सुबह के नौ बजे हैं और मुंबई का आज़ाद मैदान युवा क्रिकेटरों की गहमागहमी से आबाद है. वे यहां खेलने के बहाने अपना सप्ताहांत ख़ुशगवार तरीक़े से बिताने इकट्ठे हुए हैं. खेल के उत्साह के बीच-बीच में ग़ुस्से और ख़ुशी में मिली उनके चीखने और चहकने की आवाज़ें साफ़ सुनी जा सकती हैं.
उनसे बमुश्किल 50 मीटर दूर चुपचाप एक दूसरा ‘खेल’ भी जारी है, जिनमें तक़रीबन 5,000 महिलाएं हिस्सेदार हैं. यह खेल अपेक्षाकृत लंबे समय से खेला जा रहा है, और इसमें दाव भी ऊंचे हैं. हज़ारों की संख्या में जुटी इन मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, अर्थात आशा स्वास्थ्यकर्मियों को इस खेल का कोई अंत होता नहीं दिखता है. वे मुंबई के आज़ाद मैदान में पिछले महीने विरोध दर्ज कराने के लिए इकट्ठा हुई थीं. बीते 9 फ़रवरी से शुरू हुए इस धरना-प्रदर्शन के पहले हफ़्ते में ही 50 से अधिक महिलाओं को अस्पताल में दाख़िल कराना पड़ा.
व्यस्त सड़क से साफ़-साफ़ देखा जा सकता है कि 30 साल के आसपास की एक आशा कार्यकर्ता मैदान में बैठी हैं. अपने आसपास देखती हुई वह थोड़ी घबराहट से भरी दिख रही हैं और पास से गुज़रते लोगों की नज़रों से बचने की कोशिश करती हैं. देखते ही देखते महिलाओं का एक समूह उन्हें चारों तरफ़ से घेर लेता है और दुपट्टों और एक चादर की ओट से उन्हें ढंक लेता है. घेरे के भीतर वह तेज़ी से अपने कपड़े बदल लेती हैं.
कुछ घंटे बाद खाने के वक़्त दोपहर की तीखी धूप के नीचे आशा-कार्यकर्ता अपनी सहकर्मी रीटा चावरे को घेरकर खड़ी हो जाती हैं. उन सबके हाथों में ख़ाली टिफ़िन बॉक्स, प्लेट और यहां तक कि बड़े ढक्कन भी हैं. सभी धैर्यपूर्वक अपनी बारी का इंतज़ार कर रही हैं. रीटा (47) उन्हें एक-एक कर घर का बना खाना परोस रही हैं. “मैं यहां धरने में कोई 80-100 आशा-सेविकाओं को रोज़ भोजन कराती हूं,” रीटा कहती हैं. वह ठाणे ज़िले के तिसगांव से आज़ाद मैदान तक पहुंचने के लिए रोज़ दो घंटे का सफ़र तय करती हैं. उनके साथ 17 अन्य आशा-कार्यकर्ता भी आती हैं.
“हम बारी-बारी से उनके खाने की व्यवस्था करती हैं और इसका पूरा ख़याल रखती हैं कि एक भी आशा-कार्यकर्ता भूखी नहीं रहें. लेकिन अब हम भी ख़ुद को थका और बीमार महसूस करने लगी हैं. हम अब पस्त हो चुकी हैं,” साल 2024 की फ़रवरी के आख़िर में पारी से बातचीत करते हुए वह कहती हैं.
जब 21 दिन के बाद, यानी 1 मार्च को मुख्यमंत्री ने घोषणा की, “आशा ची निराशा सरकार करणार नाही [सरकार आशा सेविकाओं को निराश नहीं करेगी], तो आशा कार्यकर्ता आख़िरकार अपने घर लौट गईं.” मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे उस सुबह महाराष्ट्र राज्य विधानसभा के बजट सत्र में बोल रहे थे.
आशा 70 से भी अधिक सेवाएं देने वाली स्वास्थ्य-सेविकाओं का एक संगठन है, जिसकी सदस्य केवल महिलाएं हैं. उन्हें एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के अधीन केवल ‘स्वयंसेवक (वालंटियर)’ के रूप में श्रेणीबद्ध किया गया है. इसलिए उनके द्वारा दी गई स्वास्थ्य-सेवाओं के बदले में इन्हें जो भुगतान किया जाता है उसे वेतन अथवा पारिश्रमिक की जगह ‘मानदेय’ कहा जाता है.
