खेत के बीच में ईंट और सीमेंट से बने पांच बाई दस फीट के चबूतरे पर लिखा है: ‘चेतन दादाराव खोब्रागड़े. जन्म: 8/8/1995. मृत्यु: 13/5/18’. उनके माता-पिता ने इस स्मारक का निर्माण उस स्थान पर किया जहां उनके बेटे को एक बाघ ने मार डाला था.
चेतन (23 साल) अपनी बड़ी बहन पायल की शादी होने का इंतज़ार कर रहे थे, फिर ख़ुद शादी करने की उनकी योजना थी. पायल (25 वर्ष) कहती हैं, “हमें पता था कि हमारे आसपास के इलाक़े में एक बाघ है. हम सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि वह एक बाघ द्वारा मारा जाएगा, वह भी हमारे अपने ही खेत पर.”
मई की गर्मी में उस दिन शाम के 6 बज रहे थे. चेतन अपनी गायों के लिए हरा चारा लाने आमगांव के अपने खेत पर गए थे. शाम के 7 बजे तक जब वह घर नहीं लौटे, तो उनके सबसे छोटे भाई साहिल (17) और चचेरे भाई विजय उन्हें ढूंढने निकले. उन्होंने चेतन का हंसिया ज़मीन पर पड़ा देखा. परिवार का पांच एकड़ का खेत उनके घर से सड़क पार करके, मुश्किल से 500 मीटर की दूरी पर स्थित है, जिसके आगे सागौन और बांस के सूखे और पतझड़ जंगल हैं.
दोनों चिल्लाए, “वाघ, वाघ [बाघ, बाघ]”, और दूसरों को मदद के लिए पुकारने लगे. कुछ दूरी पर, हरे कड्यालू चारे के बीच चेतन का क्षत-विक्षत शव पड़ा था. वह उस बाघ द्वारा मारा गया था जिसके बारे में पूरा गांव जानता था कि वह आसपास के इलाके में ही मौजूद है.
विजय खेत से सटे जंगलों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “हमने बाघ को जंगल में जाते हुए देखा था.” वह याद करते हुए बताते हैं कि वह पूर्णतः विकसित बाघ था जो शायद भूखा और प्यासा था.
सामुदायिक ज़मीन का सिकुड़ते जाना
इस छोटे से समुदाय के भीतर सामाजिक और राजनीतिक कार्यों का नेतृत्व करने वाले एक युवक की मौत ने आमगांव (स्थानीय लोग इसे आमगांव-जंगली कहते हैं) को एक भयावह और निराशाजनक चुप्पी में डुबो दिया. बारिश होने पर भी खेत बंजर ही रहे, क्योंकि लोग खेतों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे.
वर्धा ज़िले के सेलू तालुका का यह गांव, बोर टाइगर रिज़र्व के बफ़र ज़ोन (तटस्थ ज़ोनल क्षेत्र) में स्थित है. इस इलाक़े में, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत चरागाह या सामुदायिक भूमि के उपयोग, निर्माण कार्यों और चराई पर प्रतिबंध है. यह संरक्षित वनों के कोर एरिया (मुख्य क्षेत्र), जहां मानव प्रवेश को वन विभाग द्वारा निर्देशित किया जाता है, और क्षेत्रीय वनों या बफ़र से बाहर के इलाक़ों (जहां गांव बसे हैं) के बीच का एक क्षेत्र है.
बोर रिज़र्व, देश के नवीनतम और सबसे छोटे अभयारण्यों में से एक है, जो नागपुर से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. इसे जुलाई 2014 में टाइगर रिज़र्व बनाया गया, जो केवल 138 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को कवर करता है.
बफ़र और अधीनस्थ क्षेत्रों के कई गांवों की तरह, लगभग 395 लोगों की आबादी वाला आमगांव (जनगणना 2011), महाराष्ट्र के सुदूर पूर्वी क्षेत्र, विदर्भ में इंसानों और बाघ के बीच टकराव का एक केंद्र बन गया है. यहां 22,508 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में जंगल (2014 के फॉरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया के आंकड़े के अनुसार), छह टाइगर रिज़र्व और तीन महत्वपूर्ण अभयारण्य हैं.
