जब सिद्दू गावड़े ने स्कूल जाने के बारे में सोचा, तो उनके माता-पिता ने 50 भेड़ों का एक झुंड उनके हवाले कर दिया. उनके परिवार के दूसरे लोगों और उनके दोस्तों की तरह उनसे भी यही उम्मीद की जाती थी कि वह बचपन से ही चरवाही करने का अपने पुरखों का पेशा अपनाएंगे; लिहाज़ा स्कूल जाने का उनका सपना कभी भी पूरा नहीं हो पाया.

गावड़े धनगर समुदाय से आते हैं, जिनका काम बकरियों और भेड़ों को पालना है. उनका समुदाय महाराष्ट्र में एक बंजारा जनजाति के रूप में सूचीबद्ध है. साल में छह महीने से भी अधिक समय तक वह अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर रहते हैं और अपने पशुओं को चराते हैं.

एक दिन अपने घर से कोई एक सौ किलोमीटर दूर उत्तरी कर्नाटक के कारदगा गांव में अपनी भेड़ें चराने के क्रम में उन्होंने अपने साथ ही पशुओं को चराने वाले एक चरवाहे को धागों की मदद से गोल-गोल छल्ले बनाते हुए देखा. “मुझे यह बहुत दिलचस्प काम लगा.” उस बुज़ुर्ग धनगर (चरवाहे) को याद करते हुए वह बताते हैं कि कैसे उसने सूती के सफ़ेद धागे से बनाए गये छल्लों की मदद से एक जाली (गोलाकार झोला) बना डाला, जिसका रंग उसे पूरा करने के क्रम में धीरे-धीरे बादामी भूरा होता गया था.

संयोग से हुई उस मुलाक़ात ने छोटी उम्र के गावड़े को इस कला को सीखने के लिए प्रेरित किया, जो आने वाले 74 सालों तक उनके साथ जारी रहने वाली थी.

जाली हाथों से बुना हुआ कंधे पर लटकाया जाने वाला एक सममितीय (सिमेट्रिकल) झोला है, जो सूती धागों से बनता है और कंधे के चारों ओर बांधा जाता है. “तक़रीबन सभी धनगर पशुओं के साथ अपनी लंबी यात्राओं के समय ऐसी एक जाली अपने साथ रखते हैं,” सिद्दू बताते हैं. “इसमें कम से कम 10 भाकरी और एक जोड़ी कपड़े आराम से रखे जा सकते हैं. बहुत से धनगर इनमें पान के पत्ते, सुपाड़ी, तंबाकू, चूना आदि भी रखते हैं.”

इसे बनाने में जिस कौशल की आवश्यकता होती है उसे इस बात से समझा जा सकता है कि जाली की एक निर्धारित माप होती है, लेकिन इसे बनाने के लिए चरवाहे किसी मापनी का उपयोग नहीं करते हैं. “यह एक हथेली और चार अंगुलियों के बराबर लंबा होता है,” सिद्दू कहते हैं. जाली इतनी टिकाऊ होती है कि 10 सालों तक बड़े आराम से चलती है. “यह बरसात में गीली नहीं होनी चाहिए, और इनको चूहों से भी बचाकर रखने की ज़रूरत होती है. इसलिए इसे बहुत हिफ़ाज़त से रखना होता है.”

Siddu Gavade, a Dhangar shepherd, learnt to weave jalis by watching another, older Dhangar. These days Siddu spends time farming; he quit the ancestral occupation of rearing sheep and goats a while ago
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Siddu Gavade, a Dhangar shepherd, learnt to weave jalis by watching another, older Dhangar. These days Siddu spends time farming; he quit the ancestral occupation of rearing sheep and goats a while ago
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धनगर चरवाहे जाली बनाने की कला दूसरे बुज़ुर्ग धनगरों को देखकर सीखते हैं. इन दिनों सिद्दू अपना समय खेती करते हुए बिताते हैं. उन्होंने कुछ समय से बकरियों और भेड़ों को चराने का अपना पैतृक व्यवसाय छोड़ दिया है

Siddu shows how he measures the jali using his palm and four fingers (left); he doesn't need a measure to get the dimensions right. A bag (right) that has been chewed by rodents
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Siddu shows how he measures the jali using his palm and four fingers (left); he doesn't need a measure to get the dimensions right. A bag (right) that has been chewed by rodents
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सिद्दू यह दिखाते हुए कि कैसे वह अपनी हथेली और उंगलियों (बाएं) की मदद से जाली की नाप लेते हैं; उन्हें सही आयाम लेने के लिए किसी मापनी की आवश्यकता नहीं पड़ती है. एक झोला (दाएं) जिसे चूहों ने कुतर डाला है

आज के समय में सिद्दू कारदगा में अकेले ऐसे किसान हैं जो सूती धागे के उपयोग से जाली बनाने की कला में दक्ष हैं. “कन्नड़ में इसे जालगी बोलते हैं,” वह बताते हैं. कारदगा महाराष्ट्र-कर्नाटक के सीमा पर स्थित बेलगावी ज़िले के चिकोड़ी (या चिक्कोड़ी) तालुका के निकट है. इस गांव में लगभग 9,000 लोग रहते हैं, जो मराठी और कन्नड़ दोनों भाषाएं बोलते हैं.

अपने बचपन के दिनों में सिद्दू उन ट्रकों का इंतज़ार करते रहते थे जिनमें सूत (कपास के रेशे या धागे) आया करते थे. वह बताते हैं, “तेज़ चलने वाली हवाओं के कारण, पास से गुज़रते ट्रकों से धागे गिर जाते थे और मैं उन्हें इकट्ठा किया करता था.” वह उन धागों की गाठें बनाकर उनसे खेलते थे. “मुझे यह कला किसी ने नहीं सिखाई. मैंने इसे एक म्हातारा [वृद्ध] धनगर को देख कर सीखा था.”

पहले साल में सिद्दू ने सिर्फ़ फंदा बनाना सीखा और गांठ बनाने की कोशिश बहुत बार की. “आख़िरकार अपनी भेड़ों और कुत्ते के साथ हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करने के बाद, मैंने यह जटिल विद्या सीखी,” वह कहते हैं. “असली कारीगरी इस बात में है कि एक वृत्त के आकार में बनाए गए इस आकृति के सभी फंदे एक-दूसरे से समान दूरी पर रहें, और जाली के पूरी तरह से तैयार होने तक यह आकार वैसा ही बना रहे.” हैरत की बात यह है कि बुनावट के लिए सुइयों का इस्तेमाल नहीं करते हैं.

चूंकि पतले धागे से अच्छी गांठ नहीं तैयार हो सकती है, इसलिए सबसे पहला काम सिद्दू यह करते हैं कि वह धागे की मोटाई को बढ़ाने का उपाय करते हैं. ऐसा करने के लिए किसी बड़े लच्छे से वह 20 फीट के आसपास का एक सफ़ेद धागा लेते हैं. वह उसे लकड़ी के एक पारंपरिक उपकरण से बांध देते हैं. इस उपकरण को टकली या मराठी में भिंगरी कहते हैं. टकली लकड़ी से बना एक लंबा औज़ार होता है, जिसका एक सिरा मशरूम की तरह अर्द्ध वक्राकार होता है और दूसरा सिरा नुकीला होता है. यह औज़ार लगभग 25 सेंटीमीटर लंबा होता है.

फिर वह 50 साल पुराने बबूल की लकड़ी की बनी टकली को अपने दाएं पैर पर रखकर तेज़ी से घुमाते हैं. घूमती हुई टकली को रोके बिना वह उसे अपने बाएं हाथ से उठाते हैं और धागे को उससे खींचने लगते हैं. “यह धागे की मोटाई को बढ़ाने का एक पारंपरिक तरीक़ा है,” वह बताते हैं. क़रीब 20 फीट के पतले धागे को मोटा बनाने में दो घंटे का समय लग जाता है.

सिद्दू धागे को मोटा बनाने के लिए अभी भी इसी पारंपरिक तरीक़े का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि जैसा वह बताते हैं, मोटा धागा ख़रीदना उन्हें महंगा पड़ता है. “तीन पदराचा करावा लागतोय  [तीन धागों को मिलाने के बाद मोटा धागा मिलता है].” बहरहाल पांव पर रखकर टकली घुमाने के कारण होने वाले घर्षण से वहां सूजन हो जाती है. “मग काय होतंय, दोन दिवस आराम करायचा [तब क्या होता है? दो दिन आराम करना पड़ता है],” वह हंसते हुए कहते हैं.