मानदेय के अतिरिक्त वे पीबीपी (प्रदर्शन-आधारित भुगतान या भत्ता) पाने की अधिकारी हैं. एनआरचएम के अनुसार, आशा सेविकाओं को सार्वभौमिक टीकाकरण, प्रजनन और शिशु स्वास्थ्य (आरसीएच) अन्य कार्यक्रमों पर आधारित प्रदर्शन के अनुसार भत्ता दिया जाता है.
साफ़ है कि उन्हें मिलने वाला भुगतान पर्याप्त नहीं है. रमा मनतकर कहती हैं. वह ख़ुद भी आशा-कार्यकर्ता हैं. “ बिन पगारी, फुल अधिकारी [पैसा नहीं, केवल ज़िम्मेदारी]! वे हमसे सरकारी कर्मचारी की तरह काम करने की उम्मीद रखते हैं, लेकिन हमें पैसे नहीं देना चाहते हैं.”
मुख्यमंत्री से हाल-फ़िलहाल मिला आश्वासन इस रपट के प्रकाशित होने तक सरकारी प्रस्ताव (जीआर) के रूप में परिणत नहीं हुआ है. पिछले कुछ महीनों में सरकार के स्तर पर आशा-सेविकाओं को ऐसे अनेक आश्वासन मिल चुके हैं, लेकिन अभी तक उन वायदों को पूरा किया जाना बकाया है.
विरोध प्रदर्शन में शामिल हज़ारों आशा कार्यकर्ता महाराष्ट्र प्रशासन को उनके आश्वासनों की याद दिलाने की कोशिशों में डटी हैं. वेतन-वृद्धि के बारे में जीआर जारी करने संबंधी उनको पहला आश्वासन अक्टूबर 2023 में दिया गया था.
“आम लोग आशा-सेविकाओं पर अपने परिवार से भी अधिक विश्वास करते हैं! स्वास्थ्य विभाग हमारे ऊपर ही निर्भर है,” यह कहती हुईं वनश्री फुलबंदे वंचित समुदायों तक स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं और सेवाओं को पहुंचाने में आशा-सेविकाओं की बुनियादी भूमिका का उल्लेख करना भी नहीं भूलती हैं. “जब कभी भी नए डॉक्टरों की पोस्टिंग होती है, वे पूछते हैं, ‘आशा कहां है? क्या हमें उनका नंबर मिलेगा?’
वनश्री विगत 14 सालों से आशा-कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं. “मैंने 150 रुपए से शुरू किया था...क्या यह वनवास की तरह नहीं है? जब भगवान श्रीराम 14 सालों के बाद अयोध्या लौटे, तो सबने उनका बहुत स्वागत किया, है कि नहीं? आप हमारा स्वागत नहीं कीजिए, लेकिन कम से कम हमें वह मानधन [मानदेय] तो दीजिए, ताकि हम सम्मान और ईमानदारी के साथ जीवित रहें?” वह कहती हैं.
उनकी एक दूसरी मांग भी है कि उन्हें हर महीने उनका मानदेय कृपापूर्वक उसी तरह समय पर दिया जाए, जैसे दूसरों को मिलता है. हर बार उन्हें तीन महीने की देरी से भुगतान किया जाता है.
“अगर हमें इसी तरह देरी से भुगतान किया जाता रहेगा, हम कैसे अपना काम कर पाएंगे?” आशा-कार्यकर्ता प्रीति कर्मंकर पूछती हैं, जो यवतमाल की ज़िला उपाध्यक्ष भी हैं. “एक आशा-कार्यकर्ता दूसरों की सेवा करती है, लेकिन यह काम वह अपना पेट भरने के लिए भी करती है. यदि उसे पैसे नहीं मिलेंगे, तो वह कैसे गुज़ारा करेगी?”
