हम यहां झाड़दार जंगल के बीच खड़े हैं, और ‘शैतान की रीढ़’ की खोज कर रहे हैं. इस क्षेत्र में पिरंडई (सिसस क्वाड्रेंगुलरिस) को इसी नाम से पुकारा जाता है. चौकोर डंठल वाली यह बेल, जिसकी तलाश मैं और रथी कर रहे हैं, की अनेक अच्छी क़िस्में होती हैं. सामान्यतः कोमल और ताज़ा डंठलों को तोड़ा जाता है, और उन्हें साफ़ कर लाल मिर्च पाउडर, नमक और तिल के तेल के साथ मिलाकर रख लिया जाता है. तैयार हो जाने के बाद यह अचार लगभग एक साल तक ख़राब नहीं होते हैं. पके हुए चावल के साथ इसका स्वाद लाजवाब होता है.

यह जनवरी की एक गर्म दोपहर है और जंगल की तरफ़ जाने वाला हमारा रास्ता एक सूखे और संकरे दर्रे से होकर गुज़रता है. तमिल में इस रास्ते का एक नाम विचारोत्तेजक नाम है – एल्लईअताअम्मन ओडई. इसका अर्थ बिना सीमाओं वाली देवी मां की धारा है. यह वाक्यांश रोंगटे खड़े कर देता है. जिस रास्ते पर हम हैं वह चट्टान और रेत से होकर गुज़रता है, और कहीं चौड़ा हो जाता है, तो कहीं नमी से भरा होता है – मेरे लिए इनसे गुज़रना एक अलग ही अनुभव है.

रथी रास्ते में मुझे कुछ कहानियां सुनाती चलती हैं. कुछ कहानियां काल्पनिक और मज़ेदार हैं, जिनके केंद्र में संतरे और तितलियां हैं. कुछ कहानियां सच्ची और भयानक हैं. ये भूख की राजनीति और जाति-संघर्षों पर आधारित हैं, जो नब्बे के दशक में घटित हुई थीं, जब रथी हाईस्कूल में पढ़ा करती थीं. “मेरा परिवार तूतुकुड़ी भाग गया था...”

दो दशक बाद रथी एक पेशेवर कथावाचक, पुस्तकालय परामर्शी और कठपुतली का तमाशा दिखाने वाली कलाकार के रूप में अपने गांव लौट आई हैं. वह धीमी आवाज़ में बातचीत करती हैं, लेकिन उतनी ही तेज़ी से पढ़ती है. “कोविड महामारी के दौरान सिर्फ़ सात महीने में मैंने छोटे और बड़े बच्चों की लगभग 22,000 किताबें पढ़ डालीं. एक ऐसा समय भी आया, जब मेरे सहायक ने मुझसे लगभग रोज़ यह कहना शुरू कर दिया था कि मैं पढ़ना बंद कर दूं. क्योंकि डायलॉग [संवाद] मेरी बातचीत का हिस्सा बनने लगे थे,” यह बताती हुई वह हंसने लगती हैं.

उनकी हंसी में नदियों के बहने जैसी एक खनक है. इसीलिए उनका नाम भागीरथी नदी पर रखा गया है. हालांकि, उन्होंने अपने नाम को संक्षिप्त कर लिया है और हिमालय के पहाड़ों, जहां उनकी हमनाम नदी गंगा में बदल जाती है, से कोई 3,000 किलोमीटर दूर दक्षिण की तरफ़ रहती हैं. उनका गांव तेनकलम तमिलनाडु के तिरुनेलवेली ज़िले में है और हर ओर से पहाड़ियों और झाड़दार जंगलों से घिरा हुआ है. उन्हें उन पहाड़ियों और जंगलों के बारे में सबकुछ पता है जैसे गांव का हरेक आदमी उनके बारे जानता है.

“आप जंगल क्यों जा रही हैं?” महिला श्रमिक पूछती हैं. “हम पिरंडई की तलाश में जा रहे हैं.” रथी जवाब देती हैं. “आपके साथ ये कौन हैं? आपकी दोस्त हैं?” चरवाहे का सवाल आता है. “हां, हां” रथी हंसती हैं. मैं उनकी तरफ़ हाथ हिलाती हूं और हमदोनों आगे बढ़ जाते हैं...

