अपनी छोटी सी रसोई में एक चूल्हे के इर्द-गिर्द चहलक़दमी करती हुईं ज्योति धायभाई कहती हैं, “हम अपने अतिथियों से बिल्कुल अलग लहज़े में बातचीत करते थे. पुराने दिनों में हमारा समय-बोध संभवतः बहुत धीमा रहा होगा. जब मैं होश संभाल रही थी, मैंने अपनी दादी से यह सीखा था कि मेहमान हमारे भगवान होते हैं. घर पर पूरे दिन लोगों का तांता लगा रहता था और उनकी आवभगत करने में हमें बहुत ख़ुशी मिलती थी.” ज्योतिजी की परवरिश जोधपुर में हुई थी, लेकिन विवाह के बाद ही वह उदयपुर चली आईं, और अपनी मारवाड़ी और वहां की मेवाड़ी संस्कृति के मिले-जुले प्रारूप में ख़ुद को ढाल लिया.

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ज्योति धायभाई की घरेलू अंगीठी में सिंकतीं गुंथी हुई लोइयां

राजस्थानी परंपरा में मनवार का अभिप्राय आतिथ्य - विशेष रूप से भोजन से माना जाता है. मारवाड़ी भाषा में मनवार का अर्थ ‘आग्रह करना’ होता है. लेकिन, एक क्रिया के रूप में यह एक अनुष्ठान या संस्कार है जो इस बात की ओर संकेत करता है कि हमें अपने अतिथियों की आवश्यकताओं का ध्यान अपने स्वयं की आवश्यकताओं से भी पहले करना है. कई बार अपनी अपरिहार्यता-बोध के कारण यह जबरन थोपे गए किसी निर्देश की तरह महसूस होता है. प्रथा यही है कि पहली बार आपको जो पेश किया जाए उसे आप अस्वीकार कर दें. इस तरह मेज़बान और मेहमान के बीच ‘देने’ और ‘मना करने’ की कोमलतापूर्ण भंगिमाओं और क्रियाओं का आदान-प्रदान आरंभ होता है. अन्ततः अतिथि अपनी संतुष्टिपूर्ण सहमति दे देता है. किसी भी व्यक्ति को भोजन कराना उसके प्रति अपना स्नेह और सम्मान प्रदर्शित करने का सबसे श्रेष्ठ माध्यम है. जितनी अधिक मात्रा में भोजन साझा किया जाता है और परोसा जाता है, उसके प्रति स्नेह व सम्मान की अभिव्यक्ति भी उतनी ही मानी जाती है.

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अपनी रसोई में खड़ीं गायत्री धायभाई

ज्योतिजी और उनकी भाभी गायत्री धायभाई दो अलग-अलग तरह की थालियां (शाब्दिक रूप से थाली का अर्थ बड़े आकार की तश्तरी होती है, किंतु व्यंजना की दृष्टि से इसका अर्थ भोजन से है) तैयार करती हैं. इन थालियों में विविध प्रकार के राजस्थानी व्यंजन होते हैं. एक थाली में दाल, दही, और घी और गुड़ के साथ बाजरे की रोटी के अलावा गट्टे की सब्ज़ी, खीच, चने की सब्ज़ी और लाल मिर्ची होती हैं. साथ में राब (छाछ-मकई की दलिया), मिर्च की सब्ज़ी (हरी मिर्ची), पंचकुटा (राजस्थानी रेगिस्तान में पाई जाने वाली मिली-जुली नागफनी का एक व्यंजन), कढ़ी (दही और बेसन से बना एक व्यंजन), अचार (आम की सूखी हुई मसालेदार खटाई), और मीठे में दरदरे पिसे गेहूं के लड्डू भी होते हैं.

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राजस्थानी ‘थाली’

उनके द्वारा तैयार की गई दूसरी तरह की थाली में दाल-बाटी होती है. यह दाल और आटे के सिंकी हुई लोइयों से बना एक आसान और लोकप्रिय व्यंजन है. इसे ग़रीबों का खाना भी कहा जाता है, क्योंकि एक संतुष्टिदायक और पेट भरने वाला व्यंजन होने के साथ-साथ इसकी क़ीमत भी बहुत वाज़िब होती है. राजस्थान में इसे कच्चे प्याज, हरी मिर्च और चूरमा (चूर की हुई बाटी और गुड़) के साथ परोसा जाता हैं.

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‘दाल बाटी थाली’

धायभाई परिवार पिछले 150 सालों से उदयपुर की इसी हवेली में रहता आया है. वे कभी उदयपुर के महाराज के साथ ब्याह कर आईं बीकानेर की राजकुमारी के रक्षक-दल के सदस्य हुआ करते थे. जैसा कि परिवार का इतिहास बताता है, इन्होंने इस दंपत्ति से जन्मे पुत्र की जीवन-रक्षा की थी, जिनकी जान के दुश्मन ख़ुद उनके सगे चाचा हो गए थे, और उन दोनों को उदयपुर लेकर आए थे. तब से उनका नामकरण धायभाई हो गया था, जिसका अर्थ होता है एक ही औरत का दूध पीकर बड़े हुए दो भाई. उसके बाद आज़ादी हासिल करने की अवधि तक इस परिवार ने राजघराने की सेवा की. ऐसे भी मौक़े आए जब परिवार के लोगों ने महाराजा के निजी सहायकों के रूप में भी काम किया. आज भी उनकी यह हवेली उन परंपराओं के प्रतीक के रूप में खड़ी दिखती है जिन्हें भुला दिया गया है. भोजन तैयार करना और उनका आनंद उठाना भी उन भुला दी गईं परंपराओं का ही हिस्सा है.

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धायभाई के प्रदर्शनी कक्ष में प्रदर्शित भोज्य-सामग्रियां

गायत्रीजी राजस्थान की भोजन परंपराओं के बारे बातचीत करती हुई बहुत प्रसन्न दिखती हैं. वह रोटियां बनाने के लिए बाजरा तैयार कर रहीं हैं, और साथ ही समय के साथ बदलते हुए पारिवारिक ढांचे के बारे में भी विस्तार से बातें कर रही हैं. “भोजन और परिवार का निकट का संबंध है. किसी ज़माने में हम एक ही छत के नीचे एक साथ रहते थे. लेकिन इसकी कल्पना भी अब नहीं की जा सकती है. हर आदमी को अपने हिस्से की जगह और निजता चाहिए. दोस्त अब अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं और अब औरतें बड़ी तादाद में बाहर काम करने लगी हैं. चूंकि लोगों की व्यस्तताएं अब बढ़ गई हैं, इसलिए अब उनके पास उस तरह से खाना पकाने का समय नहीं होता जिस तरह कि हमारे पास हुआ करता था. हम एक-दूसरे के साथ, अपने परिवार के लोगों के साथ, और अपने अतिथियों के साथ जिस तरह का संवाद रखते थे, वे सभी तौर-तरीक़े अब बदल गए हैं.”

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गायत्रीजी रोटियां तैयार करती हुईं

थालियों में परोसे जाने वाले व्यंजन भी अब बदल गए हैं. घर में परोसी गई बिल्कुल उसी थाली के व्यंजन कहीं बाहर जाकर खाने की स्थिति में भिन्न भी हो सकते हैं. अब रेस्तराओं में वह परोसा जाता है जो लोकप्रिय होता है, वह नहीं जो पारंपरिक है. मेज़बान जब उन्हें थाली परोसते थे, तो लोग वही व्यंजन खाते थे, उन्हें एक-दूसरे के साथ बांटते थे और अपने मेज़बानों के साथ हंसते-बोलते थे. मनवार परंपरा का यह एक विलक्षण पक्ष था. अब बुफे (स्वरुचि भोज) का रिवाज़ तेज़ी से बढ़ रहा है और परोसे जाने की परंपरा में भारी कमी आई है. परिणामतः, मेज़बान और मेहमान के बीच के संवाद में भी कमी आई है.

पर्यावरण और अर्थव्यवस्था ने पारंपरिक खानों के तौर-तरीक़ों को बदलने में बड़ी भूमिकाएं निभाई हैं. उस ज़माने में जब लोग ज़्यादातर खेत-खलिहानों में काम करते थे, तब उनकी पोषण संबंधी आवश्यकताएं अलग होती थीं. वे चीज़ें उन्हें बहुतायत में मिल भी जाती थीं. औरतों में भी आर्थिक रूप से निर्भर महिलाओं की तादाद तेज़ी से बढ़ी है, लेकिन उस अनुपात में रसोई के कामों में मर्दों की दिलचस्पी में कोई इजाफ़ा नहीं हुआ है. लिहाज़ा घर में पौष्टिक खाना पकाने के लिए उनके पास पर्याप्त समय लगभग नहीं के बराबर है.

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सिंकी हुई बाटी के चूरे को गुड़ और घी के साथ परोसा जाता है

ज्योतिजी के 32 वर्षीय बेटे विशाल धायभाई नए और पुराने के बीच के फ़ासले को पाटने की बात करते हैं. वह एक जीरो-वेस्ट एक्टिविस्ट हैं और इस बात में उनका गहरा विश्वास है कि अतिथियों को भोजन कराने की परंपरा अभी भी पहले की तरह ही प्रासंगिक है. हालांकि, वह अफ़सोस के साथ यह मानते हैं, “अगर कोई हमारे घर आता है, तो यह बात कहीं से उचित नहीं लगती है कि हम उन्हें खाना खाए बिना वापिस लौट जाने दें, लेकिन अब हम उनसे पूछकर अपने अतिथियों के सामने विकल्प रखते हैं. अब हम उनसे अधिक आग्रह नहीं करते हैं. वे खाने से मना कर देते हैं, तो हम भी सहर्ष मान जाते हैं. जब हम बेदिली से किसी परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश करते है, तो यह बोझ बन जाती है. हमारी अपनी और दूसरी पीढ़ियां यह होता हुआ देख रही हैं. मैं अक्सर सोचता हूं कि हमारी उदारता अब धीरे-धीरे पहले से कम हो गई है. हम इस बात से भयभीत हैं कि हमारे पास सबके साथ साझा करने लायक पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, हम समय की तंगी से भी जूझ रहे हैं, हमारे पास बांट कर खाने लायक भोजन और बांट कर उपयोग करने लायक संसाधन नहीं हैं. मैं नहीं जानता कि भविष्य में क्या होगा, लेकिन अभी भी मुझे प्रेरित करने के लिए अतीत की झलक दिखती है. हमारी तथाकथित ‘आधुनिकता’ से होड़ लेने के लिए हमारे पास बस यही कुछ शेष है.”

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गूंथे जाने से पहले कच्चा बाजरा

भोजन का एक ताक़तवर तंत्र होता है. राजस्थान के लोग रीति-रिवाज़ों के मामले में बहुत पाबंद होते हैं, और इस बात को बेहतर जानते हैं कि किन दो चीज़ों की परस्पर जुगलबंदी होती है. इस दृष्टि से परंपराओं का भोजन के साथ अटूट संबंध है. कोई भी रोटी (गेहूं, मकई, बाजरे या ज्वार की) को कुछ ख़ास सब्ज़ियों या फलियों के साथ ही खाया जाता है. इसके मूल में स्वाद और पाचन दोनों हैं. ज्योतिजी हंसती हुई कहती हैं, “सबकुछ एक साथ खाने में स्वादिष्ट नहीं लगता है! उदाहरण के तौर पर मक्की की रोटी और उड़द की दाल एक साथ खाई जाती है. बाजरे की रोटी, कढ़ी या मूंग की दाल के साथ स्वादिष्ट लगती है. हमारी नानी-दादियां ऐसे ही खाना पकाती थीं, और हम भी अब यही करते हैं.”

मनवार एक परंपरा के रूप में अब भी जीवित है, लेकिन इसके उत्साह ने अपनी पुरानी चमक खो दी है. पारंपरिक राजस्थानी व्यंजनों से सजी पूरी थाली अब सिर्फ़ विशेष अवसरों पर ही देखी जाती है, जबकि पहले यह अतिथियों को नियमित रूप से परोसी जाती थी. भोजन आज भी राजस्थान की संस्कृति का एक मज़बूत पक्ष है और यह आतिथ्य-सत्कार का सबसे बड़ा प्रतीक भी है.

डिब्बाबंद खानों ने अब तेज़ी से घर में पके खानों की जगह लेनी शुरू कर दी है. चूंकि पहले की तुलना में कामकाजी औरतों की तादाद बहुत बढ़ी है, इसलिए उनकी ज़िम्मेदारियां भी अब पहले से अधिक हैं. वे अब घर और बाहर दोनों संभालती हैं. ज्योतिजी कहती हैं, “जब तक हमारी पीढ़ी जीवित है, हम इन परंपराओं को जारी रखेंगे. लेकिन चीज़ें एक दिन बदल जाएंगी. ज़रूरी है कि हम सही संतुलन को तलाश लें. तभी कोई उपाय निकलेगा.”

यह लेख सीएसई फ़ूड फेलोशिप के तहत लिखा गया है.

(विशाल सिंह और उनके परिवार के लोगों का विशेष आभार)

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Sweta Daga

ଶ୍ୱେତା ଡାଗା ବାଙ୍ଗାଲୋରର ଜଣେ ଲେଖିକା ଓ ଫଟୋଗ୍ରାଫର ଏବଂ ୨୦୧୫ର PARI ଫେଲୋ । ସେ ବିଭିନ୍ନ ମଲ୍‌ଟି ମିଡିଆ ପ୍ରକଳ୍ପରେ କାର୍ଯ୍ୟରତ ଏବଂ ଜଳବାୟୁ ପରିବର୍ତ୍ତନ, ଲିଙ୍ଗଗତ ସମସ୍ୟା ଏବଂ ସାମାଜିକ ଅସମାନତା ବିଷୟରେ ଲେଖନ୍ତି ।

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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