मुश्किल से कुछ अरसे पहले ही उन्होंने उड़ीसा सरकार द्वारा पॉस्को कंपनी के लिए बलपूर्वक किए जा रहे ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ बेहद मज़बूती से प्रतिरोध दर्ज कराया था, और पूरे देश ने उनका पुलिस के साथ आमना-सामना होते हुए देखा था. भले ही ऊपरी तौर पर सही, लेकिन आज धिनकिया और गोविंदपुर गांव बेफ़िक नज़र आता है.

अभय साहू मुस्कुराते हुए कहते हैं, “ऐसा कुछ हद तक इसलिए भी है कि पुलिस की 24 पलटन पुरी में जगन्नाथ रथ यात्रा में व्यस्त हैं [जहां उन्होंने साधुओं को भी पीटा]. वहां उनकी कुछ दिनों के लिए ज़रूरत थी” साहू, पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के प्रमुख नेता हैं, जो भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रही है. वह कहते हैं कि अभी की ख़ामोशी का एक अन्य कारण है: “जून माह में हुई गड़बड़ी के बाद संभवतः उड़ीसा सरकार इस बात के लिए चिंतित होगी कि कहीं उसे एक बार फिर से शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े. वह भी तब, जब संसद का सत्र शुरू होने में कुछ ही दिन बचे हैं.” इसलिए, संघर्ष को रोक दिया गया है. पॉस्को का विरोध कर रहे ग्रामीणों ने अंतिम दौर में जीत हासिल कर ली थी - ज़मीन पर भी और मीडिया में भी. लेकिन, जैसा कि ग्रामीणों का मानना है, पुलिस भगवान जगन्नाथ के लकड़ी के रथ  की सेवा में केवल दो सप्ताह के लिए ही लगाई गई है. “पॉस्को के स्टील के रथ के प्रति उनकी आस्था पूरे साल बनी रहती है. वे ज़रूर वापस आएंगे.”

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एक बात तो तय है कि पुलिस जब लौटेगी, तो उसे जुझारू और ज़िद्दी लोगों का सामना करना पड़ेगा. दक्षिण कोरिया की इस बड़ी कंपनी के प्रस्तावित एकीकृत बिजली और स्टील प्लांट व बंदरगाह के लिए राज्य सरकार द्वारा लोगों की खेतिहर ज़मीन के अधिग्रहण के ख़िलाफ़ लामबंद हैं. इस परियोजना के तहत 6 मिलियन (60 लाख) टन लौह अयस्क के खनन की भी अनुमति दी गई है.

पान के बगीचे

यहां के लोग ओडिशा के समृद्ध कृषि समुदायों में से हैं. पान की खेती पर टिकी यह अर्थव्यवस्था उनकी प्रगति के केंद्र में है. आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, इस परियोजना क्षेत्र में पान के लगभग 18,00 बगीचे आते हैं, जबकि किसान यह संख्या 2,500 बताते हैं. इनमें से क़रीब 1,000 बगीचे धिनकिया और गोविंदपुर में हैं. यहां की दैनिक मज़दूरी दर 200 रुपए या उससे ज़्यादा है, जिसके साथ भोजन भी दिया जाता है. राज्य के कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली यह सबसे ज़्यादा दिहाड़ी है. यह राशि भुवनेश्वर में निर्माण-स्थलों पर काम करने वाले श्रमिकों को मिलने वाली मजूरी की तुलना में अधिक है, और ओडिशा में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत मिलने वाले पारिश्रमिक से दोगुनी है. किसी-किसी दिन बगीचे में ख़ास कामों के लिए 450 रुपए भी दिए जाते हैं, साथ में भोजन भी मिलता है. एक एकड़ के दसवें हिस्से जितनी ज़मीन पर वर्ष में 540 कामकाजी दिन का काम कराने की ज़रूरत पड़ती है. यह आंकड़ा पूरे परिवार द्वारा किए जाने वाले 600 कामकाजी दिनों के श्रम से इतर है. कुछ भूमिहीन श्रमिक मछुआरे के तौर पर काम करके और अधिक कमा लेते हैं. अगर जटाधारी में पॉस्को के तहत प्रस्तावित बंदरगाह आ जाता है, तो आय का यह स्रोत ख़त्म हो जाएगा. इसलिए, स्थानीय लोग परियोजनाओं के नौकरी पैदा करने के दावों का मखौल उड़ाते हैं, और मज़दूरों की कमी और रोज़गार की कोई बड़ी मांग न होने की ओर इशारा करते हैं. सभी वर्गों के लोग, यहां तक कि व्यापारी भी, ऐसी परियोजना के लिए अपनी आजीविका खोने को तैयार नहीं है जो उन्हें विनाशकारी लगती है और इसके बदले में मिल रहे मुआवजे को वे अर्थहीन समझते हैं.

मामले और वारंट

ऊपरी तौर पर जो शांति यहां नज़र आ रही है उसके नीचे पॉस्को विरोधी आंदोलन से निपटने के राज्य के तरीक़ों के कारण बड़ा तनाव पनप रहा है. काफ़ी बड़ी संख्या में लोगों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज किए गए हैं - और अनगिनत वारंट जारी हो चुके हैं - और बहुत से लोग पांच साल से इन गांवों से बाहर तक नहीं जा पाए हैं. धिनकिया और गोविंदपुर की रखवाली के लिए पुलिस के ख़िलाफ़ "मानव दीवार" बनाकर खड़े हो जाने वाले प्रदर्शनकारियों ने हमें बताया, “बहुत लोग दूसरे गांवों में पारिवारिक शादियों में शामिल नहीं हो सकते. वे बीमार भाई-बहनों या माता-पिता से मिलने नहीं जा सकते हैं.” इससे घेराबंदी में होने की भावना को बढ़ावा मिला है.

अभय साहू पर 49 मुक़दमे दर्ज हैं और उन्हें इनसे लड़ते हुए 10 महीने चौद्वार जेल में गुज़ारने पड़े थे. वह कहते हैं, "यहां के एक हज़ार से अधिक लोगों के ख़िलाफ़ पॉस्को का विरोध करने के कारण 177 मामले दर्ज किए गए हैं." ऐसा लगता है कि ओडिशा और उसके आसपास के राज्यों में नीतिगत कार्रवाई के तहत विस्थापन के ख़िलाफ़ आंदोलन करने वाले प्रदर्शनकारियों को अपराधी घोषित करने की कोशिश चल रही है. कलिंगनगर से बमुश्किल सौ किलोमीटर की दूरी पर टाटा स्टील प्लांट लगाने के लिए जारी भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ प्रतिरोध जताने वाले आदिवासियों के नेता रबी जारिका रहते हैं. “मैं सालों से अपने गांव चंदिया के बाहर नहीं जा सका. पुलिस ने मुझ पर 72 केस दर्ज किए हैं और हर मौजूद धारा के तहत मामला दर्ज किया है.”

जगतसिंहपुर ज़िले के पुलिस अधीक्षक एस. देवदत्त सिंह ने पीपीएसएस की गिनती को "पूरी तरह ग़लत" बताया है. उन्होंने हमें दिल्ली से फ़ोन पर बताया, “बहुत होंगे, तो 200-300 ऐसे उपद्रवी होंगे जिनके ख़िलाफ़ मामले दर्ज किए गए हैं. पीपीएसएस द्वारा प्रताड़ित लोगों ने भी मामले दर्ज कराए हैं, जिनमें वे 52 परिवारों भी शामिल हैं जिन्हें उन्होंने जबरन बाहर निकाला था. अगर ऐसे निर्दोष लोग भी हैं जो गिरफ़्तारी के डर से बाहर नहीं निकल रहे हैं, तो उन्हें पीपीएसएस द्वारा गुमराह किया गया होगा.”

साल 2005 का क़रार

उधर धिनकिया में, साहू हालिया शांति के बारे में सही प्रतीत होते हैं. ज़मीनी लड़ाई के थम जाने के पीछे बरसात शुरू हो जाना भी एक कारण है, लेकिन राजनीतिक तौर पर शर्मिंदगी का डर अधिक प्रबल कारण नज़र आता है. हाल ही में, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने राज्य से परियोजना क्षेत्र में "बच्चों की शिक्षा के लिए बने स्कूलों में डेरा डालकर बैठे पुलिसबलों को हटाने" के लिए कहा है. परियोजना का विरोध करने वालों का कहना है कि जिस प्रोजेक्ट के समझौते के दस्तावेज़ (एमओयू) की अवधि एक साल पहले ख़त्म हो गई थी, उसके लिए सरकार जबरन जमीन अधिग्रहण कर रही है. राज्य और निगम के बीच 2005 में हुए समझौते में पॉस्को को बाज़ार मूल्य से बहुत कम दरों पर खनिज दे दिया गया था. अहम सरकारी सूत्रों का कहना है कि "15 दिनों में नवीकरण होने की संभावना है." लेकिन एमओयू न होने के बावजूद राज्य सरकार परियोजना के लिए 4,004 एकड़ भूमि का अधिग्रहण करने से नहीं रुकी. इसमें से क़रीब आधी ज़मीन धिनकिया और गोविंदपुर में आती है.

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ओडिशा इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के सीएमडी और भूमि अधिग्रहण के प्रभारी अधिकारी प्रियब्रत पटनायक ने घोषणा की है: "भूमि अधिग्रहण करने के लिए हमारे पास एमओयू होना अनिवार्य नहीं है. हमने ऐसे उद्योगों के लिए 9,000 एकड़ से अधिक ज़मीन का अधिग्रहण और आवंटन किया है जिनका राज्य के साथ कोई समझौता नहीं हुआ है.”

ओडिशा सरकार के प्रमुख सचिव बिजय कुमार पटनायक ‘द हिंदू’ से कहते हैं, "हम केवल सरकारी भूमि का अधिग्रहण कर रहे हैं. यहां का अधिकांश हिस्सा जंगल है और हम निजी ज़मीन (जो कुल ज़मीन का एक छोटा सा हिस्सा है) अधिग्रहित नहीं करेंगे. वह कहते हैं, “पान के बगीचे हाल में ही लगे हैं. हालांकि, ग्रामीणों के अनुसार सर्वे रिकॉर्ड बताते हैं कि 1927 में पान के खेत मौजूद थे. पान के अपने बगीचे में खड़ी गुज्जरी मोहंती कहती हैं, "हम लोग तो यहां और भी लंबे समय से रहते आ रहे हैं." क़रीब 70 वर्ष की गुज्जरी "बेहद छोटी उम्र से ही इस काम में लगी हुई हैं."

देवदत्त सिंह ज़ोर देकर कहते हैं: “प्रोजेक्ट ज़ोन के सात गांवों में से गोविंदपुर और धिनकिया, जहां प्रतिरोध जारी है, को छोड़कर बाक़ी गांवों में बिना किसी बाधा के काम हो रहा है. मेरा मानना है कि गोविंदपुर में भी बहुमत पीपीएसएस के साथ नहीं है, केवल धिनकिया में ऐसा हो सकता है. अभी हम पहले पांच गांवों में काम निपटा रहे हैं. फिर हम बाक़ियों के पास जाएंगे. यहां कोई युद्ध नहीं चल रहा है. हम अपना काम ही कर रहे हैं. लेकिन, मैं इस बात पर कोई चर्चा नहीं कर सकता कि हमारी कितनी पलटन वहां तैनात है या हमारी योजना क्या है.

उनका कहना सही है कि यहां कोई युद्ध नहीं चल रहा है - क्योंकि एक पक्ष के लड़ाकों का समूह पूरी तरह से निहत्था है. लेकिन, अगर पुलिस धिनकिया और गोविंदपुर में फिर से आएगी, तो पॉस्को के स्टील रथ को उस मानव दीवार से टकराना पड़ सकता है.

इस स्टोरी का एक संस्करण 13 जुलाई 2011 को ‘द हिंदू’ में छपा था. इसे यहां से पढ़ा जा सकता है.

अनुवाद: डॉ. तरुशिखा सर्वेश

पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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Translator : Dr. Tarushikha Sarvesh

डॉ. तरुशिखा सर्वेश, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उन्नत महिला अध्ययन केंद्र में समाजशास्त्र की सहायक प्रोफ़ेसर और शोधकर्ता हैं. वह एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं, और गुणात्मक शोधों के लिए ज़मीनी अध्ययन करने में विशेषज्ञता रखती हैं.

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