उत्तर प्रदेश शिक्षक महासंघ और उससे जुड़े संघों की अद्यतन सूची के अनुसार, अप्रैल के महीने में उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में अनिवार्य ड्यूटी के बाद कोविड-19 से मरने वाले स्कूली शिक्षकों की संख्या अब 1,621 हो चुकी है — जिसमें 1,181 पुरुष और 440 महिलाएं शामिल हैं। पारी के पास यहां पूरी सूची है, हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में।
10 मई को, हमने एक स्टोरी छापी थी — उसे नीचे देखें — जिसमें विस्तार से बताया गया था कि यह मानव निर्मित आपदा कैसे हुई। राज्य चुनाव आयोग (एसईसी) और यूपी सरकार दोनों ने चुनाव स्थगित करने की बार-बार अपील करने वाली शिक्षक संघों की दलीलों को नजरअंदाज़ कर दिया था। उस समय, चुनावी ड्यूटी करने वाले और कोविड-19 से मरने वाले शिक्षकों की संख्या 713 थी — 540 पुरुष और 173 महिला स्कूल शिक्षक।
यह एक ऐसा राज्य है जहां सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में लगभग 8 लाख शिक्षक हैं — जिनमें से दसियों हज़ार को मतदान के लिए भेजा गया था। और चुनाव भी बहुत बड़े पैमाने पर हुआ था। 13 लाख उम्मीदवार 8 लाख सीटों के लिए मैदान में थे, और मतदाताओं की संख्या थी 13 करोड़। ज़ाहिर है, मतदान अधिकारियों (शिक्षकों और अन्य) को स्पष्ट रूप से लाखों मनुष्यों से संपर्क करना पड़ा, जबकि सुरक्षा की व्यवस्था बहुत कम थी।
यूपी के पंचायत चुनाव अतीत में टाले गए हैं — उदाहरण के लिए, सितंबर 1994 से अप्रैल 1995 तक। फिर “एक अभूतपूर्व महामारी और मानवीय संकट के बीच इतनी जल्दबाज़ी क्यों थी ?” राज्य के पूर्व चुनाव आयुक्त सतीश कुमार अग्रवाल पूछते हैं।
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस बात को ख़ारिज करते रहे हैं कि चुनाव कराने और स्कूली शिक्षकों तथा अन्य सरकारी कर्मचारियों की मौत के बीच कोई संबंध है। “क्या दिल्ली में कोई चुनाव था? क्या महाराष्ट्र में कोई चुनाव था?” उन्होंने 12 मई को नोएडा में पत्रकारों से पूछा था । इलाहाबाद हाईकोर्ट पर भी जिम्मेदारी डालने की कोशिश की गई है। जैसा कि सीएम आदित्यनाथ ने संवाददाताओं से कहा: “पंचायत चुनाव उच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार हुए थे।”
यह केवल आंशिक सत्य है। अदालत ने चुनाव स्थगित करने की मांग वाली याचिका को खारिज ज़रूर कर दिया था। यह एक निजी याचिका थी, राज्य द्वारा दायर नहीं की गई थी। (संवैधानिक आवश्यकता के अनुसार, पंचायत चुनाव 21 जनवरी, 2021 से पहले पूरे हो जाने चाहिए थे)। लेकिन अदालत ने आदेश दिया था कि चुनाव कोविड-19 प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन करते हुए कराया जाए।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 6 अप्रैल को कहा कि उसे विश्वास है कि राज्य सभी सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन करेगा और यूपी सरकार ने वास्तव में “चुनाव अभियान के दौरान पालन किए जाने वाले प्रोटोकॉल की घोषणा की थी ।” उसने आगे आदेश दिया कि “पंचायत राज चुनाव भी इस तरह से आयोजित किए जाने चाहिए कि लोगों का कोई जमावड़ा न हो। चाहे नामांकन हो, प्रचार हो या वास्तविक मतदान हो, यह देखा जाना चाहिए कि सभी कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन किया जा रहा है।” दूसरे शब्दों में, चुनाव “उच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार” नहीं हुए थे। अदालत के उन निर्देशों का उल्लंघन शिक्षकों के लिए विनाशकारी साबित हुआ, ऐसा