वह स्थान जहां चंपत नारायण जंगले मृत पड़े थे, कपास के लहलहाते खेत का एक उपेक्षित और पथरीला हिस्सा है.
महाराष्ट्र के इन इलाक़ों में, इसे हल्की ज़मीन या उथली भूमि कहते हैं. हरी-भरी पहाड़ी अंध कबीले से जुड़ी ज़मीनों के कैनवास को एक सुंदर पृष्ठभूमि प्रदान करती है, जो गांव से दूर खेत का एक अलग-थलग पड़ा हिस्सा है.
जंगली सूअरों से अपने खेत को बचाने के लिए चंपत कई दिन और रात वहीं खेत में बिताते थे और फूस की बनी मड़ई उन्हें तेज़ धूप और बारिश से बचाती थी. वह मड़ई अब भी इस जगह पर बल्लियों के सहारे खड़ी है. उनके पड़ोसी याद करते हुए बताते हैं कि वह हमेशा यहीं मौजूद रहते थे.
अंध आदिवासी किसान चंपत (क़रीब 45 वर्ष) को मड़ई से, अपने खेत का पूरा नज़ारा दिखता होगा और साथ ही उन्हें बिना फल्ली वाले क्षतिग्रस्त पौधे, घुटने तक की ऊंचाई के अरहर के पौधे, और अंतहीन नज़र आता नुक़सान भी दिखता रहा होगा.
उन्हें पता होगा कि दो महीने बाद, जब फ़सल की कटाई शुरू होगी, तो कोई उपज हासिल नहीं होगी. उन्हें क़र्ज़ भी उतारने थे और अपने परिवार के रोज़मर्रा के ख़र्च भी चलाने थे. लेकिन, उनके पास पैसे नहीं थे.
![Badly damaged and stunted cotton plants on the forlorn farm of Champat Narayan Jangle in Ninganur village of Yavatmal district. Champat, a small farmer, died by suicide on August 29, 2022.](/media/images/DSC04343.max-1400x1120.jpg)
![The small thatched canopy that Champat had built for himself on his farm looks deserted](/media/images/DSC04353_1.max-1400x1120.jpg)
बाएं: यवतमाल ज़िले के निंगनुर गांव में चंपत नारायण जंगले के खेत में कपास के पौधे बुरी तरह क्षतिग्रस्त और ख़राब हो चुके थे. चंपत एक छोटे किसान थे, और उन्होंने 29 अगस्त, 2022 को आत्महत्या कर ली. दाएं: चंपत द्वारा खेत में ख़ुद के लिए बनाई फूस की छोटी मड़ई अब वीरान हो गई है
बीते 29 अगस्त, 2022 की एक दोपहर, जब उनकी पत्नी ध्रुपदा बच्चों के साथ वहां से 50 किमी दूर अपने पिता से मिलने गई थीं; चंपत ने मोनोसिल, जो कि एक ख़तरनाक कीटनाशक है, पी लिया. उन्होंने एक दिन पहले ही इसे उधार पर ख़रीदा था.
इसके बाद, उन्होंने दूसरे खेत में काम कर रहे अपने चचेरे भाई को ज़ोर से आवाज़ दी, और मोनोसिल के खाली डब्बे को इस तरह हिलाते हुए ज़मीन पर गिर पड़े, मानों उन्हें अलविदा कहना चाह रहे हों. ज़मीन पर गिरते ही उनकी मौत हो गई.
चंपत के 70 वर्षीय चाचा रामदास जंगले पास में ही एक बंजर पथरीले खेत में काम कर रहे थे. वह बताते हैं कि “मैं सबकुछ छोड़-छाड़कर उसकी ओर दौड़ा.” आनन-फानन में रिश्तेदारों और ग्रामीणों ने उन्हें गांव से 30 किलोमीटर दूर एक ग्रामीण अस्पताल में ले जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था की. लेकिन, अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. उनके मुताबिक़ उनकी पहले ही मौत हो चुकी थी.
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महाराष्ट्र के पश्चिमी विदर्भ क्षेत्र के यवतमाल की उमरखेड़ तहसील के दूरस्थ गांव निंगनुर में ज़्यादातर छोटे या सीमांत अंध आदिवासी किसान रहते हैं, और यहां की ज़मीन उथली है. यही चंपत के भी जीवन और मरण की जगह है.
विदर्भ में, पिछले दो महीनों (जुलाई और मध्य अगस्त) में लगातार हुई भारी बारिश के साथ-साथ सूखे के हालात के चलते किसान आत्महत्याओं की बाढ़ सी आ गई है.
रामदास कहते हैं, ''लगभग तीन हफ़्तों तक हमने सूरज नहीं देखा.” सबसे पहले, भारी बारिश ने बुआई को बर्बाद कर दिया. इसके बाद, जो पौधे बारिश से बच गए उन पर सूखे की मार पड़ी. वह आगे बताते हैं, “जब हम खाद डालना चाहते थे, तो बारिश रुक नहीं रही थी. अब जब बारिश की ज़रूरत है, तो बारिश नहीं हो रही है."
![The Andh community's colony in Ninganur.](/media/images/DSC04369.max-1400x1120.jpg)
![Ramdas Jangle has been tending to his farm and that of his nephew Champat’s after the latter’s death](/media/images/Ed-DSC04360.max-1400x1120.jpg)
बाएं: निंगनुर में अंध समुदाय की कॉलोनी. दाएं: रामदास जंगले अपने भतीजे चंपत की मौत के बाद से अपने खेत के साथ-साथ उनके खेत की देखभाल भी कर रहे हैं
पश्चिमी विदर्भ का कपास का इलाक़ा दो दशक से भी ज़्यादा समय से, खेती में तेज़ी से बढ़ते आर्थिक संकट और पारिस्थितिकी से जुड़ी समस्याओं के कारण हो रही किसान आत्महत्याओं के चलते बहुत अधिक चर्चा में रहा है.
आईएमडी के ज़िलेवार वर्षा के आंकड़ों के अनुसार, विदर्भ और मराठवाड़ा के संयुक्त रूप से 19 ज़िलों में, वर्तमान मानसून के दौरान औसत से 30 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई है. सबसे ज़्यादा बारिश जुलाई माह में हुई थी. अभी मानसून के ख़त्म होने में लगभग एक महीने का समय है, और इस क्षेत्र में जून और 10 सितंबर, 2022 के बीच 1100 मिमी से ज़्यादा बारिश हो चुकी है (बीते वर्षों में, इस अवधि के दौरान 800 मिमी बारिश हुई थी). यह साल असामान्य बारिश वाला साल बनता जा रहा है.
लेकिन यह आंकड़ा विविधताओं और उतार-चढ़ाव को नहीं दर्शाता. जून में लगभग नहीं के बराबर बारिश हुई थी. जुलाई की शुरुआत में बारिश शुरू हुई और कुछ ही दिनों में इसने जून की कमी को पूरा कर दिया. जुलाई के मध्य तक महाराष्ट्र के कई हिस्सों से अचानक बाढ़ आने की सूचना मिली थी. भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने मराठवाड़ा और विदर्भ में जुलाई के पहले पखवाड़े के दौरान, कई स्थानों पर भारी बारिश (24 घंटे में 65 मिमी से अधिक) की सूचना दी.
अगस्त की शुरुआत में बारिश बंद हो गई और यवतमाल सहित कई ज़िलों में सितंबर की शुरुआत तक सूखा देखा गया. लेकिन इसके बाद एक फिर से पूरे महाराष्ट्र में बारिश ने दस्तक दे दी.
निंगनुर के किसानों का कहना है कि इस क्षेत्र में बहुत ज़्यादा बारिश के बाद, लंबे समय तक सूखा रहने का एक चलन बनता जा रहा है. यह चलन उनके लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है. उनके लिए यह तय करना मुश्किल है कि कौन सी फ़सलें उगाएं, कौन सी पद्धति अपनाएं, और पानी तथा मिट्टी की नमी का प्रबंधन कैसे करें. इस कारण एक ख़तरनाक स्थिति पैदा हो रही है, जिसके चलते चंपत ने अपनी जान दे दी.
![Fields damaged after extreme rains in July and mid-August in Shelgaon village in Nanded.](/media/images/DSC04317.max-1400x1120.jpg)
![Large tracts of farms in Chandki village in Wardha remained under water for almost two months after the torrential rains of July](/media/images/Ed-DSC04387.max-1400x1120.jpg)
बाएं: नांदेड़ के शेलगांव गांव में जुलाई और अगस्त के मध्य में अत्यधिक बारिश के बाद खेतों को बहुत नुक़सान पहुंचा. दाएं: वर्धा के चंदकी गांव में जुलाई की मूसलाधार बारिश के बाद, लगभग दो महीने तक खेतों का बड़ा हिस्सा पानी में डूबा रहा
कृषि संकट को कम करने के लिए, सरकार द्वारा संचालित टास्क फ़ोर्स वसंतराव नाइक शेतकरी स्वावलंबन मिशन के प्रमुख किशोर तिवारी कहते हैं कि हालिया समय में किसानों की आत्महत्याएं बहुत बढ़ गई हैं. वह बताते हैं कि अकेले विदर्भ में 25 अगस्त से 10 सितंबर के बीच के पखवाड़े में 30 किसानों ने आत्महत्या कर की. उनका कहना है कि अत्यधिक बारिश और आर्थिक संकट के चलते, जनवरी 2022 से अब तक 1,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है.
आत्महत्या करने वालों में यवतमाल के एक गांव के दो भाई भी शामिल हैं, जिन्होंने एक महीने के अंतराल में आत्महत्या कर ली.
तिवारी कहते हैं, “कोई भी सहायता राशि उनकी मदद नहीं कर सकती है; इस साल बहुत अधिक बर्बादी हुई है.”
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उनके खेत जलमग्न हो गए और फ़सलें नष्ट हो गईं, और अब महाराष्ट्र में छोटे किसानों की एक बड़ी आबादी संकट के आगामी दौर की आहट महसूस कर रही है.
महाराष्ट्र के कृषि आयुक्त के कार्यालय का अनुमान है कि विदर्भ, मराठवाड़ा और उत्तरी महाराष्ट्र में लगभग 20 लाख हेक्टेयर खेतिहर ज़मीन, इस मौसम की बारिश और सूखे से बर्बाद हो गई है. पूरे क्षेत्र के किसानों का कहना है कि ख़रीफ़ की पूरी की पूरी फ़सलें नष्ट हो गई हैं. सोयाबीन, कपास, अरहर जैसी हर बड़ी फ़सल को नुक़सान हुआ है. शुष्क ज़मीन वाले क्षेत्रों में, जहां मुख्य रूप से ख़रीफ़ उगाई जाती है, इस साल की बारिश से हुई तबाही भयानक रही है.
नदियों और नालों के किनारे बसे गांवों - जैसे नांदेड़ की अर्धपुर तहसील में स्थित शेलगांव - को अचानक आई बाढ़ का सामना करना पड़ा. शेलगांव के सरपंच पंजाब राजेगोरे कहते हैं, ''हम एक हफ़्ते के लिए, बाहरी दुनिया से कट गए थे. गांव के पास बहने वाली उमा नदी के कहर के कारण, हमारे घर और खेत जलमग्न हो गए थे." उमा नदी गांव से कुछ मील की दूरी पर असना नदी से मिलती है, और इसके बाद आगे चलकर दोनों नदियां नांदेड़ के पास गोदावरी से मिलती हैं. भारी बारिश के दौरान ये सभी नदियां उफान पर थीं.
![Punjab Rajegore, sarpanch of Shelgaon in Nanded, standing on the Uma river bridge that was submerged in the flash floods of July.](/media/images/DSC04329.max-1400x1120.jpg)
![Deepak Warfade (wearing a blue kurta) lost his house and crops to the July floods. He's moved into a rented house in the village since then](/media/images/Ed-DSC04403.max-1400x1120.jpg)
बाएं: नांदेड़ के शेलगांव के सरपंच पंजाब राजेगोरे, जुलाई में अचानक आई बाढ़ में डूबे रहे उमा नदी के पुल पर खड़े हैं. दाएं: दीपक वारफडे (नीला कुर्ता पहने हुए) ने जुलाई की बाढ़ में अपना घर और फ़सल खो दिया. तब से वह गांव में किराए के एक मकान में रह रहे हैं
वह आगे बताते हैं, "पूरे जुलाई में इतनी बारिश हुई कि हमारे लिए खेतों में काम करना मुश्किल था." इसके स्पष्ट संकेत कट गई मिट्टी और क्षतविक्षत फ़सलों में हैं. कुछ किसान अपनी क्षतिग्रस्त फ़सलों में से जो कुछ बचा है उसे साफ़ कर रहे हैं, ताकि अक्टूबर में रबी की जल्दी बुआई की तैयारी कर सकें.
सात दिनों से ज़्यादा वक़्त तक हुई लगातार बारिश और यशोदा नदी में आए उफान ने जुलाई में वर्धा ज़िले के चंदकी गांव को जलमग्न कर दिया, और यहां की लगभग 1,200 हेक्टेयर खेतिहर ज़मीन आज भी पानी में डूबी हुई है. बाढ़ में फंसे ग्रामीणों को निकालने के लिए, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ़) को बुलाना पड़ा था.
दीपक वारफड़े (50 वर्ष) कहते हैं, ''तेरह घर ढह गए, जिनमें मेरा भी घर शामिल है. हमारी समस्या यह है कि अब हमारे पास कोई कृषि कार्य नहीं है; पहली बार ऐसा हुआ है, जब मेरे पास कोई काम नहीं है." बाढ़ में घर ढह जाने के बाद से दीपक गांव में किराए के मकान में रह रहे है.
दीपक कहते हैं, ''हमने एक महीने में सात बार बाढ़ देखी है. सातवीं बार तो यह ज़ोरदार झटके की तरह आई; हम भाग्यशाली थे कि एनडीआरएफ़ की टीमें समय पर हमारे पास पहुंच गईं, नहीं तो मैं यहां नहीं होता.
ख़रीफ़ सीज़न के निकल जाने के बाद, चंदकी के ग्रामीण अब परेशान हैं कि आगे क्या होने वाला है?
बाबाराव पाटिल (64 वर्ष) अपने खेत पर खड़े हैं. कपास के अविकसित पौधे और समतल हो गए खेत तबाही की तस्वीर पेश करते हैं. ऐसे में, बाबाराव अपने खेत में जो भी बाक़ी रह गया है उसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं.
वह कहते हैं, "मुझे नहीं पता कि इस साल कुछ हासिल होगा या नहीं. मैं घर पर बेकार बैठने के बजाय, इनमें से कुछ पौधों को फिर से जिलाने की कोशिश कर रहा हूं." उनका कहना है कि आर्थिक संकट गहराता जा रहा है और मुश्किलें तो अभी शुरू ही हुई हैं.
महाराष्ट्र में मीलों-मील दूर तक फैले खेतों की हालत बाबाराव के खेत जैसी ही है: कहीं भी फ़सल स्वस्थ नज़र नहीं आती, न ही खड़ी दिखती है.
![Babarao Patil working on his rain-damaged farm in Chandki.](/media/images/Ed-DSC04388.max-1400x1120.jpg)
![The stunted plants have made him nervous. 'I may or may not get anything out this year'](/media/images/Ed-DSC04391.max-1400x1120.jpg)
बाएं: बाबाराव पाटिल, चंदकी में बारिश से तबाह हुए अपने खेत में काम कर रहे हैं. दाएं: अविकसित पौधों ने उन्हें हताश कर दिया है. 'मुझे नहीं पता कि इस साल कुछ हासिल होगा या नहीं'
विश्व बैंक के पूर्व सलाहकार और वर्धा के क्षेत्रीय विकास विशेषज्ञ श्रीकांत बरहाटे कहते हैं, “अगले 16 महीनों में यह संकट और बढ़ेगा. तब जाकर अगली फ़सल कटाई के लिए तैयार हो पाएगी." सवाल यह है कि किसान 16 महीने तक कैसे गुज़ारा करेंगे?
चंदकी के पास स्थित बरहाटे के अपने गांव रोहनखेड़ को भी भारी नुक़सान हुआ है. वह बताते हैं, "दो चीज़ें हो रही हैं. एक तरफ़ लोग सोना या अन्य संपत्ति गिरवी रख रहे हैं या घरेलू ज़रूरतों के लिए निजी तौर पर पैसे उधार ले रहे हैं, और वहीं दूसरी तरफ़ युवा काम की तलाश में पलायन करने पर विचार कर रहे हैं."
बरहाटे कहते हैं कि वर्ष समाप्त होने पर बैंकों को फ़सल ऋण न चुका पाने के असंख्य मामले दिखेंगे.
अकेले चंदकी में कपास की फ़सल का नुक़सान 20 करोड़ रुपए के क़रीब है - यानी इस साल अनुकूल परिस्थितियों में कपास से सिर्फ़ इस गांव में ही इतनी कमाई हुई होती. यह अनुमान, इस क्षेत्र में कपास की प्रति एकड़ औसत उत्पादकता पर आधारित है.
नामदेव भोयर (47 वर्ष) कहते हैं, ''न केवल हमने फ़सलें गंवाई हैं, बल्कि अब हम बुआई और अन्य कार्यों पर ख़र्च किए गए पैसे की वसूली भी नहीं कर पाएंगे.”
वह चेतावनी देते हुए कहते हैं, "और यह एक बार का नुक़सान नहीं है. मिट्टी का कटाव एक दीर्घकालिक (पारिस्थितिकी से जुड़ी) समस्या है."
![Govind Narayan Rajegore's soybean crop in Shelgaon suffered serious damage.](/media/images/DSC04320.max-1400x1120.jpg)
![Villages like Shelgaon, located along rivers and streams, bore the brunt of the flooding for over a fortnight in July 2022](/media/images/Ed-DSC04326.max-1400x1120.jpg)
बाएं: शेलगांव में गोविंद नारायण राजेगोरे की सोयाबीन की फ़सल को गंभीर नुक़सान पहुंचा है. दाएं: नदियों और नालों के किनारे बसे शेलगांव जैसे गांव, जुलाई 2022 में एक पखवाड़े से अधिक समय तक बाढ़ की चपेट में रहे
जब महाराष्ट्र के लाखों किसान जुलाई से अगस्त तक भारी बारिश की चपेट में थे, उस समय शिवसेना में अंदरूनी टूट के कारण महा विकास अघाड़ी सरकार गिर गई और राज्य में कोई कार्यशील सरकार नहीं थी.
सितंबर की शुरुआत में, एकनाथ शिंदे की नई सरकार ने राज्य के लिए 3500 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता की घोषणा की. यह एक आंशिक सहायता है, जो फ़सल और जनजीवन को हुए वास्तविक नुक़सान की भरपाई नहीं कर पाएगी. इसके अलावा, सर्वेक्षण के माध्यम से लाभार्थियों की पहचान किए जाने के बाद, लोगों को बैंक खातों में पैसे मिलने में कम से कम एक साल लग सकते हैं. लोगों को मदद की ज़रूरत आज है.
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चंपत की पत्नी ध्रुपदा पूछती हैं, "क्या आपने मेरा खेत देखा? आप ऐसी भूमि पर क्या उगाएंगे?" वह कमज़ोर और व्याकुल दिखती हैं. उनके तीन बच्चों ने उन्हें घेरा हुआ है - पूनम (8 वर्ष), पूजा (6 वर्ष), और कृष्णा (3 साल). अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए, चंपत और ध्रुपदा खेतिहर मज़दूरों के रूप में भी काम करते थे.
पिछले साल, इस दंपति ने अपनी सबसे बड़ी बेटी तजुली की शादी कर दी थी. कहने को तो वह 16 की है, लेकिन 15 साल से अधिक की नहीं दिखती; उसका तीन महीने का बच्चा है. अपनी बेटी की शादी से चढ़े क़र्ज़ को चुकाने के लिए, चंपत और ध्रुपदा ने अपने खेत को एक रिश्तेदार को पट्टे पर दे दिया और पिछले साल गन्ना काटने का काम करने के लिए कोल्हापुर चले गए थे.
जंगले का परिवार झोपड़ी में रहता है, जिसमें बिजली नहीं है. फ़िलहाल, परिवार के पास खाने को कुछ नहीं है; उनके पड़ोसी - जो उतने ही ग़रीब और बारिश के चलते बेहाल हैं - उनकी मदद कर रहे हैं.
सबसे पहले चंपत की आत्महत्या की रिपोर्टिंग करने वाले स्थानीय पत्रकार-स्ट्रिंगर और किसान मोइनुद्दीन सौदागर कहते हैं, "यह देश ग़रीबों लोगों को बेवकूफ़ बनाना जानता है." उन्होंने भाजपा के स्थानीय विधायक द्वारा ध्रुपदा को 2000 रुपए की मामूली मदद पर एक तीखा लेख लिखा था और इसे अपमान बताया था.
![Journalist and farmer Moinuddin Saudagar from Ninganur says most Andh farmers are too poor to withstand climatic aberrations.](/media/images/Ed-DSC04350.max-1400x1120.jpg)
![Journalist and farmer Moinuddin Saudagar from Ninganur says most Andh farmers are too poor to withstand climatic aberrations.](/media/images/Ed-DSC04377.max-1400x1120.jpg)
बाएं: निंगनुर के पत्रकार और किसान मोइनुद्दीन सौदागर का कहना है कि अंध समुदाय के अधिकांश किसान इतने ग़रीब हैं कि वे जलवायु परिवर्तन से जुड़ी मुश्किलों का सामना नहीं कर सकते. दाएं: निंगनुर में अपनी छोटी सी झोपड़ी में बच्चों के साथ बैठीं, दिवंगत चंपत की पत्नी ध्रुपदा भावुक हो गईं
मोइनुद्दीन कहते हैं, "पहले हम उन्हें ऐसी उथली, पथरीली और बंजर ज़मीन देते हैं, जिसपर कोई भी खेती नहीं करना चाहेगा. और फिर हम उन्हें सहायता देने से इंकार करते हैं." चंपत को उनके पिता से विरासत में मिली ज़मीन द्वितीय श्रेणी की ज़मीन है, जो भूमि सीलिग अधिनियम के तहत भूमि वितरण कार्यक्रम के दौरान मिली थी.
मोइनुद्दीन कहते हैं, "दशकों से, इन पुरुषों और महिलाओं ने इन्हें उपजाऊ बनाने के लिए, अपने लिए कुछ उगाने के लिए ख़ून-पसीना एक कर दिया है." वह बताते हैं कि निंगनुर गांव इस इलाक़े के सबसे ग़रीब गांवों में से एक है, जहां ज़्यादातर अंध आदिवासी परिवार और गोंड आदिवासी रहते हैं.
मोइनुद्दीन का कहना है कि अधिकांश अंध आदिवासी किसान इतने ग़रीब हैं कि वे जलवायु परिवर्तन से जुड़ी मुश्किलों का सामना नहीं कर पाएंगे; जैसा इस साल हुआ. मोइनुद्दीन आगे कहते हैं कि अंध आदिवासी, भूख और कठिनाई तथा घोर ग़रीबी के पर्याय बन गए हैं.
ध्रुपदा ने बहुत पूछने पर ख़ुलासा किया कि मृत्यु के समय, चंपत पर औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह के क़र्ज़ बकाया थे. उन पर लगभग 4 लाख रुपए का क़र्ज़ था. वह कहती हैं, “हमने बेटी की शादी के लिए पिछले साल क़र्ज़ लिया था; इस साल, हमने अपने रिश्तेदारों से खेती के लिए और अपनी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पैसे उधार लिए थे. हम फ़िलहाल क़र्ज़ चुकाने की स्थिति में नहीं हैं.”
अपने परिवार के अनिश्चितता के अंधकार में डूबे भविष्य के साथ-साथ, वह हाल ही में अपने एक बैल के बीमार पड़ जाने को लेकर भी चिंतित हैं. वह कहती हैं, "जबसे इनके मालिक ने दुनिया छोड़ी है, तब से मेरे बैल ने भी खाना छोड़ दिया है."
अनुवाद: अमित कुमार झा