दिल्ली में सरदी के एगो अलसाइल दुपहरिया बा. जनवरी के धूप बरंडा में कवनो मेहमान जेका सकुचाइल बइठल बा. ओहि घरिया कमर हजार किमी दूर बइठल आपन माई शमीमा खातून, 75 बरिस, के फोन लगावत बाड़न. माई से बतियावत-बतियावत ऊ बिहार के सीतामढ़ी में बारी फुलवरिया गांव के आपन लरिकाईं में पहुंच गइलन.
जदि रउओ ओह दुपहरिया दुनो आदमी के बीच के बतकही सुनतीं, त सायद कुछ अलगे अनुभव होखित. साफ-साफ उर्दू में बतियावत ऊ कहलन, “अम्मी जरा बताइए, बचपन में मेरे सर पे जो जख्म होता था ना, उसका इलाज कैसे करती थीं?” (माई, तनी बताईं, लरिकाईं में हमार माथा पर जे जख्म हो जात रहे, ओकर कइसे इलाज होखत रहे.)
“सिर में जो हो जाहई- तोरोहू होला रहा- बतखोरा कहा हई ओकर इधर. रे, चिकनी मिट्टी लगाके धोलिय रहा, मगर लग हई बहुत. त छूट गेलई” (उहे जे खोपड़िया पर देखाई देवेला- तोहरो हो गइल रहव- इहंवा ओकरा बतखोरा कहल जाला. हम तोहर माथा रे (खारा माटी) आउर चिकना मिट्टी से साफ कइनी. बाकिर ई माथा में बहुते लागेला. आखिर में बड़ी मुस्किल से ठीक भइल,) माई घरेलू इलाज के बारे में बतावत हंसे लगली. उनकर भाषा कमर के भाषा से अलग रहे.
माई आउर कमर के बतकही में कुछुओ विचित्र ना रहे. ऊ लोग हरमेसा एक दोसरा से अलग-अलग भाषा में बात करेला.
हमरा उनकर बोली बुझाला, बाकिर हम ओह तरहा बोल ना सकीं. हम ऊर्दू के आपन ‘मातृभाषा’ कहिला, बाकिर हमार माई अलगे भाषा में बतियावेली, ऊ अगिला दिन पारीभाषा मीटिंग में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर हो रहल चरचा के दौरान कहलन. ऊ कहलन, “अम्मी कवना तरह के भाषा में बतियावेली, ई ना त अम्मी जानेली आउर ना आउर कोई.” रोजी-रोटी खातिर उनकरा आपन बाऊजी आउर भाई संगे गांव से पलायन करे के पड़ल रहे. बाकिर केहू कबो ई भाषा ना बोले. कमर के बाल-बच्चा लोग त आउरो अलग हो गइल बा. ओह लोग के आपन दादी के भाषा ना बुझाला.
उनकर कहनाम बा, “हम एह बारे में आउरो जाने के कोसिस कइनी. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषा के एगो जानकार मोहम्मद जहांगीर वारसी एकरा ‘मैथिली ऊर्दू’ कहेलन. जेएनयू के एगो आउर प्रोफेसर बानी, रिजवानौर रहमान. ऊ कहेलन कि बिहार के एह जिला के मुसलमान लोग आधिकारिक रूप से ऊर्दू के आपन मातृभाषा बतावेला बाकिर घर पर दोसर बोली बोलेला. अइसन लागेला कि उनकर मातृभाषा ऊर्दू, फारसी, अरबी, हिंदी आ मैथिली से मिल के बनल बा. आउर जे ओह इलाका में रहत-रहत बिकसित हो गइल.”
मातृभाषा आवे वाला हर पीढ़ी संगे शनै: शनै: बिलाइल जात बा.
इहे बात रहे! अब त कमर हमनी के शब्द खोजे पर लगा देलन. हमनी पाछू जाके पदचिन्ह खोजे के सोचनी, आपन मातृभाषा में कुछ अइसन शब्द खोजे लगनी जे लोग अब ना बोले, चाहे कम बोलेला. आउर ओकरा बारे में जाने से पहिले हमनी बोरगस के एलेफ ओरी ताके लगनी.
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सबले पहिले राजा बोललन. ऊ कहले, “तमिल में एगो नामी मुहावरा से जुड़ल तिरुक्कुरल दोहा बा.”
मयिर निप्पिन वाहा कवरिमा
अन्नार
ऊईरनिप्पर मानम वरिन (
कुरल
# 969
)
एकर मतलब एह तरहा बा: हरिण के देह से केस (बाल) खींचाला, त ऊ मर जाला. एहि तरह जेकर इज्जत खत्म हो जाला, ऊ शरम से खत्म हो जाला.
“एह दोहा में आदमी के मान-मर्यादा के तुलना हरिण के केस से कइल गइल बा. कम से कम मू. वरदरासनार के कइल गइल उल्था (अनुवाद) के हिसाब से,” राजा तनी सकुचात कहले. “बाकिर केस टूटे से हरिण काहे मरी? बाद में इंडोलॉजिस्ट, आर. बालाकृष्णन के लेख, सिंधु घाटी में तमिल गांव के नाम ” पढ़नी त समझ में आइल कि दोहा में जे ‘कवरिमा’ लिखल बा, ओकर मतलब तमिल में याक होखेला, ना कि ‘कवरिमान’, यानी हरिण.
