“जब प्यार किया तो डरना क्या...प्यार किया कोई चोरी नहीं...घुट घुट कर यूं मरना क्या ...”
विधि 60 के दशक की कालजयी फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म के इस गाने को ख़ासा देर से गुनगुना रही है. वह मध्य मुंबई में हाल ही में किराये पर लिए अपने कमरे में है. वह गाने के बीच में कुछ पल के लिए रुकती है और पूछती है, “हमने भी तो कोई गुनाह नहीं किया है. फिर हमें किसी से डरने की क्या ज़रूरत है?”
यह प्रश्न उसने किसी अभिधा में नहीं पूछा है, बल्कि इसके पीछे एक गहरी चिंता है. मारे जाने का भय उसके सामने एक वास्तविक भय है. वह इस भय के साथ तब से ज़िंदा है जबसे उसने अपने घर वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर प्रेम किया, और जिससे प्रेम किया उसके साथ भाग गई. उस इंसान का नाम आरुषि है, जो स्कूल में उसके साथ ही पढ़ती थी. दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे और एक-दूसरे से विवाह करना चाहते थे. लेकिन उनके विवाह को वैधता दिलाने का रास्ता थोड़ा लंबा, मुश्किल और अनेक चुनौतियों से भरा रहा है. उन्हें इस बात का डर है कि उनके घरवाले उन दोनों के संबंधों को अपनी सहमति नहीं देंगे, और न वे आरुषि के लिए पूर्व-निर्धारित स्त्री-अस्मिता के विरुद्ध जारी उसके संघर्ष को ही समझेंगे. आरुषि अपनी दृष्टि में एक परलैंगिक (ट्रांस) पुरुष है और वह चाहता है कि लोग उसे अब आरुष के नाम से पहचानें.
महानगर में आने के बाद उन्हें यह लगा कि वे अपने परिवारों की बंदिशों से आज़ाद हो चुके थे. विधि का परिवार ठाणे ज़िले के एक गांव में रहता है, जो पालघर ज़िले में स्थित आरुष के गांव से लगभग 20 किलोमीटर दूर है. विधि (22 वर्ष) अगरी समुदाय की है, जो महाराष्ट्र में अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के रूप में सूचीबद्ध है. आरुष (23 वर्ष) का संबंध कुनबी समुदाय से है और यह समुदाय भी ओबीसी जाति है, लेकिन सामाजिक दृष्टि से इसे अगरी समुदाय से ‘नीचे’ माना जाता है. इन ग्रामीण क्षेत्रों में जातिगत पदानुक्रम का बहुत कठोरता से पालन किया जाता है.
दोनों को अपने-अपने घर को छोड़ कर मुंबई में रहते हुए साल भर बीत चुका है, और वापस लौटने की फ़िलहाल उनकी कोई योजना नहीं है. आरुष गांव में रहने वाले अपने परिवार के बारे में बमुश्किल कुछ कहता है, लेकिन इतना कहने से वह ख़ुद को नहीं रोक पाता है, “मैं एक कच्चे मकान में रहता था, और मैं इस बात पर बेहद शर्मिंदा था. इसलिए मैं अपनी आई (मां) से बहुत झगड़ता भी था.”
आरुष की मां एक अंडे की फैक्ट्री में काम करती हैं और एक महीने में 6,000 रुपए कमाती हैं. “बाबा (पिता) के बारे में मत ही पूछिए. उन्होंने वे सारे काम किये जो उन्हें मिले - बढ़ई मिस्त्री का काम, खेत में मज़दूरी और इसी तरह के दूसरे काम. उन्हें जो पैसे मिलते थे उनको वे शराब पीने में उड़ा देते थे. उसके बाद वे घर लौटते थे और आई व हमारी पिटाई करते थे,” आरुष बताता है. बाद में उसके बाबा बीमार पड़ गए और काम पर जाना बंद कर दिया. वे उसकी मां की आमदनी पर अपना गुज़ारा करने लगे. लगभग उसी वक़्त आरुष ने स्कूल की छुट्टियों में ईंट-भट्टे, फैक्ट्रियों और मेडिकल स्टोर में छोटे-मोटे काम करना शुरू कर दिया था.