यहां तक कि अनिवार्य कार्यशालाओं और स्वास्थ्य विभाग द्वारा आयोजित ज़िलास्तरीय बैठकों में हिस्सा लेने जाने के लिए मिलने वाले यात्रा भत्तों में भी तीन से पांच महीने की देरी होना एक आम बात है. “हमने 2022 से स्वास्थ्य विभाग द्वारा निर्देशित कार्यक्रमों का भुगतान अभी तक प्राप्त नहीं किया है,” यवतमाल के कलम्ब से आईं अंतकला मोरे कहती हैं. वह आगे कहती हैं, “दिसंबर 2023 में हम हड़ताल पर थीं. उन्होंने एक कुष्ठ सर्वेक्षण करवाने के लिए हमसे हड़ताल तुड़वाया. लेकिन उन्होंने अभी तक हमारा बकाया भुगतान नहीं किया है.” प्रीति कहती हैं, “हमें तो अभी तक पिछले साल का पोलियो, हत्ती रोग [हाथी पांव-फाइलेरिया] और जंत-नाशक [डीवार्मिंग] प्रोग्रामों के पैसे भी नहीं मिले हैं.”
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रीटा ने एक आशाकर्मी के रूप में साल 2006 में 500 रुपए प्रतिमाह के मानदेय पर अपनी शुरुआत की थी. “अभी मुझे 6,200 रुपए हर महीने मिलते हैं, जिनमें 3,000 रुपए का योगदान केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है और शेष पैसे नगर निगम से आते हैं.”
पिछले साल, 2 नवंबर, 2023 को राज्य स्वास्थ्य मंत्री तानाजीराव सावंत ने घोषणा की थी कि महाराष्ट्र की 8,000 आशा-सेविकाओं और 3,664 गट प्रवर्तकों को क्रमशः 7,000 रुपयों और 6,200 रुपयों की बढ़ोतरी के साथ-साथ सभी को 2,000 रुपए का दीवाली बोनस भी दिया जाएगा.
आक्रोश से भरी हुई ममता कहती हैं, “ दिवाली होऊन आता होली आली [दिवाली गुज़र गई और अब होली आने को है], लेकिन अभी तक हमारे हाथ कुछ नहीं आया है.” वह आगे कहती हैं, “हमने 7,000 या 10,000 की बढ़ोतरी की मांग कभी नहीं की. अक्टूबर में हमारी शुरुआती हड़ताल अतिरिक्त ऑनलाइन कामों के ख़िलाफ़ थी. हमसे प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना (पीएमएमवीवाई) के लिए 100 गांवों को प्रतिदिन रजिस्टर करने के लिए कहा गया था.”
जैसा कि आधिकारिक वेबसाइट कहता है, “गर्भावस्था के दौरान मानदेय में हुई हानि के प्रतिकार में यह योजना आंशिक मुआवज़े के रूप में नक़द भत्ता देने के लिए प्रतिबद्ध है.” कमोबेश यही बात अभी-अभी आरंभ किये गये यू-विन एप्प के लिए भी कही गई थी जिसका लक्ष्य गर्भवती माताओं और बच्चों के टीकाकरण का रिकॉर्ड रखना है.
इससे पहले फरवरी 2024 में 10,000 से अधिक आशा-सेविकाओं ने शाहपुर से ठाणे जिला कलक्टर के कार्यालय तक का विरोध मार्च करते हुए 52 किलोमीटर की दूरी तय की थी. “चालुन आलोय, टंगड्या टुट्ल्या [हम पूरे रास्ते पैदल चले, हमारे पांव जवाब दे चुके थे]. हमने पूरी रात ठाणे की सड़कों पर गुज़ारी,” ममता याद करती हुई कहती हैं.
कई महीनों से जारी इन विरोध प्रदर्शनों ने आशा कर्मियों से क़ीमत भी वसूली है. सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीआईटीयू) की राज्य सचिव और विरोध-प्रदर्शन के आयोजकों में एक उज्ज्वला पडलवार बताती हैं, “शुरू में आज़ाद मैदान में 5,000 से अधिक की संख्या में आशा कार्यकर्ता इकट्ठा हुई थीं. उनमें से बहुत सी कार्यकर्ता गर्भवती थीं, और कुछ तो अपने नवजात बच्चों को साथ लेकर आई थीं. यहां खुले में उनके लिए रहना बहुत मुश्किल काम था, इसलिए हमने उनसे घर लौट जाने का आग्रह किया.” उज्ज्वला के मुताबिक़, बहुत सी महिलाओं ने सीने और पेट में दर्द की शिकायत की, कई दूसरी महिलाएं सिरदर्द और शरीर में पानी की कमी (डिहाइड्रेशन) से पीड़ित थीं और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा.
