नहीं, पेंटिंग इसलिए नहीं बनाई जाती है कि उससे
घरों को सजाया जए. यह दुश्मनों पर वार करने
और ख़ुद की हिफ़ाज़त करने के लिए एक कारगर हथियार है.
– पिकासो
मराठा भाषा में एक कहावत है : “बामना घरी लिहिणं, कुणब्य घरी दानं आणि मांगा-महारा घरी गाणं” अर्थात ‘एक ब्राह्मण के घर में वर्णमाला होती है, एक कुंबी के घर में अनाज होता है, और एक मांग-महार के घर में संगीत होता है.’ पारंपरिक ग्रामीण समाज में मांग समुदाय के लोग हलगी बजाते थे, गोंधली संबल बजाते थे, धांगर ढोल बजाने में निपुण होते थे, और महार एकतारी बनाते थे. ज्ञान, कृषि, कला, और संगीत की परम्पराएं जातियों के आधार पर बंटी हुई थीं. बल्कि ‘अछूत’ समझी जाने वाली अनेक जातियों की आजीविका गाने-बजाने के पेशे पर ही निर्भर थी. सदियों से शोषण और भेदभाव का सामना वाली दलित जातियों ने जात्यावरची ओवी (ग्राइंडमिल गीत और कविताएं), मौखिक कहानियों और लोक संगीतों के विविध रूपों में अपने इतिहास, शौर्य, पीड़ा, खुशहाली, और अपने दर्शन को सुरक्षित रखा है. राष्ट्रीय राजनीति में डॉ. अम्बेडकर के आविर्भाव से पहले महार लोग कबीर के दोहों पर एकतारी बजाते थे और विट्ठल और दूसरे आराध्य देवताओं के भजन और भक्ति गीत गाने का काम करते थे.
जब डॉ. अम्बेडकर दलित राजनीति के क्षितिज पर उभरे, तब 1920 के बाद इन लोक कलाओं और उनके कलाकारों ने दलित आन्दोलन के संदेश और डॉ. अम्बेडकर के विचारों के प्रचार-प्रसार में एक बड़ी भूमिका निभाई. इन कलाकारों ने डॉ अम्बेडकर के आन्दोलन द्वारा संपोषित सामाजिक परिवर्तनों, सामाजिक जीवन में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका, उनका संदेश, उनका जीवन और संघर्ष - इन सबकी ऐसी भाषा में व्याख्या की थी कि अनपढ़ और दुनिया से बेख़बर आदमी उन्हें समझ पाने में सक्षम था. एक बार डॉ. अम्बेडकर ने जब भीमराव कर्डक और उनकी मंडली को मुंबई के नायगांव इलाक़े में एक जलसा (गीतों के माध्यम से सांस्कृतिक प्रतिरोध) करते हुए देखा, तब उन्होंने कहा: “मेरी दस बैठकी और जनसभाएं, कर्डक और उनकी मंडली के एक जलसे के बराबर हैं.”
डॉ. अम्बेडकर की उपस्थिति में प्रस्तुति देते हुए हुए शाहीर भेगडे ने कहा था :
वह महार लड़का (अम्बेडकर) बहुत
होशियार था
सच में बहुत ही होशियार
ऐसा दुनिया में कभी नही हुआ था
वह अँधेरे में भी हमें रास्ता दिखाता था
वह भोले-भाले लोगों को ख़बरदार करता था
डॉ अम्बेडकर के आन्दोलन ने दलितों में एक नई तरह की जागरूकता लाने का काम किया. जलसा इस जागरूकता का कारगर उपाय था, और शाहीरी (गीतों की प्रस्तुतियां) इस जागरूकता का अनुकूल माध्यम था. इस अभियान में हज़ारों की संख्या में ज्ञात-अज्ञात कलाकारों ने भागीदारी की.
जल्दी ही अम्बेडकरवादी आंदोलन शहर-क़स्बों से होता हुआ गांवों तक पहुंच गया, गावों में एक सामान्य दलित वस्ती (बस्ती) अमूमन टिन और कच्ची छतों वाले मकानों से बसी होती थीं. वस्ती के बीचोंबीच एक चबूतरा बना होता था जिस पर एक नीला झंडा फहराता रहता था. झंडे के नीचे वस्ती के बच्चे, औरतें, और बुज़ुर्ग इकट्ठे होते थे. उन बैठकों में बुद्ध-भीम के गीत गाए जाते थे. मुंबई की चैतन्यभूमि, नागपुर की दीक्षाभूमि और दूसरे बड़े शहरों के बड़े-छोटे कवियों के गीतों की किताबें लाई जाती थीं. हालांकि, दलित वस्तियों के स्त्री-पुरुष अधिकतर अनपढ़ होते थे, इसलिए वे स्कूली बच्चों से उन गीतों को पढ़वा कर सुनते थे, और उन्हें बाद में ख़ुद गाने के लिए याद करते थे. या फिर वे उन्ही वस्ती में आए किसी शाहीर की प्रस्तुति को सुन कर उन्हें याद करते थे. खेतों में दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद थकी-हारी कुछ औरतें शाम को लौटने के बाद इन गीतों को गाती थीं. गाने से पहले वे कहती थीं, “भीम राजा की जय! बुद्ध भगवान जय!” गीतों का विधिवत गायन इसके बाद ही आरंभ होता था. गीतों के गाने-सुनने से वस्ती के लोगों में एक ख़ुशी, उल्लास, और आशा का संचार होने लगता था. ये गीत गांवों के दलितों के ज्ञान के एकमात्र स्रोत थे. इन गीतों के माध्यम से ही अगली पीढ़ी का परिचय बुद्ध के दर्शन और फूले तथा अम्बेडकर के परिवर्तनकारी विचारों से हुआ. उन गायकों और शाहीरों की बोलचाल की भाषा ने गीतों में समाहित विचारों को भूल पाना असंभव बना दिया. शाहीरों ने एक पूरी पीढ़ी की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना को एक नया आकार दिया. आत्माराम साल्वे ऐसे ही एक शाहीर थे जिन्होंने मराठवाड़ा की सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता के सकारात्मक निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
9 जून 1953 को बीड ज़िले के माजलगांव ब्लॉक के छोटे से गांव भातवाडगांव में जन्मे शाहीर साल्वे 1970 के दशक में पढाई करने के लिए औरंगाबाद चले आए.
