लखनऊ कैंट विधानसभा क्षेत्र के महानगर पब्लिक इंटर कॉलेज की ओर तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुए रीता बाजपेयी ने कहा, “एक मिनट भी लेट नहीं हो सकते, वर्ना हमारी क्लास लग जाएगी.’’ ये वह मतदान केंद्र है जहां रीता की ड्यूटी लगाई गई है. हालांकि, इस मतदान केंद्र पर वह ख़ुद वोट नहीं करती हैं.

ये कॉलेज उनके घर से क़रीब एक किलोमीटर दूर स्थित है. वह सुबह 5.30 बजे से चल रही थीं, और उनके पास एक बड़े बैग में डिजिटल थर्मामीटर, सेनिटाइज़र की बोतलें, कई जोड़े डिस्पोज़ेबल दस्ताने और मास्क थे, जो मतदान केंद्र पर बांटे जाने थे. यूपी में 23 फ़रवरी को चौथे चरण में 9 ज़िलों की 58 विधानसभा सीटों पर मतदान होना था, जिसमें लखनऊ भी शामिल है. यह दिन ख़ास तौर पर रीता के लिए काफ़ी व्यस्त रहने वाला था.

अब उत्तर प्रदेश में चुनाव ख़त्म हो गया है और उसके नतीजे भी आ गए हैं. लेकिन महिलाओं के एक बड़े समूह के लिए ऐसे नतीजे हैं जो अभी आने बाक़ी हैं. वे जानती हैं कि ये नतीजे बहुत मुश्किल पैदा करने वाले हो सकते हैं, यहां तक कि जानलेवा हो सकते हैं. भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में विधानसभा चुनाव के संचालन में शामिल जोखिम के बीच उन्हें काम करने के लिए मजबूर किया गया था, जिससे पैदा होने परिणाम की आशंका डराने वाली है.

ऐसी आशा कार्यकर्ता की संख्या 163,407 (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) है जिन्हें बिना किसी औपचारिक लिखित आदेश के मतदान केंद्रों पर काम करने के लिए मजबूर किया गया था. विडंबना ये है कि इनका काम मतदान केंद्रों पर सेनेटाइज़ेशन और साफ़-सफ़ाई रखना था, जबकि इनके पास ख़ुद की सुरक्षा के लिए बहुत कम संसाधन थे. ये सब उस राज्य में हुआ जहां अप्रैल-मई 2021 में कोविड-19 के चलते 2,000 स्कूली शिक्षकों की मृत्यु हो गई थी. उस साल अप्रैल महाने में महामारी चरम पर थी. ऐसे में शिक्षकों को उनकी इच्छा के ख़िलाफ़ पंचायत चुनावों में मतदान अधिकारी के रूप में काम करने का आदेश दिया गया था.

Reeta Bajpai spraying sanitiser on a voter's hands while on duty in Lucknow Cantonment assembly constituency on February 23
PHOTO • Jigyasa Mishra

लखनऊ कैंट विधानसभा क्षेत्र में 23 फरवरी को ड्यूटी के दौरान एक मतदाता के हाथ पर सेनिटाइज़र का छिड़काव करतीं रीता बाजपेयी

मारे गए शिक्षकों के उजड़ चुके परिवारों ने मुआवज़े के लिए संघर्ष किया और कई परिवारों को 30 लाख रुपए मिले. आशा कार्यकर्ताओं के पास कोई लिखित दस्तावेज़, आदेश या निर्देश नहीं है, जिसका इस्तेमाल वे अपने मामले को मज़बूत करने में कर सकें, जिसके लिए उन्हें मजबूर किया गया था; ऐसा काम जिसके चलते कई महिलाएं मतदान भी नहीं कर पाईं.

कोविड-19 ही वह नतीजा है जिससे वे डरती हैं. और उन्होंने अभी तक तो मतदान के शुरुआती चरणों में कार्यरत रहीं साथी आशा कार्यकर्ताओं पर इसके प्रभाव को मापना शुरू भी नहीं किया है.

*****

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) के माध्यम से केवल मौखिक आदेश और ड्यूटी से जुड़े निर्देश मिलने के बाद, लखनऊ में 1,300 से ज़्यादा आशा कार्यकर्ताओं को मतदान केंद्रों पर तैनात किया गया था. ये आशा कार्यकर्ता प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को ही रिपोर्ट करती थीं. इन्हें चुनावी ड्यूटी सौंपने का काम राज्य के स्वास्थ्य विभाग ने किया था.

रीता बताती हैं, “हमें चंदन नगर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर बुलाया गया और मौखिक रूप से मतदान के दिन स्वच्छता बनाए रखने का निर्देश दिया गया. हमें कीटाणुनाशक छिड़कने, तापमान मापने [मतदाताओं का], और मास्क बांटने के लिए कहा गया था.

विधानसभा चुनावों के दौरान, 10 फ़रवरी से 7 मार्च, 2022 के बीच पूरे उत्तर प्रदेश में आशा कार्यकर्ताओं को इसी तरह की ड्यूटी सौंपी गई थी.

पूजा साहू (36 साल) की ड्यूटी लखनऊ के सर्वांगीण विकास इंटर कॉलेज मतदान केंद्र पर लगाई गई थी. पूजा बताती हैं, “एक शीट थी, जिस पर आशा कार्यकर्ताओं के नाम के साथ उस केंद्र (मतदान) का ज़िक्र था जिसकी ज़िम्मेदारी उन्हें दी गई थी; लेकिन बिना किसी हस्ताक्षर के’’

शांति देवी (41 साल), जो 27 फ़रवरी को चित्रकूट में मतदान ड्यूटी पर थीं, पूछती हैं, ‘’बताइए, अगर मतदान केंद्र पर भगदड़ मच जाती और हमें कुछ हो जाता, तो इसकी ज़िम्मेदारी लेने वाला कौन था? बिना किसी लिखित पत्र के हम कैसे साबित करते कि हमें काम करने के लिए बुलाया गया था. सभी आशा कार्यकर्ता अपनी आवाज़ उठाने में डरती हैं. ऐसे समय में अगर मैं ज़्यादा बोलूंगी, तो मैं भी ख़तरे में आ जाऊंगी. आख़िर मुझे अकेले ही आना-जाना पड़ता था.’’

ASHA worker Shanti Devi in Chitrakoot: "Without a written letter how can we prove we were called on duty?"
PHOTO • Jigyasa Mishra

चित्रकूट की आशा कार्यकर्ता शांति देवी: 'बिना लिखित पत्र के हम कैसे साबित कर सकते हैं कि हमें ड्यूटी पर बुलाया गया था?'

इसके बावजूद शांति देवी ने आवाज़ उठाई, जब उन्होंने चित्रकूट में अपने मतदान केंद्र पर अन्य कर्मचारियों को उपस्थिति वाली शीट पर हस्ताक्षर करते देखा. उन्होंने पीठासीन अधिकारी से पूछा भी कि क्या आशा कार्यकर्ताओं को भी कहीं हस्ताक्षर करने की ज़रूरत है. शांति बताती हैं, “वे हम पर हंसे थे. उन्होंने कहा कि हमें चुनाव आयोग ने नियुक्त नहीं किया था, इसलिए हमें हस्ताक्षर करके अपनी उपस्थिति दर्ज करने की ज़रूरत नहीं थी.’’ शांति, चित्रकूट ज़िले की उन 800 से ज़्यादा आशा कार्यकर्ताओं में से एक हैं जिन्हें इस तरह के अनुभव से गुज़रना पड़ा.

चित्रकूट में 39 साल की एक अन्य आशा कार्यकर्ता कलावंती ने जब अपना ड्यूटी-पत्र मांगा, तो उसे पीएचसी के स्टाफ़ ने चुप करवा दिया. कलावंती बताती हैं, “मेरे पति एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में सहायक शिक्षक हैं और मैंने क़रीब एक हफ़्ते पहले उनका ड्यूटी-पत्र देखा था. मैंने सोचा कि मुझे भी पत्र मिलेगा, क्योंकि मुझे भी ड्यूटी दी गई थी. पीएचसी से सेनिटाइज़ेशन का सामान मिलने के बाद जब मैंने लिखित आदेश के बारे में पूछा, तो प्रभारी लखन गर्ग [पीएचसी प्रभारी] और बीसीपीएम [ब्लॉक कम्युनिटी प्रोसेस मैनेजर] रोहित ने कहा कि आशा कार्यकर्ताओं को पत्र नहीं मिलेगा. मौखिक रूप से मिले निर्देश ही ड्यूटी पर आने के लिए काफ़ी हैं.”

चुनाव के दिन कलावंती को 12 घंटे तक मतदान केंद्र पर रहना पड़ा, लेकिन यहां ड्यूटी ख़त्म होने पर भी उनका काम ख़त्म नहीं हुआ. कलावंती को अपने पीएचसी की एएनएम (सहायक नर्स दाई) का फ़ोन आया. वह बताती हैं, “मेरे घर लौटने के बाद, एएनएम ने मुझे फ़ोन कर अल्टीमेटम दिया. उसने कहा कि मुझे पूरे गांव का सर्वे पूरा करना है और अगले दिन के अंत तक रिपोर्ट जमा करनी है.”

न सिर्फ़ कलावंती की उपस्थिति को मतदान केंद्र पर काम नहीं माना गया, बल्कि उन्हें इसके लिए भुगतान भी नहीं किया गया. केंद्र पर अन्य कर्मचारी जितने समय ड्यूटी करते हैं उतने समय काम करने पर भी आशा कार्यकर्ताओं को कोई पारिश्रमिक नहीं मिला. यूपी आशा यूनियन की अध्यक्ष वीणा गुप्ता कहती हैं, “वे हमें पत्र नहीं देते. पत्र जारी करने पर भत्ता देना पड़ता है. चुनाव की ड्यूटी पर तैनात सभी कर्मचारियों को कुछ भत्ते मिले, लेकिन आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को कुछ नहीं मिला.” वह आगे कहती हैं, “उन्हें मतदान केंद्र की यात्रा पर भी अपना पैसा ख़र्च करने के लिए मजबूर किया गया. सीधा-सीधा कहें, तो उनका शोषण किया गया.”

और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था.

The Mahanagar Public Inter College polling station in Lucknow where Reeta Bajpai was posted to maintain sanitation and hygiene on election day. She worked for 10 hours that day
PHOTO • Jigyasa Mishra

लखनऊ का महानगर पब्लिक इंटर कॉलेज मतदान केंद्र ,जहां रीता बाजपेयी को चुनाव के दिन सेनिटाइज़ेशन करने और स्वच्छता बनाए रखने के लिए तैनात किया गया था. उन्होंने उस दिन 10 घंटे तक काम किया था

*****

बेहद मामूली वेतन और काफ़ी ज़्यादा काम के बोझ तले दबीं आशा कार्यकर्ता, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की महत्वपूर्ण कड़ी हैं, और साल 2005 से सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में सबसे आगे बढ़कर अपनी भूमिका निभाती रही हैं. लेकिन इन्हें सरकार की उपेक्षा, उदासीनता, और कभी-कभी सरासर अन्याय का भी शिकार होना पड़ता है.

जब देश में कोरोना महामारी फैल रही थी, तब आशा कार्यकर्ताओं को घर-घर जाकर टेस्ट करने, प्रवासी श्रमिकों की निगरानी करने, महामारी प्रोटोकॉल का पालन सुनिश्चित कराने, रोगियों की देखभाल और वैक्सीन मिलने में मदद के अलावा, डेटा एकत्र करने और उसे पीएचसी को रिपोर्ट करने के ज़रूरी, लेकिन अतिरिक्त कामों के लिए तैनात किया गया था. उन्होंने ख़राब सुरक्षा उपकरणों और देरी से मिलने वाले भुगतान के साथ अतिरिक्त घंटों में भी काम किया. दिन के 8-14 घंटे बाहर रहने के बड़े ख़तरे के बावजूद, उन्होंने औसतन 25-30 घरों का दौरा किया; सप्ताहांत पर भी काम किया.

चित्रकूट में 32 साल की आशा कार्यकर्ता रत्ना पूछती हैं, “साल 2020 से हमारे ऊपर काम का बोझ बढ़ गया है, इसलिए हमें अतिरिक्त काम के लिए भुगतान भी मिलना चाहिए न?’’ उत्तर प्रदेश में आशा कार्यकर्ताओं को हर महीने 2200 रुपए का मानदेय मिलता है. विभिन्न स्वास्थ्य योजनाओं के तहत काम के आधार पर प्रोत्साहन राशि के रूप में वे कुल 5300 रुपए तक कमा सकती हैं.

मार्च 2020 के अंत में, केंद्र सरकार ने कोविड-19 हेल्थ सिस्टम और आपातकालीन रिस्पॉन्स पैकेज के तहत 1,000 रुपए प्रति महीने की कोविड प्रोत्साहन राशि आशा कार्यकर्ताओं को दी गई. ये पैसे जनवरी से जून 2020 तक महामारी से संबंधित काम करने के लिए दिए गए. मार्च 2021 तक आपातकालीन पैकेज को बढ़ाया गया और इसके साथ ये प्रोत्साहन राशि मिलती रही.

केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने राज्यों को निर्देश दिया कि वे पिछले वित्तीय वर्ष में इस्तेमाल न होने वाले पैसों से कोविड प्रोत्साहन राशि का भुगतान करें. लेकिन कोविड आपातकालीन पैकेज का दूसरा चरण, जो 1 जुलाई 2021 से 31 मार्च 2022 तक लागू किया गया, उसमें से फ्रंटलाइन वर्कर्स के साथ-साथ आशा कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहन राशि की सूची से हटा दिया गया.

अप्रैल 2020 में 16 राज्यों में आशा कार्यकर्ताओं के काम करने की स्थिति और उनके भुगतान पर आधारित एक सर्वे में पाया गया कि 16 में से 11 राज्य कोविड प्रोत्साहन राशि का भुगतान करने में देरी कर रहे हैं. आशा यूनियन की नेताओं और 52 आशा कार्यकर्ताओं के इंटरव्यू के आधार पर तैयार रिपोर्ट बताती है, ‘’एक भी राज्य टीकाकरण जैसे कामों के लिए नियमित प्रोत्साहन राशि का भुगतान नहीं कर रहा था, जिसे लॉकडाउन के दौरान निलंबित कर दिया गया था.”

Health workers from primary health centres in UP were put on election duty across UP. They had to spray disinfectants, collect the voters' phones, check their temperature and distribute masks
PHOTO • Jigyasa Mishra
Health workers from primary health centres in UP were put on election duty across UP. They had to spray disinfectants, collect the voters' phones, check their temperature and distribute masks
PHOTO • Jigyasa Mishra

यूपी के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के स्वास्थ्यकर्मियों को पूरे यूपी में चुनावी ड्यूटी में लगा दिया गया था. उन्हें कीटाणुनाशक का छिड़काव करना था, मतदाताओं के फ़ोन लेने थे, उनका तापमान जांचना था, और मास्क बांटना था

महामारी से जुड़े तमाम अतिरिक्त काम करने के बाद भी रत्ना को जून 2021 से ‘कोविड प्रोत्साहन राशि’ नहीं मिली है. वह बताती हैं, “मुझे पिछले साल के अप्रैल और मई महीने के सिर्फ़ 2000 रुपए मिले हैं. अब आप जोड़ सकती हैं कि हर महीने के 1,000 रुपए के हिसाब से हमारा कितना पैसा बकाया है.” इस हिसाब से रत्ना की कम से कम 4000 रुपए की प्रोत्साहन राशि बकाया है. और ये राशि भी तब मिल पाएगी, जब एएनएम भुगतान वाउचर पर हस्ताक्षर करेंगी, जो अपने-आप में एक झेलाऊ काम है.

रत्ना बताती हैं, “आपको विश्वास नहीं होगा कि हमें मिले काम को पूरा करने के बाद मिलने वाले भुगतान वाउचर पर एएनएम से हस्ताक्षर करवाना कितना मुश्किल काम है.’’ वह बताती हैं, “अगर मैं किसी स्वास्थ्य संबंधी दिक़्क़त या किसी इमरजेंसी के चलते किसी एक दिन काम नहीं कर पाती हूं, तो वह कहती हैं कि आपने इस महीने अच्छा काम नहीं किया है और महीने में जो एक हज़ार रुपये की प्रोत्साहन राशि मिलती है वह काट ली जाती है. जबकि ये पैसा आशा कार्यकर्ता को मिलना ही चाहिए, क्योंकि वे महीने के बचे हुए 29 दिन फ्रंटलाइन पर काम करती हैं.’’

देश भर में 10 लाख से अधिक ग्रामीण और शहरी आशा कार्यकर्ता अपने काम को पहचान दिलाने के लिए एक ऐसी व्यवस्था से लड़ रही हैं, जो कम वेतन पर उनसे श्रम करवा कर फल-फूल रही है. सिटीजन फ़ॉर जस्टिस एंड पीस की एक रिपोर्ट कहती है, “वे (आशा वर्कर) न्यूनतम वेतन अधिनियम के दायरे में नहीं आती हैं, और उन्हें नियमित सरकारी कर्मचारियों को दी जाने वाली मातृत्व लाभ व अन्य योजनाओं का लाभ भी नहीं मिलता है’’.

विडंबना यह है कि कोविड-19 के समय में उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों की महामारी नियंत्रण रणनीतियों में एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में अपनी भूमिका निभाई थी. आशा कार्यकर्ताओं को अक्सर चिकित्सकीय देखभाल और इलाज की कमी के कारण परेशानी का सामना करना पड़ता है. महामारी के दौरान काम करते हुए यूपी में कई आशा कार्यकर्ताओं की मृत्यु हो गई.

सूरज गंगवार (23 साल) की मां शांति देवी की मृत्यु मई 2021 में हुई थी. मृत्यु से पूर्व के दिनों को याद करते हुए सूरज बताते हैं, “मुझे पिछले साल (2021) अप्रैल के महीने में घर से फ़ोन आया कि मां की तबियत ठीक नहीं है. जैसे ही मैंने ये सुना, तुरंत दिल्ली से बरेली के लिए भागा. जब तक मैं पहुंचा, तब तक वह अस्पताल पहुंच चुकी थीं.’’ सूरज पेशे से इंजीनियर हैं और दिल्ली की एक प्राइवेट फ़र्म में नौकरी करते हैं. तीन लोगों के परिवार में सूरज अब अकेले कमाने वाले हैं.

An ASHA worker in Chitrakoot, Chunki Devi, at her home with the dustbin, sanitisers and PPE kits she had to carry to the polling booth
PHOTO • Jigyasa Mishra

चित्रकूट की एक आशा कार्यकर्ता चंकी देवी, अपने घर पर कूड़ेदान, सेनिटाइज़र, और पीपीई किट के साथ; जिन्हें अपने साथ उन्हें मतदान केंद्र ले जाना था

सूरज बताते हैं, “जब मैं पहुंचा तो हमें कुछ पता नहीं था कि मां को कोविड पॉज़िटिव हैं. जब 29 अप्रैल को आरटी-पीसीआर टेस्ट करवाया गया, तब इसका पता चला. उस समय हॉस्पिटल ने उन्हें दाख़िल करने से मना कर दिया था और मजबूरन हमें उन्हें घर वापस लाना पड़ा. जब 14 मई को उनकी तबीयत और बिगड़ गई, तो हम उन्हें अस्पताल ले जाने की कोशिश करने लगे, लेकिन उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया.” सूरज गंगवार की मां भी देश में काम करने वाली उन तमाम आशा कार्यकर्ताओं में से एक थीं जिन्हें कोरोना होने पर सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल सकीं और इलाज न मिलने के चलते उनकी मृत्यु हो गई.

लोकसभा में 23 जुलाई, 2021 को एक प्रश्न का उत्तर देते हुए, केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री भारती प्रवीण पवार ने कहा कि अप्रैल 2021 तक 109 आशा कार्यकर्ताओं की कोरोनोवायरस के कारण मृत्यु हो गई थी - लेकिन आधिकारिक गणना के मुताबिक़ यूपी में यह आंकड़ा ज़ीरो बताया गया था. आशा कार्यकर्ताओं की कोविड-19 से संबंधित मौतों की कुल संख्या पर सार्वजनिक रूप से कोई विश्वसनीय डेटा उपलब्ध नहीं है. केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण पैकेज के तहत 30 मार्च 2020 से फ्रंटलाइन वर्कर्स की कोविड से मौत होने पर 50 लाख के मुआवज़े की घोषणा की थी. हालांकि, ये मुआवज़ा काफ़ी लोगों तक पहुंचा ही नहीं.

सूरज बताते हैं, “एक दिन भी ऐसा नहीं रहा, जब मां ने बाहर फ़ील्ड में काम नहीं किया हो. उन्होंने एक आशा कार्यकर्ता के रूप में अपने कर्तव्य का पूरी लगन के साथ पालन किया.” वह आगे बताते हैं, “महामारी के दौरान वह काम के लिए हमेशा तैयार रहती थीं. लेकिन अब जब वह इस दुनिया में नहीं हैं, तो स्वास्थ्य विभाग को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वे कहते हैं कि हमें मुआवज़ा नहीं मिलेगा.”

बरेली के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नवाबगंज में सूरज और उनके पिता ने मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) और अन्य कर्मचारियों से मिलने की कोशिश की और गुहार भी लगाई, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ. मां का मृत्यु प्रमाण-पत्र और आरटी-पीसीआर रिपोर्ट दिखाते हुए सूरज कहते हैं, “सीएमओ ने कहा कि हमें मुआवज़ा तभी मिलेगा, जब हमारे पास अस्पताल से मिला मृत्यु प्रमाण-पत्र होगा, जिसमें लिखा हो कि उनकी मौत कोविड-19 से हुई है. लेकिन अब वह हम कहां से लाएं जब किसी अस्पताल ने उन्हें दाख़िल ही नहीं किया था? ऐसी फ़र्ज़ी योजनाओं का क्या फ़ायदा जो केवल ये सुनिश्चित करती हैं कि ज़रूरतमंदों को कोई मदद न मिले?’’

*****

पिछले साल की भयानक यादें फीकी पड़ने से पहले ही इस साल विधानसभा चुनाव के दौरान, यूपी में 160,000 से अधिक आशा कार्यकर्ताओं को अवैतनिक, भारी दबाव वाले, और तमाम जोखिमों से भरे काम पर लगा दिया गया था. यूनियन की अध्यक्ष वीना गुप्ता इसे सोची-समझी चाल के रूप में देखती हैं. वह कहती हैं, “अगर आप मुझसे पूछें, तो ये 12 घंटे का अवैतनिक काम सरकार की एक रणनीति है कि ये महिलाएं अपनी ड्यूटी के चक्कर में फंसी रहें और अपने वोट न डाल पाएं. जिस तरह से उन्होंने आशा कार्यकर्ताओं की मांगों की उपेक्षा की है और जिस अनियमित ढंग से वे हमारे मानदेय का भुगतान कर रहे हैं उससे उन्हें लगता होगा कि ये सब उनके ख़िलाफ़ वोट डालेंगी.’’

इस बीच, रीता वोट देने के लिए दृढ़ थीं. उस समय उन्होंने 'पारी' को बताया था, ‘’मैं शाम चार बजे अपने मतदान केंद्र पर जाकर वोट डालने की योजना बना रही हूं.” वह आगे बताती हैं, “लेकिन मैं तभी जा पाऊंगी, जब कोई दूसरी आशा कार्यकर्ता मेरी अनुपस्थिति में यहां कुछ देर काम करने के लिए आ जाएगी. वह मतदान केंद्र यहां से क़रीब चार किलोमीटर दूर है.” दूसरी सभी आशा कार्यकर्ताओं की तरह रीता को स्वास्थ्य विभाग की मदद के बिना ही अपनी अनुपस्थिति में किसी दूसरी आशा कार्यकर्ता का इंतज़ाम ख़ुद से करना था.

आशा कार्यकर्ताओं को सुबह-सुबह मतदान केंद्रों पर रिपोर्ट करने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्हें न तो नाश्ता दिया गया और न ही दोपहर का खाना. लखनऊ के आलमबाग इलाक़े की आशा कार्यकर्ता पूजा ने 'पारी' को बताया, “मैंने ड्यूटी पर मौजूद कर्मचारियों के लिए लंच पैकेट आते देखे और उन्होंने मेरे सामने ही लंच किया, लेकिन मुझे नहीं दिया गया.’’

Messages from ASHAs in Lucknow asking for a lunch break as they weren't given any food at their duty station
PHOTO • Jigyasa Mishra
Veena Gupta, president of UP ASHA union, says the ASHAs were not given an allowance either, and had to spend their own money on travel
PHOTO • Jigyasa Mishra

बाएं: मैसेज में लंच ब्रेक की मांग करती हुईं लखनऊ की आशा कार्यकर्ता, क्योंकि तैनाती वाले केंद्र पर उनके लिए भोजन की व्यवस्था नहीं की गई थी. दाएं: यूपी आशा यूनियन की अध्यक्ष वीणा गुप्ता का कहना है कि आशा कार्यकर्ताओं को कोई भत्ता भी नहीं दिया गया था और उन्हें तैनाती वाली जगह तक आने-जाने पर ख़ुद का पैसा ख़र्च करना पड़ा

एक तरफ़ ड्यूटी कर रहे दूसरे कर्मियों को दोपहर तीन बजे के क़रीब लंच के पैकेट मिले, वहीं दूसरी ओर आशा कार्यकर्ताओं को न तो लंच मिला और न ही छुट्टी कि हम घर जाकर खाना खा आएं. आलमबाग की आशा कार्यकर्ताओं के व्हाट्सएप ग्रुप का मैसेज दिखाते हुए पूजा कहती हैं, “प्लीज़ आप ही देखें कि हम किस तरह लंच ब्रेक की मांग कर रहे हैं. वे हम घर जाकर खाना खाने और वापस आने की इजाज़त दे सकते थे. हमारे घर ज़्यादा दूर भी नहीं हैं. हर आशा कार्यकर्ता को उसके घर के पास ही ड्यूटी मिलती है.”

अनु चौधरी जीएनएम, यानी सामान्य नर्स दाईं हैं. अनु उस दिन रीता के साथ मतदान केंद्र पर थीं और खाना न मिलने पर काफ़ी नाराज़ थीं. उस समय वहां ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मचारियों और पुलिसकर्मियों को खाना दिया जा रहा था. अनु शिकायत करती हैं, “आपको क्या लगता है कि हमारे जो हो रहा है वह कितना सही है? हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है जैसे हम कुछ हैं ही नहीं. हमें वह सारी सुविधाएं क्यों नहीं मिलतीं जो ड्यूटी कर रहे दूसरे लोगों को मिलती हैं?

चित्रकूट में आशा कार्यकर्ताओं को चुनाव में काम करने के अलावा, कचरा साफ़ करने का काम भी दिया गया. शिवानी कुशवाहा इस ज़िले की उन तमाम आशा कार्यकर्ताओं में शामिल थीं जिन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर बुलाया गया और सेनिटाइज़ेशन के सामान के साथ एक बड़ा डस्टबिन दिया गया. शिवानी बताती हैं, “उन्होंने हमें कुछ पीपीई किट भी दिए. इन्हें हमें उन मतदाताओं को देना था जो मतदान केंद्रों पर कोविड पॉज़िटिव पाए गए थे. हमें निर्देश दिया गया था कि हम पूरे दिन सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक अपने केंद्र पर रहें. इसके बाद, हमें इस्तेमाल किए गए पीपीई किट और जिसका इस्तेमाल नहीं हो पाया उन पीपीई किट के साथ कूड़ेदान को खुटहा उपकेंद्र पर जमा करना था.” इसका मतलब है कि उन्हें भरे हुए कचरे के डिब्बे के साथ मुख्य सड़क से एक किलोमीटर पैदल चलकर परिसर तक जाना पड़ा होगा.

बोलते वक़्त कुशवाहा की आवाज़ कांप उठती थी. “हमें सेनिटाइज़ेशन और साफ़-सफ़ाई करनी है, हम करेंगे. लेकिन हमें कम से कम एक लिखित पत्र तो दें, जैसा कि आपने अन्य कर्मचारियों को दिया था. और हमें चुनाव में ड्यूटी के लिए कोई भुगतान क्यों नहीं मिलता, जबकि दूसरे सभी सरकारी कर्मचारियों को मिलता है? हमें क्या समझ रखा है, हम मुफ़्त के नौकर हैं क्या?”

जिज्ञासा मिश्रा , ठाकुर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन की तरफ़ से प्राप्त स्वतंत्र पत्रकारिता अनुदान के ज़रिए , सार्वजनिक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता से जुड़े मामलों पर रिपोर्ट करती हैं. ठाकुर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन ने इस रिपोर्ट के कॉन्टेंट पर एडिटोरियल से जुड़ा कोई नियंत्रण नहीं किया है.

अनुवाद: शोभा शमी

Jigyasa Mishra

ಉತ್ತರ ಪ್ರದೇಶದ ಚಿತ್ರಕೂಟ ಮೂಲದ ಜಿಗ್ಯಾಸ ಮಿಶ್ರಾ ಸ್ವತಂತ್ರ ಪತ್ರಕರ್ತೆಯಾಗಿ ಕೆಲಸ ಮಾಡುತ್ತಾರೆ.

Other stories by Jigyasa Mishra
Translator : Shobha Shami

Shobha Shami is a media professional based in Delhi. She has been working with national and international digital newsrooms for over a decade now. She writes on gender, mental health, cinema and other issues on various digital media platforms.

Other stories by Shobha Shami