मैं अब भी अपने पिता के बैंक लोन को चुका रहा हूं." हालांकि, वह अब प्रतिमाह 50,000 रुपए कमाते हैं, जिसके लिए घर के तीन वयस्क (तिरु, उनकी मां, और गोमती) दिन में 12 घंटे तक काम करते हैं, लेकिन वे पारिवारिक श्रम की लागत पर ध्यान नहीं देते हैं.
जिस कमरे में तिरु मंजल का पाउडर बनाते हैं, वह हल्दी की गांठ को उठाते हुए उन्हें अपनी मुट्ठी में भर लेते हैं. वे चमकीले नारंगी-पीले के दिखते हैं और चट्टान की तरह सख़्त होते हैं. इतने कठोर कि पीसने वाली मशीन में डालने से पहले उन्हें ग्रेनाइट के मूसल में हाथ से पीसा जाता है. नहीं तो ये ग्राइंडर के धातु के ब्लेड को तोड़ देंगे.
उस कमरे से बहुत अच्छी खुश्बू आ रही है, ताज़ा पिसी हुई हल्दी की एकदम मादक और सुकून देने वाली खुश्बू. हर चीज़ पर सुनहरी धूल जमी हुई दिखती है: इलेक्ट्रिक ग्राइंडिंग मिल, स्विच बोर्ड; यहां तक कि मकड़ी के जाले पर भी हल्दी की धूल की छोटी-छोटी परतें जमी हुई है.
मरुधनी (मेंहदी) का एक बड़ा घेरा और उसके चारों ओर छोटी-छोटी बिंदु, तिरु की हथेली पर केसरिया रंग में छपे हैं. उनके हथेली के आगे का हिस्सा उनके कठिन, शारीरिक श्रम की कहानी बताता है. अपनी उपज से कुछ तैयार करने की उनकी असाधारण कोशिश, और काफ़ी ख़र्च करने के बावजूद असफल हो जाने वाले उनके प्रयोग के बारे में बाक़ी दुनिया अनजान ही रहती है. इस साल उनकी अदरक की फ़सल बर्बाद हो गई. लेकिन वह 40,000 रुपए के नुक़सान को सीख के तौर पर लेते हैं. जहां एक ओर वह मुझे इस बारे में बता रहे हैं, वहीं गोमती हमें गर्मागर्म भज्जी और चाय परोसती हैं.
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"हल्दी के महत्व को ध्यान में रखते हुए, इरोड ज़िले के भवानीसागर
में लगभग 100 एकड़ की ज़मीन पर हल्दी के लिए एक नया अनुसंधान केंद्र बनाने की योजना
है."
एमआरके पन्नीरसेल्वम, कृषि मंत्री, तमिलनाडु
अगर भारत अपनी उच्च गुणवत्ता वाली हल्दी को 93.5 रुपए प्रति किलो पर निर्यात करेगा , और फिर 86 रुपए प्रति किलो के हिसाब से हल्दी आयात करेगा , तो ऐसे में किसान सफल कैसे होंगे? 7 रुपए का अंतर न केवल भारतीय किसान को नुक़सान पहुंचाता है, बल्कि तेजी से बढ़ता आयात (चार साल पहले की तुलना में दोगुना) भविष्य में उचित क़ीमत मिलने की उम्मीदों को धूमिल कर देता है.
तमिलनाडु सरकार एक आधिकारिक आदेश में इस बात को स्वीकारती है: भारत हल्दी का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, लेकिन तमिलनाडु के कृषि मंत्री पन्नीरसेल्वम के शब्दों में, "अधिक करक्यूमिन कॉन्टेंट वाली दूसरी क़िस्मों के लिए" दूसरे देशों से हल्दी आयात करता है.
पिछले अगस्त में एक अलग कृषि बजट पेश करते हुए पन्नीरसेल्वम ने हल्दी के लिए एक नया अनुसंधान केंद्र बनाने के निर्णय की घोषणा की, जिसके लिए राज्य सरकार 2 करोड़ रुपए देगी. राज्य प्रभावी रूप से उन्नत क़िस्मों, क़ीमतवर्धन, और व्यावहारिक प्रशिक्षण देने का वादा करता है, ताकि "किसान हल्दी की खेती छोड़ किसी और फ़सल की खेती न करने लगें."
तिरुमूर्ति का अपना विचार एकदम सरल है. वह कहते हैं कि ग्राहक को बेहतरीन उत्पाद दें. “अगर मेरा उत्पाद अच्छा है, तो 300 लोग इसे ख़रीदेंगे, और 3,000 अन्य लोगों को बताएंगे. लेकिन अगर यह अच्छा नहीं है, तो वही 300 लोग 30,000 अन्य लोगों को बताएंगे कि यह ख़राब है." सोशल मीडिया और मौखिक प्रचार के सहारे उन्होंने केवल 10 महीनों में अपनी 3 टन मंजल की उपज बेच दी, औसतन लगभग 300 किलो प्रति माह. और इस दौरान उन्होंने महत्वपूर्ण सबक सीखे. एक, जैविक हल्दी के लिए थोक बाज़ार में कोई तरजीही क़ीमत नहीं है. और दूसरा, जब तक कोई किसान सीधे ग्राहकों को नहीं बेचता, उसे अच्छी क़ीमत का पता नहीं चलता.
