एक बड़ी चोरी
- १९७० में, गन्धमर्धन ब्लॉक-बी खनन पट्टा ओडिशा माइनिंग कॉरपोरेशन (ओ.एम.सी) को दिया गया था।“मैं इस तरह से ओड़िया में हस्ताक्षर करता हूँ। मैंने अंग्रेजी जीवन में कभी नहीं पढ़ी। मैं अंग्रेजी में कैसे हस्ताक्षर कर सकता हूँ?” ऊरुमुंडा गांव में अपनी साइकिल से उतरते हुए, गोपीनाथ नाइक आश्चर्य के साथ पूछते हैं। नाइक अपने गांव की वन अधिकार समिति के एक सदस्य हैं। उन्होंने एक अंग्रेजी हस्ताक्षर देखा जो उनका बताया जा रहा है और जो उनके गांव की ग्राम सभा के प्रस्ताव को प्रमाणित करने का दावा करता है।
इस प्रस्ताव में ओडिशा माइनिंग कॉरपोरेशन (ओ.एम.सी) को ८५३ हेक्टेयर से अधिक वन भूमि सौंपने के लिए ऊरुमुंडा गांव के ग्रामीणों की सहमति को रिकॉर्ड करता है। यह प्रस्ताव उन सात एकसे ग्राम सभा प्रस्तावों में से एक है, जो जनवरी २०१५ में ओडिशा राज्य सरकार और ओ.एम.सी द्वारा जंगल काटने के आवेदन के रूप में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को प्रस्तुत किए गए।
ओ.एम.सी जो खुद को "भारत की सबसे बड़ी पब्लिक खनन कंपनी” होने का दावा करती है, ऊरुमुंडा के आस पास सात गांवों की १,५९० हेक्टेयर भूमि, जिसमे १,४०९ हेक्टेयर जंगल (लगभग, दिल्ली के ४५ लोदी गार्डन ) शामिल है, को 'गन्धमर्धन ब्लॉक-बी' नामक ३०० लाख टन लोहे की खान में बदलने की मंजूरी की मांग कर रही है।
ओ.एम.सी का प्रस्ताव ३३ साल तक खान चलाने का है। उनके दस्तावेजों के अनुसार हर साल ९.२ करोड़ टन लोहे का खनन होगा जिसका बिक्री मूल्य हर साल २,४१६ करोड़ रुपए है। इस प्रकार जंगल में अयस्क का कुल मूल्य ७९,००० करोड़ रुपए से अधिक है।
हम ओडिशा की राजधानी, भुवनेश्वर से २५० किलोमीटर दूर, उत्तर की ओर ,कयोंझर जिले के गन्धमर्धन पहाड़ों में हैं। यह असाधारण दृश्य, आदिवासी मुंडा और भुइँया गांवों का है, जहाँ पर्णपाती जंगल, मक्का, बाजरा और तिल के खेत, पहाड़ी प्राकृतिक धाराओं से सिंचित हैं। ग्रामीणों और सरकारी दस्तावेजों के अनुसार, यहाँ जंगल के कुछ हिस्सों में, हाथी झुंड और अन्य वन्यजीव घूमते हैं ।
भारत का एक तिहाई लौह अयस्क भंडार भी यहाँ ही है।
वस्तु व्यापार की गरम बाजारी, विशेषकर चीन को आकर्षक निर्यात की शह, अयस्क के लालच के चलते, क्योंझर और सुंदरगढ़ के निकटवर्ती जिलों ने, २००५-२०१२ तक, पहाड़ों और जंगलों को खुदाई के लिए अथक हाथापाई को भोगा । शाह आयोग की अवैध खनन छानबीन रिपोर्ट (सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एम.बी शाह की अध्यक्षता में) के अनुसार २०११-२०१३ में इन क्षेत्रों में कानून और स्थानीय आदिवासी समुदायों की व्यापक हानि करते हुए, एक मुट्ठी भर आर्थिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली लोगों ने "असाधारण मुनाफा" बनाया ।
२०१३ में बढ़ते हुए सवालों के रहते, नवीन पटनायक सरकार ने, देर से ही सही, मगर खनन कंपनियों को ५९,२०३ करोड़ रुपये की अवैध खनन के लिए वसूली के नोटिस जारी किए हैं। परिप्रेक्ष्य के लिए, यह रकम, राज्य के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का एक चौथाई है। खनन कंपनियों ने इस तारीख तक, एक रुपये का भी भुगतान नहीं किया है।
ओडिशा के सबसे बड़े भ्रष्टाचार घोटाले की अवैध हरकते इतनी व्यापक थी कि शाह आयोग ने २०१३ की रिपोर्ट के अंत में कहा “वहाँ कानून का शासन नहीं है, बल्कि कानून शक्तिशाली खनन पट्टेदारों और संबंधित विभाग की मिलीभगत द्वारा बनाया जाता है”।
लेकिन अब यह २०१६ है, और आदिवासियों को लगता है कि न उनका पहले कोई महत्व था, न अब है । ऊरुमुंडा में, नाइक ही नहीं, जिनका नाम प्रस्ताव पर तीन बार अंकित है, बल्कि और कई ग्रामीण भी बताते हैं की उनके हस्ताक्षर फर्जी हैं और नाम दोहराए गये हैं।
बैद्यनाथ साहू अपना नाम तीन बार पाते है और हँसी से कहते हैं, "उन्होंने मुझे तीन बार बेच दिया।”
वन विभाग की मंजूरी प्रस्तुति पत्र के मुताबिक, ऊरुमुंडा और गन्धमर्धन जंगल में छह अन्य गांवों - उप्पर जागर, डोंला, आम्बादहरा, नितिगोठ , उप्पर कैंसरी और इचिंदा की ग्राम सभाओं को नवंबर और दिसंबर २०११ में बुलाया गया । २,००० से अधिक कथित हस्ताक्षर और अंगूठे का निशान से अंकित इन प्रस्तावों की प्रतियां जब मैं गांव दर गांव दिखाती हूँ, तो ग्रामीण कहते हैं कि न तो इस तरह की बैठकों का कभी आयोजन किया गया और न ही इस तरह के प्रस्तावों को पारित किया गया ।
नितिगोठ में, पंचायत समिति सदस्य शकुंतला देहुरी, अपने गांव के तथाकथित पारित प्रस्ताव पत्र की एक प्रति पढ़ने पर गालिओं की बौछार सुनाती हैं । शेष छह गांवों के प्रस्ताव पत्रों की भाषा इस्तेमाल करते हुए यह दर्शाया गया है कि एक बैठक करी गयी जिसमें नितिगोठा के निवासियों ने कहा कि वे खेती, घर के निर्माण या किसी आजीविका के लिए वनों का उपयोग नहीं कर रहे हैं और इन पर किसी व्यक्ति या समुदाय का दावा नहीं है। प्रत्येक प्रस्ताव में ग्रामीणों का कहना है कि खान के उद्घाटन से उन्हें आजीविका मिलेगी, और वे सरकार से वन परिवर्तन प्रस्ताव को लागू करने का अनुरोध करते हैं।
शकुंतला जब प्रस्ताव पत्र पढ़ कर सुनाती है तो उसके आसपास एकत्र हुए ग्रामीणों में पहले हंसी और फिर नाराजगी फैल जाती है। वह युवा महिला गुस्से में कहती है, " इस बेतुके और झूठे प्रस्ताव पत्र को लिखने वाले हरामज़ादे अधिकारी को मेरे सामने लायें!"
आम्बदहरा और नितिगोठ में, इस क्षेत्र में अन्य गांवों, और ओडिशा भर के अनुमानित १५,००० गांवों की तरह, जंगलों का समुदाय संरक्षण करने की आदिवासीयों की एक लंबी परंपरा रही है जिसकी पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को प्रत्यक्ष अध्ययन करने पर विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यहाँ ग्रामीणों एक रजिस्टर दिखाते है, जिसके अनुसार सप्ताह के प्रत्येक दिन पांच ग्रामीण ड्यूटी पर रहते हैं और जंगल के खंड की गश्ती करते है यह सुनिश्चित करने के लिए की कोई पेड़ तो नहीं काट रहा या लकड़ी तस्करी की तैयारी तो नहीं कर रहा है।
मेरी यात्रा के दिन, ड्यूटी पर लगे ग्रामीणों में से एक, कविराज देहुरी कहते हैं "हम जंगल की रक्षा कर रहे हैं। वो हमें पोषण देतें हैं”। “हम कैसे ग्राम सभा में बैठ कर कह सकते हैं कि हमारा जंगल पर कोई दावा नहीं या सरकार से जंगल ओएमसी को देने का अनुरोध है?”
उप्पर जगरा के ग्रामीणों में उनके गांव के होने का दावा करती हुई प्रस्ताव की प्रति के इर्दगिर्द ‘जालसाजी’ ‘जालसाजी’ की अफवाहें गरम हैं। गोविंद मुंडा अपने नाम को दो बार अलग और फर्जी हस्ताक्षर के साथ देख कर आश्चर्य चकित हैं। "वास्तव में मैँ ऐसे हस्ताक्षर करता हूँ" वे लिखकर बताते है।
ग्रामीणों की भीड़ अपने गांव के तथाकथित प्रस्ताव पत्र पर नामों की सूची पढ़ने पर यह पाते है कि संलग्न आधे से अधिक नाम उनके गांव के लोग नहीं हैं। खगेशवर पूर्ती बीच में बोलते है, “ओ.एम.सी की खानों से हमारे खेत खराब हो गए और हमारी पानी की धारायें सूख गयी। हमने जिला अधिकारियों को कई शिकायतें कीं, लेकिन हमारी कौन सुनता है? यदि हम उनके प्रस्ताव पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा का आयोजन करें तो क्या हम कभी भी इस तरह के बेतुके प्रस्ताव को पारित कर सकते हैं?"
आम्बदहरा में पूर्व सरपंच गोपाल मुंडा अपने चारों गांवों के प्रस्तावों पर अपना नाम देखकर सिर हिलाते हैं। प्रत्येक प्रस्ताव पत्र में कहा गया है कि बैठक उनके पद में रहते हुए हुई। हट्टेकट्टे मुंडा बोले "कौन इस तरह मेरे नाम पर झूठ बोल रहा है? मुझे भुवनेश्वर या दिल्ली अदालत में ले चलो और मैँ अपना सर ऊँचा कर के कहूंगा कि मैंने हमारे गांवों में कोई ऐसी बैठक नहीं बुलाई”। उनके आसपास के लोग गुस्से में कहते हैं “इन जंगलों और पहाड़ों की वजह से ही हमें पानी और फसल मिलती है। वे लोग हमारा धन ले कर बड़े हो रहे हैं जबकि हम दुर्बल होते जा रहे हैं”।
डोंला में थकी हारी मसूरी बेहरा कहती हैं, "क्यों वे इस तरह हमारी पेट में लात मारते हैं? हमारे पास पहले से ही इतना कम है।" ग्रामीण यहां पूछते हैं, "इतने सारे लोगों के साथ बैठक कब हुई? अगर होती तो हमें पता न लगता? "
ग्रामीणों के बयान के अलावा, यह तथ्य ही बेईमानी सुझाव करता है कि सात अलग-अलग बैठकों के प्रस्ताव पत्र वास्तव में बिलकुल समान हैं। इन प्रस्तावों का उड़िया से अंग्रेजी अनुवाद भी अंतिम शब्द तक एक समान है - इस तथ्य ने वन सलाहकार समिति (एफएसी) के मन में कोई सवाल कैसे नहीं उठाया जब ओ.एम.सी वन विभाग के प्रस्ताव की मंजूरी पर विचार-विमर्श करने के लिए सितम्बर २०१५ की बैठक उनके नेतृत्व में हुई।
एक एफएसी सदस्य ने मुझे गोपनीयता की शर्त पर बताया, "इस व्यवस्था में क्लीयरेंस देने के लिए इतना दबाव है। इससे पहले इन चीजों की जांच पड़ताल और सवाल पूछने के लिए कुछ गुंजाइश थी, लेकिन अब इस के लिए कोई समय नहीं है, न ही हमसे उम्मीद करी जाती है। "
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एक बड़ा सवाल : इस तरह ग्रामीणों की ठगी क्यों? वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत, जो भारत की अनुमानित १५० करोड़ वनवासियों के लिए एक ऐतिहासिक कानून है, उनके प्रथागत वन का गैर वन उपयोग में व्यपवर्तन के लिए (आधिकारिक परिभाषा में काटने के लिए), एक गांव की वयस्क आबादी का ५० प्रतिशत से अधिक की सहमति अनिवार्य है। उदाहरण के लिए, इस मामले में, ओ.एम.सी जंगल के १,४०९ हेक्टेयर खंड पर ३०० लाख टन लोहे की खान चालू करना चाहती थी। २००६ में अधिनियमित, एफआरए, एक विलम्बित विधान है और उन लाखों भारतीयों को मान्यता प्रदान करता है जो पारंपरिक रूप से जंगलों में या उनके पास रहते हैं, लेकिन उनके घरों, भूमि और आजीविका पर उनका कोई कानूनी अधिकार नहीं है।