Pirandai grows in the scrub forests of Tirunelveli, Tamil Nadu
PHOTO • Courtesy: Bhagirathy
The tender new stem is picked, cleaned and preserved with red chilli powder, salt and sesame oil and will remain unspoilt for a year
PHOTO • Courtesy: Bhagirathy

पिरंडई तमिलनाडु में तिरुनेलवेली के झाड़दार जंगल में पैदा होता है. रथी को पिरंडई का एक पौधा (दाएं) मिलता है. नई और कोमल शाख तोड़कर इन्हें साफ़ करने के बाद लाल मिर्च पाउडर, नमक और तिल के तेल में मिलाकर रख दिया जाता है. इस तरह बना अचार साल भर तक ख़राब नहीं होता है

*****

पेड़-पौधों की तलाश इस संस्कृति और महादेश में एक व्यापक और पुरानी परंपरा है. यह समाज के उन सभी सदस्यों के जीवन के भौतिक, प्राकृतिक और अन्य उपलब्ध संसाधनों से जुड़ी है, जहां के लोग स्थानीय और ऋतु आधारित क्षेत्र-विशेष के वन्य उत्पादों पर निर्भर हैं.

बेंगलुरु महानगर में खाद्य पदार्थों की तलाश की शहरी जद्दोजहद पर लिखी गई पुस्तक चेजिंग सोप्पु के लेखक लिखते हैं कि “जंगली पौधों का संग्रह और उपयोग स्थानीय जातीय-पर्यावरणीय और जातीय-वानस्पतिक को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है.” वह यह भी लिखते हैं कि तेनकलम की तरह ही जंगल से पौधे एकत्र करने का काम मुख्य रूप से महिलाएं करती हैं. “उन्हें अपने आसपास के स्थानीय जंगली पौधों और वनस्पतियों की अच्छी और विस्तृत जानकारी होती है. वे जानती हैं कि पौधों के किस हिस्से का भोजन, दवा तथा अन्य सांस्कृतिक उपयोग होता है, और उनको खोजने का सबसे बढ़िया मौसम क्या होता है.”

उनके पास उन अनेक विलक्षण व्यंजनों का स्वाद भी होता है, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से सीखा और सुरक्षित रखा है.”

मौसमी खाद्यों को पूरे साल भर तक सुरक्षित रखने का आसान और असरदार तरीक़ा उन्हें सुरक्षित रखना होता है. इनमें सबसे लोकप्रिय तरीक़ा उनको सुखाने के बाद उनका अचार बनाना है. दक्षिण भारत, ख़ासतौर पर तमिलनाडु में सामान्य सिरके के स्थान पर एजेंट के रूप में तिल (गिंगेली) के तेल का उपयोग किया जाता है.

“तिल के तेल में सेसमिन और सिसमोल प्रचुर मात्रा में पाया है. ये तत्व प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट होते हैं और खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने के काम आते हैं,” खाद्य प्राद्योगिकी में एम.टेक. कर चुकीं मैरी संध्या जे कहती हैं. वे ‘आडी’ [समुद्र] नाम से मछली के अचार के अपने ब्रांड की भी मालकिन हैं. संध्या अपने मछली के अचार के लिए कोल्ड प्रेस्ड तिल के तेल का उपयोग करती हैं. “यह भंडारण के समय-विस्तार, पोषण संबंधी लाभ, स्वाद और रंग की दृष्टि से खासतौर पर बेहतर होता है.”

