‘स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी ऐसा समय आया था, जब चीज़ें धुंधली नज़र आ रही थीं. हमसे कहा गया कि आप जीत नहीं सकते. आप दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं…लेकिन हमने कभी उन चेतावनियों और धमकियों पर ध्यान नहीं दिया और लड़ते रहे. इसलिए हम आज़ाद हैं.'
आर. नल्लकन्नु
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“पीले बॉक्स के लिए वोट करें!” नारा गूंजने लगा. “शुभसूचक मंजाल पेटी को चुनें!”
ब्रिटिश शासन के अधीन 1937 में हुए प्रांतीय चुनावों के दौरान यह मद्रास प्रेसीडेंसी का माहौल था.
ये नारे ढोल बजाते युवाओं के समूह लगा रहे थे. इनमें से अधिकांश मतदान करने की आधिकारिक उम्र से छोटे थे. हालांकि, अगर उनकी उम्र ज़्यादा होती, तो भी वे वोट नहीं डाल सकते थे. सभी वयस्कों के पास वोट का अधिकार नहीं था.
मताधिकार प्रतिबंधों से ज़मीन व संपत्ति के मालिकों, और ग्रामीण क्षेत्रों के अमीर किसानों का फ़ायदा था.
मताधिकार न रखने वाले युवाओं को ज़ोर-शोर से प्रचार करते देखना कोई नई बात नहीं थी.
जुलाई 1935 की शुरुआत में, जस्टिस—अख़बार और जस्टिस पार्टी के एक अंग—ने तिरस्कार भरे शब्दों के साथ, और अवमानना करते हुए टिप्पणी छापी:
आप किसी भी गांव में जाएं, यहां तक कि दूरदराज़ के इलाक़ों में भी. आपको कांग्रेस की खद्दर की वर्दी और गांधी टोपी पहने और तिरंगे झंडे उठाए हुए नटखट युवाओं के समूह अवश्य मिलेंगे. इनमें से लगभग अस्सी प्रतिशत कार्यकर्ता और स्वयंसेवक, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के मताधिकार से वंचित, संपत्तिहीन, बेरोज़गार युवा हैं…
साल 1937 में, उन युवाओं में आर. नल्लकन्नु भी थे और उस समय उनकी उम्र महज़ 12 वर्ष रही होगी. अब 2022 में, वह 97 साल के हो चुके हैं और हमें उस दौर के बारे में बता रहे हैं तथा इस बात पर हंसते हैं कि वह उन ‘नटखट युवाओं’ में से एक थे. वह याद करते हुए बताते हैं, “उस समय जिसके पास ज़मीन थी और जो लोग दस रुपए या उससे ज़्यादा का कर चुकाते थे, सिर्फ़ वही मतदान कर सकते थे.” साल 1937 के चुनावों में मताधिकार का थोड़ा-बहुत विस्तार देखा गया. वह कहते हैं, लेकिन “ऐसा कभी नहीं हुआ कि 15-20 प्रतिशत से ज़्यादा वयस्कों को मतदान करने का अधिकार मिला हो. और किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में, ज़्यादा से ज़्यादा एक हज़ार या बहुत ज़्यादा हुआ, तो दो हज़ार लोगों ने मतदान किया होगा.”
नल्लकन्नु का जन्म श्रीवैकुंठम में हुआ था, फिर वह तिरुनेलवेली ज़िले में रहने लगे. आज, श्रीवैकुंठम का ताल्लुक़ तमिलनाडु के तूतुकुड़ी ज़िले (जिसे 1997 तक तूतीकोरिन कहा जाता था) से है.
हालांकि, नल्लकन्नु बहुत कम उम्र में ही आंदोलनों में सक्रिय हो गए थे.
“बल्कि जब मैं बच्चा था, तभी से. मेरे शहर के पास तूतुकुड़ी में मिल मज़दूरों ने काम बंद कर दिया. वह मिल हार्वे मिल समूह का हिस्सा था. बाद में, इस हड़ताल को पंचलई [कॉटन मिल] मज़दूरों की हड़ताल के नाम से जाना जाने लगा.
“उस समय, इन मज़दूरों की मदद के लिए हमारे शहर के हर घर से चावल इकट्ठा किया जाता था और तूतुकुड़ी में हड़ताल पर बैठे परिवारों तक बक्से में डालकर पहुंचाया जाता था. हम जैसे छोटे लड़के ही इधर-उधर भागकर, चावल इकट्ठा करने का काम करते थे.” वैसे तो ग़रीबी बहुत थी, “लेकिन हर घर से कुछ न कुछ सहयोग किया जाता था. मैं उस समय केवल 5 या 6 साल का था, और मज़दूरों के संघर्ष के साथ इस एकजुटता का मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा. उसी का असर था कि कम उम्र में ही राजनीतिक कार्रवाइयों में शामिल होने की आदत हो गई.”
हमने 1937 के चुनावों की बात फिर से छेड़ी और पूछा: मंजाल पेटी या पीले बॉक्स के लिए मतदान करने का क्या मतलब था?
वह बताते हैं, “तब मद्रास में मुख्यतः दो पार्टियां ही थीं. कांग्रेस और जस्टिस पार्टी. चुनाव चिह्न के बजाय मतपेटी के रंग से पार्टियों की पहचान होती थी. कांग्रेस, जिसके लिए हमने उस समय प्रचार किया था, उसे एक पीला बॉक्स दिया गया था. जस्टिस पार्टी को पच्चई पेटी [हरा बॉक्स] दिया गया था. उस समय इससे मतदाता को यह पहचानने में आसानी होती थी कि वह किस पार्टी का समर्थन करते हैं.”
और हां, उस समय भी चुनावों में बहुत से रंग नज़र आते थे और ड्रामा होता था. द हिंदू लिखता है कि “देवदासी प्रचारक तंजवुर कमुकन्नमल...सभी मतदाताओं को 'सुंघनी के डब्बे’ पर मतदान करने के लिए प्रोत्साहित करेंगी!” उस समय सुंघनी [तंबाकू] के डब्बे सुनहरे या पीले रंग के होते थे. ‘द हिंदू’ ने भी पाठकों के लिए 'पीले बॉक्स को भरें' शीर्षक से ख़बर चलाई थी.
नल्लकन्नु कहते हैं, “ज़ाहिर है कि मैं सिर्फ़ 12 वर्ष का था, इसलिए मतदान नहीं कर सका. लेकिन मैंने प्रचार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.” तीन साल बाद, वह चुनाव से परे राजनीतिक अभियानों में भी शामिल होने लगे. और 'पराई [एक प्रकार का ढोल] बजाने और नारे लगाने लगे.”
हालांकि, वह अब कांग्रेस का समर्थन नहीं करते थे. अपने दोस्तों के 'कॉमरेड आरएनके' अर्थात नल्लकन्नु कहते हैं, “मैं 15 साल की उम्र में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी [सीपीआई] से जुड़ गया था.” उन्हें बालिग होने तक पार्टी की औपचारिक सदस्यता मिलने का इंतज़ार करना पड़ा. लेकिन आरएनके अगले कुछ दशकों में तमिलनाडु में कम्युनिस्ट आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरों में से एक बनकर उभरे. अब वह लोगों से सेंगोडी (लाल झंडे) का समर्थन करने के लिए कहते, न कि मंजाल पेटी (पीली बॉक्स) का. वह इसमें अक्सर सफल भी होते.
*****
“तिरुनेलवेली में जिस ओर हम रहते थे, वहां केवल एक स्कूल था और लोग उसे बस ‘स्कूल’ ही कहते थे. उसका यही नाम ही था.”
नल्लकन्नु, चेन्नई में अपने घर में बने एक छोटे से ऑफ़िस में बैठकर हमसे बात कर रहे हैं. उनके बगल में, उनकी टेबल के एक साइडबोर्ड पर कई सारी छोटी-छोटी प्रतिमा और छोटी मूर्तियां रखी हुई हैं. उनके ठीक बगल में लेनिन, मार्क्स और पेरियार की मूर्तियां हैं. उनके पीछे, आंबेडकर की सुनहरे रंग की एक छोटी प्रतिमा है, जो तमिल क्रांतिकारी कवि सुब्रमण्यम भारती के एक बड़े रेखाचित्र के सामने रखी है. पेरियार की छोटी प्रतिमा के पीछे एक और रेखाचित्र रखा हुआ है, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव एक साथ हैं. और इन सबके आगे एक कैलेंडर टंगा है, जो हमें निर्देश दे रहा है कि ‘पानी कम इस्तेमाल करें’.
ये सारी चीज़ें एक नज़र में नल्लकन्नु के बौद्धिक सफ़र और इतिहास के बारे में बता देती हैं. यह तीसरा बार है, जब हम उनका साक्षात्कार ले रहे हैं. आज साल 2022 का 25 जून है. इससे पहले उनके साथ साक्षात्कार 2019 में किया गया था.
नल्लकन्नु कहते हैं, “भरतियार मुझे सबसे प्रेरणादायक कवि लगते थे. लेकिन उनकी कविताओं और गीतों पर अक्सर प्रतिबंध लगा दिया जाता था.” वह उनके एक असाधारण गीत 'सुतंतिरा पल्लु' ('स्वतंत्रता गीत') की कुछ पंक्तियों का हवाला देते हैं. वह आगे कहते हैं, “जहां तक मुझे याद है, इस गीत को उन्होंने 1909 में लिखा था. और इस तरह वह 1947 में भारत के स्वतंत्र होने से 38 बरस पहले ही स्वतंत्रता का जश्न मना रहे थे!”
हम नाचेंगे,
हम गाएंगे
कि हमने
आज़ादी की ख़ुशी हासिल कर ली
वो दौर
गया जो बामन को 'सर' बोलें,
वो दौर
गया जो गोरों को 'मालिक' बोलें,
वो दौर
गया जो लूटने वालों को हम सलाम करें,
वो दौर
गया जो उपहास उड़ाने वालों की हम सेवा करें,
अब हर
कोने से चाह उठी आज़ादी की...
नल्लकन्नु के जन्म से चार साल पहले, साल 1921 में भारती की मृत्यु हो गई. उन्होंने यह गीत तो उससे भी काफ़ी पहले लिखा था. लेकिन उनके इस गीत और अन्य कविताओं ने नल्लकन्नु को उनके संघर्ष के दिनों में प्रेरित किया. जब वह 12 वर्ष के भी नहीं हुए थे, आरएनके को भारती के कई गीत और कविताएं याद हो गई थी. उन्हें आज भी कुछ छंद और गीत के बोल शब्दशः याद हैं. वह कहते हैं, “मैंने उनमें से कुछ को स्कूल में हिंदी के पंडित पल्लवेसम चेट्टियार से सीखा था.” और हां, उनमें से कोई भी कविता स्कूल के पाठ्यक्रम में नहीं थी.
“जब एस. सत्यमूर्ति स्कूल में आए, तो उन्होंने भी मुझे भरतियार की लिखी एक किताब दी. यह उनका कविता संग्रह तेसिया गीतम था.” सत्यमूर्ति एक स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ और कला संरक्षक थे. भारती, रूस में 1917 में हुई अक्टूबर क्रांति का समर्थन करने वाले शुरुआती लोगों में से एक थे. उन्होंने इसकी प्रशंसा में एक गीत भी लिखा था.
भारती के प्रति नल्लकन्नु के प्यार और आठ दशकों तक कृषि व मज़दूर वर्गों के लिए किए संघर्षों के ज़रिए, नल्लकन्नु को समझना आसान मालूम पड़ता है.
नहीं तो, 'कॉमरेड आरएनके' की कहानी को बयान कर पाना सच में मुश्किल है. मैं अब तक जितने भी लोगों से मिला हूं, उनमें से वह सबसे सबसे ज़्यादा शर्मीले हैं. वह जितनी आसानी से ऐतिहासिक घटनाओं, आंदोलनों और संघर्षों के बारे में हमें बताते हैं उतनी ही शालीनता से ख़ुद को इन सबका श्रेय देने से इंकार कर देते हैं. हालांकि, उनमें से कुछ घटनाओं और आंदोलनों में उन्होंने महत्वपूर्ण व केंद्रीय भूमिका निभाई थी. लेकिन वह कभी भी इन सब चीज़ों के बारे में बात करते हुए ख़ुद को केंद्र में नहीं रखते.
जी. रामकृष्णन कहते हैं, “कॉमरेड आरएनके हमारे राज्य में किसान आंदोलन के संस्थापक नेताओं में से एक थे.” 'जीआर', सीपीआई (एम) की राज्य कार्यकारिणी के सदस्य हैं. इस 97 वर्षीय सीपीआई नेता की भूमिका और समाज में उनका योगदान सराहनीय है. युवावस्था से अभी तक, “दशकों से उन्होंने श्रीनिवास राव के साथ मिलकर पूरे राज्य में किसान सभाएं स्थापित की हैं. ये सभाएं आज भी वामपंथ की मज़बूती की बुनियाद बनी हुई हैं. और पूरे तमिलनाडु में इन्हें स्थापित करने के लिए नल्लकन्नु ने कड़ी मेहनत की और पूरे तमिलनाडु में तमाम अभियान तथा आंदोलन किए.”
नल्लकन्नु ने बहुत मेहनत से किसानों के संघर्ष को उपनिवेश-विरोधी आंदोलन के साथ जोड़ा. इसके आलावा, उन्होंने इन आंदोलनों को उस समय तमिलनाडु की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक, सामंतवाद-विरोधी लड़ाइयों के साथ जोड़ दिया. साल 1947 के बाद भी सामंतवाद की समस्या बनी रही. वह तब भी उसके ख़िलाफ़ लड़ रहे थे, और आज भी लड़ रहे हैं. और हर तरह की आज़ादी के लिए प्रयासरत हैं. सिर्फ़ ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता हासिल करना उनका लक्ष्य नहीं था.
“हम रात में उनसे लड़ते, उन पर पत्थर फेंकते. यही हमारे हथियार थे और इसी से उन्हें खदेड़ते. कभी-कभी तो जमकर मारपीट भी हो जाती थी. 1940 के दशक में हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान, तो ऐसा कई बार हुआ. हम उस वक़्त भी युवावस्था में थे, लेकिन हम उनसे लड़े. हमने दिन-रात अपने हथियारों के साथ उनसे लड़ाइयां लड़ी!”
किससे लड़े? और उन्हें कहां से भगाया?
इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “मेरे शहर के पास उप्पलम [नमक के खेत] से. नमक के सभी खेत अंग्रेज़ों के क़ब्ज़े में थे. वहां के मज़दूरों की स्थिति दयनीय थी, बिल्कुल मिल मज़दूरों की तरह ही, जहां दशकों पहले संघर्ष शुरू हो चुका था. विरोध प्रदर्शन होते रहते थे और उन्हें जनता की काफ़ी सहानुभूति और समर्थन प्राप्त था.
“लेकिन इन सबके बीच, पुलिस ने नमक के खेतों के मालिकों की दलाली की. एक बार झड़प के दौरान एक सब-इंस्पेक्टर की मौत हो गई. यहां तक कि लोगों ने वहां के थाने पर हमला भी कर दिया था. इसके बाद, गश्ती पुलिस टुकड़ी का गठन किया गया. वे दिन में नमक के खेत की ओर जाते और रात में हमारे गांवों के आसपास डेरा डाल लेते. और ऐसे में हमारी उनसे भिड़ंत हो जाती.” ये विरोध प्रदर्शन और झड़पें कुछेक साल या इससे ज़्यादा समय तक चलती रहीं. 'लेकिन, 1942 के आसपास और भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत होते ही उनमें तेज़ी आ गई.'
किशोर उम्र में नल्लकन्नु का इन आंदोलनों में भाग लेना उनके पिता रामासामी तेवर को पसंद नहीं था. तेवर के पास 4-5 एकड़ ज़मीन थी और उनके छह बच्चे थे. युवा आरएनके को घर पर अक्सर सज़ा मिलती थी. और कभी-कभी उनके पिता उनकी स्कूल की फ़ीस देने से भी मना कर देते थे.
“लोग उनसे कहते—’तेरा बेटा पढ़ता नहीं है? वह हमेशा बाहर रहता है और शोर मचाता है. ऐसा लगता है कि वह तुम्हारे हाथ से निकल गया है और कांग्रेस में शामिल हो गया है’.” हर महीने की 14 से 24 तारीख़ के बीच 'स्कूल' में फ़ीस भरी जाती थी. “अगर मैं उनसे फ़ीस मांगता, तो वह मुझ पर चिल्लाते और कहते: ‘तुम अपनी पढ़ाई छोड़ दो और खेत पर अपने चाचा लोगों की मदद करो’.”
“जैसे-जैसे फ़ीस भरने का वक़्त नज़दीक आता, मेरे पिता के कोई न कोई क़रीबी उन्हें मना लेते और उन्हें आश्वासन देते कि अब मैं सुधर जाऊंगा और पहले जैसा काम नहीं करूंगा. तब कहीं जाकर वह मेरी फ़ीस भरते.”
हालांकि, “उन्होंने जितना ज़्यादा मेरी जीवन शैली और मेरे तरीक़ों का विरोध किया, उनके साथ मेरा मतभेद उतना ज़्यादा गहराता गया. मैंने मदुरई के द हिंदू कॉलेज से तमिल में इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की. यह कॉलेज ठीक तिरुनेलवेली जंक्शन के पास स्थित था, लेकिन इसे हिंदू कॉलेज कहा जाता था. मैंने वहां सिर्फ़ दो साल तक पढ़ाई की. इसके बाद मैंने पढ़ाई छोड़ दी.”
क्योंकि वह सारा समय विरोध प्रदर्शनों में बिताने लगे थे. वैसे तो वह इसका श्रेय नहीं लेना चाहते हैं, लेकिन यह कहना ग़लत नहीं होगा कि उन्होंने ऐसे विरोध प्रदर्शनों की अगुआई करनी शुरू कर दी थी. आरएनके तेज़ी से एक युवा नेता के रूप में उभर रहे थे. लेकिन उन्होंने ख़ुद के लिए कभी भी किसी ऊंचे पद की मांग नहीं की और जहां तक हो सका इससे बचते रहे.
वह जिन घटनाओं और आंदोलनों में शामिल थे उन सभी पर कालक्रम के हिसाब से नज़र डालना मुश्किल है. और इसका बड़ा कारण यह है कि उन्होंने इतने मोर्चों और अलग-अलग आंदोलनों में हिस्सा लिया जिनकी संख्या बहुत ज़्यादा है.
वह स्वतंत्रता संग्राम के दौर के सबसे महत्वपूर्ण पलों के बारे में ख़ुद बताते हैं: “भारत छोड़ो आंदोलन की लड़ाई.” उस समय वह 17 वर्ष के भी नहीं थे, लेकिन विरोध प्रदर्शनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे. क़रीब 12 से 15 वर्ष की उम्र के बीच का समय उनके लिए कांग्रेसी से कम्युनिस्ट बनने का समय था.
आपने किस प्रकार की प्रतिरोध सभाओं को आयोजित करने में मदद की या उनका हिस्सा बने?
शुरुआत में, “हमारे पास टिन से बने भोंपू थे. हम किसी गांव या क़स्बे में कहीं भी मेज और कुर्सी लगा देते और गाना शुरू कर देते. मेज का इस्तेमाल हम स्पीकर को खड़ा करने और लोगों को संबोधित करने के लिए करते थे. और मैं बता दूं, लोगों की भीड़ ज़रूर इकट्ठा होती थी.” एक बार फिर, नल्लकन्नु ने लोगों को संगठित करने में ख़ुद की अहम भूमिका के बारे में ज़्यादा नहीं बताया. हालांकि, उनके जैसे पैदल सैनिकों की वजह से ही यह संभव हो पाता था.
“लोगों के जमा होने के बाद, जीवनंदम जैसे वक्ता उन मेजों पर खड़े होकर लोगों की भीड़ को संबोधित करते थे. और इसके लिए उन्हें माइक की ज़रूरत नहीं पड़ती थी.”
“समय के साथ, हमें अच्छे माइक और लाउडस्पीकर मिलने लगे. उन सब में हमारा एक पसंदीदा माइक था, जिसे लोग ‘शिकागो माइक’ या ‘शिकागो रेडियो सिस्टम’ कहते थे. हां, लेकिन हम अक्सर उसका ख़र्च वहन नहीं कर पाते थे.”
जब अंग्रेज़ आंदोलन को दबाने के लिए कड़ी कार्रवाई करते थे, तो उस समय लोगों से संवाद कैसे किया?
“ऐसी स्थिति कई बार बनी, जैसे रॉयल इंडियन नेवी [आरआईएन] विद्रोह [1946] के बाद. कम्युनिस्टों पर पूरी तरह से नकेल कस दी गई थी. लेकिन पहले भी छापेमारी होती रही थी. कभी-कभी तो अंग्रेज़ गांवों में पार्टी के हर कार्यालय की भी तलाशी लेते थे. आज़ादी के बाद भी ऐसा हुआ, जब पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. हम पत्रिकाएं और अख़बार निकाला करते थे. मसलन, जनशक्ति. लेकिन हमारे पास अपनी बात एक-दूसरे तक पहुंचाने के कई अन्य तरीक़े भी थे. और उनमें से कुछ तो सदियों पुराने थे.'
“कट्टबोम्मन [अट्ठारहवीं शताब्दी के महान ब्रिटिश विरोधी सेनानी] के समय से ही लोग घर के प्रवेश द्वार पर नीम की टहनियां लगाते थे. यह एक संकेत था कि कोई चेचक अथवा अन्य बीमारी से पीड़ित है. साथ ही, यह गुप्त संकेत के लिए भी इस्तेमाल होता था कि वहां कोई बैठक चल रही है.
“अगर घर के अंदर किसी बच्चे के रोने की आवाज़ आती, तो इसका मतलब होता था कि बैठक अभी भी चल रही है. अगर घर के प्रवेश द्वार पर गीला गोबर पड़ा हो, तो उसका भी यही मतलब होता था कि बैठक अभी चल रही है. अगर गोबर सूखा हो, तो उसका मतलब था कि आसपास ख़तरा है और यहां से दूर भाग जाओ. या फिर बैठक अब ख़त्म हो गई है.”
आरएनके के लिए, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सबसे बड़ा प्रेरणास्रोत क्या था?
'कम्युनिस्ट पार्टी प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत थी.'
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'जब मुझे गिरफ़्तार किया गया, तो मैंने अपनी मूंछे क्यों मुंड़वा ली?’ आरएनके हंसते हैं. मैंने कभी ऐसा नहीं किया. और न ही कभी मैंने चेहरा छुपाने के लिए उगाया ही. अगर इससे चेहरा छुपाना होता, तो मैं उगाता ही क्यों?
'पुलिस ने इसे सिगरेट से जला दिया था. मद्रास के एक इंस्पेक्टर कृष्णमूर्ति ने मुझे यातनाएं देने के क्रम में जलाया था. रात के 2 बजे उसने मेरे हाथ बांधे और फिर अगली सुबह 10 बजे खोला. फिर उसने मुझे डंडे से बहुत पीटा.'
एक बार फिर, दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों की तरह, उन्होंने इस घटना को बिना किसी निजी द्वेष के याद किया. उस इंस्पेक्टर के प्रति उनके मन में कोई खटास नहीं था. आरएनके ने उस दिन का बदला लेने के लिए कभी इंसपेक्टर की तलाश नहीं की. उनके मन में ऐसा करने का कभी ख़याल तक नहीं आया.
वह याद करते हुए कहते हैं, 'असल में यह घटना भारत को आज़ादी मिलने के बाद, 1948 में घटी थी. मद्रास सहित कई प्रांतों में हमारी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 1951 तक ऐसा ही चलता रहा.'
'लेकिन आपको यह समझना होगा कि सामंतवाद-विरोधी लड़ाइयां थीं, जो ख़त्म नहीं हुई थीं. उनकी क़ीमत हमें चुकानी पड़ी. ये 1947 से बहुत पहले शुरू हो गई थीं और आज़ादी के बाद भी जारी रहीं.
'स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक सुधार, सामंतवाद-विरोधी आंदोलन—हमने इन सभी मुद्दों को मिला दिया था. इस तरह हमने अपना आंदोलन चलाया.'
हमने बेहतर और समान वेतन के लिए भी संघर्ष किया. हमने छुआछूत को ख़त्म करने के लिए लड़ाई लड़ी. हमने मंदिर में प्रवेश को लेकर होने वाले आंदोलनों में गहरी भूमिका निभाई.
ज़मींदारी प्रथा को ख़त्म करने का अभियान तमिलनाडु का एक प्रमुख आंदोलन था. राज्य में कई महत्वपूर्ण ज़मींदारियां थीं. हमने मिरासदारी [दादा-परदादाओं से वसीयत में मिली ज़मीन] और ईनामदारी [शासक द्वारा व्यक्तियों या संस्थानों को मुफ़्त में दी गई ज़मीन] प्रणालियों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी. कम्युनिस्ट ही इन संघर्षों में सबसे आगे थे. हमारे सामने बड़े-बड़े ज़मींदार थे और उनके साथ उनके हथियारबंद गुंडे और ठग थे.
'पुन्नियूर सांबशिव अय्यर, नेडुमनम सामियप्पा मुतलियार, पूंडि वांडियार जैसे ज़मींदार थे, जिनके पास हज़ारों एकड़ उपजाऊ ज़मीन थी.'
हम इतिहास की एक मज़ेदार कक्षा में बैठे हैं. और एक ऐसे शख़्स से बात कर रहे हैं जिसने उस इतिहास को बनाने में भूमिका अदा की थी.
'स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक सुधार, सामंतवाद-विरोधी आंदोलन—हमने इन सभी मुद्दों को मिला दिया था. इस तरह हमने अपना आंदोलन चलाया. हमने बेहतर और समान वेतन के लिए भी संघर्ष किया. हमने छुआछूत को ख़त्म करने के लिए लड़ाई लड़ी. हमने मंदिर में प्रवेश को लेकर होने वाले आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई'
'साथ ही, समाज में ब्रह्मतेयम और देवतानम की सदियों पुरानी प्रथाएं भी चल रही थीं.'
'ब्रह्मतेयम के तहत, शासकों द्वारा ब्राह्मणों को मुफ़्त में ज़मीन दी गई थी. उन्होंने शासन किया और भूमि से लाभान्वित हुए. वे ख़ुद खेती नहीं करते, लेकिन मुनाफ़ा उन्हें ही मिलता था. देवतानम प्रथा में, मंदिरों को उपहार के रूप में ज़मीन दी जाती थी. कभी-कभी मंदिरों को पूरा का पूरा गांव उपहार में दे दिया जाता था. छोटे किराएदार और मज़दूर उनकी दया पर जीते थे. जो कोई भी उनके ख़िलाफ़ खड़ा होता था उन्हें बेदख़ल कर दिया जाता था.
'जान लीजिए, इन संस्थानों [मठ या मॉनेस्ट्री] के पास छह लाख एकड़ ज़मीन हुआ करती थी. शायद अभी भी है. लेकिन लोगों के निडर संघर्षों ने उनकी शक्ति को बहुत हद तक सीमित कर दिया है.
“तमिलनाडु ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम 1948 में लागू हुआ. लेकिन ज़मींदार और बड़े भूस्वामियों को मुआवजा दिया गया. उन लोगों को कुछ नहीं मिला जिन्होंने उनकी ज़मीन पर काम किया था. केवल संपन्न किसानों को ही मुआवजा मिला. खेतों में काम करने वाले ग़रीबों के हाथ कुछ नहीं आया. साल 1947-49 के बीच, इन मंदिरों को उपहार में मिली ज़मीनों से, बड़ी संख्या में लोगों को बेदख़ल कर दिया गया. और इसके ख़िलाफ़ हमने भारी विरोध प्रदर्शन किया, जिसका नारा था: 'किसान के पास ज़मीन होगी, तभी घर में ख़ुशहाली होगी.”
"ये हमारी लड़ाइयां थीं. साल 1948 से 1960 तक अपने हक़ के लिए लड़ाइयां चलती रहीं. सी. राजगोपालाचारी [राजाजी] ने मुख्यमंत्री के रूप में ज़मींदारों और मठों का साथ दिया. हमने कहा 'ज़मीन उसे जोतने वाले' को मिले. राजाजी ने कहा कि ज़मीन उनकी है जिनके पास काग़ज़ हैं. लेकिन हमने अपने संघर्षों से इन मंदिरों और मठों के पर कतर डाले. हमने उनके फ़सल काटने के नियमों और क़ायदों का उल्लंघन किया. हमने उनका ग़ुलाम बनने से इंकार कर दिया.
“और हां, इन सारी लड़ाइयों को सामाजिक लड़ाइयों से अलग नहीं देखा जा सकता था.
“एक रात एक मंदिर में मैंने विरोध प्रदर्शन देखा. मंदिरों में रथ उत्सव होते थे. और ये किसान ही थे जो रस्सियों के सहारे रथों को आगे खींचते थे. हमने कहा कि अगर मंदिर में आने का अधिकार नहीं मिला, तो वे कहीं भी रथ खींचने नहीं आएंगे. साथ ही, हमने बुआई के लिए कुछ अनाज वापस लेने का अपना अधिकार भी मांगा.”
अब वह अपने क़िस्सों में स्वतंत्रता से पहले और बाद के समय में आवाजाही करने लगे हैं. एक तरफ़ यह भ्रमित कर सकता है. दूसरी तरफ़, उस दौर की जटिलता भी सामने आती है. जैसे कि बहुत सी चीज़ों से आज़ादी की दरकार थी. जैसे कि इनमें से कुछ आंदोलनों की शुरुआत कब हुई कोई नहीं जानता, और इनका अंत कब होगा यह भी पता नहीं. और आरएनके जैसे सेनानी सभी मोर्चों पर अज़ादी की तलाश में लड़ते रहे.
“उन दशकों में हम श्रमिकों की पिटाई और यातना के ख़िलाफ़ भी लड़ते रहे.
“साल 1943 में भी दलित श्रमिकों को कोड़े मारे जा रहे थे. और फिर घावों पर पानी में घोला हुआ गोबर छिड़क देते थे. उन्हें सुबह मुर्गे की बांग के साथ उठकर 4 या 5 बजे काम पर जाना पड़ता था. उन्हें मवेशियों को नहलाने, गोबर जमा करने और फिर खेतों में पानी देने के लिए मिरासदारों की ज़मीन पर जाना पड़ता था. उस समय तंजवुर ज़िले में स्थित तिरुतुरईपूंडी के पास एक गांव में हमने उनके लिए विरोध प्रदर्शन किया.
“श्रीनिवास राव की अध्यक्षता में किसान सभा ने विशाल विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था. भाव कुछ ऐसा था कि 'यदि वे आपको लाल झंडा उठाने पर मारते हैं, तो आप उन पर पलटवार करो.' अंत में तिरुतुरईपूंडी के मिरासदारों और मुदलियारों ने समझौते पर हस्ताक्षर किए कि अब कोड़े मारने, घाव पर गोबर के पानी का इस्तेमाल और अन्य किसी तरह की बर्बर यातनाएं बंद कर देंगे.”
आरएनके ने 1940 से लेकर 1960 के दशक तक और उसके बाद भी इन महान आंदोलनों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने तमिलनाडु में अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) के प्रमुख के रूप में श्रीनिवास राव का स्थान लिया. साल 1947 के बाद के दशकों में, यह पैदल सैनिक किसानों-मज़दूरों के आंदोलन के एक मज़बूत सेनापति के रूप में उभर कर सामने आया.
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दोनों काफ़ी उत्साहित और भावुक हो गए हैं. हम एक साक्षात्कार के लिए, माकपा नेता और स्वतंत्रता सेनानी एन. शंकरैया के घर पर मौजूद हैं. यानी हम एन. शंकरैया और नल्लकन्नु दोनों से एक साथ बात कर रहे हैं. आठ दशकों से संघर्षों के साथी रहे दोनों कॉमरेड एक-दूसरे का जिस तरह अभिवादन करते हैं उससे कमरे में मौजूद बाक़ी लोग भी भावुक हो उठे.
हमने उनसे पूछा कि 60 साल पहले जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में विभाजित हो गई, तो वे दोनों अपने अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े. क्या उनके मन में एक-दूसरे के प्रति कोई कड़वाहट या कोई उदासी नहीं पैदा हुई? आख़िर यह विभाजन किसी सुखद मोड़ पर हुआ नहीं था.
नल्लकन्नु कहते हैं, “लेकिन हमने उसके बाद भी कई मुद्दों और आंदोलनों में साथ मिलकर काम किया. पहले की तरह ही. एक-दूसरे के प्रति हमारा व्यवहार नहीं बदला.”
शंकरैया कहते हैं, “अब भी जब हम मिलते हैं, तो हम एक पार्टी ही होते हैं.”
हमने उनसे पूछा कि वर्तमान समय में देश में बढ़ रही सांप्रदायिक हिंसा और घृणा के बारे में उनके क्या विचार हैं? क्या उन्हें देश के अस्तित्व पर ख़तरा मंडराता नज़र आता है? आख़िर बात उस देश की है जिसे स्वतंत्रता दिलाने में उन्होंने बराबर की भागीदारी की है.
नल्लकन्नु कहते हैं, “स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी ऐसा समय आया था, जब चीज़ें धुंधली नज़र आ रही थीं. हमसे कहा गया था कि आप जीत नहीं सकते. आप दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं. हममें से कुछ के परिवारों को हमें संघर्ष से दूर रखने की चेतावनी दी गई थी. लेकिन हमने उन चेतावनियों और धमकियों से पार पा लिया. और बस लड़ते रहे. इसलिए हम आज़ाद हैं.”
दोनों का कहना है कि पूरे देश में व्यापक एकता बनाने की ज़रूरत है. ताकि अतीत की तरह एक-दूसरे का हाथ थाम सकें और दूसरों से सीखें. आरएनके कहते हैं, “जहां तक मुझे याद, ईएमएस [नंबूदिरीपाद] के कमरे में भी गांधी की तस्वीर लगी होती थी.”
देश की वर्तमान स्थिति के बारे में जानते हुए भी वे दोनों इतने शांत और उम्मीद से लबरेज़ कैसे हैं, जबकि हम जैसे लाखों-करोड़ों लोग उससे डरे हुए हैं? नल्लकन्नु कंधे उचकाते हुए कहते हैं: “हमने इससे भी बुरा वक़्त देखा है.”
पुनश्च:
साल 2022 में स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर – जिस समय तक ‘द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्जर्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम’ प्रेस में छपने जा चुकी थी – तमिलनाडु सरकार ने आरएनके को तगईसल तमिलर पुरस्कार से सम्मानित किया. यह राज्य का सर्वोच्च सम्मान है, जिसकी शुरुआत साल 2021 में की गई. यह पुरस्कार उन विशिष्ट व्यक्तित्वों को दिया जाता है जिन्होंने तमिलनाडु और तमिल लोगों के कल्याण के लिए महान योगदान दिया है. मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने फोर्ट सेंट जॉर्ज की प्राचीर पर आरएनके को इस पुरस्कार और इसके साथ मिलने वाले 10 लाख रुपए से नवाज़ा था.
अनुवाद: देवेश