तिरु हल्दी को दो तरह से तैयार करते हैं. एक तो प्रकंद को उबालने, सुखाने, और पाउडर बनाने का पारंपरिक तरीक़ा है. वह मुझे लैब के रिज़ल्ट दिखाते हैं, जिसके अनुसार इस विधि में करक्यूमिन की मात्रा 3.6 प्रतिशत होती है. दूसरी विधि अपरंपरागत है, जहां प्रकंद को काटा जाता है, धूप में सुखाया जाता है, और फिर पाउडर बनाया जाता है. इसमें करक्यूमिन की मात्रा 8.6 प्रतिशत तक हो जाती है. वह कहते हैं कि "अगर यह फ़ार्मा व्यवसाय में इस्तेमाल होना है, तो बात समझ में आती है. खाने में करक्यूमिन की अधिकता की ज़रूरत क्यों है?"
वह फ़सल कटाई के तुरंत बाद, ताज़ा हल्दी भी बेचते हैं. इसकी क़ीमत 40 रुपए प्रति किलो होती है (पैकेजिंग और डाक के ख़र्चे के साथ 70 रुपए). इसके अलावा, वह और गोमती मिलकर हर महीने हाथ से साबुन की 3,000 टिकिया बनाते हैं. वे कई जड़ी-बूटियों को कांटते-छांटते हैं और उसे मिलाते हैं, तथा उनसे नौ क़िस्म के साबुन बनाते हैं. इसमें दो तरह की हल्दी, एलोवेरा, वेटिवर, कुप्पमेनी, अरप्पु, शिकाकाई, और नीम शामिल हैं.
उनकी पत्नी उन्हें चिढ़ाती है: "लोग कहते हैं कि किसी को भी सामग्री की सूची न दें, लेकिन ये सबकुछ साझा कर देते हैं." तिरु ने फेसबुक पर हल्दी हेयर से डाई बनाने का तरीक़ा भी पोस्ट किया था. वह बनाने के तरीक़ा बेधड़क बता देते हैं. वह कहते हैं, "दूसरों को कोशिश करने दें, शुरुआती उत्साह को बनाए रखना कठिन होता है.”
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"एक किसान कभी भी सबसे अच्छी उपज नहीं खाता है. वह हमेशा वही
उपज खाता है जिसे कोई ख़रीदेगा नहीं. यह हमारे सभी उत्पादों के लिए भी उतना ही सच है.
हम विकृत आकार वाले केले खाते हैं; टूटे हुए साबुन ख़ुद इस्तेमाल करते हैं…”
टी. गोमती, इरोड की हल्दी किसान
तिरुमूर्ति और गोमती ने 2011 में अरेंज मैरिज की थी. वैसे तो वह पहले से ही एक जैविक किसान थे, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उपज से कुछ और भी बनाया जा सकता है. 2013 में, उन्होंने फेसबुक पर अपना अकाउंट बनाया. उन्होंने वहां एक पोस्ट साझा किया था, जिसने उन्हें सोशल मीडिया की शक्ति, गांवों और शहरों के बीच की दूरी, और अन्य बहुत सी चीज़ों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया था.
उनके नाश्ते की एक तस्वीर थी, जिसके कारण यह सब शुरू हुआ. लोगों ने रागी कली (रागी-बाजरा बॉल) की काफ़ी प्रशंसा की, जो तिरु की अपनी राय में बेहद सामान्य सा भोजन था. तिरु अपने पोस्ट पर मिले लाइक और कॉमेंट को देख बहुत ख़ुश थे. उत्साहित होकर, उन्होंने नियमित रूप से खेती के बारे में जानकारी पोस्ट करनी शुरू की. सबकुछ ऑनलाइन दर्ज था: जंगली घास को फ़सलों से निकालना, जैविक खाद डालना, और इसी तरह बहुत कुछ.
जब उन्होंने हल्दी की अपनी पहली फ़सल काटी, तो उसे ऑनलाइन बेच दिया. गोमती भी जल्द ही इस काम में शामिल होने लगीं. तिरु बताते हैं, "मेरे फ़ोन के व्हाट्सऐप पर साबुन, तेल, और पाउडर के ऑर्डर आते हैं, और मैं उसे भेज देता हूं." घरेलू काम के अलावा, 10 साल के बेटे नितुलन और 4 साल की बेटी निगलिनी का पालन-पोषण करते हुए, गोमती पूरी पैकिंग और शिपिंग का काम संभालती हैं.