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अनेक संस्कृतियों और महादेशों में पौधों और वनस्पतियों की खोज की एक पुरानी और विस्तृत परंपरा रही है. वन्य उत्पादों का स्थानीय, मौसमी और दीर्घकालिक स्तर पर सेवन किया जाता है. रथी एक बार में  चार घंटे का चक्कर लगाती हैं, और पौधों की तलाश में 10 किलोमीटर तक चलती हैं. वह बताती हैं, ‘लेकिन उन्हें घर लेकर आने के बाद मुझे नहीं पता होता कि उनके साथ क्या किया जाता है’

रथी का परिवार अचार से लेकर मसालों की तरी तक - अनेक भोजनों में तिल के तेल का उपयोग करता है. ये भोजन सब्ज़ियों या मांस से बनते हैं. लेकिन भोजन का पदानुक्रम उन्हें विचलित करता है. “जब गांव में कोई जानवर मारा जाता है, तब शरीर के अच्छे हिस्से तथाकथित ऊंची जाति के लोगों को दे दिए जाते हैं, और अपेक्षाकृत बचे-खुचे और पशुओं के अंदर के भाग हमारे हिस्से में आते हैं. हमारे पास मांस के व्यजनों का इतिहास नहीं है, क्योंकि हमें कभी भी अच्छे हिस्से नहीं मिले. हमारे हिस्से केवल ख़ून आया!” वह बताती हैं.

“शोषण, भूगोल, जीव, वनस्पति और पशुओं की स्थानीय प्रजातियों और जातिगत पदानुक्रम ने दलितों, बहुजनों और आदिवासी समुदायों की खाद्य-संस्कृति को इतने तरीक़ों से प्रभावित किया है कि समाजविज्ञानी अभी भी उसका सही आकलन करने में जुटे हुए हैं,” अपने निबंध ब्लड फ्राई एंड अदर दलित रेसपीज फ्रॉम माय चाइल्डहुड (मेरे बचपन के दिनों से ब्लड फ्राई व अन्य दलित व्यंजन) में विनय कुमार लिखते हैं.

रथी की मां वडिवम्मल के पास “ख़ून, आंतें और भिन्न-भिन्न अंगों की सफ़ाई करने के अद्भुत तरीक़े हैं,” वह बताती हैं. “पिछले इतवार के दिन अम्मा ने ख़ून से व्यंजन बनाया था. यह इस शहर का एक विशेष व्यंजन है – ब्लड सॉसेज और ब्लड पुडिंग. भेजा फ्राई एक बेहतरीन व्यंजन माना जाता है. जब मैं एक अन्य शहर गई, तो मैंने एक अजीबोगरीब मूल्यसंवर्धन की स्थिति देखी. जो चीज़ गांव में मुझे सिर्फ़ 20 रुपए में मिल जाती है उसके लिए लोग अनापशनाप पैसे चुका रहे थे.”

उनकी मां को साग-सब्ज़ियों की भी गहरी जानकारी है. “आप नज़र घुमाएंगी, तो उन बोतलों में आपको औषधीय वनस्पतियां और तेल मिलेंगे,” रथी अपनी बैठक में मुझे बताती हैं. “मां को इन सबके नाम और काम पता हैं. पिरंडई को पाचन गुण के लिए बहुत अच्छा माना जाता है. अम्मा मुझे बताती हैं कि उन्हें कौन सी वनस्पतियां चाहिए. मैं जंगल में जाती हूं, उनको खोजकर लाती हूं और उनकी सफ़ाई कर उन्हें देती हूं.

ये मौसमी उपज होते हैं और बाज़ार में नहीं मिलते हैं.” हर बार जंगल जाकर उन्हें लाने में चार घंटे लगते हैं और पौधों को खोजने के क्रम में रथी को 10 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. “लेकिन जब मैं उन्हें लेकर लौटती हूं, तो मुझे नहीं पता होता कि उनके साथ क्या किया जाता है,” रथी हंसते हुए कहती हैं.

*****

Rathy in the forest plucking tamarind.
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tamarind pods used in foods across the country
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रथी जंगल में (दाएं) इमली तोड़ रही हैं. इमली की फलियों (बाएं) का उपयोग पूरे भारत में खाना बनाने में होता है

जंगल की यात्रा अद्भुत और करामाती होती है. बहुत कुछ छोटे बच्चों की पॉप-अप बुक की तरह – जिसका हर मोड़ हैरान कर देने वाला होता है, मसलन कहीं तितलियां, कहीं चिड़िया, कहीं बड़े-घने पेड़ तो कहीं सुंदर-जादुई परछाईयां. रथी मुझे पेड़ पर लगे जामुन दिखाती हैं, जो अभी तोड़े जाने लायक पके नहीं हैं. “कुछ दिनों में ही वे खाने लायक हो जाएंगे,” वह कहती हैं. हम पिरंडई की खोज में भटक रहे हैं लेकिन वे अब ख़त्म हो चुके हैं.