हालांकि, आशा कार्यकर्ता अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद दोबारा मैदान में आ डटीं और एकजुट होकर उन्होंने नारा बुलंद किया, “ आता आमचा एकाच नारा, जीआर काढ़ा! [हमारा सिर्फ़ एक नारा है, जीआर जल्दी लागू करो].”
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काग़ज़ पर आशा-सेविकाओं की भूमिका लोक स्वास्थ्य सेवाओं को घर-घर तक पहुंचाना है. लेकिन सालों तक यह सामुदायिक सेवा करने के बाद वे प्रायः अपने निर्धारित कामों से बढ़कर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करती हैं. उदाहरण के रूप में आशा कार्यकर्ता ममता को लिया जा सकता है, जिन्होंने सितंबर 2023 में बदलापुर के सोनिवली गांव की एक गर्भवती आदिवासी महिला को समझा-बुझाकर घर के बजाय अस्पताल में प्रसव कराने के लिए राज़ी किया था.
वह याद करती हुई कहती हैं, “उस औरत के पति ने उसके साथ आने से साफ़ मना कर दिया और कहा, ‘अगर मेरी पत्नी को कुछ होता है, तो आपकी ज़िम्मेदारी होगी’.” जब उस मां को दर्द उठा, तो “मैं उसे बदलापुर से उल्हासनगर अकेली लेकर गई,” ममता बताती हैं. डिलीवरी हुई, लेकिन दुर्भाग्य से मां को नहीं बचाया जा सका. बच्चा कोख में पहले ही दम तोड़ चुका था.
ममता बताती हैं, “मैं एक विधवा स्त्री हूं. उस समय मेरा बेटा कक्षा 10 में था. मैं 6 बजे सुबह ही घर से निकली थी और उस औरत की मौत रात के 8 बजे हुई. मुझसे अस्पताल के बरामदे में रात के डेढ़ बजे तक इंतज़ार करने के लिए कहा गया. पंचनामा हो जाने के बाद उन्होंने कहा, ‘आशा ताई अब आप जा सकती हैं’. डीड वाजता मी एकटी जाऊ? [क्या मैं अकेले डेढ़ बजे रात में घर लौट सकती थी]?”
अगले दिन इस घटना को रिकॉर्ड में दर्ज करने के लिए जब वह गांव गईं, तब कुछ लोगों ने, जिनमें उस स्त्री का पति भी शामिल था, उनके साथ गाली-गलौज की और स्त्री की मौत के लिए उन्हें ज़िम्मेदार बताया. एक महीने के बाद ममता से पूछताछ करने के लिए उन्हें ज़िला समिति बुलाया गया. “उन्होंने मुझसे पूछा ‘मां की मौत कैसे हुई और आशा ताई ने क्या ग़लती की थी?’ अगर सभी ज़िम्मेदारियां अंत में हमारे ऊपर ही थोप दी जानी हैं, तो हमारा मानधन क्यों नहीं बढ़ाया जाता है?” वह पूछती हैं.
पूरे महामारी काल में सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं की तारीफ़ की और दवाएं बांटने और राज्य के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमित रोगियों को चिन्हित करने के लिए उन्हें “कोरोना वारियर” यानी योद्धा का नाम दिया, जबकि उनको वायरस से अपना बचाव करने के लिए किसी भी प्रकार का ‘सुरक्षा उपकरण’ नहीं दिया गया था.
मंदा खतन और श्रद्धा घोगले, जो कल्याण में नंदिवाली गांव की आशा कार्यकर्ता हैं, महामारी की अवधि के अपने अनुभवों को याद करती हुई कहती हैं, “एक बार एक गर्भवती महिला डिलीवरी के बाद की जांच में कोविड पॉज़िटिव पाई गई. जब उसे वायरस से अपने संक्रमित होने का पता चला, तब वह घबराकर अपने नवजात बच्चे के साथ अस्पताल से ही भाग गई.”
“उसे लगा कि वह अपने बच्चे के साथ पकड़ ली जाएगी और दोनों को मार डाला जाएगा,” श्रद्धा बताती हैं. वायरस के बारे में लोगों को इतनी अधिक ग़लतफ़हमी थी, और उसके आतंक से लोग इतने भयभीत थे!
“किसी ने हमें बताया कि वह अपने ही घर में छिपी हुई थी. हम उसके घर पहुंचे, लेकिन उसने दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया,” मंदा बताती हैं. इस बात से डर कर कि कहीं वह कोई ग़लत कदम न उठा ले, लोग रात डेढ़ बजे तक उसके घर के बाहर खड़े रहे. “हमने उससे कहा, ‘तुम्हें अपने बच्चे से प्यार है या नहीं?’ हमने उसे समझाया कि अगर वह अपने बच्चे को अपने साथ रखेगी, तो बच्चे को संक्रमण हो जाएगा और उसकी ज़िंदगी ख़तरे में पड़ जाएगी.”
कोई तीन घंटे तक समझाने-बुझाने के बाद मां ने दरवाज़ा खोला. “एम्बुलेंस पहले से तैयार खड़ी था. मेरे साथ कोई दूसरा स्वास्थ्यकर्मी या ग्राम सेवक नहीं था. सिर्फ़ हम दोनों ही थे.” बोलते-बोलते ममता की आंखें भींग गईं, “वहां से निकलने से पहले उस महिला ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘मैं अपने बच्चे को इसलिए छोड़कर जा रही हूं, क्योंकि मैं तुम्हारी बात का विश्वास करती हूं. मेहरबानी कर उसका ख़याल रखना.’ अगले आठ दिन तक हम रोज़ नवजात बच्चे को दूध पिलाने उसके घर जाते रहे. हम बच्चे को वीडियो कॉल के ज़रिए उसे दिखाते थे. आज भी वह मां हमें फ़ोन करती और धन्यवाद कहती है.”
“हमने पूरे एक साल तक अपने बच्चों को हमसे दूर रखा,” मंदा कहती हैं, “लेकिन हमने दूसरों के बच्चों की जानें बचाईं.” उनका बच्चा तब आठवीं कक्षा में पढ़ता था, जबकि श्रद्धा का बच्चा केवल पांच साल का था.
श्रद्धा को अच्छी तरह वह सब याद है, जब गांव के लोग उन्हें देखकर अपने घर के दरवाज़े बंद कर लिया करते थे. “वे हमें पीपीई [पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट] पहने हुए देखकर भाग जाते थे. उनको लगता था कि हम उन्हें जबरन पकड़कर साथ ले जाने आए थे.” यही नहीं, “हमें पूरे दिन किट पहने रहना होता था. कई बार तो हमें दिन भर में चार किट बदलने पड़ते थे. हमें उन्हें पहने हुए ही धूप में घूमना होता था. हमारे बदन में तेज़ खुजली और जलन होती थी.”
मंदा बीच में ही टोकती हुई कहती हैं, “लेकिन पीपीई और मास्क तो बहुत बाद में आए. हमारा अधिकतर समय तो अपना पल्लू और दुपट्टा चेहरे पर लपेटे घूमते हुए गुज़रा था.”
“[महामारी के दौरान] क्या हमारे जीवन का कोई महत्व ही नहीं था?” ममता पूछती हैं, “क्या आपने हमें कोई अलग कवच [सुरक्षा] दिया था कि हम कोरोना से लड़ सकें? जब महामारी फैली, आपने [सरकार ने] हमें कुछ नहीं दिया था, जब हमारी आशा ताइयों को कोविड होने लगा, तो उनके जीवन का भी वही हश्र हुआ, जो बाक़ियों का हुआ. यहां तक कि जब वैक्सीन को आज़माया जा रहा था, तो शुरुआती टीकाकरण भी आशा कर्मियों का ही हुआ.”