Siddu uses cotton thread to make the jali . He wraps around 20 feet of thread around the wooden takli , which he rotates against his leg to effectively roll and thicken the thread. The repeated friction is abrasive and inflames the skin
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Siddu uses cotton thread to make the jali . He wraps around 20 feet of thread around the wooden takli , which he rotates against his leg to effectively roll and thicken the thread. The repeated friction is abrasive and inflames the skin
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सिद्दू जाली बनाने के लिए सूती धागे का उपयोग करते हैं. वह लकड़ी की टकली में 20 फीट लंबा धागा लपेटते हैं, फिर उसे अपने पांव पर रखकर घुमाते हैं. इस प्रक्रिया से मोटे धागे निकाले जाते हैं. इस क्रम में होने वाले लगातार घर्षण से त्वचा में अक्सर सूजन हो जाती है

There is a particular way to hold the takli and Siddu has mastered it over the years: 'In case it's not held properly, the thread doesn't become thick'
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टकली को पकड़े रखने का एक ख़ास तरीक़ा होता है, जिसमें सालों के अपने अनुभवों के कारण सिद्दू दक्ष हो गए हैं: ‘अगर इसे ठीक से नहीं पकड़ा जाएगा, तो धागा मोटा नहीं बन पाएगा’

सिद्दू बताते हैं कि टकली अब बहुत मुश्किल से मिलती है. “नए बढ़ई मिस्त्री इसे बनाना नहीं जानते हैं.” साल 1970 के दशक की शुरुआत में उन्होंने गांव के एक मिस्त्री से 50 रुपए में इसे ख़रीदा था. यह उस समय के हिसाब से एक ख़ासी मोटी रकम थी, जब अच्छे क़िस्म का एक किलो चावल सिर्फ़ एक रुपए में मिलता था.

एक जाली बनाने के लिए वह लगभग दो किलो सूती धागा ख़रीदते हैं, और धागे की मोटाई और घनत्व के अनुसार वह उससे कई-कई फीट लंबे धागे निकालते हैं. कुछ साल पहले तक वह नौ किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के रेंदाल गांव से सूती धागे ख़रीदते थे. “अब हमें अपने ही गांव में धागा मिल जाता है और गुणवत्ता के आधार पर इसकी क़ीमत 80 से 100 रुपया प्रतिकिलो होती है.” वह बताते हैं कि 90 के दशक में यही धागा केवल 20 रुपए प्रति किलो मिलता था, और इसी दर से दो किलो धागा वह भी ख़रीदते थे.

वह बताते हैं कि जाली बुनने की कला पारंपरिक तौर पर पुरुषों का काम है, लेकिन उनकी दिवंगत पत्नी मायव्वा धागे को मोटा बनाने में उनकी मदद करती थीं. “वह एक बेहतरीन कारीगर थीं,” वह कहते हैं. मायव्वा किडनी ख़राब हो जाने के कारण 2016 में चल बसीं. “उनका ग़लत इलाज हुआ. हम उनके अस्थमा का इलाज कराने गए थे, लेकिन ग़लत दवाओं के साइड इफेक्ट्स के कारण उनकी किडनी ख़राब हो गई,” वह बताते हैं.

सिद्दू के मुताबिक़, उनकी पत्नी की तरह समुदाय की महिलाएं भेड़ों के बाल काटने और उनसे ऊन बनाने की काम में पारंगत होती हैं. इसके बाद धनगर इन धागों को सनगरों को दे देते हैं, जो करघे (पिट लूम) पर उन धागों से घोंगडी (ऊनी कंबल) बनाते हैं. पिट लूम गड्ढे में फिट किया गया एक करघा होता है, जिस पर बुनकर पैडलों की मदद से बुनाई का काम करते हैं.

समय की उपलब्धता और आवश्यकता के अनुसार सिद्दू धागों की मोटाई निर्धारित करते हैं. उसके बाद वह उंगलियों की मदद से बुनाई करते हैं. यह जाली बुनने की पूरी प्रक्रिया का सबसे जटिल काम है. वह धागों के फंदों की इंटरलेसिंग या आन्तरिक बुनावट की मदद से एक स्लिप नॉट (डोरों के तानने से कसने या खुल जाने वाली गांठ) बनाते हैं. एक झोला बनाने के लिए वह 25 फंदों वाली एक शृंखला बनाते हैं और उसे समान दूरी पर एक-दूसरे से जोड़ते हैं.

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Right: Every knot Siddu makes is equal in size. Even a slight error means the jali won't look as good.
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बाएं: 50 साल पहले जब उन्होंने पहली बार बबूल की लकड़ी की बनी टकली ख़रीदी थी, तब उसकी क़ीमत 50 किलो गेहूं के बराबर थी. आज इन्हें बनाने वाला एक भी बढ़ई नहीं है. दाएं: सिद्दू की बनाई हरेक गांठ आकार में बराबर होती है. एक छोटी सी चूक से भी जाली की सुन्दरता नष्ट हो सकती है

“सबसे मुश्किल काम इसकी शुरुआत करना और गोलाकार रूप में फंदे बनाना है.” वह साथ-साथ यह भी बताते हैं गांव में 2-3 धनगर ही जाली बनाने की कला जानते हैं, लेकिन आधे “वृत के आकार की आकृति बनाने में उन्हें बहुत कठिनाई होती है, जबकि जाली बनाने की बुनियाद यही है. इसलिए अब इस काम को कोई नहीं करता.”

सिद्दू इस गोलाकार आकृति को बनाने में 14 घंटे से भी अधिक समय बिताते हैं. “अगर आपसे एक भी चूक हो जाती है, तो आपको सबकुछ नए सिरे से दोबारा करना पड़ता है.” एक जाली बनाने में कम से कम 20 दिन लगते हैं. पिछले सत्तर सालों में वह अनेक धनगरों के लिए 100 से भी ज़्यादा जालियां बना चुके हैं. इस कारीगरी में निपुणता हासिल करने के लिए वह अभी तक अपने 6,000 घंटे निवेश कर चुके हैं.

सिद्दू को आदर और स्नेह से लोग ‘पटकर म्हातारं’ (पगड़ी वाले बुज़ुर्ग) भी कहते हैं. वह रोज़ सफ़ेद पगड़ी पहनते हैं.

अपने वृद्धावस्था के बावजूद वह विगत नौ सालों से प्रसिद्ध वारी उत्सव के मौक़े पर विठोबा मंदिर तक की पदयात्रा करते रहे हैं. यह मंदिर महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले के पंढरपुर गांव में स्थित है और उनके गांव से लगभग 350 किलोमीटर की दूरी है. पूरे महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक के अनेक ज़िलों से श्रद्धालु-जन आषाढ़ (जून/जुलाई) और कार्तिक (दीवाली के बाद अक्टूबर/नवंबर) माह में समूहों में वहां जाते हैं. इस पदयात्रा में वह भक्ति गीत, जिसे अभंग कहते हैं, और संत तुकाराम, ज्ञानेश्वर और नामदेव की कविताएं गाते हुए जाते हैं.

“मैं कोई सवारी नहीं लेता हूं. विठोबा आहे माझ्यासोबत. काहीहीं होत नाहीं [मैं जानता हूं विट्ठोबा मेरे साथ हैं, और मुझे कुछ नहीं होगा],” वह कहते हैं. इस पदयात्रा को पूरा करने में उन्हें 12 दिन लगे. इस यात्रा में वह जहां भी आराम करने के लिए रुके, फंदे बनाने के लिए सूती धागे निकाल लेते थे.

सिद्दू के दिवंगत पिता बालू भी जाली बनाते थे. चूंकि अब जाली बनाने वाला कोई दूसरा कारीगर नहीं है, तो अधिकतर धनगर ख़रीदे हुए कपड़े के झोले का इस्तेमाल करते हैं. सिद्दू कहते हैं, “इनको बनाने में जितना समय, श्रम और पैसा लगता है, उसे देखते हुए अब इस कला को जीवित रख पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है.” वह लगभग 200 रुपए सूत को ख़रीदने में ख़र्च करते हैं, जबकि एक तैयार जाली केवल 250-300 रुपए में ही बिकती है. “काहीही उपयोग नाही [इसका कोई मतलब नहीं],” वह अपनी बात साझा करते हैं.