उस समय मराठवाड़ा निज़ाम के शासन के अधीन था और विकास के अनेक मोर्चों पर पिछड़ेपन से लड़ रहा था. उनमें एक मोर्चा शैक्षणिक पिछड़ेपन का भी था. इसी पिछड़ेपन के जूझने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने 1942 में ‘पीपल्स एजुकेशन सोसाइटी’ के तत्वावधान में औरंगाबाद के नागसेंवन इलाक़े में मिलिंद महाविद्यालय का शुभारंभ किया. नागसेंवन का परिसर दलित छात्रों के उच्च अध्ययन के केंद्र के रूप में तेज़ी से विकसित हो रहा था. पूरे मराठवाड़ा में मिलिंद कॉलेज के पहले केवल एक सरकारी कॉलेज था जो औरंगाबाद में था और वहां भी केवल इंटर तक की पढाई ही होती थी. इंटर का तात्पर्य इंटरमीडिएट डिग्री – एक प्री-डिग्री पाठ्यक्रम की पढाई से था. मिलिंद मराठवाड़ा का पहला कॉलेज था जहाँ अंडरग्रेजुएट शिक्षा की सुविधा उपलब्ध थी. इस नए कॉलेज ने इस इलाक़े में शिक्षा का माहौल विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और साथ ही राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल को रचनात्मक रूप से बदलने का काम किया. इसने एक निर्जीव होते समाज और क्षेत्र में एक नये जीवन का संचार किया, और अपनी पहचान और आत्मसम्मान के प्रति एक नई जागरूकता विकसित की. मिलिंद में न केवल पूरे महाराष्ट्र के कोने-कोने से, बल्कि कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों से भी छात्र पढने के लिए आने लगे. इसी समय आत्माराम ने भी मिलिंद में एक छात्र के रूप में प्रवेश लिया. औरंगाबाद के मराठवाड़ा विश्विद्यालय के नामकरण से जुड़ा आंदोलन जो इसी परिसर से आरंभ हुआ, उनकी प्रेरक कविताओं की संजीवनी से दो दशकों तक फलता-फूलता रहा. इस प्रकार वे नामांतर और दलित पैंथर आंदोलनों की सांस्कृतिक सक्रियताओं के लिए अकेले उत्तरदायी रहे.
साल 1970 का दशक एक अशांत और अव्यवस्थित समय था. यह आज़ाद भारत के युवा स्त्री-पुरुषों की पहली पीढ़ी का युग था. इन युवाओं में उनकी एक बड़ी संख्या थी जिनके हाथों में डिग्रियां थीं, लेकिन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद ये शासनतंत्र और सामाजिक व्यवस्थाओं की उद्देश्यहीनता के कारण स्वयं संशय और अस्पष्टता की स्थितियों में घिरे थे. उनपर अनेक सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं का गहरा असर पड़ा था: जैसे कि आपातकाल, पश्चिम बंगाल का नक्सलबाड़ी, तेलंगाना राज्य का आन्दोलन, बिहार में जयप्रकाश नारायण का नवनिर्माण आंदोलन, गुजरात और बिहार में ओबीसी आरक्षण के लिए आन्दोलन, हाल-फ़िलहाल का संयुक्त महाराष्ट्र आन्दोलन, मुंबई के मिल मज़दूरों का आन्दोलन, शहादा आन्दोलन, हरित क्रांति, मराठवाड़ा मुक्ति आन्दोलन, मराठवाड़ा का सूखा आदि.
‘मराठवाड़ा रिपब्लिकन स्टूडेंट्स फेडेरेशन के तत्वावधान में और डॉ. मच्छिंद्र मोहल के नेतृत्व में नागसेंवन कैंपस के जागरूक छात्रों ने 26 जून 1974 को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री कप पत्र लिखते हुए यह मांग कि मराठवाड़ा में स्थित दो विश्वविद्यालयों में से एक का नाम डॉ. अम्बेडकर के नाम पर रखा जाए. लेकिन नाम-परिवर्तन (‘नामांतर’) की इस मुहिम ने एक संगठित रूप तब लिया, जब भारतीय दलित पैंथर्स इसमें शामिल हुए. नामदेव ढसाल और राजा ढाले के भीच मतभेदों के कारण ढाले ने दलित पैंथर्स को भंग करने की घोषणा कर दी थी. लेकिन, उसके एक गुट ने प्रो. अरुण काम्बले, रामदास अठावले, गंगाधर गाड़े, और एस. एम. प्रधान के नेतृत्व में ‘भारतीय दलित पैंथर्स’ के नाम से एक संगठन बनाया, ताकि महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स के कामों का जारी रखा जा सके.
आत्माराम साल्वे ने नवगठित भारतीय दलित पैंथर्स के बारे में लिखा :
मैं एक पैंथर सैनिक हूं
काम्बले अरुण सरदार
हम सभी जय भीम वाले हैं
जो इंसाफ़ के लिए लड़ते हैं
सैनिक डरते नहीं
हम भी अब किसी से नहीं डरते
हम नाइंसाफ़ी को जड़ से मिटा देंगे
और आगे बढ़ेंगे
दलित, किसान, मज़दूर, उठो-बढ़ो
आओ हम एकजुट होकर मुट्ठी हवा में तानो
इस गीत के साथ साल्वे ने नए पैन्थरों का स्वागत किया और साथ ही मराठवाड़ा के उपाध्यक्ष की कमान भी संभाल ली. जुलाई 7, 1977 को नवस्थापित भारतीय दलित पैंथर्स के महासचिव गंगाधर गाड़े ने सार्वजनिक तौर पर पहली बार मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम डॉ. अम्बेडकर पर रखने की मांग की.
