दो बुलडोज़र दोपहर के वक़्त आए। “बुलडोज़र, बुलडोज़र... सर... सर...” विद्यालय के मैदान में खड़े बच्चे चिल्लाए। उनकी चीख सुनकर विद्यालय के कार्यालय से प्रधानाचार्य प्रकाश पवार और संस्थापक मतिन भोंसले भागते हुए आए।
“आप यहां क्यों आए हैं?” पवार ने पूछा। “हम राजमार्ग बनाने के लिए [कमरों को] गिराना चाहते हैं। कृपया किनारे हटिए,” बुलडोज़र के एक ड्राइवर ने कहा। “लेकिन कोई नोटिस नहीं दिया गया,” भोंसले ने इसका विरोध किया। “आदेश ऊपर [अमरावती के कलेक्टर के कार्यालय] से आया है,” ड्राइवर ने कहा।
विद्यालय के कर्मचारियों ने जल्दी से बेंच और (हरे) बोर्ड निकाले। उन्होंने मराठी में अम्बेडकर, फुले, गांधी, विश्व-इतिहास आदि पर लगभग 2,000 पुस्तकों के पुस्तकालय को खाली किया। इन सब चीज़ों को पास के छात्रावास में ले जाया गया। जल्द ही बुलडोज़रों ने धक्का दिया। एक दीवार ढह गई।
यह सब 6 जून को प्रश्नचिन्ह आदिवासी आश्रमशाला में 2 घंटे तक चला। अप्रैल के बाद ग्रीष्मकाल की छुट्टियों में छात्रावास में रहने वाले बच्चों ने अपनी कक्षाओं को गिरते हुए देखा। “तो हमारा विद्यालय 26 जून से शुरू नहीं होगा? वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?” उनमें से कुछ ने पूछा।
जल्द ही छप्पर की तीन कक्षाएं, चार पक्की कक्षाएं और पुस्कालय पूरी तरह गिरा दिये गए, जहां फांसे पारधी आदिवासी समुदाय के 417 बच्चे और कोरकू आदिवासी समुदाय के 30 बच्चे कक्षा 1 से 10 तक पढ़ते थे। इस मलबे में शिक्षा का संवैधानिक अधिकार भी दफन हो गया।
महाराष्ट्र सरकार के 700 किमी लंबे समृद्धि महामार्ग का रास्ता बनाने के लिए अमरावती जिले में इस विद्यालय को गिरा दिया गया। यह राजमार्ग 26 तालुकाओं में 392 गांवों से होकर गुज़रेगा। अमरावती में यह राजमार्ग तीन तालुकाओं के 46 गांवों से गुज़रेगा।
“हमारी मेहनत के सात साल बर्बाद हो चुके हैं,” 36 वर्षीय मतिन बताते हैं। उन्होंने आदिवासी बच्चों के लिए जिस विद्यालय की शुरुआत की, वह नंदगांव खंडेश्वर तालुका में एक सुनसान-संकरे रास्ते के पास स्थित है। महाराष्ट्र राज्य सड़क विकास निगम (MSRDC) द्वारा अमरावती के जिला कलेक्ट्रेट को जून 2018 में भेजे गए पत्र से सूचित किया गया कि “मुआवज़े का तो सवाल ही नहीं उठता है” क्योंकि विद्यालय सर्वेक्षण संख्या 25 की 19.49 हेक्टेयर की चरागाह की सरकारी ज़मीन पर बना था।
समृद्धि राजमार्ग 10 कमरों वाले दो मंज़िला छात्रावास को भी निगल जाएगा जो 60 लड़कियों और 49 लड़कों का घर है, यह आदिवासी फांसे पारधी समिति के स्वामित्व की तीन एकड़ ज़मीन पर बनाया गया है, जो विद्यालय को संचालित करता है (मतिन समिति के अध्यक्ष हैं)। छात्रावास और इसके दो शौचालय वाले हिस्से 2016 में एक मराठी अख़बार द्वारा चलाए गए समर्थन अभियान के बाद आई सार्वजनिक दानराशि से बने थे।
लेकिन सरकार इस तीन एकड़ में से लगभग एक एकड़ भी मांग रही है। अमरावती जिला प्रशासन द्वारा 11 जनवरी, 2019 को जारी किए गए एक नोटिस के अनुसार, सर्वेक्षण संख्या 37 में छात्रावास और ध्वस्त कक्षाओं के बीच स्थित 3,800 वर्ग मीटर (1 एकड़ लगभग 4,046 वर्ग मीटर के बराबर) के एक भूखंड की भी राज्यमार्ग बनाने के लिए आवश्यकता है। राज्य ने समिति को इसके लिए मुआवज़े के रूप में 19.38 लाख रुपये की पेशकश की है।
“यह राशि विद्यालय को पुनर्स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। भले ही कक्षाएं, पुस्तकालय और रसोई सरकारी ज़मीन पर बने थे, हमें क़ानून के अनुसार मुआवज़ा मिलना चाहिए,” मतिन ने मुझे फरवरी 2019 में बताया था। “हमने [3,800 वर्ग मीटर के लिए MSRDC के साथ] बिक्री विलेख पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। हमने अमरावती कलेक्ट्रेट के पास आपत्ति दर्ज कराई है और उनसे विद्यालय के लिए पहले वैकल्पिक भूमि प्रदान करने की मांग की है।”
मतिन ने अमरावती के कलेक्टर और मुख्यमंत्री को कई अन्य प्रार्थना-पत्र लिखे, 2018 में 50-60 बच्चों और विद्यालय कर्मचारियों के साथ कलेक्टर के कार्यालय तक तीन बार मार्च किया, फरवरी 2019 में एक दिन की भूख हड़ताल की – हर बार विद्यालय के पूरे भवन के लिए पर्याप्त भूमि समेत पूर्ण पुनर्वास की मांग की गई।
प्रश्नचिन्ह विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावक भी विध्वंस को लेकर चिंतित थे। विद्यालय से क़रीब 2 किमी दूर लगभग 50 झोंपड़ियों की फांसे पारधी बस्ती में 36 वर्षीय सुरनिता पवार ने अपने ईंट के घर के बाहर फलियां छीलते हुए मुझे बताया था, “मेरी बेटी सुरनेशा ने इस विद्यालय से कक्षा 10 तक शिक्षा प्राप्त की। अब वह पत्राचार से कक्षा 11 में पढ़ाई कर रही है,” सुरनिता अपनी बस्ती से लगे 3,763 लोगों के मंगरूल चावला गांव में खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करती हैं। विध्वंस के बाद जब मैंने उन्हें फोन किया, तो उन्होंने कहा, “मैंने सुना है कि कक्षाओं को तोड़ दिया गया है। सुरनेश [मेरा बेटा] वहां कक्षा 5 में है। वह गर्मी की छुट्टी में घर गया था। अब वह कहां जाएगा?”
उनके समुदाय फांसे पारधी एवं कई अन्य जनजातियों को, औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के अनुसार ‘अपराधी’ घोषित कर दिया गया था। 1952 में भारत सरकार ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया था और जनजातियों को विमुक्त कर दिया गया था। उनमें से कुछ अब अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणियों में शामिल हैं। (देखें कोई अपराध नहीं, लेकिन सज़ा अंतहीन )। जनगणना 2011 के अनुसार, महाराष्ट्र में लगभग 223,527 पारधी रहते हैं और इस समुदाय में पाल पारधी, भील पारधी और फांसे पारधी जैसे विभिन्न उप-समुदाय हैं।
उन्हें आज भी विभिन्न स्तरों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। “गांव वाले हमें काम नहीं देते,” सुरनिता कहती हैं। “इसलिए हमारे लोग अमरावती शहर या मुंबई, नासिक, पुणे, नागपुर में भीख मांगने जाते हैं।”
जैसा कि उनके पड़ोसी, 40 वर्षीय हिंदोस पवार ने किया था। उन्होंने एक दशक तक भीख मांगी, फिर कभी-कभार खेतों या कंस्ट्रक्शन साइट पर काम किया। “मैंने ज़िंदगी भर दुःख देखा है,” वह कहते हैं। “पुलिस हमें कभी भी पकड़ लेती है। यह आज भी हो रहा है और मेरे दादा के वक़्त भी हुआ करता था। कुछ भी नहीं बदला है। अगर हमारे बच्चे पढ़ाई नहीं करते हैं तो उनकी ज़िंदगी भी हमारी जैसी होगी।” उनका बेटा शारदेश और बेटी शरदेशा प्रश्नचिन्ह आदिवासी आश्रमशाला में कक्षा 7 और 10 में थे, जब मैं कुछ महीने पहले उनके परिवार से मिली थी।
हैदराबाद स्थित सामाजिक विकास परिषद द्वारा महाराष्ट्र के 25 जिलों में विमुक्त, घुमंतु और अर्ध-घुमंतु जनजातियों पर आधारित 2017 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 199 पारधी घरों में से 38 प्रतिशत घरों (सर्वेक्षण में 1,944 घर और 11 समुदायों को शामिल किया गया था) के बच्चों ने भेदभाव, भाषा अवरोध, विवाह और शिक्षा के महत्व के बारे में कम जागरूकता के कारण प्राथमिक शिक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी। सर्वेक्षण के दौरान 2 प्रतिशत लोगों ने बताया कि उन्हें पीछे की बेंच पर बैठाया जाता है, और 4 प्रतिशत ने कहा कि शिक्षकों का रवैया अपमानजनक था।
“जिला परिषद विद्यालय के शिक्षक हमारे बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते,” सुरनिता कहती हैं। 14 वर्षीय जिबेश पवार इस बात से सहमत हैं। “मैं जिला परिषद विद्यालय वापस नहीं जाना चाहता हूं,” वह कहते हैं। जिबेश 2014 तक यवतमाल जिले के नेर तालुका के अजंती गांव के जिला परिषद विद्यालय में कक्षा 5 मेँ पढ़ रहे थे। “शिक्षक मुझे पीछे बैठने के लिए कहते थे। दूसरे बच्चे मुझे पारधी, पारधी कहकर चिढ़ाते थे… गांव वाले हमें गंदा कहते हैं। हमारी झोंपड़ियां गांव के बाहर हैं। मेरी मां भीख मांगती हैं। मैं भी जाता था। मेरे पिता दो साल पहले मर गए।”
फिर जिबेश ने अपनी बस्ती से लगभग 17 किमी दूर प्रश्नचिन्ह आदिवासी आश्रमशाला में दाखिला लिया। उनकी बस्ती में पानी और बिजली नहीं है, इसलिए वह छात्रावास में रहते हैं। “मैं पढ़ना चाहता हूं और सेना में शामिल होना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरी मां भीख मांगे,” वह कहते हैं। उन्होंने कक्षा 9 तक की पढ़ाई पूरी कर ली है, लेकिन 10वीं कक्षा के महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंचने का उनका उत्साह अब चिंता में बदल गया है।
14 वर्षीय किरण चव्हाण भी धुले जिले के साकरी तालुका के जामडे गांव के जिला परिशद विद्यालय में पढ़ रहे थे। उनके मां-बाप दो एकड़ वन-भूमि पर धान और ज्वार की खेती करते हैं। “गांव वाले हमारे जिला परिशद विद्यालय जाने का विरोध करते हैं,” वह कहते हैं। “मेरे दोस्तों ने पढ़ाई छोड़ दी, क्योंकि दूसरे बच्चे उन्हें चिढ़ाते थे। हमारी झोपड़ियां गांव के बाहर हैं। जब आप गांव में घुसते हैं, तो वे कहते हैं, ‘देखो, चोर आ गए’। मुझे नहीं पता कि वो ऐसा क्यों कहते हैं। मैं चोर नहीं हूं। पुलिस अक्सर हमारी बस्ती में आती है और चोरी, हत्या के लिए किसी को भी उठा लेती है। इसलिए मैं एक पुलिस वाला बनना चाहता हूं। मैं निर्दोषों को परेशान नहीं करूंगा।”
यह सब भलीभांति जानने के बाद मतिन भोंसले ने सिर्फ़ फांसे पारधी बच्चों के लिए एक विद्यालय बनाने का फैसला किया। उन्होंने अपने परिवार की छः बकरियों को बेच और शिक्षक की कमाई की अपनी बचत से 2012 में 85 बच्चों के साथ इसकी शुरुआत की। विद्यालय तब उनके चाचा शानकुली भोंसले (जिनकी आयु अब 76 वर्ष है) द्वारा दी गई तीन एकड़ की भूमि पर एक फूस की झोंपड़ी में था। मतिन बताते हैं कि उनके चाचा ने सालों बचत कर 1970 में 200 रुपये में यह ज़मीन खरीदी थी। वह गोह, तीतर, खरगोश और जंगली सूअरों का शिकार कर उन्हें अमरावती शहर के बाज़ारों में बेचा करते थे।”
‘यह सब पारधियों के सवाल हैं – जिनके कोई जवाब नहीं हैं। इसीलिए यह प्रश्नचिन्ह आदिवासी आश्रमशाला है’
मतिन की पत्नी, सीमा विद्यालय चलाने में मदद करती हैं और उनके तीन बच्चे इसी विद्यालय में उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ते हैं, जो अमरावती, बीड, धुले, वाशिम और यवतमाल जिलों की फांसे पारधी बस्तियों से आते हैं। यहां पर शिक्षा, बच्चों और उनके परिवारों के लिए पूर्णतः मुफ्त है। विद्यालय के आठ में से चार शिक्षक फांसे पारधी समुदाय से हैं।
“फांसे पारधियों का न तो स्थाई घर होता है और न ही आय का कोई [सुरक्षित] साधन। वे चलते रहते हैं। वे भीख मांगते हैं, शिकार करते हैं या मज़दूरी करते हैं यदि कोई काम मिले तो,” मतिन बताते हैं। उनके पिता शिकार करते थे, उनकी मां भीख मांगती थीं। “बच्चे अक्सर रेलवे स्टेशन और बस स्टॉप पर अपने मां-बाप के साथ भीख मांगते हैं। वे शिक्षा और नौकरियों से वंचित रह जाते हैं। शिक्षा और स्थिरता उनके विकास के लिए ज़रूरी हैं। लेकिन पारधी बच्चों को वास्तव में आज भी जिला परिषद विद्यालय में नहीं लिया जाता है। उनके लिए शिक्षा का अधिकार कहां है? और महाराष्ट्र सरकार ने [आदिवासी बच्चों के लिए] पर्याप्त आवासीय विद्यालय नहीं बनाए हैं। वे कैसे प्रगति करेंगे? यह सब पारधियों के सवाल हैं – जिनके कोई जवाब नहीं हैं। इसीलिए यह प्रश्नचिन्ह आदिवासी आश्रमशाला है।”
अपने परिवार और समुदाय के सामने बाधाओं के बावजूद, मतिन ने 2009 में अमरावती के गवर्नमेंट टीचर्स कॉलेज से शिक्षा में डिप्लोमा पूरा किया। दो साल तक उन्होंने मंगरुल चावला गांव के जिला परिषद विद्यालय में एक शिक्षक के रूप में काम किया, जिस गांव के बाहर वह अपने माता-पिता और बहनों के साथ एक झोंपड़ी में रहते थे। उन्होंने बताया कि वह उसी विद्यालय में पढ़े और पढ़ाई नहीं छोड़ी क्योंकि एक शिक्षक उनके साथ खड़े रहे।
मतिन याद करते हैं कि 1991 में जब वह आठ साल के थे, “हम भीख मांगते थे या तीतर और खरगोश का शिकार करते थे। या मैं और मेरी तीन बड़ी बहनें गांव वालों का फेंका हुआ बासी खाना खाते थे। एक बार हमने [क़रीब] 5-6 दिनों तक कुछ भी नहीं खाया था। मेरे पिता हमें भूखा नहीं देख सके, तो उन्होंने किसी के खेत से ज्वार के 2-3 गट्ठर उठा लिए। मेरी मां ने ज्वारी आंबिल [कढ़ी] बनाकर हमारा पेट भरा। बाद में खेत के मालिक ने मेरे पिता के खिलाफ एफआईआर (थाने में पहली सूचना रिपोर्ट) दर्ज करा दी कि उन्होंने पांच क्विंटल ज्वार की चोरी की है। उनके दुखी दिल ने उनसे चोरी कराई, लेकिन 2-3 गट्ठरों और पांच क्विंटल में बड़ा अंतर है।”
उनके पिता शंकर भोंसले तीन महीने तक अमरावती जेल में रहे। मतिन कहते हैं कि वहां लोगों को वर्दी में देखकर उनके पिता को शिक्षा और ज्ञान की शक्ति का एहसास हुआ। “जेल में वह पारधी कैदियों से अपने बच्चों को पढ़ाने को कहते थे,” वह बताते हैं, और अपने पिता के शब्द याद करते हैं, ‘अगर ज्ञान और शिक्षा का दुरुपयोग निर्दोषों को परेशान कर सकता है तो सदुपयोग उनकी रक्षा भी कर सकता है’।