यह कानून का उद्देश्य, औपनिवेशिक युग अधिनियम के अंतर्गत किये गए "ऐतिहासिक अन्याय' का सुधार करना है, जो वन निवास समुदायों को अपने स्वयं की भूमि पर अतिक्रमण करने वालो में बदल देता है।
एफआरए के तहत, ग्रामीणों ने जिन जंगलों का पारंपरिक रूप से इस्तेमाल किया है, उन पर उनके अधिकारों की मान्यता स्वीकार करने के बाद ही औद्योगिक अधिग्रहण करा जा सकता है। यह परिवारों के लिए व्यक्तिगत वन भूमि पट्टा (आदमी और औरत के नाम) और समुदाय वन भूमि पट्टा को गांव के नाम पर लिख कर किया जाता है।
यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आसपास के स्थानीय लोगों को उन जंगलों के प्रस्तावित विनाश के निर्णय में आवाज़ देता है,जिनका उन्होंने पारंपरिक रूप से इस्तेमाल किया है। अगर वे उद्योग के लिए ऐसे क्षेत्रों को देने का फैसला करें, तो यह स्थानीय लोगों को मुआवजे को पात्र बनाता है। ऐसी मान्यता के बिना, स्थानीय लोगों को उनकी संसाधन के आकर्षक मुद्रीकरण के किसी भी हिस्से से बाहर रखा जाता है। उदाहरण के लिए, ओएमसी खानों की बिक्री का मूल्य २,००० करोड़ रुपये सालाना और प्रस्तावित जीवन पर ७९,००० करोड़ रुपए से अधिक हो सकता है। एक वरिष्ठ वन अधिकारी मुझसे पूछते हैं "लेकिन स्थानीय आदिवासियों को इस व्यवस्था से क्या लाभ है?" ।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में जनवरी २०१६ का संशोधन जो वन अधिकार नकारने को एक दंडनीय अपराध करार देता है, वह एफआरए कानून को मजबूत बनाता है।
लेकिन इन सात गांवों में कई लोग हैं, जिन्होंने वन अधिकार दावे दायर किये है पर उन्हें पट्टे मिले नहीं हैं। कुछ है जिन्हे भूमि के भाग (२५ से ८० दशमलव) के शीर्षकं मिले पर वो उनके दावे की तुलना में कम है। इसके अलावा, जिला प्रशासन ने डोंला और उप्पर कईंसरी के दो गांवों में कोई भी वन अधिकार पट्टा नहीं दिए हैं । अनाम रहने का अनुरोध करते हुए, एफआरए के तहत क्योंझर के दावा प्रसंस्करण के क्षेत्र कार्य में शामिल एक अधिकारी ने मुझसे कहा, "मेरे वरिष्ठ नागरिकों ने मुझे बताया है कि डोनला गांव में वन क्षेत्र ओएमसी की खानों के लिए जाना है, तो हमें ग्रामीणों के दावों को नजरअंदाज करना चाहिए" ।
और गैर कानूनीपन में, सात गांवों में से कोई भी समुदाय खिताब अब तक नहीं मिला है। भले ही समुदाय जंगल उनकी प्रथागत सीमाओं के भीतर हैं, वे वन लघु उपज का जलाऊ लकड़ी के रूप में उपयोग करते हैं और वन संरक्षण परंपरा अभ्यास के माध्यम से, कानून द्वारा परिभाषित 'वन संसाधन अधिकार' के हकदार हैं।
क्योंझर के तत्कालीन जिला कलेक्टर विष्णु साहू ने रिकॉर्ड नहीं किया कि किन कारणों से समुदाय भूमि शीर्षक के दावे नहीं दिए गए, जबकि एफआरए कानून के तहत इसकी आवश्यकता है। इसके बजाय जनवरी १९, २०१३ को उनके द्वारा ओएमसी को जंगल को सौंपने के समर्थन में तैयार प्रमाण पत्र में कहा गया है कि सात गांवों में सभी एफआरए अधिकारों का निपटारा किया गया है।
जब मैंने ओडिशा सरकार वन एवं पर्यावरण सचिव, एस सी महापात्रा से संपर्क किया, जिनके विभाग ने ओएमसी की ओर से मंत्रालय को मंजूरी का आवेदन पत्र प्रस्तुत किया था, वे कहते हैं, "मैं इस बारे में कुछ भी नहीं जानता" और तुरंत फ़ोन काट देते हैं। इसके बाद वे फ़ोन का जवाब ही नहीं देते हैं।
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नवंबर २०१५ की शुरुआत में, जब प्रस्तावों में अपने नाम की धोखाधड़ी के बारे में पता चला तो सात गांवों में से दो, आम्बदहरा और नितिगोठ ने अवैध गतिविधियों की ओर इशारा करते हुए पर्यावरण और जनजातीय मामलों के मंत्रालयों को पत्र भेजा। उन्होंने ओडिशा के राज्यपाल को भी लिखा था जिन्हे संविधान के तहत, आदिवासी क्षेत्रों में समुदायों के अधिकारों की रक्षा की विशेष जिम्मेदारी है । तीन महीने हो गए पर इन अधिकारियों में से किसी ने भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है।
बात यहाँ ख़तम नही होती है । २८ से ३० दिसंबर २०१५ तक पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वन सलाहकार समिति के तीन सदस्यीय दल ने प्रस्तावित साइट निरीक्षण के लिए क्योंझर का दौरा किया। उनके विचारार्थ विषय में ओएमसी के प्रस्तावित खदान क्षेत्र में एफआरए के कार्यान्वयन को देखना भी शामिल था ।
२९ दिसंबर को, मैं टीम के प्रमुख और अतिरिक्त महानिदेशक, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, अनिल कुमार से क्योंझर होटल में मिली, जहां उनकी टीम रह रही थी । उन्होंने जोर देकर कहा कि मैं ओ.एम.सी अधिकारी जिनके साथ वे नाश्ता कर रहे थे, उनकी मौजूदगी में ही बात करूं। कुमार ने यह कहते हुए कि " एफ ए सी के काम गोपनीय है”, मुआइने या कैसे टीम एफआरए के कार्यान्वयन की जांच करेगी इस बारे में मेरे किसी भी सवाल का जवाब देने से मना कर दिया।
गांवों की जालसाजियों के आरोप की शिकायतों के लिए समिति की प्रायोजित जांच और क्या सदस्य गांवों का दौरा करेंगे, इन मुद्दों को मैंने दोहराया तो, कुमार मुझसे बोले कि मैँ ईमेल से उन्हें उल्लंघन के बारे में सूचित करूँ । एक दिन पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक समाचार पत्र को इंटरव्यू देते हुए और उनकी सरकार की उपलब्धियों की सूची बताते हुए कहा था , "पर्यावरण मंजूरी एक नियम के रूप में दी जा रही हैं। "
३० दिसंबर को जिले मैँ ३ दिन बिताने के बाद , एफ ए सी टीम सात गांवों में से किसी का भी दौरा किये बिना या किसी ग्रामीण से बात किए बिना ही, क्योंझर से रवाना हो गयी ।
'साइट निरीक्षण ' पूरा हो गया था ।
इस कहानी का एक संस्करण फरवरी, २०१६ को आउटलुक पत्रिका में छपा था ।