पढ़ने या लिखने के नाम पर वह सिर्फ़ अपना नाम भर लिखना जानती हैं. जब वह संभल-संभलकर देवनागरी में अपना नाम लिखती हैं, तो उनके चेहरे पर प्रकट हुए गर्व को आसानी से लक्षित किया जा सकता है: गो-पु-ली. फिर उनकी हंसी बेसाख़्ता छूट पड़ती है. आत्मविश्वास से चमकती एक संक्रामक हंसी.
चार बच्चों की मां गोपली गमेती (38 साल) कहती हैं कि औरतें वे सारे काम कर सकती हैं जो वे करने को अपने मन में ठान लेती हैं.
उदयपुर ज़िले के गोगुंदा ब्लॉक में स्थित करदा गांव के बाहरी इलाक़े में बमुश्किल 30 घरों वाली इस छोटी सी बस्ती में गोपली ने अपने सभी चारों बच्चों को घर में ही जन्म दिया है. उनकी मदद के लिए केवल उनके समुदाय की दूसरी औरतें मौजूद होती थीं. पहली बार वह उस समय अस्पताल गईं, जब उनकी चौथी संतान, यानी तीसरी बेटी जन्म ले चुकी थी. अस्पताल में वह अपना ट्यूबल लिगेशन का ऑपरेशन या नलबंदी कराने के इरादे से गई थीं.
वह कहती हैं, “वह समय आ चुका था, जब हम यह मान लें कि हमारा परिवार पूरा हो चुका था.” गोगुन्दा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) की एक स्वास्थ्य सेविका गर्भधारण को रोकने के लिए उन्हें इस ‘ऑपरेशन’ के बारे में बता गई थी. यह एक निःशुल्क समाधान था. उन्हें सीएचसी तक पहुंचने के सिवा और कुछ नहीं करना था, यह उनके घर से तक़रीबन 30 किलोमीटर दूर स्थित और सरकार द्वारा संचालित एक ग्रामीण अस्पताल के रूप में काम करता था और चार प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों (पीएचसी) की आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से बनाया गया था.
हालांकि, उन्होंने इस बारे में अपने घर में कई बार चर्चा भी की, लेकिन उनके पति ने हर बार उनकी बात को अनसुना कर दिया. जब उनकी सबसे छोटी संतान उनके ही दूध पर निर्भर थी, तो उन्होंने अपने इस निर्णय के बारे में बहुत गंभीरतापूर्वक सोचने में काफ़ी वक़्त लगाया.
पुरानी बात को याद करती हुई वह मुस्कुराती हैं, “और एक दिन मैं यह कहते हुए घर से निकल पड़ी कि मैं अपनी नलबंदी कराने दवाखाना (स्वास्थ्य केंद्र) जा रही हूं.” वह टूटी-फूटी हिन्दी बोलती हैं, जिसमें भीली भी मिली हुई है. “मेरे पति और मेरी सास भी मेरे पीछे दौड़ते-दौड़ते निकल पड़े.” बाहर सड़क पर उन तीनों के बीच मामूली सी बहस भी हुई, लेकिन वे जल्दी ही समझ गए कि गोपली को समझा पाना असंभव था. उसके बाद तीनों एक ही बस पर सवार होकर गोगुन्दा के सीएचसी पहुंचे, जहां गोपली का ऑपरेशन होना था.
सीएचसी में अनेक दूसरी औरतें भी मौजूद थी, जो वहां नलबंदी (ट्यूबल लिगेशन) कराने के उद्देश्य से आई थीं. गोपली बताती हैं कि उन्हें इसका कोई अनुमान नहीं था कि वह कोई बंध्याकरण शिविर था, न उनको उस रोज़ सीएचसी में बंध्याकरण कराने आईं कुल औरतों की ठीक-ठीक संख्या पता थी. पास-पड़ोस के गांवों को नसबंदी कराने की सुविधा प्रदान करने के इरादे से छोटे शहरों और क़स्बों में लगाए जाने वाले इन बंध्याकरण शिविरों का मूल उद्देश्य ग्रामीण इलाक़ों के असुविधाजनक और संसाधनविहीन स्वास्थ्य-केन्द्रों से जुड़ी मुश्किलों को दूर करना है. बहुधा इनमें से अधिकतर स्वास्थ्य-केन्द्रों में तो पर्याप्त कर्मचारी भी नहीं होते है. स्वच्छता और सफ़ाई की बुरी स्थिति और ऑपरेशन का लक्ष्य पूरा करने के दबाव के कारण भी इन योजनाओं को विगत अनेक सालों से कड़ी आलोचना का निशाना बनाया जाता रहा है.
टयूबल लिगेशन अथवा बंध्याकरण एक 30 मिनट तक चलने वाली शल्य प्रक्रिया होती है, जिसके ज़रिए किसी औरत की फेलोपियन ट्यूबों को बंद कर गर्भधारण करने की उसकी संभावनाओं को स्थायी रूप से समाप्त कर दिया जाता है. इस प्रक्रिया को नलबंदी भी कहते हैं. संयुक्त राष्ट्र की 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार, स्त्री बंध्याकरण दुनिया में गर्भनिरोध का सबसे लोकप्रिय तरीक़ा है, जिसे दुनिया की तक़रीबन 19 प्रतिशत विवाहित अथवा पुरुष साहचर्य में जीवन व्यतीत करने वाली औरतें विकल्प के रूप में चुनती हैं.
भारत में पांच वें राष्ट्रीय परिवार कल्याण सर्वेक्षण (2019-21) के अनुसार, 15 से लेकर 49 साल के आयुवर्ग की 37.9 प्रतिशत शादीशुदा महिलाएं गर्भनिरोध के लिए बंध्याकरण का विकल्प ही चुनती हैं.
नारंगी रंग की घूंघट से आंखों तक अपना माथा ढंके गोपली के लिए यह एक विद्रोही क़दम उठाने जैसा था. अच्छी सेहत होने के बाद भी चौथे बच्चे को जन्म देने के बाद वह अब थक चुकी थीं. बंध्याकरण का फ़ैसला लेने के पीछे एक कारण उनकी आर्थिक स्थिति भी थी, जोकि बहुत अच्छी नहीं थी.
उनके पति सोहनराम में सूरत में एक प्रवासी मज़दूर के रूप में काम करते हैं और साल के अधिकांश समय घर से बाहर ही रहते हैं. केवल होली और दिवाली जैसे त्योहारों के मौक़ों पर वह एक-एक महीने के लिए अपने घर लौटते हैं. अपने चौथे बच्चे के जन्म के कुछ महीने बाद जब वह घर लौटे थे, तब गोपली इस बारे में एक ठोस नतीजे पर पहुंच चुकी थीं. उन्होंने मन में तय कर लिया था कि अब वह भविष्य में गर्भवती नहीं होंगी.
फूस की छत वाले अपने ईंट के बने घर के ठंडे फर्श पर बैठी गोपली कहती हैं, “बच्चों की परवरिश के समय हमारी मदद करने लिए मर्द कभी भी मौजूद नहीं रहते.” फर्श की एक तरफ़ छीले हुए भुट्टों की एक छोटी सी ढेर सूखने के लिए फैली हुई है. गोपली जब-जब मां बनने वाली थीं, तब-तब सोहनराम उनके क़रीब मौजूद नहीं थे. कोख में पूरा बच्चा लिए हुए गोपली को अपने आधे बीघे (0.3 एकड़ के क़रीब) खेत के अलावा दूसरों के खेतों पर भी काम करना होता था, और साथ-साथ अपनी गृहस्थी भी संभालनी होती थी. “कई बार तो हमारे पास बच्चों को भी खिलाने लायक पैसे नहीं होते थे. ऐसे में और बच्चे पैदा करने का क्या मतलब?”
जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने गर्भनिरोध के लिए कोई अन्य तरीक़ा भी आज़माया था, तो वह संकोच के साथ मुस्कुराने लगती हैं. उन्हें ख़ुद अपने ही पति के बारे में बात करने में बहुत हिचक महसूस हो रही है, फिर भी वह बताती हैं कि समुदाय की सभी औरतों के लिए अपने-अपने पति को किसी भी तरह के गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करने के लिए राज़ी करने की कोशिश करना बेकार है.
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करदा गांव, जोकि रोयडा पंचायत का एक हिस्सा है, अरावली की पहाड़ियों की तराइयों में बसा है, और पास के राजसमन्द ज़िले में पर्यटकों के आकर्षण के विशेष केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित कुंभलगढ़ के प्रसिद्ध किले से केवल 35 किलोमीटर की दूरी पर बसा है. करदा के गमेती 15-20 परिवारों का एक बड़ा कुनबा हैं, जो भील-गमेती के अनुसूचित जनजातीय समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाला एक वंश हैं. गांव के बाहरी इलाक़े में बसे इस समुदाय में एक परिवार के पास एक से भी कम बीघा कृषियोग्य भूमि है. समुदाय की तक़रीबन सभी औरतों में एक ने भी स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की है. पुरुषों की स्थिति भी कुछ ख़ास बेहतर नहीं है.
जून के आख़िरी दिनों और सितंबर के बीच के बारिश के महीनों को छोड़कर समुदाय के पुरुष बमुश्किल महीने भर लिए ही अपने घर पर रहते हैं. बारिश के दिनों में गेहूं उपजाने के लिए उनपर अपने खेत जोतने की ज़िम्मेदारी होती है. ख़ास तौर पर कोविड-19 लॉकडाउन के कठिन दिनों में समुदाय के अधिकांश मर्द सुदूर सूरत में कपड़ा मिलों में बतौर अकुशल कामगार आजीविका कमा रहे थे. उनका काम लंबे कपड़े के थानों से छह-छह मीटर की साड़ियों को काट कर अलग करना था, ताकि बाज़ार में भेजे जाने के पहले उनपर बांधनी और कसीदे का काम किया जा सके. इस काम के बदले उन्हें प्रतिदिन 350 से लेकर 400 रुपए की दिहाड़ी मिलती है.
गोपली के पति सोहनराम और गमेती समुदाय के दूसरे पुरुष उन लाखों मज़दूरों में शामिल हैं, जो दक्षिण राजस्थान से जीविकोपार्जन के लिए दसियों सालों से सूरत, अहमदाबाद, मुंबई, जयपुर और नई दिल्ली जैसे शहरों में पलायन कर चुके हैं. उनके पीछे गांवों में छूट चुके उनके परिजनों में अधिकतर औरतें ही बची रह जाती हैं.
उनकी अनुपस्थिति में लगभग पूरी तरह निरक्षर या हाल-फ़िलहाल के वर्षों में केवल वर्णमाला से परिचित गिनी-चुनी औरतों ने अपने स्वास्थ्य और जीवन से संबंधित जटिलताओं के बारे में आत्मनिर्णय लेना सीख लिया है.
तीन बच्चों की मां और तक़रीबन 30 साल की पुष्पा गमेती स्पष्ट कहती हैं कि औरतों को ख़ुद को समय के हिसाब से ढालना होता है, महामारी फैलने के ठीक पहले उनके एक किशोरवय बेटे को बालश्रम निरोधी क़ानून के पक्ष में काम करने वाले कार्यकर्ताओं द्वारा सूरत से वापस उनके गांव पहुंचाया गया था.
पुराने दिनों में स्वास्थ्य-संबंधी किसी भी आकस्मिकता की स्थिति में औरतें प्रायः घबरा जाती थीं. पुराने अनुभवों को याद करती हुई वह बताती हैं हैं कि कैसे हफ़्तों किसी बच्चे का ज्वर नहीं उतरने की स्थिति में या खेती करते हुए चोटिल हो जाने से रक्तस्राव नहीं रुकने के कारण औरतें किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो जाती थीं. पुष्पा कहती हैं, “घर पर मर्दों के नहीं होने के कारण हमारे पास इलाज के लिए नक़द पैसे नहीं होते थे, और हम यह भी नहीं जानती थीं कि दवाखाना तक जाने के लिए हम सवारी गाड़ियों का इंतज़ाम कैसे करें. धीरे-धीरे हमने यह सब करना सीख लिया.”
पुष्पा का बड़ा बेटा किशन अब दोबारा काम करने लगा है. अभी वह पड़ोस के एक गांव में मिट्टी की खुदाई करने वाली एक मशीन गाड़ी के ड्राईवर का सहायक है. अपने शेष दोनों छोटे बच्चों - 5 साल की मंजू और 6 साल के मनोहर के लिए पुष्पा रोयडा गांव के आंगनवाड़ी केंद्र में जाती हैं, जो वहां से कोई 5 किलोमीटर दूर स्थित है,
वह बताती हैं, “हमारे बड़े हो चुके बच्चों के लिए हमें आंगनबाड़ी से कुछ भी नहीं मिलता है.” लेकिन पिछले कुछेक सालों से करदा की युवा मांएं घुमावदार हाईवे का मुश्किल सफ़र तय कर रोयडा पहुंचती हैं, जहां उनको और उनके छोटे बच्चों को आंगनबाड़ी द्वारा गर्म और पौष्टिक आहार उपलब्ध कराया जाता है. वह अपने कमर पर बिठाकर मंजू को भी अपने साथ ले जाती हैं. कभी-कभार उन्हें रास्ते पर कोई वाहन भी मिल जाता हैं, जो उन्हें गंतव्य तक मुफ़्त में छोड़ देता है.
पुष्पा बताती हैं, “यह कोरोना से पहले की बात है.” लॉकडाउन के बाद साल 2021 की मई तक औरतों को आंगनबाड़ी के कामकाज की दोबारा शुरू होने की कोई सूचना नहीं मिली है.
जब किशन ने पांचवीं की पढ़ाई अधूरी छोड़कर अचानक अपने एक दोस्त के साथ काम करने के लिए सूरत जाने का फ़ैसला किया था, तब पुष्पा को इसका अहसास हुआ कि पारिवारिक निर्णयों और किशोरवय बच्चे को नियंत्रित करने का मामला उनके हाथ से फिसलता जा रहा है. वह कहती हैं, “लेकिन, मैं अपने छोटे बच्चों से संबंधित फ़ैसले अपने ही हाथ में रखने की कोशिश कर रही हूं.”
उनके पति नातूराम फ़िलहाल करदा में रहने वाले कामकाजी आयुवर्ग के एकमात्र मर्द हैं. 2020 की गर्मियों में लॉकडाउन के दौरान सूरत पुलिस के साथ आक्रोशित प्रवासी मजदूरों की हिंसक झड़प से घबराए नातूराम ने करदा में रह कर ही आसपास के इलाक़ों में काम तलाशने का फ़ैसला किया है. हालाँकि अभी तक किस्मत ने उनका अधिक साथ नहीं दिया है.
गोपली ने पुष्पा को नलबंदी के लाभों के बारे में बताया है. ऑपरेशन के बाद पर्याप्त सावधानी या रखरखाव के अभाव में भी औरतों को कोई मुश्किल होती है , ऐसा उनके सुनने में नहीं आया है. गर्भनिरोध की इस पद्धति में ऑपरेशन के नाकाम होने, गर्भाशय और आंतों को किसी तरह की क्षति पहुंचने, नलियों में कोई अवरोध उत्पन्न होने और ज़ख़्म में किसी प्रकार का संक्रमण अथवा सेप्सिस होने के मामले सामने नहीं आए हैं. गोपली यह भी नहीं मानती हैं कि बंध्याकरण सर्जरी का उद्देश्य केवल निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर जनसंख्या को नियंत्रित करना है. वह तसल्ली भरे लहज़े में बोलती हैं, “यह तरीक़ा आपको हरेक चिंता से पूरी तरह मुक्त कर देता है.”
पुष्पा के भी सभी तीनों बच्चे घर पर पैदा हुए थे. रिश्ते की कोई जेठानी या गमेती समुदाय की किसी बुज़ुर्ग औरत ने नवजातों के गर्भनालों को काट कर आमतौर पर हिन्दुओं की कलाई पर लपेटे जाने वाले मोटे ‘लच्छे धागों’ से उनके सिरों को बांधने का काम किया था.
गोपली का मानना है कि आज की कमउम्र गमेती औरतें घर पर बच्चे को जन्म देने का ख़तरा नहीं उठाना चाहती हैं. उनकी इकलौती पुत्रवधू अभी गर्भवती हैं. “हम उसकी या अपने होने वाले पोते अथवा पोती की जान और सेहत को लेकर कोई जोखिम नहीं मोल ले सकते हैं.”
और होने वाली मां, जो अभी 18 साल की है, फ़िलहाल अपने मायके में है जो अरावली के एक ऊंचे बसे गांव में है और आकस्मिकता की स्थिति में वहां से बाहर जा पाना मुश्किल काम है. “प्रसव के पहले हम उसे यहां ले आएंगे और जब वह दवाखाना जाएगी, तब उसके साथ टेम्पो पर दो-तीन दूसरी औरतें भी जाएंगी.” टेम्पो से गोपली का अभिप्राय स्थानीय सवारी गाड़ी के रूप में प्रयुक्त होने वाले बड़े तीनपहिया वाहन से है.
गोपली अपने आस-पड़ोस से आई हुई औरतों को देखती हुई हंसती हैं, “आज की लड़कियां दर्द बर्दाश्त करना नहीं जानतीं.” वे सभी भी हंसती हुईं गोपली की हां में हां मिलाती हैं.
इस छोटे से टोले की दो-तीन दूसरी औरतों ने भी नलबंदी का ऑपरेशन कराया हुआ है, लेकिन वे औरतें इसके बारे में संकोचवश बातचीत नहीं करना चाहती हैं. सामान्यतः समुदाय में कोई अन्य आधुनिक गर्भनिरोधक का उपयोग नहीं किया जाता है, लेकिन गोपली के अनुसार, ‘अब युवा औरतें कहीं अधिक तेज़तर्रार हैं’
आसपास के इलाक़े में सबसे नज़दीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) कोई 10 किलोमीटर दूर नान्देशमा में है. करदा की युवा महिलाएं अपने गर्भवती होने की पुष्टि के बाद इसी पीएचसी में रजिस्टर्ड की जाती हैं. वे अपनी नियमित जांच के लिए वहीं जाती हैं. उन्हें अपने इलाक़े में आने वाली स्वास्थ्य सेविकाओं द्वारा पोषण के लिए कैल्शियम और आयरन की दवाइयां दी जाती हैं.
भंमरीबाई कालूसिंह कहती हैं, “करदा की औरतें वहां एक साथ समूह बनाकर जाती हैं. कई बार तो वे गोगुन्दा सीएचसी तक भी चली जाती हैं.” भंमरीबाई जाति से राजपूत हैं और इसी गांव की निवासी हैं. अपने स्वास्थ्य को लेकर स्वतंत्र निर्णय लेने की हिम्मत ने गमेती औरतों का जीवन पूरी तरह से बदल दिया है. पहले वे किसी मर्द को साथ लिए बिना गांव से बाहर पैर तक नहीं रखती थीं. भंमरीबाई यह बताना नहीं भूलतीं.
कल्पना जोशी, जोकि गमेती पुरुषों सहित दूसरे प्रवासी मज़दूरों के लिए काम करने वाले आजीविका ब्यूरो की उदयपुर इकाई में एक सामुदायिक संगठनकर्ता हैं, कहती हैं कि प्रवासी मज़दूरों के परिवार की ‘घर में रह गईं’ ग्रामीण औरतों में अपने फ़ैसले की यह आत्मनिर्भरता धीरे-धीरे विकसित हुई है. वह बताती हैं, “वे जानती हैं कि चिकित्सकीय आकस्मिकता की स्थिति में फ़ोन कर एम्बुलेंस को कैसे बुलाया जाता है. अधिकांश औरतें अकेले न केवल अस्पताल जाती हैं, बल्कि वे स्वास्थ्यकर्मियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधियों से स्पष्ट बातचीत भी करती हैं. सिर्फ़ दस साल पहले तक स्थितियां बिल्कुल भिन्न थीं.” पहले सभी चिकित्सकीय ज़रूरतों को पुरुषों के सूरत से लौट कर आने तक टाल दिया जाता था.
इस छोटे से टोले की दो-तीन दूसरी औरतों ने भी नलबंदी का ऑपरेशन कराया हुआ है, लेकिन वे औरतें इसके बारे में संकोचवश बातचीत नहीं करना चाहती हैं. सामान्यतः समुदाय में किसी अन्य आधुनिक गर्भनिरोधक का उपयोग नहीं किया जाता है, लेकिन गोपली के अनुसार “अब युवा औरतें कहीं अधिक तेज़तर्रार हैं.” उनकी पुत्रवधू भी विवाह के कोई साल भर बाद गर्भवती हुई.
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करदा से 15 किलोमीटर से भी कम दूरी पर बसे एक गांव की पार्वती मेघवाल (बदला हुआ नाम) एक प्रवासी मज़दूर की पत्नी होने की परेशानियों के बारे में हमें बताती हैं. उनके पति गुजरात के मेहसाणा में जीरे का पैकेट तैयार करने वाली एक औद्योगिक इकाई में काम करते हैं. कुछ समय तक पार्वती ने भी मेहसाणा में अपने पति के साथ रहने की कोशिश की. उन्होंने वहां चाय की एक छोटी सी दुकान भी खोल ली, लेकिन अपने तीन बच्चों की पढ़ाई के कारण उन्हें वापस उदयपुर लौट जाना पड़ा.
उन्होंने बताया कि 2018 में, जब उनके पति घर से बाहर थे, तब वह एक गंभीर सड़क दुर्घटना की शिकार हो गईं, और ज़मीन पर गिरने से उनकी ललाट पर एक कील धंस गई. ज़ख़्म के ठीक होने के बाद जब उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिली, तो उसके बाद वह दो वर्षों तक एक अनजान मानसिक रोग की गिरफ़्त में आ गईं.
वह कहती हैं, “मुझे हमेशा अपने पति, अपने बच्चों और रुपए-पैसों की चिंता लगी रहती थी, और तभी मेरे साथ यह हादसा हो गया.” उन्हें मानसिक दौरे पड़ने लगे और वह प्रायः लंबे समय के लिए अवसाद में चली जाती थीं. “हर कोई मेरे चीखने-चिल्लाने और सामान फेंकने की आदतों से परेशान और भयभीत रहता था. पूरे गांव का एक भी आदमी मेरे पास नहीं फटकता था. मैंने अपनी जांच की सभी रिपोर्टें और पर्चियां, नक़दी नोट और अपने कपड़े तक फाड़ डाले...” उन्हें यह सब बाद में पता चला कि उस अवधि में उन्होंने क्या-क्या किया था, बल्कि अब उनके भीतर अपनी बीमारी को लेकर एक शर्मिंदगी भी है.
वह बताती हैं, “फिर लॉकडाउन शुरू हो गया और सबकुछ दोबारा तितर-बितर हो गया. मैं एक बार फिर से मानसिक रूप से टूटते-टूटते बची.” उनके पति को मेहसाणा से पैदल गांव लौटना पड़ा, जोकि 275 किलोमीटर की एक लंबी और कठिन यात्रा थी. मानसिक अवसाद ने पार्वती की स्थिति को दयनीय बना दिया था. उनका सबसे छोटा बेटा भी घर से दूर उदयपुर में था, जहां वह एक रेस्टोरेंट में रोटी बनाने का काम करता था.
मेघवाल दलित समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं, और पार्वती की अगर मानें, तो दलित प्रवासी मज़दूरों के घर की औरतों को गांव में आजीविका कमाने के लिए घोर संघर्ष से जूझना पड़ता है. “आप समझ सकते हैं कि मानसिक रोग से ग्रस्त या पूर्व में इसका शिकार रह चुकी एक दलित औरत के लिए यह कितनी कठिनाइयों से भरा समय रहा होगा?”
पार्वती एक आंगनबाड़ी सेविका और एक सरकारी कार्यालय की चपरासी के तौर पर काम कर चुकी थीं. लेकिन दुर्घटना और फिर ख़राब मानसिक अवस्था के कारण उनके लिए अपना काम जारी रखना कठिन था.
साल 2020 में जब लॉकडाउन हटा लिया गया, तब उन्होंने अपने पति से स्पष्ट कह दिया कि अब वह उन्हें दोबारा काम करने के लिए बाहर नहीं जाने देंगी. उन्होंने अपने रिश्तेदारों और एक सहकारी संगठन से क़र्ज़ लिया और गांव में किराने की एक छोटी सी दुकान खोल ली. उनके पति भी गांव या आसपास के इलाक़े में अपने लिए दिहाड़ी पर काम खोजने की कोशिश करते हैं. उनका कहना है, “मैं एक प्रवासी मज़दूर की घर में रह गई पत्नी के तौर पर नहीं रहना चाहती. सभी मानसिक चिंताओं और मुश्किलों की यही जड़ है.”
इधर करदा की औरतों में यह धारणा पुष्ट होती जा रही है कि पुरुषों के सहयोग के बिना अपने लिए आजीविका कमा पाना लगभग असंभव है. गमेती औरतों के लिए रोज़गार का एकमात्र अवसर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अंतर्गत उपलब्ध है, और करदा के बाहरी इलाक़ों में रहने वाली औरतों ने 2021 के आने तक अपने-अपने हिस्से के कामों के 100 दिन पूरे कर लिए हैं.
गोपली कहती हैं, “हमें प्रत्येक साल कम से कम 200 दिनों के काम की ज़रूरत है.” वह बताती हैं कि फ़िलहाल औरतें सब्ज़ियों की पैदावार की कोशिशों में लगी हैं, जिन्हें वे नज़दीक के बाज़ारों में बेच सकें. यह एक और फ़ैसला है, जो उन्होंने मर्दों से पूछे बिना लिया है. “बहरहाल, हमें अपने खाने में थोड़ी पौष्टिकता और बढ़ाने की ज़रूरत है. है कि नहीं?”
पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा औरतों को केंद्र में रखकर की जाने वाली रिपोर्टिंग का यह राष्ट्रव्यापी प्रोजेक्ट, ‘पापुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया’ द्वारा समर्थित पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की बातों और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए इन महत्वपूर्ण, लेकिन हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति का पता लगाया जा सके.
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अनुवाद: प्रभात मिलिंद