आमगांव के पूर्व सरपंच बबनराव येवले (65 वर्ष) कहते हैं, “लेकिन अतीत में कभी भी हमने ऐसी त्रासदी नहीं देखी थी.” उनका संबंध ख़ानाबदोश पशुपालक गवली (वे ख़ुद को नंद-गवली कहते हैं) समुदाय से है, जो गवलाऊ नस्ल की देशी गाय पालते हैं. वह बताते हैं कि उनका समुदाय वर्षों से अपनी गायों को चरने के लिए जंगलों में छोड़ देता है, यह जानते हुए कि हिंसक जानवर उनमें से कुछ को मार देंगे. वह कहते हैं, “बाघों के लिए कुछ बछड़े छोड़ देने की हमारी प्रथा रही है...”
नंद-गवली साल के छह महीने, गर्मियों से लेकर दीपावली के बाद तक, अपने मवेशियों को चरने के लिए जंगल में छोड़ देते हैं और हर दिन उन्हें देखने के लिए जाते हैं. उन्हें सर्दियों में वापस घर तब लाया जाता है, जब गांव में उनके लिए चारा और पानी उपलब्ध रहता है.
हालांकि, बोर, जिसे पहली बार जून 1970 में वन्यजीव अभयारण्य के रूप में अधिसूचित किया गया था, के जुलाई 2014 में भारत के 47वें और महाराष्ट्र के छठवें टाइगर रिज़र्व घोषित किए जाने के बाद इसमें इंसानों के निवास और आवाजाही को प्रतिबंधित कर दिया गया. आमगांव चूंकि बफ़र ज़ोन में है, इसलिए वन विभाग ने लोगों के लिए कठोर नियम बना दिए हैं, जिसमें मवेशियों की आवाजाही और चराई पर प्रतिबंध भी शामिल है.
येवले कहते हैं, “हमारे और जंगलों के बीच सहजीविता का संबंध था. बोर को टाइगर रिज़र्व घोषित किए जाने के बाद यह रिश्ता टूट गया. हमें लगता है कि जंगल और वन्यजीव हमारे पर्यावरण का हिस्सा नहीं हैं.”
बाघों की बढ़ती आबादी
साल 2014 के अखिल भारतीय बाघ अनुमान सर्वेक्षण (जिसे बाघ की जनगणना भी कहा जाता है) से पता चला कि देश में बाघों की संख्या काफ़ी बढ़ी है, और साल 2010 के 1,706 के आंकड़े से बढ़कर, साल 2014 में 2,226 हो गई. बाघों की संख्या साल 2006 में केवल 1,411 थी. इस डेटा में गैर-संरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले बाघ शामिल नहीं हैं, जैसे कि बोर रिज़र्व के आसपास रहने वाले बाघ, जिनकी संख्या 2014 में आठ थी.
वन और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा साल 2011 की टाइगर एस्टीमेशन रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि इंसानों और बाघों के बीच टकराव बढ़ सकता है. रिपोर्ट ने इस बात के लिए इस तथ्य की ओर इशारा किया था कि भारत भर में बाघों के कुल जितने भी इलाक़े हैं उनमें से केवल 10 प्रतिशत इलाक़े में ही प्रजनन करने वाले बाघ केंद्रित होकर रह गए हैं. बाघों की साल 2018 की गणना अभी जारी है और अधिकारियों को उम्मीद है कि उनकी संख्या और बढ़ी होगी, जो इंसानों और बाघों के बीच टकराव में वृद्धि का भी संकेत है.
बाघों की बढ़ती आबादी अपने इलाक़ों से निकलकर गांवों में भटकने लगी है. मार्च से जून 2018 के आरंभ तक, बाघों के हमलों में तेज़ी देखी गई - पूरे विदर्भ में ऐसे कम से कम 20 हमले हुए. ये सभी घटनाएं संरक्षित जंगलों के बाहर हुईं. यह समस्या पहले नागपुर से लगभग 150 किलोमीटर दूर, चंद्रपुर ज़िले के ताडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व (टीएटीआर) के आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित थी, और ऐसा मालूम पड़ता है कि अब विदर्भ के अन्य भागों में भी फैल चुकी है.
टीएटीआर के आसपास के गांवों के अलावा, नागपुर ज़िले के उत्तरी क्षेत्र में स्थित जंगलों; यवतमाल के घने जंगलों; और वर्धा के बोर टाइगर रिज़र्व के आसपास से बाघ के हमलों की सूचना मिली है. आख़िरी सूचना हाल ही में मध्य नवंबर में मिली थी, जब बाघ ने ब्रह्मपुरी शहर के पास के एक गांव में एक 60 वर्षीय महिला की हत्या कर दी थी.
ये सभी हमले खेतों में या गांवों से सटे जंगल में अचानक, आश्चर्यजनक रूप से घात लगाकर किए गए थे.
पश्चिमी विदर्भ में, यवतमाल ज़िले के ज़री-जामनी तालुका के हिवरा बारसा गांव में रहने वाले कोलाम आदिवासी, दामू अत्राम मई 2018 में अपने खेत पर काम कर रहे थे, तभी एक बाघ ने उन पर हमला कर दिया. गांव को लोगों की मदद से वह इस हमले में बच गए और केवल उनके सिर और गर्दन पर चोट आई थी. उन्हें समय पर सहायता मिल गई - उनके सिर में आठ और गर्दन पर पांच टांके लगे - और वह बाघ की कहानी के साथ ज़िंदा बच गए. अत्राम मुझसे कहते हैं, “मुझे चक्कर आता है और सिर भारी रहता है. मैं सुबह अपने खेत पर काम कर रहा था कि तभी वह पीछे से आया. मुझे पता नहीं था कि आसपास बाघ है. उसने मुझ पर धावा बोल दिया, लेकिन जब मैं चिल्लाया तो वह झाड़ियों में भाग गया.”
यहां से कुछ किलोमीटर दूर, नागपुर ज़िले की रामटेक तालुका के पिंडकपार गांव में 25 वर्षीय गोंड आदिवासी किसान, बीरसिंह बिरेलाल कोदवते अभी तक बाघ के हमले को भूल नहीं पाए हैं. मई की शुरुआत में एक दिन कोदवते अपने तीन वर्षीय बेटे विहान के साथ, मोटरबाइक से तेंदू के पत्ते इकट्ठा करने के लिए लंबी यात्रा पर निकले, जिसे वह बाद में सुखाकर बीड़ी के ठेकेदारों को बेचने वाले थे. कोदवते बांस और सागौन के घने जंगलों से घिरे बावनथडी जलाशय के समीप अपने खेत पर रहते हैं. लेकिन उन्होंने कभी बाघ का सामना नहीं किया था. यह क्षेत्र पेंच बाघ अभयारण्य के आसपास, और गोंडिया में नवेगांव-नागज़िरा टाइगर रिज़र्व तक फैले इलाक़े में आता है.
बीरसिंह याद करते हुए बताते हैं, “बाघ जंगल में सड़क के किनारे एक पुलिया में छिपा हुआ था. जब हम वहां से गुज़रे, तो वह हमारी बाइक पर कूदा और हमें अपने पंजों से मारा. हम भाग्यशाली थे कि उसके जबड़े से बच गए. मैं स्तब्ध रह गया था, वह एक बड़ा बाघ था.” दोनों ही ज़मीन पर गिर गए थे. गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद वह किसी तरह उठे, अपनी बाइक को फिर से स्टार्ट किया और अपने बेटे के साथ घर वापस आ गए.
