“मेला वाला जगह पर कबो बिसाल सखुआ के गाछ (पेड़) होखत रहे. हिजला गांव आउर लगे के इलाका के लोग इहंवा जुटे आउर कवनो बिषय पर बिचार-बिमर्श करके हल निकाले खातिर बैसी (बैठकी) करे. अंगरेज लोग के ई सभ देख के खतरा महसूस भइल, ऊ लोग गाछ काटे के तय कइलक. मानल जाला कि गांव के लोग के बिरोध के बावजूद गाछ कटइला से, ओकरा से खून टपके लागल. आउर फेरु गाछ पथरा गइल.”
झारखंड के दुमका जिला में जहंवा ई गाछ होखत रहे, उहंई बइठ के राजेंद्र बास्की सदियन पुरान ऊ कहानी सुनावत बाड़न. तीस बरिस के एह आदमी के कहनाम बा, “ओह गाछ के तना अबहियो उहंवा मौजूद बा. अब ई देवता मारंग बुरु के पूजा स्थल बन गइल बा. संताल (जेकरा संथाल भी कहल जाला) कबीला के लोग झारखंड, बिहार आउर बंगाल से पूजा करे इहंवा आवेला.” बास्की किसान बाड़न आउर मारंग बुरु के नयका नायकी (पुजारी) बाड़न.
हिजला गांव दुमका शहर के बाहिर, संताल परगना डिवीजन में पड़ेला. साल 2022 के जनगणना के अनुसार इहंवा के आबादी 640 बा. अंगरेजी हुकूमत के खिलाफ संताल लोग के नामी बिद्रोह, हूल आंदोलन 30 जून, 1855 के दिन भइल रहे. ई बिद्रोह सिदो मुर्मू आउर कान्हू मुर्मू के अगुआई में हिजला से कोई सौ किमी दूर भगनाडीह गांव (जेकरा भोगनाडीह नाम से भी जानल जाला) में सुरु भइल रहे.
हिजला गांव, हिजला पहाड़ी लगे बसल बा. ई पहाड़ी राजमहल पर्वतमाला के बिस्तार बा. एहि से रउआ गांव में कहूं से चले के सुरु करीं, एक चक्कर लगइला के बाद वापिस उहंई पहुंच जाएम.
हमनी के पुरखा उहंवा गाछ के नीचे बइठ के पूरा साल के नियम-कायदा तय करत रहस, पचास बरिस के सुनीलाल हांसदा कहलन. सुनीलाल साल 2008 से गांव के मुखिया बाड़न. उनकर कहनाम बा, बैठकी करे खातिर ई बहुते नामी आ माफिक जगह बा.
हिजला में हांसदा के 12 बीघा जमीन बा. एह पर खरीफ के मौसम में खेती कइल जाला. बाकी के महीना में ऊ दुमका जाके निर्माण स्थल पर दिहाड़ी मजूरी करेलन. जे दिन काम मिलेला, उनकरा 300 रुपइया के कमाई हो जाला.
मांरग बुरु से जुड़ल हिजला में एगो जरूरी मेला के भी आयोजन कइल जाला. ई मेला फरवरी में बसंत पंचमी के आस-पास मयूराक्षी नदी किनारे लागेला. झारखंड सरकार ओरी से जारी कइल गइल एगो नोटिस के हिसाब से एह मेला के सुरुआत साल 1890 में, अंगरेज अफसर, संताल परगना के तब के उपायुक्त आर. कास्टेयर कइले रहस.
हिजला मेला हर बरिस, बस कोविड-19 महामारी घरिया के दू बरिस छोड़ के, खूब धूमधाम से मनावल जाला. ई बात दुमका के सिदो-कान्हू मुर्मु विश्वविद्यालय में संताली के प्रोफेसर डॉ. शर्मिला सोरेन पारी के बतइली. मेला में भाला, तलवार से लेके ढोल (ड्रम) आउर दउरा (बांस के टोकरी) जइसन तरह-तरह के सामान लावल जाला आउर बेचल जाला. मरद-मेहरारू लोग के मनभावन नाच-गाना भी होखेला.
बाकिर रोजगार खातिर गांव से हो रहल पलायन चलते, “मेला में अब आदिवासी संस्कृति के रंग देखे के ना मिले,” मारंग बुरु के पुरान नायकी, 60 बरिस के सीताराम सोरेन कहले. ऊ इहो बतइले, “मेला से हमनी के परंपरा, संस्कृति गायब हो रहल बा आउर दोसर (शहरी) संस्कृति हावी हो रहल बा.”
अनुवाद: स्वर्ण कांता