“कोई हमसे पहले आकर उन्हें ले गया है,” रथी कहती हैं. “लेकिन चिंता न कीजिए, लौटते हुए शायद वे हमें रास्ते में दिख जाएं.”

मानो अपनी निराशा की भरपाई करने के लिए वह इमली के एक बड़े से पेड़ के नीचे रूकती हैं, एक बड़ी डाल को झुकाती हैं और उनसे कुछ फलियां तोड़ लेती हैं. अपने अंगूठे और उंगलियों की मदद से उनके कत्थई छिलके उतारने के बाद हम उसके खट्टे-मीठे गूदे का स्वाद लेने लगते हैं. उनकी किताबों से जुड़ी शुरुआती यादें इमली से संबंधित हैं. “मैं किताब लेकर कोने में बैठ जाती थी और कच्ची इमलियां कुतरती रहती थी.”

जब वह कुछ बड़ी हुईं, तब अपने घर के पीछे के अहाते में लगे कोडुक्कापुलि मरम (मंकी पॉड ट्री) पर बैठ कर किताब पढ़ती थीं. “अम्मा ने उसे कटवा डाला, क्योंकि मैं उसपर 14 या 15 साल की उम्र में भी चढ़ जाती थी!” वह ठहाके मारकर हंसती हैं.

यह ठीक दोपहर का समय है और कड़ी धूप सीधे हमारे माथे पर पड़ रही है. जनवरी के महीने को देखते हुए धूप कुछ ज़्यादा ही तीखी है. “और थोड़ी देर चलने पर हम पुलियुतु पहुंच जाएंगे, जहां से गांव को पानी मिलता है,” रथी कहती हैं. सूखी हुई धाराओं के बीच भी कहीं-कहीं गड्ढे में पानी दिख जाता है. कीचड़ से भरे उन कुंडों पर तितलियां[ उड़ रही हैं. उड़ने के क्रम में वे अपने पंख खोलती और बंद करती हैं, जो भीतर से इन्द्रधनुषी नीले और बाहर से भूरे रंग के हैं. जब मुझे लगता है कि इससे चमत्कारिक कुछ और नहीं होता, तभी कुछ दूसरा जादुई दृश्य दिख पड़ता है.

पुलियुतु, यानी तालाब गांव की देवी के नाम पर बने एक पुराने मंदिर की बगल में है. रथी मुझे दाईं ओर स्थित भगवान गणेश के मंदिर को दिखाती हैं, जो नया बना है. हम एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर संतरे खाने लगते हैं. हमारे चारों ओर का दृश्य बहुत सम्मोहक है – ढलती हुई दोपहर जंगल में सुहानी लगने लगती है, संतरे की मीठी गंध और काली मछलियां. रथी मुझे एक कहानी सुनाती हैं, “इस कहानी का नाम पिथ, पिप एंड पील है.” वह कहानी सुनाती हैं और मैं मगन होकर सुनती हूं.

Rathy tells me stories as we sit under a big banyan tree near the temple
PHOTO • Aparna Karthikeyan
Rathy tells me stories as we sit under a big banyan tree near the temple
PHOTO • Aparna Karthikeyan

हम जब मंदिर (दाएं) के पास के बड़े बरगद के नीचे बैठे हैं, और रथी मुझे कहानियां सुनाती हैं

रथी को कहानियों से बहुत प्यार है. उनकी सबसे पुरानी यादें उनके पिता समुद्रम से जुडी हैं, जो एक बैंक मैनेजर थे और उन्हें मिकी माउस के कॉमिक्स लाकर देते थे. “मुझे अच्छी तरह से याद है, उन्होंने मेरे भाई गंगा को एक वीडियो गेम, मेरी बहन नर्मदा को एक खिलौना और मुझे एक किताब ख़रीद कर दी थी!”

रथी को पढने की आदत अपने पिता से ही मिली थी. उनके पास किताबों का एक बड़ा संग्रह हुआ करता था. रथी की प्राइमरी स्कूल में भी एक बड़ी लाइब्रेरी थी. “वे किताबों की पहरेदारी नहीं करते थे और मेरे लिए तो उन सेक्शनों में भी जाने की इजाज़त थी जहां सबके जाने की मनाही थी, जैसे नेशनल जियोग्राफिक और एन्साइक्लोपीडिया को आमतौर पर ताले के भीतर रखा जाता था. यह सब इसलिए कि मुझे उन किताबों से बहुत लगाव था!”

वह उन्हें बहुत पसंद करती थीं. उन्होंने अपना बचपन पढ़ते हुए गुज़ारा. “वहां रुसी भाषा से अनूदित किताबें थीं, जो मुझे लगता है कि हमने खो दिया था. मुझे उनके नाम याद नहीं हैं, सिर्फ़ चित्र और कहानियां याद हैं. पिछले साल मुझे वह अमेज़न पर मिली थी. यह समुद्री शेरों और नौकायन के बारे में थी. क्या आप उसे सुनना चाहेंगी?” और वह कहानी कहने लगती हैं. उनकी आवाज़ घटनाओं के साथ धीमी और तेज़ हो रही है, जैसे समुद्र में उठती-गिरती पानी की लहर.

उनका बचपन भी उथल-पुथल से भरा रहा – समुद्र की तरह ही. जब वह हाईस्कूल में थीं, उन्हें अपने आसपास होने वाली हिंसा की याद है. “छुरा घोंप देना, बसों को फूंक डालना. हम आए दिन इस तरह की घटनाओं के बारे में सुनते रहते थे. गांवों में एक संस्कृति थी. लोग उत्सव और त्योहारों के मौसम में सिनेमा दिखाने थे. मारपीट का असली कारण वही था. कोई छुरा घोंपने की घटना घट जाती थी. जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी, तब मारपीट की वारदातें अपने चरम पर थीं. क्या आपने कर्णन फ़िल्म देखी है? हमारा जीवन बिल्कुल वैसा ही था.” कर्णन 1995 में कोडियनकुलम में हुए जातीय दंगे पर बनी फ़िल्म है, जिसमें धनुष ने मुख्य भूमिका निभाई है. ‘मुख्य कहानी कर्णन पर केंद्रित है, जो एक दयालु और निडर दलित युवक है. वह शोषण के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरता है. गांव की कथित ऊंची जाति के लोग सत्ता और सुविधाओं का लाभ उठाते हैं, जबकि दलितों को भेदभाव और अन्याय का सामना करना पड़ता है.’

नौवें दशक के अंत तक, जब जातीय हिंसा अपनी पराकाष्ठा पर थी, रथी के पिता नौकरी के सिलसिले में अलग-अलग शहरों में रहे, और रथी अपने भाई-बहन और मां के साथ गांव में रहती थीं. लेकिन कक्षा 9, 10, 11 और 12 के लिए उन्हें हर साल अलग-अलग स्कूल में जाना पड़ा.

उनके जीवन और अनुभवों ने उनके भविष्य-निर्माण को बहुत गहराई से प्रभावित किया. “देखिए, 30 साल पहले तिरुनेलवेली में मैं एक पाठक थी. वहां मुझे पढ़ने को चुनिंदा किताबें देने वाला कोई नहीं था. मैंने प्राइमरी स्कूल में ही शेक्सपियर को पढ़ लिया. आपको पता है मेरी पसंदीदा किताबों में जॉर्ज एलियट की मिल ऑन द फ्लॉस है? यह वर्ग-विभेद और रंगभेद के बारे में है. किताब की नायिका एक काली औरत है. यह स्नातक के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है. लेकिन किसी ने यह पुस्तक दान में स्कूल को दी थी, तो मैं इसे चौथी कक्षा में ही पढ़ गई. मैं इसकी नायिका से ख़ुद को जुड़ा हुआ अनुभव करती थी. कहानी पढ़कर मुझे बहुत दुःख हुआ था...”

Rathy shows one of her favourite books
PHOTO • Aparna Karthikeyan
Rathy shows her puppets
PHOTO • Varun Vasudevan

रथी अपनी एक मनपसंद किताब (बाएं) और कठपुतलियां (दाएं) दिखाती हैं

बहुत सालों बाद, जब रथी ने दोबारा बच्चों की किताबें देखीं, तो इसे अपने कैरियर का हिस्सा बना लिया. “मैंने यह बिल्कुल ही नहीं सोचा था कि आपके पास बच्चों के लिए भी किताबें हैं. मैंने तो यह भी नहीं सोचा था कि ‘ वेयर द वाइल्ड थिंग्स आर’ और ‘फर्डिनैंड जैसी किताबें भी होंगी. ये किताबें कोई 80 या 90 साल पुरानी हैं और शहरों के बच्चों ने इन्हें पढ़ा था. इन्हें देखकर मुझे लगता है, काश जब मैं छोटी थी तो इसे पढ़ पाती! तब मेरी यात्रा थोड़ी अलग होती. मैं यह नहीं कहती कि यह बेहतर होती, लेकिन यह अलग होती.”

हालांकि, यह अलग बात है कि आज भी यह माना जाता है कि किताबें पढ़ना औपचारिक पढ़ाई-लिखाई से दूर करता है. “किताब पढ़ने को मनोरंजन का काम माना जाता है,” वह अपना माथा हिलाती हुई कहती हैं, “इसे कौशल हासिल करने के रूप में नहीं लिया जाता है. माता-पिता भी सिर्फ़ पाठ्यक्रम की किताबें और स्कूली गतिविधियों से जुड़ी किताबें ही ख़रीदते हैं. वे नहीं समझ पाते कि मौज-मस्ती लिए पढ़ी जाने वाली कहानी की किताबों से बच्चे क्या-क्या गंभीर बातें सीख सकते हैं. साथ ही, गांव और शहरों के बीच एक गहरी खाई है. पढ़ाई के स्तर को देखें, तो गांव के बच्चे शहरी बच्चों की तुलना में दो-तीन लेवल नीचे हैं.”

यही कारण है कि रथी को ग्रामीण बच्चों के साथ काम करना अच्छा लगता है. पिछले छह सालों से वह ग्रामीण पुस्तकालयों को संरक्षित करने के अलावा साहित्य उत्सव और किताबों के उत्सवों का आयोजन भी करती आ रही हैं. “अक्सर आपको योग्य लाइब्रेरियन मिल जाते हैं, जो किताबों का ढंग से लेखाजोखा रखते हैं, लेकिन उन्हें यह पता नहीं होता कि किताब के पन्नों में क्या कुछ है,” वह कहती हैं. “अगर वे आपको यह नहीं बता सकें कि आपको क्या पढ़ना चाहिए, तो उनके होने का मतलब ही क्या है!”

रथी बुदबुदाते स्वर में और रहस्यमयी अंदाज़ में मुझसे कहती हैं. “एक बार एक लाइब्रेरियन ने मुझसे कहा कि आप बच्चों को लाइब्रेरी के भीतर क्यों दाख़िल होने देती हैं, मैम?” उस समय आपको मेरी प्रतिक्रिया देखनी चाहिए थी!” यह बोलते हुए रथी के ठहाकों की आवाज़ दोपहर की रिक्तता को भरने लगती है.

*****

घर वापस लौटते हुए हमें पिरंडई मिल जाती है. वे झाड़ियों और पौधों पर उलझी हुई लिपटी हैं. रथी मुझे उन हल्की हरी शाखों को दिखाती हैं जिन्हें हमें चुनना है. बेल तोड़ने के समय एक चटखने की आवाज़ पैदा करती हैं. वह उन्हें अपने हाथों में जमा करती हैं – पिरंडई का बंधा हुआ एक छोटा सा बंडल...‘शैतान की रीढ़,’ यह नाम लेते हुए हम फिर से बेसाख्ता हंस पड़ते हैं.

Foraging and harvesting pirandai (Cissus quadrangularis), the creeper twisted over plants and shrubs
PHOTO • Aparna Karthikeyan
Foraging and harvesting pirandai (Cissus quadrangularis), the creeper twisted over plants and shrubs
PHOTO • Aparna Karthikeyan

पिरंडई (सिसस क्वाड्रेंगुलरिस) की तलाश और तुड़ाई. इसकी बेल पौधों और झाड़ियों से लिपटी होती है

रथी विश्वास के साथ कहती हैं कि इसकी बेल से बरसात के बाद नई शाखें निकलेंगी. “हम गहरे हरे हिस्से को कभी नहीं तोड़ते हैं. यह अंडा देने वाली मछली का शिकार करने जैसा है. है कि नहीं? तब आपको खाने के लिए छोटी मछलियां कैसे मिलेंगी?”

वापस गांव तक लौटने की यात्रा झुलसाने वाली है. धूप बहुत तेज़ है और ताड़ के पेड़ों और झाड़ियों से भरा जंगल भूरा और सुखाड़ नज़र आता है. धरती गर्मी से तप रही है. प्रवासी पक्षियों का झुंड, जो शायद काले आइबिस (बाज़ा) पक्षी हैं, आसमान में उड़ान भर रहा है. उनके बोलने की मीठी आवाज़, पंजों और पंखों के खुलने के दृश्य सम्मोहक हैं. हम गांव के चौराहे पर पहुंचते हैं, जहां हाथ में संविधान लिए डॉ. आंबेडकर की मूर्ति लगी है. “मेरे ख़याल से हिसा की घटनाओं के बाद ही इस मूर्ति को सुरक्षा की दृष्टि से सलाखों से घेर दिया गया है.”

इस मूर्ति से कुछ मिनटों की दूरी पर ही रथी का घर है. घर की बैठक में लौटकर वह बताती हैं कि कहानियां उनके अंतस को भेदकर रख देती हैं. “एक क़िस्सागो के रूप में मैं मंच पर अनेक मनोभावों को अभिव्यक्त करती हूं, जिन्हें सामान्य स्थितियों में प्रस्तुत करना मुश्किल है – चाहे वे पीड़ा और थकान जैसी मामूली भावनाएं ही क्यों न हों, क्योंकि वास्तविक जीवन में आप इन्हें छिपाना चाहते हैं या उसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं. लेकिन ये ऐसी भावनाएं हैं जिन्हें मैं मंच पर ज़रूर प्रस्तुत करती हूं.”

रथी बताती हैं कि दर्शक उन्हें नहीं देख रहे थे, बस उस चरित्र को देख रहे थे जिसे वह निभा रही थीं. दुःख को मंच पर व्यक्त होने के रास्ते मिल जाते हैं. “मुझे एक बार ढंग से रोने का अभिनय करना होता है, जिसे सुनकर लोग यह कहते हुए कमरे की तरफ भागे चले जाते हैं कि उन्होंने किसी के रोने-चीखने की आवाज़ सुनी है.” मैं उनसे पूछती हूं कि क्या वह मुझे रोकर सुना सकती हैं. वह कहती हैं, “यहां तो बिल्कुल ही नहीं. कम से कम तीन रिश्तेदार सुनकर दौड़े चले आएंगे कि क्या हो गया.”

मेरे विदा लेने का समय हो चला है, और रथी ने मेरे लिए ढेर सारा पिरंडई का अचार पैक कर दिया है. वह तेल में डूबा हुआ है, और उससे लहसुन की बहुत तेज़ गंध आ रही है. यह गंध एकदम दिव्य है, जो मुझे एक गर्म दिन में एक लंबी सैर की याद दिलाती है, जब हम हरी कोपलों और नई कहानियों की तलाश में निकले थे ...

Cleaning and cutting up the shoots for making pirandai pickle
PHOTO • Bhagirathy
Cleaning and cutting up the shoots for making pirandai pickle
PHOTO • Bhagirathy

पिरंडई का अचार बनाने से पहले उसकी शाख की सफ़ाई और कटाई की जा रही है

Cooking with garlic
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final dish: pirandai pickle
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लहसुन (बाएं) के साथ उन्हें पकाया जा रहा है, और अंत में तैयार पिरंडई का अचार (दाएं); इसे बनाने की विधि नीचे दी गई है

रथी की मां वडिवम्माल के हाथ के बने पिरंडई के अचार को बनाने की विधि:

पिरंडई को साफ़ करके उसे बारीक़ काट लें. अच्छी तरह धो लें और छलनी में डालकर पानी निथार लें. पानी बिल्कुल निकल जाना चाहिए. एक बर्तन में पिरंडई में मिलाए जाने लायक पर्याप्त मात्रा में तिल का तेल ले लें. जब तेल गर्म हो जाए, तब उसमें सरसों के बीज, मेथी के दाने और आपको पसंद हो, तो लहसुन की कलियां मिला लें. मिश्रण को धीमी आंच पर तब तक भूनें, जब तक कि वह गहरे तांबई रंग का न हो जाए. एक कटोरी में इमली को पहले से पानी में डुबोकर रख लें और गूदे को निकाल लें. इमली पिरंडई से होने वाली खुजलाहट को काटती है. (कई बार साफ़ करने या धोने के क्रम में भी इन बेलों से आपको खुजलाहट हो सकती है.)

इमली के पानी को मिश्रण में मिलाएं, और फिर नमक, लाल मिर्च, सौंफ और हल्दी पाउडर भी डालें, और मिश्रण को अच्छी तरह से पकने तक चलाते रहें. जल्दी ही तिल का तेल सतह पर तैरने लगता है. अचार को ठंडा होने दें, फिर उन्हें बोतल में बंद कर दें. यह एक साल के लिए सुरक्षित रहेगा.


इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Aparna Karthikeyan

ಅಪರ್ಣಾ ಕಾರ್ತಿಕೇಯನ್ ಓರ್ವ ಸ್ವತಂತ್ರ ಪತ್ರಕರ್ತೆ, ಲೇಖಕಿ ಮತ್ತು ʼಪರಿʼ ಸೀನಿಯರ್ ಫೆಲೋ. ಅವರ ವಸ್ತು ಕೃತಿ 'ನೈನ್ ರುಪೀಸ್ ಎನ್ ಅವರ್' ತಮಿಳುನಾಡಿನ ಕಣ್ಮರೆಯಾಗುತ್ತಿರುವ ಜೀವನೋಪಾಯಗಳ ಕುರಿತು ದಾಖಲಿಸಿದೆ. ಅವರು ಮಕ್ಕಳಿಗಾಗಿ ಐದು ಪುಸ್ತಕಗಳನ್ನು ಬರೆದಿದ್ದಾರೆ. ಅಪರ್ಣಾ ತನ್ನ ಕುಟುಂಬ ಮತ್ತು ನಾಯಿಗಳೊಂದಿಗೆ ಚೆನ್ನೈನಲ್ಲಿ ವಾಸಿಸುತ್ತಿದ್ದಾರೆ.

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ಪಿ. ಸಾಯಿನಾಥ್ ಅವರು ಪೀಪಲ್ಸ್ ಆರ್ಕೈವ್ ಆಫ್ ರೂರಲ್ ಇಂಡಿಯಾದ ಸ್ಥಾಪಕ ಸಂಪಾದಕರು. ದಶಕಗಳಿಂದ ಗ್ರಾಮೀಣ ವರದಿಗಾರರಾಗಿರುವ ಅವರು 'ಎವೆರಿಬಡಿ ಲವ್ಸ್ ಎ ಗುಡ್ ಡ್ರಾಟ್' ಮತ್ತು 'ದಿ ಲಾಸ್ಟ್ ಹೀರೋಸ್: ಫೂಟ್ ಸೋಲ್ಜರ್ಸ್ ಆಫ್ ಇಂಡಿಯನ್ ಫ್ರೀಡಂ' ಎನ್ನುವ ಕೃತಿಗಳನ್ನು ರಚಿಸಿದ್ದಾರೆ.

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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