'The most difficult part is starting and making the loops in a circular form,' says Siddu. Making these loops requires a lot of patience and focus
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'The most difficult part is starting and making the loops in a circular form,' says Siddu. Making these loops requires a lot of patience and focus
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सिद्दू कहते हैं, ‘सबसे मुश्किल काम बुनने की शुरुआत करना और फंदों को एक गोल आकृति देना होता है.’ इन फंदों को बनाने में बहुत सावधानी और सतर्कता की ज़रूरत पडती है

Left: After spending over seven decades mastering the art, Siddu is renowned for making symmetrical jalis and ensuring every loop and knot is of the same size.
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Right: He shows the beginning stages of making a jali and the final object.
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बाएं: सिद्दू ने इस कला में महारत हासिल करने के लिए अपने जीवन के सत्तर साल लगाए हैं. आज सममितीय जाली बुनाई के क्षेत्र में वह एक प्रसिद्ध नाम हैं, और हरेक फंदे और गांठ को समान आकार देने में सिद्धहस्त हैं. दाएं: जाली बनाने के आरंभिक चरण के साथ एक पूरी तरह से तैयार जाली को दिखाते सिद्दू

उनके तीन बेटे और एक बेटी हैं. उनके बेटों मल्लप्पा (50) और कल्लप्पा (35) ने अब भेड़ चराने का काम छोड़ दिया है और अपनी एक-एक एकड़ ज़मीन पर खेती करते हैं. वहीं, बालू (45) खेती करने के साथ-साथ 50 भेड़ों के अपने झुंड को पालने के लिए दूर-दूर तक यात्राएं करते हैं. उनकी बेटी शाना, जो लगभग 30 साल की हैं, एक गृहिणी हैं.

उनके बेटों में से किसी ने यह कला नहीं सीखी है. “शिकली बी नाहीत, त्यांना जमत बी नाही आणि त्यांनी डोस्कं पण घातलं नाही [उन्होंने न यह सीखा, न उन्होंने कभी इसकी कोशिश की, और न कभी इसकी तरफ़ ध्यान ही दिया].” वह एक सांस में यह बात कहते हैं. लोगबाग़ उनका काम बड़े ध्यान से देखते हैं, लेकिन उनके मुताबिक़ कोई भी उनसे यह काम सीखने नहीं आया.

इन फंदों को बनाना, देखने में बहुत आसान काम लगता है, लेकिन यह बहुत कठिन काम है. कई बार सिद्दू इस कारण शारीरिक तक़लीफ़ों से भी गुज़रते हैं. “हाताला मुंग्या येतात [कोई सूई के चुभने सा अहसास],” वह बताते हैं. इस काम के कारण उनको पीठ के दर्द और आंखों में तनाव जैसी परेशानियां झेलनी पड़ती है. कुछ साल पहले मोतियाबिंद के कारण उनकी दोनों आंखों का ऑपरेशन भी हो चुका है और अब उन्हें चश्मा लगाना पड़ता है. इन्हीं वजहों से अब उनकी रफ़्तार पहले की तरह तेज़ नहीं रही, लेकिन इस कला को जीवित रखने का उनका जुनून अभी भी पहले की तरह ही बरकरार है.

जनवरी 2022 के ग्रास एंड फोरेज साइंस में भारत के चारा उत्पादन पर प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार, भारत हरे चारों के साथ-साथ पशुओं की खाद्य-सामग्रियों और फ़सलों के सूखे अवशेषों के संकट से गुज़र रहा है. यह स्थिति पशुओं के गंभीर खाद्य-संकट को रेखांकित करती है.

चारा का अभाव उन अनेक कारणों में एक है जिनकी वजह से गांव में अब कुछ ही धनगर बकरी और भेड़ पालन का काम करते हैं. “पिछले 5-7 सालों में हमारी अनगिनत भेड़ें और बकरियां मौत का शिकार हुई हैं. किसानों द्वारा खरपतवार और कीटनाशक रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग द्वारा यह स्थिति आई है,” वह बताते हैं. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के एक ख़ुलासे के अनुसार कर्नाटक के किसानों ने अकेले 2022-23 में 1,669 मेट्रिक टन रसायनिक कीटनाशकों का उपयोग किया. वर्ष 2018-19 में यह आंकडा 1,524 मेट्रिक टन का था.

Left: Siddu's wife, the late Mayavva, had mastered the skill of shearing sheep and making woolen threads.
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Right: Siddu spends time with his grandson in their house in Karadaga village, Belagavi.
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बाएं: सिद्दू की धर्मपत्नी स्वर्गवासी मायव्वा को भेड़ों के रोएं काटने और उनसे ऊनी धागा बनाने के काम में महारत हासिल थी. दाएं: सिद्दू, बेलगावी के कारदगा गांव में स्थित अपने घर में पोते के साथ समय बिताते हैं

The shepherd proudly shows us the jali which took him about 60 hours to make.
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वृद्ध चरवाहा हमें गर्व के साथ वह जाली दिखाते हैं जिसे बनाने में उन्हें लगभग 60 घंटे लग गए

वह हमें बताते हैं कि भेड़ और बकरियों को पालना अब बहुत महंगा काम है. उनकी चिकित्सा पर होने वाले ख़र्च पर आमतौर पर किसी का ध्यान नहीं जाता है. “हर साल पशुपालकों को पशुओं की दवाओं और सूइयों पर तक़रीबन 20,000 रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं, क्योंकि भेड़ और बकरियां बार-बार बीमार पड़ती हैं.

वह बताते हैं कि हर भेड़ को प्रतिवर्ष छह टीके लगवाने आवश्यक हैं. “कोई भेड़ ज़िन्दा रहती है, तभी हम उससे कुछ कमाई कर सकते हैं.” इस क्षेत्र के किसान अपनी एक-एक इंच ज़मीन पर गन्ना उगाना चाहते हैं. वर्ष 2021-2022 में भारत ने 500 मिलियन मेट्रिक टन से भी अधिक गन्ने का उत्पादन करके दुनिया के सबसे बड़े गन्ना-उत्पादक और उपभोक्ता का स्थान प्राप्त किया था.

सिद्दू ने भेड़ और बकरी पालन का काम बीसेक साल पहले ही बंद कर दिया था और अपने 50 से भी अधिक पशुओं को अपने बेटों के बीच बांट दिया था. वह बताते हैं कि बारिश होने में देरी होने के कारण कैसे उनकी खेती प्रभावित हुई. “इसी साल जून से जुलाई मध्य तक बारिश न होने के कारण मेरी तीन एकड़ ज़मीन खाली पड़ी रही. मेरे पड़ोसी ने मेरी मदद की, तो मैं किसी तरह मूंगफली उपजाने में सफल रहा.”

लू के थपेड़ों में आई तेज़ी और अनवरत बरसात के जलवायुवीय पैटर्न में आए इस बदलाव के कारण खेतीबारी अब एक चुनौतियों से भरा काम हो गया है. “पहले माता-पिता बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए उन्हें अनेक भेड़ें और बकरियां सौंप जाते थे. अब समय इतना बदल गया है कि कोई मुफ़्त में भी मिलने वाले पशुओं को लेने के लिए राज़ी नहीं है.”

यह स्टोरी संकेत जैन द्वारा ग्रामीण कारीगरों पर लिखी जा रही शृंखला का हिस्सा है, और इसे मृणालिनी मुखर्जी फ़ाउंडेशन का सहयोग प्राप्त है.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Sanket Jain

ସାଙ୍କେତ ଜୈନ ମହାରାଷ୍ଟ୍ରର କୋହ୍ଲାପୁରରେ ଅବସ୍ଥାପିତ ଜଣେ ନିରପେକ୍ଷ ସାମ୍ବାଦିକ । ସେ ୨୦୨୨ର ଜଣେ ବରିଷ୍ଠ ପରୀ ସଦସ୍ୟ ଏବଂ ୨୦୧୯ର ଜଣେ ପରୀ ସଦସ୍ୟ ।

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Photo Editor : Binaifer Bharucha

ବିନଇଫର୍ ଭାରୁକା ମୁମ୍ବାଇ ଅଞ୍ଚଳର ଜଣେ ସ୍ୱାଧୀନ ଫଟୋଗ୍ରାଫର, ଏବଂ ପରୀର ଫଟୋ ଏଡିଟର୍

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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