"साल 1970 और 80 के दशक में, हम बहुत सारी मछलियां पकड़ते थे. हम नारियल के पेड़ों के उर्वरक के रूप में मैकेरल भी बेचते थे," उत्तरी गोवा के कलंगुट गांव के एक बुज़ुर्ग मछुआरे मर्सेलिन फ़र्नांडिस ने मुझे बताया. (डॉक्यूमेंट्री के लिए साक्षात्कार देने के बाद, उनका निधन हो गया.)
लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, गोवा एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल बन गया, और पूरे साल पर्यटक आने लगे. मछली की मांग भी साल के 12 महीने बनी रहती है. इसका असर यह हुआ है कि अब उतनी मछलियां उपलब्ध नहीं रह गई हैं. गोवा के तट पर मछली पकड़ने वाली बड़ी नौकाओं ने भी मछुआरों के लिए मछली पकड़ना मुश्किल बना दिया है.
इस वजह से, राज्य की लगभग 104 किलोमीटर लंबी तटरेखा के किनारे रहने वाले समुदायों को मछली पकड़ने के पारंपरिक पेशे से इतर, जीवनयापन के अन्य तरीक़े खोजने पड़े. कुछ ने दुकानें खोल लीं, कुछ ने पर्यटकों के लिए वाटर स्पोर्ट्स (जल क्रीड़ाएं) और अन्य पर्यटन संबंधी कामकाज शुरू कर लिया. वक़्त के साथ बहुत से युवा पश्चिम एशियाई देशों में काम करने चले गए, वहीं बहुतों ने समुद्र तट के किनारे छोटे रेस्तरां खोल लिए या पर्यटन उद्योग से जुड़े किसी और काम में लग गए.
हालांकि, कुछ मछुआरों ने हार नहीं मानी है और मछली पकड़ने की पारिवारिक परंपरा को जारी रखा है. रॉनी फ़र्नांडिस कहते हैं, "मेरे पूर्वज मछुआरे थे, और मैं उस परंपरा को जीवित रखना चाहता हूं"
डॉक्यूमेंट्री "शिफ्टिंग सैंड्स" कलंगुट गांव के मछुआरों और मछुआरिनों के बारे में है, जो उत्तरी गोवा के पर्यटन क्षेत्र के ठीक बीच में स्थित है. डॉक्यूमेंट्री में उनके पहलू को सामने लाया गया है कि वे ख़ुद को, अपने पेशे को और आसपास हो रहे बदलावों को कैसे देखते हैं.
भले ही चीज़ें तेज़ी से अलग रूप लेती रही हैं, और लहरों का रुख़ भी बदलता रहता है, लेकिन कुछ संबंध मज़बूत बने हुए हैं.
नोट: पारी की योगदानकर्ता सोनिया फिलिंटो द्वारा निर्देशित और प्रोड्यूस की गई ‘शिफ्टिंग सैंड्स’ 2012-13 में बनाई गई स्वतंत्र डॉक्यूमेंट्री है. फ़्रांस के लोरिएंट में ले फेस्टिवल इंटरनेशनल डी फिल्म्स पेचेर्स डु मोंडे 2015 में इसकी स्क्रीनिंग की गई थी. इसके अलावा, इसे गोवा, बेंगलुरु और दुबई में भी दिखाया जा चुका है.
अनुवाद: जान्हवी गोयल