जुलाई 18, 1977 को सभी कॉलेज बंद कर दिए गए और ऑल-पार्टी स्टूडेंट एक्शन कमिटी ने मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नामांतर की मांग में एक विशाल मार्च की अगुआई की. जवाब में 21 जुलाई, 1977 को औरंगाबाद इंजीनियरिंग कॉलेज, सरस्वती भुवन कॉलेज, देवगिरी कॉलेज विवेकानंद कॉलेज के सवर्ण [ऊंची जाति के] छात्रों ने नाम-परिवर्तन के विरोध में पहली बार विरोध-प्रदर्शन किया. देखते ही देखते नामांतर के समर्थन और विरोध दोनों में विरोध-प्रदर्शनों, हड़तालों और रैलियों की बाढ़ आ गई. आने वाले दो दशकों तक मराठवाड़ा दलितों और गैर-दलितों के बीच असहमतियों और ज़ोरआज़माइश की युद्धभूमि बना रहा. इस युद्धभूमि में आत्माराम ने अपनी शाहीरी, अपनी आवाज़ और अपने शब्दों के हथियारों को उन्हीं के कथनानुसार, “दलितों पर थोपे गए जातियुद्ध के विरुद्ध” इस्तेमाल किया.
आत्माराम साल्वे का प्रादुर्भाव एक ऐसे समय हुआ जब अम्बेडकर-आन्दोलन के गवाह रहे अन्नाभाऊ साठे, भीमराव कर्डक, शाहीर घेगड़े, भाऊ फक्कड़, राजानंद गाडपायले, और वामन कर्डक जैसे शाहीर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से अनुपस्थित हो चुके थे.
उत्तर-अम्बेडकर काल के शाहीर मसलन विलास घोगरे, दलितानंद मोहनाजी हटकर, और विजयानंद जाधव ने डॉ. अम्बेडकर का आन्दोलन या धर्मपरिवर्तन का युग नहीं देखा था. दूसरे शब्दों में, निजी अनुभवों के मामले में वे बिल्कुल सिफ़र थे. ये शाहीर ग्रामीण इलाक़ों में रहते थे और बाबासाहेब (डॉ. अम्बेडकर) और उनके आन्दोलन से उनका परिचय किताबों के माध्यम से हुआ था. इसलिए उनकी शाहीरी में एक उग्रता दिखती है. आत्माराम के गीत भी इस प्रभाव से अछूते नहीं थे.
नामांतर का संबंध केवल नाम के बदलाव भर से नहीं था. इसका गहरा संबंध स्वत्व की पहचान और अपने मनुष्य होने के अभिमान के नए बोध से भी था.
जब मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल ने नामांतर आन्दोलन को समर्थन देने से पीछे हटने की कोशिश की, आत्माराम साल्वे ने लिखा :
वसंत दादा, हमसे उलझने की कोशिश मत करो
वरना कुर्सी गंवानी होगी
ये दलित सत्ता पर कब्ज़ा कर लेंगे
आप धूल भरे कोने में रह जाएंगे
आप ताक़त के नशे में चूर हैं
यहां देखिए, अपनी तानाशाही से बाज़ आइये
आपकी मनमर्ज़ी का शासन अब नहीं चलेगा
पुलिस अक्सर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के आरोप में उनके कार्यक्रमों को बंद कर देती थी, लेकिन आत्माराम ने परफ़ॉर्म करना कभी बंद नहीं किया
आत्माराम साल्वे ने केवल इस गीत को लिखा ही नहीं, बल्कि जिस समय वसंतदादा पाटिल नांदेड़ आए, तो हज़ारों लोगों की भीड़ के सामने इस गीत की शानदार प्रस्तुति भी दी. नतीजा यह हुआ कि उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज़ किया गया. उन पर जीवन भर राजनीतिक अपराध के मामले चलते रहे. साल 1978 से 1991 में साल्वे की मृत्यु तक पूरे महाराष्ट्र में उनके ख़िलाफ़ पुलिस स्टेशनों में मुक़दमे दायर किए जाते रहे, और उनपर हिंसा फ़ैलाने, सरकारी कामकाज में बाधा उत्पन्न करने, दंगा-फ़साद करने और सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने के आरोप लगाए जाते रहे. उनपर अनेक जानलेवा हमले भी किए गए. आत्माराम साल्वे के क़रीबी दोस्त और सहयोगी देगलुर के चंद्रकांत ठाणेकर याद करते हुए कहते हैं: “साल 1980 में देगलुर ब्लॉक [ज़िला – नांदेड़] के मरखेल गांव में उनपर हमला किया गया था. साल्वे पर डॉ. नवल की हत्या की कोशिश का आरोप लगा था, क्योंकि उनके मुताबिक़ डॉक्टर ने बेन्नाल गांव में एक दलित मज़दूर काले की हत्या के मामले एक फ़र्ज़ी मृत्यु-प्रमाणपत्र जारी किया था. इस अपराध में उन्हें, मुझे, और राम खड्गे को दो-दो साल का सश्रम कारावास और 500-500 रुपए का हर्जाना भरने की सज़ा सुनाई गई. बाद में एक उच्च अदालत ने हमें बरी कर दिया.”
