अब्दुल रहमान की दुनिया - व्यवसायिक, निजी, और शारीरिक हर लिहाज़ से - सिकुड़ कर इन दिनों बेहद छोटी हो गई है. चार महाद्वीपों की यात्रा कर चुके इस प्रवासी मज़दूर की ज़िंदगी 150 वर्गफुट के एकमात्र कमरे में सीमित होकर रह गई है. उस कमरे में उनके साथ परिवार के पांच दूसरे लोग भी रहते हैं.
मुंबई के इस टैक्सी चालक – जिनके वालिद तमिलनाडु के एक ग्रामीण इलाक़े से इस शहर में आए थे - ने मुंबई से पहले सऊदी अरब, दुबई, ब्रिटेन, कनाडा, इंडोनेशिया, मलेशिया, और अफ़्रीका के कुछ हिस्सों में कार और बुलडोज़र चलाने का काम किया, लेकिन अब माहिम की झुग्गी बस्ती की तंग गलियों से उन्हें सायन के अस्पताल तक पहुंचाने वाली टैक्सी पर बिठाने के लिए कुर्सी पर लाद कर ले जाना पड़ता है.
जब कभी उनको अस्पताल ले जाने की ज़रूरत पड़ती है, तो रहमान को उनके कमरे से नीचे उतारना एक ख़ासा मुश्किल और तकलीफ़देह काम होता है. कमरे की सीढ़ी ठीक दरवाज़े के बाहर है. नीचे उतारने के लिए रहमान को फ़र्श पर बिठा दिया जाता है और उनका बेटा नीचे से उनके पैरों को उठाता है. ऊपर से उन्हें सहारा देने के लिए उनका कोई भतीजा या पड़ोसी रहता है. फिर रहमान को धीरे-धीरे तक़रीबन घिसटते हुए नीचे उतरना होता है. इस तरह उन्हें कुल नौ ख़तरनाक और खड़े-ऊंचे पायदानों से उतरना होता है और इस पूरी प्रक्रिया में उन्हें असह्य पीड़ा होती है.
नीचे की संकड़ी गली में उन्हें सहारा देकर एक पुरानी और बदरंग प्लास्टिक की कुर्सी पर बिठाया जाता है. उनके दाएं पैर को, जिसे अब काटा जा चुका है, कुर्सी पर ठीक से जमा दिया जाता है. उसके बाद उनका बेटा दो दूसरे लोगों की मदद से कुर्सी को लंबी और घुमावदार गलियों से निकालते हुए माहिम बस डिपो के पास निकलने वाली सड़क पर पहुंचाता है. वहां रहमान को एक टैक्सी में जतन से घुसाया जाता है.
उनके घर से सायन का सरकारी अस्पताल मुश्किल से पांच किलोमीटर दूर है, लेकिन वहां तक जाने का किराया इतना ज़्यादा है कि उस ख़र्च का बोझ उठा पाना उनके लिए ख़ासा मुश्किल है. इसके बावजूद पिछले साल कई महीनों तक अपने पांव की पट्टियाँ बदलवाने के लिए उन्हें हफ़्ते में तीन बार अस्पताल जाना होता था. साथ ही, वह डायबिटीज़ बढ़ने से और परिसंचरण तंत्र में बाधा से होने वाली परेशानियों के समाधान के लिए भी वहां जाते थे. जब उनका ज़ख़्म थोड़ा सा सूख गया, तो उनका अस्पताल जाना पहले की बनिस्बत कम हो गया. लेकिन अभी भी कभी-कभार उन्हें कुर्सी पर बिठा कर दो तरफ़ा, दो या तीन मंजिले दड़बेनुमा मकानों के बीच की तंग गलियों से गुज़रते हुए उत्तरी मुंबई के मोरी रोड तक का सफ़र तय करने की ज़रूरत पड़ती है.
सालोंसाल अब्दुल रहमान अब्दुल समद शेख़ इन्हीं गलियों से रोज़ सुबह में लपकते हुए अपनी सड़क पर पार्क की हुई टैक्सी तक पहुंचते थे, और 12 घंटे लगातार काम से भरे अपने दिन की शुरुआत करते थे. साल 2020 के मार्च में लॉकडाउन की शुरुआत के बाद उन्होंने टैक्सी चलाने का काम छोड़ दिया, लेकिन अपने पुराने दोस्तों और दूसरे चालकों से मिलने के लिए एक जान-पहचान वाले चाय के स्टाल तक जाना बदस्तूर जारी रखा. इस बीच उनका मधुमेह बढ़ता ही जा रहा था और वह भीतर से बेहतर महसूस नहीं कर रहे थे, और लॉकडाउन के थोड़ा ढीला होने के बाद भी अपना काम फिर से शुरू नहीं कर पाए. लेकिन उन्होंने ख़ुद को हमेशा सक्रिय रखा.
फिर एक दिन उनकी नज़र अपने पैर की बीच की उंगली के एक “छोटे से काले धब्बे” पर गई, गोया किसी ने क़लम की नोक से एक बिंदु अंकित कर दिया हो. बहरहाल जब डॉक्टर ने एंटीबायोटिक की गोलियां देते हुए उन्हें आश्वस्त किया, तो रहमान ने इस बारे में ज़्यादा सोचना मुनासिब नहीं समझा. वह कहते हैं, “लेकिन मुझे दवाओं से कोई फ़ायदा नहीं हुआ.” उनके दाएं पैर की बीच की ऊँगली का वह धब्बा धीरे-धीरे बढ़ता गया. वह बताते हैं, “मेरे पैर में तेज़ दर्द रहने लगा. जब मैं चलता था, तो वह किसी तेज़ सुई की तरह चुभता था.”
बार-बार डॉक्टरों के चक्कर लगाने, एक्स-रे और टेस्ट कराने के बाद चमड़ी के उस काले धब्बे को काट कर हटा दिया गया. इसके बाद भी उनको राहत नहीं मिली. महीने भर के भीतर अगस्त 2021 में उंगली को काट कर निकाल देना पड़ा. कुछ हफ़्ते बाद ही उससे लगी दूसरी उंगली को भी काटना पड़ गया. इतनों दिनों से अवरुद्ध खून का बहाव धीरे-धीरे अब बड़ी क़ीमत वसूल रहा था, और पिछले साल की अक्टूबर तक रहमान के दाएं पैर का आधा पंजा काट डाला गया. उन्होंने थकी हुई ज़ुबान में बताया, “पांचों उंगली उड़ा दिया .” वह कमरे में बिछी एक पतली सी चटाई पर बैठे हुए थे.
उसके बाद से ही अस्पताल के लिए निकलने के सिवा उनकी दुनिया पहले तल्ले पर बने इस छोटे से दमघोंटू कमरे में सिमट कर रह गई है. वह कहते हैं, “बस अकेला पड़ा रहता हूं . मेरे पास समय गुज़ारने का कोई ज़रिया नहीं है. हमारे पास एक टीवी ज़रूर है, लेकिन हम उसे चलाने का ख़र्चा नहीं उठा सकते...मैं बस सोचता रहता हूं...अपने दोस्तों को याद करता हूं, उन चीज़ों के बारे में सोचता हूं, जो मैंने अपने बच्चों के लिए ख़रीदी थीं....लेकिन यह सब याद करके मुझे अब क्या हासिल होगा?”
अपना तक़रीबन आधा पांव काटे जाने और सेहत के हाथों लाचार हो जाने से पहले, कोई चार दशकों तक, रहमान की दुनिया इस कमरे और गलियों से बाहर बहुत दूर तक फैली हुई थी - इस शहर के दूर-दराज़ के कोनों से लेकर बाहर तक भी. जब वह 18 साल के थे, तभी उन्होंने दूसरे टैक्सी चालकों से शहर की सड़कों पर टैक्सी चलाना सीखा. फिर रोज़ाना “30 से 50 रुपए” कमाने के लिए भाड़े पर एक टैक्सी ले ली. जब वह 20 के हुए तब उन्हें मुंबई की सरकारी बस सेवा ‘बेस्ट’ (बीईएसटी) में क्लीनर और मैकेनिक के खलासी की नौकरी मिल गई.
आठ साल बाद 1992 में जब उनकी तनख़्वाह 1,750 रुपए थी, तब उन्हें एक एजेंट के ज़रिए सऊदी अरब में काम करने का मौक़ा मिल गया. वह कहते हैं, “उन दिनों यह कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था. वहां (सऊदी में) मुझे हरेक महीने 2,000 से 3,000 रुपए मिलने थे, और तब परिवार चलाने के लिए महीने में 500 रुपए भी काफ़ी थे. ज़ाहिर था, वहां मुझे ‘बेस्ट’ से ज़्यादा पैसे मिलने वाले थे.”
रहमान ने वहां ख़ासकर बतौर बुलडोज़र ऑपरेटर काम किया और कई बार पार्ट टाइम में उन्होंने किराए की कार भी चलाई. वह बताते हैं, “मेरा मालिक एक अच्छा आदमी था.” उसने उनके रहने का भी इंतज़ाम कर दिया था. वह अपने कामगारों को दूसरे देशों के वर्क साइट्स पर भी काम करने के लिए भेजता था. लिहाज़ा कई बार रहमान दुनिया के दूसरे हिस्सों में फैले उसके वर्क साइट्स पर भी काम करने के लिए भेजे गए.
उनकी बेग़म ताजुनिस्सा एक प्लास्टिक के झोले से उनके प्रवास के दिनों की तस्वीरें निकाल कर दिखाती हैं, जिनमें से ज़्यादातर तस्वीरें अब पुरानी पड़ चुकी हैं और जगह-जगह से मुड़-तुड़ भी गई हैं. एक तस्वीर में संजीदा रहने वाले रहमान एक कार से बैठे हुए दिखते हैं और उनके चेहरे पर एक संतोष है. दूसरी तस्वीरों में वह एक बुलडोज़र पर बैठे हैं या एक दुकान में खड़े हैं या फिर अपने दोस्तों के साथ बैठे हैं. अपनी पुरानी तस्वीरों में वह लंबे और हट्ठेकट्टे दिखते हैं - जबकि 57 साल के वही रहमान, जिनके दिन अब एक चटाई पर गुज़र रहे हैं, अब कितने सिमटे हुए और दुर्बल दिखते हैं! अब तो बोलने से भी उनकी सांसें फूलती हैं.
हमेशा बैठ कर या लेटे हुए अपने दिन काटने वाले वाले रहमान शायद देश-देशांतर में गुज़रे अपने दिनों की यादों की गलियों में भटकते रहते हैं. वहां का जीवन बहुत आरामदेह था, वह बताते हैं. “सऊदी अरब में जिस कमरे में मैं रहता था उसमें एयर कंडीशनर लगा हुआ था, मैं जो कार चलाता था उसमें भी ए.सी. लगा होता था. खाने में हमें चावल और अक्खा चिकन (साबुत मुर्गा) मिलता था. वहां किसी तरह की कोई दिक़्क़त नहीं थी. मैं काम से थक कर लौटता था और नहाने के बाद खा कर सो जाता था. यहां तो हमारे पड़ोस में लगातार शोर-शराबा और झगड़ा होता रहता है. कोई भी आदमी शांति के साथ नहीं बैठ सकता. पंखे की हवा में मेरा बदन दुखता है...ऐसा महसूस होता है कि किसी ने देह की पूरी ताक़त निचोड़ ली हो.”
रहमान 2013 में वापस भारत लौट आए, क्योंकि उनके मुताबिक़ सऊदी में नौकरी देने वाले बाहर के देशों से आए लोगों को 15 सालों से ज़्यादा अपने अधीन नहीं रख सकते थे. जब वह लौटे तो इसी कमरे में रहने लगे, जिसमें वह अभी रहते हैं. इस कमरे को उनकी मां ने 1985 में उनके पिता की मृत्यु के बाद मिले भविष्य निधि के पैसों से 25,000 रुपयों में ख़रीदा था. उनके पिता मृत्यु से पहले तक ‘बेस्ट’ में ड्राईवर की नौकरी करते थे, और तब तक उनका परिवार वडाला में स्टाफ़ क्वार्टर में रहता था. रहमान ने अपनी सातवीं तक की पढाई भी वहीं की. उनके चार छोटे भाई और चार बहनें थीं. वह बताते हैं, “जब हम यहां रहने आए, तो हम 10 लोग इसी कमरे में अपना गुज़ारा करते थे.” दिसंबर 2021 तक भी 7 लोग इसी में रहते थे - रहमान और ताजुनिस्सा, उनके चार बच्चे, और उनकी अम्मी (जो पिछले साल दिसंबर में ही चल बसीं).
जब वे माहिम आए, तब उनकी अम्मी ने घरेलू नौकरानी का काम ढूंढ लिया, और बाद में उनकी बहनों को भी यही काम मिल गया. गुज़रे सालों में उनके दो भाई, जो फेरी लगाने का काम करते थे, दो अलग-अलग सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए. फ़िलहाल उनका एक भाई ए.सी. मैकेनिक हैं, दूसरा लकड़ियों पर वार्निश करने का काम करते हैं. वे दोनों भी माहिम की झुग्गियों में उसी ऊपर-नीचे बने दोखानों वाले मकान में रहते हैं. बीच के तल पर बने कमरे में रहमान रहते हैं और दोनों भाई ऊपर-नीचे. उन कमरों में इतने लोग रहते हैं कि तिल रखने की गुंजाइश भी नहीं बचती है.
उनकी बहनें शादी होने के बाद अपने-अपने घर चली गईं. रहमान जब विदेशों में काम करते थे, तो साल में एक बार, और कई बार तो दो सालों में एक बार ही भारत आ पाते थे. वह थोड़े फ़ख्र के साथ बताते हैं कि उनकी तनख़्वाह और बचत की मदद से ही उनके परिवार में शादी-ब्याह के काम निबट सके. अपनी भतीजियों-भांजियों तक की शादियों में वह अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे नहीं हटे.
जब रहमान सऊदी अरब से भारत लौटे, तो उनके पास 8 लाख रुपए थे जो उन्होंने पिछले कई सालों में बड़ी एहतियात के साथ बचाए थे. उस वक़्त उनकी मासिक आमदनी तक़रीबन 18,000 रुपए थी जिसका ज़्यादातर हिस्सा वे अपने घर भेज देते थे. यह बचत पारिवारिक शादियों में काम आई. उन्होंने एक टैक्सी परमिट भी ख़रीदा, और बैंक से 3.5 लाख रुपयों का क़र्ज़ लेकर एक सैंट्रो कार ख़रीदी. वह ख़ुद की टैक्सी चलाने लगे और कभी-कभार उसे किराए पर भी देने लगे. इस काम से उन्हें रोज़ 500-600 रुपयों की आमदनी होने लगी. दो साल बाद जब कार के रख-रखाव का ख़र्च उठा पाना उनके लिए मुश्किल हो गया और उनकी सेहत भी उन्हें धोखा देने लगी, तब रहमान ने कार को बेच दिया और एक भाड़े की टैक्सी चलाने लगे. ऐसे में उनकी रोज़ की कमाई घट कर तक़रीबन 300 रुपए रह गई.
यह 2015 की बात थी. वह बताते हैं, “मार्च 2020 के लॉकडाउन तक मैं यही कर रहा था. उसके बाद जैसे हरेक चीज़ रुक सी गई.” हालांकि, उसके बाद भी अपनी जान-पहचान के अड्डों पर अपने पुराने साथियों के साथ गपशप के इरादे से जाते थे. वह अपनी बात पूरी करते हैं, “लेकिन उसके बाद से अपने अधिकतर समय मैं अपने घर पर ही रहता था.” लॉकडाउन में उनके परिवार ने धर्मार्थ संस्थाओं और दरगाहों से मिलने वाले राशन के सहारे किसी तरह से गुज़र-बसर की. कभी-कभार किसी दोस्त या खाते-कमाते रिश्तेदारों से कुछेक सौ रुपयों की मदद हो जाती थी.
उन्हें अपने मधुमेह के रोगी होने का पता तभी चला जब रहमान सऊदी अरब में थे. उनका इलाज भी जारी था, लेकिन उनकी सेहत लगातार ख़राब होती जा रही थी. वह बताते हैं कि 2013 में भारत लौटने के बाद से उनकी सेहत में ज़्यादा गिरावट आ गई. यही वजह थी कि उन्होंने विदेश में अपने लिए नई नौकरी तलाशने का इरादा छोड़ दिया. रही-सही कसर लॉकडाउन ने पूरी कर दी और उनकी दुनिया सिमट कर बहुत छोटी रह गई. लंबे समय तक बिस्तर पर लेटे रहने के कारण उन्हें बेड सोर (दबाव वाले घाव) हो गया. बाद में उन ज़ख़्मों को सायन के अस्पताल में सर्जरी से ठीक किया गया.
उसके बाद ही रहमान ने अपने दाएं पैर की बीच की उंगली पर गहराते काले धब्बे पर गौर किया.
कई बार अस्पताल के चक्कर काटने के अलावा उन्होंने एक स्थानीय डॉक्टर से भी संपर्क किया, जिसने उन्हें बताया कि उच्च मधुमेह के कारण उनकी नसों में खून का बहाव रुक गया है. साथ ही उस डॉक्टर ने खून के बहाव को ठीक करने के लिए उन्हें एंजियोप्लास्टी कराने का मशविरा भी दिया. आख़िरकार अक्टूबर 2021 में सायन अस्पताल में इस काम को भी अंजाम दे दिया गया और कुछेक हफ़्ते बाद ही उनका आधा पांव काट दिया गया. रहमान बोलते हैं, “खून का बहाव पहले से बेहतर हो गया, दर्द में कमी आई, और चमड़ी पर का काला धब्बा भी धुंधला पड़ने लगा. बस हल्का दर्द और खुजली पैरों में रह गई थी.” उनकी मरहमपट्टी के लिए एक सहायक का इंतज़ाम भी एक स्थानीय संस्था ने कर दिया था, लिहाज़ा वह बार-बार अस्पताल जाने के झमेले से भी बच गए.
जब रहमान के पैर के ज़ख़्म भर रहे थे, तब उनके भीतर अपने ठीक हो जाने की उम्मीद जगी. हालांकि, लगातार बिस्तर पर शिथिल पड़े रहने के कारण उन्हें पेट की कुछ परेशानियां भी आईं और उन्हें इस साल की शुरुआत में कुछ दिनों के लिए के.इ.एम. अस्पताल में दाख़िल भी रहना पड़ा. उन्होंने कहा, “एक बार मेरे पांव में कुछ चमड़ी उग जाए, मैंने सुना है कि ऐसे पांवों के लिए एक ख़ास किस्म के जूते बनते हैं. मैंने उन जूतों की क़ीमत पता करने की कोशिश है...तब मैं दोबारा चलने के क़ाबिल हो जाऊंगा..” ताजुनिस्सा ने कहा कि वे अपने शौहर के लिए एक व्हीलचेयर हासिल करने की कोशिश भी कर रही हैं.
जब उनका ज़ख़्म भरने की उम्मीद जगी, तो रहमान की ख़ुशियां भी उनकी बातों से झलकने लगीं, और वे अक्सर तमिलनाडु की उलुन्दुरपेट तालुका के अपने पैतृक गांव एलावनसुरकोट्टई जाकर अपनी बड़ी बहन और परिवार के दूसरे लोगों से मिल आने का स्वप्न देखते थे. आज भी रहमान के सहोदरों की उनके प्रति चिंता उन्हें भावुक कर देती है, जब वे उनसे उनकी सेहत के बारे में पूछते हैं. वह बताते हैं, “मुझे वाक़ई ख़ुशी होती है.”
उनकी लंबी अस्वस्थता ने उनके पूरे परिवार पर गहरा असर डाला है. लॉकडाउन के बाद भी आमदनी का कोई ज़रिया नहीं होने के कारण परिवार आज भी दूसरों की मदद का मोहताज है. ताजुनिस्सा (48 साल) जो हाल-फ़िलहाल तक अपना घर-परिवार संभालती थीं, ने अब एक स्थानीय बालवाडी में सफ़ाई का अंशकालिक काम ढूंढ लिया है, जिससे उन्हें महीने के 300 रुपए मिल जाते हैं. वह कहती हैं, “मैं घरेलू नौकरानी का काम तलाश रही हूं. शायद मैं अपने बड़े बेटे को दर्ज़ी का काम करने भेजूं ...”
उनका बड़ा बेटा अब्दुल अयान अभी 15 साल का है. रहमान अपनी बेबसी बयान करते हैं, “अगर मेरा बेटा बड़ा रहता, तो मैं काम के लिए उसे दुबई भेजने के बारे में सोच सकता था. ताजुनिस्सा भी अपनी तरफ़ से जोडती हैं, “हमारी हालत बेहद ख़राब है. लॉकडाउन के बाद से हमारा बिजली बिल तक़रीबन 19,000 रुपया बकाया हो चुका है, लेकिन जब बिजली विभाग से आए आदमी ने हमारी हालत देखी, तब उसने हमें भुगतान करने के लिए थोड़ा वक़्त दिया. बच्चों की स्कूल-फ़ीस भी पूरी नहीं दी गई है, हमने उसे चुकाने के लिए भी थोड़ा समय मांगा है. गैस सिलेंडर भी ख़त्म होने को है. हमारा घर कैसे चलेगा? हम अपने बच्चों की परवरिश कैसे कर सकेंगे?”
उनका छोटा बेटा आठ साल का अब्दुल समद, और छोटी बेटी, 12 साल की अफ़शा पिछले दो सालों से ऑनलाइन क्लास नहीं कर पाए हैं. उनके चारों बच्चे पड़ोस के स्कूलों में ही दाख़िल हैं. अफ़शा बोलती है, “मुझे नहीं समझ आता है कि हमारी क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा है.” अब उनके स्कूल फिर से खुल चुके हैं.
उनकी बड़ी बेटी दानिया, जो 16 साल की है और ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती है, अपने चचेरे भाई-बहनों और दोस्तों के मोबाइल फ़ोनों के ज़रिए किसी तरह पढाई कर रही है. अयान की भी यही हालत है. दानिया कहती हैं कि वह ब्यूटीशियन की ट्रेनिंग करना चाहती है. मेहंदी लगाने के हुनर में वह पहले से पारंगत है. उसे उम्मीद है कि इसके ज़रिए वह थोड़ी-बहुत कमाई कर लेगी.
रहमान हर वक़्त अपने परिवार की ही चिंताओं से घिरे रहते हैं. वह कहते हैं, “मेरे बाद इन सबका क्या होगा? मेरा छोटा बेटा अभी महज़ आठ साल का है...” उनकी दूसरी चिंता इस बात को लेकर है कि अगर उनकी बस्ती को कभी किसी पुनर्विकास परियोजना के कारण उजाड़ दिया गया, तब उनका परिवार कहां जाएगा. पूरे परिवार को मुआवज़े में सिर्फ़ एक कमरे का आवास ही मिलेगा, जबकि फ़िलहाल वह और उनके भाई तीन कमरों में रहते हैं. फ़िक्र से भरे हुए रहमान पूछते हैं, “अगर मेरे भाई उसे बेच कर कहीं और जाना चाहें तब क्या होगा? अगर वे मेरे परिवार को 3-4 लाख रुपए पकड़ा दें और उसे बाहर का रास्ता दिखा दें तब मेरा परिवार कहां जाएगा?”
वह आगे कहते हैं, “अगर यह घाव मेरे पैर की जगह मेरी देह के किसी और हिस्से में हुआ होता, तो मुझे इतनी परवाह नहीं होती. मेरा हाथ भी कट जाता, तो कम से कम मैं चल तो सकता था या कहीं आ-जा तो सकता था. फ़िलहाल तो मैं ख़ुद भी नहीं जानता कि और कितने दिन जिऊंगा. अपने बच्चों के बारे में सोच कर अब मैं नाउम्मीद हो चुका हूं, लेकिन जब तक मैं ज़िंदा हूं, तब तक मैं चाहूंगा कि वे पढ़ें. मुझे उनके लिए क़र्ज़ भी लेना पड़े तो लूंगा, लेकिन मैं कोई न कोई बन्दोबस्त ज़रूर करूंगा.”
फ़रवरी महीने के बीच के आसपास अपने चेकअप के क्रम में रहमान सायन अस्पताल गए थे, तब असमान्य रूप से बढ़े हुए मधुमेह के कारण डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल में दाख़िल हो जाने का मशविरा दिया था. वह कोई महीने भर वहां दाख़िल रहे और फिर उन्हें 12 मार्च को घर वापस भेज दिया गया. उनका मधुमेह अभी भी नियंत्रण से बाहर है और उनके दाएं पांव में सिर्फ़ हड्डी और चमड़ी दिखती है.
वह कहते हैं, “दायें पैर की बची हुई खाल दोबारा काली पड़ने लगी है और उसमें दर्द भी बना हुआ था. डॉक्टर को ऐसा लगता है कि मेरा पूरा पांव काटने की नौबत आ सकती है.”
रहमान बताते हैं कि 14 मार्च की रात को दर्द बर्दाश्त की हद से बाहर हो गया. उनके मुताबिक़, “ऐसा लगा कि मैं चिल्ला कर रो पडूंगा.” उन्हें दोबारा कुर्सी पर लाद कर टैक्सी तक पहुंचाया गया, ताकि उन्हें फिर से अस्पताल ले जाया जा सके. उनके दोबारा टेस्ट किए गए हैं. सुइयों और दवाओं की वजह से उनका दर्द थोड़ा कम हुआ है, लेकिन दर्द दोबारा कभी भी बढ़ सकता है. जल्दी ही गहरी जांच और दूसरे टेस्ट के लिए उनको अस्पताल फिर से वापस जाना होगा और शायद उनकी दोबारा सर्जरी भी की जा सकती है.
वह बेहद थके हुए और गहरी तक़लीफ़ में दिखाई देते हैं. उनके परिवार को अभी भी यह उम्मीद है कि जल्दी उनकी सारी मुश्किलें दूर हो जाएंगी. रहमान भाई कहते हैं, “इंशाअल्लाह.”
कवर फ़ोटो: संदीप मंडल
लक्ष्मी
कांबले के प्रति कृतज्ञता के साथ, जिनके सदाशयपूर्ण सहयोग के कारण इस
स्टोरी पर काम करना संभव हो पाया.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद