जांच में कोरोना संक्रमित पाए जाने के आठ दिन बाद रामलिंग सनप की अस्पताल में मृत्यु हो गई, जहां उनका संक्रमण के दौरान इलाज किया जा रहा था. लेकिन उनकी मौत कोरोना संक्रमण के चलते नहीं हुई.
मौत के कुछ घंटों पहले रामलिंग (40 वर्षीय) ने हॉस्पिटल से अपनी पत्नी राजूबाई को फ़ोन किया था. उनके भतीजे रवि मोराले (23 वर्षीय) बताते हैं, "वे इलाज में होने वाले ख़र्चों के बारे में जानकर रो रहे थे. उन्हें लगा कि अपने अस्पताल का बिल चुकाने के लिए उन्हें अपना 2 एकड़ का खेत बेचना पड़ेगा."
महाराष्ट्र के बीड ज़िले के दीप अस्पताल में, जहां रामलिंग 13 मई से ही भर्ती थे, उनके इलाज का ख़र्च 1.6 लाख रुपए आया. जिसके बारे में राजूबाई के भाई प्रमोद मोराले बताते हैं, "हमने किसी तरह दो किस्तों में अस्पताल का बिल चुकाया, लेकिन अस्पताल 2 लाख रुपए अलग से मांग रहा था. उन्होंने यह बात मरीज़ को बताई, उसके घरवालों को नहीं. उस पर यह बोझ डालने की क्या ज़रूरत थी?"
अस्पताल का बिल उनके परिवार की सालाना आय से भी दोगुना था, उसके बारे में सोचकर रामलिंग काफ़ी परेशान थे. 21 मई को वे कोविड वार्ड से निकले और अस्पताल के गलियारे में उन्होंने ख़ुद को फांसी लगा ली.
राजूबाई (35 वर्षीय) ने 20 मई की रात को अपने पति को फ़ोन पर दिलासा देने की कोशिश की थी. उन्होंने अपने पति से कहा कि वे लोग मोटरसाइकिल बेचकर या फिर चीनी मिल से उधार लेकर, पैसों का इंतज़ाम कर सकते हैं. दोनों पति-पत्नी पश्चिमी महाराष्ट्र के एक चीनी मिल में काम करते थे. राजूबाई ने कहा कि उन्हें सिर्फ़ अपने पति की सेहत की चिंता थी. लेकिन, रामलिंग पैसों के इंतज़ाम को लेकर चिंता में थे.
हर साल, रामलिंग और राजूबाई अपने गांव (बीड ज़िले के कैज तालुका) से पलायन करके, गन्ने के खेतों में काम करने के लिए पश्चिमी महाराष्ट्र जाते थे. नवंबर से अप्रैल तक कड़ी मेहनत करके, उन दोनों ने मिलकर 180 दिनों में 60000 रुपए कमाए. उन दोनों की अनुपस्थिति में, उनके 8 से 16 साल के तीन बच्चों के देखभाल की ज़िम्मेदारी रामलिंग के विधुर पिता पर होती थी.
बीड शहर से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अपने गांव तंदलाचीवाड़ी लौटकर, रामलिंग और राजूबाई ने अपनी ज़मीन पर ज्वार, बाजरा, और सोयाबीन की खेती करते थे. रामलिंग बड़े खेतों में ट्रैक्टर चलाकर, हफ़्ते में तीन दिन 300 रुपए प्रतिदिन कमाते थे.
एक ऐसा परिवार जो अपना गुज़ारा बड़ी मुश्किल से चला पा रहा था वह रामलिंग के बीमार होने पर सबसे पहले सिविल अस्पताल इलाज के लिए पहुंचा. रवि कहते हैं, "लेकिन वहां कोई बेड खाली नहीं था. इसलिए हमें उन्हें लेकर एक निजी अस्पताल आना पड़ा."
कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने ग्रामीण भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की ख़राब स्थिति को उजागर किया है. उदाहरण के लिए बीड ज़िले में केवल दो सरकारी अस्पताल हैं, जबकि ज़िले की जनसंख्या 26 लाख से ज़्यादा है.
चूंकि सरकारी अस्पतालों में कोरोना मरीज़ों की भीड़ बहुत ज़्यादा थी, ऐसे में लोगों को निजी अस्पतालों में इलाज के लिए जाना पड़ा, भले ही वे उन अस्पतालों का ख़र्च उठा पाने में अक्षम हैं.
कई लोगों के लिए एक बार की स्वास्थ्य समस्या ही उन्हें लंबे समय तक क़र्ज़ों के बोझ तले दबाने के लिए काफ़ी है.
मार्च 2021 अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, "कोरोना महामारी के चलते जो आर्थिक मंदी पैदा हुई है उसने भारत में ग़रीबों (जिनकी आय प्रतिदिन 2 डॉलर या उससे भी कम है) की संख्या में 7.5 करोड़ का इज़ाफ़ा किया है." उसके अलावा भारत में मध्यम आय वर्ग से क़रीब 3.2 करोड़ लोग बाहर हुए हैं और वैश्विक ग़रीबी में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
ख़ासतौर पर बीड और उस्मानाबाद ज़िले में महामारी का असर साफ़ तौर दिख रहा है. ये दोनों पड़ोसी ज़िले महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में आते हैं, जो पहले से ही जलवायु परिवर्तन, सूखा, कृषि संकट से प्रभावित है, और अब यहां कोरोना महामारी से एक और संकट पैदा हो गया है. 20 जून 2021 तक बीड ज़िले में कोरोना के 91600 से ज़्यादा मामले सामने आए और 2450 लोगों की कोरोना से मौत हो गई. उस्मानाबाद में कोरोना संक्रमण का ये आंकड़ा 61000 था और 1500 से ज़्यादा लोग कोरोना संक्रमण के चलते मारे गए.
काग़ज़ी आंकड़ों के अनुसार ग़रीबों की अच्छी तरह से देखभाल की जा रही है.
महाराष्ट्र सरकार ने निजी अस्पतालों के लिए शुल्क सीमा तय की है, ताकि मरीज़ अपनी बचत न खो दें. निजी अस्पताल जनरल वार्ड में एक बेड के लिए प्रतिदिन 4000 रुपए, आईसीयू वार्ड में प्रतिदिन 7500 और वेंटीलेटर के साथ आईसीयू वार्ड में एक बेड के लिए प्रतिदिन 9000 रुपए से अधिक शुल्क नहीं ले सकते.
राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही स्वास्थ्य बीमा योजना (महात्मा ज्योतिराव फुले जन आरोग्य योजना-MJPJAY) के तहत, इलाज में ख़र्च के लिए 2.5 लाख रुपए देने का प्रावधान है. इस बीमा योजना के लाभार्थी बीड और उस्मानाबाद जैसे कृषि संकट से ग्रस्त 14 ज़िलों के ऐसे खेतिहर परिवार हैं जिनकी सालाना आमदनी एक लाख रुपए से कम है. इसमें, योजना से जुड़े 447 अस्पतालों (सरकारी और निजी दोनों) में बीमारियों का नकद रहित उपचार और सर्जिकल प्रक्रियाएं शामिल हैं.
हालांकि, अप्रैल में उस्मानाबाद के चिरायु अस्पताल ने एमजेपीजेएवाई योजना के तहत 48 वर्षीय विनोद गंगावणे का इलाज करने से इनकार कर दिया. मरीज़ के बड़े भाई सुरेश गंगावणे (50 साल) बताते हैं, "वह अप्रैल का पहला हफ़्ता था और उस समय उस्मानाबाद में मामले बहुत ज़्यादा थे. उस समय कहीं एक बेड मिल पाना मुश्किल था." सुरेश, जो अपने भाई को इलाज के लिए निजी अस्पताल ले गए थे, आगे कहते हैं, "चिरायु अस्पताल के एक डॉक्टर ने कहा, 'हमारे यहां ये योजना नहीं है, आप बताइए कि आपको बेड चाहिए या नहीं?' उस समय हम इतने परेशान थे कि हमने उनसे इलाज शुरू करने को कहा.
उस्मानाबाद ज़िला परिषद के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत सुरेश ने जब निजी तौर पर छानबीन की, तो उन्होंने पाया कि अस्पताल एमजेपीजेएवाई के अंतर्गत सूचीबद्ध है. वे बताते हैं, "मैंने ये बात जब अस्पताल के सामने रखी, तो उन्होंने हमसे कहा कि आपको योजना का लाभ चाहिए या अपना भाई चाहिए? उन्होंने ये भी कहा कि अगर हमने रोजाना उनका बिल नहीं जमा किया, तो वे उसका इलाज रोक देंगे."
गंगावणे परिवार के पास उस्मानाबाद ज़िले के सीमावर्ती इलाके में 4 एकड़ खेतिहर ज़मीन है. विनोद उस अस्पताल में बीस दिनों तक भर्ती रहे और गंगावणे परिवार ने बेड, दवाइयों, और लैब परीक्षण के लिए 3.5 लाख रुपए चुकाए. जब 26 अप्रैल को विनोद की मौत हो गई, अस्पताल ने उनके परिवार से और दो लाख रुपए मांगे, जिसे देने से सुरेश ने इनकार कर दिया. उनके और अस्पताल के कर्मचारियों के बीच विवाद हुआ. सुरेश बताते हैं, "मैंने कहा कि मैं शव को लेकर नहीं जाऊंगा." तब तक विनोद का शव पूरे दिन अस्पताल में पड़ा रहा, जब तक अस्पताल अपनी मांग से पीछे नहीं हटा.
चिरायु अस्पताल के मालिक डॉक्टर वीरेंद्र गावली कहते हैं कि विनोद को स्वास्थ्य बीमा के तहत भर्ती इसलिए नहीं दी गई, क्योंकि सुरेश ने उसका आधार कार्ड जमा नहीं किया. सुरेश इस बात से इनकार करते हुए कहते हैं, "ये सच नहीं है. अस्पताल ने योजना को लेकर कोई बात नहीं की."
डॉक्टर गावली का कहना है कि अस्पताल की स्वास्थ्य सुविधाएं काफी सीमित हैं, "लेकिन जब मामले काफ़ी बढ़ने लगे तो प्रशासन ने हमसे कहा कि हम अस्पताल में कोरोना मरीज़ का इलाज़ करें. मुझसे कहा गया कि मैं उनकी देखभाल करूं और अगर मामला बिगड़ जाए तो उनको दूसरे अस्पताल में रेफ़र करूं."
इसलिए, अस्पताल में भर्ती होने के 12-15 दिन बाद जब विनोद को सांस लेने में दिक़्क़त होने लगी, डॉक्टर गावली ने उनके परिवार से मरीज को दूसरे अस्पताल में ले जाने की सलाह दी. "वे नहीं माने. हमने पूरी कोशिश की उसे बचाने की. लेकिन, 25 अप्रैल को उन्हें हर्ट अटैक आया और अगले दिन उसकी मौत हो गई."
सुरेश कहते हैं कि विनोद को दूसरे अस्पताल में ले जाने का मतलब होता कि हमें उस्मानाबाद में कोई दूसरा ऑक्सीजन बेड ढूंढना पड़ता. परिवार पहले से ही काफ़ी मुश्किलों से गुज़र रहा था. विनोद और सुरेश के 75 वर्षीय पिता विट्ठल गंगावणे की मौत कोरोना संक्रमण से कुछ ही दिन पहले हुई थी. लेकिन, इसके बारे में हमने विनोद को कुछ नहीं बताया. विनोद की पत्नी सुवर्णा (40 वर्षीय) बताती हैं, "वह पहले से ही काफ़ी डरे हुए थे. जब भी वार्ड में किसी मरीज की मौत होती, वह बहुत परेशान हो जाते थे."
कल्याणी बताती हैं कि विनोद लगातार अपने पिता के बारे में पूछते रहे. कल्याणी विनोद की बेटी हैं और उनकी उम्र महज़ 15 साल है; वह बताती हैं: "लेकिन हमने हर बार टाल दिया. उनके मरने के दो दिन पहले हम दादी (विनोद की मां लीलावती) को अस्पताल ले गए, ताकि वे उन्हें देख सकें."
विनोद से मिलने से पहले लीलावती ने अपने माथे पर बिंदी लगाई, जबकि एक हिंदू विधवा के लिए ये प्रतिबंधित है. वे बताती हैं, "हम नहीं चाहते थे कि उसे किसी तरह का शक़ हो." लीलावती केवल कुछ ही दिनों के अंतराल पर, अपने पति और बेटे की मौत से काफ़ी सदमे में थीं.
सुवर्णा एक हाउसवाइफ़ हैं; वह कहती हैं कि उनके परिवार को इस आर्थिक संकट से निकलने में लंबा समय लग जाएगा. "मैंने अपने गहने गिरवी रख दिए और अस्पताल का बिल चुकाने में परिवार की सभी जमा-पूंजी ख़र्च हो गई." वे कल्याणी के डॉक्टर बनने के सपने के बारे में बताती हैं. "मैं अब कैसे उसके सपने को पूरा करूंगी? अगर अस्पताल ने हमें योजना का लाभ दिया होता, तो हमारी बेटी का भविष्य इस तरह दांव पर नहीं लगा होता."
योजना के डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर विजय भूटेकर बताते हैं कि 1 अप्रैल से लेकर 12 मई के बीच उस्मानाबाद के निजी अस्पतालों में केवल 82 कोरोना मरीज़ों का इलाज एमजेपीजेएवाई के तहत हो रहा था. बीड ज़िले के कोऑर्डिनेटर अशोक गायकवाड़ कहते हैं कि उनके यहां 17 अप्रैल से 27 मई के बीच 179 मरीजों ने निजी अस्पतालों में योजना का लाभ उठाया. ये आंकड़े अस्पताल में भर्ती मरीजों की संख्या का छोटा सा अंश भर हैं.
बीड ज़िले के अंबाजोगाई शहर में काम कर रही एक ग्रामीण विकास संस्था, मानवलोक से जुड़े कर्मचारी अनिकेत लोहिया कहते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारने और उन्हें मजबूत बनाने की ज़रूरत है, ताकि लोग निजी अस्पताल न जाएं. "हमारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और ग्रामीण उप-केंद्रों में कर्मचारियों की संख्या बेहद कम है, इसलिए लोगों को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलती हैं."
मार्च 2020 में कोरोना वायरस के यहां आने के बाद से, एमजेपीजेएवाई ऑफ़िस के पास महाराष्ट्र के सभी कोनों से 813 शिकायतें सामने आई हैं, जिनमें से ज़्यादातर निजी अस्पतालों से जुड़ी हुई हैं. उनमें से केवल 186 शिकायतों को दूर किया जा सका है और अस्पतालों ने मरीजों को कुल 15 लाख रुपए लौटाए हैं.
लोहिया बताते हैं, "यहां तक कि बड़े सरकारी अस्पतालों में भी स्टॉफ़ की कमी है; डॉक्टर और नर्स मरीजों को ज़रूरी समय नहीं दे पाते हैं. भले ही वे उसका ख़र्च न उठा सकें, पर बहुत से मामलों में लोग निजी अस्पताल सिर्फ़ इसलिए जाते हैं, क्योंकि सरकारी अस्पताल उन्हें भरोसा नहीं दिला पाते."
इसीलिए, मई में जब विट्ठल फड़के कोरोना से बीमार पड़े, उन्होंने नज़दीकी सरकारी अस्पताल में बेड के लिए संपर्क नहीं किया. उनके भाई लक्ष्मण की मौत दो दिन पहले, कोरोना संक्रमण के कारण निमोनिया होने से हो गई थी.
अप्रैल 2021 के आखिरी सप्ताह में लक्ष्मण ने कोरोना के लक्षण महसूस किए. जब उनकी हालत काफ़ी तेजी से बिगड़ने लगी, तो विट्ठल उन्हें स्वामी रामानंद तीर्थ रूरल गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज (एसआरटीआरएमसीए) लेकर गए, जो उनके गृह ज़िले परली से 25 किमी दूर था. लक्ष्मण अस्पताल में केवल दो दिन रहे.
सरकारी अस्पताल में भाई की मौत से आहत विट्ठल जब सांस लेने में तक़लीफ़ महसूस करने लगे, तो एक निजी अस्पताल में गए. लक्ष्मण की 28 वर्षीय पत्नी रागिनी बताती हैं, "वह अस्पताल (एसआरटीआरएमसीए) रोज़ाना ऑक्सीजन के लिए परेशान करता है. डॉक्टर और स्टॉफ़ तब तक मरीजों को नहीं देखते हैं, जब तक कई बार चिल्लाएं न. वे एक साथ कई मरीजों को देख रहे होते हैं. लोग इस वायरस से डरे हुए हैं और उन्हें सही देखभाल चाहिए. उन्हें डॉक्टर का भरोसा चाहिए. इसलिए, विट्ठल ने (निजी अस्पताल में इलाज को लेकर) पैसों के बारे में नहीं सोचा."
विट्ठल ठीक हो गए और अस्पताल ने एक हफ़्ते के भीतर उन्हें छुट्टी दे दी, लेकिन वे ज़्यादा समय तक सुकून से न रह सके. अस्पताल ने उन्हें 41000 रुपए का बिल पकड़ाया. वे पहले ही दवाओं पर 56000 रुपए ख़र्च कर चुके थे. इतने रुपए तो वह या उनके भाई क़रीब 280 दिन काम करके कमा पाते थे. वे अस्पताल के सामने छूट के लिए गिड़गिड़ाए, लेकिन कोई राहत न मिली. रागिनी कहती हैं, "हमें बिल चुकाने के लिए उधार लेना पड़ा."
विट्ठल और लक्ष्मण, परली में ऑटोरिक्शा चलाकर गुज़ारा करते थे. रागिनी बताती हैं, "लक्ष्मण दिन में रिक्शा चलाते थे और विट्ठल रात में. अक्सर दिन भर में वे दोनों 300 से 350 रुपए कमा लेते थे. लेकिन, मार्च 2020 में लॉकडाउन के बाद से उन दोनों की कमाई बेहद कम हो गई थी. बहुत कम लोग ऑटोरिक्शा से चलना चाहते थे. केवल हम ही जानते हैं कि हमने कैसे गुज़ारा किया है."
रागिनी एक हाउसवाइफ़ हैं और उनके पास एमए की डिग्री है. वे परेशान हैं कि वे अब कैसे अपने दो बच्चों (7 साल की कार्तिकी और नवजात मुकुंदराज) का पालन-पोषण करेंगी. "मुझे डर लग रहा है कि मैं लक्ष्मण के बिना इन्हें कैसे बड़ा करूंगी. हमारे पास पैसा नहीं है. यहां तक कि उनके अंतिम संस्कार के लिए मुझे पैसा उधार लेना पड़ा."
भाइयों का ऑटोरिक्शा उनके एक कमरे वाले घर, जहां वे दोनों अपने मां-बाप के साथ एक साथ रहते थे, के सामने एक पेड़ के नीच खड़ा था. ये ऑटोरिक्शा ही उनके परिवार की आमदनी का इकलौता सहारा है, जिसके ज़रिए वे अपना क़र्ज़ चुका सकते हैं. लेकिन, क़र्ज़ से छूट पाने का रास्ता अभी बहुत लंबा है, अर्थव्यवस्था की हालत काफ़ी खस्ता है और परिवार के पास एक चालक की कमी हो गई है.
इन सबके बीच, उस्मानाबाद के ज़िला मजिस्ट्रेट कौस्तुभ दिवेगांवकर निजी अस्पतालों द्वारा अधिक पैसा लिए जाने के मुद्दे की जांच कर रहे हैं. उन्होंने 9 मई को उस्मानाबाद शहर के सह्याद्री मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल को एक नोटिस भेजा, जिसमें बताया गया था कि 1 अप्रैल से 6 मई तक एमजेपीजेएवाई के तहत केवल 19 कोविड रोगियों का इलाज किया गया, जबकि उस दौरान अस्पताल में कोरोना के 486 मरीजों को भर्ती किया गया था.
मामले पर टिप्पणी करने से इनकार करते हुए, सह्याद्री अस्पताल के निदेशक डॉ. दिग्गज डापके-देशमुख ने मुझे बताया कि उनकी क़ानूनी टीम ने मजिस्ट्रेट के नोटिस का संज्ञान ले लिया है.
दिसंबर 2020 में, दिवेगांवकर ने एमजेपीजेएवाई को संचालित करने वाली स्टेट हेल्थ इश्योरेंस सोसायटी को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने शेंडगे अस्पताल को सूची से निकालने का अनुरोध किया था. उन्होंने अपने पत्र में अस्पताल को लेकर मरीजों की शिकायतों का ब्योरा दिया और शिकायतकर्ता मरीजों का ज़िक़्र भी किया. यह अस्पताल उस्मानाबाद से सौ किमी दूर उमरगा में है.
अस्पताल के बारे में की गई शिकायतों में, एक शिकायत एक फ़र्ज़ी रक्त जांच को लेकर थी, जिसे कई मरीजों से कराने के लिए कहा गया था. अस्पताल के ख़िलाफ़ एक शिकायत यह थी कि उसने कथित रूप से एक मरीज को एक वेंटीलेटर बेड का फ़र्ज़ी बिल पकड़ाया.
मजिस्ट्रेट की कार्रवाई के चलते यह अस्पताल अब एमजेपीजेएवाई नेटवर्क का हिस्सा नहीं है. हालांकि, इसके मालिक डॉ. आर.डी. शेंडगे का कहना है कि उन्होंने अपनी उम्र के कारण कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस योजना से बाहर निकलने का विकल्प चुना. वे यह कहकर, "मुझे भी डायबिटीज़ है," अपने अस्पताल के ख़िलाफ़ शिकायतों की जानकारी से इनकार करते हैं.
निजी अस्पताल मालिकों का कहना है कि एमजेपीजेएवाई आर्थिक रूप से एक व्यावहारिक योजना नहीं है. नांदेड़ के प्लास्टिक सर्जन डॉ. संजय कदम कहते हैं, “हर योजना को समय के साथ अपडेट करने की ज़रूरत होती है. इस योजना को लागू किए जाने के बाद से नौ साल हो चुके हैं, तब से ही राज्य सरकार ने इसके पैकेज को अपडेट नहीं किया है. योजना से जुड़े पैकेज अपनी शुरुआत (2012) से अब तक बदले नहीं हैं." डॉक्टर संजय कदम हॉस्पिटल वेलफ़ेयर एसोसिएशन के सदस्य हैं, जिसका गठन निजी अस्पतालों को प्रतिनिधित्व देने के लिए किया गया है. वे कहते हैं, "अगर आप साल 2012 के बाद से मंहगाई की दर को देखेंगे, तो पायेंगे कि एमजेपीजेएवाई के पैकेज काफ़ी कम हैं, ख़ासकर सामान्य ख़र्चे से भी आधा है."
एक सूचीबद्ध अस्पताल को अपने यहां के 25% बेड को एमजेपीजेएवाई के लाभ के दायरे में आने वाले मरीजों के लिए आरक्षित करना होता है. डॉक्टर कदम आगे कहते हैं, "अगर यह कोटा (25%) पूरा हो गया, तो अस्पताल किसी मरीज को इस योजना के तहत भर्ती नहीं कर सकता."
एमजेपीजेएवाई के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉक्टर सुधाकर शिंदे कहते हैं, "निजी अस्पतालों द्वारा भ्रष्टाचार और अनियमितता के कई मामले सामने आए हैं. हम इसे देख रहे हैं."
मार्च 2020 में, कोरोना वायरस के यहां आने के बाद से एमजेपीजेएवाई ऑफ़िस के पास महाराष्ट्र के सभी कोनों से 813 शिकायतें सामने आई हैं, जिनमें से ज़्यादातर निजी अस्पतालों से जुड़ी हुई हैं. उनमें से केवल 186 शिकायतों को दूर किया जा सका है और अस्पतालों ने मरीजों को कुल 15 लाख रुपए लौटाए हैं.
मानवलोक से जुड़े अनिकेत लोहिया कहते हैं कि आम तौर पर भ्रष्टाचार में संलिप्त और ज़्यादा पैसा उगाही करने वाले निजी अस्पतालों के पास अक्सर प्रभावशाली लोगों का समर्थन होता है, "इससे आम लोगों के लिए उनके ख़िलाफ़ कोई कदम उठा पाना मुश्किल हो जाता है."
पर जिस सुबह रामलिंग सनप की मौत आत्महत्या के कारण हुई, उनका परिवार दीप हॉस्पिटल के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना चाहता था. जब वे उस दिन अस्पताल पहुंचे, तो वहां कोई डॉक्टर नहीं था. रवि बताते हैं, "कर्मचारियों ने हमें बताया कि उनका शव पुलिस के पास भेज दिया गया है."
उनका परिवार सीधा एसपी के पास गया और वहां उन्होंने अस्पताल पर रामलिंग से पैसे मांगने का दबाव बनाने की शिकायत की, जिसके कारण रामलिंग की मौत हो गई. उनका कहना था कि रामलिंग की मौत अस्पताल की लापरवाही से हुई है, क्योंकि उस समय वार्ड में कोई कर्मचारी मौजूद नहीं था.
दीप अस्पताल ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा कि रामलिंग ऐसी जगह चले गए जहां वार्ड का कोई कर्मचारी उन्हें देख नहीं सकता था. "ये आरोप झूठा है कि अस्पताल ने उनसे लगातार पैसों की मांग की. अस्पताल ने परिवार से केवल 10,000 रुपए लिए हैं. उसकी आत्महत्या काफ़ी दुःखद है. हमें उसकी मानसिक सेहत के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं था."
प्रमोद मोराले इस बात से सहमत हैं कि उन्हें अस्पताल ने केवल 10000 रुपए का बिल दिया, "लेकिन उन्होंने हमसे 1.6 लाख रुपए लिए."
राजूबाई कहती हैं कि रामलिंग काफ़ी अच्छी हालत में था, "मरने से दो दिन पहले उसने फोन पर बताया कि उसने अंडा और मटन खाया. वह बच्चों के बारे में भी पूछ रहा था." फिर उसने अस्पताल के बिल के बारे में सुना. अपनी आख़िरी बातचीत में उसने अपनी परेशानी के बारे में बताया.
प्रमोद कहते हैं, "पुलिस ने कहा है कि वे इस मामले की जांच करेंगे, लेकिन अभी तक अस्पताल के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई है. ये बिलकुल ऐसा है जैसे ग़रीब के पास स्वास्थ्य का कोई अधिकार नहीं है."
अनुवाद: देवेश