उनकी यूनियनों का कहना है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखे गए शिक्षक संघों के नवीनतम पत्र में कहा गया है, “माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनवाई के दौरान भी, महासंघ ने अपने वकील के माध्यम से अपनी स्थिति स्पष्ट की थी। हालांकि, सरकारी वकील ने माननीय सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया था कि मतगणना के दौरान लोगों को कोविड संक्रमण से बचाने के दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन किया जाएगा।”
एक बहुत ही भावुक वाक्य में, पत्र में कहा गया है: “बड़े अफसोस की बात है कि न तो प्राथमिक शिक्षा विभाग और न ही उत्तर प्रदेश सरकार ने अब तक इतनी बड़ी संख्या में शिक्षकों की मौत पर कोई दुख व्यक्त किया है।”
26 अप्रैल को, अदालत ने एसईसी को उन प्रोटोकॉल का “अनुपालन न होने” के लिए नोटिस जारी किया, जिसमें चेहरे पर मास्क लगाना और सामाजिक दूरी अपनाना शामिल थे, जिनका “धार्मिक रूप से अनुपालन” करने की आवश्यकता थी। अगर सरकार या एसईसी अदालत के आदेशों से नाखुश थे, तो वे सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे पहले भी, मार्च के अंतिम सप्ताह में, राज्य ने यूपी में बड़े पैमाने पर होली समारोह के दौरान कोविड-19 प्रोटोकॉल को लागू करने के लिए कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया था।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 मई को कहा कि राज्य पंचायत चुनाव में ड्यूटी के बाद कोविड-19 के कारण मरने वाले मतदान अधिकारियों (शिक्षकों और अन्य सरकारी कर्मचारियों) के परिवारों को कम से कम 1 करोड़ रुपये की अनुग्रह राशि दे। जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और अजीत कुमार की खंडपीठ के शब्दों में: “यह कोई ऐसा मामला नहीं है कि किसी ने चुनाव के दौरान स्वेच्छा से अपनी सेवाएं प्रदान की हों, बल्कि ये उन सभी लोगों के लिए अनिवार्य बना दिया गया था जिन्हें चुनाव ड्यूटी के दौरान अपने कर्तव्यों का पालन करना था, भले ही उन्होंने अपनी अनिच्छा दिखाई हो।”
यह भी ध्यान देने योग्य है: देश में किसी भी अदालत ने उत्तराखंड या उत्तर प्रदेश की सरकारों को कुंभ मेले को एक साल आगे बढ़ाने का आदेश नहीं दिया यहा उनसे कहा नहीं। हरिद्वार में कुंभ मेला हर 12 साल में होता है और अगला 2022 में होने वाला था। फिर भी, कुंभ एक प्रमुख सामूहिक आयोजन था, जिसके कई दिन इस वर्ष पंचायत चुनावों की समान अवधि में पड़े थे। कुंभ को 2022 से 2021 में लाने की आवश्यकता के बारे में जोशीला ज्योतिषीय और धार्मिक तर्क दिया गया है। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव — जो अगले साल फरवरी-मार्च में होने हैं — से पहले कुंभ मेला और पंचायत चुनावों को ‘सफलतापूर्वक’ आयोजित कराने की राजनीतिक आवश्यकता पर बहुत कम चर्चा हुई है, जहां इन घटनाओं को, यदि वे पूरी तरह से विनाशकारी साबित नहीं हुई होतीं, महान उपलब्धियों के रूप में पेश किया जा सकता था।
इस त्रासदी पर पारी की ( 10 मई की) मुख्य स्टोरी:
यूपी पंचायत चुनाव में शिक्षकों की बलि
उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में मतदान अधिकारियों के रूप में कार्यरत 700 से अधिक स्कूली शिक्षकों की कोविड- 19 से मौत हो गई है और कई गंभीर स्थिति में हैं , चुनावों के आसपास केवल 30 दिनों में 8 लाख नए मामले सामने आए हैं
जिज्ञासा मिश्रा | लीड चित्रण: अंतरा रमन