उसी मरखेल गांव में 70 साल की एक वृद्धा नागरबाई सोपान वझरकर ने मुझे आत्माराम साल्वे की एक नोटबुक दी, जिसमें उनकी ही हस्तलिपि में उनके गीत लिखे हुए थे. उन्होंने मुझे वह नोटबुक मिट्टी के एक बर्तन से निकाल कर दिखाया था वहां वह विगत चालीस सालों से सुरक्षित रखी हुई थी. यह नागरबाई ही थीं जिन्होंने मरखेल में हुए हमले में आत्माराम की जान बचाई थी. एक दूसरी घटना में माजलगांव के व्यापारियों ने पैंथरों द्वारा आहूत बंद का विरोध करते हुए आत्माराम साल्वे को निष्कासित करने की मांग में विरोध-रैली निकाली थी. इस घटना के बाद उनके बीड ज़िले में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था. आत्माराम की प्रस्तुतियों में उनके गीतों पर हारमोनियम से संगत करने वाले मुखेड के तेजेराव भद्रे कहते हैं : “आत्माराम अपने भाषणों में जोश से भरे होते थे और उनके गीत सुन कर लोगों का ख़ून गरम हो जाता था. दलितों को उनके गीत बहुत भाते थे, लेकिन सवर्णों को वही गीत चोट पहुंचाते थे. वे उनको गाता सुन कर मंच पर पत्थरबाज़ी करने लगते थे. जब आत्माराम गाते, तो अगली क़तार में बैठे सुनने वाले उनकी तरफ़ सिक्कों की बौछार करने लगते, जबकि जो उन गीतों से आहत होते थे वे पत्थर फेंक कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते थे. एक शाहीर के रूप में वे एक ही समय पसंद और नापसंद दोनों किए जाते थे - और यह एक सामान्य बात थी. लेकिन पत्थर के हमले भी आत्माराम को गाने से नहीं रोक पाए. वे अपना सारा क्रोध और असंतोष अपने गीतों में उड़ेल देते थे और लोगों से उनकी अस्मिता और आत्मसम्मान के लिए लड़ने की अपील करते थे. वे चाहते थे कि जनता अन्याय के विरुद्ध लड़े.”
पुलिस अक्सर सामाजिक सौहार्द का उल्लंघन करने का आरोप लगा कर उनके कार्यक्रमों को बीच में ही रोक देती थी, लेकिन आत्माराम अपनी प्रस्तुतियां देने से कभी पीछे नहीं हटे. कार्यक्रमों में आत्माराम का साथ देने वाले फुले पिम्पलगांव के शाहीर भीमसेन साल्वे याद करते हुए कहते हैं : “आत्माराम को बीड ज़िले में दाखिल होने से रोक दिया गया था, लेकिन एक रात उनको ज़िले की सीमा के भीतर ही अपनी शाहीरी प्रस्तुति देनी थी. किसी ने इस बात की सूचना पुलिस को दे दी. पुलिस आई और उसने अत्माराम से कार्यक्रम को रोक देने को कहा. उसके बाद आत्माराम गांव में बहती नदी को पार कर दूसरे तट पर पहुंच गये. नदी का वह तट बीड ज़िले से बाहर पड़ता था. उनको सुनने आए लोग अंधेरे में ही नदी के इस पार बैठे रहे, और आत्माराम के गीत सुनते रहे. गायक ज़िले के बाहर था और श्रोतागण ज़िले के भीतर थे. पुलिस असहाय देखती रही. यह सच में एक मज़ेदार घटना थी.” आत्माराम ने अपने जीवन में ऐसी कई स्थितियों का सामना किया था, लेकिन गाना उन्होंने कभी बंद नहीं किया. गाना उनकी ज़िंदगी को ज़रूरी उर्जा देता था.
मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलने को लेकर हुए आंदोलन में दो दशकों तक आत्माराम साल्वे की कविताओं ने कहर मचाकर रखा
बीड के मानवी हक्क अभियान के संस्थापक-अध्यक्ष एडवोकेट एकनाथ आव्हाड ने अपनी आत्मकथा जग बदल घालुनी घाव (स्ट्राइक अ ब्लो टू चेंज दी वर्ल्ड; जेरी पिंटो द्वारा अनूदित) में आत्माराम साल्वे से संबंधित एक घटना के बारे में लिखा है : “सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुंचने और जनता में अपनी शाहीरी के ज़रिए असंतोष भड़काने के ‘अपराध’ में आत्माराम को बीड से प्रत्यावर्तित कर दिया गया था, और इसलिए वे नांदेड़ में थे. वहां उन्होंने पैन्थरों की एक ज़िला इकाई गठित की और अपने जलसा का आयोजन किया. अम्बाजोगाई के परली वेस में बड़ी संख्या में दलित थे, इसलिए जलसा वहीं आयोजित किया गया. आत्माराम को बीड में घुसने से प्रतिबंधित कर दिया गया था, इसलिए पुलिस बहुत सतर्क थी. कदम नाम का एक पी.एस.आई. आत्माराम को गिरफ़्तार करने ही वाला था. हम उसके पास गए. हमने कहा, ‘उसे गाने के बाद गिरफ़्तार कीजिए.’ वह मान गया. आत्माराम में पूरी जान लगा कर प्रस्तुति दी. उसके गीतों में बार-बार नामांतर की मांग दुहराई गई. पी.एस.आई. कदम ने भी गीतों का आनंद उठाया और एक क्रांतिकारी शाहीर के तौर पर उनकी ख़ूब तारीफ़ भी की. लेकिन इन तारीफ़ों के बाद भी वह उनको गिरफ्तार करने के लिए कृतसंकल्प था. आत्माराम को इसकी भनक लग गई. उन्होंने मंच पर अपनी जगह किसी दूसरे आदमी को बिठा दिया, और ख़ुद भाग निकले. पी.एस.आई. कदम आत्माराम को गिरफ़्तार करने मंच पर चढ़े भी, लेकिन उसे आत्माराम कहीं नहीं मिले.”
जुलाई 27, 1978 को जैसे ही महाराष्ट्र विधानसभा में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलने से संबंधित प्रस्ताव पारित हुआ, पूरा मराठवाडा क्षेत्र दलितों के लिए क़त्लगाह में तब्दील हो गया. एक दिन के भीतर यातायात और परिवहन के सारे माध्यम ठप कर दिए गए, हज़ारों दलितों के घर-दरवाज़े और सामान आग की लपटों के हवाले कर दिए गये. कुछ जगहों पर उनकी झोपड़ियां तक फूंक डाली गईं और उसमें छुपे औरतें-बच्चे ज़िन्दा जला डाले गए. नांदेड़ ज़िले के सुगांव गांव के जनार्दन मेवाड़े और तेमभुरनी गांव के उप सरपंच पोचीराम काम्बले की भी हत्या कर दी गई. मृतकों में परभणी ज़िले के धामनगांव के दलित पुलिस अधिकारी संभाजी सोमाजी और गोविन्द भुरेवार भी शामिल थे. इस हिंसा में हज़ारों की संख्या में दलित ज़ख़्मी भी हुए. करोड़ों रुपयों की संपत्तियां लूट ली गईं. खेत की पकी हुई फ़सलें बर्बाद कर दी गईं. असंख्य गांवों में दलितों का बहिष्कार किया गया और उन्हें भोजन और पेयजल से वंचित कर दिया गया. हज़ारों की तादाद में लोग गांवों से शहरों की तरफ़ पलायन कर गए. कुल 1.5 करोड़ से अधिक मूल्य की निजी और सरकारी संपत्ति की क्षति हुई. अनेक स्थानों पर डॉ. अम्बेडकर की मूर्तियों को नुक़सान पहुंचाया गया. देखते ही देखते पूरा मराठवाड़ा जातियुद्ध की रणभूमि में तब्दील हो गया.
मराठवाड़ा में इस जातिगत हिंसा की भयावहता और नग्न पाशविकता का वर्णन करते हुए आत्माराम ने ने एक गीत लिखा :
गांवों और झोपड़ियों से, आग की लपटें उठती थीं
नलगीर में एक दुधमुंही बच्ची को मार डाला गया
अपनी ज़िंदगियों को बचाने की फ़िक्र में जंगल भागे
लोग
दलित जहाँ दिखे मार डाले गये
जातिवादियों ने उनकी ज़िंदगी को नर्क बना डाला
था
दलितों की कमाई का कोई ज़रिया नहीं बचा,
उनकी रसोइयों की अंगीठी ठंडी पर गई थी
उठो-जागो भाइयों तुम सुन रहे हो न?
इन जलते घरों की लपटें बुझाओ तुम सुन रहे हो न?
खुनका फव्वारा बहता है तो बहने दो
मुझे इस खून में नहाना है
इस आख़िरी लड़ाई में मेरा साथ दो तुम सुन रहे हो?
क्रांति का यह बीजारोपण करो तुम सुन रहे हो?
दलितों के ख़िलाफ़ यह माहौल कोई एक दिन में नहीं बना था. इसके बीज दरअसल निज़ाम के शासन के वक़्त ही बोए जा चुके थे. निजामों के ख़िलाफ़ लड़ने वालों में स्वामी रामानन्द तीर्थ का नाम अग्रणी है. वे आर्य समाज से संबंध रखते थे. हालांकि, आर्य समाज की स्थापना ब्राह्मणों के उत्पीड़न का विरोध करने के उद्देश्य से की गई थी, लेकिन इसका पूरा नेतृत्व अब भी ब्राह्मणवादी है. और, रझाकरों के विरुद्ध संघर्ष करने के क्रम में इसके नेतृत्व में दलितों के प्रति अनेक दुराग्रह दिखते रहे हैं. ‘दलित निज़ाम के समर्थक हैं,’ ‘दलित बस्तियां राज़ाकरों की पनाहगाह हैं,’ आदि जैसी भ्रामक और ग़लत धारणाओं ने अम्बेडकर-विरोधी सवर्ण लोगों के मन में आवेश पैदा करने का काम किया. इसलिए, रझाकरों पर पुलिसिया कार्रवाई के क्रम में दलितों को भी भयानक दमन और शोषण का शिकार होना पड़ा. इन उत्पीड़नों पर मराठवाड़ा शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष भाऊसाहेब मोरे ने एक रिपोर्ट बनाई थी, जिसे उन्होंने डॉ. अम्बेडकर और भारत सरकार को भेज दिया था.
डॉ. अम्बेडकर के बाद भूमि-अधिकार की लड़ाई दादासाहेब गायकवाड़ के नेतृत्व में लड़ी गई. इस लड़ाई में उनका नारा था ‘कसेल त्याची जमीन, नसेल त्याचे काय?’ हरवाहों को ज़मीन, लेकिन भूमिहीनों के लिए क्या? मराठवाड़ा के दलित इस संघर्ष में सबसे आगे थे, और इस आन्दोलन में लाखों की संख्या में स्त्री और पुरुष जेल में गए. दलितों ने अपनी आजीविका के लिए लाखों हेक्टेयर ज़मीनों पर कब्जा कर लिया. सवर्ण दलितों द्वारा मवेशियों के चरने की जमीन पर जबरन कब्ज़ा कर लेने से बहुत नाखुश थे. वसंतदादा पाटिल और शरद पवार के बीच की लड़ाई ने भी इस आन्दोलन में बड़ी भूमिका निभाई. गांव के गांव में सवर्णों का गुस्सा घृणा और हिंसा के रूप में प्रकट हो रहा था. नामांतर आन्दोलन के समय तरह-तरह की अफवाहें भी फैलने लगी थीं, मसलन, “विश्वविद्यालय की पुताई नीले रंग से की जाएगी,” “डिग्री प्रमाणपत्रों पर डॉ. अम्बेडकर की फोटो लगी होगी,” “डॉ. अम्बेडकर अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करते हैं, इसलिए शिक्षित दलित युवकों से हमारी बेटियों को ख़तरा है,” आदि-आदि.
“मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नामान्तरण का मुद्दा नवबुद्ध आन्दोलन की वैचारिक दृष्टि में शामिल है. यह एक विशुद्ध अलगाववादी आन्दोलन है जो स्वतंत्र दलित अस्तित्व पर निर्भर है, और इसके लिए वे बुद्धिस्ट देशों से मदद की अपेक्षा भी करते हैं. यहाँ तक कि ज़रूरत पड़ी तो वे भारतीय नागरिकता को छोड़ भी सकते हैं. इसलिए इस बात की ज़रूरत है कि उनके ख़िलाफ़ जल्दी से जल्दी सीधी और प्रत्यक्ष कार्रवाई की जाए.” यह प्रस्ताव नामांतर विरोधी कृति समिति द्वारा उनके लातूर सम्मेलन में पारित की गई थी, और दलितों को उनकी मातृभूमि से बेदख़ल करने का प्रयास किया गया था. नामांतर आन्दोलन को हिन्दुओं और बुद्धिस्टों के बीच के संघर्ष के रूप में बहुप्रचारित किया गया, और यह धारणा धीरे-धीरे सामान्य हो गई. और इसलिए, नामांतर आन्दोलन के आरंभ होने तक मराठवाड़ा जलता रहा, और उसके बाद भी वहां पूरी तरह शांति स्थापित नहीं हुई. नामांतर-आन्दोलन के दौरान कुल सत्ताईस दलित शहीद हुए.
यह आन्दोलन केवल पहचान और अस्तित्व जैसे मूलभूत प्रश्नों से संबंधित नहीं था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों का भी इस आन्दोलन से गहरा सरोकार था. जल्दी ही जन्म, मृत्यु और विवाह जैसे संस्कारों पर इसके प्रभाव दिखने लगे. विवाह और मृत्योपरांत अंत्येष्टि पर लोगों ने ‘डॉ. अंबेडकर विजय असो’ (डॉ. अम्बेडकर जिंदाबाद) और ‘मराठवाड़ा विद्यापीठाचे नामांतर झलेच पाहिजे’ (मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का जन्दी से जल्दी नाम बदला जाए) जैसे नारे दिए. शाहीर आत्माराम साल्वे ने लोगों को नामांतर और सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के प्रति अधिक सजग होने के लिए जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
आत्माराम का पूरा जीवन अम्बेडकर और नामांतर को समर्पित था. वह कहा करते थे, “जब विश्वविद्यालय का नाम आधिकारिक तौर पर बदल जाएगा, तब मैं अपना घर और अपने खेत बेच दूंगा, और उन पैसों को विश्वविद्यालय के प्रवेशद्वार की मेहराब पर डॉ. अम्बेडकर का नाम सोने के अक्षरों से लिखवाने पर ख़र्च करूंगा.” अपने शब्दों, आवाज़ और शाहीरी के साथ उन्होंने शोषण और उत्पीडन के विरुद्ध मशाल जलाने का काम किया. नामांतर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वे दो दशकों तक अपने सिर्फ़ दो पैरों के सहारे महाराष्ट्र के सुदूर गांवों में घूमते रहे. उनको याद करते हुए औरंगाबाद के डॉ. अशोक गायकवाड़ कहते हैं, “नांदेड़ ज़िले के मेरे गांव बोंदागावहन में आज भी कोई सड़क नहीं जाती है, और कोई सवारी-गाड़ी वहां नहीं पहुंच सकती है. इसके बाद भी आत्माराम 1979 में हमारे गांव आए और शाहीरी जलसा किया. उन्होंने शाहीरी के माध्यम से हमारे जीवन में रौशनी लाने का काम किया, और उनके गीतों ने दलितों को अपने हक़ में लड़ने की प्रेरणा दी. वह जातिवादी लोगों को खुलेआम धिक्कारते थे. जब वह अपनी प्रभावशाली आवाज़ में गाना शुरू करते थे, लोग उनको सुनने के लिए ऐसे उमड़ पड़ते थे जैसे मधुमक्खियां अपने छत्ते पर मंडराती हैं. उनके गीत सुनते ही हमारे कानों में जीवनरस घुल जाता था, उनके शब्द सोई हुई आत्मा को भी जगा देती थी और अत्याचारियों से मुक़ाबला करने की प्रेरणा देती थी.”
नांदेड़ ज़िले के ही किनवटचे के दादाराव कयापक के पास भी साल्वे की रोचक और समृद्ध स्मृतियां हैं. “साल 1978 में गोकुल कोंडेगांव के दलितों का बहिष्कार किया गया था. इसका विरोध करने के लिए मैंने एस.एम. प्रधान, सुरेश गायकवाड़, मनोहर भगत, और एडवोकेट मिलिंद सरपे ने एक मोर्चा निकाला. पुलिस ने धारा 144 (सीआरपीसी) लगा रखा था और किसी भी तरह की भीड़ लगाने की मनाही थी. सवर्ण लोगम, शाहीर साल्वे और पैंथर कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी की मांग कर रहे थे. उन्होंने पुलिस अधीक्षक श्रृंगारवेल और पुलिस उपाधीक्षक एस.पी. खान का घेराव भी किया, और पुलिस अतिथिगृह के अहाते की दीवारों में आग भी लगा दी. माहौल बहुत ही उग्र था और कांग्रेस सांसद उत्तमराव राठौड़ के एक क़रीबी साथी जे. नागोराव और एक दलित सफ़ाईकर्मी की मौत हो गई.”
शाहीर आत्माराम साल्वे के गीत मानवतावादी विचारों समानता, स्वतंत्रता, भाईचारे और इंसाफ जैसे विचारों से भरपूर थे. लड़ाई, ठिणगी (चिंगारी), क्रांति, आग, रण, शस्त्र, तोप युद्ध, नव इतिहास जैसे शब्द उनके गीतों की मुख्य सज्जा थे. उन्होंने जीवन भर इन्हीं शब्दों का सामना किया. उनका लिखा हरेक गीत वस्तुतः एक युद्ध-गीत था.
तोप खरीदा, जोखिम उठाया
ताकि मनु की नस्ल को दफ़नाया जा सके
चलो हम नया इतिहास रचे
और क्रांति के नए बिरवे रोपें
आज बंदूक से निकली एक गोली ही होलिका दहन करेगी
ताकि मनु के किले को ध्वस्त किया जा सके.
आत्माराम साल्वे ने मनोरंजन, पैसा, प्रसिद्धि या नाम के लिए परफ़ॉर्म नहीं किया. उनका मानना था कि कला तटस्थ नहीं होती है, बल्कि बदलाव की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण औज़ार है
एक कलाकार और शाहीर के रूप में आत्माराम तटस्थ नहीं थे. लेकिन, वह क्षेत्रवादी और संकीर्ण भी नहीं थे. साल 1977 में बिहार के बेलछी में दलितों का नरसंहार हुआ. वह बेलछी गए और वहां उन्होंने जनांदोलन चलाया. इसके कारण उन्हें 10 दिनों के लिए जेल में भी डाल दिया गया. इस नरसंहार का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा :
इस हिन्दू देश के बेलछी में
मेरे भाइयों को जलाया, मैंने देखा
मांओं, बहनों और बच्चों को भी
जान बचाने के लिए भागना पड़ा, मैंने देखा
इसी गीत में उन्होंने स्वार्थी दलित नेताओं के खोखले आदर्शवाद पर हमला भी किया :
कुछ नेता कांग्रेस की कठपुतली बन गए
कुछ ने अपना तन और मन “जनता” [दल] को गिरवी रख
दिया
इस कठिन समय में पाखंडी और धूर्त गवई की तरह
हमने उन्हें दुश्मनों से हाथ मिलाते हुए देखा
1981 में आरक्षण-विरोधियों के एक समूह ने छात्र होने के झूठे बहाने की आड़ में गुजरात में जमकर उत्पात मचाया. वे स्नातकोत्तर शिक्षा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण देने का विरोध कर रहे थे. इस उपद्रव के दौरान आगजनी, लूट, छुरेबाजी, आंसूगैस, और फायरिंग की घटनाएं घटीं. ज़्यादातर हमलों में निशाने पर दलित थे. अहमदाबाद में दलित कामगारों की बस्तियों में आग लगा दी गई. उत्तरी गुजरात और सौराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में भी सवर्ण जाति के लोगों ने दलितों की बस्तियों पर हमले किए. बड़ी संख्या में डरे हुए दलित गांवों से भागने के लिए विवश हो गए.
इस पर आत्माराम ने अपने गीत में कहा :
आज, आरक्षित जगहों की ख़ातिर
कमज़ोरों को क्यों सताते हो
तुम्हें लोकतंत्र का लाभ मिला
इतना घृणित काम क्यों करते हो
आज, पूरा गुजरात जल रहा है
कल आग देश में फैलेगी
यह चमकीली आग सबको खाक कर देगी
तुम इसमें क्यों भस्म होते हो
आत्माराम साल्वे मनोरंजन, पैसे, नाम और प्रसिद्धि के लिए नहीं गाते थे. उनका मानना था कि कला निरपेक्ष और मनोरंजन की निमित्त नहीं होती, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक बदलाव लाने का एक ज़रूरी औज़ार है. उन्होंने 300 से भी अधिक गीत लिखे. उनमें से 200 गीत हमारे पास आज भी लिखित रूप में सुरक्षित हैं.
भोकर के लक्ष्मण हिरे, मरखेल के नागरबाई वजारकर, मुखेड के तेजेराव भद्रे (सभी नांदेड़ ज़िला), और फुले पिम्पलगांव के शाहीर महेंद्र साल्वे (बीड ज़िला) के पास उनके गीतों के संग्रह हैं. आधे-अधूरे बहुत से गीत लोगों की स्मृतियों में आज भी ताज़ा हैं. इन गीतों को किसने लिखा है? कोई नहीं जानता. लेकिन लोग उन्हें आज भी गुनगुनाते हैं.
हम हैं सब जय भीम वाले
हमारे सरदार हैं राजा ढाले
आत्माराम साल्वे का लिखा ‘दलित पैंथर का यह समूहगान’ उस ज़माने में सभी पैंथरों की ज़ुबान पर था. यह गीत आज भी मराठवाड़ा के दिलोदिमाग़ में बजता रहता है.
क्रांति की चिंगारी के बीज बो कर
इस आग को दूर फैलाना है
हम अपमान और तिरस्कार कब तक सहेंगे
हमारे दिल में एक लौ सुलगती है
गर्भ में बच्चा मां को
नन्हे पैरों से लात मार रहा है
आने वाले समय का पूर्वानुमान करते हुए
भीमराव के बहादुर सिपाही
तुम सबको जगाने के लिए ख़ुद भी जाग रहा है
इस लोकप्रिय गीत को आत्माराम ने लिखा है. मराठवाड़ा नामांतर पोवाडा भी उन्होंने ही लिखा था. यह उनकी पाण्डुलिपि की क्रमसूची में दर्ज़ है, लेकिन हमारे पास इसकी लिखित प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं है. बहरहाल पुणे के रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता, रोहिदास गायकवाड़ और अम्बेडकरवादी आन्दोलन के एक वरिष्ठ प्रचारक नेता वसंत साल्वे ने मेरे लिए इसकी कुछ लाइनें गा कर सुनाईं. इन्दापुर तालुका के बावडा गांव में अगड़ी जाति के ग्रामीणों द्वारा दलितों के बहिष्कार के दौरान आत्माराम ख़ुद पुणे गए और आसपास की अनेक झुग्गी-बस्तियों में अपनी प्रस्तुतियां दीं. उनके गीत सामूहिक भावनाओं और प्रयासों जैसे विषयों पर केन्द्रित होते थे. जब भी आत्माराम गाते थे, उस स्थान और आसपास के क्षेत्रों के दलित उनके गीतों को सुनने के लिए भाकरी की पोटली लेकर और मीलों पैदल चल कर इकट्ठा होते थे. उनके गाने के बाद पैंथर कार्यकर्ता उपस्थित श्रोताओं को को संबोधित करते थे. नामांतर आन्दोलन के दौरान पैंथरों के लिए वे ‘भीड़ को खींचने में सबसे समर्थ कलाकार’ थे. जैसे नामदेव ढसाल पैंथर-युग के प्रतिनिधि दलित कवि हैं, ठीक उसी तरह आत्माराम भी पैंथर-युग के प्रतिनिधि लोकगायक हैं. जैसे नामदेव ने अपनी कविताओं में नए मानक स्थापित किए हैं, वैसे ही आत्माराम ने उत्तर-अम्बेडकर आन्दोलन में अपने शाहीरी के ज़रिव लोकगायकी के क्षेत्र में किया है. जिस तरह नामदेव की कविताएं पैंथर-युग का वृतांत हैं, ठीक उसी तरह आत्माराम की शाहीरी अपने समय का आईना है. और, जिस तरह नामदेव की कविताएं जाति और वर्ग विभाजन जैसी प्रवृतियों से लड़ती हैं, उसी तरह आत्माराम की शाहीरी भी जाति, वर्ग और लिंग विभेदों और उत्पीड़नों से एक साथ ही सवाल-जवाब करती हैं. हम देख सकते हैं कि पैन्थरों ने उनपर असर डाला, और उन्होंने पैन्थरों और जनता पर गहरा असर डाला. इसी असर के कारण उन्होंने सब चीज़ त्याग दी - ऊंची शिक्षा, नौकरी, घर-परिवार, अपना सर्वस्व - और अपने चुने रास्ते पर निर्भय और निःस्वार्थ भाव से आगे बढ़ते रहे.
जिस प्रकार नामदेव ढसाल दलित पैंथर युग के प्रतिनिधि कवि रहे हैं उसी प्रकार आत्माराम साल्वे पैंथर युग के प्रतिनिधि लोकगायक हैं
विवेक पंडित, जो वसई के पूर्व विधायक रह चुके हैं, दो दशकों से भी अधिक समय तक आत्माराम साल्वे के गहरे दोस्त थे. वह कहते हैं, “भय और स्वार्थ - ये दो शब्द आत्माराम के शब्दकोश में कभी नहीं रहे.” साल्वे का अपने शब्दों और सुरों पर जादुई नियंत्रण था. वह जो कुछ भी बोलते थे, उसके बारे में उनकी जानकारी पक्की और गहरी थी. मराठी के अलावा वह हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा के भी अच्छे जानकार थे. उन्होंने उर्दू और हिंदी में भी कुछ गीतों की रचना की. उन्होंने कुछ कव्वालियां भी लिखीं और गाईं. लेकिन उन्होंने अपनी कला का व्यवसायीकरण कभी नहीं किया, उसे बाज़ारों में कभी नहीं ले गए. अपनी कला, अपने शब्दों, और अपनी सशक्त आवाज़ को उन्होंने एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, और जाति-वर्ग-लिंग उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक जुझारू योद्धा के रूप में प्रकट हुए - और अपनी मृत्यु के आने तक अकेले लड़ना जारी रखा.
परिवार, आन्दोलन और अध्यवसाय किसी भी कार्यकर्ता के मानसिक बल का स्रोत होता है. इन सबको एक सूत्र में बांध कर ही जनांदोलन के लिए एक वैकल्पिक जगह बनाई जा सकती है, जहां कार्यकर्ता और लोक कलाकार दोनों अपनी अस्तित्व-रक्षा करते हुए ज़िंदा रह सकते हैं - जहां दोनों अकेला और समाज से कटा हुआ नहीं महसूस करें.
अम्बेडकरवादी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं और लोक कलाकारों के लिए ऐसा कोई रचनात्मक और संगठनात्मक क़दम कभी नही उठाया गया कि उन्हें अवसाद में घिरने से बचाया जा सके या अवसादग्रस्त होने की स्थिति में उन्हें उबारा जा सके. लिहाज़ा आत्माराम के साथ भी वही हुआ जो ऐसी स्थिति में दूसरों के साथ होता है.
अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में वह भी तीनों स्तरों पर नैराश्य से घिर चुके थे. आन्दोलन के कारण उनका परिवार बिखर चुका था. शराब की लत ने उनकी स्थिति को अत्यंत दयनीय बना दिया था. बाद के सालों में वह बेसुध और भ्रांतचित्त रहने लगे. वह कहीं भी एक शाहीर की तरह खड़े जो जाते और गाने लगते थे - किसी सड़क के बीचोंबीच, शहर के चौराहों पर, किसी की भी मांग पर. नामांतर के लिए इतना कड़ा संघर्ष करने वाला शाहीर नशे की अपनी लत के कारण 1991 में शहीद हो गया. विश्वविद्यालय के प्रवेशद्वार की मेहराब पर स्वर्णाक्षरों में उसका नया नाम लिखने का उनका सपना भी अधूरा ही रह गया.
इस स्टोरी को मूलतः मराठी में लिखा गया था.
लेखक इस स्टोरी को तैयार करने में मदद करने के लिए भोकर के लक्ष्मण हिरे, नांदेड़ के राहुल प्रधान, और पुणे के दयानंद कनकदांडे का धन्यवाद करना चाहते हैं.
यह मल्टीमीडिया स्टोरी, पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के सहयोग से इंडिया फ़ाउंडेशन फ़ॉर आर्ट्स द्वारा आर्काइव्स एंड म्यूज़ियम प्रोग्राम के तहत चलाए जा रहे एक प्रोजेक्ट ‘इंफ्लुएंशियल शाहीर्स, नैरेटिव्स फ्रॉम मराठावाड़ा’ का एक हिस्सा है. इस परियोजना को नई दिल्ली स्थित गेटे संस्थान (मैक्स मूलर भवन) से भी आंशिक सहयोग प्राप्त हुआ है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद