मीना यादव कोलकाता के लेक मार्केट में आपन सामान बेचे बइठल बाड़ी. उनकरा लगे कबो कवनो ग्राहक, कबो कवनो राहगीर रस्ता पूछे आवत बा. कबो कोई दोस्त भेंट जात बा. मीना केहू से भोजपुरी, केहू से हिंदी, त केहू से बंगाली में बतियात बाड़ी. लेक मार्केट दक्षिण कोलकाता के बहुसांस्कृतिक केंद्र मानल गइल बा. ऊ बतइली, “कोलकाता में ई (भाषा) कवनो समस्या नइखे.” बिहार से कोलकाता आके बसल एगो प्रवासी के रूप में, मीना आपन रोज के जिनगी के दिक्कत बतावत बाड़ी.
“‘बिहारी लोग बिहार में रही’, ई खाली कहे के बात बा (बिहारी लोग बिहार में रहेगा, ये सिर्फ कहने की बात है). असली बात ई बा कि जेतना कड़ा मिहनत वाला काम बा, हमनिए करेनी. इहंवा कुली, पानी ढोवे, बोझा ढोवे के काम बिहारी मजूर ही करेला. बोझा ढोवल बंगाली लोग के बस के बात नइखे. रउआ न्यू मार्केट, हावड़ा, सियालदह चल जाईं… उहंवा बिहारी लोग आपन कंधा, माथा आउर पीठ पर बोझा ढोवत मिल जाई. बाकिर एतना मिहनत कइलो पर इहंवा इज्जत नइखे. बिहारी सभे के इज्जत से बाबू…बाबू… पुकारेला, बाकिर बिहारी के लोग नीचा नजर से देखेला. आम के गूद्दा बंगाली उड़ावेला, आ बिहारी के खाली आंठी (गुठली) चाभे के मिलेला.” मीना एक सांस में कह गइली.
मीना यादव भाषा आउर अस्मिता के राजनीति के बीच बड़ी होसियारी से आपन बात कहत बाड़ी.
बिहार में छपरा जिला के रहे वाली, 45 बरिस के मीना बतावत बाड़ी, “चेन्नई में हमनी के परेसानी (बोले बतियावे) होखत रहे. ऊ लोग बिहारी चाहे भोजपुरी बोलला पर जबाबे ना देवे. खाली आपन भाषा में बतियावे, जे हमनी के समझ ना आवे. बाकिर इहंवा (पश्चिम बंगाल) अइसन नइखे. देखीं, बिहार के कवनो एगो बोली नइखे. घर में हमनी के 3-4 गो भाषा चलेला. कबो भोजपुरी में बोलिले, कबो हिंदी में, कबो दरभंगिया (मैथिली) त कबो बंगाली में भी. खासकर के हमनी के दरभंगिये चलेला.”
“हमनी इहंवा आरा-छपरा के भी बोली चलेला. कवनो दिक्कत नइखे, जब जइसन भइल, बोली बोल लेवेनी” बड़ा सरल भाव से ढेरे बोली के बारे में बतावत बाड़ी. एतना बोली जनला के बादो ऊ एकरा आपन कवनो खास हुनर ना मानेली.
अंतरराष्ट्रीय स्तर के संगठन यूनेस्को (अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा के आयोजन करे वाला) के महानिदेशक के एकरा पीछे मकसद रहल, दुनिया भर में आपन भाषा-संस्कृति के प्रति लोग में रुझान पैदा होखे, जागरुकता फैले, मान बढ़े. मीना खातिर ई एकदम सोझ बात हवे. उनकरा हिसाब से मालिक, नौकरी देवे वाला, ग्राहक आउर जे समाज में ऊ लोग काम करे गइल बा, उहंवा के भाषा जानल जरूरी हवे. ऊ कहतारी, “बहुते भाषा जानल नीमन बात बा. बाकिर हमनी एह से सिखनी, काहेकि जिंदा रहे के बा.”
अबकी बेर पारी के टीम अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के मौका पर मीना जइसन गरीब प्रवासी मजूर से मिलल. ई सभे लोग आपन गांव देहात से पलायन करके, शहर आइल बा. जे भाषा में पैदाइश भइल, ऊ पीछे छूट गइल. सभे कोई देस के अलग अलग इलाका से बा. हमनी उनकर भाषाई दुनिया, अइसन दुनिया जेकरा ऊ लोग बनावेला, रहेला आउर बचावे के कोशिश करेला, के बारे में जाने के कोशिश कइनी.
शंकर दास एगो प्रवासी मजदूर हवें. ऊ पुणे में रहेलें. जब ऊ असम के काछार जिला के सिलचर शहर में आपन घर लउटलन, त उनकरा अजीब परेसानी भइल. जरैलतला में जब ऊ बड़ होखत रहस, त उनकरा आस पास बंगाली बोले वाला लोग जादे रहे. एहि से ऊ कबो असमिया, राज्य के सरकारी भाषा, ना सीख पइलन. जब ऊ 20 बरिस के हो कइलन, रोजी रोटी के तलाश में गांव से निकल गइलन. अबही पुणे में उनकरा रहत रहत करीब 15 बरिस हो गइल. इहंवा ऊ आपन हिंदी सुधारलन आउर मराठी बोले के सिख लेहलन.
शंकर बतइलें, “हमरा मराठी बोले बढ़िया से आवेला. हम पुणे में जगह-जगह घूमत रहिले. बाकिर हमरा असमिया ना आवे. समझ लीहिला, बाकिर बोल ना सकीं.” कोरोना में 40 बरिस के शंकर के पुणे में कारखाना में मजदूरी के काम छूट गइल. काम खातिर उनकरा असम लउटे के मजबूर होखे के पड़ल. जरैलतला, आपन गांव अइलन, बाकिर कवनो काम ना भेंटल. उहंवा से ऊ गुवाहाटी पहुंचलन. बाकिर उंहवो असमिया बोले ना आवे से, काम ना बनल.
मीना खातिर ई एकदम सोझ बात हवे. ऊ कहतारी, 'बहुते भाषा जानल नीमन बात बा. बाकिर हमनी एह से सिखनी, काहेकि जिंदा रहे के बा'
ऊ बतावत बाड़न, “इहंवा त बस पर चढ़ल मुहाल हवे, कवनो मालिक से बतियावल त बहुते बड़ बात बा. अब हम पुणे लउटे के सोचत बानी. उहंवा हमरा काम मिल जाई, आउर भाषा के भी कवनो परेसानी ना रही.”
गुवाहाटी से इहे कोई 2 हजार किमी दूर, देश के राजधानी में 13 बरिस के प्रफुल्ल सूरीन से भेंट भइल. सूरीन हिंदी सीखे के कोशिश करत बाड़ें, ना त उनकरा के स्कूल से हटा देहल जाई. एगो दुर्घटना में बाबूजी चल बसले. एकरा बाद मजबूरी में उनकरा नई दिल्ली के मुनिरका, उनकर ‘बुआ’ (बाबूजी के बहिन) लगे, आवे के पड़ल. झारखंड, गुमला में पहानटोली, आपन गांव से 1,300 किमी दूर. सूरीन कहत बाड़ें, “हमरा इहंवा मन ना लागे. केकरो हमार बोली, मुंदरी ना आवे. सभे हिंदी बोलेला.”
ऊ इहंवा आवे से पहिले आपन गांव के स्कूल में थोड़िका हिंदी आउर अंग्रेजी सीख लेले रहस. बाकिर केकरो बात समझे आउर आपन बात कहे खातिर एतना काफी ना रहे. दिल्ली में दू बरिस पढ़ाई आउर घर में ट्यूशन कइला के बाद अब कुछ आसानी भइल बा. ऊ “स्कूल, चाहे दोस्त लोग संगे खेले घरिया थोड़िका हिंदी बोल लेवेलन.” प्रफुल्ल सूरीन कहले, “बाकिर घर पर, हम बुआ से मुंदरिए में बतियाइले. इहे हमार बोली हवे, मातृभाषा हवे.”
टीम दिल्ली से कोई 1,100 किमी दूर छत्तीसगढ़ पहुंचल. उहंवा 10 बरिस के प्रीति से भेंट भइल. पता चलल कि ऊ स्कूल में ना पढ़े के चाहत बाड़ी, जेह में उनकर नाम लिखावल गइल बा. प्रीति आपन माई-बाबूजी संगे रहेली. बाकिर ऊ परदेस के भाषा से दूर रहेली.
लता भोई, 40 बरिस, आउर उनकर घरवाला, 60 बरिस के सुरेंद्र भोई मलुआ कोंध नाम के आदिवासी जनजाति से हवें. ऊ लोग उड़ीसा, कालाहांडी के केंदुपारा गांव से रायपुर आइल रहे. दूनो प्राणी इहंवा एगो प्राइवेट फार्महाउस में केयरटेकर के काम करेला. एह लोग के छत्तीसगढ़ी काम चलावे भर आवेला आउर फार्म में काम करे वाला उहंवा के मजूर सभे से बात कर सकेला. लता बतावत बाड़ी, “हमनी इहंवा काम के तलाश में 20 बरिस पहिले अइनी. हमार पूरा परिवार ओडिशा में रहेला. सभे कोई उड़िया बोलेला. बाकिर हमार लइकन लोग आपन बोली में पढ़े-लिखे के ना जानेलन. ऊ लोग एकरा में खाली बतिया सकेला. घरे हमनी सभे उड़िया बोलिला. बाकिर हमहूं उड़िया पढ़ आउर लिख ना सकीं. खाली बोले आवेला.” प्रीति उनकर सबसे छोट लइकी हई. उनकरा हिंदी कविता त खूब नीमन लागेला, बाकिर स्कूल तनिको ना जाए के चाहस.
प्रीति कहली, “हम आपन क्लास के बच्चा सभे से छत्तीसगढ़ी बोले के कोशिश करिला. बाकिर उहंवा अब पढ़े के मन ना करे. स्कूल में दोस्त लोग हमरा, ओड़िया-ढोड़िया कह के चिढ़ावेला.” छत्तीसगढ़ में ढोड़िया के मतलब अइसन सांप होखेला जेह में जहर ना होखे, आउर ऊ बहुते डरपोक होखेला. उनकर माई-बाबूजी लोग प्रीति के ओडिशा के सरकारी स्कूल में डाले के चाहत बाड़ें. ऊ लोग के कोशिश बा कि प्रीति के अनुसूचित जनजाति के कोटा से स्कूल में जगह मिल जाए.
मिहनत मजूरी करे वाला प्रवासी लोग के इहे कहानी बा. माई-बाबूजी, खेत-खलिहान, आपन जबान से कमे उमिर में बिछुड़े के दरद भाग में बद देहल गइल बा.
उत्तर प्रदेश के नागेंद्र सिंह खाली 8 बरिस में आपन जिला-जवार छोड़ के रोजगार खातिर निकल गइलन. ऊ बेंगलुरू में एगो क्रेन कंपनी में क्लीनर के काम करेलें. नागेंद्र, 21 बरिस, यूपी के कुशीनगर जिला में जगदीशपुरी गांव के रहे वाला हवें. गांव में ऊ भोजपुरी बोलेलें. ऊ बतावत बाड़ें, “भोजपुरी हिंदी से अलग होखेला. हम भोजपुरी में बतियाए लागम, त रउआ समझ ना आई,” उनकर ‘हम’ में बेंगलुरू के उत्तरी हिस्सा में निर्माण स्थल पर साथे रहे वाला तीन गो लोग, साथे काम करे वाला लोग आउर पेंटर शामिल बाड़ें. उनकरा संगे रहे वाला 26 बरिस के अली, 18 के मनीष आउर नागेंद्र लोग के उमिर, जाति, धरम, गांव सभ अलग बा, बाकिर मातृभाषा, भोजपुरी ओह लोग के एगो डोर में बांधले बा.
ई सभे लोग किसोर उमिर में आपन गांव छोड़े के मजबूर हो गइल. अली बतावत बाड़ें, “अगर रउआ हाथ में हुनर हवे, त कतहूं, कबो दिक्कत ना आई. इहंवा आवे से पहिले हम दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद इहंवा तक कि सऊदी अरब में भी काम कइले बानी. रउआ के आपन पासपोर्ट देखा सकिले. हम उहंवा हिंदी आउर अंग्रेजी सीखनी.” ई बहुत आसानी से अपने आप होखत चल गइल, ई कहत नागेंद्र भी हमनी के बातचीत में शामिल हो गइलन. ऊ बतइलन, “जहां कतहूं काम मिलेला, हमनी उहंवा चल जाइला. गांव के कवनो लरिका बुला लेवेला, हमनी आ जाइला (गांव का कोई लड़का बुला लेता है, तो हम आ जाते हैं).”
नागेंद्र संगे मदुरई के 57 बरिस के सुब्रह्मण्यम भी काम करेलें. उनकरा खाली तमिल आवेला. उनकरा बारे में नागेंद्र बतइलन, “हमनी इशारा से एक दूसरा के बात समझिले. जब कुछो बढ़ई के बतावे के होखेला, त हमनी इनकरे के बताविला. आउर ऊ जाके अंकल के बता देवेलन. बाकिर अपना में हमनी भोजपुरिए में बतियाइला. सांझ के खोली पर लौटिला, त खाना बनाइले आउर भोजपुरी गीत सुन के दिन भर के थकान उतारिले.” ऊ पॉकिट से मोबाइल निकाल के हमनी के आपन एगो मनपसंद गीत सुनावे लगलन.
अलग अलग इलाका आउर अलग अलग बोली बोले वाला लोग के आपन खान-पान, गीत-नाद, तीज-त्योहार, रीत रिवाज बा. ई सभ उनकर आपन आपन संस्कृति के पहचान बा. मातृभाषा के बारे में बतियावे घरिया एकर अनुभव भी भइल. एहि से जब मातृभाषा के बारे में बात भइल त, पारी से सभे लोग आपन संस्कृति के बारे में भी बतइलक.
बिहार के पातरपुर गांव में रहे वाला बसंत मुखिया 16 बरिस में मुंबई आइल रहस. ऊ आएल त रहस मैकेनिक बने, बाकिर उनकरा घरेलू सहायक के काम करे के पड़ल. हमनी जब उनकर मातृभाषा, मैथिली के बारे में पूछनी, त 39 बरिस के बसंत के आपन गांव-देहात इयाद आवे लागल. उहंवा के पकवान, तीज-त्योहार आउर गीत इयाद आवे लागल. बतावे लगलन, “हमरा सत्तू (भूनल काला चना के आटा) बहुते नीमन लागेला, आउर चूड़ा (पोहा) भी.” ऊ कहलन कि ई सभ मुंबई में भी मिल जाला, “बाकिर ओह में आपन गांव के स्वाद ना होखे.” बसंत अपना ओरी के खाए के कल्चर के बारे में बतावे लगले. उनकर चेहरा पर तनी उदासी छाइल रहे, “हमनी ओरी शनिचर (शनिवार) के रोज दिन में खिचड़ी आउर सांझ के भुज्जा खाइल जाला. चूड़ा (कूटल पकावल चाउर), मूंगफली, काला चना सभे के भूंज के ओह में कच्चा कड़ुआ तेल (सरसों तेल), नीमक, कच्चा पियाज (प्याज), हरियर मरिचाई आउर हरियर धनिया मिला के भूज्जा बनवाल जाला. मुंबई में त पते ना चले, कब शनिचर आवेला, कब चल जाएला.” बसंत के आवाज मेहराइल (उदास) रहे.
एगो आउर बात ऊ बहुते इयाद करेलें. गांव में होली खेले के आपन मजा बा. ऊ बतइलन, “टोली बना के यार-दोस्त लोग सुबहे निकल जाला. ऊ लोग एक दूसरा के घरे बिना बतवले धमक जाला. फेरु खूब रंग खेलल जाला. कबो कबो त एक-दूसरा के पटक के भी रंग लगावल जाला. खूब हंसी-मजाक चलेला. रंग खेलला के बाद सभे कोई के आग्रह कर-कर के मालपुआ (सूजी, मैदा, दूध आ चीनी से बनल एगो पकवान) आ मीट (मटन) खिलावल जाला. सांझ के हमनी ‘फागुन’, होली के गीत गाइले.” जब ऊ हमनी से बिदेसी भाषा (हिंदी) में बतियावत रहस, त उनकरा आंख के आगू गांव-माटी के तस्वीर आ गइल.
ऊ कुछ उदास होके कहे लगलें, “आपन माटी, आपन बोली के लोग संगे होली मनावे के मजा कुछो आउर बा.”
बाकिर राजू के अइसन ना लागेला. ऊ मूल रूप से अहमदाबाद के अमिलौटी गांव के रहे वाला हवें. पंजाब में पछिला 30 बरिस से रहत बाड़न. जात से अहिर, राजू घर पर अवधि बोलेलें. पहिल बेर अमृतसर अइलन त बहुते परेसानी उठावे के पड़ल. “बाकिर आज हम धड़ाधड़ पंजाबी बोलिले, आउर इहंवा सभे हमरा पसंद भी करेला.” राजू मुस्कुरात रहस.
पंजाब के तरन तारन जिला के पट्टी शहर में खुशी खुशी रहला के बादो ऊ कबो कबो उदास हो जालें. उनकरा अपना इहंवा के तीज-त्योहार बहुते याद आवेला. राजू इहंवा फल बेचे के काम करेलें. काम के बोझ चलते ऊ गांव ना जा पावेलन. ऊ कहले, “आपन त्योहार के इहंवा बिदेस में मनावल मुस्किल बा. जे त्योहार के 100 लोग मिलके मनावेला, ओह में खाली दू-चार गो लोग जुटी, त कइसे मजा आई?”
देस के दोसर छोर पर, शबाना शेख, 38 बरिस, भी इहे सवाल करत बाड़ी. शबाना राजस्थान से केरल आपन घरवाला संगे काम खातिर अइली. ऊ पूछत बाड़ी, “हमनी गांव में आपन परब त्योहार खूब धूमधाम से मनाइले. हमनी के कवनो संकोच ना होखे. बाकिर केरल में कइसे मनाईं?” ऊ कहे लगली, “दिवाली घरिया केरल में जादे रोशनी ना होखेला. बाकिर राजस्थान में हमनी इहंवा, घरे घरे माटी के दिया जलावल जाला. केतना सुंदर लागेला.” उनकर आंख में दिया जेका जल उठल.
हमनी जे भी प्रवासी मजदूर लोग से बात कइनी, सभे खातिर मातृभाषा, संस्कृति आउर स्मृति आपस में जुड़ल बा. घरे से दूर, देस में ही ‘बिदेसिया’ भइल ई लोग खुस आउर जिंदा रहे के आपन तरीका भी खोज लेले बा.
साठ पार कर चुकल मशरू रबारी के कवनो स्थायी घर नइखे. ऊ नागपुर, वर्धा, चंद्रपुर या यवतमाल के बीच घूमत रहेलें. मशरू गुजरात के कच्छ जिला से बाड़ें. विदर्भ के मध्य इलाका में पशु पाले आउर घुमाए के काम करेलें. ऊ कहलें, “एक तरह से कहल जाव, त हम वरहादी बानी.” ऊ एगो खास किसिम के रबारी पोशाक पहिनले बाड़े. देह के ऊपरी हिस्सा में चुन्नट वाला कमीज, नीचे धोती आउर उज्जर पगड़ी. ऊ विदर्भ के देसी संस्कृति से गहरे जुड़ल बाड़न. जरूरत पड़ला पर ऊ उहंवा के गाली भी दे सकेलें. एकरा बादो ऊ आपन माटी, आपन गांव के रीति-रिवाज से जुड़ल बाड़ें. जब ऊ एगो खेत से दोसर खेत घूमेलें, उनकर ऊंट के पीठ पर बहुते सामान गठरी बना के लादल रहेला. एह गठरी में लोककथा, विरासत में मिलल ज्ञान, गीत, पर्यावरण आउर पशुअन के दुनिया के बारे में पारंपरिक ज्ञान, आउर भी बहुत कुछ रहेला.
झारखंड में खुदाई करे के काम करे वाला, 25 बरिस के शनाउल्ला आलम बाड़े. अबहीं ऊ कर्नाटक के उडुपी में रहेलन. काम पर ऊ अकेले अइसन आदमी बाड़ें, जे धड़ाधड़ हिंदी बोलेला. अब उनकर मातृभाषा आउर उनकरा बीच मोबाइल ही पुल रह गइल बा. मोबाइल पर ऊ आपन परिवार, दोस्त से आपन भाषा में बतियावेलन. ऊ हिंदी, चाहे खोरथा में बात करेलें. खोरथा झारखंड के उत्तरी छोटानागपुर आ संथाल परगना में बोलल जाए वाला स्थानीय भाषा है.
झारखंडे से 23 बरिस के सोबिन यादव भी काम-काज खातिर इहंवा आइल बाड़ें. उहो आपन लोग से मोबाइल से ही जुड़ल बाड़ें. ऊ आपन मझगांव, “क्रिकेटर धोनी के घर से इहे कोई 200 किमी दूर” से चेन्नई कुछ बरिस पहिले अइलन. चेन्नई में एगो होटल में काम करेलें. बहुत मुस्किल से हिंदी बोल पावेलें. ऊ रोज सांझ के आपन मेहरारू से बतियावे घरिया खाली आपन मातृभाषा में बात करेलें. ऊ तमिल बोलेलन, “हम आपन मोबाइल पर हिंदी में डब कइल तमिल फिलिम भी देखिले.”
कश्मीर में, बिहार के मोतिहारी जिला के विनोद कुमार के कहनाम बा, “हिंदी, ऊर्दू, भोजपुरी… इहंवा कवनो बोली ना चले. अंग्रेजियो ना चले. खाली दिल के बोली चलेला.” मोतिहारी रहे वाला 53 बरिस के विनोद राजमिस्त्री बाड़न. कश्मीर, बारामुल्ला के पठान ब्लॉक में साजिद गनी के रसोई में दुपहरिया के खाना खात बाड़ें. साजिद उनकर मालिक बाड़ें. ऊ साजिद ओरी इशारा करत पूछत बाड़ें, “कतहूं कवनो मालिक के रउआ, अइसे आपन मजदूर संगे बइठ के खात देखले बानी?” विनोद कहले, “हमरा त नइखे लागत, ऊ हमार जात भी जानत होइंहे. गांव में त लोग हमार छुअल पानी भी ना पिएला. आउर इहंवा ऊ आपन रसोई में हमनी के बइठा के खियावत बाड़न आउर अपने भी साथे खात बाड़ें.”
विनोद के काम खातिर कश्मीर अइला 30 बरिस हो गइल. ऊ कहत बाड़ें, “हम कश्मीर 1993 में सबसे पहिले मजूरी करे अइनी. हमरा कश्मीर के बारे में कवनो खास जानकारी ना रहे. ओह घरिया, मीडिया भी एह तरह के ना रहे. अखबार में भी कोई खबर आवत होई, त हमरा ना पता. काहे कि हम ना त पढ़े के जानत बानी, ना लिखे के. हमनी के जब भी ठेकेदार बुलावेला, हमनी रोटी खातिर भागल आइले.”
ऊ कश्मीर में आपन पहिले के दिन इयाद करत बाड़ें, “हमरा अनंतनाग में एगो काम मिलल रहे. जउन दिन उहंवा पहुंचनी, अचानक सभे कुछ बंद हो गइल. कुछ दिन हम बिना काम भटकत रहनी. जेब में एगो कौड़ी ना रहे. बाकिर इहंवा के लोग मदद कइलक. हमनी 12 गो लोग गांव से साथे आइल रहनी. इहंवा के लोग हमनी के खिअइलक, पियइलक, रहे के जगह देलक. बताईं, दुनिया में कोई अइसन होखी जे बिना कवनो स्वार्थ के मदद करी.” विनोद पूछत बाड़ें. बात करे घरिया, मना कइला के बावजूद, साजिद विनोद के थाली में चिकन के एगो आउर पीस डाले के कोशिश करत बाड़ें.
विनोद कहत बाड़ें, “हमरा कश्मीरी भाषा, एगो ढेला ना समझ में आवे. बाकिर इहंवा सभे के हिंदी बूझाला. अभी तक त हमनी के नइया नीमन से पार होखत आवत बा.”
हमनी पूछनी, “भोजपुरी (उनकर मातृभाषा) के का हाल बा?”
ऊ कहलें, “का हाल होखी? गांव से कोई आवेला, त हमनी भोजपुरिए में बात करेनी. बाकिर इहंवा भोजपुरी के बोली? रउए बताईं…?” ऊ पूछे लगलन. फिर ऊ मुस्करात कहलन, “हम साजिद भाई के भोजपुरी तनी तनी सिखा देनी हैं. का हो साजिदभाई? कइसन बानी?”
साजिद जवाब देलें, “ठी बा.”
“थोड़ा-बहुत गड़बड़ होखेला. बाकिर अगिला बेर आएम त देखम, हमार ई भाई रउआ लोग खातिर रितेश (भोजपुरी अभिनेता) के गीत गइहें!”
पारी टीम खातिर अलग अलग जगह से रिपोर्ट कइल गइल ह. एह में दिल्ली से मोहम्मद क़मर तबरेज़, पश्चिम बंगाल से स्मिता खटोर, कर्नाटक से प्रतिष्ठा पांड्या आ शंकर एन., कश्मीर से देवेश, तमिलनाडु से राजासंगीतन, छत्तीसगढ़ से निर्मल कुमार साहू, असम से पंकज दास, केरल से राजीव चेलानाट, महाराष्ट्र से जयदीप हार्दिकर आउर स्वर्ण कांता, पंजाब से कमलजीत कौर के नाम शामिल बा. एकरा अलावा एह कहानी के संपादन प्रतिष्ठा पांड्या कइली. एह में मेधा काले, स्मिता खटोर, जोशुआ बोधिनेत्र आउर संविति अय्यर के संपादन सहयोग रहल. फोटो संपादन बिनाईफर भरूचा, वीडियो संपादन श्रेया कात्यायनी के हवे.
आवरण चित्रांकन: लाबनी जंगी
अनुवाद: स्वर्ण कांता