रितेश मिश्रा सीतापुर में एक अस्पताल के बिस्तर पर लेटे हुए थे, ऑक्सीजन की नली उनकी नाक में लगी हुई थी और वह जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब भी उनका सेलफोन लगातार बजता रहा। राज्य निर्वाचन आयोग और सरकारी अधिकारियों द्वारा कॉल करके इस बीमार स्कूल टीचर से इस बात की पुष्टि करने के लिए कहा जा रहा था कि वह 2 मई को अपनी ड्यूटी पर मौजूद रहेंगे — जो कि उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में मतगणना का दिन था।
“फ़ोन बजना बंद ही नहीं हो रहा था,” उनकी पत्नी अपर्णा कहती हैं। “मैंने जब फ़ोन उठाया और उस व्यक्ति को बताया कि रितेश अस्पताल में भर्ती हैं और ड्यूटी पर नहीं जा सकते — तो उन्होंने मांग की कि सबूत के रूप में, मैं उन्हें उनके अस्पताल के बिस्तर वाली तस्वीर भेजूं। मैंने वही किया। मैं आपको वह तस्वीर भेज दूंगी,” उन्होंने पारी को बताया। और तस्वीर हमें भेजी।
बातचीत के दौरान 34 वर्षीय अपर्णा मिश्रा ने सबसे ज्यादा इस बात पर ज़ोर दिया कि उन्होंने अपने पति से चुनाव कार्य के लिए नहीं जाने का आग्रह किया था। “मैं उनसे यह बात उसी दिन से कह रही थी जिस दिन उनकी ड्यूटी का रोस्टर आया था,” वह बताती हैं। “लेकिन वह बार-बार यही कहते रहे कि चुनाव कार्य रद्द नहीं किया जा सकता है। और यह कि अगर वह ड्यूटी पर नहीं गए, तो अधिकारियों की ओर से उनके ख़िलाफ़ एफआईआर भी दर्ज कराई जा सकती है।”
रितेश की 29 अप्रैल को कोविड-19 से मृत्यु हो गई। वह यूपी के 700 से अधिक स्कूली शिक्षकों में से एक थे, जिनकी पंचायत चुनावों में ड्यूटी पर रहने के बाद मृत्यु हुई है। पारी के पास पूरी सूची है जिसकी कुल संख्या अब 713 हो चुकी है — 540 पुरुष और 173 महिला शिक्षक — जबकि मृत्यु की संख्या अभी भी बढ़ती जा रही है। राज्य के सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में लगभग 8 लाख शिक्षक हैं — जिनमें से हज़ारों को चुनावी ड्यूटी पर भेजा गया था।
रितेश, एक सहायक शिक्षक, अपने परिवार के साथ सीतापुर जिला मुख्यालय में रहते थे, लेकिन लखनऊ के गोसाईगंज ब्लॉक के एक प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाते थे। उन्हें 15, 19, 26 और 29 अप्रैल को हुए चार चरण के पंचायत चुनावों में पास के गांव के एक स्कूल में मतदान अधिकारी के रूप में काम करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी।
यूपी में पंचायत चुनाव एक विशाल अभ्यास है और इस बार लगभग 1.3 मिलियन उम्मीदवारों ने 8 लाख से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा। चार अलग-अलग सीधे निर्वाचित पदों पर उम्मीदवारों को चुनने के लिए योग्य 130 मिलियन मतदाताओं के लिए 520 मिलियन मतपत्रों को प्रिंट करना पड़ा। इस पूरी प्रक्रिया में सभी मतदान अधिकारियों के लिए स्पष्ट जोखिम था।
कोरोनो वायरस महामारी के इस भयानक दौर में, इस प्रकार की ड्यूटी के ख़िलाफ़ शिक्षकों और उनकी यूनियनों के विरोध को नजरअंदाज़ किया गया। जैसा कि यूपी शिक्षक महासंघ ने 12 अप्रैल को राज्य चुनाव आयुक्त को लिखे एक पत्र में कहा था कि शिक्षकों को वायरस से बचाने के लिए कोई वास्तविक सुरक्षा, दूरी बनाए रखने के लिए प्रोटोकॉल या सुविधाएं नहीं थीं। पत्र में चेतावनी दी गई थी प्रशिक्षण, मतपेटियों को संभालने, और हज़ारों लोगों के संपर्क में रहने के कारण शिक्षकों को काफ़ी जोखिम होगा। इसलिए महासंघ ने मतदान स्थगित करने का आह्वान किया था। इसके अलावा 28 और 29 अप्रैल को लिखे गए पत्रों में मतगणना की तारीख़ को आगे बढ़ाने का अनुरोध किया गया था।
