“छतों से गिरकर हमारे घरों में मरते चूहे मुझे अब भी याद हैं. मैंने इससे मनहूस कोई दृश्य नहीं देखा कभी. इस बात पर आप लोगों को अब हंसी आ सकती है, लेकिन छत से चूहे गिरने का मतलब था कि हमें अपना घर छोड़कर जाना पड़ेगा. यह जाने बिना कि वापस कब लौट पाएंगे.”
विचलित कर देने वाले उस समय के दृश्य पेश करती ये बातें ए. कुलंधइअम्माल बतती हैं. वह कोयंबटूर के कलापट्टी की रहने वाली हैं. इस वक्त अस्सी की उम्र पार कर चुकी कुलंधइअम्माल अपनी किशोरावस्था में भी नहीं पहुंची थी, जब 1940 की शुरुआत में तमिलनाडु के इस शहर को आख़िरी बार प्लेग ने अपनी जकड़ में लिया था.
कोयंबटूर के साथ महामारियों का एक दुखद इतिहास जुड़ा है. चेचक, प्लेग, हैजा जैसी महामारियां फैलीं तो हर जगह, लेकिन यहां इस पैमाने पर फैलीं, जैसे इस क्षेत्र को छोड़ना न चाहती हों. प्लेग मारिअम्मन (जिसे ब्लैक मारिअम्मन भी कहते हैं) के मंदिरों का इतना फैलाव हुआ कि ऐसे सोलह मंदिर इस शहर में बने.
कोरोना महामारी में अब ‘कोरोना देवी’ का मंदिर भी बन गया है. लेकिन प्लेग मारिअम्मन मंदिरों में लोगों की अब भी बहुत ज़्यादा श्रद्धा दिखाई देती है. पड़ोस के तिरुप्पुर ज़िले में भी ऐसे मंदिर हैं जहां अब भी मेले लगते हैं और तमाम लोग पहुंचते हैं.
1903 से 1943 के बीच कोयंबटूर ने दस बार प्लेग के प्रकोप को झेला, जिसमें हज़ारों लोगों की जानें गईं. ये महामारी तो बीत गई, लेकिन इस शहर की स्मृतियों में यह दशकों बाद आज भी अंकित है. कुलंधइअम्माल जैसे तमाम बुज़ुर्ग आज भी प्लेग का नाम सुनते ही उस दौर की याद से सिहर जाते हैं जिससे यह शहर कभी गुज़रा था.
भीड़भाड़ वाले टाउनहॉल क्षेत्र में स्थित सबसे प्रसिद्ध प्लेग मारिअम्मन मंदिर के बाहर एक फूल बेचने वाली भी अपनी तैयारियों में लगी है, क्योंकि यह शाम व्यस्त गुज़रने वाली है. फूलों को पिरोते हुए हाथों से अपनी नज़रें हटाए बिना ही 40 साल की कनम्माल कहती हैं, “आज शुक्रवार है. मंदिर में बहुत सारे लोग आने वाले हैं.”
"वह बहुत ही शक्तिशाली हैं. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कोरोना देवी का मंदिर बन गया है अब. ब्लैक मारिअम्मन तो हममें से ही एक हैं. हम उन्हें हमेशा पूजते रहेंगे. जब हम बीमार होंगे तब भी और सामान्य दिनों में भी पूजेंगे." सामान्य दिनों में पूजने से उनका मतलब, आम तौर पर भक्तों द्वारा धन-धान्य से परिपूर्ण, सुखी व सफल जीवन के लिए पूजने से है. कनम्माल का जन्म प्लेग ख़त्म होने के चार दशक बाद हुआ था. लेकिन उनकी पीढ़ी के भी कई लोग मारिअम्मन के पास मन्नतें मांगने जाते हैं.
प्लेग का असर ऐसा था कि वह कोयंबटूर के लोगों की संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है. कोयंबटूर के रहने वाले लेखक सीआर एलनगोवन बताते हैं, “यहां के पुराने रहवासियों ने प्लेग की तबाही को सिर्फ देखा ही नहीं, बल्कि वे इसके पीड़ित भी रहे हैं. आप यहां एक भी ऐसा परिवार नहीं ढूंढ़ सकते जिसने प्लेग को नहीं झेला हो.”
1961 की जिला जनगणना पुस्तिका के अनुसार कोयंबटूर शहर में प्लेग के अलग-अलग प्रकोपों से 1909 में 5,582 तथा 1920 में 3,869 मौतें हुईं. दूसरी रिपॉर्ट्स से पता चलता है कि 1911 में प्लेग फैलने से कोयंबटूर की जनसंख्या घटकर 47,000 हो गई थी. देखा जाए तो यह उस शहर के लिए एक भारी नुक़सान था जिसकी जनसंख्या 1901 में लगभग 53,000 थी.
एलनगोवन बताते हैं कि उनका अपना परिवार कोयंबटूर छोड़कर “जंगलों में रहने” चला गया था; तब तक के लिए जब तक “बिना किसी नुक़सान के” वापस लौटने की कोई उम्मीद दिखती. और वह उम्मीद ऐसी चीज़ से मिली थी जिसे आज के समय असंभव माना जाएगा.
कोयंबटूर के रहने वाले एक कीटविज्ञानी पी. सिवाकुमार जोकि शहर की एथनोग्राफ़ी में भी रुचि रखते हैं, इसका कारण बताते हैं- “उस डरावने समय में जब चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध नहीं थीं, तो लोग देवताओं को ओर रुख़ करने लगे.”
जैसा कि होता है, लोगों में ये उम्मीद भय और निराशा के कारण भी पैदा हुई थी. 1927 में प्लेग के दिनों के बीच ही दार्शनिक बर्ट्रेंड रस्सेल ने कहा था कि “धर्म मुख्य रूप से डर पर आधारित होता है. यह किसी अज्ञात शक्ति का भय होता है और आप थोड़ा सा ही सही, पर ये सोचते हैं कि बड़े भाई की तरह कोई है, जो परेशानियों और विवादों से बचाने के लिए आपके साथ खड़ा है."
यही सब अलग-अलग कारण रहे होंगे उन 16 मंदिरों के बनने के. उस देवी के लोकप्रिय नाम में भी समय-समय पर बदलाव देखा जैसा कि होतागोवन बताते हैं, “प्लेग मारिअम्मन को लोग ब्लैक मारिअम्मन भी कहने लगे. और मारी का मतलब भी तमिल में ब्लैक ही होता है, तो यह बदलाव आसानी से हो गया."
प्लेग के इतिहास की छायाओं में कहीं पीछे छूट जाने के बाद भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसके असर की स्मृतियां अलग-अलग तरक़े से प्रकट होती रहती हैं.
कोयंबटूर की रहने वाली 32 साल की निकिला सी. बताती हैं, “मुझे याद आता है कि जब भी मैं बीमार पड़ती थी, तब मेरे माता-पिता मुझे मंदिर ले जाते थे. मेरी दादी तो हमेशा मंदिर जाती रहीं. मेरे माता-पिता मानते थे कि मंदिर के पवित्र जल से बीमारियां ठीक हो जाती हैं. वे मंदिर में पूजा भी करवाते थे. अब मेरी बेटी बीमार होती है, तो मैं भी यही करती हूं. मैं उसे मंदिर ले जाती हूं, पूजा करती हूं, उसे पवित्र जल देती हूं. मैं अपने माता-पिता की तरह हमेशा नहीं जा पाती, लेकिन फिर भी जाती हूं. मुझे लगता है कि ये इस शहर में रहने वाले लोगों के जीवन का हिस्सा हो गया है अब.”
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टाउनहॉल क्षेत्र के प्लेग मारिअम्मन मंदिर के पुजारी 42 साल के एम. राजेश कुमार बताते हैं, “चार पीढ़ियों से हम इस मंदिर में पुजारी हैं. लोग अब भी यहां चिकन पॉक्स, त्वचा की बीमारियों, कोविड-19, तथा अन्य वायरल संक्रमणों से बचाव के लिए आते हैं. यहां ऐसी मान्यता है कि देवी इन बीमारियों से बचाती हैं.”
“यह मंदिर 150 साल पुराना है. जब कोयंबटूर में प्लेग [1903-1942] फैला, तो मेरे परदादा ने यहां एक और मूर्ति स्थापित कर दी - प्लेग मरिअम्मन की. उनके बाद मेरे दादा और फिर पिता ने उस मूर्ति की देखभाल की. अब मैं कर रहा हूं. तब से मंदिर के अंतर्गत आने वाले किसी भी क्षेत्र में कभी प्लेग नहीं फैला. इसीलिए, लोगों का विश्वास आज तक बना हुआ है.”
कुछ ऐसी ही कहानी कोयंबटूर की साईबाबा कॉलोनी में स्थित मंदिर की भी है. इस प्लेग मारिअम्मन मंदिर की प्रशासनिक कमेटी के सदस्य, 63 साल के वीजी राजेश्वरन बताते हैं, “इस मंदिर का निर्माण 150 साल पहले हुआ था.” तो यह मंदिर प्लेग के आने से पहले ही बना है.
मज़ेदार बात यह है कि ये दोनों, और इस तरह के कई दूसरे मंदिर पहले से ही मारिअम्मन मंदिर ही थे. लेकिन उनकी पूजा किसी अन्य रूप या अवतार में होती रही है. जब यहां प्लेग फैला और प्लेग ने तबाही मचाई थी, तो इस कारण लोगों ने प्लेग मारिअम्मन की पत्थर की बनी मूर्तियां साथ ही साथ स्थापित कीं.
राजशेखरन बताते हैं कि वह जिस मंदिर से जुड़े हैं उसकी स्थापना के तीन दशक बाद जब यहां प्लेग फैला, तब “हर परिवार में पांचसे छह सदस्यों की मौत हुई. अपने परिजनों की मृत्यु के बाद, जब प्लेग इतना बढ़ा कि छतों से चूहे गिरने लगे, तो लोगों ने अपने घर छोड़ दिए. और उन्हें फिर वापस लौटने में चार या पांच महीने लग गए.”
साईबाबा कॉलोनी, जो उस समय एक छोटा-सा गांव हुआ करती थी, वहां के निवासियों ने प्लेग से बचाव हेतु पूजा करने के लिए एक अलग मूर्ति की स्थापना की और उसे नाम दिया प्लेग मारिअम्मन. “हमारे परिवार में दो मौतें हुईं. जब मेरे चाचा बीमार पड़े, तो मेरी दादी उन्हें मंदिर ले गईं और उन्हें प्लेग मारिअम्मन के सामने लेटा दिया. उनके शरीर पर नीम और हल्दी लगाया; और वह ठीक हो गए.”
उसके बाद से वह गांव और ऐसे ही कई और गांव (जो अब कोयंबटूर शहर का हिस्सा बन चुके हैं) यह विश्वास करने लगे कि मारिअम्मन की पूजा करने से वे प्लेग से बच जाएंगे.
एलनगोवन कहते हैं, “साईबाबा कॉलोनी, पीलामेडू, पपनाईक्कनपालयम, टाउनहॉल और ये आस-पास की ये अन्य जगहें एक सदी पहले अलग-अलग गांव रहे होंगे. अब ये सब कोयंबटूर शहर का हिस्सा हैं.” उनके मुताबिक़ यही कारण रहा होगा कि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बहुत सारे प्लेग मारिअम्मन के मंदिर बन गए.
तमिल सांस्कृतिक इतिहास से जुड़े लेखक और इतिहासकार स्टालिन राजंगम बताते हैं कि प्लेग मारिअम्मन में आस्था का कारण हो सकता है: “एक बीमारी जिसने तबाही मचाई, उसके बचाव के लिए आस्था स्वाभाविक परिणति है. आस्था की अवधारणा यह है कि आप अपनी चिंताओं और समस्याओं से बचाव के लिए ईश्वर में विश्वास करने लगते हैं. और बीमारी मनुष्य जाति के लिए सबसे बड़ी समस्या रही है. तो स्वाभाविक है कि आस्था भी इन बीमारियों से बचाव के इर्द-गिर्द ही केंद्रित है.”
राजंगम बताते हैं, “ऐसा ईसाई धर्म और इस्लाम में भी होता है. बीमारियों से बचाव के लिए बच्चों को मस्जिदों में ले जाया जाता है. ईसाईयों में आरोग्य मदर (माता) की पूजा करते हैं. बौद्ध भिक्षुओं को भी चिकित्सा पद्धतियों का अभ्यास करने के लिए जाना जाता है. तमिलनाडु में सिद्धार हैं, जो मुख्य रूप से चिकित्सा पद्धतियों का अभ्यास करते हैं. इसीलिए, हमारे पास औषधियों की सिद्ध धारा है.”
तमिलनाडु के लगभग हर गांव में मारिअम्मन का मंदिर है. हो सकता है कि अलग-अलग जगहों पर उन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता हो, लेकिन मंदिर हर जगह हैं. ऐसा किसी एक देश या धर्म में ही नहीं है कि उनमें कोई ऐसे देवता होते हैं जो बचाव करते हैं या कुपित हो जाते हैं. और हाल के दशकों में दुनियाभर के विद्वानों ने प्लेग या ऐसी ही महामारियों से बचाव के लिए लोगों के धर्म का सहारा लेने को गंभीरता से लेना शुरू किया है.
इतिहासकार डूआन जे. ओशिम ने साल 2008 में प्रकाशित अपने पेपर ‘ रिलिजन एंड ऐपिडेमिक डिज़ीज़ ’ में लिखा है, “महामारियों से धार्मिक बचाव का कोई भी एक तरीक़ा या अनुमानित तय क़दम नहीं होता है. और ऐसा मानना भी सही नहीं है कि धार्मिक बचाव के तरीक़े हमेशा विनाशकारी होते हैं. किसी लिंग, वर्ग या जाति की तरह ही वर्गीकृत करके ऐसे धर्मों का भी विश्लेषण किया जाना ज़्यादा सही रहेगा. महामारी से बचाव के धार्मिक तरीक़ों को एक लगातार बदलते हुए खांचे की तरह देखना चाहिए. इसे बीमारियों के प्रभाव और मनुष्य के उनसे बचने के तरीक़ों के अध्ययन के रूप में देखा जाना चाहिए.”
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तमिलनाडु में आज भी मारिअम्मन के लिए वार्षिक मेला अम्मन तिरुविला आयोजित होता है. स्टालिन राजंगम कहते हैं कि ये मेले सार्वजनिक स्वास्थ्य और धार्मिक मान्यताओं के बीच संबंधों को समझने की ज़रूरत को और पुख्ता करते हैं. ये मेले पूरे राज्य के अम्मन मंदिरों में तमिल महीने आदि (मध्य जुलाई से मध्य अगस्त) में आयोजित होते हैं.
राजंगम बताते हैं, “तमिलनाडु में इसके पहले के महीने - चिथिरई, वैगासी, और आनी (क्रमश: मध्य अप्रैल से मध्य मई, मध्य मई से मध्य जून, और मध्य जून से मध्य जुलाई) बहुत ही गर्म रहते हैं. ज़मीनों के साथ-साथ, इंसान का शरीर भी सूखने लगता है. इस सूखेपन से अम्मई (चिकनपॉक्स या चेचक) नामक बीमारी होने लगती है. इसके बचाव के लिए ठंडक ज़रूरी होती है. और तिरुविला का यही मतलब तो है.”
बल्कि, ‘मुत्तु मारिअम्मन’ (देवी का एक और रूप) की पूजा चिकनपॉक्स और चेचक से राहत पाने के लिए ही की जाती है. “क्योंकि यह बीमारी त्वचा पर ही होती है, इसलिए देवी को मुत्तु मारिअम्मन कहा जाता है. तमिल में मुत्तु का मतलब होता है मोती. अब ऐसी चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध हैं जिनसे इन बीमारियों का इलाज हो जाता है, लेकिन फिर भी इन मंदिरों में काफ़ी भीड़ आती है.”
राजंगम इन मेलों से जुड़े कुछ ऐसे अनुष्ठानों के बारे में बताते हैं जिनका कोई वैज्ञानिक महत्त्व नहीं है, लेकिन औषधीय महत्त्व हो सकता है. “गांव में जब तिरुविला की घोषणा हो जाती है, तो एक अनुष्ठान होता है कापू कट्टुतल. इसके बाद कोई गांव से बाहर नहीं जा सकता. लोगों को अपने घरों, गलियों व गांव को स्वच्छ रखना होता है. नीम के पत्तों को संक्रमण रोकने में सहायक माना जाता है, पूरे आयोजन के दौरान उनका जमकर उपयोग होता है.
राजंगम कहते हैं कि कुछ ऐसा ही हुआ था, जब कोविड-19 की गाइडलाइन जारी हुई थी और वैज्ञानिक इस बीमारी का इलाज ढूंढने की अभी कोशिश ही कर रहे थे. “शारीरिक दूरी रखी जा रही थी, साफ़-सफ़ाई के लिए सेनिटाइज़र का उपयोग हो रहा था. और कुछ लोग तो नीम की पत्तियों का भी इस्तेमाल कर रहे थे, क्योंकि जब कोविड आया, तो वे नहीं जानते थे कि उन्हें और क्या करना चाहिए.”
अलग-थलग होकर दूरी बनाना और सेनिटाइज़र जैसी चीज़ों के इस्तेमाल का विचार सार्वभौमिक रहा है. जब कोविड फैला, तो ओडिशा के जन-स्वास्थ्य अधिकारियों ने लोगों को शारीरिक दूरी बनाने और क्वारंटीन के बारे में समझाने के लिए पुरी जगन्नाथ का उदाहरण दिया. उन्होंने लोगों को बताया कि कैसे भगवान जगन्नाथ सालाना रथ यात्रा से पहले ख़ुद को अनासर घर (बीमार के लिए अलग कमरा) में बंद कर लेते हैं.
न्यूयॉर्क की सिएना यूनिवर्सिटी में धार्मिक अध्ययन की असोसिएट प्रोफ़ेसर और लेखक एस. पेरुनदेवी कहती हैं कि देवियों की मदद से बीमारियों से लड़ने का विचार इतना सार्वभौमिक है कि “कर्नाटक में एड्स से बचाव के लिए भी एक अम्मन मंदिर है.”
वह आगे कहती हैं कि मारिअम्मन की पूजा का विचार “बहुत ही व्यापक है…बल्कि तमिल में मारि का मतलब बरसात भी होता है. मुलईपारी (खेती से जुड़ा उत्सव) जैसे कुछ अनुष्ठानों में मारिअम्मन को फ़सल के रूप में मान्यता दी जाती है और पूजा जाता है. कहीं-कहीं, तो उन्हें रत्न के रूप में भी पूजा जाता है. और उन्हें ऐसी देवी के रूप में भी मान्यता दी जाती है जो बीमारियां फैलाती हैं, ख़ुद उनसे ही बीमारियां आती हैं, और वह ही उनसे बचाती भी हैं. और प्लेग के मामले में ऐसा ही हुआ.” लेकिन पेरुनदेवी बीमारी के रूमान से बचने के लिए भी चेताती हैं. वह बताती हैं, “मारिअम्मन की लोक-कथाएं, बीमारियों को जीवन का ही एक हिस्सा मानकर उनके समाधान खोजने जैसी बातों को ही स्थापित करती हैं.”
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कौन हैं मारिअम्मन?
यह द्रविड़ देवी लंबे समय से शोधकर्ताओं, इतिहासकारों, और लोककथाकारों का ध्यान अपनी और खींचती रही हैं.
तमिलनाडु के गांवों में मारिअम्मन पहले भी सबसे लोकप्रिय देवी थीं और अब भी हैं. उन्हें संरक्षक देवी माना जाता है. उनकी कहानियां उतनी ही अलग-अलग हैं जितने स्रोतों से वे आती हैं.
बौद्ध परंपरा के हवाले से कुछ इतिहासकार उन्हें नागपट्टनम की बौद्ध नन मानते हैं, जिनके पास बीमार लोग, ख़ासकर चेचक से पीड़ित लोग इलाज के लिए जाते थे. वह लोगों को बुद्ध में विश्वास रखने के लिए कहती थीं और नीम के पेस्ट द्वारा लोगों का इलाज करती थीं, तथा प्रार्थना करती थीं. वह सबको साफ़-सुथरा-स्वच्छ रहने, दान करने की सलाह देती थीं. जब उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ, तो लोगों ने उनकी मूर्ति स्थापित की और उस परंपरा को जारी रखा. इस तरह मारिअम्मन की कहानी शुरू हुई.
इस कहानी के कई दूसरे संस्करण भी मौजूद हैं. एक कहानी तो पुर्तगालियों से जुड़ी हुई भी है कि जब पुर्तगाली नागपट्टनम आए, तो उन्होंने उन्हें मारियाअम्मन नाम दिया और उनके ईसाई देवी होने का दावा किया.
कुछ लोग तो यह मानते हैं कि वह उत्तर भारत में चेचक और अन्य संक्रामक बीमारियों से बचाव के लिए पूजी जाने वाली शीतला माता का ही प्रतिरूप हैं. शीतला का संस्कृत में शाब्दिक अर्थ होता है ‘जो ठंडक पहुंचाए.’ शीतला को भगवान शिव की पत्नी पार्वती के अवतार के रूप में भी जाना जाता है.
लेकिन पिछले कुछ दशकों में किए गए शोध से मालूम चलता है कि वह ग्रामीणों की देवी हैं. दलितों व निचली जातियों द्वारा उन्हें पूजा जाता था; बल्कि वह दलित मूल की ही देवी हैं.
इस बात पर कोई अचम्भा नहीं होना चाहिए कि मारिअम्मन की ताक़त और आकर्षण को देखते हुए सदियों से उच्च जातियों द्वारा उन्हें अपने में मिलाने और हथियाने की कोशिशें होती रही हैं.
जैसा कि इतिहासकार और लेखक केआर हनुमंतन 1980 की शुरुआत में लिखे अपने एक पेपर ‘ द मारिअम्मन कल्ट ऑफ़ तमिलनाडु ’ में कहते हैं, “मारिअम्मन तमिलनाडु के शुरुआती निवासियों द्वारा पूजी जाने वाली एक प्राचीन द्रविड़ देवी हैं...यह उनके परैयार (या पराएर: अनुसूचित जाति) समुदाय से जुड़ाव से पता चलता है. परैयार पहले अछूत समझे जाते थे और उन्हें तमिलनाडु के द्रविड़ों का सबसे पुराना प्रतिनिधि माना जाता है.”
हनुमंतन बताते हैं कि इस देवी के कई मंदिरों में परैयार “लंबे समय से पुजारी का काम करते आ रहे हैं. उदाहरण के लिए, चेन्नई के पास तिरुवरकाडु में स्थित करुमारिअम्मन मंदिर में मूल पुजारी परैयार होते थे. बाद में जब धार्मिक विन्यास अधिनियम (1863) आया, तो उनकी जगह ब्राह्मण पुजारी हो गए.” इस ब्रिटिश औपनिवेशिक क़ानून ने ब्राह्मणों द्वारा हाशिए के समुदायों से मंदिरों को हथिया लिए जाने को एक तरह से क़ानूनी मान्यता दे दी.
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और अब ‘कोरोना देवी’ का मंदिर? क्या यह सच है?
कोयंबटूर के इरुगुर में उसी नाम के एक मंदिर के व्यवस्थापक आनंद भारथी कहते हैं कि "हां, ये प्लेग मारिअम्मन की पूजा की तरह ही है. हमने पहले से मौजूद उस मंदिर में कोरोना देवी की मूर्ति स्थापित की, जब ये बीमारी बहुत ज़्यादा फैल रही थी. और हम मानते हैं कि पूजा-पाठ से ही हम बच सकते हैं."
इसका मतलब हुआ कि देश के कुछ उन स्थानों में से एक कोयंबटूर भी था जहां कोविड-19 फैलने के बाद 2020 के अंत में बीमारी से बचाव के लिए मंदिर बने.
लेकिन देवी क्यों? कोरोना मारिअम्मन क्यों नहीं? ये पूछने पर भारथी ने बताया इन शब्दों को जोड़ने पर अर्थ से जुड़ी समस्या आती है. “मारिअम्मन शब्द प्लेग के साथ सही से जुड़ रहा था, लेकिन कोरोना के साथ नहीं. इसलिए, हमने इसे कोरोना देवी नाम दिया.”
तमिलनाडु के लगभग हर गांव में मारिअम्मन का मंदिर है. हो सकता है कि अलग-अलग जगहों पर उन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता हो, लेकिन मंदिर हर जगह हैं
चिकित्सा के क्षेत्र में इतनी प्रगति के बावजूद बीमारियों से बचाव के लिए लोग अब भी देवी-देवताओं को पूजते हैं.
लेकिन लॉकडाउन होने के कारण लोग यहां प्लेग मारिअम्मन मंदिरों की तरह कोरोना मंदिर में जाकर पूजा-पाठ नहीं कर सकते थे. जानलेवा वायरस से बचाने के लिए बने मंदिर को न सिर्फ़ देवी को, बल्कि महामारी से जुड़े प्रोटोकॉल को भी दिव्य मानना पड़ा है. मंदिर प्रशासन का दावा है कि उन्होंने 48 घंटे का एक यज्ञ किया और उसके बाद कोरोना देवी की मिट्टी की मूर्ति को नदी में विसर्जित कर दिया. आने वालों के लिए मंदिर अब खुला है, लेकिन वहां पूजने के लिए कोई मूर्ति नहीं है.
एलनगोवन जैसे लेखक कोरोना देवी मंदिर के प्लेग मारिअम्मन मंदिर की तरह कोयंबटूर के लोक का हिस्सा होने की बात को खारिज कर देते हैं. “यह केवल एक पब्लिसिटी स्टंट है. इसका प्लेग मारिअम्मन मंदिर से कोई लेना-देना नहीं है, और न ही इनके बीच कोई तुलना की जा सकती है. प्लेग मारिअम्मन मंदिर, कोयंबटूर के इतिहास और संस्कृति से गहरे से जुड़े हैं."
शहर के प्लेग मारिअम्मन मंदिरों में आज भी भीड़ जुटती है. जबकि प्लेग अब केवल एक डरावनी स्मृति के रूप में बचा रह गया है. कोविड-19 बीमारी फैलने से पहले 2019 में पप्पनाइकनपलयम में स्थित प्लेग मारिअम्मन मंदिर ने छोटी सी सनसनी पैदा कर दी थी, जब एक आयोजन के दौरान मूर्ति पर एक तोते को बैठे हुए देखा गया. इसे लेकर भक्तों में डर फैल गया गया था.
कुछ स्थानीय ख़बरों के अनुसार यह बात कुछ घंटों तक गर्म बनी रही, जिससे मंदिर में और भी लोग आने लग गए. एलनगोवन कहते हैं, “मारिअम्मन गांव की देवी हैं. आम लोगों के बीच उनके मंदिर की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं होगी. उदाहरण के लिए, टाउनहॉल में कोनियम्मन मंदिर के उत्सव के लिए पवित्र अग्निकुंड को उसी क्षेत्र के प्लेग मारिअम्मन मंदिर में बनाया गया है. अनुष्ठान आपस में जुड़े हुए हैं. कोनियम्मन को कोयंबटूर की संरक्षक देवी के रूप में जाना जाता है.”
आज की पीढ़ी के बहुत सारे लोग इसके पेचीदा इतिहास और मिथकों से परिचित नहीं हैं. लेकिन फिर भी ये मंदिर उनके लिए महत्व रखते हैं. कोयंबटूर के 28 साल के एक उद्यमी आर. नारायण कहते हैं, “सच कहूं, तो मैं नहीं जानता कि इन मंदिरों का ऐसा इतिहास भी रहा है. लेकिन मैं अपनी मां के साथ हमेशा मंदिर जाता हूं, और आगे भी जाता रहूंगा. इस जानकारी से मेरे लिए कुछ नहीं बदला. बल्कि शायद अब तो मेरी श्रद्धा और बढ़ गई है."
कविता मुरलीधरन ठाकुर फैमिली फाउंडेशन से एक स्वतंत्र पत्रकारिता अनुदान के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता पर रिपोर्ट करती हैं। ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट की सामग्री पर कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं किया है।
अनुवाद: सुमेर सिंह राठौड़