असम के दरंग ज़िले के न-माटी गांव की बांस की टोकरी बनाने वाली माजेदा बेगम कहती हैं, "अगर यह पेशा ख़त्म हुआ, तो मेरे पास दूसरे राज्यों में जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचेगा."

25 साल की शिल्पकार माजेदा दिहाड़ी मज़दूर और अकेली मां हैं, जिन्हें अपने 10 साल के बेटे और बीमार मां का भरण-पोषण करना पड़ता है. वह स्थानीय मिया बोली में कहती हैं, "मैं एक दिन में 40 खासा [टोकरियां] बना सकती हूं, पर अब केवल 20 ही बुनती हूं." माजेदा 20 टोकरियां बुनने के एवज़ में 160 रुपए कमाती हैं, जो राज्य में तयशुदा न्यूनतम वेतन 241.92 रुपए से काफ़ी कम है.

बांस की टोकरियां बेचने से मिलने वाले मुनाफ़े पर बांस की बढ़ती क़ीमतों और सब्ज़ी मंडियों में टोकरियों की गिरती मांग दोनों का असर पड़ा है. दरंग में असम की दो सबसे बड़ी मंडियां हैं- बेचीमारी और बालुगांव, जहां से पूरे पूर्वोत्तर भारत और दिल्ली तक कृषि उपज की आपूर्ति होती है.

जबरन प्रवास पर जाने की माजेदा की आशंकाएं असली हैं. हनीफ़ अली (39) कहते हैं कि क़रीब 80 से 100 परिवार "बेहतर काम" की तलाश में पहले ही जा चुके हैं. उन्होंने हमें स्थानीय मदरसे के पास वार्ड ए घुमा रहे हैं. एक समय तक़रीबन डेढ़ सौ परिवार बांस का काम करते थे. अब यहां कई घर खाली पड़े हैं, क्योंकि शिल्पकार कॉफ़ी बागानों में काम करने केरल और कर्नाटक चले गए हैं.

PHOTO • Mahibul Hoque
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बाएं: असम के दरंग ज़िल के न-माटी गांव में माजेदा बेगम बांस की टोकरियां बुनती हैं और एक दिन में 40 टोकरियां बना सकती हैं, लेकिन घटती मांग के कारण अब 20 टोकरियां बुनती हैं. दाएं: हनीफ़ अली टोली (टोकरियों का आधार) बनाने की प्रक्रिया दिखाते हैं, जो बुनाई की दिशा में पहला क़दम होता है

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बाएं: सिराज अली, जो बांस की टोकरी बनाने के पारिवारिक व्यवसाय में हैं, कहते हैं कि प्लास्टिक के बोरे टोकरियों की मांग में गिरावट के लिए ज़िम्मेदार हैं. दाएं: जमीला ख़ातून काम की तलाश में दूसरे राज्यों में नहीं जा सकतीं, क्योंकि उनके दो बच्चे गांव के स्कूल में पढ़ने जाते हैं

कोविड-19 लॉकडाउन के बाद से बिक्री काफ़ी कम हो गई है. सिराज अली कहते हैं, ''पहले हम हर हफ़्ते 400 से 500 खासा बेचते थे, अब केवल 100 से 150 ही बेच पाते हैं.'' सिराज (28) अपना घरेलू बांस की टोकरी का व्यवसाय चलाते हैं. वह आगे कहते हैं, “सब्ज़ी कारोबारियों ने महामारी के दौरान अपनी उपज पैक करने और इकट्ठा करने के लिए प्लास्टिक ट्रे और बोरियों का इस्तेमाल शुरू कर दिया था. तब हम अपनी टुकरी [बांस की छोटी टोकरियां] नहीं बेच पाते थे.”

सिराज पांच लोगों के अपने परिवार के साथ वार्ड ए में रहते हैं. उनका कहना है, “हम सभी काम करने के बावजूद एक सप्ताह में सिर्फ़ 3,000 से 4,000 रुपए ही कमा पाते हैं. मज़दूरों को उनकी मज़दूरी देने और बांस की ख़रीद में ख़र्चा करने के बाद मेरे परिवार की कमाई घटकर 250-300 रुपए रोज़ की रह जाती है.” नतीजा यह कि उनके परिवार के कई सदस्य कॉफ़ी बागानों में काम करने कर्नाटक चले गए. वह कहते हैं, ''अगर यूं ही चलता रहा, तो मुझे भी जाना होगा.''

