जून महीने का तीसरा शुक्रवार था, जब मज़दूर हेल्पलाइन नंबर की घंटी बजी.

“क्या आप हमारी मदद कर सकते हैं? हमें हमारी मजूरी नहीं दी रही है.”

कुशलगढ़ में रहने वाले 80 मज़दूरों की टोली राजस्थान में ही आसपास की तहसीलों में काम करने गई हुई थी. दो माह से वे टेलीकॉम फाइबर केबल बिछाने के लिए दो फीट चौड़ा और छः फीट गहरा गड्ढा खोद रहे थे. मजूरी खोदे जा रहे गड्ढे की प्रति मीटर गहराई के हिसाब से मिलनी तय हुई थी.

दो माह बाद जब काम पूरा हुआ, तो उन्होंने अपनी मजूरी मांगी. ठेकेदार ख़राब काम करने का बहाना देने लगा, और हिसाब-किताब में फंसाने लगा. इसके बाद वह उन्हें यह कहकर टालने लगा कि “देता हूं, देता हूं.” लेकिन उसने पैसे नहीं दिए. एक हफ़्ते तक अपने बकाया 7-8 लाख रुपए का इंतज़ार करने के बाद मज़दूर पुलिस के पास गए, जहां उन्हें मज़दूर हेल्पलाइन में फोन करने को कहा गया.

जब मज़दूरों ने हेल्पलाइन में फ़ोन किया, तो “हमने पूछा कि उनके पास कोई सबूत है कि नहीं. हमने उनसे ठेकेदार का नाम और फ़ोन नंबर, और हाज़िरी रजिस्टर की तस्वीरें मांगी,” बांसवाड़ा ज़िला मुख्यालय में सामाजिक कार्यकर्ता कमलेश शर्मा बताते हैं.

क़िस्मत से नई उम्र के कुछ मज़दूर - जो मोबाइल चलाने में माहिर थे - ये सब इकट्ठा करने में कामयाब रहे. अपना पक्ष मज़बूत करने के लिए उन्होंने काम के जगह की कुछ तस्वीरें भी भेजीं.

Migrants workers were able to show these s creen shots taken on their mobiles as proof that they had worked laying telecom fibre cables in Banswara, Rajasthan. The images helped the 80 odd labourers to push for their Rs. 7-8 lakh worth of dues
PHOTO • Courtesy: Aajeevika Bureau
Migrants workers were able to show these s creen shots taken on their mobiles as proof that they had worked laying telecom fibre cables in Banswara, Rajasthan. The images helped the 80 odd labourers to push for their Rs. 7-8 lakh worth of dues
PHOTO • Courtesy: Aajeevika Bureau
Migrants workers were able to show these s creen shots taken on their mobiles as proof that they had worked laying telecom fibre cables in Banswara, Rajasthan. The images helped the 80 odd labourers to push for their Rs. 7-8 lakh worth of dues
PHOTO • Courtesy: Aajeevika Bureau

प्रवासी मज़दूर मोबाइल में लिए इन स्क्रीनशॉट को सबूत के रूप में पेश करने में कामयाब रहे, जिससे यह साबित होता था कि वे राजस्थान के बांसवाड़ा में दूरसंचार फाइबर केबल बिछाने का काम कर रहे थे. इन तस्वीरों से 80 मज़दूरों को 7-8 लाख रुपए की बकाया मजूरी के लिए दबाव बनाने में मदद मिली

विडंबना है कि जो गड्ढे उन्होंने खोदे थे वो देश की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनियों में से एक की ख़ातिर खोदे गए थे. उस कंपनी के लिए को ‘लोगों को जोड़ने’ का दावा करती है.

श्रमिकों से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली एक ग़ैर-लाभकारी संस्था ‘आजीविका ब्यूरो’ के प्रोजेक्ट मैनेजर कमलेश और अन्य लोगों ने मिलकर उनके मामले को आगे बढ़ाया. इस संस्था तक पहुंचने के लिए आजीविका हेल्पलाइन नंबर- 1800 1800 999 के साथ ब्यूरो के अधिकारियों के फ़ोन नंबर उपलब्ध कराए जाते हैं.

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बांसवाड़ा के ये मज़दूर हर साल काम की तलाश में पलायन करने वाले लाखों मज़दूरों में शामिल हैं. ज़िले के चुड़ादा गांव के सरपंच जोगा पित्ता कहते हैं, “कुशलगढ़ में बहुत से प्रवासी हैं. सिर्फ़ खेती करके हमारा गुज़ारा नहीं चल पाता.”

खेत के छोटे-छोटे जोत, सिंचाई की कमी, रोज़गार के अभाव और इन सब के ऊपर ग़रीबी ने इलाक़े को भील आदिवासियों के पलायन का गढ़ बना दिया है. यहां की 90 प्रतिशत आबादी भील आदिवासियों की है. इंटरनेशनल इंस्टिटयूट फ़ॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट विश्लेषण के मुताबिक़ सूखे, बाढ़ और गर्मी की लहर (हीट वेव) जैसे चरम मौसमी बदलावों ने पलायन में तेज़ी ला दी है.

कुशलगढ़ के व्यस्त बस स्टैंड से हर दिन क़रीब 40 सरकारी बसें एक बार में 50-100 लोगों को लेकर जाती हैं. इसके अलावा लगभग इतनी ही निजी बसें भी चलती हैं. सूरत की टिकट 500 रुपए में आती है और कंडक्टर बताते हैं कि वे बच्चों के टिकट के पैसे नहीं लेते.

सुरेश मेडा बस में जगह पाने के लिए जल्दी पहुंच जाते हैं और सूरत जाने वाली बस में अपनी पत्नी व तीन छोटे बच्चों को बिठाते हैं. सामान चढ़ाने के लिए वह उतरते हैं और पांच किलो आटा, थोड़े बर्तन और कपड़ों से भरी बोरी बस के पीछे की तरफ़ सामान रखने वाली जगह पर रखते हैं और फिर से बस में चढ़ जाते हैं.

Left: Suresh Maida is from Kherda village and migrates multiple times a year, taking a bus from the Kushalgarh bus stand to cities in Gujarat.
PHOTO • Priti David
Right: Joga Pitta is the sarpanch of Churada village in the same district and says even educated youth cannot find jobs here
PHOTO • Priti David

बाएं: सुरेश मेडा खेरदा गांव से हैं और साल में एक से ज़्यादा बार पलायन करते हैं. कुशलगढ़ बस स्टैंड से वह गुजरात के अलग-अलग शहरों के लिए बस पकड़ते हैं. दाएं: जोगा पित्ता चुड़ादा गांव के सरपंच हैं और बताते हैं कि यहां पढ़े-लिखे युवाओं के लिए भी नौकरी नहीं है

At the Timeda bus stand (left) in Kushalgarh, roughly 10-12 busses leave every day for Surat and big cities in Gujarat carrying labourers – either alone or with their families – looking for wage work
PHOTO • Priti David
At the Timeda bus stand (left) in Kushalgarh, roughly 10-12 busses leave every day for Surat and big cities in Gujarat carrying labourers – either alone or with their families – looking for wage work
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कुशलगढ़ के टिमेड़ा बस स्टैंड (बाएं) से रोज़ क़रीब 10 से 12 बसें गुजरात के सूरत और अन्य बड़े शहरों के लिए रवाना होती हैं. इनमें ज़्यादातर मज़दूर चलते हैं, जो काम की तलाश में अकेले या अपने परिवार के साथ यात्रा करते हैं

“मैं हर रोज़ 350 रुपए के आसपास कमाऊंगा,” भील आदिवासी मज़दूर सुरेश पारी को बताते हैं; उनकी पत्नी को रोज़ के 250-300 रुपए मिलेंगे. सुरेश को उम्मीद है कि वे लौटने से पहले एक या दो महीने तक काम करेंगे. फिर घर पर 10 दिन रहने के बाद, दोबारा काम पर निकल जाएंगे. सुरेश (28) कहते हैं, “दस साल ज़्यादा समय से जीवन इसी तरह चल रहा है.” सुरेश जैसे प्रवासी मज़दूर आम तौर पर होली, दिवाली और रक्षाबंधन जैसे बड़े त्योहारों में घर आते हैं.

राजस्थान से बड़ी मात्रा में बाहर के राज्यों में पलायन होता है. यहां काम के लिए आने वाले लोगों के बनिस्पत काम के लिए बाहर जाने वाले लोग ज़्यादा हैं. मज़दूरी के लिए पलायन के मामले में राजस्थान सिर्फ़ उत्तर प्रदेश और बिहार से पीछे है. कुशलगढ़ तहसील कार्यालय के अधिकारी वी. एस राठौड़ कहते हैं, “यहां खेती ही कमाई का एकमात्र साधन है. और यह भी साल में बस एक बार, बारिश के बाद की जा सकती है.”