“याक? बाकिर ऊंच हिमालय के देस में पावल जाए वाला याक देस के दोसर छोर पर बोलल जाए वाला भाषा, तमिल के कविता में का करत बा. आर. बालाकृष्णन एकरा सभ्यता से जुड़ल पलायन के जरिए समझइलन. उनकरा हिसाब से सिंधु घाटी के लोग जब दक्षिण ओरी पलायन कइलक आउर उहंवा बस गइल त ओह लोग संगे मूल शब्द, रहन-सहन के तरीका, इलाका के नाम भी दक्षिण में आ गइल.”
राजा कहत बाड़न, “वी. अरस नाम के एगो आउर जानकार के तर्क बा कि भारत के इतिहास के कल्पना, आज के देस चाहे राष्ट्र के कल्पना के आधार पर कइल ठीक नइखे. ऊ कहलन कि संभव बा कि भारतीय उपमहाद्वीप में कबो अइसन लोग बसत होखे जे द्रविड़ भाषा बोले वाला रहे. उत्तर में सिंधु घाटी से लेके दक्षिण में श्रीलंका ले रहे वाला बता सकेला कि जदि हिमालयी प्रदेस में रहे वाला कवनो जनावर के नाम तमिल कविता में बा, त ई कवनो अचरज के बात नइखे.”
“कवरिमा- अचरज से भरल शब्द!” राजा चिल्लइन. “दिलचस्प बा कि नामी तमिल शब्दकोश क्रिआ से कवरिमा शब्द नदारद बा.”
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हमनी में से कइएक लोग एक-एक करके अइसन शब्द के बारे में बतावे लागल, जे अब बातचीत में इस्तेमाल ना होखे. जोशुआ एकरा, मानकीकरण के राजनीति कहेलन.
“सदियन ले बंगाल के किसान, कुम्हार, गृहिणी, कवि, शिल्पकार लोग आपन आपन इलाका के भाषा- राढ़ी, वरेंद्री, मानभूमि, रंगपुरी में बोललक, बतियइलक, लिखलक. बाकिर 19वां आउर 20वां सदी के सुरुआत में जब बंगाल पुनर्जागरण भइल, त बंग्ला आपन जादे करके क्षेत्रीय आउर अरबी-फारसी शब्दा सभ खो देलक. मानकीरण आ आधुनिकीकरण के आइल एक के बाद एक लहर संस्कृतिकरण आउर एंगलोफोनिक, यूरोपीयकृत शब्द आउर मुहावरा के प्रवाह संगे बहे लागल. बांग्ला से ओकर बहुलवादी छवि छीना गइल. तबे से संताली, कुरमाली, राजबंशी, कुरुख जइसन आदिवासी भाषा से उधार लेवल, चाहे गहिर बसल शब्द सभ खत्म भइल जा रहल बा.”
ई कहानी खाली बंगाले तक सीमित नइखे. ‘बार गौ ए बोली बदले’ (हर 12-15 किलोमीटर पर भाषा बदल जाला) कहावत भारत के हर भाषा पर सटीक बइठेला. उपनिवेशवाद के दौरान, राज्य सभ के भाषाई विभाजन के दौरान, भारत के हर राज्य, क्षरण के समान प्रक्रिया से गुजरल. भारत में राजभाषा के कहानी ऐतिहासिक रूप से सांस्कृतिक आउर राजनीतिक निहितार्थ से भरल बा.
जोशुआ कहले, “हम बांकुरा से आइला, तत्कालीन मल्लोभूम साम्राज्य के गढ़, एगो अइसन इलाका जहंवा कइएक जातीय-भाषाई समूह बसेला. आउर एकर नतीजा ई भइल कि भाषा, रीत-रिवाज आउर बहुत कुछ आपस में बांटल गइल. इलाका के हर भाषा में उधार लेवल गइल करमाली, संथाली, भूमिज आउर बीरहोरी जइसन अनगिनत शब्द आउर विभक्ति सभ मौजूद बा.”
बाकिर अरहा (जमीन), जुमराकुचा (जरल लकड़ी), काक्ती (कछुआ), जोरह (धारा), अगरा (खोखला), बिलाती बेगुन (टमाटर) आउर अइसन कइएक शब्द के मानकीकरण आउर आधुनिकीकरण के नाम पर भाषा से लगातार बेदखल कइल जा रहल बा. एकरा जगह पर औपनिवेशिक कोलकाता के उच्च वर्ग, ऊंच जात के लोग के बनावल अत्यधिक संस्कृतनिष्ठ आउर यूरोपीयकृत वाक्यांश सभ लावल जा रहल बा.
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कवनो शब्द बिला जाला, त का हानि होखेला? पहिले शब्द गायब होखेला, कि ओकर मतलब? या कि ओकर संदर्भ, जे भाषा में एगो शून्य पैदा कर रहल बा? बाकिर शब्द के गायब होखे से जे खाली जगह बचल, का ओकरा भरे खातिर उहंवा कुछ नया आवेला?
जब नयका शब्द, ‘उड़ालपुल’ (उड़े वाला पुल), के जगह पुल खातिर समान अर्थ वाला नयका बंगाली शब्द ले लेवेला- त हमनी से कुछ छूट जाला, कि हमनी के कुछ हासिल होखेला? आउर का एह प्रक्रिया में हमनी से जे छूट जाला, ऊ हमनी जे अब जोड़नी ह, ओकरा से तनी जादे बा? स्मिता गहिराई से सोचत बाड़ी.
उनकरा बंग्ला के एगो पुरान शब्द, घुलघुली इयाद आवत बा. घुलघुली छत के नीचे, हवा आउर अंजोर खातिर छोड़ल गइल पारंपरिक वेंटिलेटर खातिर इस्तेमाल कइल जाला. ऊ कहेली, “हमनी के घर में अब घुलघुली कहंवा होखेला. कोई 10 शताब्दी पहिले के बात बा. एगो दिमागदार मेहरारू कहाना, खानर बाचन में आपन बंगाली दोहा में खेती, सेहत आउर दवाई, मौसम विज्ञान, गृह निर्माण के बारे में अचरज भरल व्यावहारिकता संगे लिखत बाड़ी.”
आलो हवा बेधो ना
रोगे भोगे मोरो ना
बिना हवा आउर अंजोर वाला कमरा
मत बनाईं.
बेमारी से, रउआ मर सकत बानी.
पीरे उंचू मेझे खाल.
तार दुक्खो
सर्बोकाल
भूइंया बाहिर के जमीन से नीच
बा.
अब निराशा आउर बिनाश के कबो
छिपावल ना जा सके
हमनी के पुरखा लोग कहाना के बुद्धि पर भरोसा कइलक आउर आपन घर में घुलघुली के जगह देलक, स्मिता कहतारी. “बाकिर अब आधुनिक समय में जवन तरह के आवास परियोजना देखे के मिलत बा, ऊ आम लोग के राज्य के सामाजिक सुरक्षा के माध्यम से सुरु कइल गइल अलग-अलग आवास योजना के तहत बनल बा. एह में कवनो तरह के पारंपरिक चीज के जगह नइखे. पहिले से बनल अलमारी वाला देवाल आउर कुलुंगी नाम से पहचानल जाए वाला कोठरी, चाताल जइसन खुलल जगह अब कहूं देखे के ना मिले. घुलघुली गायब हो गइल, त लोकप्रिय बोलचाल के ई शब्द भी बोली से गायब हो गइल,” ऊ बतावत बाड़ी.
बाकिर आज जब घर कबूतरखाना में तब्दील हो गइल बा, स्मिता सिरिफ कवनो शब्द, घुलघुली के बिलाए से दुखी नइखी. ऊ उदास बाड़ी कि अइसन होखे से प्रकृति के जीव-जंतु आउर इंसान के बीच के प्रेम से भरल संबंध खत्म हो गइल बा. पहिले केतना घर के वेंटिलेटर में घरेलू गौरइया आपन घोंसला बना लेत रहे. एह चिरइया संगे इंसान के एगो करीबी रिस्ता बन जात रहे.
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कमलजीत के कहनाम बा, “एगो त मोबाइल टावर के कहर, ओपर से अलग-थलग बनल पक्का मकान आउर हमनी के बंद रसोई. इहे ना, खेतन में खरपतवार आउर कीटनाशक के जरूरत से जादे उपयोग. एह सभ चलते हमनी के घरन, बगइचा आउर गीत से घरेलू गौरइया गायब होखत चल गइली.” इहे! भाषा आउर पारिस्थितिकी के विविधता के बीच केतना जरूरी संबंध होखेला, ई कमलजीत के बात से जाहिर बा. पंजाबी कवि वारिस शाह के कुछ लाइन सुनावत ऊ कहेली,
“चिरी चुगदी नाल जा तुरे पांधी,
पइयां दूध दे विच मदानियां नी.”
(गौरइया के चहकते ही लोग आपन घरन से काम पर निकल पड़ल,
जइसे कवनो मेहरारू दूध से मक्खन निकालेली.)
कबो किसान आउर यात्रा पर निकले वाला के दिन गौरइया के चहचहाहट संगे सुरु होखत रहे. ऊ हमनी के कुदरती अलार्म घड़ी रहे. आजकल हमार फोन पर गौरइया के चहके के नकली आवाज वाला अलार्म से नींद खुलेला. किसान लोग एह चिरई के हाव-भाव देख के मौसम के भविष्यवाणी करत रहे, कब कवन फसल लगावल जाए के चाहीं, एकर योजना बनावत रहे. एह चिरई के पांख हिलत रहे, त ओकरा शुभ मानल जात रहे- किसानी के शगुन.
चिरियां खंभ खिलेरे
वसन मीह बहुतेरे
(जबो गौरइया आपन पंख फइलावेला,
त आसमान से भारी बरखा होखेला)
ई कवनो संजोग नइखे कि एक ओरी त हमनी आपन भाषा आउर विविध संस्कृति में गिरावट देखत बानी आउर दोसरा ओरी गाछ, जीव-जंतु आउर पक्षियन के केतना प्रजाति के लुप्त होखे के मूक गवाह बनल बानी. डॉ. ए.एस. साल 2010 में गणेश देवी पीपुल्स लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में बतावत बाड़न कि भारत में पछिला 60 बरिस में लगभग 250 भाषा बहुते तेजी से खत्म होखे के कगार पर पहुंच गइल बा.
जहंवा पक्षी विज्ञानी लोग एक ओरी पंजाब में गौरइया के घटत गिनती के बारे में चिंता जतावे लागल बा, कमलजीत बियाह में गावल जाए वाला एगो पुरान लोकगीत इयाद करत बाड़ी.
साड्डा चिरियां दा चंबा वे,
बाबुल असां उड जा
णा
.
हमनी गौरइया जइसन बानी
एक दिन अइसहीं आपन घोंसला छोड़ जाएम, कहूं बहुते दूर उड़
जाएम
ऊ कहेली, “हमनी के लोकगीत में गौरइया के हरमेसा जिकिर आवत रहे. बाकिर अफसोस, अब सभ खत्म हो गइल.”
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पंकज मानेलन कि जलवायु संकट आउर पलायन के समस्या जेका रोजी-रोटी के संकट भी भाषा से जुड़ल बा. ऊ बतइलन, “आजकल रंगिया, गोरेश्वर आउर जहंवा देखीं उहंवा के बजार दोसर राज्य से आइल मशीन के बनल सस्ता गमछा आ चादर-मेखेला (मेहरारू लोग के कमर पर बांधे वाला पारंपरिक कपड़ा) से ठसाठस भरल पड़ल बा. असम के पारंपरिक हथकरघा उद्योग खत्म हो रहल बा. आउर एहि संगे हमनी के देसी समान आउर बुनाई से जुड़ल शब्द भी खत्म हो रहल बा.”
अक्षय दास, 72 बरिस, जिनकर परिवार असम के भेहबारी गांव में अबहियो हथकरखा पर बुनाई के काम करेला, के कहनाम बा, “ई हुनर अब अंतिम सांस गिन रहल ब. नयका पीढ़ी के लइका लोग काम-धंधा के तलाश में गांव से कोई 60 किमी दूर गुवाहाटी पलायन कर गइल. बुनाई के परंपरा से दूर ऊ लोग चेरेकी जइसन शब्द ना जानेला.” अक्षय तागा से छोट लच्छा बनावे खातिर इस्तेमाल में आवे वाला बांस के एगो घिरनी के चरचा करत बाड़न. एकरा से मोहरा (स्पूल) के चारों ओरी छोट-छोट घेरा में तागा घुमावे खातिर एगो घुमे वाला पहिया के मदद लेवल जाला. एह पहिया के जोटर पुकारल जाला.
पंकज कहले, “हमरा एगो बीहू गीत इयाद आवत बा. चेरेकी घुरादी नास (घूमत चेरेकी जइसन नाच). नयका पीढ़ी के कवनो लइका के एकर मतलब का बुझाई?” अक्षय के 67 बरिस के भौजाई, बिलाटी दास (बड़ भाई स्वर्गीय नारायण दास के घरवाली), एगो दोसर गीत गावत रहस.
टेटेलीर टोलोटे, कापुर बोई आसिलु, सोराए सिगिले हुता
(हम इमली के गाछ के नीचे बीनाई करत रहीं, चिरई सभ तागा तुड़
देलस)
ऊ हमरा के तागा के लच्छा बनावे के तरीका समझइली आउर कहली कि बजार में नयका नयका औजार आउर मसीन के बाढ़ आइल बा आउर एकरे चलते देसी औजार आउर तकनीक सभ खत्म भइल जात बा.
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निर्मल विचित्र ढंग से मुस्कात कहले, “हमनी सर्वनाशी तकनीक के युग में रहत बानी.”
निर्मल आपन कहानी बतइलन, “हाले में हम छत्तीसगढ़ में आपन गांव पाटनदादर एगो जरूरी काम से गइल रहीं. हम दूब (बरमूडा घास, चाहे सिनोडोन डेक्टाइलॉन) खोजत रहीं. पहिले त हमरा लागल कि अंगना में क्यारी में लागल होई. बाकिर उहंवा एक्को दूब ना मिलल, त हम खेत पहुंचनी.”
“कटनी (फसल कटाई) कुछे महीना बाद होखे के रहे. एह घरिया धान के नयका-नयका बाली आवेला आउर दूध जइसन मीठ रस से भर जाला. किसान लोग एकरा पूजे खातिर आपन खेत में धउगल आवेला. ऊ लोग भी उहे पवित्र घास (दूब) से पूजा करेला. बाकिर हम जब खेत गइनी त हमार गोड़ के नीचे के माटी मखमल जइसन नरम ना, बहुते कड़ा रहे. घास के गुच्छा पर चमके वाला ओस के बूंद, सूखल रहे. बरमूडा घास, सामान्य घास, कांदी (हरियर भूसा), सभ कुछ गायब रहे. घास के एक-एक पत्ता सूख गइल रहे, जर के कोयला हो गइल रहे!”
हम जब खेत पर काम कर रहल एगो आदमी से एकरा बारे में पूछनी, त ऊ कहले, “सर्वनाश डाला गया है, इसलिए (काहे कि सर्बनास छिड़कल गइल बा).” हमरा ई बात समझे में तनी देर लागल कि ऊ आदमी कवनो कंपनी के तृणनाशक (घास नष्ट करे वाला) के बारे में कहत रहे. ऊ ना त निंदा नाशक (खरपतवार नाशक) कहलन, जइसन की छत्तीसगढ़ी में कहल जाला, चाहे जइसन कि उड़िया में घास मारा कहल जाला, चाहे हिंदी में खरपतवार नाशक आ चारामार कहल जाला. ऊ एह में से कुछुओ ना कहत रहस. एह सभ के बदला में सर्वनाश के नाम लेवल गइल रहे!”
आपन वजूद बचावे खातिर एक-एक इंच जमीन के दोहन करे आउर एकरा उपजाऊ बनावे खातिर हमनी आज खेत में रसायनिक खाद, कीटनाशक आउर दोसर तकनीक के बढ़-चढ़ के बिना सोचले-समझले इस्तेमाल करत बानी. निर्मल कहत बाड़न, “इहंवा ले कि एगो किसानो, जेकरा लगे मुस्किल से एक एकड़ जमीन होई, आपन खेत में पारंपरिक तरीका से खेती करे के बजाय ट्रैक्टर के इस्तेमाल कइल जादे पसंद करत बा.”
मेहराइल आवाज में ऊ कहले, “दिन रात ट्यूबवेल धरती से पानी खींच रहल बा आउर धरती माई बंजर भइल जात बाड़ी. माटी महतारी, के कोख हर छव महीन पर गरभ धारण करे पर मजबूर कइल जात बा. धरती माता ‘सर्वनाश’ जइसन जहरीला रसायन कइसे बरदास्त कर सकेली. जहर से भरल अनाज जल्दिए इंसान के खून में दउड़ी. हमरा त आपन ‘सर्वनाश’ देखाई देत रहे.”
निर्मल दुखी स्वर में कहलन, “जहंवा ले भाषा के बात बा, त एक बेरा एगो तीस-चालीस बरिस के किसान हमरा नागर (हल), बाखर (निराई के औजार) कोपर (माटी के ढेरी तोड़े वाला लकड़ी के डंडा) के बारे में बतइले रहस, जे नाम अब केहू ना जाने. आउर दउनरी बेलन (बैल से चले वाला रोलर-थ्रेशर) दोसर दुनिया के चीज लागेला.”
“एकदम मेटिकम्बा जइसन,” शंकर कहले.
ऊ कहे लगलन, “हमरा इयाद बा कर्नाटक के उडुपी में वंडसे गांव के आपन अंगना में हमनी इंहवा खंभा, मेटिकम्बा होखत रहे. एकर शाब्दिक अर्थ, खेती के आधार होखला. हमनी एह से बेंच- हदीमंच बांधत रहीं. धान के पुआल एकरे पर पटक के चाऊर आउर भूसा अलग कइल जात रहे. एकरा में बैल भी बंधात रहे. पुआल में से बचल अनाज निकाले खातिर बैल के पुआल पर चलावल जात रहे. अब त खंबे गायब हो गइल बा. नयका जमाना के कटाई मसीन अब जादे सुविधगर लागेला.”
“घर के आगू गड़ल मेटिकम्बा गर्व के बात होखत रहे. साल में एक बार एकर पूजा कइल जाए आउर भोज होखे. खूब नीमन-नीमन पकवान बने. अब त ऊ खंबा, पूजा, भोज आउर एकरा से जुड़ल शब्द के पूरा दुनिया खत्म हो चुकल बा.”
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स्वर्ण कांता कहेली, “भोजपुरी में एगो गीत बा- हरदी हरदपुर जइह ए बाबा, सोने के कुदाली हरदी कोरिह ए बाबा (जेकर बियाह होखे वाला बा, ऊ लइकी आपन बाऊजी से कहत बाड़ी, रउआ हरदपुर जाके सोना के कुदाली से हरदी कोड़ के लेके आएम)” भोजपुरी बोलल जाए वाला इलाका में बियाह घरिया होखे वाला रसम, उबटन (हरदी के लेप) में ई गीत गावल जाला. आज से तीस-चालीस बरिस पहिले लोग उबटन खातिर हरदी, आपन नाता-रिस्तेदार के इहंवा जाके जांता (चक्की) में पीसत रहे. उहे हरदी बन्नी (कन्या) के उबटन लगावे के काम में आवत रहे. आज मसाला, चाहे अनाज पिसे खातिर मिक्सी-ग्राइंडर जइसन मसीन अइला से जांता के इस्तेमाल खत्म हो गइल बा. एहि से ई रस्म भी अब ना होखे.
“एक दिन हम आपन भौजाई से इहे बात करत रहीं कि पहिले के भोजपुरी गीत में से केतना शब्द अब गायब हो गइल बा. जइसे कि ई उबटन गीत में कोदाल (फावड़ा), कोड़ाई (जमीन खोदाई), उबटन (हरदी के लेप) जइसन शब्द अब ना बोलल जाला. काहेकि अब ई रस्म धीरे-धीरे खत्म हो गइल बा. एहि तरहा सिन्होरा (सिंदूर के पेटी), दूब (बरमूडा घास), खोइंछा (अंचरा में दु मुट्ठी चाउर, हरदी, दूब आउर पइसा) जइसन शब्द भी अब बिला गइल बा. नयका जमाना के रसोई में मिक्सी, बीटर, ग्राइंडर आवे से अब सिलौट-लोढ़ा, खल-मूसल जइसन शब्द भी गायब हो गइल बा.
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हमनी सभे कोई आपन-आपन परंपरा, संस्कृति, स्थान आउर वर्ग के हिसाब से बोलत रहीं. आउर बिला रहल शब्द आउर ओकर सिकुड़त अर्थ के लेके चिंता में रहीं. जइसे-जइसे हमनी आपन जड़ से दूर होखत गइनी, जइसे जइसे आपन गांव, देहात, जंगल, प्रकृति आउर पर्यावरण से दूर होखत गइनी एकरा से जुड़ल शब्द से दूर होखत चल गइनी. हमनी सभ कोई एगो अलगे खेला, जेकरा बिकास कहल जाला, खेले में ब्यस्त हो गइनी.
खेला सभ के बात कइल जाव, त समय के संगे का जानी केतना खेला लुप्त हो गइल. सुधामयी आउर देवेश के बीच एकरा बारे में चरचा होखत रहे. सुधामयी कहली, “जदि रउआ हमरा से लरिका लोग के खेला के बारे में पूछम, जे अब खत्म हो गइल बा, त हम गच्चाकायलु, चाहे वलांची (गोटी) के नाम लेहम. एह खेला में कंकड़ के हवा में उछाल के आपन हथेली के पछिला भाग पर रोकल जाला. एहि तरहा ओमनागुनतालु इमली के बिया, चाहे कौड़ी से मेज पर रखल दु गो कतार में चौदह छेद चाहे गड्ढा बना के खेलल जाला. कल्लांगटालु (पकड़म-पकड़ाई) एगो पकड़े वाला खेल बा. एकरा में पीछा करे वाला के आंख पर पट्टी बांधल रहेला. अइसन आउर भी बहुते खेला बा.”
देवेश कहले, “इयाद बा हमनी लरिकाई में ‘स्टीलो’ (पिट्टो) खेलत रहीं. एकरा में दु गो टीम होखत रहे. सात गो पत्थर एक पर एक रख देवल जात रहे. एगो टीम के लइका गेंद से निशाना बना के पत्थर के टीला पर मारत रहे आउर दोसर टीम के लइका लोग के काम तितर-बीतर भइल पत्थर सभ के फेरु से एक के ऊपर एक सजावे के रहत रहे. सजावे घरिया जदि गेंद लाग गइल, त ऊ आउट हो जात रहे. एकरा खेलत-खेलत जब हमनी के मन भर गइल, त हमनी गेना भदभद खेला बनइनी. एकरा में ना त कवनो टीम होखे, ना कवनो मंजिल. सभे कोई एक-दोसरा के गेंद से मारे! चूंकि एह में केहू के भी चोट लाग सकत बा. एहि से एकरा ‘लइका’ लोग के खेला कहल जात रहे. लइकी लोग गेना भदभद ना खेलत रहे.”
सुधामयी कहली, “हम जेतना भी खेला के जिकिर कइनी, ओह में से कबो कवनो खेल खेले के मौका ना भेंटाइल. ई सभ खेल के जिकिर हम आपन नानी गजुलावर्ती सत्य वेदम से सुनले बानी. नानी कोलाकालुरु में हमार गांव से कोई 17 किमी दूर चिन्नागदेलावरू से रहस. उनकरा बारे में हमरा जादे कुछ इयाद नइखे. बस एतने इयाद बा कि ऊ हमरा खियाए, चाहे रात में सुतावे घरिया कहानी सुनावस आउर ओहि कहानी में ई सभ खेला के जिकिर रहत रहे. हम लरिकाई के कवनो खेल ना खेल सकनी. हमरा पढ़े खातिर स्कूल जाए के रहत रहे!”
हमनी के मोहल्ला के लइकी लोग पत्थर के छोट-छोट टुकड़ा से ‘गिट्टी’ खेला खेलीं, चाहे ‘बिष-अमृत’ खेलीं जे में आपन टीम के बचावे, चाहे दोसर टीम के पकड़े के रहत रहे. हमरा एगो आउर खेला- ‘लंगड़ी टांग’ इयाद पड़त बा. एकरा में भूइंया पर नौ गो खाना बनावल रहत रहे. एहि खाना में गोटी फेंक के एक टांग पर भीतरी कूद-कूद के खेलल जात रहे. हॉप स्कॉच (कूदे के खेला) जइसन एगो खेल.”
देवेश अफसोस जतावत कहले, “पहिले के जमाना में लइका लोग के हाथ में मोबाइल चाहे टैब ना होखत रहे. आज ई सभ खेल ओह लोग के बचपन से गायब हो गइल बा, ओह लोग के भाषा से गायब हो गइल बा. बखिरा रहे वाला हमार 5 बरिस के भतीजा हर्षित आउर गोरखपुर में रहे वाली 6 बरिस के भतीजी भैरवी के एह सभ खेल के नामो नइखे पता.”
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प्रणति मने मन सवाल-जवाब करत बाड़ी, बाकिर कुछ नुकसान त केहू रोक ना सके, ह कि ना? कुछ क्षेत्र में आवे वाला बदलाव से हमनी के भाषा भी त अपने आप बदले लागेला. जइसे कि, विज्ञान के क्षेत्र में तेजी से हो रहल प्रगति चलते कइएक बेमारी, ओकर कारण आउर रोकथाम के बारे में जानकारी भइल. लोग एकरा प्रति आपन नजरिया बदलक. चाहे कम से कम अब लोग एकरा पहचाने के तरीका बदल देले बा. उड़ीसा में स्थानीय भाषा में भी विज्ञान से संबंधित कुछ खास शब्द जुड़ल. एकरा कइसे समझल जा सकत बा?
बहुते गंभीर होके सोचत ऊ कहली, “हमनी के गांव में कबो चेचक जइसन बेमारी के बड़ माता, छोट माता पुकारल जात रहे, डायरिया यानी दस्त के बादी, हैजा, चाहे अमाशय, टाइफाइड के आंतरिक ज्वर. डायबिटीज के बहुमूत्र, गठिया के गांठीबात आउर कुष्ठ रोग के बड़ा रोग जइसन नाम धइल रहे. बाकिर आज लोग उड़िया शब्द के हटा के अंगरेजी शब्द बोलेला. अब एह बात पर समझ में ना आवे कि माथा पिटल जाव, कि का कइल जाव.”
हमनी, चाहे भाषा के जानकार होखीं, चाहे ना, पर एतना जरूर जानत बानी कि भाषा स्थिर चीज नइखे. ई एगो कल-कल बहत नदी बा. ई नदी हरमेसा आपन समय, काल, समाज में बहत रहेला. कबो सिकुड़ेला, कबो लुप्त हो जाला, कबो नया रूप धर लेवेला. त शब्द आउर स्मृति के बिलइला पर एतना हल्ला-हंगामा काहे? का तनी-मनी बिसरल नीमन नइखे?
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हम समाज के कइएक तरह के बुनावट के बारे में सोचत बानी जेकरा पाछु हमनी के भाषा छिपल रहेला. मुर्दाद मटन जइसन शब्द देखीं, मेधा कहली. “जे जिद्दी होखेला, जेकरा पर कवनो बात चाहे, हालात के असर ना होखे, जइसे कि मुर्दाद मटन, मरल मीट, ओकरे खातिर हमनी एह शब्द के इस्तेमाल करेनी. मुरदा मटन कइएक गांव में दलित लोग मजबूरी में खात रहे. उहंई से ई शब्द आइल हवे.”
राजीव मलयालम के बारे में सोचे लगलन. ऊ कहले, “कबो केरल में रहे वाला निचला जाति के लोग के चेट्टा मतलब, फूस के घर (मड़ई) कहल जात रहे. मड़ई में रहे वाला के चेट्टा पुकारल जात रहे. ओह लोग के आपन घर के पुरा, चाहे विदु कहे के अधिकार ना रहे. ई शब्द ऊंच जात के लोग के घर खातिर इस्तेमाल होखत रहे. ओह लोग आपन नया जन्मल बच्चा के ऊंच जात के लोग जेका उन्नी ना कह सकत रहे, बलुक ओकरा चेक्कन, चाहे छोकरा (बिगड़ल लइका) कहल जात रहे. ओह लोग के अपना के अदियान, राउर दास कहे के पड़त रहे. एह तरह के शब्द अब लोग ना बोले,” ऊ कहलन.
मेधा कहेली, “कुछ शब्द हरमेसा खातिर नष्ट हो जाव, इहे ठीक होई. मराठवाड़ा के एगो दलित नेता एडवोकेट एकनाथ अवार्ड अइसने एगो भाषा के बारे में बतावत बाड़न, जे ऊ आउर उनकर दोस्त लोग आपन आत्मकथा (स्ट्राइक ए ब्लो टू चेंज द वर्ल्ड, जेरी पिंटो के अनुवादित) में रचले रहे. ऊ लोग मातंग आउर दोसर दलित जाति से आवत रहे. भयानक गरीबी में रहे वाला ऊ लोग के रोटी भी चोरावे के पड़त रहे. ओह लोग के गुप्त भाषा- जिंदा रहे, सतर्क करे आउर पकड़े से पहिले भागे में मदद करत रहे. जीजा, जइसन कि लोग प्यार से उनकरा बोलावेला, कहले कि ‘एह तरह के भाषा भुला देवे के चाहीं. ई ना त केकरो पता चले के चाहीं, आउर ना ही एकरा दोबारा इस्तेमाल करे के जरूरत पड़े के चाहीं.’”
“दीपाली भुसनर आउर सांगोला के एडवोकेट नितिन वाघमारे लोग मिलके कइएक शब्द आउर काय मांग गरुड़ीअसराखा रहांतुई? (काहे तू मातंग, चाहे गरुड़ी जेका देखाई देत बाड़?) जइसन मुहावरा के एगो सूची बनइलक. एह प्रयोग से पता चलल कि अकाट्य गरीबी आउर जातिगत भेदभाव जइसन परिस्थिति में रहे वाला दलित लोग के बीच साफ-सफाई के भारी कमी बा. बाकिर जाति के हिसाब से केहू के ऊंचा-नीचा देखावे में उलझल भाषा में कवनो आदमी के तुलना समाज में अशुद्ध मानल जाए वाला पारधी, मांग, महार जाति से कइल ओकर परम अपमान रहे. हमनी अइसन शब्द के उखाड़ के फेंक देवे के चाहत बानी.”
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कुछ शब्द के बचावे के जरूरत बा. हमनी के भाषा के संकट कवनो काल्पनिक संकट नइखे. जदि ई कोयला खदान में पहिल कैनरी जइसन बा, जइसन कि पेग्गी मोहन कहेली, का एकरो से बुरा कुछ होखे वाला बा? का हमनी, इंसान के रूप में, एगो संस्कृति के रूप में आपन विविधता के बिनाश ओरी बढ़ रहल बानी? का एकर प्रारंभ भाषा में हो चुकल बा? आउर ई बिनाश के अंत कहंवा होई?
जयंत परमार, 69 बरिस, के कहनाम बा, “आउर कहंवा, हमनी के आपने भाषा में.” ऊ उर्दू में लिखे वाला दलित गुजराती कवि बाड़न.
ऊ भाषा संगे आपन आउर आपन माई दाहीबेन परमार के रिस्ता के बारे में कहे लगलन, “माई गुजराती बोले घरिया, बहुते ऊर्दू शब्द के इस्तेमाल करत रहस. हमरा कवनो खास बरतन लावे के कहे के होखे, त ऊ कहस, जा काडो लाई आव खावा काधू. पता ना अब अइसन बरतन होखेला कि ना. ओकरा में हमनी भात मिस के (मिलाके) खात रहीं. गालिब के पढ़नी त पता चलल कि ऊ ‘काड़ा’ शब्द रहे,”
“अइसन बहुते लाइन बा, जइसे कि “तारा दीदार तो जो,” (कइसन देखाई देत बाड़, ध्यान द), “तारु खामीस धोवा आप” (लाव तोहर बुश्शर्ट फींच दीहीं), “मोनहमाथी एक हरफ काधोतो नाथी” (का तू आपन मुंह से एगो शब्द ना बोल सकेल) चाहे ऊ कहिहन, “मुल्लाने त्यानथी घोष लाई आव” (मुल्ला के घर से तनी मीट ले आव). शब्द त गोश्त बा, बाकिर बोलचाल के भाषा में हमनी एकरा गोश कहिला. ई सभ शब्द हमनी के बोली-बानी के हिस्सा रहे, बाकिर अब सभ भुलाइल जात बा. उर्दू कविता में ई सभ शब्द जबो मिलेला, हमरा माई इयाद आ जाएली.”
अब बहुत कुछ बदल गइल बा, जलवायु, शहर के भूगोल. “ओह घरिया सभे समुदाय के लोग अहमदाबाद में एक संगे रहत रहे, धरम के कवनो भेदभाव ना रहे. दिवाली में मुस्लिम दोस्त हमनी इहंवा मिठाई खाए. हमनी एक दोसरा से गले लगीं. मुहर्रम में हमनी ताजिया के जुलूस देखे जाईं. ओह में से कुछ त बहुते सुंदर लागे, बहुते महीन नक्काशी कइल आउर सजावल गुंबद रहत रहे. छोट लइका सभ ओकरा में से गुजरे आउर ओह लोग के सेहत आउर खुसी के दुआ कइल जात रहे,” ऊ कहले.
पुरान जमाना में “आदान-प्रदान” रहे, एगो सरल सतत देन-लेन होखत रहे. ऊ कहले, “हम ऊ माहौल आउर बखत नइखे रहल. ई हमनी के भाषा में भी झलकेला. बाकिर उम्मीद ही जिनगी बा. हम मराठी, पंजाबी आउर बंगाली जानिला. एह में से कइएक शब्द हम उर्दू में इस्तेमाल करिला. काहेकि हमार मानना बाक कि सिरिफ कविता के जरिए ही एकरा बचावल जा सकेला.”
रेत के अंदर जइसे समूचा दुनिया के देखल जा सकेला, ओहि तरह शब्द में संसार समाएल बा.
पारीभाषा टीम के आपसी सहयोग आउर अथक प्रयास से ई बहुक्षेत्रीय कहानी संभव हो पाइल बा. एह खातिर देवेश (हिंदी), जोशुआ बोधिनेत्र,(बंग्ला), कमलजीत कौर (पंजाबी), मेधा काले (मराठी), मोहम्मद कमर तबरेज (उर्दू), निर्मल कुमार साहू (छत्तीसगढ़ी), पंकज दास (असमिया), प्रणति परिदा (उड़िया), राजासंगीतन (तमिल), राजीव चेलानाट (मलयालम), स्मिता खटोर (बांग्ला), स्वर्ण कांता (भोजपुरी), शंकर एन. केंचनूर (कन्नड़), आउर सुधामयि सत्तेनपल्ली (तेलुगु) के आभार रही.
जयंत परमार (उर्दू में लिखे वाला गुजराती दलित कवि), आकांक्षा, अंतरा रमण, मंजुला मस्थिकट्टे, पी. साईनाथ, पुरुषोत्तम ठाकुर, रितायन मुखर्जी आउर संकेत जैन के एह कहानी में महत्वपूर्ण योगदान खातिर धन्यबाद रही.
अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के एह कहानी के सुंदर आउर सटीक संपादन पी. साईनाथ, प्रीति डेविड, स्मिता खटोर आउर मेधा काले के सहयोग से प्रतिष्ठा पंड्या कइले बानी. अनुवाद में जोशुआ बोधिनेत्र के सहयोग बा. फोटो संपादन आउर लेआउट बिनाइफर भरूचा के बा.
अनुवादक: स्वर्ण कांता