“हमने राज्य चुनाव आयुक्त को यह पत्र मेल के साथ-साथ हाथ से भी भेजे थे। लेकिन हमें उनकी ओर से कोई जवाब या पत्र मिलने की पुष्टि नहीं की गई,” यूपी शिक्षा महासंघ के अध्यक्ष, दिनेश चंद्र शर्मा ने पारी को बताया। “हमारे पत्र मुख्यमंत्री के पास भी गए थे, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।”
शिक्षक सबसे पहले एक दिन के प्रशिक्षण पर गए, फिर दो दिनों की मतदान ड्यूटी पर — एक दिन तैयारी के लिए और दूसरी बार असली मतदान के दिन। बाद में, हज़ारों शिक्षकों को फिर से वोटों की गिनती के लिए उपस्थित होना पड़ा। इन कार्यों को पूरा करना अनिवार्य है। अपना प्रशिक्षण पहले ही पूरा कर चुके रितेश, 18 अप्रैल को मतदान ड्यूटी के लिए गए थे। “उन्होंने विभिन्न विभागों के सरकारी कर्मचारियों के साथ काम किया, लेकिन उनमें से किसी को भी पहले से नहीं जानते थे,” अपर्णा बताती हैं
“मैं आपको वह सेल्फी दिखाऊंगा जो उन्होंने मुझे ड्यूटी सेंटर जाते समय भेजी थी। वह दो अन्य पुरुषों के साथ सूमो या बोलेरो में बैठे हुए थे। उन्होंने मुझे एक ऐसे ही वाहन का फोटो भी भेजा था, जिसमें लगभग 10 व्यक्तियों को चुनावी ड्यूटी के लिए ले जाया जा रहा था। मैं काफ़ी डर गई थी,” अपर्णा कहती हैं। “और फिर मतदान बूथ पर और भी अधिक शारीरिक संपर्क हो रहा था।
शिक्षक सबसे पहले एक दिन के प्रशिक्षण पर गए, फिर दो दिनों की मतदान ड्यूटी पर — एक दिन तैयारी के लिए और दूसरी बार असली मतदान के दिन। बाद में, हज़ारों शिक्षकों को फिर से वोटों की गिनती के लिए उपस्थित होना पड़ा। इन कार्यों को पूरा करना अनिवार्य है
“मतदान के बाद, वह 19 अप्रैल को घर लौटे, जब उन्हें 103 डिग्री बुख़ार था। घर के लिए रवाना होने से पहले उन्होंने मुझे फ़ोन करके बताया था कि वह अस्वस्थ महसूस कर रहे हैं। मैंने उनसे जल्दी लौट आने के लिए कहा। कुछ दिनों तक तो हम इसे सामान्य बुख़ार समझते रहे जो शायद थकान के कारण हो गया हो। लेकिन जब बुख़ार तीसरे दिन (22 अप्रैल को) भी नहीं उतरा, तो हमने एक डॉक्टर से सलाह ली, जिसने उन्हें तुरंत कोविड परीक्षण और सीटी-स्कैन कराने के लिए कहा।
“हमने कराया — जिसमें वह पॉज़िटिव आए — और हम अस्पताल के बिस्तर की खोज में भागे। हमने लखनऊ के कम से कम 10 अस्पतालों में चेक किया। पूरे दिन चक्कर लगाने के बाद, हमने आखिरकार रात में सीतापुर जिले के एक निजी क्लिनिक में उन्हें भर्ती कराया। तब तक उन्हें सांस लेने में काफ़ी दिक़्क़त होने लगी थी।
“डॉक्टर रोज़ाना केवल एक बार आता था, ज्यादातर रात में 12 बजे, और हम जब भी फ़ोन करते थे तो अस्पताल का कोई भी कर्मचारी जवाब नहीं देता था। वह 29 अप्रैल को शाम 5:15 बजे कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई हार गए। उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की — हम सभी ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की — लेकिन वह हमारी आंखों के सामने हमसे जुदा हो गए।”
रितेश खुद, अपर्णा, उनकी एक साल की बेटी और अपने माता-पिता सहित अपने पांच सदस्यीय परिवार में एकमात्र कमाने वाले सदस्य थे। अपर्णा से उनकी शादी 2013 में हुई थी, और अप्रैल 2020 में उनका पहला बच्चा हुआ था। “12 मई को हम अपनी शादी की आठवीं सालगिरह मना रहे होते,” अपर्णा सिसकते हुए कहती हैं, “लेकिन वह पहले ही मुझे छोड़ कर चले गए...” वह इस वाक्य को पूरा करने में असमर्थ हैं।