सभी मज़दूर कायम वाले काम की आस में रहते हैं, जिसमें पूरे अंतराल के लिए वे एक ठेकेदार के साथ काम करते हैं. इसमें रोकड़ी या दिहाड़ी - जिसके लिए हर सुबह मज़दूर मंडी में खड़ा होना पड़ता है - के बनिस्पत ज़्यादा स्थिरता होती है.

जोगाजी ने सभी बच्चों को पढ़ाया-लिखाया है, लेकिन “यहां बेरोज़गारी ज़्यादा है. पढ़े-लिखे लोगों के लिए भी नौकरी नहीं है.”

ऐसे में पलायन ही आख़िरी सहारा बचता है.

राजस्थान से बड़ी मात्रा में बाहर के राज्यों में पलायन होता है. यहां काम के लिए आने वाले लोगों के बनिस्पत काम के लिए बाहर जाने वाले लोग ज़्यादा हैं. मज़दूरी के लिए पलायन के मामले में राजस्थान सिर्फ़ उत्तर प्रदेश और बिहार से पीछे है

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मरिया पारू जब घर से निकलती हैं, तो साथ में मिट्टी का तवा साथ ले जाती हैं. इसके बिना वह नहीं चलती हैं. वह बताती हैं कि मिट्टी के तवे पर मकई की रोटी बढ़िया बनती है. उनके मुताबिक़, लकड़ी के चूल्हे पर जब रोटी पकती है, तो मिट्टी का तवा उसे जलने नहीं देता. यह बताते हुए वह मुझे रोटी पकाकर दिखाती भी हैं.

मरिया और उनके पति पारू दामोर जैसे लाखों भील आदिवासी राजस्थान के बांसवाड़ा ज़िले से दिहाड़ी के काम की तलाश में गुजरात के सूरत, अहमदाबाद, वापी जैसे शहरों में तथा अन्य पड़ोसी राज्यों में पलायन करते हैं. साल में 100 दिन काम देने का वादा करने वाली महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के बारे में बताते हुए पारू कहती हैं, “मनरेगा में जल्दी काम नहीं मिलता और पूरा भी नहीं पड़ता.”

तीस साल की मरिया अपना साथ मकई का 10-15 किलो आटा भी ले जाती हैं. वह कहती हैं, “हम लोग इसे खाना पसंद करते हैं.” उनका परिवार साल में नौ महीने घर से दूर रहता है. डुंगरा छोटा में स्थित अपने घर से दूर रहते हुए ‘घर’ का भोजन सुकून देता है.

इस दंपति के तीन से 12 बरस के छः बच्चे हैं और गांव में उनके पास दो एकड़ ज़मीन है. इस पर वे अपने खाने के लिए गेहूं, चना और मक्का उगाते हैं. “काम की तलाश में घर छोड़े बिना हमारा गुज़ारा नहीं चलता. घर पर मां-बाप को पैसा भेजना पड़ता है, सिंचाई का ख़र्च उठाना होता है, मवेशियों के लिए चारा ख़रीदना होता, घरवालों का पेट पालना पड़ता है...,” पारू पूरा हिसाब गिनाते हैं. “इसलिए हमें पलायन करना पड़ता है.”

पहली बार उन्होंने आठ साल की उम्र में बड़े भाई और बहन के साथ पलायन किया था, जब परिवार के ऊपर अस्पताल के ख़र्चों के चलते 80,000 रुपए का क़र्ज़ चढ़ गया था. उन्हें याद है, “सर्दियों के दिन थे. मैं अहमदाबाद गया था और रोज़ के 60 रुपए कमाता था.” सभी भाई-बहन वहां चार महीना रहे थे और क़र्ज़ चुकाने में कामयाब हुए थे. वह कहते हैं, “मुझे इस बात के लिए अच्छा लगा था कि मैं भी कुछ मदद कर पाया था.” दो महीने बाद वह फिर से काम पर चले गए थे. तीस की उम्र पार कर चुके पारू लगभग 25 साल से पलायन कर रहे हैं.

Left: Maria Paaru has been migrating annually with her husband Paaru Damor since they married 15 years ago. Maria and Paaru with their family at home (right) in Dungra Chhota, Banswara district
PHOTO • Priti David
Left: Maria Paaru has been migrating annually with her husband Paaru Damor since they married 15 years ago. Maria and Paaru with their family at home (right) in Dungra Chhota, Banswara district
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बाएं: मरिया पारू की 15 साल पहले शादी हुई थी, जिसके बाद से वह अपने पति पारू दामोर के साथ हर साल काम की तलाश में पलायन करती रही हैं. मरिया और पारू, बांसवाड़ा के डुंगरा छोटा गांव में अपने परिवार के साथ घर (दहिना) पर

'We can’t manage [finances] without migrating for work. I have to send money home to my parents, pay for irrigation water, buy fodder for cattle, food for the family…,' Paaru reels off his expenses. 'So, we have to migrate'
PHOTO • Priti David
'We can’t manage [finances] without migrating for work. I have to send money home to my parents, pay for irrigation water, buy fodder for cattle, food for the family…,' Paaru reels off his expenses. 'So, we have to migrate'
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‘काम की तलाश में घर छोड़े बिना हमारा गुज़ारा नहीं चलता. घर पर मां-बाप को पैसा भेजना पड़ता है, सिंचाई का ख़र्च उठाना होता है, मवेशियों के लिए चारा ख़रीदना होता, घरवालों का पेट पालना पड़ता है...,’ पारू पूरा हिसाब गिनाते हैं. ‘इसलिए हमें पलायन करना पड़ता है’

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मज़दूरों को उम्मीद रहती है कि काम की अवधि ख़त्म होने पर उन्हें इतने पैसे मिल जाएंगे कि क़र्ज़ चुका पाएंगे, उनके बच्चों के स्कूल की फ़ीस भरी जा सकेगी, और सबका पेट भरा जा सकेगा. आजीविका द्वारा संचालित राज्य के मज़दूर हेल्पलाइन नंबर पर हर महीने तक़रीबन 5,000 कॉल आती है, जिसमें बकाया मजूरी न मिलने की समस्या से निपटने के लिए क़ानूनी मदद की गुहार लगायी गई होती है.

“दिहाड़ी मज़दूरी के काम में लिखा-पढ़ी नहीं होती, सबकुछ मुंह-ज़बानी तय होता है. मज़दूरों को एक ठेकेदार से दूसरे ठेकेदार के पास भेज दिया जाता है.” कमलेश कहते हैं. उनका अनुमान है कि सिर्फ़ बांसवाड़ा ज़िले के मज़दूरों का करोड़ों रुपया बकाया होगा.

वह आगे कहते हैं, “उन्हें लोगों को सही-सही पता ही नहीं चलता कि असली ठेकेदार कौन है, वे किसके लिए काम कर रहे हैं. इसलिए बकाया रक़म को हासिल करने की प्रक्रिया लंबी और हताश कर देने वाली होती है.” कमलेश का काम ऐसा है कि उन्हें इसका अंदाज़ा मिल जाता है कि प्रवासियों का किस तरह शोषण किया जा रहा है.

बीते 20 जून, 2024 को 45 वर्षीय भील आदिवासी राजेश दामोर और दो अन्य मज़दूर बांसवाड़ा में स्थित उनके कार्यालय में मदद मांगने आए. गर्मी अपना चरम पर थी, लेकिन मज़दूरों के ग़ुस्से और परेशानी का कारण कुछ और था. जिस ठेकेदार ने उन्हें काम पर रखा था उसके पास उनके सामूहिक रूप से 226,000 रुपए बकाया थे. इसकी शिकायत के लिए जब वे कुशलगढ़ तहसील के पाटन पुलिस स्टेशन गए, तो पुलिस ने उन्हें आजीविका के श्रमिक सहायता एवं संदर्भ केंद्र भेज दिया.

अप्रैल में राजेश और 55 अन्य मज़दूर सुखवाड़ा पंचायत से 600 किमी दूर स्थित गुजरात के मोरबी के लिए रवाना हुए. उन्हें वहां की एक टाइल फैक्ट्री में निर्माण स्थल पर मज़दूरी और राजगीरी के काम के लिए बुलाया गया था. दस कुशल मज़दूर को दिहाड़ी के 700 रुपए मिलने थे, और बाक़ियों को हर रोज़ 400 रुपए दिए जाने थे.

