श्रीरंगम के निकट कोल्लिडम नदी के रेतीले किनारे पर किसान वडिवेलन मुझे अपने जीवन से जुड़ी कहानियां सुना रहे हैं. शाम तेज़ी से ढल रही है, और वडिवेलन का खेत यहां से सिर्फ़ 10 मिनट की दूरी पर है. इन कहानियों में उस नदी की कहानी है जिसमें उनके जन्म के 12 दिन के बाद भयानक बाढ़ आई थी. एक कहानी उस गांव की है जहां हर आदमी एल्लु (तिल के बीज) की खेती करता था, ताकि उसकी पिसाई कर शहद के रंग वाला ख़ुश्बूदार तेल निकाला जा सके. कुछ कहानियां यह बताती हैं कि कैसे पानी की सतह पर तैरते केले के दो तनों के सहारे वडिवेलन ने तैरना सीखा, कैसे उनको कावेरी, जो कि एक बड़ी नदी है, के किनारे रहने वाली प्रिया से प्रेम हुआ, और कैसे पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ भी उन्होंने प्रिया से शादी कर ली. अपने आधा एकड़ खेत की कहानी भी सुनाना वह नहीं भूलते, जिसपर वह धान, गन्ना, उड़द और तिल की खेती करते हैं...

पहली तीन फ़सलों से थोड़ी-बहुत आमदनी होती है. “धान के खेती से हमें जो आमदनी होती है उसे हम गन्ने की खेती में लगाते हैं. इस तरह हम खेत से आए पैसों को दोबारा खेत में ही निवेश कर देते हैं,” वडिवेलन स्पष्ट करते हैं. तिल - जिसे तमिल में एल्लु भी कहते हैं - की खेती तेल के लिए की जाती है. तिल की पिसाई लकड़ी के कोल्हू में की जाती है, और नल्लेनई (तिल या गिंगेली तेल) को एक बड़े बर्तन में रखा जाता है. “हम इसका उपयोग खाना पकाने और आचार बनाने में करते हैं,” प्रिया कहती हैं, “और हां, वह इसकी कुछ बूंदें पानी में मिलाकर रोज़ कुल्ला करते हैं.” वडिवेलन मुस्कुराते हैं. “और फिर कुछ बूंदों को पानी में डालकर उस पानी से स्नान भी करता हूं,” वह कहते हैं, “मुझे यह बहुत पसंद है!”

वडिवेलन को और भी कई काम पसंद है, जिनके पीछे उनका एकमात्र उद्देश जीवन के छोटे-छोटे सुख लेना है. बचपन में वह अपने दोस्तों के साथ मछलियां पकड़ते थे और उन्हें आग में पकाकर खाते थे; या पंचायत के नेता के घर पर गांव का एकमात्र टेलीविजन देखते थे. “टीवी मेरी इतनी बड़ी कमज़ोरी थी कि अगर वह ठीक से काम नहीं भी करता था, तब भी मैं उससे निकलती कोई भी आवाज़ सुनकर अपना समय गुज़ार सकता था.

दिन की धूप की तरह ख़ुशनुमा दिनों की यादें भी एक दिन ढल जाती हैं. “आप सिर्फ़ ज़मीन पर निर्भर नहीं रह सकते,” वडिवेलन कहते हैं. “हमारा काम इसलिए चल जाता है, क्योंकि मैं अपनी कैब भी चलाता हूं.” श्रीरंगम तालुका के गांव तिरुवलरसोलई में उनके घर से यहां नदी के किनारे तक हम उनकी टोयोटा एटियोस में ही आए थे. यह कार उन्होंने आठ प्रतिशत ब्याज की दर पर लिए गए एक निजी क़र्ज़ से ख़रीदी थी, जिसके बदले उन्हें हर महीने 25,000 रुपए की एक मोटी रक़म चुकानी पड़ती है. पैसों की व्यवस्था करना भी हमेशा एक मुश्किल काम रहा है. सामान्यतः आड़े मौके पर गिरवी रखने के लिए सोने का कोई जेवर काम आता है. “देखिए, हमारी तरह कोई आदमी घर बनाने के के लिए किसी बैंक से क़र्ज़ लेना चाहे, तो हमारी दस जोड़ी चप्पलें घिस जाएंगी. वे हमें दौड़ा-दौड़ा कर मार डालेंगे,” वडिवेलन कहते हैं.

आसमान इस समय गुलाबी, नीले और धूसर रंगों से बने किसी तैलचित्र की तरह दिख रहा है. कहीं से एक मोर की कूक की आवाज़ सुनाई देती है. “इस नदी में उदबिलाव भी हैं,” वडिवेलन बताते हैं. पास में ही युवा लड़के नदी में छलांग लगाकर उदबिलावों जैसा करतब दिखा रहे हैं. "मैं भी यही सब करता था. जब हम बड़े हो रहे थे, तो यहां मनोरंजन के लिए और कुछ था ही नहीं!"

Vadivelan and Priya (left) on the banks of Kollidam river at sunset, 10 minutes from their sesame fields (right) in Tiruchirappalli district of Tamil Nadu
PHOTO • M. Palani Kumar
Vadivelan and Priya (left) on the banks of Kollidam river at sunset, 10 minutes from their sesame fields (right) in Tiruchirappalli district of Tamil Nadu
PHOTO • M. Palani Kumar

तमिलनाडु के तिरुचिरपल्ली ज़िले में अपने तिल के खेतों (दाएं) से 10 मिनट की दूरी पर, सूर्यास्त के समय कोल्लिडम नदी के तट पर वडिवेलन और प्रिया (बाएं)

वडिवेलन नदियों की पूजा भी करते हैं. “हर साल तमिल महीने आडि के अट्ठारहवें दिन - जिसे डि पेरुक्कु कहते हैं - हम सब कावेरी नदी के किनारे जाते हैं और वहां नारियल फोड़कर, कपूर जलाकर और फूल चढ़ाकर प्रार्थना करते हैं.” वे मानते हैं कि आशीर्वाद के रूप में कावेरी और कोल्लिडम (कोलेरून) नदियां तमिलनाडु के तिरुचिरपल्ली ज़िले में स्थित खेतों को पिछले दो हज़ार सालों से उपजाऊ बनाने का काम कर रही हैं.

*****

“भाप पर पकी दालें, तिल के लड्डू, और मांसमिश्रित चावल
फूल, अगरबत्ती, और ताज़ा पके हुए चावल के नैवेद्य
के साथ स्त्रियां एक-दूसरे का हाथ पकड़े भक्तिभाव से नाचती हैं
प्रौढ़ और सम्मानित महिलाएं उन्हें आशीर्वाद देती हुईं कहती हैं
“हमारे राजा द्वारा शासित इस महान राज्य में
भूख, रोग और शत्रुता का विनाश हो;
और वर्षा व धन-संपदा पुष्पित-पल्लवित हो”

दूसरी शताब्दी में लिखे गए तमिल धर्मग्रंथ सिलप्पतिकारम में वर्णित “उपरोक्त प्रार्थना और विधि-विधान वर्तमान तमिलनाडु में आज भी उसी रूप में प्रचलित है”, अपने ब्लॉग ओल्ड तमिल पोएट्री [पोएम: इंदिरा विडवु. पंक्ति 68-75] में चेंतिल नाथन लिखते हैं.

एल्लु (तिल) पुरातन और हर स्थान पर मिलने वाला तेलहन है. यह एक ऐसी फ़सल है जिसका अलग-अलग और रोचक उपयोग होता है. तिल के तेल को नल्लेनई कहते हैं और दक्षिण भारत में यह खाना पकाने में काम आने वाला लोकप्रिय वसा है. इसके बीजों से अनेक स्थानीय और बाहरी मिठाइयां बनाई जाती हैं. काले और सफ़ेद दोनों रंगों के तिल थालियों के मोहक व्यंजनों का स्वाद बढ़ाने में बड़ी भूमिकाएं निभाते हैं. यह पूजापाठ और विधि-विधान के आवश्यक हिस्सा होते हैं - ख़ास तौर पर जिनके माध्यम से पूर्वजों का स्मरण किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है, उन विधि-विधानों में इनका विशेष उपयोग होता है.

तिल में 50 प्रतिशत तेल, 25 प्रतिशत प्रोटीन और 15 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के तिल और रामतिल जैसे तिलहन पर आधारित एक प्रोजेक्ट के आकलन के अनुसार, तिल ‘ऊर्जा का भंडार और विटामिन ई, ए, बी कॉम्प्लेक्स और कैल्शियम, फास्फोरस, लौह, ताम्र, मैग्नेशियम, जस्ता और पोटाशियम जैसे अयस्कों का उत्तम स्रोत है.’ इसलिए तेल निकालने के बाद बचने वाला चारा - एल्लु पुनाकु मवेशियों को खिलाने के लिए एक अच्छा आहार माना जाता है.

Ellu (sesame) is both ancient and commonplace with various uses – as nallenai (sesame oil), as seeds used in desserts and savoury dishes, and as an important part of rituals. Sesame seeds drying behind the oil press in Srirangam.
PHOTO • M. Palani Kumar

एल्लु  (तिल) पुरातन और हर स्थान पर मिलने वाला तेलहन है, जिसे विभिन्न तरह से उपयोग किया जाता है - नल्लेनई (तिल का तेल) के रूप में, मिठाइयों और स्वादिष्ट व्यंजनों में उपयोग किए जाने वाले बीज के रूप में, और पूजापाठ व विधि-विधान के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में. श्रीरंगम में चक्की के पीछे सूखता तिल

Freshly pressed sesame oil (left) sits in the sun until it clears. The de-oiled cake, ellu punaaku (right) is sold as feed for livestock
PHOTO • M. Palani Kumar
Freshly pressed sesame oil (left) sits in the sun until it clears. The de-oiled cake, ellu punaaku (right) is sold as feed for livestock.
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ताज़ा निकाला गया तिल का तेल (बाएं) धूप में तब तक रखा जाता है, जब तक वह साफ़ न हो जाए. तेल निकालने के बाद बचने वाला एल्लु पुनाकु (दाएं) पशुओं के चारे के रूप में बेचा जाता है

‘तिल (सेसमम इंडिकम एल.) प्राचीनतम देशी तिलहन फ़सल है. इसका इतिहास भारतीय कृषि के इतिहास जितना ही पुराना है.’ आईसीएआर द्वारा प्रकाशित ‘हैंडबुक ऑफ़ एग्रीकल्चर’ इस बारे में विस्तार से लिखते हुए बताता है कि भारत विश्व में तिल का सबसे बड़ा उत्पादक है. दुनिया में तिल की फ़सल के कुल क्षेत्र का 24 प्रतिशत हिस्सा भारत में है. अनुसंधान द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट दुनिया भर में तिलहन की खेती का कुल 12 से 15 प्रतिशत भूभाग भारत में है, और 9 से 10 प्रतिशत वैश्विक उपभोग में 7 से 8 प्रतिशत का योगदान करता है.

यह कोई आधुनिक प्रवृति नहीं है. अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक इंडियन फ़ूड, अ हिस्टोरिकल कंपेनियन में के. टी. अचाया ने इसके निर्यात के अनेक पुराने प्रमाणों के बारे में लिखा है.

पहली सदी से दक्षिण भारत के बन्दरगाहों से तिल के व्यापार के ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं. यूनानी बोलने वाले मिस्र के एक अज्ञात नाविक की अनुभव-आधारित पुस्तक पेरीप्लस मारिस एरिथ्रेइए (सरकमनेविगेशन ऑफ़ दी एरिथ्रियन सी) में उस समय के व्यापार का विस्तृत वर्णन मिलता है. वह लिखता है कि वर्तमान तमिलनाडु पश्चिमी भाग में कोंगुनाडु के तट से हाथीदांत और मलमल जैसी मूल्यवान वस्तुओं के साथ तिल के तेल और सोने की धातु जैसी चीज़ों का निर्यात किया जाता था. अन्य वस्तुओं से तुलना करने के बाद तिल के तेल के मूल्य और महत्व को समझा जा सकता है.

अचाया स्थानीय व्यापार का भी उल्लेख करते हैं, जो उस समय पर्याप्त समृद्ध था. मंकुडी मरुतनर द्वारा लिखी गई किताब मदुरईकांची में एक जीवंत व्यापारिक केंद्र के रूप में मदुरई का वर्णन मिलता है: ‘गोलमिर्च और धान, ज्वार, चना, मटर, और तिल सहित सोलह किस्मों के खाद्यान्नों से भरी बोरियां अनाज मंडियों में ढेर लगी हुई हैं.’

तिल के तेल को राजकीय संरक्षण प्राप्त था. अचाया की किताब इंडियन फ़ूड में पुर्तगाली व्यापारी डोमिंगो पाएज़ का उल्लेख मिलता है, जिसने 1520 ईस्वी के आसपास विजयनगर साम्राज्य में अनेक साल गुज़ारे. पाएज़ ने राजा कृष्णदेवराय के बारे में लिखा है:

“राजा एक पाइंट [द्रव्य की एक माप] के तीन-चौथाई मात्रा के बराबर तिल का तेल प्रतिदिन पौ फूटने से पहले पीते हैं और अपनी पूरी देह पर भी इसी तेल की मालिश कराते हैं. वह अपनी कमर और कूल्हों को एक छोटे वस्त्र से ढंक लेते हैं और अपने हाथ में भारी वज़न उठाकर व्यायाम करने के बाद, तब तक तलवारबाजी का अभ्यास करते हैं, जब तक देह में लगा पूरा तेल पसीने के साथ बह नहीं जाता है.

Sesame flowers and pods in Priya's field (left). She pops open a pod to reveal the tiny sesame seeds inside (right)
PHOTO • Aparna Karthikeyan
Sesame flowers and pods in Priya's field (left). She pops open a pod to reveal the tiny sesame seeds inside (right)
PHOTO • M. Palani Kumar

प्रिया के खेत (बाएं) में तिल के फूल और फलियां. वह एक फली को खोलती है, और उसके अंदर उपजे छोटे तिल (दाएं) को दिखाती हैं

Priya holding up a handful of sesame seeds that have just been harvested
PHOTO • M. Palani Kumar

प्रिया हाथ में मुट्ठी भर तिल लिए हुए हैं, जिनकी पैदावार अभी-अभी हासिल हुई है

वडिवेलन के पिता पलनिवेल भी इस वर्णन से अपनी सहमति प्रकट करते मालूम होते हैं. वह खेलकूद में रुचि लेने वाले व्यक्ति लगते है. “वह अपनी सेहत और शरीर का बहुत ख़याल रखते थे. भारी पत्थर उठाकर वर्जिश करते थे और नारियल के बाग़ान में कुश्ती लड़ना सिखाते थे. उनको सिलम्बम [तमिलनाडु का प्राचीन मार्शल आर्ट (युद्ध कला) जिसका उल्लेख संगम साहित्य में भी मिलता है] भी अच्छी तरह आता था.”

उनका परिवार तेल के लिए केवल अपने खेतों के तिल, और यदाकदा नारियल तेल का उपयोग करता था. दोनों तेलों को बड़े-बड़े पात्रों में रखा रखा जाता था. “मुझे अच्छी तरह से याद है, मेरे पिता एक राले साइकिल चलाते थे, जिसपर वह उड़द की बोरियां लाद कर त्रिची के गांधी मैदान ले जाते थे. वापसी में वह मिर्च, सरसों, गोलमिर्च और इमली लेकर आते थे. यह एक तरह का विनिमय-व्यापार था. इस तरह हमारे रसोईघर में साल भर खाने की चीज़ों का कोई अभाव नहीं रहता था !”

*****

वडिवेलन और प्रिया की शादी 2005 में हुई. उनकी शादी का आयोजन त्रिची के निकट वयलूर मुरुगन मन्दिर में हुआ था. “मेरे पिता नहीं आए. वह इस विवाह के पक्ष में नहीं थे,” वडिवेलन कहते हैं. “हद तो तब हुई, जब गांव में आगंतुकों के स्वागत के लिए इकट्ठे हुए मेरे दोस्त मेरे पिता से यह पूछने चले गए कि वह चलेंगे या नहीं. यह सुनते ही मेरे पिता बुरी तरह से भड़क गए!” वडिवेलन हंसते हुए बताते हैं.

हम वडिवेलन और प्रिया के घर में उनके हॉल में बैठे हैं. हमारे ठीक बगल में एक ताक बनी है, जिसपर देवताओं के चित्र और मूर्तियां रखी हैं. दीवार पर परिवार के सभी सदस्यों के चित्र लगे हैं - सेल्फी, छुट्टियों की तस्वीरें, पोर्ट्रेट. एक टेलीविजन भी रखा है, जो फुर्सत के दिनों में प्रिया के मनोरंजन का एकमात्र सहारा है. हम जब वहां पहुंचे, तो उनके दोनों बच्चे स्कूल जा चुके थे. उनका पालतू कुत्ता हमें एक नज़र देख गया है. “यह जूली है,” वडिवेलन बताते हैं. “यह बहुत प्यारी है,” मैं प्यार से कहती हूं. “यह लड़का है,” वडिवेलन यह कहते हुए ज़ोरदार हंसी हंसते हैं. जूली नाख़ुश वापस लौट जाता है.

प्रिया हमें खाने के लिए बुलाती हैं. उन्होंने हमारे लिए शानदार दावत की व्यवस्था की है, जिसमें वडा के साथ-साथ पायसम भी शामिल है. हमें केले के पत्ते पर खाना परोसा गया है. खाना स्वादिष्ट होने के अलावा, पेट भर देने वाला है.

Left: Priya inspecting her sesame plants.
PHOTO • M. Palani Kumar
Right: The couple, Vadivelan and Priya in their sugarcane field.
PHOTO • M. Palani Kumar

बाएं: प्रिया तिल के पौधों का निरीक्षण कर रही हैं. दाएं: वडिवेलन और प्रिया अपने गन्ने के खेत में खड़े हैं

हमें नींद न आने लगे, इसलिए हम काम की बातें करने लगते हैं. तिल की खेती करके उनका अनुभव कैसा रहा? “यह परेशानी से भरा काम है,” वडिवेलन कहते हैं. उनके अनुसार खेती का पेशा ही ऐसा है. “इस काम में न के बराबर मुनाफ़ा है, जबकि लागत बढ़ती जा रही है. दूसरी खादों के साथ-साथ यूरिया की क़ीमत भी रोज़ बढ़ती जा रही है. फिर हमें खेत की जुताई और तिल की बुआई भी करनी होती है. उसके बाद हमें क्यारियां बनानी होती हैं, ताकि इनके बीच पानी बह सके. हमें खेत में सिंचाई करने के पहले इसका ख़याल रखना होता है कि धूप ढल चुकी हो.”

प्रिया बताती हैं कि पहली सिंचाई तीसरे हफ़्ते के आसपास होती है. हथेली को ज़मीन से नौ या दस इंच की उंचाई पर रखते हुए वह यह भी बताती हैं कि तब तक पौधे इतने लंबे हो चुके होते हैं. “उसके बाद ये बहुत तेज़ी से बढ़ते हैं. आपको खर-पतवार साफ़ करना होता है, यूरिया डालना होता है, और हर दसवें दिन या उसके आसपास उनकी सिंचाई करनी होती है. अच्छी धूप मिलने की स्थिति में ही पैदावार अच्छी होती है.”

जब वडिवेलन काम पर जाते हैं, तब प्रिया खेत की रखवाली करती हैं. अपने डेढ़ एकड़ ज़मीन पर वे हर समय कोई दो फ़सल उगाते हैं. अपने घर का काम समेटने के बाद वह बच्चों को स्कूल भेजती हैं, अपने लिए खाना पैक करती हैं और साइकिल चला कर खेत पहुंचती हैं, ताकि दूसरे मज़दूरों का हाथ बंटा सकें. “कोई 10 बजे सुबह में हमें सबके लिए चाय मंगवानी पड़ती है. दिन में खाने के बाद फिर से चाय और पलकारम [हल्का नाश्ता] देना होता है. आमतौर पर हम सुइयम [मीठा] और उरुलई बोंडा [नमकीन] की व्यवस्था रखते हैं.” वह लगातार कोई न कोई काम कर रही हैं - उठ रही हैं, बैठ रही हैं, कुछ रख रही हैं, उठा रही हैं, झुक रही हैं, कुछ पका रही हैं, सफ़ाई कर रही हैं... “आप थोड़ा सा जूस लीजिए,” जब हम उनके खेत पर जाने के लिए के लिए खड़े होते है, तब वह आग्रहपूर्वक कहती हैं.

*****

एल्लु वयल या तिल के खेतों को देखना एक सुंदर अनुभूति है. तिल के फूल कोम और बड़े सुंदर दिखते हैं, और गुलाबी और सफ़ेद रंगों के होते हैं. उन्हें देख कर शिफॉन की साड़ियों और फ्रेंच मैनीक्योर की याद आती है. यह कहीं से भी उस गाढ़े तेल की तरह प्रतीत नहीं होता, जो दक्षिण भारतीय रसोई का एक मुख्य खाद्यपदार्थ है.

तिल के पौधे लंबे और पतले होते हैं, और उनकी पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं. उनकी डालियों में ढेर सारी हरी फलियां होती हैं, जो बादाम के आकार की होती हैं और उनकी बनावट इलायची जैसी होती है. प्रिया एक फली को हमें दिखाने के लिए खोलती हैं. भीतर बहुत से मलिन सफ़ेद रंग के तिल हैं. यह बताना कठिन है कि एक चम्मच तेल निकालने के लिए कितनी फलियों की पिसाई करने की ज़रूरत होगी. और, क्यों एक इडली पर लगाने के लिए दो तिल इस्तेमाल किया जाता है और इडली पोडी (एक सूखी चटनी) के लिए ज़रूरत पड़ती है.

हालांकि, इस बारे में सीधा सोचना मुश्किल है. अप्रैल की धूप काफ़ी तेज़ है. हम पास के बग़ीचे में थोड़ी छांह में खड़े हो जाते हैं. वडिवेलन बताते हैं, खेत में काम करने वाली औरतें भी यहीं आराम करती हैं. उनमे से बहुत सी औरतें पड़ोस के गोपाल के चने के खेत में कड़ी मेहनत करती हैं. उन्होंने अपने माथे पर सूती के तौलिए लपेट रखे हैं, ताकि ख़ुद को दोपहर की धूप से बचा सकें. वे बिना रुके लगातार काम करती हैं और केवल खाना खाने व चाय पीने के समय थोड़ी देर आराम करती हैं.

Left: Mariyaayi works as a labourer, and also sells tulasi garlands near the Srirangam temple.
PHOTO • M. Palani Kumar
Right: Vadivelan’s neighbour, S. Gopal participates in the sesame harvest
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बाएं: मारियाई मज़दूरी करती हैं, और श्रीरंगम मंदिर के पास तुलसी की माला भी बेचती हैं. दाएं: वडिवेलन के पड़ोसी एस. गोपाल तिल की फ़सल निकालने में शामिल होते हैं

Women agricultural labourers weeding (left) in Gopal's field. They take a short break (right) for tea and snacks
PHOTO • M. Palani Kumar
Women agricultural labourers weeding (left) in Gopal's field. They take a short break (right) for tea and snacks.
PHOTO • M. Palani Kumar

गोपाल के खेत में निराई करतीं महिला खेतिहर मज़दूर (बाएं). वे चाय-नाश्ते के समय थोड़ी देर आराम (दाएं) करती हैं

सब की सब अपेक्षाकृत प्रौढ़ महिलाएं हैं. उनमें वी. मारियाई सबसे बुज़ुर्ग हैं, जो सत्तर के आसपास की हैं. जब वह खर-पतवार नहीं साफ़ नहीं करती होती हैं या बुआई या कटाई नहीं कर रही होती हैं, तब श्रीरंगम मंदिर में तुलसी की माला बेचने का काम करती हैं. वह बहुत मीठा बोलती हैं. दूसरी तरफ़, सूरज आग बरसा रहा है. निष्ठुरता के साथ...

तिल के पौधों पर धूप का कोई ख़ास असर नहीं होता है. वडिवेलन के पड़ोसी 65 वर्षीय एस. गोपाल बताते हैं कि इनपर कई दूसरी चीज़ों का भी कोई असर नहीं होता है. वडिवेलन और प्रिया उनकी बातों से सहमत हैं. तीनों किसान कीटनाशक और स्प्रे की बात न के बराबर करते हैं, और न उनमें सिंचाई की कोई चिंता शामिल है. तिल काफ़ी हद तक बाजरे के समान है - उगाना आसान है, कम ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है. उनकी फ़सल को सबसे ज़्यादा ख़तरा बेमौसम की बरसात से है.

साल 2022 में ऐसा ही कुछ हुआ था. “बारिश नहीं होनी चाहिए थी और जमकर बारिश हो गई. जनवरी और फरवरी का महीना था और पौधे अभी छोटे थे, और विकसित होने के लिए जूझ रहे थे,” वडिवेलन कहते हैं. कुछ दिन बाद ही उनके खेत में फ़सल की कटाई का काम शुरू होना था, लेकिन पैदावार को लेकर वह अधिक आशान्वित नहीं थे. “पिछले साल 30 सेंट [एक एकड़ का एक तिहाई] पर खेती करके हमने 150 किलोग्राम पैदावार पाई थी, लेकिन इस साल मुझे 40 किलोग्राम पार करने का भी भरोसा नहीं है.”

पति-पत्नी के आकलन के मुताबिक़, इतनी उपज से उनके साल भर की तेल की ज़रूरत भी पूरी नहीं हो सकेगी. “हम एक बार में कोई 15 से लेकर 18 किलोग्राम तिल पीसते हैं. इससे हमें लगभग सात या आठ लीटर तेल मिलता है. दो बार की पिसाई के बराबर तिल की मात्रा को हम ठीकठाक पैदावार मानते हैं,” प्रिया बताती हैं. अगले दिन वडिवेलन हमें किसी तेल-मिल दिखाने ले जाने का वायदा करते हैं. लेकिन बीजों का क्या? उन्हें कैसे एकत्र किया जाता है?

गोपाल उदारता दिखाते हैं और हमें यह प्रक्रिया समझने के लिए आमंत्रित करते हैं. उनका तिल का खेत थोड़ी ही दूरी पर एक ईंट के भट्ठे के बगल में है, जहां कई अप्रवासी मज़दूरों का परिवार काम करता और रहता है. उन मज़दूरों को एक रुपया प्रति ईंट की दर से मज़दूरी मिलती है. यहीं वे अपने बच्चों की परवरिश भी करते हैं, जो बकरी और मुर्गीपालन करते हैं. शाम के समय भट्ठे पर शांति का माहौल है, और भट्ठे पर काम करने वाला एक मज़दूर हमारी मदद के लिए हमारे साथ चलने लगता है.

Priya and Gopal shake the harvested sesame stalks (left) until the seeds fall out and collect on the tarpaulin sheet (right)
PHOTO • M. Palani Kumar
Priya and Gopal shake the harvested sesame stalks (left) until the seeds fall out and collect on the tarpaulin sheet (right)
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प्रिया और गोपाल तिल के कटे हुए गट्ठरों (बाएं) को तब तक हिलाते हैं, जब तक कि बीज गिरकर तिरपाल शीट (दाएं) पर इकट्ठा न हो जाएं

Sesame seeds collected in the winnow (left). Seeniammal (right)  a brick kiln worker, helps out with cleaning the sesame seeds to remove stalks and other impurities
PHOTO • M. Palani Kumar
Sesame seeds collected in the winnow (left). Seeniammal (right)  a brick kiln worker, helps out with cleaning the sesame seeds to remove stalks and other impurities
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सूपे (बाएं) में एकत्र किए गए तिल के बीज. ईंट भट्टा मज़दूर सीनिअम्माल (दाएं) डंठल और अन्य गंदगियों को हटाने के लिए तिलों को साफ़ करने में मदद करती हैं

सबसे पहले गोपाल उस तिरपाल को हटाते हैं, जिससे तिल के काटे हुए पौधे ढंके जाते हैं. उन्हें कुछ दिनों के लिए एक ढेर के रूप में रखा जाता है, ताकि तापमान और आर्द्रता बढ़ने के कारण फलियां को फूटने में आसानी हो. सीनिअम्माल ढेर को किसी विशेषज्ञ की तरह एक छड़ी की मदद से उलटती-पलटती हैं. फलिया पककर तैयार हो चुकी हैं और उनके फूटने से पके हुए तिल बाहर आ रहे हैं. वह उन तिलों को अपने हाथ से इकट्ठा करके उनके छोटे-छोटे टीले बना लेती हैं. वह तब तक यह करती हैं, जब तक सारे गट्ठर खाली नहीं हो जाते.

प्रिया, गोपाल और उनकी पुत्रवधू डंठलों को इकठ्ठा कर उसका बंडल बनाते हैं. अब वे जलावन के काम में नहीं आएंगे. “मुझे याद है, इनका उपयोग हम धान को उबालने के लिए किया करते थे. लेकिन अब हम यह काम चावल की मिल में ही करा लेते हैं. तिल के डंठल को बस जला दिया जाता हैं,” वडिवेलन बताते हैं.

बहुत सी पुरानी परंपराएं अब समाप्त हो गई हैं, गोपाल बोलना जारी रखते हैं. ख़ासतौर पर उयिर वेली (पौधों से बाड़ बनाने कीपरंपरा) के समाप्त हो जाने का उनको विशेष दुःख है. “हम जिन दिनों में बाड़ा बनाया करते थे, तब उसके पास की मांदों में सियार रहते थे, और वे हमेशा उन चिड़ियों  और जानवरों का शिकार करने की ताक में रहा करते थे, जो हमारी फ़सलों को खा जाते थे. अब आपको सियार कहां दिखते हैं!” वह क्षुब्धता के साथ कहते हैं.

“बिल्कुल सच्ची बात है,” वडिवेलन भी सहमत हैं. “सियार हर जगह दिख जाते थे. मेरी शादी होने से पहले मैंने उनके एक छोटे बच्चे को नदी के किनारे से उठा लिया था, मुझे लगा वह शायद कोई झबरे बालों वाला कुत्ते का पिल्ला था. मेरे पिता ने कहा कि कुछ गड़बड़ लग रही है. उस रात सियारों का एक झुण्ड हमारे घर के पीछे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा. मैं तुरंत उस बच्चे को वहीं छोड़ आया जहां से मैंने उसे उठाया था.”

जब हम बातचीत कर रहे हैं, सीनिअम्माल ने उतनी देर में तिलों के बीज को सूप पर डाल दिया है. उनमें अभी भी भूस और सूखी पत्तियां मिली हुई हैं. वह सूपे को अपने माथे से ऊंचा ले जाती हैं और बहुत कुशलता के साथ कचरे को चालती हैं. यह एक सुंदर दृश्य है, किन्तु इस काम में बहुत श्रम लगता है. साथ ही, इसमें एक ख़ास तरह की दक्षता भी ज़रूरी है. तिल बारिश की बूंदों की तरह गिरते दीखते हैं, जैसे कोई संगीत बज रहा हो.

Gopal's daughter-in-law cleans the seeds using a sieve (left) and later they both gather them into sacks (right).
PHOTO • M. Palani Kumar
Gopal's daughter-in-law cleans the seeds using a sieve (left) and later they both gather them into sacks (right).
PHOTO • M. Palani Kumar

गोपाल की बहू छलनी (बाएं) से टिल साफ़ करती हैं और बाद में वे दोनों उन्हें बोरियों (दाएं) में इकट्ठा करते हैं

Priya helps gather the stalks (left). Gopal then carries it (right) to one side of the field. It will later be burnt
PHOTO • M. Palani Kumar
Priya helps gather the stalks (left). Gopal then carries it (right) to one side of the field. It will later be burnt.
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प्रिया डंठल (बाएं) इकट्ठा करने में मदद करती हैं. फिर गोपाल उसे उठाकर (दाएं) खेत के दूसरी तरफ़ ले जाते हैं. बाद में इसे जला दिया जाएगा

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श्रीरंगम के श्री रंगा मरचेक्कु (लकड़ी के कोल्हू) में रेडियो पर एक पुराना तमिल गीत बज रहा है. कोल्हू के मालिक आर. राजू कैश रजिस्टर खोलकर बैठे हुए हैं. कोल्हू से तिल पीसने के समय एक चरमराहट की आवाज़ लगातार आ रही है. स्टील के एक बड़े बर्तन में सुनहरा पीला तेल टपककर इकट्ठा हो रहा है. पिछवाड़े में पसरे हुए तिल धूप में सूख रहे हैं.

“18 किलो तिल को पीसने में कोई डेढ़ घंटे का समय लगता है. हम इसमें डेढ़ किलो ताड़ का गुड़ मिलाते हैं. पूरी प्रक्रिया में कुल 8 लीटर तेल निकल पाता है. स्टील के कोल्हू की तुलना में यह थोड़ा कम होता है,” राजू बताते हैं. वह ग्राहकों से एक किलो तिल की पिसाई के बदले 30 रुपए लेते हैं. वह अपने कोल्हू का कोल्ड-प्रेस्ड तिल का तेल 420 रुपए लीटर की दर पर बेचते हैं. “हम केवल बेहतरीन गुणवत्ता का तेल ही बेचते हैं. इन तिलों को सीधे किसानों से ख़रीदा जाता है या गांधी मार्केट से 130 रुपए प्रति किलो की दर पर ख़रीदा जाता है. अच्छी क़िस्म का ताड़ का गुड़ 300 रुपया प्रतिकिलो में आता है. इसे मिलाने से तेल के स्वाद में वृद्धि होती है.”

कोल्हू दिन भर में - 10 बजे सुबह से 5 बजे शाम के बीच - चार बार चलाया जाता है. ताज़ा निकाले गए तेल को धूप में साफ़ होने तक रख दिया जाता है. तिल की सूखी खली [ एल्लु  पुनाकु ] में कुछ तैलीय अवशेष बचा होता है. किसान खली को 35 रुपया प्रति किलों की दर से अपने मवेशियों को खिलाने के लिए खरीद लेते हैं.

राजू बताते हैं कि वह एक एकड़ ज़मीन पर तिल बोने, खेती करने, फ़सल काटने, उसकी गुड़ाई करने और बोरियों में पैक करने के लिए 20,000 से अधिक रुपए खर्च करते हैं. बदले में उन्हें 300 किलो तिल प्राप्त होता है. गणना करने पर तीन महीने की इस फ़सल में उनको लगभग 15,000 से 17,000 का मुनाफ़ा होता है.

समस्या की असली जड़ यहीं है, वडिवेलन कहते हैं. “आप जानते हैं हमारे श्रम से किसको लाभ होता है? व्यापारियों को. वे हमें जितना भुगतान करते हैं उससे दोगुनी रक़म में फ़सल को दूसरे के हाथ बेचते हैं,” वह कहते हैं. “वे मूल्य बढ़ाने के लिए आख़िर क्या करते हैं?” वह अपना सिर हिलाते हैं. “यही कारण है कि हम तिल नहीं बेचते हैं. हम इसे अपने घरों के लिए...अपनी ख़ुद की खपत के लिए उगाते हैं. यही काफ़ी है...”

The wooden press at Srirangam squeezes the golden yellow oil out of the sesame seeds
PHOTO • M. Palani Kumar
The wooden press at Srirangam squeezes the golden yellow oil out of the sesame seeds
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श्रीरंगम में लकड़ी के कोल्हू में पिसकर तिलों से सुनहरा पीला तेल निकलता है

Gandhi market in Trichy, Tamil Nadu where sesame and dals are bought from farmers and sold to dealers
PHOTO • M. Palani Kumar
Gandhi market in Trichy, Tamil Nadu where sesame and dals are bought from farmers and sold to dealers
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तमिलनाडु के त्रिची में स्थित गांधी बाज़ार, जहां किसानों से तिल और दालें ख़रीदी जाती हैं और डीलरों को बेच दी जाती हैं

तिरुचि के व्यस्त गांधी बाज़ार में तिल की दुकानों पर बहुत चहलपहल है. बाहर उड़द, मूंग और तिल की भरी बोरियों पर किसान बैठे हुए हैं. भीतर तंग दुकानों में व्यापारी बैठे हुए हैं, जो कभी उनके पुरखों की रही होंगी. पी. सरवनन (45) कहते हैं कि जब हम वहां पहुंचे हैं, तब वहां दिन भर में उड़द अधिक आया है. स्त्री और पुरुष मज़दूर दाल को चालने, तौलने और पैक करने में जुटे हैं. “स्थानीय तिल की फ़सल का मौसम अभी शुरू ही हुआ है,” वह बताते हैं. “जल्दी ही तिलों से भरी बोरियां उतरने लगेंगी.”

लेकिन 55 वर्षीय एस. चंद्रशेखरन के अनुमान के अनुसार, फ़सल के बेहतरीन मौसम में भी उनके पिता के समय की तुलना में अब एक चौथाई तिल की ही पैदावार होती है. “जून के महीने में कभी 2,000 एल्लु  मूटई [तिल की बोरियां] गांधी बाज़ार में प्रतिदिन उतरती थीं.  लेकिन पिछले कुछ सालों से इनकी संख्या बमुश्किल 500 रह गई है. किसानों ने इसकी खेती बंद कर दी है. इसे पैदा करना बहुत श्रम का काम हो गया है, और क़ीमतें उस अनुपात में नहीं बढ़ रही हैं. यह अभी भी 100 और 130 रुपए प्रतिकिलो के बीच अटकी हुई है. इसलिए किसान अब उड़द की खेती की तरफ़ मुड़ रहे हैं जिन्हें मशीन की मदद से काटकर उसी दिन बोरियों में रखा जा सकता है.”

मैं टोकते हुए सवाल करती हूं कि तेल की क़ीमत तो अधिक है और यह प्रतिदिन बढ़ ही रही है. तब किसानों को बेहतर मूल्य क्यों नहीं मिलता है? “यह बाज़ार पर निर्भर है,” चंद्रशेखरन जवाब देते हैं, “यह सब मांग और आपूर्ति और दूसरे राज्यों के उत्पादन का खेल है. बड़े मिल मालिक अपने भंडार में बड़ा स्टॉक रख सकते हैं. इससे भी असर पड़ता है.”

यही कहानी सभी जगह है, फ़सल या उत्पाद कोई भी रहे. बाज़ार हमेशा से कुछ लोगों के प्रति दयावान और कुछ लोगों के प्रति निष्ठुर रहा है. बाज़ार के जो हित में होता है, बाज़ार भी उसकी ही तरफ़दारी करता है...

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भारत में खाद्य तेल उद्योग के आयात और स्थानांतरण का एक लंबा और जटिल इतिहास रहा है: जो फ़सलों और सांस्कृतिक परंपराओं के साथ जुड़ता है. जैसा कि इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, दिल्ली में समाजविज्ञान और नीति अध्ययन विभाग में असोशिएट प्रोफेसर डॉ. ऋचा कुमार ने एक शोधपत्र में लिखा भी है: “1976 तक भारत अपनी उपभोक्ता-आवश्यकता का 30 प्रतिशत खाद्य-तेल आयात करता था.” फ्रॉम सेल्फ-रिलायंस टू डीपनिंग डिस्ट्रेस शीर्षक वाले इस शोधपत्र में आगे लिखा है, “सरकार डेयरी को-ऑपरेटिव की सफलता की नकल करना चाहती थी, जिसके कारण दुग्ध-उत्पादन में बहुत तेज़ी आई थी."

Freshly pressed sesame oil (left). Various cold pressed oils (right) at the store in Srirangam
PHOTO • M. Palani Kumar
Freshly pressed sesame oil (left). Various cold pressed oils (right) at the store in Srirangam.
PHOTO • M. Palani Kumar

ताज़ा निकला तिल का तेल (बाएं). श्रीरंगम की एक दुकान पर विभिन्न क़िस्म के कोल्ड प्रेस्ड तेल (दाएं)

लेकिन, कुमार कहती हैं, “पीत क्रांति के बाद भी 1990 के दशक से भारत में खाद्य तेल का संकट दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है. इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकांश किसानों ने तिलहन और अनाज की मिश्रित कृषि के स्थान पर गेंहू, चावल और गन्ने की एकल खेती का विकल्प चुन लिया है. इन फ़सलों को सरकार की तरफ़ से विशेष प्रोत्साहन और विक्रय संबंधित सुरक्षाएं प्राप्त हैं. इसके अतिरिक्त 1994 में खाद्य तेल के आयात में उदारीकरण ने इंडोनेशिया और अर्जेंटीना से क्रमशः सस्ते पाम [ताड़] और सोयाबीन के तेल के आयात का रास्ता आसान कर दिया और घरेलू बाज़ार इन तेलों के भंडार से भर गया.”

“पाम और सोयाबीन का तेल दूसरे खाद्य तेलों के सस्ते विकल्प बन गए, ख़ासकर वनस्पति (रिफाइंड, हाइड्रोजिनेटेड वेजिटेबल शोर्टेनिंग) तेलों के उत्पादन में इनका बहुत उपयोग होने लगा, जो महंगे घी का एक लोकप्रिय विकल्प है. इन सभी विकल्पों ने पारंपरिक और क्षेत्रीय तिलहनों और तेलों को खेतों और खाने की थालियों से विस्थापित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी. सरसों, तिल, अलसी, नारियल और मूंगफली उपजाने वाले किसानों के लिए अब यह लाभ का काम नहीं रहा,” कुमार लिखती हैं.

स्थिति इसलिए भी ख़राब है, क्योंकि खाद्य तेल अब भारत में पेट्रोलियम और सोना के बाद सबसे अधिक आयात होने वाली वस्तु बन गई है. साल 2023 में भारत में खाद्य तेलों की स्थिति पर प्रकाशित एक शोध के मुताबिक़, अभी भारत में कुल आयात का 3 प्रतिशत और कृषि आयात का 40 प्रतिशत भागीदारी खाद्य तेलों की है. इस शोध के अनुसार घरेलू उपभोक्ता मांग का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा आयात से पूरा किया जाता है.

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वडिवेलन के पारिवारिक ख़र्चों की 60 प्रतिशत पूर्ति उनकी टैक्सी से होने वाली आमदनी से होती है. जैसे कावेरी नदी उनके गांव तक पहुंचने के ठीक पहले दो धाराओं में बंट जाती है, ठीक वैसे ही वडिवेलन का जीवन और समय भी उनकी खेती और गाड़ी चलाने के बीच विभाजित हो गया है. एक किसान के रूप में उनकी भूमिका तुलनात्मक रूप से अधिक कठिन है. वह कहते हैं, “यह अनिश्चितता से भरा काम है, जो आपसे अधिक मेहनत की उम्मीद रखता है.”

चूंकि उनको दिन में काम करना होता है और लंबे समय तक गाड़ी चलानी होती है, तो उनकी पत्नी खेती के कामों में उनकी भरपाई करने की भरसक कोशिश करती हैं. साथ-साथ, प्रिया को घर के काम भी निबटाने होते हैं जहां उनको किसी और से कोई ख़ास मदद नहीं मिलती है. वडिवेलन उनका सहयोग करने की कोशिश ज़रूर करते हैं. कई बार वह सिंचाई का काम रात के समय में करते हैं, और कई-कई दिन कटाई मशीन की व्यवस्था करने में दौड़भाग भी करते रहते हैं. कटाई के मौसम में मशीनों की भारी मांग रहती है, और हर किसान को अपनी तैयार फ़सल को काटना होता है. उन्हें खेत में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. “लेकिन इन दिनों फावड़ा चलाने से मेरी पीठ में दर्द शुरू हो जाता है और मैं गाड़ी नहीं चला पाता हूं.”

Women workers winnow (left) the freshly harvested black gram after which they clean and sort (right)
PHOTO • M. Palani Kumar
Women workers winnow (left) the freshly harvested black gram after which they clean and sort (right)
PHOTO • M. Palani Kumar

महिला मज़दूर उड़द की ताज़ा पैदावार को फटक (बाएं) रही हैं, जिसके बाद वे उसे साफ़ करती हैं और छांटती (दाएं) हैं

ऐसे में पति-पत्नी को दिहाड़ी मज़दूरों पर निर्भर रहना पड़ता है. खर-पतवार की सफ़ाई, बुआई और तिल की भूसी निकालने के लिए वे सामान्यतः प्रौढ़ महिला मज़दूरों को काम पर रखते हैं.

उड़द की खेती भी उतनी ही मुश्किल है. “फ़सल की कटाई के ठीक पहले और बाद में तेज़ बारिश हो गई थी. यह बहुत मुश्किल समय था. फ़सल को सूखा रखना आवश्यक था.” वह अपने संकट के पलों को ऐसे साझा करते हैं मानो वह कोई महा मानव हों. उनकी कहानी सुनने के बाद से मैं अपनी इडली और डोसा में डली हुई उड़द दाल [ उलुंदु ] को अधिक सम्मान की नज़र से देखने लगी हूं.

“जब मैं बीस के आसपास का रहा होऊंगा, तब मैं एक लॉरी चलाया करता था. उसमें 14 चक्के थे. हम दो ड्राईवर थे और अदल-बदल कर गाड़ी चलाते थे. हम देश के कोने-कोने में जाते थे. मसलन उत्तरप्रदेश, दिल्ली, कश्मीर, राजस्थान गुजरात...“ वह मुझे बताते हैं कि वे ऊंट के दूध की चाय, रोटी, दाल, अंडे की भुर्जी जैसी चीज़ें खाते थे...और किसी नदी में नहाते थे. कई बार वे कश्मीर जैसी जगह में जहां बहुत ठंड पड़ती थी, बिना नहाए भी रह जाते थे. जगे रहने के लिए वे लॉरी चलाते हुए इलैयाराजा के गाने और कुतु पाटु सुनते थे. उनके पास सहयोग, बतकही और भूत-प्रेत के सैकड़ों क़िस्से हैं. “एक रात मैं पेशाब करने के लिए ट्रक से उतरा. मैंने सर के ऊपर से एक कंबल ओढ़ रखा था. अगली सुबह एक दूसरे लड़के ने मुझे बताया कि उसने ढंके चेहरे वाले भूत को देखा था,” यह बताते हुए वह ज़ोरदार हंसी हंसते हैं.

देश-देशांतर तक ट्रक से यात्रा करने के कारण वह हफ़्तों अपने घर से दूर रहते थे. शादी के बाद उन्होंने स्थानीय स्तर पर यह काम करना शुरू किया, और साथ-साथ खेती भी करने लगे. वडिवेलन और प्रिया के दो बच्चे हैं - एक बेटी जो दसवीं में पढ़ती है और एक बेटा जो सातवीं में पढ़ता है. “हमारी कोशिश रहती है कि उन्हें ज़रूरत की हर चीज़ें मिलें, लेकिन शायद हमारा बचपन उनकी तुलना में ज्यादा ख़ुशहाल था,” वह किसी दार्शनिक के अंदाज़ में कहते हैं,

Vadivelan’s time is divided between farming and driving. Seen here (left)with his wife Priya in the shade of a nearby grove and with their children (right)
PHOTO • M. Palani Kumar
Vadivelan’s time is divided between farming and driving. Seen here (left)with his wife Priya in the shade of a nearby grove and with their children (right)
PHOTO • Aparna Karthikeyan

वडिवेलन का समय खेती और गाड़ी चलाने के बीच विभाजित हो गया है. यहां (बाएं) वह अपनी पत्नी प्रिया के साथ पास के बग़ीचे की छाया में खड़े हैं और अपने बच्चों के साथ (दाएं) देखे जा सकते हैं

उनके बचपन के क़िस्से भी कठिनाइयों से भरे हैं. “आप कह सकते हैं कि किसी ने उन दिनों हमें नहीं पाला-पोसा,” वह मुस्कुराते हुए बोलते हैं, “हम बस ख़ुद ही पल-बढ़ गए.” उन्हें पहली जोड़ी चप्पल तब नसीब हुई, जब वह नवीं कक्षा में थे. उस समय तक वह नंगे पैर ही आसपास के इलाक़े में हरी घास लेने के लिए आते-जाते थे. उनकी दादी उस घास को चारे के रूप में बंडल बनाकर 50 पैसे में बेचती थीं. “कुछ लोग तो उसे भी ख़रीदने में मोलभाव करते थे!” वह हैरत से बताते हैं. वह स्कूल से मिले एक बनियान और निकर में साइकिल पर बैठकर दूर-दूर चले जाते थे. “वे कपड़े बमुश्किल तीन महीने टिकते थे. मेरे माता-पिता हमें साल भर में केवल एक जोड़ी नए कपड़े देते थे.”

वडिवेलन ने छलांग लगाते हुए अपने कठिन दिनों को पार किया है. वह एक एथलीट थे और प्रतिस्पर्धाओं में दौड़ते थे और पुरस्कार जीतते थे. वह कबड्डी खेलते थे, नदी में तैराकी करते थे, दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करते थे, अपनी अप्पाई ( दादी) से रोज़ रात कहानियां सुन कर सोते थे. “मैं कहानियों के बीच में ही सो जाया करता था और अगली रात को उन्हें वहीं से शुरुआत करनी पड़ती थी. उन्हें बहुत सी कहानियां याद थीं. राजा-रानियों की कहानी…और देवताओं की कहानी.”

हालांकि, युवा वडिवेलन ज़िला स्तर पर सफल नहीं हो सके, क्योंकि उनका परिवार उनके खाने-पीने का ख़याल नहीं रख पाया और न उन्हें ज़रूरी सामान ही मुहैया कर पाया. घर पर उनको दलिया, चावल और तरी मिलता था और कभीकभार मांस मिलता था. स्कूल में उन्हें दोपहर में उपमा मिलता था, और शाम को उनको याद है कि वह नमक को ‘स्नैक्स’ की तरह मिलाकर चावल की मांड पीते थे. वह इस शब्द का उपयोग जानबूझकर करते हैं. और, अब वह अपने बच्चों को पैकेट बंद स्नैक्स ख़रीदकर देते हैं

वह अपने बच्चों को अपने बचपन की कठिनाइयों से बचाकर रखते हैं. जब दूसरी बार मैं उनसे मिलने उनके क़स्बे गई, तो उनकी पत्नी और बेटी कोल्लिडम नदी के किनारे बालू खोद रही थीं. छः इंच की खुदाई के बाद ही पानी आना शुरू हो गया. “इस नदी का पानी बहुत स्वच्छ और शुद्ध है,” प्रिया बताती हैं. वह एक टीला बनाकर उसमें अपने बाल का पिन छुपा देती हैं. और उनकी बेटी उस पिन को खोजने लगती है. नदी अधिक गहरी नहीं और वडिवेलन और उनका बेटा उसमें नहाने लगते हैं. जहां तक मैं देख पाती हूं, आसपास हमारे अलावा कोई और नहीं है. किनारे की रेत पर घर लौटती हुई गायों के पांव के निशान हैं. नदी की घास से खरखराने की आवाज़ सुनाई देती हैं. इस विशाल तट का सौन्दर्य अप्रतिम है. घर की ओर जाते हुए वडिवेलन कहते हैं, “आपको ऐसा दृश्य अपने शहर में नहीं मिलेगा. मिलेगा क्या?”

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अगली बार जब मेरी मुलाक़ात नदी से होती है, तो मुझे महसूस होता है कि मैं किसी शहर में हूं. यह 2023 का अगस्त माह है और वडिवेलन के शहर में कोई साल भर बाद दूसरी बार आई हूं. मैं यहां डि पेरुक्कु के लिए आई हूं. यह कावेरी की तट पर मनाया जाता है, जहां इतिहास, संस्कृति और परंपरा का मेल होता है.

Vadivelan at a nearby dam on the Cauvery (left) and Priya at the Kollidam river bank (right)
PHOTO • Aparna Karthikeyan
Vadivelan at a nearby dam on the Cauvery (left) and Priya at the Kollidam river bank (right)
PHOTO • Aparna Karthikeyan

वडिवेलन (बाएं), कावेरी पर बने नज़दीक के एक बांध पर बैठे हैं, और कोल्लिडम नदी के तट पर प्रिया (दाएं)

The crowd at Amma Mandapam (left), a ghat on the Cauvery on the occasion of Aadi Perukku where the river (right) is worshipped with flowers, fruits, coconut, incense and camphor.
PHOTO • Aparna Karthikeyan
The crowd at Amma Mandapam (left), a ghat on the Cauvery on the occasion of Aadi Perukku where the river (right) is worshipped with flowers, fruits, coconut, incense and camphor.
PHOTO • Aparna Karthikeyan

आडि पेरुक्कु के अवसर पर कावेरी के एक घाट अम्मा मंडपम (बाएं) में मौजूद भीड़, जहां फूल, फल, नारियल, धूप और कपूर से नदी (दाएं) की पूजा की जाती है

“यहां जल्दी ही बहुत भीड़ हो जाएगी,” वडिवेलन श्रीरंगम की एक सूनी सड़क पर अपनी कार खड़ी करते हुए हमें सावधान करते हैं. हम कावेरी के एक घाट अम्मा मंडपम की तरफ़ बढ़ने लगते हैं. इस घाट पर तीर्थयात्रियों की भीड़ जुटती है. अभी सुबह के 8:30 ही बजे हैं. लेकिन यहां पूरी भीड़ इकट्ठी हो चुकी है. घाट की सीढ़ियों बिल्कुल भी खाली जगह नहीं है. हर तरफ़ लोग ही लोग हैं और लोगों के सिवा केले के पत्ते हैं, जिनपर नदी को चढ़ाने के लिए नैवेद्य रखे है - मसलन नारियल, अगरबत्ती लगे हुए केले, गणेश की हल्दी की बनी छोटी मूर्तियां, फूल, फल और कपूर. पूरे वातावरण में उत्सव का माहौल है, गोया कोई विवाह का अवसर हो. सबकुछ बहुत भव्य है.

नवविवाहित दंपत्ति और उनके परिजन पुजारी को घेरे खड़े हैं जो उन्हें थाली में रखे सोने के आभूषण ताली [मंगलसूत्र] को एक नए धागे में बांधने में सहयोग करते हैं. उसके बाद पति और पत्नी प्रार्थनाएं करते हैं और सहेजकर रखी गई विवाह की मालाओं को पानी में फेंकते हैं.  औरतें एक-दूसरे के गले में हल्दी में रंगे धागे बांधती हैं. परिजनों और मित्रों को कुमकुम और मिठाइयां बांटी जाती हैं. त्रिची के प्रसिद्ध भगवान गणेश के मन्दिर उचि पिल्लईयार कोइल की चमक सुबह की धूप में कावेरी पर छा जाती है.

और नदी चुपचाप अपने प्रवाह में बहती रहती है, प्रार्थनाओं को ख़ुद में समेटे, खेतों और सपनों को सींचती हुई...जैसा वह हज़ारों साल से करती आ रही है...

सेल्फ़-रिलायंस टू डीपनिंग डिस्ट्रेस: दी एम्बिवलेंस ऑफ़ येलो रिवोल्यूशन इन इंडिया से शोधपत्र को साझा करने के लिए डॉ. ऋचा कुमार का बहुत आभार.

इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Aparna Karthikeyan

ಅಪರ್ಣಾ ಕಾರ್ತಿಕೇಯನ್ ಓರ್ವ ಸ್ವತಂತ್ರ ಪತ್ರಕರ್ತೆ, ಲೇಖಕಿ ಮತ್ತು ʼಪರಿʼ ಸೀನಿಯರ್ ಫೆಲೋ. ಅವರ ವಸ್ತು ಕೃತಿ 'ನೈನ್ ರುಪೀಸ್ ಎನ್ ಅವರ್' ತಮಿಳುನಾಡಿನ ಕಣ್ಮರೆಯಾಗುತ್ತಿರುವ ಜೀವನೋಪಾಯಗಳ ಕುರಿತು ದಾಖಲಿಸಿದೆ. ಅವರು ಮಕ್ಕಳಿಗಾಗಿ ಐದು ಪುಸ್ತಕಗಳನ್ನು ಬರೆದಿದ್ದಾರೆ. ಅಪರ್ಣಾ ತನ್ನ ಕುಟುಂಬ ಮತ್ತು ನಾಯಿಗಳೊಂದಿಗೆ ಚೆನ್ನೈನಲ್ಲಿ ವಾಸಿಸುತ್ತಿದ್ದಾರೆ.

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Photographs : M. Palani Kumar

ಪಳನಿ ಕುಮಾರ್ ಅವರು ಪೀಪಲ್ಸ್ ಆರ್ಕೈವ್ ಆಫ್ ರೂರಲ್ ಇಂಡಿಯಾದ ಸ್ಟಾಫ್ ಫೋಟೋಗ್ರಾಫರ್. ದುಡಿಯುವ ವರ್ಗದ ಮಹಿಳೆಯರು ಮತ್ತು ಅಂಚಿನಲ್ಲಿರುವ ಜನರ ಬದುಕನ್ನು ದಾಖಲಿಸುವುದರಲ್ಲಿ ಅವರಿಗೆ ಆಸಕ್ತಿ. ಪಳನಿ 2021ರಲ್ಲಿ ಆಂಪ್ಲಿಫೈ ಅನುದಾನವನ್ನು ಮತ್ತು 2020ರಲ್ಲಿ ಸಮ್ಯಕ್ ದೃಷ್ಟಿ ಮತ್ತು ಫೋಟೋ ದಕ್ಷಿಣ ಏಷ್ಯಾ ಅನುದಾನವನ್ನು ಪಡೆದಿದ್ದಾರೆ. ಅವರು 2022ರಲ್ಲಿ ಮೊದಲ ದಯನಿತಾ ಸಿಂಗ್-ಪರಿ ಡಾಕ್ಯುಮೆಂಟರಿ ಫೋಟೋಗ್ರಫಿ ಪ್ರಶಸ್ತಿಯನ್ನು ಪಡೆದರು. ಪಳನಿ ತಮಿಳುನಾಡಿನ ಮ್ಯಾನ್ಯುವಲ್‌ ಸ್ಕ್ಯಾವೆಂಜಿಗ್‌ ಪದ್ಧತಿ ಕುರಿತು ಜಗತ್ತಿಗೆ ತಿಳಿಸಿ ಹೇಳಿದ "ಕಕ್ಕೂಸ್‌" ಎನ್ನುವ ತಮಿಳು ಸಾಕ್ಷ್ಯಚಿತ್ರಕ್ಕೆ ಛಾಯಾಗ್ರಾಹಕರಾಗಿ ಕೆಲಸ ಮಾಡಿದ್ದಾರೆ.

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ಪಿ. ಸಾಯಿನಾಥ್ ಅವರು ಪೀಪಲ್ಸ್ ಆರ್ಕೈವ್ ಆಫ್ ರೂರಲ್ ಇಂಡಿಯಾದ ಸ್ಥಾಪಕ ಸಂಪಾದಕರು. ದಶಕಗಳಿಂದ ಗ್ರಾಮೀಣ ವರದಿಗಾರರಾಗಿರುವ ಅವರು 'ಎವೆರಿಬಡಿ ಲವ್ಸ್ ಎ ಗುಡ್ ಡ್ರಾಟ್' ಮತ್ತು 'ದಿ ಲಾಸ್ಟ್ ಹೀರೋಸ್: ಫೂಟ್ ಸೋಲ್ಜರ್ಸ್ ಆಫ್ ಇಂಡಿಯನ್ ಫ್ರೀಡಂ' ಎನ್ನುವ ಕೃತಿಗಳನ್ನು ರಚಿಸಿದ್ದಾರೆ.

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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