ये ह सीत के जुड़हा मंझनिया रहिस, पूस के सुरुज देंवता पहुना कस परछी मं पसरे रहिस, तब क़मर ह करीबन हजार किमी दूरिहा मं रहेइय्या अपन दाई ला फोन करिस. 75 बछर के शमीमा खातून ले गोठियावत वो ह वोला सुरता करावत बिहार के सीतामढ़ी जिला के वर्री फुलवरिया गाँव मं अपन बचपना के घर मं ले गीस.
गर तुमन वो मंझनिया फोन मं दूनों डहर के गोठ-बात ला सुने रहितव, त मानके कहिथों तुमन ला अलग कुछु सुने ला मिले रतिस. साफ उर्दू मं वो ह पूछथे, “अम्मी ज़रा ये बताइयेगा, बचपन में जो मेरे सर पे ज़ख्म होता था ना उसका इलाज कैसे करते थे?” (दाई, बता न बचपना मं मोर मुड़ मं जेन दाना निकरे रहिस, वोला तंय कइसने बने करे?)
“सीर में जो हो जाहै - तोरोहू होला रहा- बतखोरा काहा है ओको इधर, रे, चिकनी मिट्टी लगाके ढोलिया रहा, मगर लगहि बहुत. ता छूट गेलयि” [जेन तोर मुड़ मं दिखथे –जेन तोला होर रहिस- वोला इहाँ बतखोरा कहे जाथे. मंय रेह खारी (माटी राख) अऊ चिक्कन माटी ले तोर मुड़ ला धोवंय, फेर भारी पिराथे. आखिर मं तोला येकर ले निजात मिलगे,]” वो ह अपन घर के इलाज ला बतावत हाँसथे, ओकर भाखा क़मर ले बिल्कुले अलग आय.
वो मन के गोठ-बात मं कुछु घलो अलग नई रहिस. क़मर अऊ ओकर दाई हमेसा एक-दूसर ले अलग-अलग भाखा मं गोठियाथें.
“मंय ओकर बोली ला समझ लेथों, फेर मंय बोले नईं सकंव. मंय कहिथों के उर्दू मोरा ‘महतारी भाखा’ आय, फेर मोर दाई अलग भाखा मं बात करथे,” वो ह दूसर दिन पारीभाषा बइठका मं कहिथे, जिहां हमन अंतर्राष्ट्रीय महतारी भाखा ऊपर अपन कहिनी के बिसय ला लेके चर्चा करत रहेन. वो ह कहिथे, “कऊनो ला घलो ओकर भाखा के नांव के बारे मं मालूम नई ये, न अम्मी ला, न मोर परिवार के कऊनो ला, इहाँ तक ले जेन मन येला बोलथें घलो.” काम बूता खोजे बहिर जवेइय्या मरद मन, जेन मं वो , ओकर ददा अऊ ओकर भाई घलो हवंय, कभू घलो ये भाखा नई बोलंय. क़मर के लइका मन अऊ घलो अलग होगे हवंय: वो मन अपन दादी के भाखा ला नईं समझे सकंय.
वो ह कहिथें, “मंय अऊ जियादा जाने के कोसिस करेंव. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के भाखा के विद्वान मोहम्मद जहाँगीर वारसी येला ‘मैथिली उर्दू’ कहिथें. जेएनयू के एक झिन दीगर प्रोफेसर रिज़वानुर रहमान कहिथें के बिहार के ये इलाका के मुसलमान मन सरकारी रूप मं उर्दू ला अपन महतारी भाखा के रूप दरज कराथें, फेर घर मं एक अलग बोली मं गोठियाथें. अइसने लगथे के दाई के भाखा उर्दू, फारसी, अरबी, हिंदी अऊ मैथिली के मिंझरे रूप आय – जेन ह वो इलाका मं पनपे हवय.”
एक ठन महतारी भाखा जेन ह हर पीढ़ी के संग नंदावत जावत हवय.
बस अतकेच रहिस! क़मर ह हमन ला शब्द के खेदा करे पठो दीस. हमन सब्बो अपन अपन महतारी भाखा मं नंदावत जावत कुछेक शब्द के पांव के चिन्हा ला पता लगाय अऊ ओकर आरो लेगे के फइसला करथन जेन ह नुकसान ला फोर के बता सकथे. अऊ येकर पहिली के हमन जाने सकतन, हमन बोर्जस् अल्फ ला निहारत रहेन.
*****
राजा सबले पहिली बोलेइय्या मइनखे रहिस. वो ह कहिथे, “तमिल मं एक ठन लोकप्रिय हाना ला लेके एक ठन तिरुकुरल दोहा हवय.”
“
मयिर निप्पिन वालहा कवरिमा अन्नार
उइरनिप्पर माणम वरिन [
कुरल
# 969
]"
येकर अनुवाद अइसने हवय: जब हिरन के देह ले बाल खींचे जाथे, त वो ह मर जाथे. अइसनेच, जेन लोगन मन के मान चले जाथे वो मन सरम ले मर जाथें.
“ये दोहा मं मइनखे के स्वाभिमान ला हिरन के बाल ले तौले गे हवय. कम से कम म्यू के अनुवाद त इहीच आय. मो वरदरासनार सुझाव देथें.” राजा ह झिझकत कहिथे, फेर बाल हेरे ले हिरन काबर मरही? बाद मं इंडोलॉजिस्ट, आर बालाकृष्णन के लेख, सिंधु घाटी मं तमिल गांव के नांव , ला पढ़े के बाद मोला समझ मं आइस के दोहा मं ‘कवरिमा’ लिखे हवय जेन ह याकिन तमिल आय, न कि 'कवरिमान', जेन ह हिरन आय.
“याक? फेर ऊपरी हिमालय मं मिलेइय्या एक ठन ये जानवर तमिल कविता मं, देस के दूसर छोर मं लोगन के बोली भाखा मं काय करत हवय. आर. बालकृष्ण येला सभ्यता के अवई-जवई के जरिया ले समझाथें. ओकर मुताबिक, सिंधु घाटी के लोगन मन अपन मूल शब्द, जिनगी के तरीका, उहाँ के नांव के संग दक्खन दिग मं चले गे होहीं.”
राजा कहिथे, एक दीगर विद्वान वी.अरसु के तर्क आय, “कऊनो ला देस-राज धन देस ला आज के हिसाब ले भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास के कल्पना नई करे ला चाही. वो ह कहिथे, ये घलो हो सकत हे के भारतीय उपमहाद्वीप के जम्मो नजारा कभू द्रविड़ भाखा बोलेइय्या लोगन मन ले भरे रहिस. उत्तर मं सिंधु घाटी ले लेके दक्खन मं श्रीलंका तक के जम्मो नजारा मं रहे के बाद, ये कऊनो अचरज के बात नो हे के तमिल मं करा हिमालय मं रहेइय्या एक ठन जानवर सेती एक ठन शब्द हवय.”
“कावरिमा-अचरज ले भरे एक ठन शब्द!” राज खुस होके नरिया परथे. “मजा के बात ये आय के नामी तमिल शब्दकोश क्रिआ मं कवरिमा शब्द नईं ये.”
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हमन ले कतको लोगन मन करा अइसने शब्द के कहिनी रहिस जेन हा अब शब्दकोश मन मं नईं मिलय.जोशुआ ह येला नांव दीस - मानकीकरण की राजनीति.
“सदियों ले बंगाल के किसान, कुम्हार, दाई-महतारी, कवि, कारीगर अपन-अपन इलाका के भाखा - राढ़ी, वरेंद्री, मानभूमि, रंगपुरी, अऊ कतको मं गोठियावत अऊ लिखत रहिन. फेर 19 वीं अऊ 20 वीं सदी के सुरु मं बंगाल मं पुनर्जागरण आय के संग, बंगला ह अपन अधिकतर अपन छेत्र के अऊ अरबी-फारसी शब्द ला गंवा दीन. मानकीकरण अऊ आधुनिकीकरण के लहर संस्कृतिकरण अऊ एंग्लोफोनिक, यूरोपीय शब्द अऊ मुहावरा मन के संगे-संग चले लगिन. ये ह बांग्ला ले ओकर बहुलवादी रूप ला छीन लीस. तब ले संताली, कुड़माली, राजबोंशी, कुरुक, अऊ कतको आदिवासी भाखा मं गहिर ले जमे धन उहाँ ले लेय शब्द मन ला खतम करे जावत हे.”
ये कहिनी सिरिफ बंगाल तक ले नई ये. भारत मं हरेक भाखा मं एक ठन हाना हवय. “बार गौ ई बोली बडाले” (दू कोस मं पानी बदले चार कोस मं बानी). अऊ भारत मं हरेक राज, अंगरेज मन के राज के बखत, आजादी के बाद बोली के आधार ले राज बनाय बखत अऊ ओकर बाद, धीरे-धीरे खतम होय के समान प्रक्रिया ले गुजरे हवय. भारत मं राज के भाखा के कहिनी ऐतिहासिक रूप ले सांस्कृतिक अऊ राजनीतिक मतलब ले भरे हवय.
जोशुआ कहिथें, “मंय बाँकुड़ा ले हंव.” जेन ह पहिली जमाना के मल्लभूम राज के गढ़ आय, जेन ह कतको समाज के भाखा बोलेइय्या मन के इलाका आय, जेकर सेती भाखा, रीति-रिवाज अऊ बनेच कुछु मं सरलग लेन-देन होवत रहिथे. ये इलाका के हरेक भाखा मं कुड़माली, संताली, भूमिज अऊ बिरहोड़ी जइसने कतको उधार लेवेइय्या शब्द अऊ विभक्ति मन हवंय.
“फेर, मानकीकरण अऊ आधुनिकीकरण के नांव मं आड़ा (भूंइय्या), जुमड़ाकुचा (जरे लकरी), काकती (कछुवा), जोड़ (धार), आगड़ा (पोंडा), बिलाती बेगुन (पताल) अऊ कतको दीगर शब्द मन ओकर जगा रखे जावत हवंय. अंगरेज राज बखत के कलकत्ता के बड़े लोगन मन के, बड़े जात समाज के लोगन मन के बनाय भारी संस्कृत वाले अऊ यूरोप के बोली ले.”
*****
फेर जब कऊनो शब्द सुने मं नई आवय त काय वो ह नंदा जाथे? काय वो शब्द सबले पहिली गायब हो जाथे धन अर्थ? धन काय ये बात भाखा मं एक ठन खाली जगा बनावत हवय? फेर काय ये नुकसान के बाद जेन खाली जगा बचे हवय वो मं कुछु नवा देखे मं नई आवय?
जब एक ठन नवा शब्द, ‘उड़ालपुल’ (फ्लाइंग ब्रिज), फ्लाईओवर सेती बंगाली के नवा शब्द गढ़ लेय जाथे- त काय हमन कुछु गंवा देथन, धन हमन काय हासिल करथन? अऊ काय ये प्रक्रिया मं जेन कुछु गंवा गे हे वो ह अब जेन ला हमन जोड़े हवन ओकर ले कहूँ जियादा हवय? स्मिता मगन होके सोचत रहय.
वो ह हवा अऊ अंजोर आय सेती छानी के तरी मं पारंपरिक रोशनदान सेती बंगला मं एक ठन जुन्ना शब्द ‘घुलघुली’ ला सुरता करथे. वो ह कहिथे, “अब वो ह नंदा गे हे.” करीबन 10 वीं सदी पहिली एक झिर चतुर माइलोगन, खोना, खोनार बचन मं अपन बंगाली दोहा मं खेती, सेहत अऊ इलाज, मऊसम के ग्यान, घर बनाय के बारे मं अचंभा वाले बेहवार ला लेके लिखत रहिस.
आलो हवा बेधो ना
रोगे भोगे मोरोना.
बिन हवा-अंजोर वाले खोली बनावो झन
रोग ला भोगत, मरव झन
पिड़े उंचु मेझे खाल.
तार दुक्खो सोरबोकाल.
घर, खोर ले खाल्हे हवय
ओकर दुख सब्बो बखत
हमर पुरखा मन खोना के बुद्धि ऊपर भरोसा करिन अऊ घर मन मं ‘घुलघुली’ बनाइन, स्मिता आगू कहिथे, “फेर ये जमाना के बनाय घर मन मं, जेन ह अक्सर सरकार डहर ले लोगन मन बर बनाय गे हवय वो मं पारंपरिक गियान बर कऊनो जगा नई ये. भिथि मं पठेरा अऊ कुलुंगी के रूप मं कोठी, खुल्ला जगा जेन ला चाताल कहे जावत रहिस चलन मं नई ये. वो ह कहिथे, घुलघुली नंदा गे हे अऊ बोलचाल के ये शब्द घलो सुने मं नई ये.”
फेर ये ह सिरिफ शब्द भर नो हे, धन घुलघुलीच नो हे जेन ह अइसने बखत मं कलपत हवय जब खुदेच घर ह परेवागुड़ा मं बदल गे हवय. स्मिता ये कोंवर नाता के टूटे ला घलो दुखी हवंय जऊन मन कभू दीगर जीव परानी के संग, प्रकृति के बीच मं घर के चिरई गौरैया मन के संग रहिन अऊ तऊन रोसनदान मं अपन गुड़ा बनावत रहिन.
*****
कमलजीत कहिथें, “घर मं कमतियात चिरई गौरैया बर मोबाइल टावर के मार, पक्का घर के छोड़, हमर बंद रंधनीखोली अऊ खेत मन मं भारी दवई छिंचे ला घलो जिम्मेदार माने जा सकथे.” हमर घर मन मं, बारी-बखरी मं अऊ गीत मन मं भाखा अऊ पर्यावरण तंत्र के महत्तम नाता ला समझाय गे रहिस. पंजाबी कवि वारिश शाह के कुछेक पांत ला बतावत वो ह कहिथे,
“
चिड़ि चुगदी
नाल जा तूरे पांधी
,
पैयां दूध
दे विच मदाणयां नी.
(गौरैया के
बोलतेच राहगीर निकर परथे,
जइसने
माइलोगन ह गोरस ले मलाई निकारथे.)
एक जमाना रहिस जब गौरैया के चहक सुनके किसान अपन दिन के सुरवात करत रहिस अऊ बहिर जवेइय्या मन रेंगे ला सुरु करत रहिन.वो मं हमर प्रकृति के नान चेतेइय्या रहिन. आज मंय अपन फोन मं ओकर चहचाय के रिकार्ड करे बोली ला सुन के जागथों. किसान मन मऊसम के भविष्यवाणी करंय, ओकर बेहवर ला देख के खेती-किसानी के काम ला करेंव. ओकर पांखी के कुछेक करनी ला देख के शुभ माने जाय किसान बर सगुन के बात रहय.
चिड़िया खम्ब खिलेरे
,
वसण मीहँ बहुतेरे.
“(जब घलो गौरैया अपन पांखी ला
बगराथे
त अकास ले भारी पानी गिरथे).”
ये सिरिफ संजोग भर नो हे के हमन अपन आप ला रुख-रई, जानवर अऊ चिरई मन के नंदावत जावत किसम के संग बनेच अकन जैविक बिनास के बीच मं देखथन फेर हमन अपन भाखा अऊ संस्कृति विविधता मं महत्तम गिरती ले जुझत हवन. साल 2010 मं पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में डॉ. गणेशदेव्य ह बताय हवय के भारत मं बीते 60 बछर मं करीबन 250 भाखा भारी खतरनाक संख्या मं नंदावत जावत हें.
जब पक्षी विज्ञानी पंजाब मं गौरैया के घटत तादाद के बारे मं बोलत हवंय, त कमलजीत ला बिहाव के बखत के जुन्ना लोक गीत सुरता आथे.
साडा चिरियां दा चंबा वे
,
बाबुल असां उड़ जाना.
गौरैया जइसनेच हमन अन, हमन अन
हमन ला अपन गुड़ा छोड़ दुरिहा उड़ जाय ला चाही.
वो ह कहिथे, “हमर लोकगीत मन मं गौरैया ला अक्सर देखे जावत रहिस. फेर दुख के बात आय अब अऊ नईं ये.”
*****
पंकज कहिथे, मऊसम के मार अऊ कमाय बर बहिर जाय के जइसने, नंदावत जावत जीविका घलो भाखा ले जुरे हवय. वो ह कहिथे.”आज रंगिया, गोरेश्वर अऊ हरेक जगा के बजार दीगर राज ले अवेइय्या मसीन ले बने सस्ता गमुसा (गमछा) अऊ चादोर-मेखेला (माइलोगन मन के पहिरे के पारंपरिक के कपड़ा) ले पटाय हवंय. असम मं पारंपरिक हथकरघा उदिम सिरोवत जावत हे अऊ येकरे संग हमर मूल समान अऊ बुनाई के जुरे शब्द घलो नंदावत जावत हे.”
“72 बछर के सियान अक्षय दास जेकर परिवार अभू घलो असम के भेहबारी गांव मं हथकरघा बुनाई के काम करथे, वो ह कहिथे हुनर खतम होगे हावी. नवा पीढ़ी काम बूता सेती गाँव ले करीबन 20 कोस दूरिहा गुवाहाटी चले जाथें. बुनाई के परंपरा ले दूरिहा, वो मन सेरेकी जइसने शब्द नई जनत होहीं.” अक्षय बांस के चरखी ला बतावत रहिस जऊन ला जोटर नांव के चरखा के मदद ले मोहुरा (रील) के चरों डहर नान-नान लूप मं धागा लपेटे सेती बऊरे जावत रहिस.
पंकज कहिथे, “मोला एक ठन बिहू गीत सुरता हवय, सेरेकी गुरादि नास (घूमत सेरेकी जइसने नाच).” कऊनो घलो नवा पीढ़ी के लइका जेकर करा येकर ले जुरे बात नई ये, वो ह येकर बारे मं काय कहि सकथे? अक्षय के 67 बछर के भऊजी, बिलाती दास, (गुजरे भैय्या नारायण दास के घरवाली). एक ठन अऊ गीत गावत रहिन,
टेटेलिर टोलोटे, कपूर बोई असिलो,
सोराये सिगिले हुता
(मंय अमली के रुख तरी बुनत रहेंव, चिरई मन धागा ला टोर दीन)
वो ह मोला ताना-बाना के काम ला मोला समझाथे अऊ कहिथे जइसने-जइसने बजार मं नवा-नवा अऊजार अऊ मसीन बढ़त हवंय, इहाँ के कतको अऊजार अऊ तरीका नंदावत जावत हे.
*****
निर्मल ह धीर-गहिर हँसी के संग कहिथे, “हमन ‘सर्वनाश’ तरीका अपनावत हवन.
निर्मल अपन कहिनी बताय ला सुरु करथे, “हालेच मं, मंय छत्तीसगढ़ के अपन गाँव पाटनदादर जाय रहेंव. पूजा सेती हमन ला दूब के जरूरत परिस. मंय घर के पाछू के बारी मं गेंय फेर दूब के एक तिनका घलो नई मिलिस त मनी खेत डहर चले गेंय.”
“ये ह धान लुये का कुछेक महिना पहिली के बखत रहिस. ये बखत रहिस जब धान के बाली मं दूध भरथे अऊ किसान मन पूजा करे अपन खेत मं जाथे. जम्मो पूजा बखत दूब चढ़ाथें. खेत तक जाय बर मंय जऊन हरियर पार ले जावत रहेंव, ओस परे, कोंवर-नरम, गोड़ बर मखमल जइसने लगेइय्या घांस पूरा सूखाय रहिस जइसने भारी घाम ले झुलस गे होय. दूब के एक तिनका नईं. दूब, घास, कांदी, सबके सब गायब!”
“जब मंय खेत मं बूता करत एक झिन मनखे ले पूछेंव, त वो ह कहिथे, “ ‘सर्वनाश’ डारे गे हे ओकरे सेती.” मोला समझे मं थोकन बखत लगिस के वो ह कऊनो खास दवई ला बतावत हवय. वो ह न तो नींदानाशक कहिस जइसने के छत्तीसगढ़ी मं कहे जाथे, धन उड़िया मं घास मरा जेन ला अक्सर कहे जाथे, धन खर पतवार नाशक अऊ चरामार नई कहिस. जइसने के हिंदी बोलेइय्या इलाका मं कहे जाथे. ‘सर्वनाश’ वो सब्बो के जगा ले ले रहिस!
एक-एक इंच भूंइय्या ला जोते अऊ अपन गुजारा सेती भारी उपज लेगे के मनखे के सोच ह रसायनिक खातू, दवई अऊ मसीन ले खेती-किसानी ऊपर काबिज हो गे हवय. निर्मल कहिथें के इहाँ तक ले एक एकड़ वाले किसान घलो, पारंपरिक नांगर के जगा मं ट्रेक्टर भाड़ा करके खेती करत हवय.
“दिन-रात ट्यूबवेल पानी खींचत हवय अऊ हमर धरती माता ला बंजर बनावत हवय. माटी महतारी ला 6 महिना मं गरभ धरे बर मजबूर करे जावत हवय,” वो ह टूटे मन ले कहिथे. वो ह कब तक ले सर्वनाश जइसने जहर ला झेलही? जहर ले भरे फसल आखिर मनखे के लहूच मं त समाही. मंय अवेइय्या 'सर्वनाश' ला मसूस करत रहेंव!
“जिहां तक ले भाखा के बात आय,” निर्मल आगू बतावत जाथे. एक झिन अधेड़ उमर के किसान ह एक बेर मोला कहे रहिस, नांगर, बखर, कोपर के नांव लेवेइय्या कऊनो नई ये .‘दऊँरी-बेलन’ गुजरे जमाना के बात आय.”
शंकर कहिथे, “ठऊका मेडीकम्बा जइसने.''
वो ह सुरता करत कहिस, “मोला सुरता हवय के कर्नाटक के उडुपी के वांडसे गांव न हमर दुवार मं ये खंबा, मेडीकम्बा रहिस. शंकर कहिथे, येकर शाब्दिक मतलब खेती के धुरी रहिस. हमन एक ठन पट्टा ला बांधत रहेन ये ह हडीमंचा रहिस. धान बीड़ा ला ओकर उपर फटके जावय. बांचे धान ला निकारे बर बैला दंऊरी चलाय जाय. अब ये खंभा नंदा गे हवय; नवा जमाना के कटाई मसीन ह ये सब्बो ला असान कर देय हवय.”
“ककरो घर के आगू मं मेडीकम्बा रहे ह गरब के बात रहिस. बछर भर मं एक बेर हमन येकर पूजा करत रहेन अऊ नाना किसिम के कही पिये के मजा लेवन! खंबा, पूजा, तिहार, शब्द, एक जम्मो दुनिया अब खतम होगे.”
*****
स्वर्ण कांता कहिथें, “भोजपुरी मं एक ठन गाना हवय. “हरदी हरदपुर जइहा ए बाबा, सोने के कुदाली हरदी कोरिह ए बाबा ( मोर बर हरदपुर ले हरदी लाबे, ओ ददा, सोन के कुदारी मं खनबे हरदी ओ ददा).” ये भोजपुरी बोलेइय्या इलाका मं बिहाव मं हरदी के रसम बखत गाये जावत रहिस. पहिली लोगन मन अपन रिस्तेदार के घर मं जाके जांता मं हरदी पीसत रहिन. अब घर मन मं जांता नई ये, अऊ ये रसम खतम होगे हवय.
“एक दिन मंय अऊ अपन दूरिहा के भऊजी देखत रहेन के उबटन-गीत (हरदी गीत) के संग कतक भोजपुरी शब्द जुड़े हवंय - कोदल (कुदारी), कोरना (कोड़ना), उबटन (हरदी चढ़ाय), सिंहोरा (सिंदूर-दानी), दूब - अब सुने ला नईं मिलय. सिलौट (सील), लोढ़ा, खल-मूसल(खलबट्टा), नवा जमाना के रंधनी धन हमर गीत मन मं नई मिलंय.” स्वर्ण कांता शहरी भारत मं जऊन किसम ले सांस्कृतिक नुकसान मसूस करे जावत हवय ओकर बारे मं बोलत रहिन.
*****
हमन सब्बो अपन अलग अऊ निजी जगा, सांस्कृतिक, जात समाज ले बोलत रहेन, अऊ ओकर बाद घलो हमन सब्बो शब्द के उहिच नुकसान अऊ ओकर कमतियात सोच के चिंता करत रहेन, जइसने तरीका ले वो मन अपन जरी ले कमजोर होवत रिस्ता के संग-संग नंदा गे, पर्यावरण के संग, प्रकृति के संग, अपन गाँव के संग, अपन जंगल के संग. कहूँ न कहूँ बिकास के नांव ले हमन बनेच अकन खेल खेले ला सुरु कर दे रहेन.
खेल मन के बात करबो त वो घलो बखत के संग नंदा गे. सुधामयी अऊ देवेश मं येला लेके गोठ-बात चलत रहिस. सुधामयी कहिथे, ‘गर तंय मोर ले वो खेल के बारे मं पूछथस जेन ला अब लइका मन नई खेलेंव.” वो ह कहिथे, “त मंय तोला एक ठन लिस्ट देवत हवं - गच्चकायालू वलन्ची- जेन मं गोटी ला हवा मं उछाले जाथे अऊ वो अपन हथेली मं पाछू ले धरे जाथे; ओमनगुंटलु, (फुदको) लकरी मं दू पांत मं बने चौदह ठन खांचा, कौड़ी धन अमली के बीजा के संग खेले जाथे, कल्लगंतलु, धरे के अइसने खेल जेन मं धरेइय्या के आंखी मं पट्टी बंधे जाथे, अऊ घलो बनेच अकन हवंय.”
देवेश कहिथे, “मोला ‘सतिलो' (पित्थुल) जइसने खेल ले जुरे कतको सुरता हवय. जेन मं दू ठन टीम होथे अऊ सात ठन पथरा ला एक के ऊपर एक रंचे जाथे. एक टीम ह येला गेंद ले गिराथे, अऊ दूसर टीम बहिर निकरे बिना वोला फिर ले रंचे ला रहिथे. एक बखत जब हमन असकटा गे रहें त हमन ‘गेना भड़भड़’ नांव के एक ठन खेल बनाय रहेन. ये मं कऊनो टीम नई रहय, कऊनो आखिरी निशाना नई रहय. हरेक एक दूसर ला गेंद फेंक के मारत रहय! येला खेले ले कऊनो ला चोट लग सकत रहिस, येकरे सेती येला टूरा मन के खेल कहे जावत रहिस. टूरी मन गेना भड़भड़ नई खेलत रहिन.”
सुधामयी कहिथे, “मंय जऊन घलो खेल ला बताय हवं, कऊनो ला खेले नई अंव, मोला सिरिफ अपन नानी गाजुलवर्ती सत्य वेदम ले ओकर बारे मं सुने सुरता हवय. वो ह मोर गांव कोलाकालुरु ले 8 कोस दूरिहा चिन्नगाजदेलवर्रू मं रहत रहिस. मंय ओकर बारे मं जियादा नई जानत हवं फेर ये खेल के बारे मं ओकर कहिनी मन सुरता हवय, वो ह मोला खवावत धन सुलावत बखत सुनावत रहिस. मंय खेले नईं सकंय, मोला स्कूल जाय ला परिस!”
देवेश कहिथे, “हमर इलाका के नोनी मन चाकर पातर पथरा के संग ‘गुट्टे’ धन ‘बिस-अमृत’ खेलत रहिन” – ये खेल मं दूसर टीम ला धरे अऊ ओकर ले बंचे रहय. मोला ‘लंगड़ीटांग’ नांव के खेल घलो सुरता हवय. जेन मं खेलेइय्या भूईंय्या मं बने नौ ठन खाना के भीतरी एकठन गोड़ मं कूदत रहय. ये बखत के हॉप्सकॉच जइसने.
देवेश कहिथे, “पहिली के लईका मन फोन मोबाइल धरके बड़े नई होईंन, आज के लइका मन के हाथ ले ओकर बचपना अऊ ओकर भाखा दूनों छिना गे हे. आज बखिरा मं मोर 5 बछर के भतीजा हर्षित, गोरखपुर मं मोर 6 बछर के भतीजी भैरवी ये खेल मन के नांव तक ले नई जानंय.”
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फेर थोकन नुकसान होय जरूरी आय, हय ना? प्रणति मने मन मं सोचत रहय. काय कुछेक छेत्र मं बदलाव खुदेच हमर भाखा बह बदल नई देथे? वैज्ञानिक गियान भारी तेजी ले बढ़त हवय, जइसने के, कतको बीमारी मन के नांव, ओकर कारन अऊ रोकथाम के बारे मं, लोगन मन के चेत बढ़े ले ओकर देखे के नजरिया बदल जाथे. धन कम से कम त अइसने हो सकथे जइसने वो मन चिन्हारी करथें. ओडिसा मं इहाँ के भाखा मं अवेइय्या एक ठन तय वैज्ञानिक शब्दावली ला कऊनो, कइसने समझथे?
वो ह जोर देके सोचथे, “हमर गांव मन मं, हरेक बीमारी के अलग अलग नांव होवत रहिस: चेचक ‘बड़ी मा’ (बड़े माता) रहिस, चिकनपॉक्स ‘छोटी मा’ (छोटे माता) ; डायरिया ‘बादी’, ‘हैजा’ धन ‘अमाशय’ रहिस; टाइफाइड ‘अंत्रिका ज्वर’ सक्कर बीमारी बर घलो नांव रहिस – ‘बहुमूत्र’, गठिया – ‘गन्थिबात’, अऊ कुष्ठ रोग – ‘बड़ा रोग’. फेर आज के जमाना मं लोगन मन धीरे-धीरे उड़िया नांव मन ला छोड़त जावत हवंय अऊ अंगरेजी के नांव मन जगा बना लेवत हवंय. काय येकर ले दुखी होय ला चाही? मोला ये मं बिस्वास नई ये.”
भाखा के जानकार हों धन नईं, हमन जानथन के भाखा ह थिर नई रहेव. वो ह एक ठन नंदिया आय, जेन ह हमेसा बोहावत रहिथे अपन पार टोर के, समाज मन मं, बखत मं बोहावत रहिथे, हमेसा बदलत रहिथे, बगरत रहिथे, एक दूसर मं मिंझरत रहिथे, सिकुड़त रहिथे, नंदावत रहिथे, नवा जनम लेवत रहिथे. त फेर नुकसान अऊ बीते बात ला लेके अतक हंगामा काबर मचाया जाय? काय कुछेक ला बिसोरे बने नो हे?
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“मंय तऊन समाज के रचना के बारे मं सोचत हवंव जेन ह हमर भाखा के पाछू लुकाय हवय, मेधा कहिथे.” '’मुर्दाद मटन’ जइसने शब्द ला देखव. हमन अक्सर ये ला अक्सर कऊनो ‘जिद्दी’ मइनखे बर कहिथन, जेकर ऊपर कऊनो असर नई परे, जइसने मुर्दाद मटन, मरे मवेसी के मांस – जेन ला कतको गांव मन मं दलित लोगन मन ला खाय सेती मजबूर करे जावत रहिस. ये शब्द आइस कहाँ ले.”
राजीव मलयालम के बारे में सोचे लगिस. वो ह कहिथे, “एक बखत केरल मं तरी के जात के लोगन मन के घर ला चेट्टा (पैरा छवाय घर) कहे जावत रहिस. उहाँ के बासिंदा मन ये मं रहत घलो रहिन. वो मन ला अपन घर ला पुरा धन वीड कहे के इजाजत नई रहिस, ये ह ऊंच जात के लोगन मन के घर बर बऊरे जाय. वो मन का नवा जन्मे लइका ऊंच जात के लइका कस ‘उन्नी’ नई कहे जाय वो मन ला ‘चेक्कन’ कहे जाय. इहाँ तक ले ऊंच जात के लोगन मन के आगू मं अपन आप ला ‘अडीयन’ मतलब ‘हर आदेस ला मनेइय्या सेवक’ कहे ला परत रहिस. ये शब्द मन अब चलन मं नई ये.”
मेधा कहिथें, “ कुछेक शब्द अऊ वोला बोले, हमेसा बर खतम हो जय बढ़िया आय. मराठवाड़ा के दलित नेता एडवोकेट एकनाथ पुरस्कार वो भाखा के बारे मं कहिथें, जेन ला वो अऊ ओकर संगवारी मं अपन आत्मकथा (स्ट्राइक ए ब्लो टू चेंज द वर्ल्ड, जेकर अनुवाद जैरी पिंटो ह करे हवय) मं करे हवंय. वो ह मातंग अऊ दीगर दलित जात ले रहिन, अऊ भारी गरीबी के जिनगी जीयत रहिन, वो मन खाय के जिनिस ला चुरावंय. वो मन के गुपत भाखा वो मन ला गुजरा करे, एक दूसर ला चेताय अऊ धरे जाय के पहिली भागे मं मदद करत रहिस. ‘जीजा’ जइसने के वोला मयारू नांव ले जाने जावत रहिस, कहिथे, ‘ये भाखा ला बिसोर दे ला चाही.’ कऊनो ला घलो येकर बारे मं पता नई चलना चाही अऊ येला फिर ले बऊरे के जरूरत नई परे.”
“सोलापुर जिला के सांगोला के दीपाली भुसनर अऊ वकील नितिन वाघमारे ह कतको शब्द अऊ हाना/ भांजरा के लिस्ट बनाय हवंय, जइसने काय मांग गरुड़्यसरखराह तुय? (तंय गिधवा जइसने काबर दिखथस?) ये ह भारी गरीबी अऊ जात-पात के बीच मं रहेइय्या दलित मन के अपन देखभाल अऊ साफ सफई के कमी ला बताथे. फेर जात-पात के ऊंच-नीच मं उलझे भाखा मं कऊनो मइनखे ला पारधी, मांग, महार से तुलना करे भारी बे इज्जती रहिस. हमन ला अइसने शब्द मन ला ख़ारिज नई करे ला चाही.”
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कुछु त अइसने होही जेन ला बचाय ला चाही. हमर भाखा मन मं बिपत कऊनो सपना के बात नो हे. गर ये ह कोयला खदान मं पहिली कैनरी (पिंयर चिरई) जइसने आय, जइसने के पैगी मोहन कहिथे, त काय येकर ले खराब हालत अवेइय्या हवय. काय हम लोगन मन के रूप मं, एक संस्कृति के रूप मं अपन विविधता ला बनेच अकन नंदावत देखत जावत हन? काय हमन येकर सुरूवात अपन भाखा मं पावत हवन? अऊ येकर मुक्ति कहाँ होही?
69 बछर के जयंत परमार कहिथें, “बढ़िया, अऊ कहां, फेर हमर अपन भाखा मं. वो ह उर्दू मं लिखेइय्या दलित गुजराती कवि आंय.
वो ह अपन अऊ अपनी दाई दहिबेन परमार के भाखा के संग नाता ले के बात करत कहिथें, “दाई ह अपन गुजराती भाखा मं बनेच अकन उर्दू शब्द बऊरत रहिस. मोला खास बरतन लाये सेती बोलत वो ह कहत रहय, “जा, कदो लै आवा खवा कढू. मोला यकीन नईं ये के वइसने किसम के बरतन अब हवंय धन नईं, जेन मं हमन भात खावत रहेन. ग़ालिब ला पढ़े के बाद मोला गम होईस के ये शब्द ह कड़ा आय.
“अइसने कतको वाक्य रहिस जइसने के “तारा दीदार तो जो,” (बस अपन रूप ला देख), “तरु खमिस धोवा आप (मोला अपन कमीज धोय बर राख दे), “मोमथि एक हरफ कढ़थो न थी (काय तंय बोले घलो नईं सकस)धन वो ह कहिथे, “मुल्लाने त्यंथि गोश ले आव (मुल्ला के घर ले थोकन गोस ले आव). ये शब्द गोश्त आय – फेर बोलचाल के भाखा मं हमन येला गोस कहिथन. ये शब्द जेन ह हमर बोली के हिस्सा रहिन, अब बिसोरे जावत हवन. जब घलो मंय उर्दू कविता मन मं ये शब्द ला देखथों त मोला उहाँ अपन दाई के चेहरा दिखथे.
अब चीज अलग हवंय, आबोहवा, शहर के हालत. वो ह कहिथे, तब सब्बो समाज के लोगन मन अहमदाबाद शहर के भीतरी मं एके संग रहत रहिन; संस्कृति सांप्रदायिक नईं रहिस. देवारी बखत हमर मुसलमान संगवारी मन हमर घर ले मिठाई अऊ नमकीन देय जावय. हमन एक दूसर के गले लगन. हमन सब्बो मुहर्रम बखत ताजिया जिलूस देखे ला जावत रहेन. वो मन मं कतको सुग्घर, बारीक़ ढंग ले सजाय गुंबद रहय. लइका मन ओकर तरी ले होके जावंय अऊ अपन मनौती पूरा करे अऊ बढ़िया सेहत मांगंय.
उहाँ “आदान-प्रदान” रहिस, असल मं, मुफत मं लेन-देन. वो ह कहिथे, “अब हमन अलग आबोहवा मं नई रहत हवन अऊ ये हमर भाखा मं झलकथे. फेर आस इहींचे हवय. मंय मराठी, पंजाबी, बंगाली जानथों अऊ येकर कतको शब्द उर्दू मं लिखथों. काबर के मोर मानना आय के सिरिफ कविता मं येला बचाय जा सकथे.”
शब्द काय आय, रेत
के कण मं संसार आय.
कतको अलग-अलग जगा ले लिखे ये कहिनी ह पारी भाषा टीम के देवेश (हिंदी), जोशुआ बोधिनेत्र (बांग्ला), कमलजीत कौर (पंजाबी), मेधा काले (मराठी), मोहम्मद क़मर तबरेज़ (उर्दू), निर्मल कुमार साहू (छत्तीसगढ़ी), पंकज दास (असमिया), प्रणति परिडा (उड़िया), राजसंगीतन (तमिल), राजीव चेलानत (मलयालम), स्मिता खाटोर (बांग्ला), स्वर्ण कांता (भोजपुरी), शंकर एन. केंचनुरू (कन्नड़), और सुधामयी सत्तेनापल्ली (तेलुगु) के मदद के बगैर पूरा नई होय रइतिस.
हमन जयंत परमार (उर्दू मं लिखेइय्या गुजराती दलित कवि), आकांक्षा, अंतरा रमन, मंजुला मस्थिकट्टे, पी. साईनाथ, पुरूषोत्तम ठाकुर, रितायन मुखर्जी, अऊ संकेत जैन ला अपन योगदान देय सेती आभार जतावत हवन.
ये कहिनी ला प्रतिष्ठा पंड्या ह पी. साईनाथ, प्रीति डेविड, स्मिता खाटोर अऊ मेधा काले के सहयोग ले संपादित करे हवंय. अनुवाद सहयोग: जोशुआ बोधिनेत्र. फोटो संपादन अऊ लेआउट: बिनाइफ़र भरूचा
अनुवाद: निर्मल कुमार साहू