एक महीने काम करने के बाद, “हमने ठेकेदार से बकाया पैसे देने को कहा, लेकिन वो टालता रहा,” राजेश पारी को फ़ोन पर बताते हैं. राजेश को भीली, वागड़ी, मेवाड़ी, हिंदी और गुजराती बोलनी आती है, इसलिए उन्हें बातचीत में सबसे आगे रखा जाता है. जिस ठेकेदार के पास उनका पैसा बकाया था वह मध्य प्रदेश के झाबुआ का था और हिंदी बोलता था. अक्सर मज़दूर भाषा की समस्या के चलते मुख्य ठेकेदार से सीधे बात नहीं कर पाते हैं, और उन्हें उसके चेलों व छुटभैयों से बात करनी पड़ती है. कई बार जब मज़दूर अपना बकाया मांगते हैं, तो ठेकेदार उनके साथ मारपीट करते हैं.

सभी 56 मज़दूर हफ़्तों तक बकाये के पैसों का इंतज़ार करते रहे. घर में खाने के लाले पड़ने लगे थे, और बचा-खुचा पैसा हाट से सामान ख़रीदने में उड़ रहा था.

Rajesh Damor (seated on the right) with his neighbours in Sukhwara panchayat. He speaks Bhili, Wagdi, Mewari, Gujarati and Hindi, the last helped him negotiate with the contractor when their dues of over Rs. two lakh were held back in Morbi in Gujarat

राजेश दामोर (दाईं तरफ़ बैठे) सुखवाड़ा पंचायत में अपने पड़ोसियों के साथ. वह भीली, वागड़ी, मेवाड़ी, गुजराती और हिंदी बोलना जानते हैं. गुजरात के मोरबी में दो लाख से ज़्यादा रुपए की बकाया मज़दूरी के लिए ठेकेदार से बातचीत करने में हिन्दी जानना उनके काम आया

“ठेकेदार भुगतान को बार-बार टालता रहा- पहले बोला 20 मई को दूंगा, फिर कहा 24 मई, 4 जून...” राजेश याद करते हैं. “हमने उससे पूछा कि ‘हम पेट कैसे भरेंगे? हम अपने घरों से इतने दूर हैं.’ हारकर, हमने आख़िर के 10 दिनों का काम बंद कर दिया. हमें लगा कि शायद इससे ठेकेदार पर दबाव पड़ेगा.” उन्हें भुगतान के लिए 20 जून की आख़िरी तारीख़ दी गई.

मज़दूर अनिश्चितताओं से घिरे हुए थे, लेकिन अब वहां रुक पाने में असमर्थ थे, इसलिए सभी 56 मज़दूरों ने 9 जून को कुशलगढ़ की बस पकड़ी और घर लौट गए. राजेश ने जब 20 जून को ठेकेदार को फ़ोन किया, तो “वह बदतमीज़ी से बात की, मोल-भाव करने लगा और गाली बकने लगा.” इसके बाद, राजेश और अन्य मज़दूरों को मजबूरन पास के पुलिस थाने जाना पड़ा.

राजेश के पास 10 बीघा ज़मीन है, जिस पर उनका परिवार सोयाबीन, कपास और अपने खाने के लिए गेहूं उगाता है. उनके चारों बच्चे पढ़ाई करते हैं और स्कूल व कॉलेज में हैं. फिर भी इस बार गर्मी के सीज़न में उन्होंने मां-बाप के साथ मज़दूरी की. “छुट्टी के दिन थे, इसलिए मैंने उन्हें साथ आने को कहा, ताकि कुछ पैसे कमा सकें.” उनको उम्मीद है कि अब परिवार को पैसे मिल जाएंगे, क्योंकि ठेकेदार के ख़िलाफ़ लेबर कोर्ट में केस होने की चेतावनी दे दी गई है.

लेबर कोर्ट में मामला जाने की बात से ठेकेदारों पर अपना वादा पूरा करने का दबाव पड़ता है. लेकिन इसके लिए मज़दूरों को मामला दर्ज कराने में मदद की ज़रूरत पड़ती है. पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश के अलीराजपुर में सड़क का काम करने के लिए इस ज़िले से गए 12 मज़दूरों के समूह को तीन महीने काम करने के बाद पूरे पैसे नहीं मिले. ठेकेदार ने ख़राब काम का हवाला देकर मज़दूरी के 4-5 लाख रुपए देने से मना कर दिया.

“हमारे पास फ़ोन आया कि वे मध्य प्रदेश में फंसे हुए हैं और उन्हें मज़दूरी नहीं मिली है,” टीना गरासिया बताती हैं, जिन्हें फ़ोन पर अक्सर इस तरह के कॉल आते रहते हैं. वह बांसवाड़ा ज़िले में स्थित आजीविका ब्यूरो की प्रमुख हैं, और आगे बताती हैं, “हमारे नंबर मज़दूरों के पास होते हैं.”

