संपादक के क़लम से: यह स्टोरी तमिलनाडु की सात फ़सलों पर आधारित लेखों की श्रृंखला 'लेट देम ईट राइस' (उन्हें भात खाने दो) की पहली कड़ी है. पारी अगले दो साल में इस शृंखला की 21 मल्टीमीडिया रिपोर्टों को प्रकाशित करेगा, जिनमें फ़सलों की दुनिया के ज़रिए किसानों के जीवन को देखने की कोशिश होगी. अपर्णा कार्तिकेयन की इस शृंखला को बेंगलुरु स्थित अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से अनुदान के तौर पर सहयोग हासिल हुआ है.

तूतुकुड़ी के आसमान में जैसे-जैसे सूरज की लालिमा छाती है, रानी अपना काम शुरू कर चुकी होती हैं. वह लकड़ी के एक लंबे से चप्पू के साथ सबसे साधारण, लेकिन रसोई की सबसे ज़रूरी खाद्य सामग्री - नमक - निकालती हैं.

वह जिस आयताकार ज़मीन पर काम कर रही हैं उसकी निचली सतह (जो अब कुरकुरी हो गई है) को खुरचते हुए, उससे सफ़ेद दानेदार टुकड़ों को निकालकर एक ओर जमा करती हैं. हर बार जब वह उन टुकड़ों को ले जाकर दूसरी सतह पर रखती हैं, तो धीरे-धीरे नमक के टुकड़ों का ढेर बढ़ता जाता है और उनका ये थकान से भरा काम और भी ज़्यादा कठिन होता जाता है. क्योंकि 60 की उम्र में दस किलो भार वाले गीले नमक के ढेर को घसीटकर ले जाना कतई आसान नहीं है, जबकि उनका ख़ुद का वजन 40-45 किलो के आस-पास ही है.

और वह लगातार बिना रुके तब तक काम करती रहती हैं, जब तक उस 120×40 फ़ुट की ज़मीन पूरी तरह साफ़ न हो जाए और उसके पानी में उनकी परछाई न झलकने लगे. वह पिछले 52 साल से नमक निकालने का काम कर रही हैं. उससे पहले उनके पिता यह काम करते थे, अब उनका बेटा भी उनके साथ यही काम कर रहा है. यहीं अपने काम की जगह पर एस. रानी अपनी कहानी मुझे सुनाती हैं; साथ ही, दक्षिणी तमिलनाडु के तूतुकुड़ी ज़िले में स्थित 25,000 एकड़ के नमक के मैदानों की भी.

मार्च से अक्टूबर के मध्य तक, यह तटीय ज़िला नमक के उत्पादन के लिए उपयुक्त होता है, क्योंकि इस समय वहां की जलवायु गर्म और शुष्क होती है, और लगातार कम से कम छह महीने तक नमक उत्पादन को संभव बनाती है. यह ज़िला पूरे राज्य में नमक-उत्पादन में सर्वोच्च स्थान पर है, और देश-स्तर पर देखें, तो तमिलनाडु में 2.4 मिलियन टन नमक का उत्पादन होता है, जोकि भारत में कुल उत्पादन का 11% है. हालांकि, नमक उत्पादन में पहला स्थान गुजरात का है, जहां प्रति वर्ष भारत के कुल 22 मिलियन टन नमक के उत्पादन का 76% हिस्सा, यानी 16 मिलियन टन नमक प्राप्त होता है. यह राष्ट्रीय आंकड़ा, 1947 में नमक की पैदावार के 1.9 मिलियन टन के आंकड़े में आई ऊंची छलांग को ही दर्शाता है.

इस साल सितंबर के मध्य में पारी ने तूतुकुड़ी के राजा पांडी नगर के पास स्थित नमक के मैदानों का पहली बार दौरा किया. शाम को हम रानी और उनके साथियों से बातचीत के लिए मिले, जहां हम सभी नीम के एक पेड़ के नीचे कुर्सियां लगाकर एक घेरा बनाकर बैठे थे. उनके घर वहां से साफ़ दिख रहे थे; उनमें से कुछ ईंट की दीवारों और ऐस्बेस्टस की छतों वाले घर थे, वहीं बाक़ी सभी झोपड़ियां थीं, जिनके छप्पर काफ़ी हद तक भहरा चुके थे. नमक के ये मैदान (जहां नमक बनाया जाता है) सड़क से सीधा लगे हुए हैं और यहां कई पीढ़ियों से लोग काम कर रहे हैं. हमारी बातचीत शुरू होने तक शाम का धुंधलका छाने लगा था. हमारी बातचीत जल्द ही एक क्लास में तब्दील हो गई, जहां सोडियम क्लोराइड (NaCl, नमक का रासायनिक नाम) बनाने की जटिल प्रक्रिया पर चर्चा होने लगी.

At dawn, Thoothukudi's salt pan workers walk to their workplace, and get ready for the long hard hours ahead (Rani is on the extreme right in a brown shirt)
PHOTO • M. Palani Kumar
At dawn, Thoothukudi's salt pan workers walk to their workplace, and get ready for the long hard hours ahead (Rani is on the extreme right in a brown shirt)
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भोर के वक़्त, तूतुकुड़ी के नमक के मैदानों में काम करने वाले लोग अपने कार्यस्थल की ओर जा रहे हैं, और अगले कुछ बेहद कठिन और लंबे घंटों के लिए तैयार हो रहे हैं (रानी, भूरे रंग की शर्ट में सबसे दाहिनी ओर खड़ी हैं)

तूतुकुड़ी में इस 'फ़सल' को खारी मिट्टी (ये बी-संस्तर की मिट्टी होती है) से तैयार किया है, जिसमें समुद्र के खारे पानी की तुलना में नमक की मात्रा काफ़ी अधिक होती है. इसे बोरवेल के ज़रिए निकाला जाता है. 85 एकड़ तक फैले नमक के जिन मैदानों में रानी और उनकी सहेलियां काम करती हैं, उनमें सात बोरवेलों के ज़रिए चार इंच की ऊंचाई तक पानी भर दिया जाता है. (मोटे तौर पर हर एकड़ ज़मीन नौ भूखंडों में बंटी हुई है और उसमें क़रीब 4 लाख लीटर पानी छोड़ा जाता है. यह लगभग उतना ही है जितना कि दस हज़ार लीटर की क्षमता वाले 40 बड़े टैंकर पानी का संग्रहण कर सकते हैं.)

बहुत कम लोग ही ऐसे हैं जो उप्पलम (नमक के मैदान) के बारे में बी. एंथनी सैमी से बेहतर जानकारी रखते हैं, जिन्होंने अपने जीवन के पिछले 56 सालों में अपना ज़्यादातर समय नमक के खेतों में काम करते हुए बिताया है. उनका काम अलग अलग मैदानों में पानी के स्तर को देखना है. सैमी इन भूखंडों को आन पाती (पुरुष-क्यारी) कहते हैं, जहां पानी को प्राकृतिक रूप से सुखाया जाता है; यानी ये एक उथले नमक के कृत्रिम मैदान होते हैं जो 'पानी को भाप में बदलने वाले उपकरण' के तौर पर काम करते हैं. वहीं दूसरी ओर पेन पाती (महिला-क्यारी), नमक को जन्म देती हैं और नमक को 'क्रिस्टलीकृत' करती हैं.

"नमकीन पानी को निकाला जाता है और सबसे पहले आन पाती को भरा जाता है."

इसके बाद, उनकी सारी बातें तकनीकी जानकारियों से भरी थीं.

लवणता की माप बॉम हाइड्रोमीटर द्वारा की जाती है, जिसकी ईकाई डिग्री में होती है. बॉम हाइड्रोमीटर एक ऐसा उपकरण है जो तरल पदार्थों के विशिष्ट गुरुत्व को मापता है. आसुत जल की लवणता शून्य होती है. समुद्री जल के लिए, इसकी माप 2 से 3 बॉम डिग्री होती है. बोरवेल के पानी की लवणता 5 से 10 डिग्री हो सकती है. नमक का निर्माण तब होता है, जब ये 24 डिग्री तक पहुंच जाए. सैमी कहते हैं, "जैसे-जैसे पानी का वाष्पीकरण होता है, उसकी लवणता बढ़ती है. फिर उसे क्रिस्टलीकरण के लिए भेज दिया जाता है."

The salinity is measured in degrees by a Baume hydrometer.
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Carrying headloads from the varappu
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बाएं: लवणता को बॉम हाइड्रोमीटर द्वारा डिग्री में मापा जाता है. दाएं: वरप्पु पर इकट्ठा नमक को सिर पर उठाकर ले जाते हुए

अगले दो हफ़्तों के लिए, यहां की औरतें अपने साथ एक भारी-भरकम लोहे का डंडा घसीटकर लाती हैं, जिससे वे हर सुबह पानी में घुमाते हुए चलाती हैं. एक दिन वे मैदान की लंबाई की दिशा में और दूसरे दिन उसकी चौड़ाई की दिशा में उसे घुमाती हैं, ताकि नमक के क्रिस्टल मैदान की सतह पर न जम जाएं. क़रीब 15 दिनों के बाद, मर्द और औरत, दोनों मिलकर लकड़ी के एक बड़े चप्पू से नमक निकालते हैं. उसके बाद, वे उसे दो मैदानों के बीच की जगह, यानी वरप्पु (मेड़) पर जमा करते जाते हैं.

सबसे मुश्किल काम तो इसके बाद शुरू होता है. मर्द और औरत दोनों ही वरप्पु (मेड़) पर जमा नमक के ढेर को ढोकर ले जाते हैं और एक ऊंची सतह पर गिरा देते हैं. हर मज़दूर को ऐसे कुछ मेड़ खाली करने के लिए दे दिए जाते हैं, जहां से वे लगभग हर रोज़ 5 से 7 टन नमक को अपने सिर पर लादकर ले जाते हैं. इसका मतलब ये है कि एक दिन में अपने हर चक्कर के साथ वे अपने सिर पर 35 किलो वजन रखकर, नमक के ढेर को मेड़ वाली जगह से क़रीब 150 से 250 फ़ीट दूर ले जाते हैं और दिन भर ऐसे 150 से ज़्यादा चक्कर लगाते हैं. कई चक्करों के बाद वह जगह जल्द ही नमक के चट्टान में बदल जाती है और दोपहर की रोशनी में नमक के कण हीरे जैसा चमकते हैं. ऐसा लगता है कि मानो जमीन पर खज़ाना पड़ा हुआ हो.

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"प्रेमियों की आपसी तकरार, खाने में नमक की तरह होती है. अगर ज़्यादा हो जाए, तो अच्छा नहीं होता."

ये सेंथिल नाथन द्वारा तिरुक्कुरल (पवित्र दोहावली) से लिए गए एक दोहे का अनुवाद (और भावानुवाद) है. यह तमिल संत-कवि तिरुवल्लुवर द्वारा रचित तिरुक्कुरल के 1,330 दोहों में से एक है, जिनके बारे में अलग-अलग इतिहासकारों का मानना है कि वे चौथी शताब्दी ईसा पूर्व और पांचवीं शताब्दी के बीच किसी समय में पैदा हुए थे.

आसान भाषा में कहें, तो तमिल साहित्य में उपमा और रूपक के तौर पर नमक का प्रयोग, दो हज़ार वर्षों से भी पहले से होने लगा था. और शायद उससे भी पहले से वहां नमक की खेती हुआ करती थी, जो अब तमिलनाडु की तटरेखा है.

सेंथिल नाथन ने दो हज़ार साल पुराने संगम काल की एक कविता का भी अनुवाद किया है, जिसमें नमक के मुद्रा के तौर पर इस्तेमाल का ज़िक्र है. और इसके बावजूद, इस संदर्भ का इस्तेमाल एक प्रेम कविता में किया गया है.

शार्क का शिकार करते घायल हुए
मेरे पिता के घाव अब भर चुके हैं
और वह लौट गए हैं नीले समंदर की गोद में.
नमक के बदले चावल पाने को
मेरी मां, नमक के मैदानों का चक्कर लगा रही है.
कितना अच्छा होता, अगर होता एक दोस्त
जो लंबी दूरियों और थका देने वाले सफ़र में
साथ देता, ख़ुशी-ख़ुशी
ताकि समंदर के शांत किनारों तक जाऊं और उस आदमी से कहूं
कि अगर वह मुझसे मिलना चाहता है, तो यह समय लौट आने का है!

PHOTO • M. Palani Kumar

रानी, लकड़ी के एक लंबे से चप्पू के साथ सबसे साधारण, लेकिन रसोई की सबसे ज़रूरी खाद्य सामग्री - नमक - इकट्ठा करती हैं

लोक-कथाओं और मुहावरों में भी नमक का काफ़ी ज़िक्र आता है. रानी मुझे एक तमिल कहावत 'उप्पिल्ल पांडम कुप्पयिले' के बारे में बताती हैं, जिसका अर्थ है: बिना नमक के भोजन, सचमुच किसी कचरे की तरह होता है. उनका समुदाय नमक को देवी लक्ष्मी का स्वरूप मानता है. हिंदू धर्म परंपरा में लक्ष्मी धन-संपदा की देवी मानी जाती हैं. रानी कहती हैं, “जब कोई नए घर जाता है, तो हम नमक, हल्दी, और पानी लेते हैं और उनके नए घर में रख देते हैं. यह शुभ माना जाता है."

लोकसंस्कृति में नमक, विश्वास या भरोसे का प्रतीक है. बल्कि, ए. शिवसुब्रमण्यम बताते हैं: तमिल भाषा में 'पारिश्रमिक (सैलरी)' के लिए 'संबलम' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, जो दो शब्दों - 'संबा' (जो धान के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द है) और 'उप्पलम' (जहां नमक निकाला जाता है) से मिलकर बना है. वह अपनी चर्चित किताब उप्पिटवरई (जो तमिल संस्कृति में नमक के महत्त्व एवं प्रयोग पर लिखा गया एक प्रबंध है) में एक बहुचर्चित तमिल कहावत 'उप्पिटवरई उल्ललवुम नेनई' को रेखांकित करते हैं, जिसके अनुसार हमें अपने नमकदाता को याद रखना चाहिए. यानी जिसने हमें काम दिया है.

मार्क कुर्लांस्की अपनी प्रसिद्ध किताब 'साल्ट: अ वर्ल्ड हिस्ट्री' में कहते हैं कि "नमक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में शामिल सर्वप्रथम वस्तुओं में से एक था; इसका उत्पादन विश्व की पहली औद्योगिक इकाइयों में शामिल है और अंततः यह पहला उत्पाद था जिस पर राज्य का एकाधिकार स्थापित हुआ."

रोज़मर्रा के खानपान में शामिल इस खाद्य सामग्री ने भारत के इतिहास को पलटकर रख दिया, जब महात्मा गांधी ने 1930 में (मार्च और अप्रैल महीने के बीच) ब्रिटिश शासन द्वारा बनाए गए दमनकारी नमक-क़ानून की अवहेलना करते हुए गुजरात के दांडी तक पैदल यात्रा की और वहां नमक के मैदानों से नमक इकट्ठा किया. बाद में, अप्रैल माह में ही उनके राजनीतिक सहयोगी सी. राजगोपालाचारी ने तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली से लेकर वेदारण्यम तक चले नमक-सत्याग्रह का नेतृत्व किया. दांडी यात्रा भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय मानी जाती है.

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"इतनी कड़ी मेहनत की मजूरी इतनी कम!"
– एंथनी सैमी, नमक-मज़दूर

रानी की पहली तनख़्वाह एक रुपया पच्चीस पैसा प्रति दिन थी. यह 52 साल पहले की बात है, जब वह आठ साल की छोटी बच्ची थीं, और लंबा घाघरा पहने नमक के मैदानों में खटती रहती थीं. एंथनी सैमी भी अपनी पहली मजूरी को याद करते हैं: उन्हें एक रुपया सवा पैसा मिला था, जो कुछ साल बाद बढ़कर 21 रुपए हुआ. कई दशकों के श्रम-संघर्षों के बाद, आज महिलाओं के लिए दिहाड़ी की रक़म 395 रुपए और पुरुषों के लिए 405 रुपए है. और जैसा कि एंथनी कहते हैं, ये अब भी "बहुत कड़ी मेहनत के बदले मिलने वाली बहुत कम मजूरी है."

वीडियो देखें: धरती का नमक

अगले दिन सुबह 6 बजे ही रानी के बेटे कुमार तूतुकुड़ी की अपनी अलग तमिल बोली में कहते हैं, "नेरम आयिट्टु" (देर हो रही है). हम पहले ही मैदान पहुंच चुके हैं, लेकिन उन्हें काम पर देरी से पहुंचने की चिंता हो रही है. दूर से यह मैदान एक पेंटिंग की तरह दिखता है, आसमान में लाल, बैंगनी, और सुनहरे रंग की छटा बिखरी हुई है; खेतों का पानी झिलमिला रहा है; नर्म हवा बह रही है, और यहां तक कि दूर से कारखानों की इमारतें भी सुंदर दिख रही हैं. ये सब मिलकर एक सुंदर तस्वीर खड़ी करते हैं. सिर्फ़ आधे घंटे के भीतर ही मैं ये देखती हूं कि यहां काम करने वालों के लिए कितनी जल्दी ही ये सुंदर जगह कुरूप हो जाती है.

नमक के खेतों के बीचोबीच एक पुराने मचान (जो अब टूटी-फूटी और ख़राब हालत में है) के नीचे पुरुष और महिलाएं इकट्ठा होते हैं और काम के लिए तैयार होते हैं. महिलाएं अपनी साड़ी के ऊपर शर्ट पहनती हैं और भारी वजन उठा सकने के लिए अपने सिर पर सूती कपड़े से बनी गोल चक्की लगा लेती हैं. उसके बाद मज़दूर अपने साथ ज़रूरी सामान बांध लेते हैं. जिसमें एल्यूमीनियम की टोकरी (सट्टी), बाल्टी, पानी की बोतल, और खाना होता है. अपने-अपने खाने के लिए स्टील के एक बाल्टी जैसे डब्बे (थूक) में वे बासी भात रखकर ले जाते हैं. कुमार अपनी बाईं ओर इशारा करते हुए कहते हैं, "हम आज उत्तर की तरफ़ जाएंगे," और सभी लोग उनके पीछे-पीछे चलते जाते हैं, जब तक कि वे लोग नमक की दो क्यारियों के पास नहीं पहुंच जाते. आज उन्हें कुछ घंटों में इन क्यारियों को खाली करना है.

जल्द ही वे लोग काम पर लग जाते हैं. महिलाएं और पुरुष, दोनों अपने कपड़े को घुटनों तक मोड़ लेते हैं; महिलाएं अपनी पेटीकोट को मोड़कर अपनी साड़ी घुटनों तक ऊपर उठा लेती हैं, पुरुष अपनी धोती को घुटनों तक बांध लेते हैं. दो फ़ुट गहरे पानी को वे ताड़ की लकड़ी से बने 'पुल' से पार करते हैं, वे अपनी बाल्टियों से नमक निकालकर उसे टोकरियों में डालते जाते हैं. और एक बार जब टोकरियां भर जाती हैं, तो वे उसे उठाकर एक-दूसरे के सिर पर रख देते हैं. तब, वे अपने सिर पर 35 किलो नमक का बोझ लेकर किसी कुशल नट की तरह लकड़ी के एक संकरे पुल (जिसके दोनों तरफ़ पानी है) से बार-बार नीचे उतरते हैं, वापस ऊपर चढ़ते हैं, और उस कुल 6 क़दम चलकर उस संकरे रास्ते से इस पार से उस पार पहुंचते हैं.

हर बार अपना चक्कर ख़त्म होने पर, बहुत ही सावधानी से वे अपनी टोकरी को ज़मीन पर टिकाते हैं, और नमक को सफ़ेद बारिश की तरह वहां खाली करके, दोबारा वापस अपनी टोकरी लेकर आते हैं...और बार-बार.. हर कोई 150 बार, कभी-कभी 200 बार वहां के चक्कर लगाता है, जब तक कि वहां नमक का ऊंचा पहाड़ न खड़ा हो जाए. जो लगभग 10 फ़ीट ऊंचा और 15 फ़ीट चौड़ा नमक का ढेर (अंबारम) होता है. ये समुद्र और सूर्य जैसे प्राकृतिक स्रोतों से मिलने वाला ऐसा तोहफ़ा है जिसे रानी और उनके साथ के लोगों का पसीना अमूल्य बनाता है.

मैदानों के दूसरी तरफ़, 53 वर्षीय झांसी रानी और एंथनी सैमी काम में व्यस्त हैं. वह डंडे को पानी में घुमाती हैं, और वह चप्पू से नमक निकालते हैं. पानी के घुमड़ने और नमक के छोटे-छोटे कुरकुरे टुकड़ों के आपस में टकराने से झरझर करती हुई (सल-सल) एक मधुर आवाज़ आती है. दिन गर्म होता जाता है, परछाईयां गहरी होने लगती हैं, लेकिन कोई भी आराम करने या सांस भरने के लिए भी नहीं रुकता है. एंथनी से चप्पू लेकर, मैं नमक निकालकर उसे ऊंचाई पर रखने की कोशिश करती हूं. यह बहुत कठिन काम है. केवल पांच बार चप्पू चलाने के बाद मेरे कंधे दुखने लगे हैं, मेरी पीठ में दर्द है, और मेरी आंखें पसीने से जल रही हैं.

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मैदानों के दूसरी तरफ़, झांसी रानी और एंथनी सैमी काम में व्यस्त हैं. वह डंडे को पानी में घुमाती हैं, और वह चप्पू से नमक निकालते हैं

बिना कुछ कहे, एंथनी मुझसे चप्पू वापस लेकर नमक की मेड़ को खाली करने लगते हैं. मैं वापस रानी के खेत की ओर मुड़ जाती है. वह अपना काम लगभग ख़त्म कर चुकी हैं; बार-बार पानी में डंडा घुमाने से उनकी मांसपेशियां अकड़ती हैं और खिंचती हैं. वह तब तक ऐसा करती रहती हैं, जब तक सारे सफ़ेद कण एक तरफ़ इकट्ठा नहीं हो जाते और खेत भूरा और सूखा नहीं दिखने लगता. अब इस क्यारी में नए सिरे से पानी डाला जा सकता है और नमक की एक और फ़सल तैयार की जा सकती है.

एक बार जब रानी अपने चप्पू से नमक के उबड़-खाबड़ ढेर को समतल कर लेती हैं, तो वह मुझे अपने पास बैठने के लिए बुलाती हैं; और हम सफ़ेद नमक के एक पहाड़ के पास जाकर बैठ जाते हैं, और दूर से जाती हुई एक मालगाड़ी को देखते हैं.

रानी हवा में उंगली के इशारे से मुझे ट्रेन का पुराना रास्ता दिखाते हुए कहती हैं, "पहले मालगाड़ियां इन खेतों से नमक लेने आती थीं. वे अपने कुछ डिब्बों को पटरियों पर छोड़कर चले जाते थे, और बाद में इंजन उन्हें लेकर वापस चला जाता था." वह बैलगाड़ियों और घोड़ागाड़ियों के बारे में बताती हैं, और उस शेड की ओर इशारा करती हैं जहां पहले नमक की एक फ़ैक्ट्री चलती थी. अब यहां केवल सूरज का ताप, नमक, और ढेर सारा काम बचा है. इतना कहकर वह अपनी कमर से एक थैला निकालती हैं. उसमें दो रुपए का एक छोटा सा अमृतांजन बाम और एक विक्स इन्हेलर रखा हुआ है. वह मुस्कुराते हुए कहती हैं, "इनके [और अपनी डायबिटीज़ की दवाईयों के] सहारे ही मैं चल पा रही हूं."

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"अगर एक दिन भी बारिश होती है, तो हमें एक हफ़्ते तक घर बैठना पड़ता है."
– तूतुकुड़ी के नमक-मज़दूर

समय के साथ काम के घंटे भी बदल गए हैं. परंपरागत रूप से, भोजन के लिए एक घंटे के अवकाश के साथ सुबह 8 बजे से लेकर शाम 5 बजे तक काम करने की दिनचर्या अलग-अलग शिफ़्टों में बदल गई है, जहां कुछ लोग रात के दो बजे से सुबह आठ बजे की शिफ़्ट में काम करते हैं, वहीं कुछ मज़दूर सुबह पांच बजे से सुबह 11 बजे तक काम करते हैं. ये दोनों शिफ़्ट ऐसे हैं, जिसमें काम करना सबसे ज़्यादा मुश्किल होता है. काम के घंटे ख़त्म हो जाने के बाद भी कुछ काम बचा रह जाने के चलते, कुछ मज़दूरों को उन्हें निपटाने के लिए रुकना पड़ता है.

एंथनी सैमी कहते हैं, "सुबह 10 बजे के बाद यहां इतनी गर्मी में खड़ा होना बहुत मुश्किल है." उन्होंने जलवायु और तापमान में परिवर्तन की अनियमितताओं को बहुत क़रीब से देखा और अनुभव किया है. न्यूयॉर्क टाइम्स के जलवायु परिवर्तन पर आधारित एक पोर्टल पर उपलब्ध आंकड़े, जलवायु परिवर्तन को लेकर उनके निजी अनुभवों और बयानों की तस्दीक़ करते हैं.

For two weeks, the women drag behind them a very heavy iron rake with which they stir the water every morning. After about 15 days, both men and women gather the salt using a huge wooden paddle
PHOTO • M. Palani Kumar
For two weeks, the women drag behind them a very heavy iron rake with which they stir the water every morning. After about 15 days, both men and women gather the salt using a huge wooden paddle
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दो हफ़्तों तक, यहां की औरतें अपने साथ एक भारी-भरकम लोहे का डंडा घसीटकर लाती हैं, जिसे वे हर सुबह पानी में घुमाते हुए चलाती हैं. क़रीब 15 दिनों के बाद, मर्द और औरत, दोनों मिलकर लकड़ी के एक बड़े चप्पू से नमक निकालते हैं

1965 में जब एंथनी का जन्म हुआ था, तूतुकुड़ी (तब इसे तूतीकोरिन के नाम से जाना जाता था) में साल भर में औसतन 136 दिन ऐसे होते थे, जब तापमान 32 डिग्री से ऊपर चला जाता था. वर्तमान में, एक साल में ऐसे दिनों की संख्या 258 हो गई है. यानी उनके जीवनकाल में ही गर्म दिनों की संख्या में 90 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

साथ ही, बेमौसम बरसात में भी वृद्धि हुई है.

सभी मज़दूर एक सुर में कहते हैं, "अगर एक दिन भी बारिश होती है, तो हमारे पास एक हफ़्ते तक कोई काम नहीं होता है." बारिश का पानी नमक, खेतों के मेड़, और उसकी गाद को बहाकर ले जाता है. इन दिनों में हमें बिना पैसों के बेकार बैठना पड़ता है.

स्थानीय स्तर पर हुए कई बदलावों ने भी जलवायु और मौसम की समस्या को बढ़ाया है. छांव देने वाले पेड़ों को काटकर हटा दिया गया है; अब नीले आकाश के नीचे सिर्फ़ खुली ज़मीन बिखरी पड़ी है, जो सिर्फ़ तस्वीरों में ख़ूबसूरत दिखाई पड़ती है लेकिन वहां खड़े होकर काम करना नर्क समान है. नमक के खेत भी पहले से ज़्यादा निर्मम हो गए हैं. झांसी मुझसे कहती हैं, "मालिक लोग पहले हमारे लिए पानी रखते थे, अब हमें अपने घर से बोतलों में पानी लाना पड़ता है." मैं उनसे शौच की व्यवस्था को लेकर सवाल करती हूं. औरतें मज़ाकिया हंसी हंसते हुए बताती हैं, "हम खेतों के पीछे के मैदानों में जाते हैं. क्योंकि भले यहां शौचालय बन गए हैं, लेकिन उसमें इस्तेमाल के लिए पानी नहीं होता."

इन महिलाओं को अपने घर पर अन्य चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है, जो ज़्यादातर उनके बच्चों से जुड़े हैं. रानी बताती हैं कि जब वे छोटे थे, तो अपने साथ बच्चों को लेकर जाती थीं, जहां उनको मचान के नीचे कपड़े के पालने (तूली) में उन्हें लेटाकर काम करने चली जाती थीं. "लेकिन अब मुझे अपने पोते-पोतियों को घर पर छोड़कर आना पड़ रहा है. लोग कहते हैं कि ये खेत बच्चों के लिए नहीं हैं." ठीक बात है, लेकिन इसका मतलब होता है कि बच्चों को पड़ोसियों और रिश्तेदारों के घर छोड़कर आना या फिर घर पर अकेला छोड़ देना. "आप छोटे बच्चों को 3 साल के होने के बाद ही बालवाड़ी भेज सकते हैं. वैसे भी, वहां सुबह 9 बजे के बाद काम शुरू होता है, और हमारे समय से मेल नहीं खाता."

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"देखो, मेरे हाथों को छूकर देखो, क्या ये किसी आदमी के हाथ की तरह नहीं दिखते?"
– नमक के मैदानों में काम करने वाली महिला मज़दूर

ये औरतें तब सबसे ज़्यादा सचेत दिखाई पड़ती हैं, जब अपने शरीर के बारे में बात करती हैं; क्योंकि वे सभी इस काम की एक बड़ी क़ीमत चुकाती हैं. रानी अपनी आंखों के बारे में बताना शुरू करती हैं. नमक अटी सफ़ेद ज़मीनों पर लगातार ध्यान केंद्रित करने के कारण उनकी आंखों से पानी गिरता रहता है और उसमें चुभन होती है. तेज़ रोशनी में उनकी आंखें चौंधिया जाती हैं. वह बताती हैं, "पहले ये लोग हमें काला चश्मा दिया करते थे, लेकिन अब हमें बहुत कम पैसा मिलता है." आमतौर पर हर साल चश्मों और जूतों के लिए 300 रुपए दिए जाते हैं.

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कोई भी ऐसा नहीं मिलता जिसने नमक अटी सफ़ेद ज़मीन पर पड़ती, आंखें चौंधिया देने वाली तेज़ रोशनी से बचने के लिए चश्मा लगाया हो

कुछ औरतें अपने काले मोज़े के नीचे रबर ट्यूब सिलकर पहनती हैं. लेकिन नमक के खेतों में कोई भी ऐसा नहीं मिलता जिसने चश्मा लगाया हो. हर कोई मुझसे एक ही बात कहता है, "कोई भी अच्छा चश्मा एक हज़ार रुपए से कम में नहीं आता और सस्ते चश्मे का कोई लाभ नहीं होता, उल्टा उससे हमें परेशानी होती है." चालीस की उम्र पार करते ही उनमें से हर कोई कमज़ोर नज़र की समस्या से जूझने लगता है.

रानी के पास कुछ और औरतें आकर बैठ गई हैं. वे सभी ऊंचे सुर में शिकायत करती हैं कि उन्हें दम मारने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती, पीने को पर्याप्त पानी नहीं मिलता, तपती गर्मी और खारे पानी ने उनकी त्वचा को बर्बाद कर दिया है. वे कहती हैं, "देखो, मेरे हाथों को छूकर देखो, क्या ये किसी आदमी के हाथ की तरह नहीं दिखते?" और इसके बाद, मुझे अपने हाथ, पैर, और उंगलियां दिखाने लगीं. उनके पैरों के नाख़ून काले और सिकुड़े हुए थे; उनके हाथों में गट्ठे पड़े हुए थे, उनकी त्वचा रूखी और बेजान दिख रही थी, और पैरों पर चकत्ते पड़े हुए थे. उनके पैरों में ऐसे घाव भी थे जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहे और जब भी वे खारे पानी में उतरती हैं, उन घावों में भयंकर जलन होती है.

जो चीज़ हमारे खाने को स्वादिष्ट बनाती है वह उनके शरीर की त्वचा को खाए जा रही है.

अब शरीर की अंदरूनी समस्याओं की बातें सामने आती हैं. मसलन, बच्चेदानी निकलवाना (हिस्टरेक्टॉमी), किडनी स्टोन, हर्निया. रानी के 29 वर्षीय बेटे, कुमार, छोटे कद के मगर गठीले शरीर वाले एक मज़बूत नौजवान हैं. लेकिन काम के दौरान लगातार भारी वजन उठाने के कारण उन्हें हर्निया की समस्या हो गई है. उनकी एक सर्जरी हुई थी और इसके कारण उन्हें तीन महीने आराम करना पड़ा था. वह अब क्या कर रहे हैं? इसके जवाब में वह बताते हैं, "मैं अब भी भारी वजन उठाता हूं." उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है. शहर में रोज़गार के ज़्यादा विकल्प नहीं हैं.

यहां के कुछ युवा झींगा उत्पादन केंद्रों या फूलों के कारखानों में काम करते हैं. लेकिन नमक-उत्पादन में लगे ज़्यादातर मज़दूरों की उम्र 30 से ज़्यादा है और वे कई दशकों से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं. हालांकि, कुमार की मुख्य शिकायत पैसों से जुड़ी है. "पैकेजिंग का काम करने वाले, ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों की तरह होते हैं, और यहां तक कि हमें बोनस तक नहीं मिलता. एक औरत को एक किलो नमक के 25 पैकेट बनाने पर 1.70 रुपए मिलते हैं. [यानी एक पैकेट पर 7 पैसे से भी कम मिलते हैं]. एक और महिला को उन 25 पैकेटों को सीलबंद करने के लिए 1.70 रुपए मिलते हैं. एक दूसरे कर्मचारी (आमतौर पर पुरुष) को उन 25 पैकेटों की एक बोरी बनाने, उन्हें हाथों से सिलने, और साफ़-सुथरे ढंग से व्यवस्थित करने के लिए 2 रुपए मिलते हैं. बोरियां जितनी बढ़ती जाती हैं, मज़दूर का काम उतना ही कठिन होता जाता है. लेकिन मजूरी उतनी ही रहती है: दो रुपए."

The women speak of hardly ever getting a break, never enough drinking water, the brutal heat, the brine that ruins their skin. As well as hysterectomies, kidney stones, hernias. Rani’s son Kumar (right) is stocky and strong. But the heavy lifting he did at work gave him a hernia that needed surgery
PHOTO • M. Palani Kumar
The women speak of hardly ever getting a break, never enough drinking water, the brutal heat, the brine that ruins their skin. As well as hysterectomies, kidney stones, hernias. Rani’s son Kumar (right) is stocky and strong. But the heavy lifting he did at work gave him a hernia that needed surgery
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महिलाओं को शायद ही कभी अवकाश मिलता है, पीने के लिए पर्याप्त पानी नहीं होता, भीषण गर्मी होती है, खारे पानी से उनकी त्वचा बर्बाद हो जाती है. साथ ही, बच्चेदानी निकलवाना (हिस्टरेक्टॉमी), किडनी स्टोन, हर्निया जैसी मुश्किलें भी आन पड़ती हैं. रानी का बेटा कुमार (दाएं), चुस्त और मज़बूत है. लेकिन काम के दौरान भारी वज़न उठाने के चलते उसे हर्निया हो गया, जिसके लिए सर्जरी करानी पड़ी

वस्कुलर सर्जन और तमिलनाडु राज्य योजना आयोग के सदस्य डॉ. अमलोरपवनाथन जोसेफ़ कहते हैं, "चिकित्सकीय रूप से वे जो भी जूते पहन रहे हैं और उपयोग कर रहे हैं उनसे गीलेपन और संक्रमण से उनके पैरों का बचाव नहीं हो सकता. एक या दो दिन काम करने में कोई समस्या नहीं है. लेकिन अगर आप यही काम जीवन भर करने वाले हैं, तो आपको वैज्ञानिक ढंग से डिज़ाइन किए गए जूते चाहिए, जिन्हें आप समय-समय पर बदल सकें. अगर इतनी मामूली सुविधा भी सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, तो आपके पैरों के स्वास्थ्य की कोई गारंटी नहीं दी सकती है."

नमक-कणों से निकलने वाली चुंधियाने वाली रोशनी के अलावा, उनका मानना है, "ऐसे वातावरण में बिना चश्मे के काम करने से आंखों में कई तरीक़े की समस्याएं हो सकती हैं." डॉ. अमलोरपवनाथन जोसेफ़ नियमित चिकित्सा शिविरों और सभी श्रमिकों के रक्तचाप की बार-बार जांच कराने की सलाह देते हैं.

ये मज़दूर इस क्षेत्र में चार या पांच दशकों से काम कर रहे हैं. लेकिन वे किसी भी तरह के सामाजिक लाभ से वंचित हैं. न तो उन्हें वैतनिक अवकाश मिलता है, न बच्चों के स्वास्थ्य-देखभाल की सुविधा है, और न ही गर्भावस्था के दौरान कोई सहायता या लाभ मिलता है. नमक के खेतों में काम करने वाले मज़दूरों का कहना है कि उनका हाल भी 'कुलियों' (सिर पर बोझा ढोने वाले सस्ते मज़दूर) की तरह ही है.

*****

"नमक के 15 हज़ार से भी ज़्यादा उपयोग हैं."
– एम. कृष्णमूर्ति, जिला समन्वयक, तूतुकुड़ी, असंगठित श्रमिक संघ (अनऑर्गेनाइज़्ड वर्कर्स फ़ेडरेशन)

कृष्णमूर्ति बताते हैं, "अमेरिका और चीन के बाद, भारत नमक-उत्पादन में विश्व में तीसरे स्थान पर है. बिना नमक के जीवन असंभव है, लेकिन इन मज़दूरों का जीवन भी अपनी फ़सल की तरह ही खारा है!"

कृष्णमूर्ति के अनुसार तूतुकुड़ी ज़िले में क़रीब 50 हज़ार नमक-मज़दूर हैं. 7.48 लाख कामगारों वाले इस ज़िले में हर 15 में से एक व्यक्ति नमक-मज़दूर है. हालांकि, उनके पास फरवरी और सितंबर के बीच केवल 6-7 महीने काम होता है. केंद्र सरकार के आंकड़ों के अनुसार पूरे तमिलनाडु राज्य में केवल 21, 528 नमक-मज़दूर हैं, जोकि असल आंकड़ों से बहुत कम है. लेकिन इसी बिंदु पर कृष्णमूर्ति का संगठन (असंगठित श्रमिक संघ) काम करता है. वे आधिकारिक गणना से बड़ी संख्या में बाहर किए गए श्रमिकों का लेखाजोखा रखते हैं.

Rani’s drawstring pouch with her Amrutanjan and inhaler.
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A few women wear black socks with a rudimentary refurbished base
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बाएं: रानी के थैले में हर वक़्त पड़ा रहने वाला अमृतांजन बाम और इन्हेलर. दाएं: कुछ औरतें अपने काले मोज़े के नीचे रबर ट्यूब सिलकर पहनती हैं

हर नमक-मज़दूर, चाहे वह नमक के कणों को खुरचने का काम करते हों या नमक को लाने और उठाने का काम करते हों, हर रोज़ लगभग 5 से 7 टन नमक का बोझ उठाता है. नमक की मौजूदा क़ीमत, यानी 1,600 रुपए प्रति टन के आधार पर देखें, तो उनके द्वारा ढोए गए नमक की कुल क़ीमत 8,000 रुपए से ज़्यादा है. लेकिन अगर एक दिन भी बेमौसम बरसात होती है, तो जैसा कि वे ज़ोर देकर कहते हैं कि उनका काम एक हफ़्ते से लेकर पूरे दस दिनों तक ठप पड़ सकता है.

कृष्णमूर्ति के अनुसार, जो बात उन्हें सबसे ज़्यादा परेशान करती है वो 90 के दशक में अपनाई गई उदारीकरण की नीतियां हैं, जो वर्तमान समय में और भी ज़्यादा तेज़ी से अपनाई गई हैं, जिसके परिणामस्वरूप "बड़ी और निजी कंपनियों को बाज़ार में आने की छूट दी गई." वह बताते हैं, "कई पीढ़ियों से इस कड़ी ज़मीन पर नमक की खेती करने वाले ज़्यादातर मज़दूर दलित और महिलाएं हैं. 70 से 80 फ़ीसदी मज़दूर वंचित तबकों से ताल्लुक़ रखते हैं. क्यों नहीं उन्हें नमक के खेत पट्टे पर दे दिए जाते? वे कैसे किसी खुली नीलामी में बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों से मुक़ाबला करेंगे?"

जब बड़ी कंपनियां किसी व्यापार में उतरती हैं, तो उनके स्वामित्व वाली ज़मीनें बढ़ती ही जाती हैं (दसियों एकड़ से हज़ारों एकड़ तक). कृष्णमूर्ति को पक्का यक़ीन है कि जल्द ही यह उद्योग भी पूरी तरह मशीनीकृत हो जाएगा. "फिर इन 50 हज़ार नमक-मज़दूरों का क्या होगा?"

हर साल 15 अक्टूबर (सामान्यतः जब उत्तर-पूर्वी मानसून शुरू होता है) से लेकर 15 जनवरी तक इन मज़दूरों के पास कोई काम नहीं होता. ये तीन महीने बहुत कठिन होते हैं, और इन दिनों में उधार के पैसों और अपने ख़र्चों में कटौती के ज़रिए घर चलाया जाता है. 57 वर्षीय एम. वेलुसामी इन खेतों में काम करते हैं और नमक बनाने के बदलते तौर-तरीक़ों को लेकर बात करते हैं. "मेरे माता-पिता के ज़माने में छोटे व्यापारी नमक का उत्पादन और उसकी बिक्री कर सकते थे."

दो नीतियों ने हालात को पूरी तरह से बदल कर रख दिया. केंद्र सरकार ने 2011 में निर्णय लिया कि मानव उपभोग के लिए नमक का आयोडिनीकरण करना होगा. उसके कुछ समय बाद उन्होंने नमक के सभी मैदानों के लिए पट्टा समझौतों में परिवर्तन कर दिया. उनके पास ऐसा करने की शक्ति थी, क्योंकि नमक को संविधान की संघ सूची में रखा गया है.

The sale pan workers may have been in this line for four or five decades, but still have no social security, no paid leave, no childcare or pregnancy benefits
PHOTO • M. Palani Kumar
The sale pan workers may have been in this line for four or five decades, but still have no social security, no paid leave, no childcare or pregnancy benefits
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भले ही ये नमक-मज़दूर, इस क्षेत्र में चार या पांच दशकों से काम कर रहे हैं, लेकिन वे किसी भी तरह के सामाजिक लाभ से अब भी वंचित हैं. न तो उन्हें वैतनिक अवकाश मिलता है, न बच्चों के स्वास्थ्य-देखभाल की सुविधा है, और न ही गर्भावस्था के दौरान कोई सहायता या लाभ मिलता है

2011 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया रेगुलेशन के अनुसार, "कोई व्यक्ति तब तक साधारण नमक की बिक्री नहीं करेगा या बिक्री के लिए नमक की आपूर्ति नहीं करेगा या बिक्री के प्रयोजन से उसे अपने परिसर में नहीं रखेगा, जब तक उसे मानव उपभोग के लिए आयोडीन युक्त नहीं बना दिया जाता ." इसका मतलब यह था कि सामान्य नमक केवल फ़ैक्ट्री-उत्पाद हो सकता था. (नमक की कुछ अन्य श्रेणियों, जैसे सेंधा नमक और काला नमक को इस नियम से छूट दे दी गई). इसका एक और मतलब यह भी था कि इन पारंपरिक नमक-उत्पादकों ने अपना अधिकार खो दिया था. इसे क़ानूनी रूप से चुनौती दी गई और सर्वोच्च न्यायालय ने वास्तव में इस प्रावधान की कड़ी आलोचना की, लेकिन यह प्रतिबंध प्रभावी बना रहा . भोजन में इस्तेमाल किए जाने वाले साधारण नमक को तब तक बेचा नहीं जा सकता, जब तक उसमें आयोडीन न हो.

अक्टूबर 2013 में दूसरा बदलाव किया गया. एक केंद्रीय अधिसूचना में कहा गया: "नमक-उत्पादन के लिए केंद्र सरकार की ज़मीन को निविदा (टेंडर) के ज़रिए पट्टे पर दिया जाएगा." इसके अलावा, किसी मौजूदा पट्टा समझौता का नवीकरण नहीं किया जाएगा. इन समझौतों की अवधि समाप्त होने पर नई निविदाओं को आमंत्रित किया जाएगा और इस प्रक्रिया में "वर्तमान पट्टा धारक नए उम्मीदवारों के साथ भाग ले सकते हैं." कृष्णमूर्ति कहते हैं कि स्पष्ट रूप से ये नियम बड़े उत्पादकों को लाभ पहुंचाने वाले हैं.

झांसी याद करते हुए बताती हैं कि चार दशक पहले उनके मां-बाप के पास ज़मीन थी, जो उन्होंने एक पट्टेदार से समझौते पर ली थी. वहां वे पुली के ज़रिए कुंए से पानी निकालकर (और ताड़ के पत्तों से बनी टोकरी को बाल्टी की तरह इस्तेमाल करके) दस छोटी क्यारियों में नमक की खेती करते थे. हर रोज़, उनकी मां 40 किलो नमक (ताड़ की टोकरियों में भरकर) अपने सिर पर ढोती थीं और पैदल ही शहर जाकर उसकी बिक्री करती थीं. वह बताती हैं, "बर्फ़ बनाने वाली कंपनियां उनका सारा माल 20 से 30 रुपए में ख़रीद लेती थीं." और जब उनकी मां नहीं जा पाती थीं, तो वह झांसी को एक छोटी टोकरी के साथ भेज देती थीं. उन्हें यहां तक याद है कि एक बार उन्होंने 10 पैसे प्रति किलो की दर पर नमक बेचा था. झांसी कहती हैं, "जिस ज़मीन पर हमारी क्यारियां थीं वहां इमारतें (आवासीय मकान) बना दी गई हैं. मुझे नहीं पता कि हमारे हाथ से ज़मीन कैसे निकल गई." यह बताते हुए वह उदास हो गई थीं. लग रहा था हवा में नमक घुल गया था और उनकी आवाज़ भारी हो गई थी.

नमक-मज़दूरों के लिए ज़िंदगी हमेशा कठिन रही है. कई दशकों से उनकी थाली में अक्सर साबूदाना और बाजरा (कभी-कभार ही चावल) रहा है, जिसके साथ वे मछली की रसेदार ग्रेवी (कुज़ाम्बू) खाते हैं. और इडली, जो अब रोज़मर्रा के खानपान में शामिल हो गई है, पहले साल में एक बार दीपावली पर बनती थी. झांसी बताती हैं कि वह बचपन में एक रात पहले इस ख़ुशी में सो तक नहीं पाती थीं कि त्योहार की सुबह उन्हें नाश्ते में इडली मिलेगी.

दीपावली और पोंगल, केवल दो ऐसे बड़े त्यौहार होते थे, जब उन्हें नया कपड़ा मिलता था. झांसी बताती हैं, "उससे पहले तक वे लोग, ख़ासकर लड़के फटे-पुराने कपड़े पहनते थे, जिनकी पतलून में 16 छेद थे, और हर छेद को सुई-धागे से ठीक किया गया था." यह बताते हुए वह अपने हाथ हवा में ऐसे लहराती हैं जैसे हवा में ही उन पतलूनों की सिलाई कर रही हों. अपने पैरों में वे ताड़ के पत्तों से बने चप्पल पहनते थे, जिसे उनके मां-बाप अपने हाथों से बनाते थे और जूट के धागों से बांध देते थे. ये उन्हें पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करते थे, क्योंकि उस समय नमक की क्यारियों की लवणता आज की तरह बहुत ज़्यादा नहीं थी, जबकि वर्तमान में नमक एक औद्योगिक उत्पाद है और इसका घरेलू उपयोग उसकी कुल खपत का बहुत छोटा सा हिस्सा है.

Life has always been hard, the salt workers say. They only get a brief break between work, to sip some tea, in their shadeless workplace
PHOTO • M. Palani Kumar
Life has always been hard, the salt workers say. They only get a brief break between work, to sip some tea, in their shadeless workplace
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नमक-मज़दूर कहते हैं कि उनका जीवन हमेशा कठिन ही रहा है. उन्हें खुली धूप में तपते कार्यस्थल पर काम के बीच में, चाय पीने के लिए बस एक छोटा सा ब्रेक मिलता है

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"मैं अपना नाम लिख सकती हूं, बस के रास्तों को पढ़ सकती हूं, और हां, मैं एमजीआर के गाने गा सकती हूं."
– एस. रानी, नमक-मज़दूर और अगुआ

शाम को काम ख़त्म होने के बाद रानी हमें अपने घर लेकर गईं. एक छोटे से कमरे का उनका मकान पक्की दीवारों से बना हुआ है, जिसके एक कोने में सोफ़ा रखा हुआ है, उसके पीछे साइकिल रखी हुई है, और एक रस्सी पर कपड़े लटके हुए हैं. चाय की चुस्कियों के साथ वह रजिस्ट्रार ऑफ़िस में हुई अपनी शादी के बारे में बताती हैं, जब वह 29 साल की थीं. एक गांव की औरत की शादी में हुई इतनी देरी उस ज़माने में सामान्य बात नहीं थी. शायद उनके परिवार की ग़रीबी इस देरी की सबसे बड़ी वजह थी. रानी की तीन बेटियां (थंगम्मल, संगीता, और कमला) हैं और एक बेटा (कुमार) है, जो उनके साथ ही रहता है.

वह कहती हैं, "शादी तो हो गई, लेकिन हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि हम किसी समारोह का आयोजन कर सकें." फिर वह अपने परिवार का एल्बम दिखाने लगती हैं: एक बेटी का ऋतु कला संस्कार समारोह, दूसरी बेटी की शादी, सज-धजकर अच्छे कपड़े पहना हुआ उनका परिवार, उनका बेटा कुमार नाचता हुआ, गाते हुए...इन ख़ुशियों की क़ीमत उन्होंने नमक की क्यारियों में जुते रहकर चुकाई है.

जिस समय हम हंस रहे थे और बातें कर रहे थे, उसी दौरान रानी हरे तारों से बनी एक टोकरी के किनारों और उसके हैंडल को कस रही थीं. यूट्यूब पर गूज़बेरी पैटर्न (अमला गांठ) से बनाई गई एक टोकरी का वीडियो देखकर कुमार ने वह टोकरी अपने हाथों से बनाई थी. कभी-कभी, उसके पास इन सबके लिए ज़रा भी समय नहीं होता. अतिरिक्त कमाई के लिए वह नमक की किसी दूसरी क्यारी पर दूसरी पाली में काम करने चला जाता है. औरतों की दूसरी पाली घर के कामों में बीतती है. वह इस बात को ज़ोर देते हुए कहता है, "उन्हें शायद ही कभी आराम मिलता है."

रानी को तो कभी आराम नहीं मिला. यहां तक कि बचपन में भी नहीं. जब वह महज़ तीन साल की थीं, तभी उन्हें अपनी मां और बहन के साथ सर्कस में काम करने के लिए भेजा गया था. "उसका नाम तूतीकोरिन सोलोमन सर्कस था, और मेरी मां 'हाई-व्हील' [एक पहिए वाली] साइकिल चलाने में कुशल थीं." रानी कलाबाज़ियां दिखाने में उस्ताद थीं, वहीं उनकी बहन बाज़ीगरी में. "मेरी बहन तनी हुई रस्सी पर चलने में माहिर थी. मैं कमर से पीछे मुड़कर अपने मुंह से कप उठाती थी." सर्कस की मंडली के साथ उन्होंने मदुरई, मनप्परई, नागरकोइल, पोल्लाची जैसे शहरों की यात्रा की.

जब रानी आठ साल की हुईं, तो जब भी सर्कस मंडली तूतीकोरिन वापिस लौटती, उन्हें नमक की क्यारियों में काम करने के लिए भेज दिया जाता था. तबसे लेकर आज तक नमक की क्यारियां ही उनकी दुनिया है. आठ साल की उम्र में ही उनका स्कूल भी छूट गया. "मैंने कक्षा 3 तक पढ़ाई की है. मैं अपना नाम लिख सकती हूं, बस के रास्तों को पढ़ सकती हूं, और एमजीआर के गाने भी गा सकती हूं." उस दिन सुबह जब रेडियो पर एमजीआर का एक गाना बजा, तो उसके साथ-साथ वह भी गाने लगीं. गाने के बोल हमसे दुनिया में कुछ अच्छा करने की बात कहते हैं.

Rani and Jhansi with their heavy tools: just another day of backbreaking labour
PHOTO • M. Palani Kumar
Rani and Jhansi with their heavy tools: just another day of backbreaking labour
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अपने भारी-भरकम औज़ारों के साथ रानी और झांसी: कमरतोड़ मेहनत वाला एक और दिन

उनके साथ काम करने वाली औरतें चिढ़ाते हुए कहती हैं कि रानी नाचने में भी कमाल हैं. जब वे औरतें हाल में आयोजित एक समारोह (जिसकी मुख्य अतिथि तूतुकुड़ी की सांसद कनिमोझी करुणानिधि थीं) के बारे में बताती हैं, जिसमें रानी ने करगट्टम नृत्य का प्रदर्शन किया था, तो वह झेंप जाती हैं. रानी मंच पर बोलना भी सीख रही हैं, और अपने कुलू, यानी स्वयं सहायता समूह की औरतों, और उसके साथ-साथ नमक-मज़दूरों की नेता के रूप में वह सरकार के सामने उनका पक्ष रखने के लिए यात्राएं करती हैं. जब उनकी साथी महिलाएं कहती हैं, "वह हमारे नमक के खेतों की रानी है," तो वह हल्के से मुस्कुरा देती हैं.

2017 में कृष्णमूर्ति द्वारा आयोजित एक सभा में शामिल होने के लिए वह चेन्नई गई थीं. "हममें से बहुत से लोग तीन दिनों के लिए वहां गए थे. वह एक मज़ेदार यात्रा थी! हम एक होटल में ठहरे थे, और वहां से एमजीआर की समाधि (अन्ना समाधि) देखने गए. हमने नूडल, चिकन, इडली, और पोंगल खाया. हम जब तक मरीना तट पर पहुंचे, तब तक बहुत रात हो चुकी थी, लेकिन सब बहुत बढ़िया और यादगार था!"

घर पर उनका खाना बहुत साधारण होता है. वह चावल और एक रसेदार सब्ज़ी (कुज़ाम्बू) पकाती हैं. सामान्यतः कुज़ाम्बू, मछली के साथ या प्याज़ या फिर फलियों के साथ बनाया जाता है. अलग से खाने के लिए करुवाडु (सूखी नमकीन मछली) और कुछ सब्ज़ियां, जैसे पत्ता गोभी या चुकंदर खाने के साथ रखा जाता है. वह बताती हैं, "जब हमारे पास पैसे कम होते हैं, तो हम काली कॉफ़ी पीते हैं." लेकिन वह शिकायत नहीं करतीं. ईसाई होने के नाते वह चर्च जाती हैं और भजन गाती हैं. अपने पति सेसू को एक दुर्घटना में खो देने के बाद, उनके बच्चे उनके साथ काफ़ी अच्छे से रहे हैं, ख़ासकर वह अपने बेटे का नाम बार-बार लेती हैं. "मैं किसी बात की शिकायत नहीं कर सकती (ओन्नुम कुरइ सोल्ल मुडियाद), भगवान ने मुझे अच्छे बच्चे दिए हैं."

जब वह गर्भवती थीं, तब वह प्रसव होने तक लगातार काम करती रहीं. प्रसव के लिए भी वह नमक की क्यारियों से सीधे अस्पताल तक पैदल चलकर पहुंची थीं. घुटनों के पास अपनी जांघों को थपथपाते हुए वह बताती हैं, "मेरा पेट यहां पर आराम करता था." प्रसव के 13 दिन बाद ही वह वापस काम पर आ गई थीं. उनका बच्चा भूख से न बिलखे, उसके लिए वह साबुदाने के आटे का पतला घोल बनाती थीं. दो चम्मच आटे को एक कपड़े में बांधकर, पानी में भिगोकर, और उबालकर वह उसे ग्राइप वॉटर में डालकर उस पर रबर का ढक्कन लगा देती थीं. और उनके स्तनपान के लिए लौट आने तक, कोई उनके बच्चे के साथ होता था और उसे बोतल से घोल पिलाता रहता था.

माहवारी भी उतनी ही कठिन होती थी, जब उसके कारण उनके पैरों और जांघों में जलन होती थी और दर्द के मारे उन्हें झुंझलाहट होती थी. "शाम को गर्म पानी से नहाने के बाद मैं अपनी जांघों पर नारियल तेल मलती थी. ताकि अगली सुबह मैं काम करने जा सकूं...."

इतने साल के अनुभव के बाद, रानी नमक को देखकर और छूकर ही उसकी खाद्य गुणवत्ता के बारे में बता सकती हैं. अच्छे सेंधा नमक की पहचान ये है कि उसके दाने एक बराबर होते हैं और एक-दूसरे से चिपकते नहीं हैं. "अगर ये चिपचिपा [पिसु-पिसु] हुआ, तो इसका स्वाद अच्छा नहीं होगा." वैज्ञानिक ढंग से नमक-उत्पादन में बॉम थर्मोमीटर और व्यापक सिंचाई मार्गों का प्रयोग किया जाता है, ताकि नमक की उच्च गुणवत्ता वाली फ़सल तैयार हो सके. वह मुझे बताती हैं कि इन ज़रूरतों को पूरा करने के बावजूद, ये नमक औद्योगिक उपयोग के लिए ज़्यादा बेहतर होता है.

Rani at home, and with her son Kumar (right). During each pregnancy, she worked till the day of delivery – then walked to the hospital directly from the salt pans
PHOTO • M. Palani Kumar
During each pregnancy, she worked till the day of delivery – then walked to the hospital directly from the salt pans
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रानी घर पर अपने बेटे कुमार (दाएं) के साथ बैठी हैं. जब भी वह गर्भवती हुईं, प्रसव होने तक लगातार काम करती रहीं. प्रसव के लिए भी वह नमक की क्यारियों से सीधे अस्पताल तक पैदल चलकर पहुंची थीं

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"नमक के मैदानों को उद्योग के रूप में नहीं, बल्कि कृषि के रूप में देखना चाहिए."
– जी. ग्रहदुराई, अध्यक्ष, तूतुकुड़ी स्मॉल स्केल साल्ट मैन्युफ़ैक्चरर्स एसोसिएशन

तूतुकुड़ी की न्यू कॉलोनी में बने अपने वातानुकूलित ऑफ़िस (जो नमक के मैदानों से ज़्यादा दूर नहीं है, क्योंकि भरी दोपहर में उनके ऑफ़िस से उन मैदानों के ऊपर उड़ते कौओं को देखा जा सकता है) में जी. ग्रहदुराई मुझसे ज़िले के नमक-उद्योग से जुड़ी सबसे महत्त्वपूर्ण बातों की चर्चा करते हैं. उनके एसोसिएशन में 175 के क़रीब सदस्य हैं और हर एक सदस्य के पास दस एकड़ ज़मीन है. ज़िले भर में, 25 हज़ार एकड़ तक फैली हुई क्यारियां सालाना 25 लाख टन नमक का उत्पादन करती हैं.

औसतन हर एकड़ ज़मीन, सालाना सौ टन नमक का उत्पादन करती है. एक ख़राब वर्ष में, जब बहुत ज़्यादा बारिश हो जाती है, तब उत्पादन घटकर 60 टन हो जाता है. ग्रहदुराई श्रम की बढ़ती लागत पर बात करते हुए कहते हैं, "खारी मिट्टी के अलावा हमें बिजली की ज़रूरत होती है, ताकि पानी को खींचा जा सके, और साथ ही नमक बनाने के लिए हमें श्रमिकों की आवश्यकता होती है. श्रम की लागत लगातार बढ़ती ही जा रही है. और अब तो काम के घंटे भी कम हो गए हैं. पहले आठ घंटे काम होता था, अब केवल चार घंटे काम होता है. वे सुबह पांच बजे आते हैं और 9 बजे ही चले जाते हैं. यहां तक कि अगर मालिक भी वहां जाकर देखते हैं, तो कोई मज़दूर वहां दिखाई नहीं देता." काम के घंटों को लेकर उनकी गणित मज़दूरों से कुछ अलग है.

ग्रहदुराई यह मानते हैं कि काम करने की परिस्थितियों के लिहाज़ से नमक की क्यारियों में काम करना बहुत कठिन है. "पानी और टॉयलेट की सुविधा देना ज़रूरी है, लेकिन ये आसान नहीं है, क्योंकि नमक की क्यारियां सौ किलोमीटर की दूरी तक फैली हुई हैं."

ग्रहदुराई कहते हैं कि तूतुकुड़ी के नमक की मांग कम होती जा रही है. "पहले, यहां के नमक को सबसे बेहतर खाद्य नमक माना जाता था. लेकिन अब इसकी आपूर्ति केवल चार दक्षिणी राज्यों में होती है. और थोड़ा बहुत इसका निर्यात सिंगापुर और मलेशिया में किया जाता है. इसके ज़्यादातर हिस्से का उपयोग उद्योगों में होता है. हां, मानसून के बाद क्यारियों से निकाले गए जिप्सम से कुछ मुनाफ़ा हो जाता है. अप्रैल और मई महीने में हुई बारिश और जलवायु परिवर्तन के कारण नमक-उत्पादन भी तेज़ी से प्रभावित हो रहा है.

इसके अलावा, गुजरात से कड़ी प्रतिस्पर्धा भी है: "तूतुकुड़ी की तुलना में गर्म और शुष्क होने के कारण देश के कुल नमक-उत्पादन का 76% हिस्सा अब उस पश्चिमी राज्य (गुजरात) का है. उनके नमक के जोत काफ़ी बड़े हैं और उत्पादन-प्रक्रिया भी आंशिक रूप से मशीनीकृत है. इसके अलावा वहां बड़ी संख्या में बिहार से आए प्रवासी मज़दूर [जो सस्ता श्रम प्रदान करते हैं] भी काम करते हैं. उनकी क्यारियों को ज्वार के पानी से भरा जाता है, इसलिए उनका बिजली का ख़र्च भी बच जाता है."

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छोटी-छोटी सफलताएं - वेतन में मामूली बढ़ोतरी और बोनस - ये सब इसलिए हुआ है, क्योंकि नमक-मज़दूरों ने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी है

तूतुकुड़ी में एक टन नमक के उत्पादन की लागत 600 से 700 रुपए है. वह दावा करते हैं, "जबकि गुजरात में यह केवल 300 रुपए है. हम उनसे कैसे मुक़ाबला कर सकते हैं, ख़ासकर जब एक टन नमक की क़ीमत अचानक गिरकर 600 रुपए हो जाती है, जैसा कि 2019 में हुआ था?" इसकी भरपाई के लिए, ग्रहदुराई और दूसरे लोग चाहते हैं कि नमक-उत्पादन को "उद्योग की तरह नहीं, बल्कि कृषि उत्पादन की तरह देखा जाए." [इसी कारण नमक को 'फ़सल' घोषित करने का विचार पैदा हुआ है.] नमक-उत्पादन करने वाली छोटी इकाईयों को कम ब्याज़ दरों पर ऋण, सब्सिडी पर बिजली, और कारखाना एवं श्रम अधिनियमों से छूट की ज़रूरत है.

"इस साल, पहले ही गुजरात से आए जहाज़ों ने तूतुकुड़ी में अपने नमक की बिक्री की है."

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"वे हमारे बारे में केवल तब लिखते हैं, जब कुछ भयानक घटता है."
– महिला नमक-मज़दूर

नमक-मज़दूरों की आजीविका की सुरक्षा के लिए असंगठित मज़दूर संघ के कृष्णमूर्ति अपनी कई मांगों को सामने रखते हैं. बुनियादी सुविधाओं (जैसे पानी, शौचालय, और विश्राम-स्थल) के अलावा, वह मज़दूरों, मालिकों, और सरकार के प्रतिनिधियों वाली एक समिति बनाने की मांग करते हैं, ताकि विलंबित मामलों को जल्दी सुलझाया जा सके.

"हमें तुरंत ही बच्चों के देखभाल (चाइल्डकेयर) से जुड़ी सुविधाओं की ज़रूरत है. अभी तक आंगनवाड़ियां केवल सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे के बीच (कार्यालय अवधि) काम करती हैं. नमक-मज़दूर सुबह पांच बजे अपने घर से निकल जाते हैं और कुछ इलाक़ों में उन्हें काम पर और भी पहले निकलना होता है. अगर उनके बच्चों में सबसे बड़ी एक लड़की है, तो वह मां की अनुपस्थिति में अपने भाई-बहनों की देखभाल के लिए घर पर बैठी रहेगी, और उसकी पढ़ाई ख़राब हो जाएगी. क्या आंगनवाड़ियों को इन बच्चों की देखभाल के लिए, सुबह 5 बजे से सुबह 10 बजे तक काम नहीं करना चाहिए?"

कृष्णमूर्ति अपनी छोटी-छोटी सफलताओं (जैसे मज़दूरी में आंशिक वृद्धि और बोनस) के बारे में बताते हैं कि ये सब तभी संभव हुआ, जब मज़दूर इकट्ठा हुए और उन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. तमिलनाडु की नई डीएमके सरकार ने 2021 के अपने बजट में उनकी एक बहुत पुरानी मांग को शामिल किया है: मानसून के दौरान 5,000 रुपए की राहत सहायता राशि. कृष्णमूर्ति और सामाजिक कार्यकर्ता उमा माहेश्वरी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि असंगठित क्षेत्र को आसानी से एक संगठित क्षेत्र के रूप में परिवर्तित नहीं किया जा सकता. इस व्यवसाय के अपने स्वास्थ्य-जोख़िम हैं. वे पूछते हैं, "लेकिन क्या सामाजिक सुरक्षा के कुछ बुनियादी उपाय उपलब्ध नहीं कराए जा सकते हैं?" हां. निश्चित रूप से.

आख़िरकार, जैसा कि महिलाएं कहती हैं, मालिक हमेशा मुनाफ़ा कमाते हैं. झांसी इन नमक की क्यारियों की तुलना ताड़ के पेड़ों से करती हैं. दोनों ही कठोर, सूरज की तपती धूप का सामना करने में सक्षम, और हमेशा ही उपयोगी हैं. वह बार-बार 'धुद्दू' शब्द (बोलचाल की भाषा में पैसे के लिए इस्तेमाल होने वाला एक तमिल शब्द) बोलते हुए कहती हैं कि नमक की क्यारियां हमेशा अपने मालिकों को पैसा देती हैं.

काम निपटाने के बाद, छोटे से काग़ज़ के कप में चाय पीते हुए ये औरतें मुझसे कहती हैं, "पर हमें नहीं देती. हमारी ज़िंदगी के बारे में कोई नहीं जानता. हर जगह आप किसानों के बारे में पढ़ते हैं, लेकिन मीडिया हमसे केवल तभी बात करता है, जब हम विरोध प्रदर्शन करते हैं." और फिर तल्ख़ आवाज़ में पूछती हैं, "वे केवल तब हमारे बारे में लिखते हैं, जब हमारे साथ कुछ बहुत बुरा हो जाता है. मुझे बताइए, क्या सभी लोग नमक नहीं खाते?"

इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.

अनुवाद: प्रतिमा

Reporting : Aparna Karthikeyan

ଅପର୍ଣ୍ଣା କାର୍ତ୍ତିକେୟନ ହେଉଛନ୍ତି ଜଣେ ସ୍ୱାଧୀନ ସାମ୍ବାଦିକା, ଲେଖିକା ଓ ପରୀର ବରିଷ୍ଠ ଫେଲୋ । ତାଙ୍କର ତଥ୍ୟ ଭିତ୍ତିକ ପୁସ୍ତକ ‘ନାଇନ୍‌ ରୁପିଜ୍‌ ଏ ଆୱାର୍‌’ରେ ସେ କ୍ରମଶଃ ଲୋପ ପାଇଯାଉଥିବା ଜୀବିକା ବିଷୟରେ ବର୍ଣ୍ଣନା କରିଛନ୍ତି । ସେ ପିଲାମାନଙ୍କ ପାଇଁ ପାଞ୍ଚଟି ପୁସ୍ତକ ରଚନା କରିଛନ୍ତି । ଅପର୍ଣ୍ଣା ତାଙ୍କର ପରିବାର ଓ କୁକୁରମାନଙ୍କ ସହିତ ଚେନ୍ନାଇରେ ବାସ କରନ୍ତି ।

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Photos and Video : M. Palani Kumar

ଏମ୍‌. ପାଲାନି କୁମାର ‘ପିପୁଲ୍‌ସ ଆର୍କାଇଭ୍‌ ଅଫ୍‌ ରୁରାଲ ଇଣ୍ଡିଆ’ର ଷ୍ଟାଫ୍‌ ଫଟୋଗ୍ରାଫର । ସେ ଅବହେଳିତ ଓ ଦରିଦ୍ର କର୍ମଜୀବୀ ମହିଳାଙ୍କ ଜୀବନୀକୁ ନେଇ ଆଲେଖ୍ୟ ପ୍ରସ୍ତୁତ କରିବାରେ ରୁଚି ରଖନ୍ତି। ପାଲାନି ୨୦୨୧ରେ ଆମ୍ପ୍ଲିଫାଇ ଗ୍ରାଣ୍ଟ ଏବଂ ୨୦୨୦ରେ ସମ୍ୟକ ଦୃଷ୍ଟି ଓ ଫଟୋ ସାଉଥ ଏସିଆ ଗ୍ରାଣ୍ଟ ପ୍ରାପ୍ତ କରିଥିଲେ। ସେ ପ୍ରଥମ ଦୟାନିତା ସିଂ - ପରୀ ଡକ୍ୟୁମେଣ୍ଟାରୀ ଫଟୋଗ୍ରାଫୀ ପୁରସ୍କାର ୨୦୨୨ ପାଇଥିଲେ। ପାଲାନୀ ହେଉଛନ୍ତି ‘କାକୁସ୍‌’(ଶୌଚାଳୟ), ତାମିଲ୍ ଭାଷାର ଏକ ପ୍ରାମାଣିକ ଚଳଚ୍ଚିତ୍ରର ସିନେମାଟୋଗ୍ରାଫର, ଯାହାକି ତାମିଲ୍‌ନାଡ଼ୁରେ ହାତରେ ମଇଳା ସଫା କରାଯିବାର ପ୍ରଥାକୁ ଲୋକଲୋଚନକୁ ଆଣିଥିଲା।

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Translator : Pratima

Pratima is a counselor. She also works as a freelance translator.

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