कोविड के कारण लगे लॉकडाउन और उनके बेटे की ऑनलाइन कक्षाओं ने जीवन को मुश्किल बना दिया था. एक बार जब हम वहां मौजूद थे, तो बच्चे कांच की बोतलों में टैडपोल के साथ खेल रहे थे, जबकि उनका कुत्ता बड़ी दिलचस्पी के साथ उसके अंदर देख रहा था. दूसरी बार, वे एक स्टील पाइप के नाच रहे थे. गोमती आह भरते हुए कहती हैं, "यही, डंडे पर चढ़ना सीखा है इन्होंने."
गांव की एक महिला ने उनके सहायक के रूप में काम करना शुरू किया है. गोमती कहती हैं, “हमारे कैटलॉग में से, ग्राहक हमारे द्वारा उत्पादित 22 वस्तुओं में से किसी भी एक के बारे में पूछ सकते हैं. यह कोई आसान काम नहीं है.” वह घर भी चलाती हैं; व्यवसाय भी. और जितना बोलती हैं उससे ज़्यादा मुस्कुराती हैं.
तिरु पूरे दिन में कम से कम दस ग्राहकों को समझाते हैं कि क्यों वह अपना हल्दी पाउडर, स्थानीय बाज़ार में आसानी से मिलने वाले पाउडर से दोगुने दाम पर बेचते हैं. "मैं दिन में कम से कम दो घंटे तक लोगों को जैविक खेती, मिलावट, और कीटनाशकों के ख़तरों के बारे में बताता हूं." फेसबुक पर उन्हें क़रीब 30,000 लोग फॉलो करते हैं. जब वह फेसबुक पर कोई पोस्ट करते हैं, तो क़रीब 1,000 लोग इसे 'लाइक' करते हैं, और 200 लोग उस पर टिप्पणी करते हैं. वे सवाल भी पूछते हैं. "अगर मैंने उन्हें जवाब नहीं दिया, तो मैं उनकी नज़र में 'नकली' साबित हो जाऊंगा."
खेत पर उनका काम और फिर इस ई-व्यवसाय में (" पिछले महीने तक मुझे नहीं पता था कि इसे ई-व्यवसाय कहा जाता है!") इतनी मेहनत रहती कि उन्हें काम से एक दिन की छुट्टी लिए हुए भी पांच साल हो गए हैं. गोमती हंसती हुई कहती हैं, "शायद इससे भी ज़्यादा दिन हुए होंगे. वह ज़्यादा से ज़्यादा छह घंटे की छुट्टी ले सकते हैं. फिर उन्हें अपनी गायों, फ़सल, और लकड़ी के चेक्कु [तेल निकालने वाली मशीन] के लिए घर वापस आना ही पड़ता है. ”
जब कोई शादी होती है, तो उनकी मां उसमें जाती हैं, उनके बड़े भाई उन्हें अपनी कार ले जाते हैं. तिरु शादी में जाने के लिए समय नहीं निकाल पाते. वह मज़ाक़ करते हुए कहते हैं, "कोविड -19 के बाद, हम कुछ पैसे बचा पा रहे हैं. आमतौर पर, हमें समारोहों के लिए कोयंबटूर तक ड्राइव करके जाना पड़ता था. अब हम ईंधन पर ख़र्च होने वाले उन 1,000 रुपयों की बचत कर पाते हैं, क्योंकि फ़िलहाल इस तरह का कोई समारोह नहीं होता है.”
जब मज़दूर खेत में आते हैं, तो “अम्मा देखरेख करती हैं. मैं दूसरे ज़रूरी कामों में व्यस्त रहता हूं.” दोनों बार, जब मैं रिपोर्ट के लिए उनके घर पहुंची, गोमती रसोई या कार्यशाला में व्यस्त मिलीं. कार्यशाला, बैठक वाले कमरे के पीछे एक ऊंची छत वाली जगह है, जहां आलमारियों में कई तरह के साबुन रखे हुए दिखते हैं. उन पर साबुन के प्रकार और तारीख़ की जानकारी के साथ बड़े ही करीने से लेबल लगाया गया होता है. तिरु और गोमती दिन में कम से कम 12 घंटे काम करते हैं, और यह सिलसिला सुबह 5:30 बजे से शुरू हो जाता है.
उन्हें जड़ी-बूटियों और उनके गुणों के बारे में गहरा ज्ञान है, और वे तमिल में उनका नाम दोहराते हैं. गोमती बालों के लिए सुगंधित तेल भी बनाती हैं. इसके लिए, वह फूलों और जड़ी-बूटियों को कोल्ड-प्रेस्ड नारियल तेल में भिगोकर धूप में गर्म करती हैं. वह मुझसे कहती हैं, "हम ग्राहकों को भेजने से पहले हर उत्पाद का परीक्षण करते हैं."
तिरु कहते हैं कि अब पूरा परिवार इस व्यवसाय में लगा हुआ है. यह उनका अवैतनिक श्रम ही है जिनकी वजह से उनके उत्पादों की लागत कम रहती है.
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“अमूल दुग्ध उत्पादकों को उपभोक्ता क़ीमत का लगभग 80 प्रतिशत मिलता
है. दुनिया में कहीं भी इस मॉडल जैसा कोई दूसरा समकक्ष मौजूद नहीं है.”
बालासुब्रमण्यम मुत्तुसामी, स्तंभकार
औसत छोटे किसान, जो ज़मीन को पट्टे पर लेते हैं या ज़मीन (आमतौर पर दो एकड़ से कम) के छोटे टुकड़े के मालिक हैं, उनके लिए तिरु का मॉडल अपनाना मुश्किल हो सकता है. इसकी संभावना कम है कि वे तिरु की तरह ही सफल हो पाएं. ऑनलाइन तमिल न्यूज़ प्लैटफ़ॉर्म अरुनचोल के स्तंभकार और इरोड ज़िले के एक किसान परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले बालासुब्रमण्यम मुत्तुसामी का मानना है कि सहकारी मॉडल ही एकमात्र समाधान है.
वह उपभोक्ता द्वारा भुगतान की गई क़ीमत के प्रतिशत के रूप में किसान को मिलने वाली क़ीमत को अलग करके दिखाते हैं. दूध इस मामले में सबसे आगे निकल जाता है. अमूल का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं कि सहकारी मॉडल ऐसा ही करता है. हल्दी किसानों को, उपभोक्ता द्वारा 240 रुपए प्रति किलो के हिसाब से होने वाले भुगतान में से 29 प्रतिशत ही मिलता है. उनका कहना है कि अमूल दूध से किसान को, ग्राहक के किए भुगतान का क़रीब 80 फ़ीसदी मिलता है.
बालासुब्रमण्यम बताते हैं कि बड़े पैमाने पर किसानों को संगठित करना ही सफलता की कुंजी है. "व्यापार आपूर्ति शृंखला को ख़ुद चलाना और बिचौलियों को हटाना." वह मानते हैं कि सहकारी समितियों और किसान संगठनों में भी समस्याएं हैं. "उन्हें बेहतर तरीक़े से प्रबंधित करने की आवश्यकता है और यही आगे बढ़ने का एकमात्र तरीक़ा है."
तिरु ज़ोर देकर कहते हैं कि हल्दी की खेती से अच्छा लाभ कमाया जा सकता है, लेकिन केवल तभी, जब आप इसकी महत्ता बढ़ाएंगे. पिछले सात वर्षों में, उन्होंने नारियल तेल, केला पाउडर, कुमकुम (हल्दी से बना), और साबुन के अलावा 4,300 किलो हल्दी पाउडर का व्यापार किया है. वह बताते हैं कि अगर उनके पास ज़मीन नहीं होती, तो यह सब करना असंभव था. (जो इस बात की पुष्टि करता है कि क्यों उनका मॉडल अपनाना छोटे किसानों के लिए मुश्किल है.) “दस एकड़ में चार करोड़ ख़र्च होंगे! इसकी फंडिंग कौन करेगा?” उनका पूरा कारोबार ऑनलाइन है. उनके पास एक जीएसटी नंबर है, और वह गूगल पे, फ़ोन पे, पेटीएम, भीम, और अपने बैंक खाते के माध्यम से भुगतान लेते हैं.
2020 में, अभिनेता कार्तिक शिवकुमार के उलवन फाउंडेशन ने तिरु को जैविक खेती के लिए पुरस्कृत किया था और बतौर ईनाम एक लाख रुपए दिए थे. यह सम्मान उन्हें उत्पाद की महत्ता बढाने और सीधे उपभोक्ता को बेचने के लिए भी दिया गया था. तमिल अभिनेता सत्यराज, जो कोंगु क्षेत्र से ही आते हैं, ने उन्हें पुरस्कार प्रदान किया था.
हर साल, हर छोटी सफलता ही तिरु को और दृढ़ बनाती है. वह हार नहीं सकते. तिरु कहते हैं, "मैं किसी किसान के मुंह से 'नुक़सान' शब्द नहीं सुनना चाहता. मुझे इस काम को सफल बनाना ही है."
लेखक, इस रिपोर्ट को लिखने में मदद और आतिथ्य के लिए, कृषि जननी की संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी उषा देवी वेंकटचलम का धन्यवाद करती हैं.
इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.
कवर फ़ोटो: एम पलानी कुमार
अनुवाद: अमित कुमार झा