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26 अप्रैल को, मद्रास उच्च न्यायालय ने भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को कोविड-19 महामारी के दौरान राजनीतिक रैलियों की अनुमति देने के लिए खरी-खोटी सुनाई थी। मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, संजीब बनर्जी ने ईसीआई के वकील से कहा था: “आपकी संस्था कोविड-19 की दूसरी लहर के लिए अकेले जिम्मेदार है।” मुख्य न्यायाधीश ने तो मौखिक रूप से यहां तक कहा था कि “संभवतः आपके अधिकारियों पर हत्या के आरोपों में मुक़दमा दर्ज किया जाना चाहिए ।”
मद्रास हाईकोर्ट ने अदालत के आदेशों के बावजूद, चुनाव प्रचार के दौरान फेस मास्क पहनने, सैनिटाइज़र का उपयोग करने और सामाजिक दूरियों को बनाए रखने में आयोग की विफलता पर नाराज़गी व्यक्त की थी।
अगले दिन, 27 अप्रैल को, नाराज़ इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने यूपी राज्य निर्वाचन आयोग (एसईसी) को कारण बताओ नोटिस जारी करके सफ़ाई देने को कहा कि “वह अभी हाल के पंचायत चुनावों के विभिन्न चरणों के दौरान कोविड के दिशानिर्देशों की अनुपालना करने में विफल क्यों रहा और उसके और उसके अधिकारियों सहित इस तरह के उल्लंघन के लिए ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने की कार्रवाई क्यों न की जाए।”
जब एक चरण का मतदान और मतगणना अभी भी बाक़ी थी, तो अदालत ने एसईसी को आदेश दिया कि वह “पंचायत चुनावों के आगामी चरणों में तुरंत इस तरह के सभी उपाय किए जाएं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सामाजिक दूरी और फेस मास्क… के कोविड के दिशानिर्देशों का पालन किया जा रहा है, वर्ना चुनाव प्रक्रिया में शामिल अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी।”
उस स्तर पर मौतों की संख्या 135 थी और दैनिक अमर उजाला में इस पर एक रिपोर्ट आने के बाद यह मामला अदालत में उठाया गया।
लेकिन वास्तव में कुछ भी नहीं बदला।
मतगणना से 24 घंटे पहले, 1 मई को, समान रूप से नाराज़ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा : “लगभग 700 शिक्षकों की इस चुनाव में मृत्यु हुई है, आप इसके बारे में क्या कर रहे हैं?” (उत्तर प्रदेश में पिछले 24 घंटों में कोविड-19 के 34,372 मामले दर्ज हुए थे)।
अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल का जवाब था: “जिन राज्यों में कोई चुनाव नहीं है, वहां भी मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं। दिल्ली में कोई चुनाव नहीं है, फिर भी वहां मामलों में उछाल देखा जा रहा है। जब मतदान शुरू हुआ तो हम दूसरी लहर के बीच नहीं थे।”
दूसरे शब्दों में, चुनाव और मतदान का मृत्यु से कोई संबंध नहीं है।
“हमारे पास कोई प्रामाणिक डेटा नहीं है जो दिखा सके कि कौन कोविड पॉज़िटिव था और कौन नहीं था,” यूपी के प्राथमिक शिक्षा राज्य मंत्री, सतीश चंद्र द्विवेदी ने पारी से कहा। “हमने कोई ऑडिट नहीं किया है। इसके अलावा, यह केवल शिक्षक ही नहीं थे जो ड्यूटी पर गए और पॉज़िटिव हो गए। इसके अलावा, आप यह कैसे जानते हैं कि वे अपनी ड्यूटी पर जाने से पहले पॉज़िटिव नहीं थे?” वह पूछते हैं।
हालांकि, टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा गया है कि “30 जनवरी, 2020 से 4 अप्रैल, 2021 के बीच — 15 महीने में — यूपी में कोविड -19 के कुल 6.3 लाख मामले दर्ज किए गए थे। 4 अप्रैल से शुरू होने वाले 30 दिनों में, 8 लाख से अधिक नए मामले सामने आए, जिसको मिलाकर यूपी में ऐसे मामलों की कुल संख्या 14 लाख हो गई। इसी अवधि में वहां ग्रामीण चुनाव हो रहे थे।” दूसरे शब्दों में, राज्य में चुनाव के एक ही महीने में कोविड-19 के उससे कहीं ज़्यादा मामले देखने को मिले, जो इससे पहले तक इस महामारी के पूरे दौर में सामने आए थे।
कोविड के कारण मरने वाले 706 शिक्षकों की सूची 29 अप्रैल को तैयार की गई थी, जिसमें सबसे अधिक प्रभावित जिला आजमगढ़ था, जहां 34 शिक्षकों की मृत्यु हुई थी। इससे अलावा बुरी तरह प्रभावित जिलों में 28 मौतों के साथ गोरखपुर, 23 के साथ जौनपुर, और 27 के साथ लखनऊ भी शामिल थे। यूपी शिक्षक महासंघ के लखनऊ जिला अध्यक्ष, सुदांशु मोहन का कहना है कि मौतें रुक नहीं रही हैं। उन्होंने 4 मई को हमें बताया कि “पिछले पांच दिनों में चुनाव ड्यूटी से लौट रहे सात और शिक्षकों की मृत्यु दर्ज की गई है।” (ये नाम पारी की लाइब्रेरी पर अपलोड की गई सूची में शामिल कर दिए गए हैं)।
हालांकि, रितेश कुमार की त्रासदी भले ही हमें एक झलक देती है कि कम से कम 713 परिवारों पर क्या बीत रही है, लेकिन यह पूरी कहानी नहीं है। वर्तमान में कोविड-19 से जूझ रहे अन्य लोग भी हैं; जिनका परीक्षण होना अभी बाकी है; और जिनका परीक्षण किया जा चुका है और वे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहां तक कि ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने लौटने पर अब तक कोई लक्षण नहीं दिखाया है, लेकिन उन्होंने ख़ुद को दूसरों से अलग कर लिया है। उन सभी की कहानियां कड़वी वास्तविकताओं को दर्शाती हैं, जो मद्रास और इलाहाबाद उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के क्रोध और चिंता का कारण बने।
“चुनाव ड्यूटी के लिए पहुंचने वाले सरकारी कर्मचारियों की सुरक्षा की व्यवस्था नगण्य थी,” 43 वर्षीय संतोष कुमार कहते हैं। वह लखनऊ के गोसाईगंज ब्लॉक में एक प्राथमिक स्कूल के हेडमास्टर हैं, और मतदान के दिनों के साथ-साथ मतगणना के दिन भी ड्यूटी पर थे। “हम सभी को बिना किसी सामाजिक दूरी के बस या अन्य वाहनों का उपयोग करना पड़ता था। फिर, कार्यस्थल पर, हमें एहतियाती उपायों के रूप में कोई दस्ताने या सैनिटाइज़र नहीं मिले। हमारे पास केवल वही होता था जो हम अपने साथ ले गए थे। वास्तव में, हम अपने साथ जो अतिरिक्त मास्क ले गए थे, हमने उसे उन मतदाताओं को दे दिया, जो वहां बिना चेहरे को ढके हुए आते थे।
‘मुझे हर दूसरे दिन मेरी रसोइया का फ़ोन आता है और वह बताती है कि उसके गांव के हालात कैसे बिगड़ रहे हैं। वहां के लोग यह भी नहीं जानते कि वे क्यों मर रहे हैं’
“यह सच है कि हमारे पास ड्यूटी रद्द करने का कोई विकल्प नहीं था,” वह कहते हैं। “रोस्टर में आपका नाम आने के बाद, आपको ड्यूटी पर जाना ही होगा। यहां तक कि गर्भवती महिलाओं को भी चुनाव ड्यूटी पर जाना पड़ता था, छुट्टी के लिए उनके आवेदन खारिज कर दिए गए थे।” कुमार को अब तक कोई लक्षण नहीं हुआ है — और वह 2 मई की मतगणना में भी हिस्सा ले चुके हैं।
लखीमपुर जिले के एक प्राथमिक विद्यालय की प्रमुख, मीतु अवस्थी उतनी भाग्यशाली नहीं थीं। उन्होंने पारी को बताया कि जिस दिन वह ट्रेनिंग के लिए गई थीं, उन्होंने “कमरे में 60 अन्य लोगों को पाया। ये सभी लखीमपुर ब्लॉक के विभिन्न स्कूलों से थे। वे सभी ठसाठस भरे कमरे में, कोहनी से कोहनी सटाए बैठे थे, और वहां मौजूद केवल एक मतपेटी पर अभ्यास कर रहे थे। आप सोच भी नहीं सकतीं कि पूरी स्थिति कितनी डरावनी थी।”
उसके बाद, 38 वर्षीय अवस्थी का परीक्षण पॉज़िटिव आया। उन्होंने अपना प्रशिक्षण पूरा कर लिया था — जिसे वह इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराती हैं — और मतदान या मतगणना ड्यूटी के लिए नहीं गईं। हालांकि, उनके स्कूल के अन्य कर्मचारियों को इस तरह का काम सौंपा गया था।
“हमारे एक सहायक शिक्षक, इंद्रकांत यादव को अतीत में कभी कोई चुनावी काम नहीं दिया गया था। लेकिन इस बार दिया गया,” वह बताती हैं। “यादव दिव्यांग थे। उनका सिर्फ एक हाथ था, फिर भी उन्हें ड्यूटी पर भेजा गया। वह लौटने के कुछ दिनों के भीतर ही बीमार हो गए और आख़िरकार उनकी मृत्यु हो गई।”
“मुझे हर दूसरे दिन मेरी रसोइया [स्कूल में खाना बनाने वाली] का फ़ोन आता है और वह बताती है कि उसके गांव के हालात कैसे बिगड़ रहे हैं। वहां के लोग यह भी नहीं जानते कि वे क्यों मर रहे हैं। उन्हें नहीं मालूम कि वे जिस खांसी और बुख़ार की शिकायत कर रहे हैं — वह कोविड-19 हो सकता है,” अवस्थी कहती हैं।
27 वर्षीय शिव के, जो बमुश्किल एक साल से शिक्षक हैं, चित्रकूट के मऊ ब्लॉक के एक प्राथमिक स्कूल में काम करते हैं। ड्यूटी पर जाने से पहले उन्होंने अपना परीक्षण करवाया था: “सुरक्षित रहने के लिए, मैंने मतदान की ड्यूटी पर जाने से पहले आरटी-पीसीआर परीक्षण करवाया था और सब कुछ ठीक था।” इसके बाद वह 18 और 19 अप्रैल को उसी ब्लॉक के बियावल गांव में ड्यूटी करने गए। “लेकिन ड्यूटी से लौटने के बाद जब मैंने दूसरी बार परीक्षण कराया, तो पता चला कि मैं कोविड पॉज़िटिव हूं,” उन्होंने पारी को बताया।
“मुझे लगता है कि मैं उस बस में संक्रमित हो गया, जो हमें चित्रकूट जिला मुख्यालय से मतदान केंद्र तक ले गई थी। पुलिस कर्मियों सहित उस बस में कम से कम 30 लोग थे।” उनका इलाज चल रहा है और वह क्वारंटाइन में हैं।
इस बढ़ती हुई तबाही की एक अनूठी विशेषता यह थी कि हालांकि केंद्र तक पहुंचने वाले एजेंटों के लिए नकारात्मक आरटी-पीसीआर प्रमाणपत्र लाना अनिवार्य था, लेकिन इसके लिए कभी कोई जांच नहीं हुई। मतगणना ड्यूटी करने वाले संतोष कुमार का कहना है कि केंद्रों में इस और अन्य दिशानिर्देशों का कभी पालन नहीं किया गया।
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“हमने 28 अप्रैल को वह पत्र यूपी राज्य चुनाव आयोग और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखा था और उनसे 2 मई की मतगणना को स्थगित करने का अनुरोध किया था,” शिक्षक महासंघ के अध्यक्ष, दिनेश चंद्र शर्मा बताते हैं। “अगले दिन हमने एसईसी और सीएम को 700 से अधिक मौतों की सूची दी, जिसे हमने अपने संघ के ब्लॉक स्तर के माध्यम से संकलित किया था।”
शर्मा को मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा भारत के चुनाव आयोग की आलोचना के बारे में पता है, लेकिन उन्होंने इस पर कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। हालांकि, वह बड़े दुःख के साथ कहते हैं कि “हमारा जीवन कोई मायने नहीं रखता क्योंकि हम साधारण लोग हैं, अमीर नहीं। सरकार चुनाव स्थगित करके शक्तिशाली लोगों को परेशान नहीं करना चाहती थी — क्योंकि वे पहले ही चुनावों पर भारी रक़म खर्च कर चुके हैं। इसके बजाय, हमने जो आंकड़े प्रदान किए हैं उसे लेकर हमें अन्यायपूर्ण आरोप का सामना करना पड़ रहा है।
“यहां देखें, हमारा संघ 100 साल पुराना है जो प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों के 300,000 सरकारी शिक्षकों का प्रतिनिधित्व करता है। क्या आपको लगता है कि कोई भी संघ झूठ और धोखाधड़ी के आधार पर इतने लंबे समय तक जीवित रह पाएगा?
