जैसे ही आसमान में अंधेरा घिरता है, ओम शक्ति देवी का रंगीन लाइटों से सजा बड़ा सा कट-आउट जीवंत हो उठता है. बंगलामेडु के इरुलर लोग देवी के लिए सालाना तीमिति तिरुविला या फ़ायर-वॉक (अंगारों पर चलने का) उत्सव मना रहे हैं. (ओम शक्ति एक हिंदू देवी हैं.)

दोपहर भर जलने वाली लकड़ी के टुकड़े अंगारे बनने लगते हैं, और स्वयंसेवी इन्हें चमकीले फूलों के बिस्तर की तरह एक पतली सी परत में फैला देते हैं, ताकि इरुलर तीमिति को 'पू-मिति' या फूलों पर चलने की तरह देखें.

उत्साह और उत्तेजना का माहौल है. पड़ोस के गांवों के सैकड़ों लोग इरुलरों को आग पर चलता देखने और ओम शक्ति में अपना विश्वास जताने के लिए इकट्ठा हुए हैं. ओम शक्ति एक गैर-इरुलर देवी है, जिसके मानने वाले पूरे तमिलनाडु में मौजूद हैं और जिसे क्षमता और शक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में पूजा जाता है.

इरुलर (जिन्हें इरुला भी कहते हैं) समुदाय तमिलनाडु में अनुसूचित जनजाति के रूप में दर्ज है. वे परंपरागत रूप से कन्निअम्मा देवी की पूजा करते थे, जिसे वे सात कुंवारी देवियों में से एक मानते हैं. हर इरुलर के घर में एक कलसम या मिट्टी का बर्तन देवी के प्रतीक की तरह रहता है, जिसे नीम के पत्तों के ढेर पर रखा जाता है.

A kalasam (left) placed on neem leaves to symbolise Kanniamma in a temple (right) dedicated to her in Bangalamedu
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A kalasam (left) placed on neem leaves to symbolise Kanniamma in a temple (right) dedicated to her in Bangalamedu
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बंगलामेडु में कन्निअम्मा को समर्पित एक मंदिर (दाएं) में नीम के पत्तों पर रखा गया कलसम (बाएं)

Left: Preparing for the theemithi thiruvizha for goddess Om Sakthi, volunteers in wet clothes stoke the fire to ensure logs burn evenly. Before the fire-walk, they need to spread the embers evenly over the fire pit.
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Right: Brothers, G. Chinnadurai and G. Vinayagam carry the poo-karagam , which is a large milk pot decorated with flowers
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बाएं: देवी ओम शक्ति के लिए तीमिति तिरुविला की तैयारी के दौरान गीले कपड़ों में स्वयंसेवी आग जलाते हैं, ताकि यह पक्का हो पाए कि लकड़ियां समान रूप से जलेंगी. आग पर चलने से पहले वे अग्निकुंड में अंगारों को समान रूप से फैलाते हैं. दाएं: भाई जी. चिन्नदुरई और जी. विनयगम पू-कारगम ले जाते हुए, जो फूलों से सजाया गया दूध का बड़ा बर्तन होता है

तो ओम शक्ति के लिए बंगलामेडु इरुलरों के उत्सव को कैसे समझा जाए?

क़रीब 36 वर्षीय साल के जी. मणिगंदन 1990 के दशक के आख़िरी दिनों की एक घटना बताते हैं, जब उनकी बहन और एक गैर इरुलर युवक प्रेम में पड़ गए थे. इसके बाद जातिगत तनाव शुरू हुआ और इसके चलते उनके परिवार को चेरुक्कनुर गांव में अपने घर से रातों-रात भागना पड़ा. तब परिवार ने चेरुक्कनुर झील के पास एक छोटी सी झोपड़ी में शरण ली थी.

वह कहते हैं, “रात भर एक गउली [छिपकली] शोर मचाती रही, और इससे हमें सुकून महसूस हुआ. हमने इसे अम्मन [देवी] का शगुन माना.'' उनका मानना है कि यह ओम शक्ति ही थीं जिन्होंने उस रात उनकी जान बचाई थी.

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वह याद करते हैं, “भागने के बाद भोजन और काम ढूंढना कोई आसान नहीं था. मेरी मां खेतों से मूंगफली इकट्ठा करतीं और हमें खिलाने के लिए छोटे जानवरों का शिकार करके लाती थीं. बस अम्मन ने ही हमारी रक्षा की थी.” (पढ़ें: बंगलामेडु में चूहों के साथ एक अलग मार्ग पर )

मणिगंदन का परिवार और उनके साथ भागे दूसरे लोग आख़िर चेरुक्कनुर झील से क़रीब एक किलोमीटर दूर बंगलामेडु में बस गए और उन्हें झील के पास खेतों में काम मिल गया.

बंगलामेडु शुरुआत में 10 से भी कम परिवारों की बस्ती थी, और अब यहां 55 इरुला परिवार रहते हैं. आधिकारिक तौर पर चेरुक्कनुर की इरुलर कॉलोनी एक सड़क के इर्दगिर्द बसी है, जिसके दोनों तरफ़ घर हैं और जो खुली झाड़ियों से घिरी है. लंबे संघर्ष के बाद 2018 में आख़िर यहां बिजली आई और हाल ही में कुछ पक्के घर इस बस्ती में जुड़े. यहां के इरुलर लोग अपनी आय के लिए दैनिक मज़दूरी और मनरेगा के काम पर निर्भर हैं. मणिगंदन, बंगलामेडु के उन मुट्ठी भर लोगों में से हैं जिन्होंने मिडिल स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी की है.

Left: The Om Sakthi temple set up by P. Gopal on the outskirts of Bangalamedu. The temple entrance is decorated with coconut fronds and banana trees on either sides, and has a small fire pit in front of the entrance.
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Right: G. Manigandan carries the completed thora or wreath
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बाएं: बंगलामेडु के बाहरी ओर पी. गोपाल द्वारा स्थापित ओम शक्ति मंदिर. मंदिर के प्रवेश द्वार को दोनों तरफ नारियल और केले के पत्तों से सजाया गया है और प्रवेश द्वार के सामने एक छोटा अग्निकुंड बना है. दाएं: जी. मणिगंदन तोरा या हार ले जा रहे हैं

G. Subramani holds the thora on the tractor (left) carrying the amman deity.
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He then leads the fire walkers (right) as they go around the bed of embers
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जी. सुब्रमणि, अम्मन देवी को ले जाने वाले ट्रैक्टर (बाएं) पर तोरा को रखते हैं. फिर वह अंगारों के इस बिस्तर के चारों ओर घूमते हुए (दाएं) आग पर चलने वालों का नेतृत्व कर रहे हैं

यहां बसने के कुछ साल बाद इरुलर समुदाय के बुज़ुर्ग और मणिगंदन के पिता पी. गोपाल ने झील के पास सार्वजनिक भूमि के एक टुकड़े पर ओम शक्ति का मंदिर बनाया. वह बुरे दिनों में उनकी रक्षा के लिए अम्मन के प्रति आभार जताना चाहते थे. साल 2018 में अपनी मृत्यु तक वह इसके पुजारी रहे. मणिगंदन कहते हैं, “मंदिर एक छोटी सी झोपड़ी हुआ करती थी. हमने झील की मिट्टी से अम्मन की मूर्ति बनाई. मेरे पिता ने ही आदि तीमिति तिरुविला की शुरुआत की थी.''

गोपाल के निधन के बाद मणिगंदन के बड़े भाई जी. सुब्रमणि ने अपने पिता की पुरोहित वाली भूमिका संभाल ली. सुब्रमणि हफ़्ते का एक दिन मंदिर के कामकाज के लिए रखते हैं और बाक़ी छह दिन मज़दूरी के काम तलाशते हैं.

क़रीब 15 साल से ज़्यादा समय से बंगलामेडु के इरुलर समुदाय के लोग दिन भर के इस कार्यक्रम में ओम शक्ति के प्रति अपना व्रत निभाते हैं, जिसका समापन अंगारों पर चलने के साथ होता है. यह त्योहार तमिल महीने ‘आदि’ में मनाया जाता है जो जुलाई-अगस्त के आसपास आता है. मॉनसून की शुरुआत के साथ यह चिलचिलाती गर्मी से निजात का समय भी होता है. हालांकि, इरुलरों के बीच यह हाल की ही प्रथा है, पर आदि महीने के दौरान तीमिति तिरुवल्लुर ज़िले के तिरुत्तनी तालुक में आम तौर पर मनाया जाता है, जिसमें श्रद्धालु महाकाव्य महाभारत की द्रौपदी अम्मन, मरिअम्मन, रोजा अम्मन, रेवती अम्मन आदि देवियों की पूजा-अर्चना करते हैं.

“गर्मियों में लोग अक्सर अम्मन [चेचक] की वजह से बीमार पड़ जाते हैं. हम इन मुश्किल महीनों से उबरने के लिए अम्मन [देवी] से प्रार्थना करते हैं.” मणिगंदन अपनी बातचीत में देवी और बीमारी दोनों के लिए अम्मन शब्द का उपयोग आराम से करते जाते हैं और इससे उस आम धारणा को बल मिलता है कि देवी ही हैं जो बीमारी देती है और वही अपने भक्तों को स्वस्थ भी बनाती हैं.

बंगलामेडु में गोपाल ने जब से तीमिति उत्सव शुरू किया था, तभी से पड़ोसी गुडीगुंटा गांव का एक गैर-इरुलर परिवार इसके आयोजन में हिस्सा ले रहा है. इस परिवार की खेत में बनी झोपड़ी में ही उनके परिवार को शरण मिला थी, जब वे अपने गांव से भागकर यहां आए थे.

Left: The mud idol from the original temple next to the stone one, which was consecrated by a Brahmin priest in the new temple building.
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Right: A non-Irular family, one of the few, walking on the fire pit
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बाएं: मूल मंदिर की मिट्टी की मूर्ति के बगल में पत्थर की मूर्ति, जिसे एक ब्राह्मण पुजारी ने नए मंदिर भवन में प्रतिष्ठित किया था. दाएं: कुछ गैर-इरुलर परिवारों में से एक परिवार अग्निकुंड में आग पर चल रहा है

खेत मालिकों में से एक हैं 57 साल के टी.एन. कृष्णन, जिन्हें उनके दोस्त पलनी के नाम से जानते हैं. वह बताते हैं, "इरुलरों के अलावा हमारे परिवार के दस सदस्य और दोस्त शुरू से ही आग पर चल रहे हैं." पलनी के परिवार का मानना है कि ओम शक्ति की प्रार्थना शुरू करने के बाद ही उनके यहां बच्चों का जन्म हो पाया.

उन्होंने इरुलरों की मामूली मंदिर की झोपड़ी को छोटी पक्की इमारत में बदलकर देवी के लिए अपना आभार जताया. उन्होंने ही इरुलरों की लगाई अम्मन की मिट्टी की मूर्ति की जगह पत्थर की मूर्ति स्थापित की.

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बंगलामेडु के इरुलरों को आदि तीमिति का इंतज़ार रहता है. उसकी तैयारी वह तय दिन से पहले ही शुरू कर देते हैं. जो आग पर चलना चाहते हैं वे अपनी कलाई में एक काप्पु यानी एक पवित्र जंतर बांध लेते हैं और त्योहार के दिन तक रोज़ का कड़ा पथ्य लेना शुरू करते हैं.

बंगलामेडु में छोटी सी दुकान चलाने वाली एस. सुमंति के अनुसार, "एक बार जब हम काप्पु पहन लेते हैं, तो हम सिर के ऊपर से स्नान करते हैं और दिन में दो बार मंदिर जाते हैं, पीले कपड़े पहनते हैं, मांस नहीं खाते और गांव नहीं छोड़ते." कुछ लोग एक सप्ताह तक इस नियम का पालन करते हैं, तो कुछ ज़्यादा समय तक. मणिगंदन बताते हैं, “जो जितने दिन चाहे कर सकता है. काप्पु पहनने के बाद हम गांव नहीं छोड़ सकते.''

डॉ. एम. दामोदरन ने गैर-लाभकारी संस्थान ‘ऐड इंडिया’ के साथ अपने जुड़ाव के दौरान वर्षों तक इस समुदाय के साथ काम किया है. वह बताते हैं कि ये अनुष्ठान संस्कृतियों के बीच विचारों या प्रथाओं के फैलाव की तरफ़ इशारा करते हैं. “व्रत, उपवास करना, एक ख़ास रंग के कपड़े पहनना और सामुदायिक कार्यक्रम करना जैसी प्रथाएं अब कई [गैर-इरुलर] समुदायों में बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं. वह कहते हैं, ''यह संस्कृति इरुला समुदाय के कुछ हिस्सों में भी आ गई है. सभी इरुला बस्तियों में इन प्रथाओं का पालन नहीं होता."

बंगलामेडु में इरुलर लोग दिन के सभी अनुष्ठान संभालते हैं और सजावट में अपना थोड़ा-बहुत योगदान देते हैं. त्योहार वाले दिन सुबह मंदिर के रास्ते पर लगे पेड़ों पर नीम की ताज़ा पत्तियों के गुच्छे लगाए गए हैं. स्पीकर से तेज़ भक्ति संगीत बज रहा है. नारियल के ताज़े पत्तों की चटाई और केले के लंबे पत्ते मंदिर के प्रवेश द्वार को सुशोभित कर रहे हैं.

K. Kanniamma and S. Amaladevi carrying rice mixed with blood of a slaughtered goat and rooster (left).
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They are throwing it around (right) as part of a purification ritual around the village
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लोगों का विश्वास है कि के. कन्निअम्मा और एस. अमलादेवी पर देवी आई है. दोनों बलि दिए बकरे और मुर्गे (बाएं) के ख़ून से मिश्रित चावलों को ले जा रही हैं. इसे वे गांव को शुद्ध करने के लिए चारों ओर (दाएं) फेंक रही हैं

Left: At the beginning of the ceremonies during the theemithi thiruvizha , a few women from the spectators are overcome with emotions, believed to be possessed by the deity's sprit.
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Right: Koozhu, a porridge made of rice and kelvaragu [raagi] flour is prepared as offering for the deity. It is cooked for the entire community in large aluminium cauldrons and distributed to everyone
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बाएं: तीमिति तिरुविला में अनुष्ठानों की शुरुआत में भीड़ में से कुछ महिलाएं असामान्य सा व्यवहार कर रही हैं. माना जाता है कि वो देवी के वश में हैं. जब महिलाओं को ठंडा पानी डालकर जगाया जाता है, तो उन्हें बच्चे बगल से देख रहे हैं. दाएं: कूलु, चावल और केलवरगु (रागी) के आटे से बना दलिया, देवी के प्रसाद के रूप में तैयार किया जाता है. इसे समुदाय के लिए अल्यूमिनियम के बड़े कड़ाहों में पकाया जाता है और फिर सभी में बांटा जाता है

काप्पु पहनने वाले हल्दी जैसे पीले रंग के कपड़ों में अनुष्ठान के लिए मंदिर आते हैं. दिन के कार्यक्रमों की शुरुआत अम्मन के अरुलवक्कु या दिव्य प्रवचन से होती है. लोगों का मानना है कि इसके लिए देवी किसी एक को माध्यम बनाती हैं. मणिगंदन कहते हैं, ''जब अम्मन किसी के ऊपर आती हैं, तो वह उसके ज़रिए बात करती हैं. जो लोग विश्वास नहीं करते उन्हें मंदिर में केवल एक पत्थर दिखाई देता है. हमारे लिए मूर्ति वास्तविक चीज़ है, जिसमें जीवन है. वह हमारी मां की तरह है. हम उससे अपनों की तरह ही बात करते हैं. मां हमारी समस्याओं को समझती है और हमें सलाह देती है.”

मणिगंदन की बहन कन्निअम्मा हर साल अरुलवक्कु देती हैं. वह जाकर मंदिर के चारों ओर और गांव की सीमा पर मुर्गे और बकरी की बलि के बाद उनके ख़ून से मिश्रित चावल छिड़कती है. स्वयंसेवी पूरे समुदाय के लिए चावल और रागी से बना गर्म कूलु या दलिया पकाते हैं और बांटते हैं. शाम के जुलूस में देवी को तैयार करने के लिए, सारी दोपहर बड़ा सा तोरा, केले के तने और फूलों का हार बनाने में बीतती है.

पिछले कुछ सालों में मिट्टी की झोपड़ी की जगह पक्का मंदिर बनने के साथ ही त्योहार का पैमाना भी ऊंचा हो गया है. पलनी के गुडीगुंटा गांव सहित पड़ोसी गांवों से दर्शकों की भारी भीड़ बंगलामेडु में आग पर चलने का करतब देखने को जुटती है. मणिगंदन कहते हैं, "त्योहार कभी नहीं रुका. यहां तक कि कोविड के दौरान भी नहीं. हालांकि, उन दो सालों में कम भीड़ रही थी." साल 2019 में, कोविड के आने से एक साल पहले इस उत्सव में क़रीब 800 लोग देखने आए थे.

हाल के वर्षों में पलनी का परिवार सभी आगंतुकों के लिए मुफ़्त भोजन या अन्नदानम प्रायोजित कर रहा है. पालनि कहते हैं, ''2019 में हमने बिरयानी के लिए सिर्फ़ 140 किलो चिकन पर एक लाख रुपए से ज़्यादा खर्च कर दिए थे.'' वह आगे जोड़ते हैं कि अब आगंतुकों की तादाद कोविड पूर्व के दिनों जैसी ही हो गई है. उन्होंने आगे बताया, ''हर कोई यहां से संतुष्ट होकर जाता है.'' बढ़े हुए ख़र्चे पूरे करने के लिए पलनी अपने दोस्तों से पैसे जुटाते हैं.

“जबसे हमने मंदिर का भवन बनाया है, भीड़ और बढ़ गई है. इरुलर इसे नहीं चला सकते, है न?" वह गुडीगुंटा ओम शक्ति मंदिर का ज़िक्र करते हुए पूछते हैं, जो उनका गांव है.

Irular volunteers prepare the tractor for the procession later that evening
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Irular volunteers prepare the tractor for the procession later that evening
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इरुलर समुदाय के स्वयंसेवी शाम के जुलूस के लिए ट्रैक्टर तैयार कर रहे हैं

Left: The procession begins with the ritual of breaking open a white pumpkin with camphor lit on top.
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Right: The bangle seller helps a customer try on glass bangles
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बाएं: एक सफ़ेद कद्दू तोड़ने की रस्म के साथ जुलूस की शुरुआत होती है. कद्दू के ऊपर कपूर जलाया गया है. दाएं: चूड़ी विक्रेता एक ग्राहक को कांच की चूड़ियां आज़माने में मदद कर रही हैं

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मणिगंदन कहते हैं, “जब नया मंदिर बनाया गया, तो हमारी मिट्टी की मूर्ति पत्थर से बनी मूर्ति से बदल दी गई. उन्होंने कहा था कि मंदिरों की प्रतिष्ठा इसी तरह की जाती है. हमने बगल में अपनी मिट्टी की मूर्ति भी रखी है. यह धरती ही है, जो हमारी रक्षा करती है.''

वह कहते हैं, “उन्होंने एक अय्यर [ब्राह्मण पुजारी] को बुलाया, जिसने कच्चे चावल और नीम के पत्तों का हमारा प्रसाद हटा दिया.” कुछ असुविधा के साथ वह बोले, ''जिस तरह हम पूजा-पाठ करते हैं उससे यह अलग है.''

मानवविज्ञान में उच्च शिक्षा हासिल कर चुके डॉ. दामोदरन कहते हैं, "कन्निअम्मा जैसी देवियों की पूजा में अमूमन लंबे-चौड़े और योजनाबद्ध ढंग से अनुष्ठान नहीं किए जाते. यहां तक कि पूरा समुदाय भी इसमें शामिल नहीं होता. अनुष्ठानों और उन्हें करने के किसी ख़ास तरीक़े पर ज़ोर देना, और फिर एक [अक्सर ब्राह्मण] पुजारी को शामिल करके इसे मान्यता दिलाना अब नियम बना लिया गया है. इससे अलग-अलग संस्कृतियों के पूजा करने के अनूठे तरीक़े मिट जाते हैं और उनका मानकीकरण हो जाता है."

साल दर साल बंगलामेडु तीमिति के भव्य होते जाने के साथ ही मणिगंदन और उनके परिवार को लगने लगा है कि यह त्योहार अब धीरे-धीरे उनके हाथ से फिसल रहा है.

मणिगंदन ने बताया, “पहले मेरे पिता भोजन का सारा ख़र्च मोई [त्योहार के भोजन का आनंद लेने के बाद मेहमानों से मिलने वाले उपहार के पैसे] से चलाते थे. अब वे [पलनी का परिवार] सभी ख़र्च देखते हैं और कहते हैं, 'मणि, तुम काप्पु रिवाज़ों पर ध्यान लगाओ.'' मणिगंदन का परिवार कभी-कभी पलनी के खेतों पर काम करता है.

Left: A banner announcing the theemithi event hung on casuarina trees is sponsored by Tamil Nadu Malaivaazh Makkal Sangam – an association of hill tribes to which Irulars belong. A picture of late P. Gopal is on the top right corner.
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Right: K. Kanniamma tries to sit briefly in the fire pit before crossing. This is a risky move for those who attempt as one needs to be fast enough not to burn one's feet. Kanniamma's b rother Manigandan followed this tradition every year until their father's death. Since no male member of the family could sit, Kanniamma took it on herself.
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बाएं: तीमिति कार्यक्रम की घोषणा वाला एक बैनर कैसुआरिना के पेड़ों पर लटका है , जिसे तमिलनाडु मलइवाल मक्कल संगम ने प्रायोजित किया है. इरुलर, पहाड़ी जनजातियों के इस संघ का हिस्सा हैं. सबसे ऊपर दाहिने कोने पर स्वर्गीय पी. गोपाल की तस्वीर लगी है. दाएं: के. कन्निअम्मा अग्निकुंड से निकलने से पहले थोड़ी देर आग में बैठने की कोशिश करती हैं. यह परंपरा है जिसका पालन उनके भाई मणिगंदन पिछले साल पिता की मृत्यु तक हर साल किया करते थे. चूंकि परिवार का कोई भी पुरुष सदस्य नहीं बैठ सकता, तो कन्निअम्मा ने इसकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. यह जोखिम भरा क़दम होता है, क्योंकि पैरों को जलने से बचाने के लिए उसमें से तेज़ी से निकलना होता है

Left: Fire-walkers, smeared with sandalwood paste and carrying large bunches of neem leaves, walk over the burning embers one after the other; some even carry little children.
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Right: It is an emotional moment for many who have kept their vow and walked on fire
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बाएं: चंदन के लेप से सने और नीम की पत्तियों के बड़े-बड़े गुच्छे लेकर आग पर चलने वाले लोग एक के पीछे एक जलते अंगारों पर चल रहे हैं. कुछ छोटे बच्चों को साथ लिए हुए हैं. दाएं: अपना संकल्प पूरा करने और आग पर चलने वालों के लिए यह भावुक करने वाला पल होता है

आयोजन के लिए छपे सूचना पत्रों में दिवंगत गोपाल की वलिमुरई (विरासत) को स्वीकार करने वाले एक वाक्यांश को छोड़कर इरुलर समुदाय का कोई ज़िक्र नहीं है. मणिगंदन कहते हैं, “हमें अपने पिता का नाम जोड़ने के लिए ज़ोर देना पड़ा. वे नहीं चाहते थे कि इसमें किसी का नाम लिखा जाए.''

तीमिति के दिन आग पर चलने वाले सभी आशंकाएं उठाकर एक तरफ़ रख देते हैं, क्योंकि वे अपनी भक्ति की परीक्षा देने को तैयार होते हैं. स्नान करके पीले कपड़े पहने, गले में फूलों की माला डाले, बालों में फूलों को सजाए हुए वे पूरे शरीर पर चंदन का लेप लगाते हैं और अपने हाथों में नीम के पवित्र गुच्छे पकड़े होते हैं. कन्निअम्मा कहती हैं, “उस दिन लगता है जैसे अम्मन हमारे भीतर ही हैं. इसीलिए पुरुष भी फूल पहनते हैं.”

आग पर चलने वाले जब अंगारों से भरे गड्ढे पार करने के लिए बारी-बारी से आगे बढ़ते हैं, तो उनकी भावनाएं शांत से लेकर जोशीली होती जाती हैं. कुछ देखने वाले जयकार करते हैं, तो दूसरे प्रार्थना कर रहे होते हैं. कई लोग इस नज़ारे को क़ैद करने के लिए अपने मोबाइल फ़ोन निकाल लेते हैं.

कभी सादगी का प्रतीक रहे इरुलर मंदिर का नया नाम, नई मूर्ति और मंदिर व त्योहार के प्रबंधन से जुड़े बदलते समीकरण के बावजूद, मणिगंदन और उनका परिवार अपने दिवंगत पिता का अम्मन से किया वादा निभा रहे हैं और अपने जीवन की रक्षा के लिए देवी के शुक्रगुज़ार हैं. तीमिति के दौरान उनकी सभी चिंताएं भविष्य के लिए टल जाती हैं.

नोट: इस स्टोरी में शामिल सभी तस्वीरें 2019 में ली गई थीं, जब रिपोर्टर तीमिति उत्सव देखने बंगलामेडु गई थीं.

अनुवाद: अजय शर्मा

Smitha Tumuluru

स्मिता तुमुलुरु, बेंगलुरु की डॉक्यूमेंट्री फ़ोटोग्राफ़र हैं. उन्होंने पूर्व में तमिलनाडु में विकास परियोजनाओं पर लेखन किया है. वह ग्रामीण जीवन की रिपोर्टिंग और उनका दस्तावेज़ीकरण करती हैं.

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Editor : Sangeeta Menon

संगीता मेनन, मुंबई स्थित लेखक, संपादक और कम्युनिकेशन कंसल्टेंट हैं.

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Translator : Ajay Sharma

अजय शर्मा एक स्वतंत्र लेखक, संपादक, मीडिया प्रोड्यूसर और अनुवादक हैं.

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