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आरुष तब आठवीं कक्षा में पढ़ता था, जब 2014 में वह पहली बार विधि से उस नए स्कूल में मिला था जिसमें उसने अभी-अभी दाख़िला लिया था. उसे इस माध्यमिक विद्यालय तक पहुंचने के लिए घर से रोज़ चार किलोमीटर दूर पहुंचना होता था. वह कहता है, “गांव में जो ज़िला परिषद की पाठशाला थी उसमे केवल सातवीं तक की पढ़ाई होती थी और आगे पढ़ने के लिए हमें दूसरी जगह जाना पड़ता था.” दाख़िले के पहले एक साल में दोनों में बहुत कम बातचीत हुई. आरुष बताता है, “अगरी लोगों के साथ हमारी बहुत अधिक नहीं जमती थी. वे अपने अलग समूह में रहते थे और विधि भी उसी समूह का एक हिस्सा थी.”
जब दोनों नवमीं में पहुंचे, तब उनकी दोस्ती अधिक गहरी हो गई. आरुष अब विधि को पसंद करने लगा था.
एक बार जब जब दोनों एक साथ खेल रहे थे, तब आरुष ने विधि को अपने मन की बात बतला दी. उसने झिझकते हुए उससे कहा कि वह विधि को पसंद करता है. विधि समझ नहीं पाई कि उसे क्या कहना चाहिए. वह एक अजीब उधेड़बुन थी. विधि कहती है, “आरुष ने मुझे एक दूसरी लड़की के साथ अपने पूर्व संबंधों के बारे में भी बताया था. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं था, फिर भी मुझे यह अजीब ज़रूर लगा था कि दो लड़कियां आपस में प्रेम में कैसे रहेंगी.”
विधि कहती है, “पहले तो मैंने ‘न’ कह दिया, लेकिन एक लंबे वक़्त के बाद मैं मान गई. मैं नहीं जानती, मैंने ‘हां’ कैसे कह दी. यह बस हो गया. मैं उसे पसंद करती थी. मेरा दिमाग़ सही या ग़लत का लेखा-जोखा करने में असमर्थ था. हमारी कक्षा में किसी दूसरे को हमारे बारे में कुछ नहीं पता था.” उसने थोड़ी राहत के साथ ज़रा लंबी सांस लेते हुए हमें बताया. आरुष उसकी बात में अपनी तरफ़ से जोड़ते हुए कहता है, “दुनिया की नज़रों हम महज़ दो लड़कियां थीं जो आपस में गहरी सहेलियां हुआ करती थीं.”
जल्दी ही उनके नाते-रिश्तेदार उन दोनों की दोस्ती और जाति के बेमेल होने पर टीका-टिप्पणी करने लगे. आरुष विस्तार से बताता है, “हमलोग (कुनबी समुदाय के लोग) किसी ज़माने में अगरी परिवारों के यहां काम करते थे, और उनकी तुलना में छोटी जाति के समझे जाते थे. हालांकि, यह बहुत पहले की बात है, लेकिन कुछ लोगों के दिमाग़ में आज भी यही बात रहती है.” वह हमें कुछ साल पहले घटी एक डरावनी कहानी भी सुनाता है, जब उनके गांव से एक विषमलैंगिक जोड़ा भाग गया था. उनमें एक कुनबी था और दूसरा अगरी था. बाद में उनके घरवालों ने उनको धर दबोचा और उनकी ख़ूब पिटाई की.
शुरू में तो आरुष की मां को दोनों की दोस्ती से कोई परेशानी नहीं हुई. उनकी नज़रों में यह दो लड़कियों के बीच एक मामूली सी सामान्य दोस्ती थी, अलबत्ता उन्हें आरुष का प्रायः विधि के घर आना-जाना थोड़ा चिंतित करता था, और उन्होंने इसे नियंत्रित करने की कोशिश भी की.
विधि के पिता घर बनाने के लिए ज़रूरी कच्चे मालों की आपूर्ति का काम करते थे. उसके माता-पिता एक-दूसरे से तभी अलग हो चुके थे, जब विधि 13 साल की थी. बाद में उसके पिता ने दोबारा शादी कर ली. वह अपने पिता, सौतेली मां और चार भाई-बहनों के साथ ही रहती थी - उनमें एक बड़ा भाई, दो बहनें और एक सौतेला छोटा भाई थे. उसकी सौतेली मां आरुष को पसंद नहीं करती थी, और मां-बेटी में इस बात को लेकर अक्सर झगड़ा होता रहता था. विधि का बड़ा भाई जो 30 से कुछ अधिक साल का था, कभी-कभार अपने पिता के साथ उनके कामों में हाथ बंटाता था, और परिवार पर उसका अच्छा-ख़ासा प्रभाव था. वह अपनी बहनों की पिटाई करता था और अच्छे आचरण का व्यक्ति नहीं था.
वही बड़ा भाई कभी-कभी जब विधि को जाना होता था, तो उसे आरुष के घर पहुंचा आता था. विधि बीते दिनों को याद करती हुई कहती है, “मेरा बड़ा भाई कई बार फब्तियां कसता हुआ कहता था कि वह आरुष को पसंद करता था. मुझे यह सुनकर बुरा लगता था. हम नहीं समझ पा रहे थे कि हमें क्या करना चाहिए था. आरुष भी मन मसोस कर रह जाता था, और उसकी बात सिर्फ़ इसलिए अनसुनी कर देता था, ताकि हम एक-दूसरे से मिल सकें.”
कुछ वक़्त बाद, विधि के भाई ने भी उसे आरुष के घर आने-आने से रोकना-टोकना शुरू कर दिया. वह कहती है, “मैं यह ठीक से नहीं कह सकती कि क्या इसकी वजह आरुष की उसमें कोई रुचि नहीं होना थी या फिर वह भी दोनों के बीच की बढ़ती नज़दीकियों से नाख़ुश था.” उसकी बहन भी उससे यही सवाल पूछती थी कि आरुष उनके घर इतना क्यों आता-जाता है या विधि को एक दिन में इतना ज़्यादा कॉल और मैसेज क्यों करता है.
लगभग यही समय रहा होगा, जब आरुष अपनी लैंगिक प्राथमिकताओं को लेकर थोड़ा अधिक मुखर हो चुका था. अब वह ख़ुद को एक पुरुष की काया में देखने के लिए इच्छुक था. विधि वह अकेली इंसान थी जिसके साथ वह अपने मन की बात साझा कर सकता था. आरुष कहता है, “मैं नहीं जानता हूं कि उस समय परलैंगिक (ट्रांस) पुरुष होने के क्या मायने होते थे. मेरे भीतर ख़ुद को एक पुरुष की देह के रूप में देखने की गहरी और तीव्र इच्छा थी.”
उसे ट्रैक पैंट, कार्गो पैंट और टी-शर्ट पहनना बहुत पसंद था. किसी पुरुष की तरह कपड़े पहनने की उसकी अपरोक्ष इच्छा से उसकी मां बहुत चिंतित रहा करती थी, और वह अक्सर उसके कपड़ों को या तो कहीं छिपा देती थीं या फिर उन्हें फाड़ डालती थीं. आरुष की मां ने तो लड़कों जैसे कपड़े पहनने के कारण उसकी पिटाई और डांट-फटकार भी शुरू कर दी थी. वह उसे लड़कियों के कपड़े ही लाकर देती थीं. वह कहता है, “मुझे सलवार कमीज़ पहनना बिल्कुल पसंद नहीं था.” सलवार कमीज़ पहन कर वह सिर्फ़ स्कूल जाती थी, क्योंकि वहां यही ड्रेस स्कूल में लड़कियों की यूनिफार्म हुआ करती थी. इससे उसका “दम घुटता था,” उसे महसूस होता है.
जब आरुष को माहवारी आनी शुरू हो गई, तो उसकी मां ने राहत की सांस ली. यह तब की बात थी, जब वह 10वीं कक्षा में पढ़ता था. बहरहाल उसकी मां की यह राहत लंबे वक़्त तक क़ायम नहीं रही. कोई साल भर के बाद ही आरुष का मासिक चक्र अनियमित हो गया और कुछ दिनों के बाद रुक भी गया. उसकी मां उसे लेकर डॉक्टर से लेकर ओझा-गुणियों के यहां भी गईं. उन्होंने उसे अलग-अलग दवाएं और जड़ी-बूटियां दीं, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ.
पड़ोसी से लेकर शिक्षकों और स्कूल में साथ पढ़ने वालों - सभी ने उसपर ताने कसे. “वे कहते थे, ‘लड़कियों जैसी आदतें सीखो... अपनी हद में रहो.’ उसे यह भी आगाह किया जाता था कि अब मेरी उम्र शादी करने लायक हो चुकी थी.” मजबूर होकर आरुष हर वक़्त ख़ुद को ही संशय की नज़रों से देखने लगा. वह स्वयं के प्रति ही कुंठित रहने लगा था. वह कहता है, “मुझे लगता था कि मैंने कोई ग़लत काम किया है.”
जब 11वीं कक्षा में आरुष को उसका ख़ुद का मोबाइल फ़ोन मिल गया, तब उसने इंटरनेट पर घंटों यह जानने के लिए समय गुज़ारा कि लिंग पुष्टिकरण के लिए की जाने वाली सर्जरी के बाद उसके स्त्री से पुरुष बनने की कितनी संभावनाएं हैं. विधि शुरू में इस मसले को लेकर दुविधा की मनःस्थिति में रही. वह बताती है, “मैंने उसे उसी रूप में पसंद करती थी जैसा वह था. वह शुरू से इस बारे में ईमानदार था. वह अपने आप को शारीरिक तौर पर बदलना चाहता था, लेकिन इससे उसका स्वभाव तो नहीं बदलने वाला था.”
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विधि की पढ़ाई साल 2019 में 12वीं कक्षा के बाद छूट गई थी. आरुष, जो एक पुलिस अफ़सर बनना चाहता था, ने पुलिस भर्ती-परीक्षा की तैयारी कराने वाले पालघर के एक कोचिंग सेंटर में दाख़िला ले लिया. उसे एक महिला अभ्यर्थी के रूप में, अर्थात आरुषि के नाम से आवेदन करना पड़ा था. लेकिन राष्ट्रव्यापी कोविड-19 लॉकडाउन के कारण 2020 में होने वाली भर्ती-परीक्षा रद्द कर दी गई. इसलिए, उसने पत्राचार पाठ्यक्रम के माध्यम से बीए की डिग्री की पढ़ाई शुरू कर दी.
लॉकडाउन आरुष और विधि के लिए एक कठिन दौर था. विधि के घरवाले उसकी शादी के बारे में सोचने लगे थे. लेकिन उसने तय कर लिया था कि उसे आरुष के साथ ज़िन्दगी गुज़ारनी थी. अब उनके पास घर छोड़कर भाग जाने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था. इससे पहले जब कभी आरुष ने विधि से घर छोड़ने की बात कही थी, वह राज़ी नहीं हुई थी. वह कहती है, “मुझे यह सोच कर भी डर लगता था...घर छोड़ देना कोई कोई आसान फ़ैसला नहीं होता है.”
लॉकडाउन के बाद आरुष ने अगस्त 2020 में एक दवा-निर्माता कंपनी में काम करना शुरू कर दिया और हर महीने 5,000 रुपए कमाने लगा. वह कहता है, “किसी ने इस बात की परवाह नहीं की कि मैं कैसे जीना चाहता था. यह एक दमघोंटू स्थिति थी. मुझे यह लग गया कि भाग जाना ही एकमात्र उपाय है.” उसने कई ग़ैरसरकारी संगठनों (एनजीओ) और समूहों से संपर्क किया, जो घरेलू हिंसा के शिकार लोगों के लिए काम करते हैं, ताकि विधि और अपने लिए कोई पनाह ढूंढ सके.
भारत में शोषणपूर्ण दुर्व्यवहार और प्रताड़ना अनेक परलैंगिक (ट्रांसजेंडर) लोगों को एक सुरक्षित जगह तलाशने के लिए घर छोड़ने पर मजबूर कर देती है. ग्रामीण इलाक़ों में तो स्थितियां और भी भयावह हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा 2021 में पश्चिम बंगाल के ट्रांसजेंडर लोगों पर जारी एक रिपोर्ट के अनुसार “परिवार के लोग उनपर अपनी लैंगिकता या इससे संबंधित प्राथमिकताओं को छुपाए रखने के लिए जबरन दबाव डालते हैं.” और, इसीलिए उनमें से तक़रीबन आधे घरवालों, दोस्तों और समाज के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण अपने परिवार को छोड़कर चले जाते हैं.
आरुष और विधि के लिए एक गंतव्य के रूप में मुंबई आसान जगह लगी. आरुष वहां अपनी सर्जरी भी करा सकता था. इसलिए 2021 की मार्च की एक दोपहर विधि अस्पताल जाने का बहाना बना कर अपने घर से निकली और आरुष अपने काम पर जाने के लिए घर से निकला. दोनों प्रेमी बस पकड़ने के लिए एक निर्धारित जगह पर मिले. आरुष के पास 15,000 रुपए नक़द थे, जो उसने अपनी कमाई से बचाए थे. उसके पास उसकी मां की इकलौती सोने की चेन और एक जोड़ी बालियां भी थीं. उसने 13,000 रुपयों के बदले में सोना बेच दिया. वह विस्तार से बताता है, “मुझे उन्हें बेचते हुए बहुत बुरा भी लगा, लेकिन हमारी सुरक्षा के लिए हाथों में नक़द रुपयों का होना बहुत ज़रूरी था. मैं कोई जोखिम उठाना नहीं चाहता था, क्योंकि हमारे घर लौटने के सभी रास्ते बंद हो चुके थे.”
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मुंबई में ऊर्जा ट्रस्ट द्वारा संचालित एक एनजीओ के कार्यकर्ताओं द्वारा दोनों प्रेमियों को शरण के लिए एक नारी संरक्षण गृह ले जाया गया. स्थानीय पुलिस स्टेशन को भी मामले की सूचना दे दी गई. मानवाधिकार कार्यकर्ता और ऊर्जा ट्रस्ट की प्रोग्राम मैनेजर अंकिता कोहिरकर कहती हैं, “चूंकि दोनों वयस्क थे, तो क़ानूनन पुलिस को सूचना देने की कोई ज़रूरत नहीं थी. लेकिन कुछ पेंचीदा मामलों में, ख़ासकर परिजनों द्वारा नुक़सान पहुंचाए जाने की आशंका को देखते हुए, उनकी सुरक्षा की दृष्टि से हम पुलिस को बता देना ज़रूरी समझते हैं.”
बहरहाल, यहां यह क़दम उल्टा पड़ गया. पुलिस स्टेशन पर अधिकारियों ने उनसे सघन पूछताछ शुरू कर दी. आरुष उस प्रकरण को याद करता हुआ कहता है, “वे बार-बार हमसे हमारे गांव लौट जाने की बात कहते रहे. उनका कहना था कि इस तरह के संबंध लंबे समय तक नहीं चल सकते हैं, क्योंकि यह बुनियादी तौर पर ग़लत हैं.” पुलिस ने दोनों के घरवालों को भी सूचित कर दिया, जो ख़ुद भी उनके जाने से बहुत नाराज़ थे. उस समय तक आरुष की मां ने भी नज़दीकी पुलिस स्टेशन में उसके ग़ायब होने की शिकायत दर्ज़ कर दी थी, और विधि के घर वाले आरुष के घर पहुंच कर उसके परिवार को धमकी दे चुके थे.
जैसे ही उन्हें दोनों के मुंबई में होने की जानकारी मिली, दोनों परिवार उसी दिन मुंबई पहुंच गए. विधि बताती है, “भाई (बड़े भैया) ने मुझे चुपचाप साथ चलने के लिए कहा. मैंने कभी भी उसे इस रूप में नहीं देखा था. लेकिन चूंकि वहां पुलिस मौजूद थी, इसलिए उन्होंने ख़ुद को काबू में रखा था.”
आरुष की मां ने भी दोनों को बहुत समझाया और लौट जाने के लिए कहा. “पुलिस ने आई को यहां तक कहा कि वह किसी तरह दोनों को वापस साथ ले जाएं, क्योंकि संरक्षण गृह औरतों के लिए सुरक्षित जगह नहीं,” आरुष याद करता है. ख़ुशक़िस्मती से ऊर्जा के कार्यकर्ताओं ने हस्तक्षेप करते हुए उनदोनों के अभिभावकों को उन्हें जबरन वापस ले जाने से रोका. आरुष ने वे पैसे भी अपने घर वालों को दे दिए जो उसे अपनी मां के गहने बेचने के एवज़ में मिले थे. वह कहता है, “मुझे उन पैसों को अपने पास रखना अच्छा नहीं लग रहा था.”
दूसरी तरफ़, गांव में विधि के परिवार वालों ने आरुष पर विधि से सेक्स-व्यापार कराने के लिए उसे बलपूर्वक अपने साथ ले जाने का आरोप लगाया. उसके बड़े भाई और दूसरे रिश्तेदारों ने आरुष के घरवालों को डराना-धमकाना जारी रखा और बुरा परिणाम झेलने के लिए तैयार रहने को कहा. आरुष कहता है, “वह (विधि के बड़े भाई) मेरे भाई को समस्या का निराकरण करने के बहाने हमेशा अकेले मिलने के लिए बुलाते थे, लेकिन मेरा भाई जाने से कतराता रहा. उसे डर था की वे लोग किसी भी हद तक जा सकते थे.”
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मध्य मुंबई के एक संरक्षण गृह में रहने के बावजूद आरुष और विधि ख़ुद को बहुत असुरक्षित महसूस करते थे. आरुष कहता है, “हमें किसी पर विश्वास नहीं था. कौन जानता था गांव से किस समय कौन आ धमकेगा.” इसलिए उन्होंने 10,000 रुपए जमा कर अपने लिए किराये का एक कमरा ले लिया. वह 5,000 रुपए हर महीने कमरे का किराया देते हैं. वह कहता है, “मकान मालिक को हमारे रिश्तों के बारे में जानकारी नहीं है. हमारे लिए भी इसे छुपाए रखना ज़रूरी है. हम इस कमरे को खाली नहीं करना चाहते थे.”
आरुष अब पूरा ध्यान अपनी लिंग-पुष्टिकरण सर्जरी और इलाज पर देना चाहता है. इस पूरी प्रक्रिया, डॉक्टर और ख़र्च से संबंधित जानकारियों का उसका एकमात्र स्रोत गूगल और कुछेक व्हाट्सएप समूह हैं.
एक बार इस संदर्भ में वह मुंबई के ही एक सरकारी अस्पताल भी गया था, लेकिन फिर दोबारा वहां नहीं गया. आरुष कहता है, “मेरी मदद करने के बजाय डॉक्टर मुझे सर्जरी नहीं कराने के लिए समझाने लगा. वह मेरी बात समझ ही नहीं पा रहा था. फिर उसने मुझे अपने मां-बाप को बुलाने की बात कही, ताकि उनकी सहमति ली जा सके. उसकी बात सुन कर मुझे ग़ुस्सा भी आया. वह मदद करने के बजाय मेरी मुसीबतें और बढ़ा रहा था.”
अब आरुष ने अपने इलाज के लिए एक निजी अस्पताल को चुना है. परामर्श की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद डॉक्टर इस नतीजे पर पहुंचे कि उसे जेंडर डिसफोरिया नाम की बीमारी है. यह बीमारी व्यक्ति के जैविक लैंगिकता और लैंगिक पहचान में तालमेल की गड़बड़ी के कारण होती है. डॉक्टरों ने आरुष को हार्मोन उपचार देने का फ़ैसला किया, क्योंकि लिंग-पुष्टिकरण की प्रक्रिया बहुत जटिल और ख़र्चीली थी.
आरुष को प्रत्येक 21 दिन पर दिए जाने वाले टेस्टोस्टेरोन के इंजेक्शन के एक किट की क़ीमत 420 रुपए है, और जिस डॉक्टर की निगरानी में यह दिया जाता है वह डॉक्टर 350 रुपए बतौर फीस लेता है. खाने वाली दवाओं के लिए हर पन्द्रह दिनों में 200 रुपए अलग खरचने पड़ते हैं. हार्मोन उपचार के दुष्प्रभावों पर नज़र रखने के लिए आरुष को हर 2-3 महीने पर खून की जांच करानी होती है, जिनमें तक़रीबन 5,000 रुपए लगते हैं. काउंसलर की काउंसलिंग फीस 1,500 और डॉक्टर की कंसल्टिंग फीस 800-1,000 रुपए हर बार लगती है.
बहरहाल, इलाज के नतीजे अब सामने आने लगे हैं. वह कहता है, “मैं अपने भीतर तब्दीली महसूस करने लगा हूं. अब मेरी आवाज़ पहले से भारी हो चुकी है. मैं ख़ुश हूं. वह इलाज के दुष्प्रभावों के बारे में यह बताना भी नहीं भूलता कि “मुझे चिड़चिड़ाहट महसूस होती है और कभी-कभी मैं ग़ुस्सा हो जाता हूं.”
आरुष को यह डर भी सताता है कि एक दिन विधि को उसके साथ भाग आने का अफ़सोस होगा या वह उसे पसंद करना बंद कर देगी. आरुष कहता है, “वह एक अच्छे परिवार (ऊंची जाति) से आई है, लेकिन उसने मुझे कभी भी ख़ुद से कमतर महसूस नहीं होने दिया. वह भी इसलिए काम करती है, ताकि हम ठीक से रह सकें.”
आरुष के व्यवहार में आए परिवर्तनों पर गौर करती हुई विधि कहती है, “हमारे बीच झगड़े भी होते हैं, लेकिन फिर हम बैठ-बांट कर अपनी असहमतियों को सुलटा लेते हैं. इससे मुझपर भी असर पड़ता है, लेकिन मैं उसके साथ हूं.” उसने कंप्यूटर या नर्सिंग में एक व्यावसायिक पाठ्यक्रम करने का विचार फ़िलहाल टाल दिया है, और उनके बदले दूसरे काम करने लगी है, ताकि घर का ख़र्च चलाने में हाथ बंटा सके. अभी वह एक दक्षिण भारतीय रेस्टोरेंट में प्लेटें धोने का काम करती है, जिससे उसे महीने के 10,000 रुपयों की आमदनी हो जाती है. इस आमदनी का एक हिस्सा आरुष के इलाज में ख़र्च हो जाता है.
आरुष हरेक महीने होने वाली 11,000 रुपयों की अपनी आमदनी से बचत करता है. वह एक इमारत में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करता है, जहां उसके सहकर्मी उसे एक पुरुष के रूप में पहचानते हैं. अपनी छाती के उभारो को छुपाने के लिए वह एक बाइंडर (सख़्त क़िस्त की एक आवरण) पहनता है. हालांकि, उसे पहनना थोड़ा पीड़ादायक भी है.
विधि कहती है, “हम अब साथ कम समय गुज़ार पाते हैं, क्योंकि हमें सुबह जल्दी काम पर निकलना होता है. काम से लौटने के बाद हम थके होते हैं, कई बार छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने लगते हैं."
सितंबर 2022 और दिसंबर 2022 के बीच आरुष अपने इलाज में 25,000 रुपए ख़र्च कर चुका है. हार्मोन उपचार लेने के बाद वह लिंग-पुष्टिकरण सर्जरी भी कराना चाहता है, जिसे सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी (एसआरएस) भी कहते हैं. इस सर्जरी से उसके स्तन और यौनांग फिर से निर्मित किए जाएंगे और इसमें तक़रीबन 5 लाख से लेकर 8 लाख रुपए तक ख़र्च होते हैं. आरुष के लिए इस सर्जरी का ख़र्च उठा पाना असंभव है, क्योंकि वह और विधि अपनी मौजूदा आमदनी से इतने पैसे नहीं बचा पाते हैं.
आरुष नहीं चाहता है कि उसके घर वाले उसकी सर्जरी होने से पहले उसके इलाज के बारे में जानें. उसे अच्छी तरह याद है कि एक बार अपने बाल छोटे कटा लेने पर उसकी मां ने उसे फ़ोन पर बहुत डांटा था. आरुष कहता है “उन्हें लगता है कि मुंबई में रहने वाले लोग मेरा दिमाग़ ख़राब कर रहे हैं." एक बार वह उसे बहला कर कर अपने पड़ोस के गांव में एक तांत्रिक के पास ले गई थी. “उस आदमी ने मुझे पीटना शुरू कर दिया और बार-बार मेरे माथे को धकियाते हुए बोलने लगा, ‘तुम एक लड़की हो, लड़के नहीं हो.” घबरा कर आरुष वहां से किसी तरह भाग निकलने में कामयाब हुआ.
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आरुष कहता है, “अगर सरकारी डॉक्टर क़ाबिल होते, तब मुझे इलाज में इतने पैसे ख़र्च नहीं करने पड़ते." ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट, 2019 सरकार को चिकित्सीय सुविधा और सहायता देने का निर्देश देता है, जिनमें लिंग-पुष्टिकरण सर्जरी करने और सर्जरी होने व हार्मोन उपचार के पहले और बाद में काउंसलिंग जैसी सुविधाएं शामिल हैं. यह क़ानून कहता है कि उपचार में होने वाले व्यय एक स्वास्थ्य बीमा योजना के माध्यम से वसूले जाएंगे. यह क़ानून इसकी गारंटी लेता है कि मरीज़ के उपचार और सर्जरी के अधिकार को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता है.
इस क़ानून के बनने के बाद भारत सरकार के सामाजिक न्याय और कल्याण मंत्रालय द्वारा 2022 में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया गया है. इसके माध्यम से 2020 में नेशनल पोर्टल फॉर ट्रांसजेंडर पर्संस भी आरंभ किया गया, जहां एक परलैंगिक व्यक्ति किसी भी कार्यालय का चक्कर लगाए बिना अपनी पहचान का प्रमाण-पत्र और अपना पहचान-पत्र प्राप्त कर सकता है.
आरुष, जो इनमें से अधिकतर योजनाओं के बारे में नहीं जानता है, ने बहरहाल अपनी पहचान से संबंधित दस्तावेज़ों के लिए आवेदन किया है. उसे अभी तक ये काग़ज़ात नहीं मिल सके हैं, जबकि पोर्टल यह साफ़-साफ़ उल्लेख करता है कि “आवेदनपत्र प्राप्त करने के 30 दिनों के भीतर ज़िला कार्यालयों के लिए ट्रांसजेंडर प्रमाण-पत्र जारी करना अनिवार्य है.” बीते 2 जनवरी 2023 तक, महाराष्ट्र राज्य को पहचान-पत्र और प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए 2,080 आवेदनपत्र प्राप्त हो चुके थे, जिनमें से 452 मामले अभी भी लंबित हैं.
आरुष को इसकी चिंता है कि पहचान प्रमाण-पत्र के बिना उसके बीए की डिग्री आरुषि के नाम से निर्गत कर दी जा सकती है, और उसके बाद उसे जटिल काग़ज़ी कार्रवाई से गुज़रना पड़ेगा. आज भी वह एक पुलिस अफ़सर बनना चाहता है, लेकिन अपने लिंग-पुष्टिकरण सर्जरी के बाद एक पुरुष के रूप में. बिहार में हालिया दिनों में पहले ट्रांस पुरुष की पुलिस बल में प्रस्तावित नियुक्ति की ख़बर ने उसकी उम्मीदें बढ़ा दी हैं. “मैं इस ख़बर से बहुत ख़ुश हूं. इसने मेरा हौसला बढ़ाया है,” अपनी सर्जरी के लिए काम करने और बचत करने वाला आरुष कहता है.
उसकी इच्छा है कि लोगों को हरेक आदमी को स्वीकार करने का हुनर सीखना चाहिए. तब किसी को अपना घर और गांव नहीं छोड़ना होगा, और न इस तरह दुनिया से अपना चेहरा छिपाना होगा. आरुष कहता है, "मैं बहुत रोया हूं, और जीने की चाहत खोने लगा था. आख़िरकार हमें डर कर ज़िंदा रहने की क्या ज़रूरत है? एक दिन हम भी अपनी पहचान को छुपाए बिना अपनी कहानी सुनाना चाहते हैं.”
“मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म का अंत बहुत उदास करने वाला था. हमारी कहानी उस तरह ख़त्म नहीं होगी,” विधि जब यह कहती है तो उसके होठों पर उम्मीद की एक मुस्कान है.
विधि और आरुष के नाम उनकी निजता को सुरक्षित रखने के लिए बदल दिए गए हैं.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद