जसपाल, रमनदीप और उनकी दोस्तें एक सुर में अपने कोच से शिकायत करती हैं, “ये किसी और को जीता रहे, हमसे आगे दूसरी कोई लड़की नहीं थी.” अमृतसर से आईं लगभग दर्जन भर एथलीट, जो मैराथन में हिस्सा लेने के लिए 200 किमी की दूरी तय करके चंडीगढ़ आई थीं, साफ़ तौर पर ग़ुस्से में दिखाई दे रही थीं, जबकि सामने मंच से 5 किमी दौड़ की प्रथम उपविजेता के रूप में जसपाल कौर के नाम की घोषणा की जा रही थी. वे जानती थीं कि जसपाल दौड़ ख़त्म होने तक सबसे आगे थीं, फिर भी 5,000 रुपए के पहले नक़द पुरस्कार की घोषणा किसी और के लिए की गई.

जसपाल ने मंच पर जाकर प्रथम उपविजेता का पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया. इसके बजाय वह और उनकी कोच मंच और मंच से बाहर खड़े हर व्यक्ति के पास गईं, आयोजकों के निर्णय पर सवाल उठाया और उनसे अपनी बात कही. उन्होंने उनसे वीडियो फुटेज की मदद से सही विजेता का पता लगाने और अन्याय को दूर करने का अनुरोध किया. अंत में अपने कोच के कहने पर जसपाल ने दूसरा पुरस्कार स्वीकार कर लिया, जो फोम बोर्ड का बहुत बड़ा सा चेक था जिस पर 3,100 रुपए की राशि लिखी हुई थी.

एक महीने बाद अप्रैल 2023 में वह आश्चर्य से भर गईं जब उन्होंने देखा कि उनके खाते में 5,000 रुपए जमा किए गए हैं. हालांकि, जसपाल को इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया, और किसी स्थानीय अख़बार में इसकी सूचना भी नहीं दी गई थी. रनीजेन की नतीजों की वेबसाइट पर 5 किमी दौड़ के विजेता के तौर पर उनका नाम दिखाई  देता है, जिन्होंने अपनी दौड़ 23.07 मिनट में पूरी की. वह उस साल के पुरस्कार वितरण समारोह की तस्वीर में नहीं दिखती हैं. लेकिन जसपाल के पास अपने कई पदकों के साथ वह बड़ा सा चेक अब भी पड़ा है.

साल 2024 में अगले मैराथन में लड़कियों के साथ जाते समय इस रिपोर्टर को आयोजकों से पता चला कि उन्होंने वीडियो की फुटेज की जांच करने के बाद उस साल की दौड़ में जसपाल की प्रतियोगी को अयोग्य घोषित कर दिया था. उन्हें पता चल गया था कि लड़कियां सही कह रही थीं. प्रतियोगिता के दौरान नंबर टैग के साथ कुछ छेड़छाड़ की गई थी. इस बात के पता चलने पर समझ आया कि क्यों जसपाल को प्रथम विजेता की पुरस्कार राशि भेजी गई थी.

जसपाल के लिए नक़द पुरस्कार बहुत ज़रूरी हैं. अगर उन्होंने पर्याप्त पैसे बचा लिए, तो वह फिर से कॉलेज जा सकेंगी. दो साल पहले जसपाल ने एक निजी विश्वविद्यालय से ऑनलाइन बीए (आर्ट्स) में दाख़िला लिया था. वह बताती हैं, “लेकिन मैं अब तक एक सेमेस्टर से आगे नहीं बढ़ पाई हूं. मुझे परीक्षा में बैठने के लिए हर सेमेस्टर में लगभग 15,000 रुपए जमा करने पड़ते हैं. पहले सेमेस्टर में मैंने नक़द पुरस्कार [गांव के प्रतिनिधियों और स्कूल ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता जीतने पर जो नक़द पुरस्कार दिए थे] से मिले पैसे का इस्तेमाल फीस भरने के लिए किया. लेकिन उसके पास दूसरा सेमेस्टर पूरा नहीं कर पाई, क्योंकि मेरे पास पैसे नहीं थे.”

जसपाल (22) अपने परिवार में कॉलेज जाने वाली पहली पीढ़ी हैं और अपने गांव में मज़हबी सिख समुदाय की उन चंद महिलाओं में एक हैं जो कॉलेज की पढ़ाई कर रही हैं. मज़हबी सिख समुदाय पंजाब की अनुसूचित जातियों में सबसे ज़्यादा हाशिए पर है. जसपाल की मां बलजिंदर कौर (47) ने पांचवीं तक की पढ़ाई की है, वहीं उनके पिता बलकार सिंह (50) कभी स्कूल ही नहीं जा पाए. उनके बड़े भाई अमृतपाल सिंह (24 वर्षीय) को बारहवीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी, ताकि वह अपने पिता के काम में हाथ बंटा सकें. वह फ़िलहाल अपने गांव कोहाली में निर्माण मज़दूर के तौर पर काम करते हैं. जसपाल के छोटे भाई आकाशदीप सिंह (17) ने 12वीं की पढ़ाई पूरी कर ली है.

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जसपाल (बाएं) अपने पुरस्कारों को लोहे की आलमारी में सुरक्षित रखती हैं. दाईं तस्वीर में अपने परिवार के साथ हैं

परिवार की आमदनी इस बात पर निर्भर करती है कि दोनों मर्दों को कब और कितना काम मिल पा रहा है, जिसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता, जबकि इसी बीच उनके परिवार में दो और सदस्य जुड़ गए हैं: बड़े भाई की पत्नी और उनका बच्चा. जब उनके पास काम होता है, तो चीज़ें थोड़ी बेहतर नज़र आती हैं और वे महीने में 9,000-10,000 रुपए कमा लेते हैं.

जसपाल को मिलने वाले नक़द इनाम से अक्सर उनके कुछ ख़र्चे पूरे हो जाते हैं, जैसे प्रतियोगिताओं के प्रवेश शुल्क, यात्राओं का ख़र्च और कॉलेज की फ़ीस. वह खेल के कपड़े पहनकर मैदान में अभ्यास के लिए निकल रही हैं. वह कहती हैं, “जब हम प्रतियोगिता में भाग लेते हैं, तो हमें टी-शर्ट दिया जाता है लेकिन शॉर्ट्स, ट्रैकसूट पैंट और जूतों के लिए हमें अपने माता-पिता से पैसे मांगने पड़ते हैं.”

हम अपने आसपास युवा एथलीटों को देखते हैं, जिनमें से कुछ व्यायाम कर रही हैं, कुछ मैदान का धीरे-धीरे चक्कर लगा रही हैं और बाक़ी अपने कोच राजिंदर सिंह के आसपास दैनिक प्रशिक्षण के लिए इकट्ठा हुई हैं. सभी अलग-अलग गांवों से आई हैं. जसपाल पिछले सात सालों से 400 मीटर, 800 मीटर और 5 किलोमीटर की स्पर्धाओं में भाग ले रही हैं और कई पुरस्कार और पदक जीत चुकी हैं. जसपाल अपने गांव में कईयों की प्रेरणास्रोत हैं. उनके पदकों, प्रमाण-पत्रों और नक़द पुरस्कारों से प्रोत्साहित होकर ग़रीब परिवारों के कई लोग अपने बच्चों को प्रशिक्षण के लिए भेज रहे हैं.

हालांकि, जहां तक जसपाल का सवाल है, तो उन्होंने अब तक जितनी भी सफलता हासिल की है, वह उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में सहयोग के लिहाज़ से काफ़ी नहीं है. फ़रवरी 2024 से जसपाल अमृतसर के पास एक गौशाला में हिसाब-क़िताब रखने का काम कर रही हैं. उन्हें 8,000 रुपए प्रति माह देने का वादा किया गया है. वह बताती हैं, “मैंने अपने परिवार की आय में योगदान देने के लिए यह नौकरी की थी. लेकिन अब मुझे पढ़ने के लिए समय ही नहीं मिलता है.”

वह जानती हैं कि घर की ज़िम्मेदारियों के कारण नई नौकरी से मिलने वाला वेतन भी सेमेस्टर की फ़ीस भरने के लिए पर्याप्त नहीं है.

मार्च 2024 में उन्होंने एक बार फिर चंडीगढ़ में 10 किलोमीटर की दौड़ में भाग लेने का फ़ैसला किया. इस बार वह तीसरे नंबर पर आईं और 11,000 रुपए का नक़द पुरस्कार जीतने में कामयाब रहीं, जो अभी तक उनके खाते में जमा नहीं हुआ है.

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जसपाल निश्चित रूप से उन 70 एथलीटों के समूह में “स्टार” हैं जिन्हें राजिंदर सिंह छीना (60 वर्षीय) हरशे छीना गांव में मुफ़्त प्रशिक्षण दे रहे हैं. वह स्वयं 1500 मीटर प्रतिस्पर्धा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के एथलीट रह चुके हैं और अब एक दशक से भी ज़्यादा समय से हाशिए के समुदायों के लड़के व लड़कियों को प्रशिक्षण दे रहे हैं.

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जसपाल (बाएं) और मनप्रीत (दाएं) पंजाब के अमृतसर के हरशे छीना गांव के प्रशिक्षण मैदान में हैं

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कोच राजिंदर सिंह छीना अपने एथलीटों (बाएं) की टीम के साथ. कोच अपनी आयुर्वेदिक दवा की दुकान पर हैं, जहां वह दिन में कुछ घंटों के लिए मरीज़ों का इलाज करते हैं

राजिंदर सिंह छीना ने एक बार चंडीगढ़ में एक वरिष्ठ अधिकारी को पंजाब के ग्रामीण इलाक़ों में युवाओं में नशे की समस्या की आलोचना करते हुए सुना था. इस वाक़ए ने उन पर ऐसा प्रभाव डाला कि वह 2003 से छोटे-छोटे बच्चों को प्रशिक्षण देने लगे. अमृतसर के हरशे छीना गांव में कॉमरेड अच्छर सिंह छीना सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्मार्ट स्कूल के खेल के मैदान का ज़िक्र करते हुए उन्होंने बताया, “शुरू में मैं उन बच्चों को यहां इस मैदान में लेकर आया.” वह बताते हैं, “ये बच्चे स्कूलों में नहीं थे. ये मज़दूरों और हाशिए पर पड़े लोगों के बच्चे थे. मैंने इनका नाम स्कूल में लिखवाया और उन्हें प्रशिक्षण देने लगा. धीरे-धीरे ये सिलसिला आगे बढ़ने लगा.”

राजिंदर कहते हैं, “सरकारी स्कूलों में अब वंचित जातियों के कई बच्चे हैं. वे मेहनती और मज़बूत हैं. मैं यह सोचकर उनकी टीम बनाने लगा कि कम से कम उन्हें राज्य स्तर तक तो पहुंचना चाहिए. मेरे पास गुरुद्वारे में सेवा करने का समय नहीं था. मेरा मानना है कि अगर किसी के पास क्षमता हो, तो उसे बच्चों की पढ़ाई में मदद ज़रूर करना चाहिए.”

छीना गर्व के साथ बताते हैं, “मेरे पास कम से कम 70 एथलीट हैं, जिन्हें मैं प्रशिक्षण देता हूं. मेरे कुछ एथलीटों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है और अच्छी नौकरियां कर रहे हैं. कुछ प्रो कबड्डी लीग में खेल रहे हैं. हमें किसी से कोई सहायता नहीं मिलती. लोग आते हैं, बच्चों को सम्मान देते हैं, मदद करने का वादा करते हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता. हमसे जितना हो पाता है हम उतना करते हैं.”

उनके पास बीएएमएस की डिग्री है और वह अमृतसर के पास राम तीरथ में अपनी क्लिनिक चलाते हैं. उनका कहना है कि इससे होने वाली आय उनके घर और प्रशिक्षण से जुड़े ख़र्चों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है. “मैं खेल उपकरणों पर हर महीने 7 से 8 हज़ार रुपए ख़र्च करता हूं - जैसे बाधाएं, वज़न उपकरण, मैदान को चिह्नित करने के लिए चूना आदि. उनके तीन बच्चे हैं, जो अब बड़े हो चुके हैं और रोज़गार में लगे हुए हैं. उनके बच्चे भी समय-समय पर उनकी मदद करते हैं.

“मैं नहीं चाहता कि कोई बच्चा नशा करे. मैं चाहता हूं कि वे मैदान पर आएं, ताकि वो कुछ बन सकें.”

पंजाब की युवा महिला एथलीटों के कोच राजिंदर सिंह और उनकी टीम प्रशिक्षण से जुड़ी अपनी यात्रा के बारे में बात करते हैं

वीडियो देखें: 'पंजाब के गांवों की महिला एथलीटों का संघर्ष'

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हालांकि, जसपाल के लिए मैदान तक आना बड़ी हिम्मत की बात है, क्योंकि उनका गांव कोहाली वहां से 10 किमी दूर है. जसपाल का घर गांव के बाहरी इलाक़े में है जो ईंट का बना दो कमरों का एक मकान है. जसपाल अपने घर के सामने बैठी हैं और हमसे बात करते हुए कहती हैं, “मुझे दूरी के कारण समस्या होती है. हमारा गांव खेल के मैदान से बहुत दूर है. मुझे खेल के मैदान तक पहुंचने में 45 मिनट लगते हैं. मैं हर रोज़ 3:30 बजे उठती हूं. 4:30 बजे तक मैदान पहुंच जाती हूं. मेरे मां-बाप मुझे सावधान रहने के लिए कहते हैं, पर मुझे यहां कभी डर नहीं लगा. यहां पास ही में एक अखाड़ा है, जहां लड़के पहलवानी का अभ्यास करते हैं. उनके कारण सड़क काफ़ी खाली नहीं रहती. हम दो घंटे तक अभ्यास करते हैं और फिर सुबह 7:30 बजे तक घर लौट आते हैं.”

दो साल पहले उन्होंने अपने पिता की सेकंड हैंड बाइक चलाना सीखा था. तभी से वह कभी-कभी मोटरबाइक लेकर प्रशिक्षण मैदान आती हैं, जिससे वहां पहुंचने में उन्हें केवल 10 मिनट लगते हैं. लेकिन कई बार, उन भाग्यशाली दिनों में, जसपाल को प्रशिक्षण बीच में ही छोड़कर घर वापस लौटना पड़ता है, क्योंकि घर के लोगों को बाइक की ज़रूरत होती है. इस वजह से उन्हें कुछ प्रशिक्षण सत्र छोड़ने पड़े हैं.

कोच कहते हैं, "अभी भी कुछ गांव ऐसे हैं जहां सरकारी या निजी बस सेवा नहीं पहुंच पाई है. युवा एथलीटों को न केवल मैदान तक पहुंचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, बल्कि उनमें से कईयों को इस वजह से पढ़ाई में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.” आस-पास कोई कॉलेज न होना भी इस बात की एक बड़ी वजह है कि इन गांवों की कई लड़कियां 12वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं. जसपाल के गांव से सबसे नज़दीकी बस-स्टेशन उनके गांव के दूसरे छोर है. और जिस समय पर उन्हें मैदान पर पहुंचना होता है उस वक्त बस मिलना एक अलग समस्या है.

उसी गांव की एक और एथलीट रमनदीप कौर भी प्रशिक्षण में भाग लेने के लिए हर रोज़ दस किमी पैदल चलती हैं. वह बताती हैं, “कभी-कभी मैं पांच किमी पैदल चलती हूं और फिर कोमलप्रीत के साथ स्कूटी पर बैठकर मैदान पहुंचती हूं, जो चैनपुर गांव में रहती है. प्रशिक्षण के बाद मैं वापस पांच किमी पैदल चलती हूं.”

रमनदीप कहती हैं, “मुझे अकेले इधर-उधर जाने में डर लगता है, ख़ासकर कि अंधेरे में, लेकिन परिवार में किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह हर रोज़ मेरे साथ चल सके.” प्रशिक्षण और फिर उसके बाद हर रोज़ 20 किमी पैदल चलने से उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ा है. वह बताती हैं, “मैं हमेशा थकी हुई रहती हूं.”

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बाएं: जसपाल ने दो साल पहले मोटरसाइकिल चलाना सीखा था और कभी-कभार उन्हें प्रशिक्षण मैदान तक आने के लिए बाइक चलाने को मिल जाती है. दाएं: रमनदीप कौर (काली टी-शर्ट में) घर में अपनी मां और बहनों के साथ हैं, और बीते वर्षों में जीती हुई ट्रॉफ़ियां नज़र आ रही हैं

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रमनदीप ने अपनी पुरस्कार राशि की मदद से दौड़ते समय पहनने वाले जूते ख़रीदे थे

इसके अलावा, प्रशिक्षण के साथ ही उनका काम ख़त्म नहीं होता. रमनदीप (21) घरेलू कामों में भी हाथ बंटाती हैं, परिवार की एक गाय और एक भैंस की देखभाल करती हैं. घर के ठीक सामने 3-4 फीट चौड़े खड़ंजे के उस पार एक छोटी सी जगह है जहां वे अपने मवेशी रखते हैं.

रमनदीप भी मज़हबी सिख समुदाय से ताल्लुक़ रखती हैं. उनके परिवार में कुल दस सदस्य हैं और घर चलाने की ज़िम्मेदारी दो भाइयों पर है, जो मज़दूरी करते हैं. वह बताती हैं, “वे दोनों ज़्यादातर बढ़ई का काम करते हैं या फिर जो काम उन्हें मिलता है उसे करते हैं. जब उन्हें काम मिल जाता है, तो दोनों ही हर रोज़ कम से कम 350 रुपए कमा लेते हैं.”

साल 2022 में उन्हें 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी, क्योंकि उनके पिता की मौत हो गई थी. वह अफ़सोस के साथ बताती हैं, “हम पढ़ाई का ख़र्च नहीं उठा सकते थे.” उनका घर गांव के दूसरे छोर पर है, जो दो कमरे का एक मकान है, जिसकी दीवारें टूटी हुई हैं. रमनदीप कहती हैं, “मेरी मां को 1,500 रुपए विधवा पेंशन के तौर पर मिलते हैं, जिनसे वह मेरे खेलकूद के कपड़े ख़रीदती है.”

रमनदीप के जूते घिस चुके हैं, जिनका वह अभी भी इस्तेमाल कर रही हैं. अपने जूतों की तरफ़ इशारा करते हुए कहती हैं, “ये जूते मैंने तब ख़रीदे थे, जब मैंने एक दौड़ में 3,100 रुपए का नक़द इनाम जीता था. ये अब फट गए हैं. मैं फिर से दौड़ जीतूंगी और नए जूते ख़रीदूंगी.” रमनदीप के पास जूते हों या न हों, लेकिन वह अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए दौड़ में हिस्सा लेती हैं.

रमनदीप कहती हैं, “मैं पुलिस सेवा में एक सुरक्षित नौकरी पाने के लिए दौड़ रही हूं.”

और यही सपने चैनपुर गांव की कोमलप्रीत (15 वर्षीय), कोहाली गांव के गुरकिरपाल सिंह (15 वर्षीय), रानेवाली गांव की मनप्रीत कौर (20 वर्षीय) और सैंसरा कलां गांव की ममता (20 वर्षीय) भी देख रही हैं. इनमें से सभी कोच छीना से प्रशिक्षण ले रही हैं. इनमें से हर एक युवा एथलीट सामाजिक स्थिति में बदलाव के साथ-साथ सरकारी नौकरी के ज़रिए अपने पूरे परिवार की आर्थिक सुरक्षा भी चाहती हैं. लेकिन इन नौकरियों की प्रवेश परीक्षाओं को पास करना एक और बाधा दौड़ है.

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मैदान में प्रशिक्षण सत्र के दौरान कोमलप्रीत और मनप्रीत

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बाएं: युवा एथलीट गुरकिरपाल सिंह अपने जीते हुए पुरस्कार दिखा रही हैं. दाएं: कोच छीना युवा एथलीटों को प्रशिक्षण दे रहे हैं

खिलाड़ियों के लिए विशेष 3 प्रतिशत कोटा योजना के तहत राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर चैंपियनशिप ट्रॉफ़ी जीतना अनिवार्य है, जिसके लिए विभिन्न प्रकार के संसाधनों तक पहुंच की आवश्यकता होती है. इन सुविधाओं के अभाव में लड़कियां कड़ी मेहनत करती हैं और राज्य भर में होने वाले सभी मैराथनों में 5 किलोमीटर और 10 किलोमीटर की दौड़ में हिस्सा लेती हैं. उन्हें उम्मीद है कि वे जो पुरस्कार और पदक हासिल करती हैं उससे उन्हें पुलिस बल में नौकरी के लिए शारीरिक फिटनेस टेस्ट को पास करने में मदद मिलेगी, जिसका वे सपना देख रही हैं.

इन नौकरियों में मज़हबी सिखों को आरक्षण भी दिया जाता है. साल 2024 के राज्य भर्ती अभियान में पंजाब पुलिस में कांस्टेबलों के लिए 1,746 पदों पर भर्ती का विज्ञापन आया है, जिसमें से 180 पद अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं. और 180 में से 72 सीटें इस समुदाय की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं.

साल 2022 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट , जो पुलिस, न्यायपालिका, जेल और क़ानूनी सहायता जैसी प्रमुख न्यायिक संस्थाओं को बेहतर बनाने में हर राज्य की प्रगति का आकलन करती है, उसकी रैंकिंग से पता चलता है कि पंजाब 2019 और 2022 के बीच चौथे से बारहवें स्थान पर आ गया है, यानी कि इस दौरान पंजाब में न्यायिक तंत्र की स्थिति में गिरावट आई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि "चाहे जाति हो या लिंग, हर स्तर पर समावेशिता का अभाव है और सुधार की गति काफ़ी धीमी है. भले ही दशकों से इन मुद्दों पर गरमा-गरम बहस हो रही है, लेकिन अलग-अलग राज्य भले एक या दूसरी श्रेणी में निर्धारित आरक्षण को पूरा करते हों, पर इनमें से कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जो सभी तीन स्तरों पर आरक्षित पदों को भर पाए हों. न ही महिलाएं कहीं भी बराबरी के क़रीब हैं. जनवरी 2007 से लेकर जनवरी 2022 तक, पुलिस में महिलाकर्मियों की हिस्सेदारी 3.3 प्रतिशत से बढ़कर 11.8 प्रतिशत होने में पंद्रह साल लग गए हैं.” साल 2022 में पंजाब में महिला पुलिसकर्मियों की संख्या महज़ 9.9 प्रतिशत है.

जसपाल और रमनदीप दोनों ही पिछले साल से पंजाब पुलिस में कांस्टेबल पद के लिए आवेदन कर रही हैं. साल 2023 में वे दोनों पंजाबी में लिखित परीक्षा में शामिल हुईं, लेकिन सफल नहीं हो पाईं. रमनदीप कहती हैं, "मैं घर पर ही लिखित परीक्षा की तैयारी करती हूं.”

भर्ती अभियान के लिए 2024 के विज्ञापन में तीन चरणों वाली चयन प्रक्रिया में पहले चरण के रूप में कंप्यूटर आधारित परीक्षा का उल्लेख किया गया है. अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को इस परीक्षा में कम से कम 35 प्रतिशत अंक हासिल करने होंगे. तभी वह दूसरे चरण तक पहुंच पाएंगे जहां उन्हें शारीरिक जांच परीक्षा और शारीरिक माप परीक्षण से गुज़रना होगा. शारीरिक परीक्षणों में दौड़, लंबी कूद, ऊंची कूद, वज़न और ऊंचाई शामिल हैं.

PHOTO • Courtesy: NMIMS, Chandigarh
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एनएमआईएमएस, चंडीगढ़ द्वारा आयोजित मैराथन में रमनदीप (बाएं) और जसपाल (दाएं)

रमनदीप की मां अपनी बेटी के प्रदर्शन के लिए चिंतित हैं, क्योंकि उनके मुताबिक़ उनकी बेटी का खानपान ठीक नहीं है. वह भारतीय एथलेटिक्स महासंघ की पोषण संबंधी गाइडलाइंस के बारे में बहुत कम जानती हैं, जो युवा एथलीटों की पोषण और ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें सब्ज़ियां, फल, अनाज, कम वसायुक्त मांस, मछली, फलियां, और डेयरी खाद्य पदार्थ जैसे विविध आहार लेने की सिफ़ारिश करता है. वे इन सबका ख़र्च नहीं उठा सकते. मांस महीने में एक बार आता है. रमनदीप कहती हैं, “हमें उचित पोषण नहीं मिलता. बस रोटी या जो भी घर में पका हो बस वही मिलता है.” जसपाल कहती हैं, “घर में जो भी बनता है, वही खाते हैं, और साथ में भीगे चने खा लेते हैं.”

दोनों लड़कियों को इस साल विज्ञापन में बताए गए कंप्यूटर आधारित परीक्षा के बारे में कोई जानकारी नहीं है. जसपाल अपने पिछले अनुभव को याद करते हुए बताती हैं, "पिछले साल पंजाबी में लिखित परीक्षा हुई थी, कंप्यूटर आधारित नहीं. हमारे पास कंप्यूटर नहीं है.” पिछले साल जसपाल ने लिखित परीक्षा पास करने के लिए दो महीने की कोचिंग की थी, जिस पर उसने 3,000 रुपए ख़र्च किए थे.

इस साल के परीक्षा कार्यक्रम के अनुसार पहले चरण में पंजाबी भाषा के क्वालीफाइंग पेपर के अलावा एक और पेपर देना होगा. यह दूसरा पेपर उम्मीदवारों की सामान्य जागरूकता, मानसिक क्षमता, लॉजिकल रीजनिंग, अंग्रेजी और पंजाबी भाषा कौशल, डिजिटल साक्षरता और जागरूकता का परीक्षण लिया जाएगा.

जसपाल कहती हैं, “शारीरिक परीक्षण लिखित परीक्षा पास करने के बाद होगा. लेकिन जब आप लिखित परीक्षा पास ही नहीं कर पाओगे, तो शारीरिक परीक्षण की तैयारी करने का क्या मतलब रह जाता है?”

रमनदीप कहती हैं, “मेरे पास पिछले साल की किताबें हैं. इस साल भी मैंने पुलिस भर्ती के लिए फॉर्म भरा है.” वह उम्मीद और आशंका भरी आवाज़ के साथ कहती हैं, “देखते हैं.”

अनुवाद: देवेश

Arshdeep Arshi

அர்ஷ்தீப் அர்ஷி சண்டிகரில் இருந்து இயங்கும் ஒரு சுயாதீன ஊடகர், மொழிபெயர்ப்பாளர். நியூஸ்18 பஞ்சாப், இந்துஸ்தான் டைம்ஸ் ஆகியவற்றில் முன்பு வேலை செய்தவர். பாட்டியாலாவில் உள்ள பஞ்சாபி பல்கலைக்கழகத்தில் ஆங்கில இலக்கியத்தில் எம்.ஃபில். பட்டம் பெற்றவர் இவர்.

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Editor : Pratishtha Pandya

பிரதிஷ்தா பாண்டியா பாரியின் மூத்த ஆசிரியர் ஆவார். இலக்கிய எழுத்துப் பிரிவுக்கு அவர் தலைமை தாங்குகிறார். பாரிபாஷா குழுவில் இருக்கும் அவர், குஜராத்தி மொழிபெயர்ப்பாளராக இருக்கிறார். கவிதை புத்தகம் பிரசுரித்திருக்கும் பிரதிஷ்தா குஜராத்தி மற்றும் ஆங்கில மொழிகளில் பணியாற்றுகிறார்.

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Translator : Devesh

தேவேஷ் ஒரு கவிஞரும் பத்திரிகையாளரும் ஆவணப்பட இயக்குநரும் மொழிபெயர்ப்பாளரும் ஆவார். இந்தி மொழிபெயர்ப்பு ஆசிரியராக அவர் பாரியில் இருக்கிறார்.

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