पत्थर की भारी-भारी सिल्लियों और बांस से बने अपने घर के बारे में बताते हुए आठ साल का विशाल चव्हाण कहता है, “जब हम पढ़ाई करने के लिए बैठते हैं, तो छत से रिसता हुआ पानी हमारी किताब और नोटबुक पर टपकने लगता है. पिछले साल [2022 में] यह घर ढह गया था. ऐसा हर साल होता है.”

आलेगांव ज़िला परिषद स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले विशाल का परिवार बेलदार समुदाय से संबंध रखता है, जो महाराष्ट्र में ख़ानाबदोश जनजातियों की श्रेणी में सूचीबद्ध है.

“जिस समय बारिश होती रहती है उस समय झोपड़ी के भीतर रह पाना वाकई बहुत मुश्किल है...कई जगहों से पानी टपकता रहता है,” वह कहता है. इसलिए वह और उसकी नौ वर्षीया बहन वैशाली घर के भीतर उन जगहों की तलाश करते रहते हैं जहां पानी नहीं टपकता है, ताकि वे वहां बैठकर पढ़ाई कर सकें. उनका यह घर शिरूर तालुका के आलेगांव पागा गांव में स्थित है.

पढ़ाई में दोनों भाई-बहन की गहरी रुचि के कारण उनकी दादी शांताबाई चव्हाण को उनपर गर्व है. “हमारे पूरे खानदान में कभी कोई स्कूल भी नहीं गया,” 80 साल की यह वृद्धा कहती हैं. “मेरे पोता-पोती अकेले बच्चे हैं जिन्होंने सबसे पहले पढ़ना और लिखना सीखा.”

लेकिन जब वे अपने पोते-पोती के बारे में बातें कर रही होती हैं तब उनके चेहरे की झुर्रियों में गर्व की अनुभूति के समानांतर फैले एक दुःख की झलक को भी सहज देखा जा सकता है. “हमारे पास एक पक्का घर तक नहीं है, जहां वे आराम से बैठकर पढ़ाई कर सकें. यहां बिजली भी उपलब्ध नहीं हैं,” आलेगांव पागा बस्ती में तिरपाल की बनी झोपड़ी के भीतर वह कहती हैं.

Left: Nomadic families live in make-shift tarpaulin tents supported by bamboo poles.
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Right: Siblings Vishal and Vaishali Chavan getting ready to go to school in Alegaon Paga village of Shirur taluka.
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बाएं: ख़ानाबदोश आदिवासियों के परिवार बांस के खंभों के सहारे बने तिरपाल के अस्थायी तंबुओं में रहते हैं. दाएं: भाई-बहन विशाल और वैशाली चव्हाण शिरूर तालुका के आलेगांव गांव में स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे हैं

Vishal studying in his home (left) and outside the Alegaon Zilla Parishad school (right)
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Vishal studying in his home (left) and outside the Alegaon Zilla Parishad school (right)
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अपने घर में पढ़ाई करता विशाल (बाएं) और आलेगांव ज़िला परिषद स्कूल (दाएं) के बाहर

पांच फीट से अधिक ऊंचाई के किसी वयस्क इंसान को बांस से टिके छत वाले इस त्रिकोणीय कमरेनुमा ढांचे में दाख़िल होने के लिए अपना माथा झुकाना होता है. उनका घर ऐसी 40 झोपड़ियों वाली एक बस्ती का हिस्सा है, जिनमें बेलदार, फांसे पारधी और भील आदिवासी रहते हैं. यह बस्ती पुणे ज़िले में आलेगांव पागा गांव से दो किलोमीटर दूर बाहरी इलाक़े में बसा हुआ है. “झोपड़ी में जीवन बिताना बहुत कठिन है,” शांताबाई कहती हैं, “फिर भी ये बच्चे कोई शिकायत करने के बजाय अपनी मुश्किलों से समझौता करने की कोशिश करते हैं.”

उनकी झोपड़ी का तिरपाल भी फट चुका है. पिछले नौ सालों से न तो उन्हें बदला गया है और न कोई मरम्मत का काम हुआ है.

“मेरे माता-पिता काम के सिलसिले में हमेशा बाहर रहते हैं,” विशाल अपने मां-बाप - सुभाष और चंदा के बारे में बताता हुआ कहता है, जो पुणे के एक पत्थर खदान में काम करते हैं. दोनों पत्थर तोड़ने के साथ-साथ ट्रक तक उनकी ढुलाई का काम करते हैं और प्रति दिन 100-100 रुपए कमाते हैं. दोनों की लगभग 6,000 रुपए की मासिक कमाई में उन्हें पांच लोगों के परिवार का गुज़ारा करना होता है. विशाल की मां चंदा (42) कहती हैं, “तेल से लेकर अनाज तक, सबकुछ इतना महंगा हो गया है. हम एक रुपया भी कहां से बचाएं? हम अपना घर कैसे बनाएंगे?”

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हालांकि, महाराष्ट्र में ख़ानाबदोश आदिवासियों को आवासीय सुविधा प्रदान करने के उद्देश्य से अनेक सरकारी कल्याण योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन उनकी इस छोटी आमदनी को देखते हुए इस चव्हाण परिवार के लिए अपना ख़ुद का पक्का घर बनाना एक दूर का सपना है. शबरी आदिवासी घरकुल योजना, पारधी घरकुल योजना और यशवंतराव चव्हाण मुक्त वसाहत योजना जैसी राज्य सरकार की योजनाओं की सुविधाएं लेने के लिए लाभुकों को एक जाति प्रमाणपत्र की आवश्यकता पड़ती है. “किसी भी प्रकार की घरकुल योजना [आवासीय योजना] के लिए हमें यह प्रमाणित करने की ज़रूरत होती है कि हम कौन हैं. हम अपनी जात [जाति] कैसे प्रमाणित करेंगे?” चंदा कहती हैं.

साल 2017 की इदाते आयोग की रिपोर्ट बताती है कि पूरे देश में ख़ानाबदोश जनजातियों की आवासीय अव्यवस्था एक सामान्य समस्या है. चंदा की बात में अहम सवाल छिपा नज़र आता है, “आप देख ही सकते हैं कि हम अपना जीवन कैसे गुज़ार रहे हैं.” कमीशन द्वारा जिन 9,000 परिवारों का सर्वेक्षण किया गया है उनमें 50 प्रतिशत परिवार अस्थायी या कच्चे मकानों में रहते हैं, और 8 प्रतिशत लोग परिवार के साथ तंबुओं में गुज़ारा करते हैं.

Left and Right: Most nomadic families in Maharashtra live in thatched homes
PHOTO • Jyoti Shinoli
Left and Right: Most nomadic families in Maharashtra live in thatched homes.
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बाएं और दाएं: महाराष्ट्र में अधिकतर ख़ानाबदोश परिवार फूस के घरों में जीवन बिताते हैं

सरकारी योजनाओं की सुविधाओं तक पहुंचने के उद्देश्य से इस समस्या को उठाते करते हुए अनेक प्रतिवेदन भी आयोग को दिए जा चुके हैं, और उनकी प्राप्ति को ‘विमुक्त घुमंतू और अर्द्ध-घुमंतू जनजातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग’ द्वारा दर्ज भी किया गया है. इनमें 454 में से 304 - अर्थात अधिसंख्य प्रतिवेदन जाति प्रमाणपत्र से जुड़े मामलों से संबंधित हैं.

महाराष्ट्र अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति, डिनोटिफाईड जनजाति (विमुक्त जाति), घुमंतू जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, और विशेष पिछड़ी श्रेणी (जाति प्रमाणपत्र प्रदान करने और उसकी पुष्टि की विनियमन) जाति प्रमाणपत्र अधिनियम, 2000 के अधीन एक जाति प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आवेदक को यह प्रमाणित करना ज़रूरी है कि वे उस स्थान के स्थायी निवासी हैं या उनके पूर्वज निर्धारत तिथि के पहले तक (विमुक्त जनजाति के मामले में 1961 से पहले से)  उस स्थान में रहते आ रहे हैं. “इस प्रावधान के साथ एक जाति प्रमाणपत्र हासिल कर पाना बहुत आसान काम नहीं है,” सुनीता भोसले कहती हैं, जो शिरूर की सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

“इन भटक्या-विमुक्त जाति (डिनोटिफाईड आदिवासियों) की अनेक पीढ़ियां एक गांव से दूसरे गांव, एक ज़िले से दूसरे ज़िले भटकती रही हैं,” वह बताती हैं, “ऐसे में किसी के लिए भी 50 – 60 पुराना आवासीय प्रमाण उपलब्ध कराना कहां संभव है? इस क़ानून में बदलाव की ज़रूरत है.”

सुनीता, जो फांसे पारधी समुदाय की हैं, ने 2010 में ‘क्रांति’ नाम से एक गैर-लाभकारी संगठन स्थापित किया. यह संगठन विमुक्त जातियों के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों को देखता है, और आधारकार्ड, राशनकार्ड और दूसरे सरकारी दस्तावेज़ों को दिलवाने में मदद करता है, ताकि इन आदिवासियों को विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके. साथ ही यह संगठन इन जनजातियों के विरुद्ध होने वाली किसी भी अत्याचार के मामले को भी देखता है. “पिछले 13 सालों में हम लगभग 2,000 लोगों का जाति प्रमाणपत्र बनवाने में सफल रहे हैं,” सुनीता बताती हैं.

क्रांति के कार्यकर्ता पुणे ज़िले के दौंड और शिरूर तालुका और अहमदनगर ज़िले के श्रीगोंदा तालुका के कुल 229 गांवों में काम करते हैं. उनके काम के दायरे में फांसे पारधी, बेलदार और भील जैसी विमुक्त जनजातियों की अनुमानित 25,000 आबादी आती है.

Left: Poor housing arrangements are common among nomadic tribes who find it difficult to access housing schemes without a caste certificate.
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Right: The office of the Social Justice and Special Assistance Department, Pune
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बाएं: सुविधाहीन और नारकीय आवासीय व्यवस्था उन ख़ानाबदोश जनजातियों की एक आम समस्या है, जो जाति प्रमाणपत्र के अभाव में आवासीय योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित हैं. दाएं: पुणे का ‘सामाजिक न्याय और विशेष सहायता विभाग का कार्यालय’

सुनीता कहती हैं कि जाति प्रमाणपत्र बनाने के लिए आवेदन की प्रक्रिया बहुत जटिल, समय नष्ट करने वाली और ख़र्चीली है. “आपको तालुका कार्यालय आने-जाने में और काग़ज़ात की बार-बार फ़ोटोकॉपी कराने में अपनी जेब से पैसे ख़र्च करने पड़ते हैं. प्रमाण के रूप में आपको एक के बाद दूसरे काग़ज़ जमा कराने पड़ते हैं और यह सिलसिला चलता ही रहता है. और, आख़िरकार लोग थक-हार कर जाति प्रमाणपत्र पाने की उम्मीद छोड़ देते हैं,” सुनीता कारण स्पष्ट करती हुई बताती हैं.

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“हमारे पास ऐसी कोई जगह कभी नहीं रही जिसे हम अपना घर कह सकें,” विक्रम बरडे (36) कहते हैं, “मुझे तो यह भी याद नहीं है कि बचपन से लेकर अब तक हमने कितनी जगहें बदली हैं. लोग हमपर भरोसा नहीं करते. आज भी. यही कारण है कि हम किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते हैं. गांव के लोगों को जब हमारे में पता चलता है, तो वे हम पर गांव छोड़ने का दवाब डालते हैं.”

विक्रम, फांसे पारधी जनजातीय समुदाय से आते हैं और गुज़ारे के लिए दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. वह अपनी पत्नी रेखा के साथ टिन वाली छत के एक कमरे के घर में रहते हैं. उनका घर आलेगांव पागा बस्ती से 15 किलोमीटर दूर कुरुली गांव के बाहरी इलाक़े में बसी बस्ती का एक हिस्सा है. इस बस्ती में भीलों और पारधियों के 50 परिवार रहते हैं.

विक्रम उस समय 13 साल के थे, जब उनके माता-पिता जालना ज़िले के भीलपुरी खुर्द गांव आ गए थे. “मुझे याद है, हम भीलपुरी खुर्द गांव के बाहर बने कुडाचा घर [फूस के घर] में रहते थे. मेरे दादा-दादी मुझे बताते थे कि वे बीड में कहीं रहते थे,” वह याददाश्त पर ज़ोर डालते हुए कहते हैं. (पढ़ें: इस देश में ‘पारधी’ होना गुनाह है )

साल 2013 में, वह अपने परिवार को साथ लेकर पुणे की इस जगह चले आए जहां फ़िलहाल रहते हैं. वह और उनकी 28 वर्षीया पत्नी रेखा पुणे के विभिन्न गांवों में काम की तलाश में घूमते रहते हैं. सामान्यतः पति-पत्नी खेतिहर मज़दूरी का काम करते हैं, लेकिन कई बार वे निर्माणाधीन स्थलों पर भी दिहाड़ी पर काम करते हैं. “एक दिन में हम कुल मिलाकर 350 रुपए कमा लेते हैं. कभी-कभी 400 रुपए भी हो जाते हैं, लेकिन हमें दो हफ़्ते से ज़्यादा काम नहीं मिलता है,” विक्रम बताते हैं.

Vikram Barde, a daily-wage worker, lives with his wife Rekha in a one-room house with a tin roof. ' We never had a place to call home,' the 36-year-old says, “I can’t recall how many times we have changed places since my childhood'
PHOTO • Jyoti Shinoli
Vikram Barde, a daily-wage worker, lives with his wife Rekha in a one-room house with a tin roof. ' We never had a place to call home,' the 36-year-old says, “I can’t recall how many times we have changed places since my childhood'.
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दिहाड़ी मजदूरी करने वाले विक्रम बरडे अपनी पत्नी के साथ एक कमरे के घर में रहते हैं, जिसकी छत टिन की है. ‘हमारे पास कभी कोई ऐसी जगह नहीं रही जिसे हम घर कह सकें,’ 36 साल के विक्रम कहते हैं. ‘मुझे तो यह भी ठीक से याद नहीं कि बचपन से लेकर अभी तक हम कितनी दफ़ा अपनी जगह बदल चुके हैं’

दो साल पहले जाति प्रमाणपत्र बनवाने के लिए आवेदन करने में वह हर माह लगभग 200 रुपए ख़र्च कर रहे थे. विक्रम को महीने में कोई चार-पांच बार शिरूर स्थित खंड विकास कार्यालय के चक्कर लगाने होते थे, ताकि उनके आवेदन को आगे बढ़ाया जा सके.

“साझा सवारी वाले ऑटो रिक्शा से आने-जाने के बदले उन्हें एक बार में 60 रुपए ख़र्च करना पड़ता था. उसके बाद फ़ोटोकॉपी कराने का ख़र्च अलग था. फिर आपको दफ़्तर में देर तक इंतज़ार करना होता था, जिसके कारण मुझे अपनी दिहाड़ी छोड़नी पड़ती थी. मेरे पास मेरे निवास का कोई प्रमाण नहीं है और न जाति प्रमाणपत्र ही है,” विक्रम बताते हैं.

उनके बच्चे - 14 साल का करण और 11 साल का सोहम - पुणे की मुलशी तालुका में वडगांव के एक राजकीय आवासीय विद्यालय में पढ़ते हैं. करण नौवीं और सोहम छठी कक्षा में पढ़ता है. “हमारी आख़िरी उम्मीद हमारे बच्चे ही हैं. यदि वे ठीक से पढ़ाई करेंगे, तब उन्हें अपने जीवन में इस तरह भटकना नहीं पड़ेगा.”

पारी की इस रिपोर्टर ने पुणे संभाग के सामाजिक न्याय और विशेष सहायता विभाग के एक अधिकारी से सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर समूहों के परिवारों की संख्या के बारे में बातचीत की, जिन्हें विभिन्न आवासीय योजनाओं के अधीन मिलने वाली वित्तीय मदद प्राप्त हुई है. उक्त अधिकारी ने बताया, “पुणे की बारामती तालुका के पनदरे गांव में वीजेएनटी [विमुक्त जाति नोटिफाईड ट्राइब्स] के 10 परिवारों को वर्ष 2021-22 में 88.3 लाख की राशि आवंटित की गई थी. इसके अतिरिक्त इस साल [2023] ख़ानाबदोश जनजातियों के लिए किसी अन्य प्रस्ताव को सहमति नहीं दी गई है.

इधर आलेगांव पागा बस्ती में शांताबाई अपने पोते-पोतियों के सुखद भविष्य के बारे में सोचती हुई कहती हैं, “मुझे पक्का विश्वास है. हम कभी पक्के घर में नहीं रहे हैं, लेकिन मेरे पोते-पोती हर हाल में अपना ख़ुद का घर बनाएंगे. और, उस घर में आराम से रहेंगे.”

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Jyoti Shinoli

ଜ୍ୟୋତି ଶିନୋଲି ପିପୁଲ୍‌ସ ଆର୍କାଇଭ ଅଫ୍‌ ରୁରାଲ ଇଣ୍ଡିଆର ଜଣେ ବରିଷ୍ଠ ସାମ୍ବାଦିକ ଏବଂ ପୂର୍ବରୁ ସେ ‘ମି ମରାଠୀ’ ଏବଂ ‘ମହାରାଷ୍ଟ୍ର1’ ଭଳି ନ୍ୟୁଜ୍‌ ଚ୍ୟାନେଲରେ କାମ କରିଛନ୍ତି ।

ଏହାଙ୍କ ଲିଖିତ ଅନ୍ୟ ବିଷୟଗୁଡିକ ଜ୍ୟୋତି ଶିନୋଲି
Editor : Sarbajaya Bhattacharya

ସର୍ବଜୟା ଭଟ୍ଟାଚାର୍ଯ୍ୟ ପରୀର ଜଣେ ବରିଷ୍ଠ ସହାୟିକା ସମ୍ପାଦିକା । ସେ ମଧ୍ୟ ଜଣେ ଅଭିଜ୍ଞ ବଙ୍ଗଳା ଅନୁବାଦିକା। କୋଲକାତାରେ ରହୁଥିବା ସର୍ବଜୟା, ସହରର ଇତିହାସ ଓ ଭ୍ରମଣ ସାହିତ୍ୟ ପ୍ରତି ଆଗ୍ରହୀ।

ଏହାଙ୍କ ଲିଖିତ ଅନ୍ୟ ବିଷୟଗୁଡିକ Sarbajaya Bhattacharya
Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

ଏହାଙ୍କ ଲିଖିତ ଅନ୍ୟ ବିଷୟଗୁଡିକ Prabhat Milind