वनश्री के जीवन में एक ऐसा भी पल आया था, जब उन्होंने तय कर लिया था कि अब उन्हें आशा कार्यकर्ता के रूप में काम नहीं करना चाहिए. “मेरे दिमाग़ और सेहत पर इसका बहुत बुरा असर पड़ने लगा था,” वह कहती हैं. वनश्री (42) पर नागपुर ज़िले के वडोडा गांव के 1,500 से अधिक लोगों की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी है. “मुझे याद है कि एक बार किडनी में स्टोन के कारण मुझे बहुत तेज़ दर्द उठा. मैंने अपनी कमर में चारों तरफ़ एक कपड़ा बांध कर काम करना जारी रखा था.”
एक मरीज़ और उसका पति वनश्री के घर आए थे. “वह महिला पहली बार मां बनने वाली थी. दोनों थोड़ा घबराए हुए से थे. मैंने उन्हें समझाया कि मैं उनकी मदद करने की स्थिति में नहीं हूं, लेकिन वे प्रसव के समय मेरे उनके पास उपस्थित रहने की बात पर अड़े रहे. मेरे लिए भी उन्हें मना कर पाना मुश्किल हो गया और मुझे उनके साथ जाना पड़ा. मैं उस महिला के साथ दो दिन अस्पताल में रही और उसके डिलीवरी के बाद ही वापस आई. उनके रिश्तेदारों ने जब मेरी कमर पर कपड़ा बंधा हुआ देखा, तो मुझसे मज़ाक़ में ही पूछा, “बच्चे को उसकी मां ने जन्म दिया है या आपने!”
लॉकडाउन के दौरान अपनी दिनचर्या को याद करती हुई वह बताती हैं कि आशा कार्यकर्ता के तौर पर अपना काम पूरा करने करने के बाद वह अलग-थलग रखे गए मरीज़ों तक खाना पहुंचाने का काम करती थीं. “अत्यधिक काम के बोझ से मेरी सेहत पर बुरा असर पड़ने लगा. कुछ दिनों तक मुझे बहुत उच्च रक्तचाप रहने के कारण मुझे लगा कि मैं यह काम छोड़ दूंगी.” लेकिन वनश्री की चाची ने उनसे कहा कि “भगवान के इस पुण्य काम में मैं क्यों विघ्न डाल रही हूं.” उन्होंने कहा कि दो ज़िंदगियां [अपनी मां और बेटी की] तुम पर निर्भर हैं. तुम्हें यह काम करते रहना होगा.”
अपनी कहानी सुनाने के क्रम में वह बीच-बीच में अपने फ़ोन पर भी नज़र रखती रहती हैं. वह कहती हैं, “मेरा परिवार मुझसे पूछता रहता है कि मैं घर कब लौटूंगी. मैं यहां 5,000 रुपए के साथ आई थी. अब मेरे पास सिर्फ़ 200 रुपए बचे हैं.” उन्हें दिसंबर 2023 से अपना मासिक मानदेय नहीं मिला है.
पूर्णिमा वसे, नागपुर के पांधुरना गांव की आशा कार्यकर्ता हैं. वह बताती हैं, “मैंने एम्बुलेंस में एक एचआईवी पॉज़िटिव महिला की डिलीवरी कराई थी. जब अस्पताल के लोगों को पता चला कि वह महिला एचआईवी पॉज़िटिव है, तो मानो भूचाल आ गया.” पूर्णिमा (45) के मुताबिक़, “मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि एक आशा कार्यकर्ता होने के नाते मैंने तो दस्ताने या दुपट्टे के अलावा कोई और सुरक्षा उपकरण न होने के बावजूद प्रसव कराने में मदद की थी, उन्हें इस तरह से व्यवहार करने की क्या ज़रूरत है?”
साल 2009 से आशा कार्यकर्ता के बतौर काम कर रहीं पूर्णिमा 4,500 से ज़्यादा लोगों का देखभाल करती हैं. “मैं एक ग्रेजुएट हूं,” वह बताती हैं. “मुझे नौकरियों के बहुत से प्रस्ताव मिलते हैं, लेकिन आशा कार्यकर्ता बनने का निर्णय मेरा ख़ुद का था. मुझे पैसे मिलें या न मिलें, लेकिन मुझे करनी है सेवा तो मरते दम तक आशा का काम करूंगी.”
आज़ाद मैदान में क्रिकेट का खेल जारी है. वहीं, आशा कार्यकर्ताओं ने अपनी लड़ाई फ़िलहाल स्थगित कर दी है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद