सुमारे १२३ वर्षांपूर्वी लिहिलेल्या एका कवितेत एक अनादी देव होता, एक नवं मंदिर, एक घमेंडी राजा आणि अन्न, वस्त्र निवाऱ्यावाचून तडफडणारी सामान्य प्रजा असे सगळं काही होतं. पण, या शिवाय या कवितेत होता एक संन्यासी, एक साधू. परिणामांची पर्वा न करता राजाला खडे बोल सुनावणारा साधू. आणि काळाच्या किती तरी पुढची ही कविता लिहिणारा हा विलक्षण कवी म्हणजे गुरुदेन रवींद्रनाथ टागोर.

'काहीनी' नामक शीर्षकाखाली ही कविता रवींद्ररचनावलीच्या पहिल्या खंडात आलेली आहे. माणुसकीची कास सोडलेल्या आटपाट नगरातल्या किंवा कदाचित खऱ्याखुऱ्या राज्यामध्ये जनसामान्यांची काय परवड होते ते ही कविता आपल्याला सांगते.

भोवतालच्या सामाजिक, सांस्कृतिक आणि राजकीय परिस्थितीत ही कविता आजचीच वाटते. तितकीच सार्थ आणि भानावर आणणारी.

स्मिता खटोर हिच्या आवाजात मूळ बंगाली कविता ऐका

प्रतिष्ठा पांड्या हिच्या आवाजात कवितेचा इंग्रजी अनुवाद ऐका

দীনদান

নিবেদিল রাজভৃত্য, “মহারাজ, বহু অনুনয়ে
সাধুশ্রেষ্ঠ নরোত্তম তোমার সোনার দেবালয়ে
না লয়ে আশ্রয় আজি পথপ্রান্তে তরুচ্ছায়াতলে
করিছেন নাম-সংকীর্তন। ভক্তবৃন্দ দলে দলে
ঘেরি তাঁরে দরদর-উদ্‌বেলিত আনন্দধারায়
ধৌত ধন্য করিছেন ধরণীর ধূলি। শূন্যপ্রায়
দেবাঙ্গন; ভৃঙ্গ যথা স্বর্ণময় মধুভাণ্ড ফেলি
সহসা কমলগন্ধে মত্ত হয়ে দ্রুত পক্ষ মেলি
ছুটে যায় গুঞ্জরিয়া উন্মীলিত পদ্ম-উপবনে
উন্মুখ পিপাসাভরে, সেইমতো নরনারীগণে
সোনার দেউল-পানে না তাকায়ে চলিয়াছে ছুটি
যেথায় পথের প্রান্তে ভক্তের হৃদয়পদ্ম ফুটি
বিতরিছে স্বর্গের সৌরভ। রত্নবেদিকার ’পরে
একা দেব রিক্ত দেবালয়ে।”

শুনি রাজা ক্ষোভভরে
সিংহাসন হতে নামি গেলা চলি যেথা তরুচ্ছায়ে
সাধু বসি তৃণাসনে। কহিলেন নমি তাঁর পায়ে,
“হেরো প্রভু, স্বর্ণশীর্ষ নৃপতিনির্মিত নিকেতন
অভ্রভেদী দেবালয়, তারে কেন করিয়া বর্জন
দেবতার স্তবগান গাহিতেছ পথপ্রান্তে বসে?”
“সে মন্দিরে দেব নাই” কহে সাধু।

রাজা কহে রোষে,
“দেব নাই! হে সন্ন্যাসী, নাস্তিকের মতো কথা কহ।
রত্নসিংহাসন ’পরে দীপিতেছে রতনবিগ্রহ—
শূন্য তাহা?”

“শূন্য নয়, রাজদম্ভে পূর্ণ” সাধু কহে,
“আপনায় স্থাপিয়াছ, জগতের দেবতারে নহে।”

ভ্রূ কুঞ্চিয়া কহে রাজা, “বিংশ লক্ষ স্বর্ণমুদ্রা দিয়া
রচিয়াছি অনিন্দিত যে মন্দির, অম্বর ভেদিয়া
পূজামন্ত্রে নিবেদিয়া দেবতারে করিয়াছি দান,
তুমি কহ সে মন্দিরে দেবতার নাহি কোনো স্থান!”

শান্ত মুখে কহে সাধু, “যে বৎসর বহ্নিদাহে দীন
বিংশতি সহস্র প্রজা গৃহহীন অন্নবস্ত্রহীন
দাঁড়াইল দ্বারে তব, কেঁদে গেল ব্যর্থ প্রার্থনায়
অরণ্যে, গুহার গর্ভে, পথপ্রান্তে তরুর ছায়ায়,
অশ্বত্থবিদীর্ণ জীর্ণ মন্দিরপ্রাঙ্গণে, সে বৎসর
বিংশ লক্ষ মুদ্রা দিয়া রচি তব স্বর্ণদীপ্ত ঘর
দেবতারে সমর্পিলে। সে দিন কহিলা ভগবান —
“আমার অনাদি ঘরে অগণ্য আলোক দীপ্যমান
অনন্তনীলিমা-মাঝে; মোর ঘরে ভিত্তি চিরন্তন
সত্য, শান্তি, দয়া, প্রেম। দীনশক্তি যে ক্ষুদ্র কৃপণ
নাহি পারে গৃহ দিতে গৃহহীন নিজ প্রজাগণে
সে আমারে গৃহ করে দান! “চলি গেলা সেই ক্ষণে
পথপ্রান্তে তরুতলে দীনসাথে দীনের আশ্রয়।
অগাধ সমুদ্র-মাঝে স্ফীত ফেন যথা শূন্যময়
তেমনি পরম শূন্য তোমার মন্দির বিশ্বতলে,
স্বর্ণ আর দর্পের বুদ্‌বুদ্‌!”

রাজা জ্বলি রোষানলে,
কহিলেন, “রে ভণ্ড পামর, মোর রাজ্য ত্যাগ করে
এ মুহূর্তে চলি যাও।”

সন্ন্যাসী কহিলা শান্ত স্বরে,
“ভক্তবৎসলেরে তুমি যেথায় পাঠালে নির্বাসনে
সেইখানে, মহারাজ, নির্বাসিত করো ভক্তজনে।”

Destitute Donation

Said the royal attendant, “Despite entreaties, king,
The finest hermit, best among men, refuses shelter
In your temple of gold, he is singing to god
Beneath a tree by the road. The devout surround him
In numbers large, their overflowing tears of joy
Rinse the dust off the earth. The temple, though,
Is all but deserted; just as bees abandon
The gilded honeypot when maddened by the fragrance
Of the flower to swiftly spread their wings
And fly to the petals unfurling in the bush
To quench their eager thirst, so too are people,
Sparing not a glance for the palace of gold,
Thronging to where a flower in a devout heart
Spreads heaven’s incense. On the bejewelled platform
The god sits alone in the empty temple.”

At this,
The fretful king dismounted from his throne to go
Where the hermit sat beneath the tree. Bowing, he said,
“My lord, why have you forsaken god’s mighty abode,
The royal construction of gold that pierces the sky,
To sing paeans to the divine here on the streets?’
“There is no god in that temple,” said the hermit.

Furious,
The king said, “No god! You speak like a godless man,
Hermit. A bejewelled idol on a bejewelled throne,
You say it’s empty?”

“Not empty, it holds royal arrogance,
You have consecrated yourself, not the god of the world.”

Frowning, said the king, “You say the temple I made
With twenty lakh gold coins, reaching to the sky,
That I dedicated to the deity after due rituals,
This impeccable edifice – it has no room for god!”

Said the tranquil hermit, “The year when the fires
Raged and rendered twenty thousand subjects
Homeless, destitute, when they came to your door
With futile pleas for help, and sheltered in the woods,
In caves, in the shade of trees, in dilapidated temples,
When you constructed your gold-encrusted building
With twenty lakh gold coins for a deity, god said,
‘My eternal home is lit with countless lamps
In the blue, infinite sky; its everlasting foundations
Are truth, peace, compassion, love. This feeble miser
Who could not give homes to his homeless subjects
Expects to give me one!’ At that moment god left
To join the poor in their shelter beneath the trees.
As hollow as the froth and foam in the deep wide ocean
Is your temple, just as bereft beneath the universe,
A bubble of gold and pride.”

Flaring up in rage
The king said, “You false deceiver, leave my kingdom
This instant.”

Serenely the hermit said to him,
“You have exiled the one who loves the devout.
Now send the devout into the same exile, king.”

दीन दान

राजसेवक म्हणतो - "अतिशय विनयाने प्रार्थना करूनही महाराज,
त्या नरोत्तम साधूश्रेष्ठाने तुमच्या सोन्याच्या देवळामध्ये आश्रय घेतला नाही.
आज ते साधू महाराज रस्त्याच्या कडेला एका झाडाच्या सावलीत नामसंकीर्तन करीत आहेत.
भक्तांच्या झुंडीच्या झुंडी त्याच्याभोवती बसून आहेत.
आणि नामसंकीर्तनाने निर्माण होणाऱ्या आनंदलहरींमध्ये भिजत आहेत.
आनंदातिशयाने उत्कंठित झालेत. त्या आनंदधारांनी तेथील धरणी नाहून गेली आहे.
देवालयाचं अंगण शून्य झालंय, रितं झालंय.

भ्रमर जसा अचानक कमलगंधाने धुंद होऊन
सोनेरी मधाचे पात्र टाकून, द्रुत वेगाने छोटे पंख पसरून, पिपासार्त असून
गुंजारव करत उत्फुल्ल कमळांच्या उपवनाकडे धाव घेतो,
त्याप्रमाणे अवघे स्त्री पुरुष ते नामसंकीर्तन ऐकण्यासाठी
देवळाकडे नजरही ना टाकता पळत चाललेत.
कुठे? तर जिथे रस्त्याच्या कडेला भक्तांची हृदयकमले उमलली आहेत
आणि ज्यातून स्वर्गीय असा सौरभ चहूकडे दरवळला आहे तिथे.
रत्नजडित वेदीवर एकटा देव त्या रिकाम्या देवळात आहे."

हे ऐकून राजा क्षुब्ध झाला आणि सिंहासनावरून उठून,
जिथे तरुछायेमध्ये तृणासनावर साधुमहाराज बसलेत तिथे गेला.
साधुमहाराजांना वंदन करून म्हणाला -

"ऐका प्रभू, साधू महाराज,
राजानं केलेलं गगनचुंबी सोनेरी देवालय इथे असताना,
त्याचा त्याग करून इथे या रस्त्याच्या कडेला बसून देवतेचं गुणगान का करताहात?"
त्यावर साधू म्हणे - "त्या मंदिरी देव नाही."
रोषे राजा म्हणे - "देव नाही, अरे संन्यासी!
नास्तिकापरि बोल बोललासी,
रत्नसिंहासनी विराजित रत्नमूर्ती खाशी|
ते मंदिर आहे शून्य, असे तू म्हणसी?"

साधू - "शून्य नसे, राजदंभाने पूर्ण असे
स्वत:सी प्रस्थापिले त्वा, ना देवासी."
उंचावून भुवया राजा वदला त्यासी-
"देऊन विंशती लक्ष सुवर्ण मुद्रा,परिपूर्ण घडविले गगनचुंबी मंदिरा,
स्वरमंत्रपूजनी, निवेदनासह देवा केले दान
त्या मंदिरी, तू म्हणसी, देवतेस ना स्थान?"

अतिशांत स्वराने म्हणे साधू राजासी -
"ज्या वर्षी दाहक दुर्भिक्ष्याने दीन
विस लक्ष्य प्रजाजन अन्नवस्त्रगृहहीन
आले तव दारी करीत प्रार्थना दीन
परि व्यर्थ जाहले त्यांचे व्याकुळ क्रंदन
घेती ते आश्रय तरुतळी, डोंगरी, वनी
अश्वत्थ विदीर्णशा जीर्ण मंदिर प्रांगणी
त्या वर्षी देऊन वीस लक्ष सुवर्णमुद्रा
त्वा घडवियले सुवर्णमय मंदिरा
अन अर्पियले देवासी.

त्या दिनी म्हणे भगवान -

"मम अनादिगृही अमाप तेज देदीप्यमान
अनंत निलाकाशी मम गृहा भिंती त्या जाण
दया, प्रेम, शांती अन् सत्य चिरंतन
रे दरिद्री, कृपणा गृह न देऊ शकलासी
गृहहीन अशा तव दीन प्रजाजनांसी.
ऐशा त्वा मज लागी गृहदान मात्र केलेसी
तत्क्षणी जाई तो दिनाश्रय दिनानाथ
तरुतळी आश्रिता दिनांसी देई साथ
अगाध समुद्री फुलती पोकळ शून्य फेनलहरी
त्यापरी अतिशून्य क्षुद्र हे मंदिर तव भूवरी
तव संपद् दंभ दर्पाच्या बुदबुद लहरी"

जळफळला क्रोधे वदला राजा साधूसी -
"रे ढोंगी पामर तू संन्यासी
ह्या क्षणीच जा तू सोडून मम राज्यासी"

अति शांत स्वराने बोले मग संन्यासी -
"त्या भक्तवत्सला घालविले त्वा जेथे
त्या भक्तजनांना घालवून दे तेथे "

बंगालीतून इंग्रजी अनुवादः अरुणव सिन्हा

कवितेचा इंग्रजी अनुवाद सर्वप्रथम Scroll.in वर प्रकाशित झाला असून अनुवादकाच्या परवानगीने इथे पुनःप्रकाशित करण्यात आला आहे

बंगालीतून मराठी अनुवादः डॉ. अपर्णा झा (मेहेंदळे)

Poem : Rabindranath Tagore
English Translation : Arunava Sinha

Arunava Sinha is an associate professor of practice in the Creative Writing department at Ashoka University, and Co-Director, Ashoka Centre of Translation. An award-winning translator, he works across Bengali and English, translating many works of classic and contemporary fiction, non-fiction, and poetry.

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Illustration : Atharva Vankundre

Atharva Vankundre is a storyteller and illustrator from Mumbai. He has been an intern with PARI from July to August 2023.

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Translator : Dr. Aparna Jha (Mehendale)

Dr. Aparna Jha (Mehendale) is a linguist based in Pune with vast experience of teaching Bengali, Hindi and Marathi at various institutions in India and abroad. She is a prolific translator and has recently brought out a Marathi-Bengali dictionary.

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