इस बार मज़दूर कार्यस्थल से जुड़ी जानकारी, हाज़िरी रजिस्टर की तस्वीरें, ठेकेदार के नाम और मोबाइल नंबर वगैरह के साथ तैयार थे, ताकि मामला दर्ज किया जा सके.

छः महीने बाद ठेकेदार ने दो क़िस्तों में पैसा चुकाया. “वह हमारी मज़दूरी देने यहां [कुशलगढ़] आया,” मज़दूरों ने बताया, जिन्हें उनके पैसे मिल गए थे. हालांकि, मज़दूरी मिलने में हुई देरी के लिए उन्हें कोई हर्जाना नहीं मिला.

For unpaid workers, accessing legal channels such as the police (left) and the law (right) in Kushalgarh is not always easy as photographic proof, attendance register copies, and details of the employers are not always available
PHOTO • Priti David
For unpaid workers, accessing legal channels such as the police (left) and the law (right) in Kushalgarh is not always easy as photographic proof, attendance register copies, and details of the employers are not always available
PHOTO • Priti David

जिन मज़दूरों को उनकी मजूरी नहीं मिली उनके लिए कुशलगढ़ में पुलिस (बाएं) और क़ानूनी (दाएं) सहायता पाना आसान नहीं होता, क्योंकि उनके पास सबूत के तौर पर तस्वीर, हाज़िरी रजिस्टर की प्रतियां, और ठेकेदार से जुड़ी जानकारी कई बार नहीं होती

कमलेश शर्मा कहते हैं, “पहले हम बातचीत से मसला सुलझाने की कोशिश करते हैं. लेकिन ये तभी संभव हो पाता है, जब ठेकेदार के बारे में सभी जानकारी उपलब्ध हो.”

कपड़ा कारखाना में काम करने के लिए सूरत गए 25 मज़दूरों के पास कोई सबूत नहीं था. टीना कहती हैं, “उन्हें एक ठेकेदार से दूसरे ठेकेदारों के पास भेजा गया था, और उनके पास कोई फ़ोन नंबर या ठेकेदार की पहचान के लिए कोई नाम नहीं था. एक जैसे दिखाई देने वाले तमाम कारखानों के बीच वे अपनी फैक्ट्री की पहचान नहीं कर पाए.”

उत्पीड़न का शिकार होने और 6 लाख रुपए का भुगतान न मिलने के बाद, वंचित मज़दूर बांसवाड़ा के कुशलगढ़ और सज्जनगढ़ लौट आए.

सामाजिक कार्यकर्ता कमलेश इस तरह के मामलों में क़ानूनी तौर पर शिक्षित होने पर बहुत ज़ोर देते हैं. बांसवाड़ा ज़िला राज्य की सीमा पर स्थित है और यहां से सबसे ज़्यादा पलायन होता है. कुशलगढ़, सज्जनगढ़, अंबापाड़ा, घाटोल और गंगर तलाई के अस्सी प्रतिशत परिवारों में कम से कम एक सदस्य ज़रूर पलायन करता है.

कमलेश को उम्मीद करते हैं कि “नई पीढ़ी के पास फ़ोन हैं, वे नंबर सेव कर सकते हैं, तस्वीरें ले सकते हैं, और इसलिए भविष्य में दोषी ठेकेदारों को आसानी से पकड़ा जा सकेगा.”

उद्योग-धंधों से जुड़े विवादों के निपटारे के लिए केंद्र सरकार ने 17 सितंबर, 2020 को देशव्यापी समाधान पोर्टल लॉन्च किया था. साल 2022 में श्रमिकों को अपने दावे दाख़िल करने की अनुमति देने के लिए इसमें बदलाव किए गए. लेकिन विकल्प के तौर पर मौजूद होने के बावजूद इसका बांसवाड़ा में कोई कार्यालय नहीं है.

Kushalgarh town in Banswara district lies on the state border and is the scene of maximum migration. Eighty per cent of families in Kushalgarh, Sajjangarh, Ambapara, Ghatol and Gangar Talai have at least one migrant, if not more, says Aajeevika’s survey data
PHOTO • Priti David
Kushalgarh town in Banswara district lies on the state border and is the scene of maximum migration. Eighty per cent of families in Kushalgarh, Sajjangarh, Ambapara, Ghatol and Gangar Talai have at least one migrant, if not more, says Aajeevika’s survey data
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बांसवाड़ा का कुशलगढ़ राज्य की सीमा पर पड़ता है, और यहां सबसे ज़्यादा पलायन देखने को मिलता है. कुशलगढ़, सज्जनगढ़, अंबापाड़ा, घाटोल और गंगर तलाई के अस्सी फ़ीसदी परिवारों में कम से कम एक सदस्य पलायन ज़रूर करता है

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मज़दूरी तय करने से जुड़े फ़ैसलों में महिला मज़दूरों का कोई दख़ल नहीं होता. उनके पास अपना फ़ोन नहीं होता, और काम व मज़दूरी परिवार के मर्दों के ज़रिए उन तक पहुंचती है. कांग्रेस नेता अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली राज्य की पिछली सरकार ने औरतों के बीच 13 करोड़ से ज़्यादा फ़ोन मुफ़्त में बांटने का कार्यक्रम शुरू किया था. गहलोत सरकार जब तक सत्ता में थी, तब तक 25 लाख फ़ोन ग़रीब औरतों के बीच बांटे गए थे. पहले चरण में, प्रवासी परिवारों की विधवा औरतों और 12वीं में पढ़ने वाली लड़कियों के बीच फ़ोन बांटे गए थे.

भारतीय जनता पार्टी के भजन लाल शर्मा की वर्तमान सरकार ने “योजना के लाभ की जांच होने तक” इस कार्यक्रम पर रोक लगा दी है. पद की शपथ लेने के मुश्किल से एक महीने बाद लिए गए शुरुआती फ़ैसलों में से एक यह भी था. स्थानीय लोगों को इस योजना के फिर से चालू होने की उम्मीद कम है.

ख़ुद की कमाई पर अपना हक़ न रहने के चलते ज़्यादातर महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव व यौन शोषण, और पति द्वारा छोड़ दिए जाने जैसी मुश्किलों में बढ़ोतरी देखने को मिलती है. पढ़ें: बांसवाड़ा: शादी की आड़ में लड़कियों की तस्करी

“मैंने गेहूं साफ़ किया और वह 5-6 किलो मक्के के आटे के साथ उसे भी ले गया. उसने ये सब लिया और चला गया,” संगीता बताती हैं. वह भील आदिवासी हैं और अब अपने मां-बाप के साथ कुशलगढ़ ब्लॉक के चुड़ादा गांव में रह रही हैं. शादी के बाद जब पति कमाने के लिए सूरत गया, तो वह भी उसके साथ गई थीं.

Sangeeta in Churada village of Kushalgarh block with her three children. She arrived at her parent's home after her husband abandoned her and she could not feed her children
PHOTO • Priti David
Sangeeta in Churada village of Kushalgarh block with her three children. She arrived at her parent's home after her husband abandoned her and she could not feed her children
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कुशलगढ़ ब्लॉक के चुड़ादा गांव में अपने तीन बच्चों के साथ संगीता. जब पति ने उन्हें छोड़ दिया और वह अपने बच्चों का पेट भरने में असमर्थ हो गईं, तो अपने मां-बाप के घर आ गईं

Sangeeta is helped by Jyotsna Damor to file her case at the police station. Sangeeta’s father holding up the complaint of abandonment that his daughter filed. Sarpanch Joga (in brown) has come along for support
PHOTO • Priti David
Sangeeta is helped by Jyotsna Damor to file her case at the police station. Sangeeta’s father holding up the complaint of abandonment that his daughter filed. Sarpanch Joga (in brown) has come along for support
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थाना में मामला दर्ज कराने में ज्योत्सना दामोर ने संगीता की मदद की है. संगीता को पति द्वारा छोड़ दिए जाने की शिकायत के काग़ज़ात के साथ उनके पिता. सरपंच जोगा (भूरे कपड़ों में) समर्थन में आए हैं

वह बताती हैं, “मैं निर्माण के काम में मदद करती थी.” उनकी कमाई उनके पति को थमा दी जाती थी. “मुझे ये अच्छा नहीं लगता था.” जब उनके बच्चे पैदा हुए - उनके सात साल, पांच साल और चार साल के तीन बेटे हैं - उन्होंने साथ जाना बंद कर दिया. “हम घर और बच्चों को संभालती थी.”

एक साल से ज़्यादा समय हो चुका था, और उन्होंने अपने पति को नहीं देखा था, न ही उनके पति ने पैसे ही भेजे. “मैं मां-बाप के घर आ गई, क्योंकि बच्चों का पेट भरने के लिए कुछ था ही नहीं...”

आख़िर में, वह इस साल जनवरी में कुशलगढ़ के पुलिस थाने में शिकायत लेकर गईं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की साल 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ (पति या रिश्तेदारों द्वारा की गई) क्रूरता के मामलों में राजस्थान तीसरे नंबर पर आता है.

कुशलगढ़ थाने के अधिकारी स्वीकार करते हैं कि औरतों के साथ ज़्यादती के मामले बढ़ रहे हैं. लेकिन, वे बताते हैं कि ज़्यादातर मामले उन तक नहीं पहुंचते, क्योंकि गांव के मर्दों का समूह - बांजड़िया - इस तरह के मामलों में फ़ैसले लेता है, और पुलिस के बगैर ही मामलों को रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाता है. एक स्थानीय निवासी के मुताबिक़, “बांजड़िया दोनों पक्षों से पैसे खाता है. इंसाफ़ का बस दिखावा किया जाता है, और औरतों को कभी न्याय नहीं मिलता.”

संगीता की परेशानी बढ़ती जा रही है. उनके रिश्तेदार बताते हैं कि उनका पति किसी दूसरी महिला के साथ है और उससे शादी करना चाहता है. संगीता कहती हैं, “मुझे ख़राब लगता है कि उस आदमी ने मेरे बच्चों को दुख दिया है, एक साल से उन्हें देखने भी नहीं आया. बच्चे पूछते हैं, ‘क्या वो मर गए?’ मेरा बड़ा बेटा अपने पिता को गालियां देता है और मुझसे कहता है, ‘मम्मी, जब पुलिस उन्हें पकड़ेगी, तो आप भी पीटना!’” संगीता के होंठों पर फीकी सी मुस्कान आ जाती है.

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Menka (wearing blue jeans) with girls from surrounding villages who come for the counselling every Saturday afternoon
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मेनका (नीली जींस में) के साथ आसपास के गांवों की लड़कियां हैं, जो हर शनिवार की दोपहर काउंसलिंग के लिए आती हैं

शनिवार की एक दोपहर खेरपुर के उजाड़ से पंचायत कार्यालय में 27 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता मेनका दामोर युवा लड़कियों से बात कर रही हैं, जो कुशलगढ़ ब्लॉक के पांच पंचायतों से आई हैं.

“तुम्हारा सपना क्या है?” वह अपने इर्द-गिर्द गोल घेरा बनाकर बैठीं 20 लड़कियों से सवाल करती हैं. ये लड़कियां प्रवासी कामगारों की बेटियां हैं और अपने मां-बाप के साथ पलायन कर चुकी हैं; शायद फिर से करेंगी. युवा लड़कियों के लिए संचालित किशोरी श्रमिक कार्यक्रम का प्रबंधन संभालने वाली मेनका बताती हैं, “ये लड़कियां कहती हैं कि अगर हम स्कूल पहुंच भी जाते हैं, तो आख़िर में पलायन ही करना पड़ता है.”

वह चाहती हैं कि ये लड़कियां पलायन से परे अपने भविष्य के बारे में सोच पाएं. वागड़ी और हिन्दी में बोलते हुए वह अलग-अलग काम और पेशों से जुड़े लोगों के कार्ड दिखाती हैं, जिसमें कैमरामैन, वेटलिफ्टर, ड्रेस डिज़ाइनर, स्केटबोर्डर, मास्टर, इंजीनियर आदि शामिल हैं. वह उनसे कहती हैं, “तुम लोग जो चाहो वह बन सकती हो, और इसके लिए मेहनत कर सकती हो.”

“पलायन आख़िरी विकल्प नहीं है.”

अनुवाद: देवेश

Priti David

प्रीति डेविड, पारी की कार्यकारी संपादक हैं. वह मुख्यतः जंगलों, आदिवासियों और आजीविकाओं पर लिखती हैं. वह पारी के एजुकेशन सेक्शन का नेतृत्व भी करती हैं. वह स्कूलों और कॉलेजों के साथ जुड़कर, ग्रामीण इलाक़ों के मुद्दों को कक्षाओं और पाठ्यक्रम में जगह दिलाने की दिशा में काम करती हैं.

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Editor : P. Sainath

पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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Translator : Devesh

देवेश एक कवि, पत्रकार, फ़िल्ममेकर, और अनुवादक हैं. वह पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के हिन्दी एडिटर हैं और बतौर ‘ट्रांसलेशंस एडिटर: हिन्दी’ भी काम करते हैं.

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