चोट और भय से उबरने की प्रक्रिया में, पिता और पुत्र दोनों को नागपुर के सरकारी अस्पताल में एक सप्ताह बिताना पड़ा था. जब मैं बीरसिंह से मिला, तो उनके घाव ताज़ा थे - आंखें सूजी हुईं थीं और बाघ के नाखुनों से उनका कान छिला हुआ था. उनके चेहरे के बाईं ओर और सिर में गहरी चोटें आई थीं. विहान को, उनकी मां सुलोचना ने बताया कि “सिर में आठ टांके लगे थे. वह बच गया.”
तेज़ होती लड़ाई
चंद्रपुर ज़िले में टीएटीआर के आसपास सिंदेवाही और चिमूर तालुका में, जनवरी 2018 से अभी तक बाघ के हमलों में कम से कम 20 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि कई अन्य घायल हुए हैं. यह 2004-05 में हुई मौतों की याद ताज़ा कर रहा है. हाल के अधिकांश हमले जंगलों के आसपास के गांव या उनसे सटे खेतों पर हुए हैं.
गोंड आदिवासी किसान महादेव गेडाम (65), 4 जून को जब अपने खेत से ईंधन की लकड़ी लाने गए थे, तब एक बाघ ने उन पर हमला कर दिया. उनका खेत जंगल के एक टुकड़े से सटा हुआ है. ग्रामीणों ने बताया कि गेडाम ने शायद पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की थी, लेकिन हो सकता है कि जानवर ने उन्हें खींचकर मार दिया हो.
सिंदेवाही तालुका के मुरमाडी गांव में, पांच महीने के भीतर यह दूसरी मौत थी. जनवरी 2018 में इसी तरह के एक हमले में एक अन्य गोंड आदिवासी महिला गीताबाई पेंडाम (60 वर्ष) की मौत हो गई थी, जब वह ईंधन की लकड़ी इकट्ठा करने के लिए जंगल में गई थीं.
घटनास्थल गांव से बमुश्किल 500-800 मीटर की दूरी पर, सड़क के उस पार जंगल के घने हिस्से में हैं, जो बाघों को एक संकरा गलियारा प्रदान करता है.
गेडाम की मृत्यु से दो सप्ताह पहले, पड़ोसी गांव किन्ही के 20 वर्षीय मुकुंदा भेंडारे का बाघ द्वारा क्षतविक्षत किया गया शव जंगल में मिला था. टीएटीआर के उत्तरी भाग में स्थित चिमूर तालुका में 6 जून को, एक बाघ ने खेत पर काम कर रही चार महिलाओं के एक समूह पर हमला कर दिया, जिसमें से एक की मौत हो गई और बाक़ी तीन घायल हो गई थीं.
एक युवा वन-रक्षक स्वप्निल बडवाइक ने मुरमाडी की यात्रा के दौरान हमें बताया, “मेरे इलाक़े में जंगल का वह हिस्सा आता है जहां हाल के अधिकांश हमले हुए हैं. वहां 2-3 अल्पवयस्क बाघ रहते हैं. हम नहीं जानते कि मनुष्यों पर हमला करने वाला यह एक ही बाघ है या अलग-अलग हैं.”
इस बात की पुष्टि करने के लिए कि हमलों में कितने बाघ शामिल थे, उनकी लार (मानव शरीर से ली गई) और अन्य नमूनों को हैदराबाद के सेंटर फ़ॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी भेजा गया है, जो भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान परिषद का एक प्रमुख संस्थान है. यदि कोई बाघ समस्या बन जाता है, तो वन विभाग आमतौर पर उसे मारने का फ़ैसला करता है.
स्थानीय लोगों का कहना है कि इस साल सूखे ने स्थिति बिगाड़ दी है. गर्मियों में आमतौर पर लोग तेंदू के पत्ते इकट्ठा करने जंगल में जाते हैं. यही वह समय होता है, जब बाघ भी पानी और शिकार की तलाश में घूम रहे होते हैं, क्योंकि दोनों चीज़ें संरक्षित क्षेत्र के बाहर दुर्लभ होती जा रही हैं. और बड़ी संख्या में अल्पवयस्क बाघ (जो अभी तीन साल से कम उम्र के हैं) अपना इलाक़ा बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
टीएटीआर अब पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र नहीं रहा. अपने इलाक़े में इंसानों की बढ़ती आबादी के बीच, जंगली जानवरों के अस्तित्व की यह लड़ाई हर गुज़रते साल के साथ नाटकीय और ख़ूनी रूप धारण करती जा रही है.
महाराष्ट्र में 2010 से जुलाई 2018 तक, वन्यजीवों के हमलों में लगभग 330 लोग मारे गए हैं. ये हमले ज़्यादातर बाघ और तेंदुए द्वारा किए गए थे. महाराष्ट्र वन विभाग की वन्यजीव शाखा द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, 1,234 लोग गंभीर रूप से घायल हुए और 2,776 लोगों को मामूली चोटें आईं. यह डेटा पूरे राज्य से इकट्ठा किया गया है, लेकिन इनमें से अधिकतर घटनाएं विदर्भ के टाइगर रिज़र्व और अभयारण्यों के आसपास हुई हैं.
विदर्भ में, इसी अवधि में, संगठित गिरोहों द्वारा कम से कम 40 बाघों का शिकार किया गया. पिछले 10 वर्षों में वन विभाग द्वारा ‘समस्या’ बन चुके चार बाघों को मार दिया गया, कई अन्य को पकड़कर नागपुर और चंद्रपुर के चिड़ियाघरों या बचाव केंद्रों में भेज दिया गया, और कई अन्य बिजली के करेंट द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए.
बिखरते जंगल, बढ़ता गुस्सा
महाराष्ट्र के मुख्य वन संरक्षक प्रमुख (वन्यजीव) अशोक कुमार मिश्रा कहते हैं कि इस टकराव के दो मुख्य कारण हैं: “एक तरफ़, बाघों की आबादी संरक्षण के हालिया प्रयासों के कारण बढ़ रही है, जिसमें उनके संगठित शिकार पर कड़ी नज़र रखना भी शामिल है. दूसरी ओर, मानवजनित उच्च दबाव है, जिसमें वनों पर बढ़ती निर्भरता और बढ़ती मानव जनसंख्या शामिल है.”
नागपुर के एक बाघ विशेषज्ञ नितिन देसाई का कहना है, “मेरे पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि शिकारियों का कोई संगठित गुट मौजूद है, ख़ासकर 2013 के बाद [जब वन विभाग ने शिकारियों के खिलाफ़ गश्त को तेज़ कर दिया था].” नितिन, वाइल्डलाइफ़ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ़ इंडिया के साथ काम कर रहे हैं. वह आगे कहते हैं कि इन इलाक़ों में बीते पांच साल में बाघों को बड़े पैमाने पर ग़लत तरीक़े से नहीं मारा गया है. इससे बाघों की आबादी के प्राकृतिक विकास में मदद मिली है.
देसाई बताते हैं, “इन क्षेत्रों में पहले अगर 60 बाघ होते थे, तो उसी इलाक़े में आज 100 होंगे. वे आख़िर जाएंगे कहां? हम उसी क्षेत्र में बाघों की बढ़ती आबादी का प्रबंधन कैसे करेंगे? हमारे पास कोई योजना नहीं है.”
और इंसानों के साथ बाघों के टकराव को सीमा के संदर्भ में देखा जा सकता है: विदर्भ के जंगल, बल्कि मध्य भारत के सभी जंगल, सड़कों सहित कई विकास परियोजनाओं के कारण तेज़ी से खंडित हो रहे हैं.
मिश्रा कहते हैं कि बाघों के आवास सिकुड़ रहे हैं या खंडित हो गए हैं, जानवरों के पारंपरिक इलाक़े ख़त्म हो रहे हैं, जिससे उन्हें घूमने की कोई जगह नहीं मिल रही है. मिश्रा सवाल करते हैं कि ऐसे में आप टकराव के अलावा और क्या उम्मीद करते हैं? “यदि हमने अपने प्रयासों पर अंकुश नहीं लगाया, तो यह संकट और भी गहराता चला जाएगा.”
उनके ये तर्क, पूर्वी विदर्भ के बाघों के इलाक़े में वनों के विखंडन को समझने के लिए उनके कार्यालय द्वारा देहरादून के भारतीय वन्यजीव संस्थान से कराए गए अध्ययन पर आधारित हैं. यह पूर्व में किए गएअध्ययनों का विस्तार था, जिसमें वनों के विभाजन को बाघों और वन्यजीव संरक्षण के लिए एक बड़ी चुनौती बताया गया है.
फ़ॉरेस्ट फ़्रैग्मेंट्स इन ईस्टर्न विदर्भ लैंडस्केप, महाराष्ट्र - द टिग-सॉ पज़ल शीर्षक वाली 37 पन्ने की रिपोर्ट जुलाई 2018 में जारी की गई थी. इसमें बताया गया कि इस पूरे क्षेत्र में जंगलों के केवल छह हिस्से हैं - प्रत्येक 500 वर्ग किलोमीटर से अधिक - जिन्हें बाघों के रहने के लिए अनुकूल कहा जा सकता है. उनमें से चार गढ़चिरौली में हैं, जहां अब बाघों की आबादी मौजूद नहीं हैं; और यह पूर्व में संघर्ष क्षेत्र हुआ करता था.
वनों के बाक़ी ज़्यादातर हिस्से 5 वर्ग किलोमीटर से भी छोटे हैं और बाघों के रहने के लिए अनुकूल नहीं हैं.
भारतीय उपमहाद्वीप के जैव विविधता वाले क्षेत्र में, जिसमें नेपाल और बांग्लादेश भी शामिल हैं, पिछले अध्ययनों ने 59 ‘बाघ संरक्षण इकाई’ (टीसीयू) की पहचान की थी, जो 325,575 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को कवर करते हैं, और डब्ल्यूआईआई रिपोर्ट के मुताबिक़ इनमें से केवल 54,945 वर्ग किलोमीटर (16.87 प्रतिशत) ही संरक्षित हैं. मध्य भारतीय भूदृश्य (सीआईएल) में टीसीयू का 107,440 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र आता है, जिसमें से 59,465 वर्ग किलोमीटर में प्रथम और द्वितीय श्रेणी के टीसीयू हैं - जो संरक्षण के दृष्टिकोण से प्राथमिकता वाले आवासों का संकेत देते हैं.
डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट कहती है कि सीआईएल और पूर्वी घाटों की पहचान, बाघ संरक्षण के लिए वैश्विक प्राथमिकता वाले भूदृश्य के रूप में की गई है. इस क्षेत्र में बाघों की वैश्विक आबादी का लगभग 18 प्रतिशत हिस्सा रहता है. साल 2016 के वैश्विक आंकड़ों के अनुसार, 3,900 बाघ वनों में (और अज्ञात संख्या क़ैद में) बचे हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि मध्य भारत में बाघों की आबादी अत्यधिक खंडित गलियारों और कृषि के कारण कम हुई है.
डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट कहती है: “पूर्वी विदर्भ में वनों का कुल क्षेत्र 22,508 वर्ग किलोमीटर है, जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 35 प्रतिशत है, जहां संरक्षित क्षेत्र के अंदर और बाहर बाघों की आबादी लगभग 200 या उससे अधिक है.” रिपोर्ट में कहा गया है कि इस क्षेत्र को 45,790 किलोमीटर लंबी सड़क ने (मार्च 2016 तक) विभाजित कर दिया है, जिसमें राष्ट्रीय राजमार्ग, राज्य राजमार्ग, ज़िलों की सड़कें और गांव की सड़कें शामिल हैं. सड़कों के कारण हुए विखंडन ने वनों के 517 नए छोटे हिस्से बनाए हैं, जो एक वर्ग किलोमीटर से भी छोटे हैं और कुल 246.38 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कवर करते हैं.”
चंद्रपुर ज़िले में विशेष रूप से आधारभूत परियोजनाओं में उछाल देखा जा रहा है - विदर्भ के बाक़ी हिस्सों में भी यही हो रहा है.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि विदर्भ में सड़क निर्माण सहित बुनियादी ढांचे का तेज़ी से विकास हो रहा है: महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस नागपुर से हैं; वित्त और वन मंत्री सुधीर मुनगंटीवार चंद्रपुर से हैं; ऊर्जा मंत्री चंद्रशेखर बावनकुले नागपुर ग्रामीण से हैं; केंद्रीय भूतल परिवहन और जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी भी नागपुर से हैं.
हालांकि, इन नेताओं में से किसी को भी यह एहसास नहीं है कि इस विकास से वन्यजीवों को कितना नुक़सान हो रहा है; ख़ासकर बाघों को, जिन्हें नए क्षेत्रों की तलाश में संरक्षित जंगलों से बाहर निकलने के लिए निकटवर्ती गलियारों की आवश्यकता है.
चार-लेन वाली सीमेंट की दो सड़कें, - पूर्व-पश्चिम चार-लेन राजमार्ग (एनएच-42) और उत्तर-दक्षिण गलियारा (एनएच-47) - जो नागपुर से गुज़रती हैं, ने विदर्भ के वन क्षेत्र को विभाजित कर दिया है. इतना ही नहीं, महाराष्ट्र सरकार चंद्रपुर ज़िले में टीएटीआर के आर-पार जाने वाले राज्यीय राजमार्गों को चौड़ा कर रही है.
इसके अलावा, पिछले एक दशक में भंडारा ज़िले के गोसेखुर्द के बड़े बांध से दाहिने किनारे को लगती हुई 80 किलोमीटर लंबी नहर बनाई गई है, जो टीएटीआर से निकलने वाले पूर्व-पश्चिम गलियारों के बीच से गुज़रती हुई पश्चिम में नवेगांव-नागज़िरा टाइगर रिज़र्व तक फैली हुई है.
चंद्रपुर में इको-प्रो नामक एक एनजीओ चलाने वाले संरक्षण कार्यकर्ता बंडू धोत्रे कहते हैं, “इंसानों से ज़्यादा, विकास परियोजनाओं ने विदर्भ में बाघ के प्राकृतिक गलियारों और फैलाव वाले मार्गों को छीना है.”
इंसानों की मौत, मवेशियों की मौत, बाघों की मौत और बाघों के साथ मुठभेड़ों की संख्या वैसे तो काग़ज़ पर लगभग स्थिर है, लेकिन ज़मीनी स्थिति बिल्कुल अलग है. और जनता का ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा है.
उदाहरण के लिए, बाघ के आश्चर्यजनक हमले में चेतन खोब्रागड़े की मौत के बाद, टाइगर रिज़र्व के आसपास के लगभग 50 गांवों में वन विभाग के ख़िलाफ़ पूरे मई महीने में विरोध प्रदर्शन चलता रहा. सड़कों पर विरोध प्रदर्शन हुआ, गांवों के आसपास रैलियां निकाली गईं और वर्धा शहर में जिला संरक्षक के कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया गया. ग्रामीणों की एक मांग यह भी थी कि उन्हें टाइगर रिज़र्व से दूर, कहीं और बसाया जाए.
ताडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व के आसपास भी लंबे समय से इसी तरह का विरोध प्रदर्शन चल रहा है. इंसानों और बाघों की यह लड़ाई जारी है, जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा है.
इस लेख के अन्य संस्करण मूल रूप से मोंगाबे और बीबीसी मराठी पर जुलाई 2018 में प्रकाशित किए गए थे.
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टी-1 बाघिन के मारे जाने की कहानी
‘
उनके सही-सलामत घर लौट आने पर, मैं बाघ का धन्यवाद करती हूं
’
टी-1 बाघिन: हमलों के निशान और आतंक का साया
अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़