“उन्होंने न केवल हमारे आंकड़ों पर विचार करने और उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया है, बल्कि वे उस पर इंक्वायरी बैठाने जा रहे हैं। हम अपनी ओर से यह महसूस करते हैं कि 706 लोगों की इस पहली सूची में कई नाम छूट गए हैं। इसलिए हमें सूची को संशोधित करना होगा।”
वह बड़े दुःख के साथ कहते हैं कि ‘हमारा जीवन कोई मायने नहीं रखता क्योंकि हम साधारण लोग हैं, अमीर नहीं। सरकार चुनाव स्थगित करके शक्तिशाली लोगों को परेशान नहीं करना चाहती थी — क्योंकि वे पहले ही चुनावों पर भारी रक़म खर्च कर चुके हैं’
महासंघ के लखनऊ जिला अध्यक्ष, सुदांशु मोहन ने पारी को बताया, “हम सूची को अपडेट करने पर भी काम कर रहे हैं और इसमें मतगणना की ड्यूटी से लौटने वाले उन शिक्षकों के नाम भी शामिल कर रहे हैं, जो लौटने पर कोविड पॉज़िटिव पाए गए हैं। कई शिक्षक ऐसे हैं जो लक्षण दिखने पर सावधानी बरतते हुए 14-दिवसीय क्वारंटाइन पर चले गए हैं, लेकिन जिन्होंने शायद अभी तक अपना परीक्षण नहीं कराया है।”
दिनेश शर्मा बताते हैं कि संघ के पहले पत्र में मांग की गई थी कि “चुनाव प्रक्रियाओं में शामिल सभी कर्मियों को कोविड-19 से खुद को बचाने के लिए पर्याप्त उपकरण दिए जाएं।” लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ।
“अगर मुझे पता होता कि मैं अपने पति को इस तरह खो दूंगी, तो मैं उन्हें कभी जाने नहीं देती। ज़्यादा से ज़्यादा उनकी नौकरी चली जाती, लेकिन जान तो बच जाती,” अपर्णा मिश्रा कहती हैं।
शिक्षक महासंघ के पहले पत्र में अधिकारियों से यह मांग भी की गई थी कि “यदि कोई व्यक्ति कोविड-19 से संक्रमित हैं, तो उपचार के लिए उसे न्यूनतम 20 लाख रुपये मिलने चाहिए। दुर्घटना या मृत्यु की स्थिति में, मृतक के परिवार को 50 लाख की राशि मिलनी चाहिए।”
अगर ऐसा होता है, तो अपर्णा और अन्य लोगों को कुछ राहत मिल सकती है, जिनके जीवन साथी या परिवार के सदस्यों की नौकरी चली गई और साथ ही उनकी मृत्यु भी हो गई।
नोट: अभी-अभी प्राप्त हुई ख़बरों के अनुसार , उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से कहा है कि उसने “मृतक मतदान अधिकारियों के परिवार के सदस्यों को 30,00,000 रुपये का मुआवज़ा देने का फ़ैसला किया है। ” लेकिन, राज्य चुनाव आयोग के वकील ने अदालत को बताया कि सरकार के पास अभी तक केवल 28 जिलों से 77 मौतों की रिपोर्ट है।
जिग्यासा मिश्रा ठाकुर फैमिली फाउंडेशन से एक स्वतंत्र पत्रकारिता अनुदान के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता पर रिपोर्ट करती हैं। ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट की सामग्री पर कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं किया है।
हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़