मतिन अपने पिता की बात मान कर शिक्षक बन गए। और फिर उन्होंने विद्यालय की स्थापना की। लेकिन सात साल बाद भी राज्य के विद्यालय शिक्षा विभाग और आदिवासी विकास विभाग को कई पत्र लिखने के बावजूद, यह विद्यालय सरकारी मान्यता व अनुदान के लिए संघर्ष कर रहा है।
2015 में मतिन ने आधिकारिक मान्यता और अनुदान नहीं दिए जाने को लेकर महाराष्ट्र राज्य बाल संरक्षण आयोग को एक शिकायत भेजी। आयोग ने राज्य को यह ज़िम्मेदारी याद दिलाई कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई, 2009) के तहत वंचित समूहों के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से रोका नहीं जाता है। इसमें कहा गया कि शिकायतकर्ता को विद्यालय चलाने और मान्यता प्राप्त करने का अधिकार है, भले ही विद्यालय के पास कानून द्वारा निर्धारित आवश्यक अवसंरचना और सुविधाएं हों।
“सरकार की यह ज़िम्मेदारी है कि वह जाति, वर्ग और धर्म के किसी भेदभाव के बिना हर बच्चे के लिए प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित बनाए। यही बात आरटीई में साफ़-साफ़ कही गई है। अगर सरकार ने वाक़ई इसका पालन किया होता, तो यह ‘प्रश्नचिन्ह’ न उठता। फिर जब कोई स्वयं की मेहनत से ऐसे विद्यालय की स्थापना करता है, तो सरकार उसे मान्यता भी नहीं देती है," अहमद नगर स्थित एक शिक्षा कार्यकर्ता, भाऊ चासकर कहते हैं।
“उस आदेश के चार साल बाद भी न तो आदिवासी विभाग और न ही शिक्षा विभाग ने कोई कदम उठाया है,” फांसे पारधी समुदाय से ही आने वाले प्रश्नचिन्ह विद्यालय के प्राध्यापक प्रकाश पवार कहते हैं। राज्य सरकार अनुदान से विज्ञान व कंप्यूटर लैब, पुस्तकालय, शौचालय, पीने के पानी की सुविधा, छात्रावास, शिक्षकों के वेतन और बहुत कुछ प्रदान कर सकती है। “यह सब हम सार्वजनिक दान से प्रबंधित करते हैं,” पवार बताते हैं।
दान कुछ निजी विद्यालयों द्वारा कॉपियों के रूप में, और राज्य के व्यक्तियों व संगठनों द्वारा किताबें (पुस्तकालय हेतु), राशन और धनराशि की शक्ल में आती है, जिससे आठ अध्यापकों के वेतन (3,000 रुपये प्रतिमाह) और 15 सहायकों के वेतन (2,000 रुपये प्रतिमाह) समेत अन्य व्ययों को प्रबंधित किया जाता है।
बाधाओं के बावजूद, क़रीब 50 बच्चों ने प्रश्नचिन्ह विद्यालय से 10वीं कक्षा तक पढ़ाई पूरी की और महाराष्ट्र के शहरों और क़स्बों में आगे की पढ़ाई कर रहे हैं। विद्यालय की लड़कियों की कबड्डी टीम ने 2017 और 2018 में तालुका और राज्य स्तर पर प्रतियोगिताएं जीती हैं।
लेकिन उनके सपनों के रास्ते में अब समृद्धि राजमार्ग है। “मुझे नहीं पता कि हम इस साल का बैच कैसे शुरू करेंगे। शायद हम छात्रावास के कमरों में कक्षा लेंगे,” पवार कहते हैं। “हमने भेदभाव, अस्वीकृति व मूलभूत सुविधाओं की कमी के ‘प्रश्नों’ का सामना किया है। जब हमें इसका जवाब ‘शिक्षा’ के रूप में मिला, तो आपने [महाराष्ट्र सरकार] हमारे सामने विस्थापन का यह नया 'प्रश्न’ खड़ा कर दिया है। क्यों?” मतिन गुस्से में पूछते हैं। “मैं सारे बच्चों को आज़ाद मैदान [दक्षिणी मुंबई] में भूख हड़ताल पर ले जाऊंगा। पुनर्वास का लिखित वादा जब तक नहीं मिलता, तब तक हम वहां से नहीं हटेंगे।”
अनुवाद: आनंद सिन्हा