इलाज के लिए शरीर से ख़ून बहने देना, लगभग 3,000 वर्षों तक चिकित्सा का एक सामान्य तरीक़ा हुआ करता था.
हिप्पोक्रेट्स से शुरू हुई यह पद्धति बाद में चलकर मध्ययुगीन यूरोप में बहुत लोकप्रिय हुई. इसके पीछे एक विचार काम करता था कि शरीर में ख़ून, कफ़, काला पित्त, और पीला पित्त, यह चार तरह चीज़ें ऐसी हैं जिनमें असंतुलन किसी भी बीमारी का कारण बनता है. हिप्पोक्रेट्स के लगभग 500 साल बाद, गैलेन ने ख़ून को सबसे महत्वपूर्ण घोषित किया. सर्जिकल प्रयोगों पर आधारित इस विचार और तमाम दूसरे विचारों के साथ-साथ, अंधविश्वासों की वजह से भी अक्सर शरीर से ख़ून बहाया जाने लगा कि अगर रोगी को बचाना है, तो उसके शरीर से बेकार ख़ून बहा देना चाहिए.
ख़ून निकालने के लिए जोंक का उपयोग किया जाता था, जिसमें औषधीय गुणों वाला जोंक 'हिरुडो मेडिसिनलिस; भी शामिल था. हमें कभी पता नहीं चल पाएगा कि इन 3,000 वर्षों में इस तरीक़े से इलाज होने के कारण कितने लोगों की जान गई, कितने मनुष्यों का शरीर शवों में बदल गया जिन्हें अपनी वैचारिकी और भ्रम के चलते डॉक्टरों ने मौत के घाट उतार दिया. लेकिन, हम यह ज़रूर जानते हैं कि इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय के मरने से पहले अपना 24 औंस ख़ून निकलवाया था. जॉर्ज वॉशिंगटन के तीन डॉक्टरों ने उनके गले के संक्रमण का इलाज करने के लिए ख़ुद उनके अनुरोध पर काफ़ी मात्रा में ख़ून निकाला था, जिसकी वजह से उनकी जल्द ही मृत्यु हो गई थी.
कोविड-19 ने नवउदारवाद की एक बेहतरीन चीर-फाड़ की है, बल्कि पूरे पूंजीवाद को ही उघार कर रख दिया है. उसकी लाश सामने पड़ी है, चकाचौंध से भरी रोशनी में, हर नस, धमनी, उसके अंग और हड्डी हमारी ओर देख रही है. आप सारे जोंकों को देख सकते हैं – निजीकरण, कॉर्पोरेट आधारित वैश्विकता, धन का ज़्यादा से ज़्यादा संचय, असमानता का ऐसा स्तर जो हमारी स्मृति में कभी न देखा गया. सामाजिक और आर्थिक बुराइयों के लिए ख़ून बहाने का नज़रिया अपनाकर, समाज के मेहनतकश तबके से बेहतर जीवन जीने का उसका बुनियादी अधिकार छीना गया.
3,000 साल पुरानी यह चिकित्सा पद्धति 19वीं शताब्दी में यूरोप में अपने चरम पर पहुंच गई थी. 19वीं और 20वीं सदी के अंत में इसका इस्तेमाल कम होने लगा, लेकिन इसके सिद्धांत और व्यवहार अभी भी इकॉनमी, दर्शन, व्यवसायों, और समाज में अपनाए जा रहे हैं.
लाश के आस-पास मौजूद सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले सामाजिक और आर्थिक 'डॉक्टरों' में से कुछ हमारे सामने इसका विश्लेषण ठीक उसी तरह करते हैं जैसा मध्यकालीन यूरोप के डॉक्टर करते थे. काउंटरपंच के संस्थापक संपादक, दिवंगत अलेक्जेंडर कॉकबर्न ने एक बार लिखा था कि जब मध्ययुग के चिकित्सक मरीज़ को खो देते थे, तो वे शायद दुख से अपने सिर को हिलाते थे और कहते थे: “हमने पर्याप्त मात्र में उसका ख़ून नहीं बहाया.” विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने दशकों तक इस बात पर ज़ोर दिया कि सुधारों के चलते पैदा हुए ख़ौफ़नाक संकट, जो कुछ मौकों पर जनसंहार जैसी स्थितियों या भयावह क्षति में बदले, इस वजह से नहीं पैदा हुए थे कि उनके ‘सुधार’ का दूर तक प्रभाव हुआ, बल्कि इस वजह से हुए कि उनके सुधार को फैलने का मौका नहीं मिला. उनके अनुसार, वास्तव में इसके पीछे कारण यह है कि उपद्रवियों और बुरे लोगों ने इसे लागू नहीं होने दिया.
वैचारिक रूप से उन्मादियों ने यह तर्क दिया कि असमानता ऐसी भयानक चीज़ नहीं थी. इसने प्रतिस्पर्धा और व्यक्तिगत प्रयासों को बढ़ावा दिया. और हमें इस बात की ज़रूरत थी.
असमानता अब हर उस बहस के केंद्र में है जो मानवता के आने वाले वक़्त को लेकर चल रही है. सत्ता में बैठे लोगों को यह बात अच्छे से पता है.
पिछले 20 वर्षों से वे इस सुझाव की तीखी आलोचना कर रहे हैं कि असमानता का मानवता की समस्याओं से कोई लेना-देना है. इस सहस्त्राब्दी के शुरुआती सालों में, ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट ने सभी को असमानता पर बहस के ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी. कोविड-19 के दुनिया भर में फैलने से 90 दिन पहले, नवउदारवाद का भविष्यवक्ता कहे जाने वाली 'द इकोनॉमिस्ट' मैगज़ीन ने कुछ भविष्यवाणियां की थीं और एक कड़वा लेख छापा:
इनइक्वैलिटी इल्यूज़न्सः व्हाई वेल्थ एंड इनकम गैप्स आर नॉट व्हाट दे अपियर ( असमानता को लेकर भ्रम: धन और आय के बीच का अंतर जैसा दिखता है वैसा क्यों नहीं है)
यह पंक्ति टार्ज़न की इस पंक्ति के बाद की सबसे मशहूर पंक्ति कहलाने का माद्दा रखने वाली थी – “अंगूर की बेल को इतना फिसलन भरा किसने बनाया?”
आगे यह लेख आय और धन से जुड़े आंकड़ों की आलोचना करता है और उन आंकड़ों के स्रोतों पर सवाल उठाने की कोशिश करता है; “ध्रुवीकरण, झूठी ख़बरों और सोशल मीडिया की इस दुनिया में भी” ये हास्यास्पद मान्यताएं जारी हैं.
कोविड-19 ने स्थितियों की हमारे सामने एक प्रामाणिक चीर-फाड़ पेश कर दी है, और यह नवउदारवाद के फ़र्जी 'डॉक्टरों' के सभी दावों को पूरी तरह ख़ारिज करती है - हालांकि उनकी विचारधारा फिर भी मीडिया पर हावी है, और कॉर्पोरेट मीडिया कोरोना से हुए विनाश को पूंजीवाद से किसी भी तरह न जोड़ने के तरीक़ों को खोजने में व्यस्त है.
इस महामारी पर और मानवता के अंत की आशंका पर चर्चा करने को लेकर हम कितना तैयार हैं. नवउदारवाद और पूंजीवाद के अंत पर चर्चा करने से कितना कतराते हैं हम.
इस बात की बाट जोह रहे हैं सब कि हम कितनी जल्दी इस समस्या पर क़ाबू पा सकते हैं और “सामान्य स्थिति में लौट सकते हैं.” लेकिन चिंता की बात 'नॉर्मल' की तरफ़ न लौट पाना नहीं है.
पहले जो ‘सामान्य’ हुआ करता था, समस्या की जड़ वही है. (सत्ता की तरफ़ झुका एलीट वर्ग ही वाक्यांश ‘न्यू नॉर्मल’ को परिभाषित करने में लगा हुआ है).
कोविड से पहले का 'नॉर्मल' – जनवरी, 2020 में हमने ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट से जाना कि दुनिया के 22 सबसे अमीर मर्दों के पास अफ़्रीका की सभी महिलाओं की कुल संपत्ति की तुलना में अधिक संपत्ति थी.
दुनिया के 2,153 अरबपतियों के पास इस ग्रह की 60 प्रतिशत आबादी की संयुक्त संपत्ति से अधिक संपत्ति है.
‘न्यू नॉर्मल': वॉशिंगटन डी. सी. के 'इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिसी स्टडीज़' के अनुसार, अमेरिकी अरबपतियों ने कोविड महामारी के सिर्फ़ पहले तीन हफ़्तों में 282 अरब डॉलर कमा लिए. साल 1990 में उनके पास कुल धन 240 अरब डॉलर ही था.
यह एक ऐसा 'नॉर्मल' है जहां पर्याप्त खाद्य सामग्री होने के बावजूद दुनिया में अरबों लोग भूखे रहने पर मजबूर हैं. भारत में 22 जुलाई, 2020 तक, सरकार के पास 9.1 करोड़ मीट्रिक टन से अधिक खाद्यान्न का बफ़र स्टॉक मौजूद था और दुनिया में सबसे ज़्यादा भूखे लोग भी यहीं थे. यही 'न्यू; नॉर्मल'? सरकार उस अनाज में से बहुत कम मुफ़्त में बांटती है, लेकिन चावल के बहुत बड़े स्टॉक को इथेनॉल बनाने के लिए दे देती है, जिससे हैंड सैनिटाइज़र बनता है .
वही पुराना नॉर्मल, जब हमारे पास लगभग 5 करोड़ टन अनाज बफ़र स्टॉक में गोदामों में पड़ा था, और तब प्रोफ़ेसर जीन ड्रेज़ ने साल 2001 में इसे बहुत अच्छे ढंग से समझाया था कि "यदि हमारे सभी खाद्यान्न को बोरे में भरकर एक लाइन में लगा दिया जाए, तो वे 10 लाख किलोमीटर तक पहुंच जाएंगे, जो पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी का दोगुना है.” ‘न्यू नॉर्मल' – यह आंकड़ा जून, 2020 की शुरुआत में 104 मिलियन टन तक पहुंच गया. चंद्रमा तक पहुंचने के लिए दो सड़कें चाहिए? एक, अमीरों के लिए बना सुपरहाइवे और दूसरा, मज़दूरों के लिए गंदगी से भरा रस्ता, जिस पर चलते हुए वे उनकी सेवा करने पहुंचेंगे
यह 'नॉर्मल' ऐसा भारत था जहां 1991 से 2011 के बीच, 20 सालों में हर 24 घंटे में 2,000 किसान, किसान कहलाने का अधिकार खो बैठे. दूसरे शब्दों में कहें, तो 20 साल की इस अवधि में देश में पूर्णकालिक किसानों की संख्या में 1.5 करोड़ की गिरावट आई थी .
इसके अलावा, 1995 से 2018 के बीच 315,000 किसानों ने आत्महत्या कर ली, जैसा कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े (बहुत ही कम करके) बताते हैं. लाखों लोग या तो खेतिहर मजदूर बन गए या नौकरियों की तलाश में अपने गांवों से पलायन करने लगे, क्योंकि खेती से जुड़े दूसरे काम-धंधे भी चौपट हो गए.
'न्यू नॉर्मल': प्रधानमंत्री ने 1.3 अरब आबादी वाले देश को पूर्ण लॉकडाउन के लिए केवल चार घंटे का नोटिस दिया, और लाखों प्रवासी शहरों और कस्बों से अपने गांवों की ओर लौटने लगे. इनमें से कुछ तो हज़ार किलोमीटर से अधिक पैदल चलकर अपने गांवों तक पहुंचे, जहां उन्होंने अपने जीवित रह पाने की सर्वोत्तम संभावनाओं का सही अनुमान लगाया. उन्होंने इतना लंबा सफ़र मई के महीने और 43-47 डिग्री सेल्सियस तापमान के बीच पूरा किया.
'न्यू नॉर्मल' यह है कि लाखों लोग उन आजीविकाओं की तलाश में वापस लौट रहे हैं जिन्हें हमने पिछले तीन दशकों में नष्ट कर दिया.
सिर्फ़ मई महीने में लगभग 10 मिलियन लोग ट्रेन से लौटे – वह भी तब, जब सरकार ने बड़ी अनिच्छा से और लॉकडाउन के एक महीना पूरा होने के बाद ये ट्रेनें चलाईं. पहले से ही परेशान और भूखे, इन प्रवासी मजदूरों को सरकार के स्वामित्व वाली रेलवे को पूरा किराया देने पर मजबूर होना पड़ा.
'नॉर्मल' निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र था, जो इतना महंगा था कि सालों तक, संयुक्त राज्य अमेरिका में लोगों के दिवालिया होने की सबसे बड़ी संख्या, स्वास्थ्य पर किए खर्चे की वजह से पैदा हुई. भारत में, इस दशक में स्वास्थ्य सेवाओं पर किए खर्चे के कारण सिर्फ़ एक वर्ष में 5.5 करोड़ इंसान गरीबी रेखा से नीचे आ गए.
'न्यू नॉर्मल': हेल्थकेयर पर कॉर्पोरेट का और अधिक नियंत्रण. भारत जैसे देशों में निजी अस्पतालों की मुनाफ़ाखोरी , जिसमें कई अन्य चीजों के अलावा, कोविड के परीक्षण से पैसा कमाना भी शामिल है. इससे निजी नियंत्रण और भी बढ़ता जा रहा है – जबकि स्पेन और आयरलैंड जैसे कुछ पूंजीवादी राष्ट्रों ने सभी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया है. जैसे 90 के दशक की शुरुआत में स्वीडन ने सभी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, सार्वजनिक कोष से उनकी स्थिति में सुधार किया, और दोबारा उन्हें निजी हाथों में सौंप दिया; स्पेन और आयरलैंड भी स्वास्थ्य क्षेत्र के साथ ऐसा ही करने वाले हैं.
‘नॉर्मल' उस क़र्ज़ का बोझ था, इंसानों और देशों का, जो सिर्फ़ बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया. अंदाज़ा लगाएं कि ‘न्यू नॉर्मल' क्या होगा?
कई मायनों में, भारत में यह 'न्यू नॉर्मल' नहीं, बल्कि पुराना 'नॉर्मल' है. दैनिक व्यवहार में, हमारी सोच आज भी वैसी ही है कि ग़रीब ही वायरस फैलाते हैं, हवाई जहाज़ से यात्रा करने वाले नहीं, जिन्होंने दो दशक पहले संक्रामक बीमारियों का भी वैश्वीकरण कर दिया था.
करोड़ों भारतीय घरों में घरेलू हिंसा हमेशा ‘नॉर्मल’ ही थी.
ये ‘न्यू नॉर्मल' है? कुछ राज्यों के तो पुरुष पुलिस अधिकारी भी घरेलू हिंसा बढ़ने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं, जबकि ये घटनाएं पहले की तुलना में कहीं कम करके रिपोर्ट की जा रही हैं , क्योंकि लॉकडाउन के कारण ‘अपराधी' अब लंबे समय के लिए घर पर मौजूद रहता है.
नई दिल्ली के लिए ‘नॉर्मल' यह था कि उसने बहुत पहले बीजिंग को दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी वाला शहर कहलाने की दौड़ में हरा दिया था. वर्तमान संकट का चलते यह हुआ है कि दिल्ली में आसमान आजकल जितना साफ़ है वैसा दशकों में नहीं रहा, क्योंकि गंदी और ख़तरनाक औद्योगिक गतिविधियां रुक गई हैं.
‘न्यू नॉर्मल': स्वच्छ हवा का बेसुरा राग छेड़ना बंद करिए. महामारी के बीच में ही हमारी सरकार ने देश में कोयला ब्लॉकों की नीलामी की और उनका निजीकरण कर दिया, ताकि उसके उत्पादन में बड़े पैमाने पर वृद्धि हो सके.
हमेशा से 'नॉर्मल' यह था कि जलवायु परिवर्तन शब्द सार्वजनिक या राजनीतिक चर्चाओं से ग़ायब रहा. हालांकि, इंसान के किए जलवायु परिवर्तन ने बहुत पहले ही भारतीय कृषि को तबाह कर दिया था.
'न्यू नॉर्मल' भी पुराना 'नॉर्मल' ही है, बस स्टेरॉइड फ़ांके हुए है
भारत में एक राज्य के बाद दूसरे राज्य में, श्रम क़ानूनों को निलंबित कर दिया गया है या उनका उल्लंघन हो रहा है. श्रम क़ानून के मानक नियम – 8 घंटे का दिन – को राज्यों में समाप्त कर दिया गया है, इसे बढ़ाकर अब 12 घंटे का दिन कर दिया गया है. कुछ राज्यों में, इन अतिरिक्त चार घंटे के ओवरटाइम का भुगतान नहीं किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश ने संगठित या व्यक्तिगत विरोध की किसी भी संभावना का गला घोंटने के लिए, 38 मौजूदा श्रम क़ानूनों को भी निलंबित कर दिया है.
हेनरी फ़ोर्ड साल 1914 में 8-घंटे के दिन का नियम को अपनाने वाले शुरुआती पूंजीपतियों में से एक थे. फ़ोर्ड मोटर कंपनी ने अगले दो वर्षों में लगभग दोगुना मुनाफ़ा कमाया. उन लोगों को पता चला था कि आठ घंटे के बाद उत्पादकता में तेज़ी से कमी आती है. 'न्यू नॉर्मल': भारतीय पूंजीपति, जो अनिवार्य रूप से चाहते हैं कि अध्यादेश के ज़रिए बंधुआ मज़दूरी की घोषणा कर दी जाए. प्रमुख मीडिया संपादक आवाज़ लगा रहे हैं और “अच्छे संकट को बर्बाद न करने” का आग्रह कर रहे हैं. वह तर्क देते हैं कि आख़िरकार हमने उन कमीने कर्मचारियों को घुटनों के बल झुका दिया है. लाओ, अब जोंक को इनके ऊपर छोड़ दो. इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए यदि आपने ‘श्रम क़ानून में सुधार’ नहीं किया, तो यह पागलपन होगा
कृषि क्षेत्र में एक डरावनी स्थिति पैदा हो रही है. याद रखें कि तीसरी दुनिया के लाखों छोटे और सीमांत किसान पिछले 3-4 दशकों में नक़दी फसल उगाने लगे. और उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया, विश्व बैंक-आईएमएफ़ के गठजोड़ ने; जिसने उन्हें समझाया कि नक़दी फ़सलों का निर्यात होता है, उनका भुगतान हार्ड करेंसी में किया जाता है – आपके देश में डॉलर आएगा और आपको ग़रीबी से मुक्त कर देगा.
हम जानते हैं कि इसका नतीजा क्या हुआ. नक़दी फ़सल उगाने वाले छोटे किसान, ख़ासकर कपास की खेती करने वालों की संख्या आत्महत्या करने वाले किसानों में सबसे ज़्यादा है. सबसे ज़्यादा क़र्ज़ में डूबे हुए भी यही किसान हैं.
अब तो और भी बुरा हाल है. आम तौर पर मार्च-अप्रैल के आस-पास काटी जाने वाली रबी की फ़सल या तो बिना बिके पड़ी हुई है या तो लॉकडाउन के कारण खेतों में ही सड़ चुकी है. करोड़ों क्विंटल कपास, गन्ना, और अन्य फ़सलों सहित लाखों क्विंटल नक़दी फ़सलों का ढेर किसानों के घरों की छत पर लगा हुआ है (कम से कम कपास उगाने वालों के घर).
पुराना नॉर्मल: क़ीमतों के घातक उतार-चढ़ाव ने भारत और तीसरी दुनिया के नक़दी फ़सल उगाने वाले छोटे किसानों को असहाय बना दिया. न्यू नॉर्मल: चालू सीज़न की उनकी फ़सलें कौन ख़रीदेगा, जबकि उन्हें काटे महीनों बीत चुके हैं?
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के शब्दों में, “हम द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की सबसे गंभीर वैश्विक मंदी, और 1870 के बाद से आय में ज़बरदस्त कमी का सामना कर रहे हैं.” वैश्विक स्तर पर आय और खपत में भारी कमी से भारत अछूता नहीं है और इससे नक़दी फ़सल वाले किसानों को बहुत नुक़सान होगा. पिछले साल, कपास के निर्यात के लिए हमारा सबसे बड़ा बाज़ार चीन था. आज चीन के साथ हमारे संबंध पिछले कई दशकों में सबसे बुरे हैं और दोनों देश मुश्किल में हैं. भारत सहित कई देशों में कपास, गन्ना, वेनिला और अन्य नक़दी फ़सलों का जो ढेर पड़ा हुआ है उसे कौन ख़रीदेगा? और किस क़ीमत पर?
और अब जबकि इतनी सारी ज़मीन को नक़दी फ़सल के हवाले कर दिया गया है, ऊपर से भयंकर बेरोज़गारी है – ऐसे में यदि भोजन की कमी हुई तब आप क्या करेंगे? गुटेरेस चेतावनी देते हैं: “...हमें इतिहास के सबसे भयंकर अकाल का सामना करना पड़ सकता है.”
एक और बात जो गुटेरेस ने कोविड-19 के बारे में कही: “यह हर जगह की भ्रांतियों और झूठ को उजागर कर रहा है; यह झूठ कि बाज़ार सभी को स्वास्थ्य सेवाएं दे सकता है; यह कहानी कि मुफ़्त इलाज का विचार ग़लत है.”
नॉर्मल: भारत का एलीट वर्ग इंटरनेट पर अपनी प्रगति, सॉफ़्टवेयर महाशक्ति के रूप में हमारी उड़ान, कर्नाटक के बेंगलुरु में दुनिया की दूसरी सुपर सिलिकॉन वैली बनाने में अपनी दूरदर्शिता और प्रतिभा के बारे में डींग मारना बंद नहीं कर सकता. (और, पहली सिलिकॉन वैली के निर्माण में भारतियों का ही हाथ था). यह अहंकार लगभग 30 वर्षों से 'नॉर्मल' है.
बेंगलुरु से बाहर निकलकर कर्नाटक के ग्रामीण इलाक़ों में क़दम रखें और नेशनल सैंपल सर्वे द्वारा दर्ज की गई वास्तविकताओं को देखें: वर्ष 2018 में ग्रामीण कर्नाटक के सिर्फ़ 2 फ़ीसदी घरों में कंप्यूटर थे. (उत्तर प्रदेश, जिसका सबसे ज़्यादा मज़ाक उड़ाया जाता है, वहां पर यह संख्या 4 फ़ीसदी थी.) कर्नाटक के ग्रामीण इलाक़ों में महज़ 8.3 फीसदी घरों में ही इंटरनेट की सुविधा थी और 37.4 मिलियन इंसान या राज्य की 61 प्रतिशत गांवों में ही आबादी रहती है; जबकि बेंगलुरु, यानी दूसरी सिलिकॉन वैली में लगभग 14 प्रतिशत.
'न्यू नॉर्मल यह है कि कॉर्पोरेट कंपनियां ‘ऑनलाइन शिक्षा’ पर ज़ोर दे रही हैं, ताकि अरबों रुपये कमा सकें . वे पहले से ही धनवान थीं – लेकिन अब बहुत आसानी से अपनी संपत्ति को दोगुना कर लेंगी. समाज, जाति, वर्ग, लिंग, और क्षेत्र के आधार पर लोग पहले से ही वंचित थे, अब इस महामारी ने भेदभाव को वैध कर दिया है (बच्चों को सीखने से नहीं रोक सकते, ठीक है?). सबसे अमीर राज्य, महाराष्ट्र सहित भारत के ग्रामीण इलाक़ों में कहीं भी जाकर देख लीजिए कि कितने बच्चों के पास स्मार्टफोन है, जिन पर वे अपना पीडीएफ वाला ‘पाठ’ डाउनलोड कर सकते हैं. वास्तव में कितने लोगों के पास नेट की सुविधा है – और यदि है, तो उन्होंने आख़िरी बार इसका उपयोग कब किया था?
इस पर भी विचार करें: कितनी लड़कियां स्कूल से बाहर हो रही हैं, क्योंकि उनके दिवालिया, बेरोज़गार माता-पिता उनकी फ़ीस नहीं दे पा रहे हैं? आर्थिक तंगी के कारण लड़कियों को स्कूल से बाहर निकालना भी पुराना 'नॉर्मल' था, अब लॉकडाउन के कारण इसमें काफ़ी तेज़ी आई है.
महामारी से पहले का 'नॉर्मल' वह भारत था जिसे सामाजिक-धार्मिक कट्टरपंथियों तथा बाज़ार के कट्टरपंथियों के गठजोड़ से चलाया जा रहा था. विवाह के बाद ख़ुशहाल साथियों जैसा यह गठजोड़ कार्पोरेट मीडिया नामक बिस्तर पर मज़े लूट रहा था. कई नेता वैचारिक रूप से दोनों ख़ेमों में सहज महसूस कर रहे थे.
'नॉर्मल' तो 2 ट्रिलियन रुपये का मीडिया (और मनोरंजन) उद्योग था जिसने दशकों से प्रवासियों के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया, लेकिन 25 मार्च के बाद उन्हें पैदल चलता देख मंत्रमुग्ध और हैरान हो गया. किसी भी ‘राष्ट्रीय’ अख़बार या चैनल के पास श्रम से जुड़े मसलों के पूर्णकालिक संवाददाता नहीं थे, न ही पूर्णकालिक किसान संवाददाता (हास्यास्पद रूप से कहे जाने वाले ‘कृषि संवाददाता’ के विपरीत, जिसका काम कृषि मंत्रालय और तेज़ी से बढ़ते कृषि व्यवसाय को कवर करना है). इन दोनों मामलों के लिए पूर्णकालिक बीट मौजूद नहीं थी. दूसरे शब्दों में, 75 फ़ीसदी लोग ख़बरों से ग़ायब थे.
25 मार्च के बाद कई हफ़्तों तक, एंकरों और संपादकों ने इस विषय के जानकार होने का नाटक किया, भले ही किसी प्रवासी मज़दूर से कभी उनकी भेंट न हुई हो. हालांकि, कुछ लोगों ने खेद जताते हुए स्वीकार किया कि हमें मीडिया में उनकी कहानियों को बेहतर ढंग से बताने की ज़रूरत थी. ठीक उसी समय, कॉर्पोरेट मालिकों ने 1,000 से अधिक पत्रकारों और मीडियाकर्मियों को नौकरी से निकाल दिया, ताकि प्रवासी मज़दूर के बारे में किसी भी गहराई और स्थिरता के साथ कवर करने का एक भी अवसर बाक़ी न रहे. इनमें से बहुत से लोगों की छंटनी की योजना महामारी के काफ़ी पहले से ही बनाई जा रही थी. यह सब उन मीडिया कंपनियों द्वारा किया गया, जो सबसे ज़्यादा लाभ कमा रही हैं – जिनके पास नक़दी का विशाल भंडार है!
अब चाहे इस 'नॉर्मल' का जो भी नाम हो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, हर एक से बदबू आती है.
एक आदमी है, जो टीवी रियलिटी शो के सहारे देश चला रहा है. और, ख़ुद की तारीफ़ में कही गईं इन चिकनी चुपड़ी बातों को बाकी सारे चैनल अपने प्राइम टाइम में चलाते हैं. मंत्रिमंडल, सरकार, संसद, अदालतें, विधान सभा, विपक्षी दल, इन सब का कोई मतलब नहीं रह गया है. हमारी तकनीकी विशेषज्ञता हमें संसद के एक भी सत्र का एक भी दिन आयोजन करने में सक्षम नहीं बना पाई. न. लगभग 140 दिनों के लॉकडाउन में कोई वर्चुअल, ऑनलाइन, टेली संसद नहीं बैठी. अन्य देशों ने सहजता से ऐसा किया है, जबकि उनके पास हमारे जितने सक्षम तकनीकी दिमाग़ वाले रत्ती भर कहां हैं.
हो सकता है कि कुछ यूरोपीय देशों में, सरकारें कल्याणकारी राज्य के उन तत्वों को हिचकिचाहट के साथ या आंशिक रूप से पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही हों जिन्हें विखंडित करने में उन्होंने चार दशक लगा दिए. भारत में, हमारे बाज़ार के चिकित्सकों का ख़ून चूसने वाला मध्ययुगीन नज़रिया आज भी हावी है. लूटने और झपटने के लिए जोंक बाहर आ चुके हैं. अभी वे ग़रीबों का ख़ून पर्याप्त नहीं चूस पाए है. परजीवी कीड़ों को आख़िर वही करेंगे जिसके लिए वे पैदा किए गए हैं.
प्रगतिशील आंदोलन क्या कर रहे हैं? उन्होंने पुराने 'नॉर्मल' को कभी स्वीकार नहीं किया. लेकिन उनके पास वापस जाने के लिए ऐसा बहुत कुछ ज़रूर है जो पुराना है – न्याय, समानता, और गरिमा वाले जीवन के अधिकार के लिए संघर्ष, साथ ही साथ इस ग्रह का संरक्षण.
‘समावेशी विकास,’ एक मृत जोंक है जिसे आप पुनर्जीवित नहीं करना चाहिए. न्याय की स्थापना करनी है, और लक्ष्य है असमानता को ख़त्म करना. और प्रक्रिया – अलग-अलग रास्ते हैं, कुछ पहले से ही मौजूद हैं, कुछ का पता लगाना अभी बाक़ी है, और कुछ को छोड़ दिया गया है – लेकिन हम सभी को इसी प्रक्रिया पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
उदाहरण के लिए, यदि किसानों और खेतिहर मज़दूरों के आंदोलनों को जलवायु परिवर्तन (जिसने भारत में कृषि को पहले ही तबाह कर दिया है) से उत्पन्न समस्याओं का एहसास नहीं होता है या अगर वे कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र के नज़रिए के साथ अपने संघर्षों को नहीं जोड़ते हैं, तो एक बड़ा संकट सामने मंडराएगा. श्रमिक आंदोलनों को रोटी के सिर्फ़ एक बड़े टुकड़े के लिए लड़ने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि बेकरी का स्वामित्व हासिल करने के पुराने असामान्य प्रयास को भी जारी रखना चाहिए.
कुछ लक्ष्य साफ़ हैं: उदाहरण के लिए, तीसरे दुनिया के ऋण को रद्द करना. भारत के लिए अपनी चौथी दुनिया को[ क़र्ज़ से छुटकारा दिलाना ज़रूरी है.
कॉर्पोरेट एकाधिकार को ख़त्म करें. इसकी शुरुआत उन्हें स्वास्थ्य, खाद्य व कृषि, और शिक्षा के क्षेत्र से पूरी तरह हटाने से करें.
संसाधनों के जनता के बीच बराबर पुनर्वितरण के लिए राज्यों पर दबाव बनाने का आंदोलन; संपत्ति कर, भले ही यह सिर्फ़ शीर्ष 1 प्रतिशत के लिए हो. बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर टैक्स, जो लगभग कोई टैक्स नहीं भरती हैं. इसके अलावा, उन टैक्स प्रणालियों की बहाली और उनमें सुधार जिन्हें बहुत से देशों ने कई दशकों पहले ही ठीक कर लिया है.
केवल जन आंदोलन ही देशों को स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रव्यापी और सार्वभौमिक व्यवस्था का निर्माण करने के लिए मजबूर कर सकते हैं. हमें स्वास्थ्य, खाद्य को लेकर समानता के लिए जन आंदोलनों की ज़रूरत है – प्रेरणा देने वाले उदाहरण पहले से मौजूद हैं, लेकिन कॉर्पोरेट मीडिया के कवरेज में हाशिए पर हैं.
हमें अपने देश और दुनिया भर में, संयुक्त राष्ट्र के ज़रिए मिले उन मानवाधिकारों पर भी ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत है जिसे कॉर्पोरेट मीडिया ने सार्वजनिक बहसों से ग़ायब कर दिया है. जैसे कि अनुच्छेद 23-28 , जिसमें ‘ट्रेड यूनियन बनाने और उसमें शामिल होने का अधिकार,’ काम करने का अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन, पारिश्रमिक पाने का अधिकार जैसे मानवाधिकार शामिल हैं, जो गरिमापूर्ण जीवन और स्वास्थ्य को सुनिश्चित करते हैं. ऐसी और भी बहुत सारी मांगें की जा सकती हैं.
हमारे देश में, हमें भारतीय संविधान की राज्य नीतियों के तत्वों का प्रसार करने की आवश्यकता है – जिसमें काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार वगैरह शामिल हैं, जो न्यायसंगत और लागू करने योग्य हैं. ये नीतियां संविधान की आत्मा हैं जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम से हासिल हुई थीं. पिछले 30-40 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक से अधिक फ़ैसलों में कहा है कि ये निर्देश उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि मौलिक अधिकार.
लोग किसी भी व्यक्तिगत घोषणापत्रों की तुलना में, अपने संविधान और स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के साथ ज़्यादा जुड़े होते हैं.
पिछले 30 वर्षों में, भारत की हर एक सरकार ने उन सिद्धांतों और अधिकारों का हर दिन उल्लंघन किया है. नैतिक मूल्य मिटा दिए गए हैं और बाज़ार को थोप जनता पर दिया गया है. ‘विकास’ का विचार लोगों को बहिष्कृत करने, उनके जुड़ाव, भागीदारी और नियंत्रण को भी बहिष्कृत करने पर आधारित रहा है.
भविष्य के संकटों को तो छोड़ दीजिए, लोगों की भागीदारी के बिना आप वर्तमान महामारी से भी नहीं लड़ सकते. कोरोना वायरस का मुकाबला करने में केरल को सफलता इसलिए मिली, क्योंकि स्थानीय समितियों, सस्ते भोजन की आपूर्ति करने वाले रसोइयों के नेटवर्क के निर्माण, संक्रमण का पता लगाने, मरीजों को क्वारंटीन करने, संक्रमण को नियंत्रित रखने में स्थानीय लोग शामिल हुए. यह सब केरल में लोगों की भागीदारी के कारण संभव हो पाया. भविष्य में इस महामारी के ख़तरों से कैसे निपटा जाए, इसके लिए यह एक बड़ा सबक़ है.
न्याय और समानता में विश्वास ही हर प्रगतिशील आंदोलन का आधार है. भारतीय संविधान में ‘न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक…’ का ज़िक्र है, जिसमें हमें अब लैंगिक न्याय और पर्यावरण से जुड़े न्याय को भी जोड़ना चाहिए. संविधान ने ही बताया था कि न्याय और समानता को कौन ला सकता है. न बाज़ार, न कार्पोरेट कंपनियां, बल्कि ‘हम भारत के लोग.’
लेकिन सभी प्रगतिशील आंदोलनों के भीतर एक और सर्वव्यापी विश्वास घर करता है कि दुनिया एक तैयार उत्पाद की तरह नहीं होनी चाहिए, परिवर्तन आधारित होनी चाहिए, जिसमें कई असफलताएं और बहुत सारे अधूरे एजेंडे भी रहेंगे.
जून, 2020 में 97 साल के हो गए महान स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन भाऊ ने एक बार मुझसे कहा था, “हम स्वतंत्रता और आज़ादी, दोनों के लिए लड़े. हमें स्वतंत्रता हासिल हुई.”
आज जब हम उस स्वतंत्रता की 73वीं वर्षगांठ मनाने वाले हैं, तब आज़ादी के उस अधूरे एजेंडे के लिए लड़ना लाज़िमी है.
पहले यह लेख फ्रंटलाइन पत्रिका में छपा था.
अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़