मगर हर कोई जा भी नहीं सकता. घर में बैठी एक और टोकरी बुनकर 35 साल की जमीला ख़ातून कहती हैं, “मैं [प्रवासी की तरह] केरल नहीं जा सकती, क्योंकि मेरे दो बच्चे यहां स्कूल जाते हैं.” गांव के ज़्यादातर दूसरे घरों की तरह उनके घर में भी शौचालय या गैस सिलेंडर कनेक्शन नहीं है. वह कहती हैं, “हम निजी स्कूलों का ख़र्चा नहीं उठा सकते. अगर हम बाहर जाएंगे, तो बच्चों की पढ़ाई बर्बाद हो जाएगी.”

बांस की टोकरियां बुनने वाले गांव के ज़्यादातर लोग मौजूदा बांग्लादेश के मैमनसिंह के प्रवासियों के वंशज हैं, जो ब्रिटिश शासन के दौरान अपने घर छोड़कर आए थे. तब यह अविभाजित बंगाल होता था. 'मिया' का शाब्दिक अर्थ 'सज्जन' है, लेकिन अक्सर असमिया राष्ट्रवादी इन बांग्ला निवासियों को "अवैध निवासी" के बतौर इंगित करने के लिए इस शब्द का अपमानजनक ढंग से इस्तेमाल करते हैं.

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बाएं: न-माटी गांव बांस की टोकरी बुनने वालों का केंद्र है, जिनमें से अधिकांश मिया समुदाय से हैं. दाएं: मियारुद्दीन छोटी उम्र से ही टोकरियां बुन रहे हैं. वह बांस की टोकरियां बेचकर अपने पांच सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण करते हैं

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आधार (बाएं) से ही टोकरी के आकार का निर्धारण होता है. जब आधार तैयार होता है, तो महिलाएं इसमें पतली पट्टियां बुनना (दाएं) शुरू कर देती हैं

गुवाहाटी से क़रीब 110 किलोमीटर दूर न-माटी गांव दरंग ज़िले में बांस शिल्प का केंद्र है, जहां पारंपरिक रूप से बांस की टोकरियां बुनी जाती हैं. स्थानीय तौर पर इन्हें खासा कहते हैं. यहां के कीचड़ भरे रास्ते और गलियां हमें लगभग 50 परिवारों के दो समूहों की ओर जाते हैं, जहां ये बांग्लाभाषी मुसलमान टांनी नदी के बाढ़ के मैदानों पर बसे हैं. ये या तो घने बांस फूस के या टिन की दीवारों वाले घरों में या कुछ कंक्रीट के घरों में रहते हैं.

इलाक़े का नाम खासापट्टी है, यानी 'बांस की टोकरी का इलाक़ा’ और यहां के अधिकांश घर बांस की टोकरियों के ढेर से घिरे रहते हैं. चापोरी समूह में घर के बाहर बुनाई कर रहीं 30 वर्षीय मुर्शिदा बेगम कहती हैं, "मेरे जन्म से पहले से हमारे इलाक़े के लोग लालपूल, बेचीमारी और बालुगांव मंडियों में रोज़ वाली और साप्ताहिक सब्ज़ी मंडियों में बांस की टोकरियां बेचते आ रहे हैं."

हनीफ़ के परिवार की तीन पीढ़ियां इसी कारोबार में रही हैं. वह कहते हैं, “खासापट्टी की बात करते ही लोगों को पता चल जाता है कि आप इसी गांव के बारे में बात कर रहे हैं. हालांकि, हर कोई इस शिल्प से नहीं जुड़ा है, फिर भी यहीं खासा बुनकरों की पहली पीढ़ी ने अपना काम शुरू किया था."

हनीफ़ इस शिल्प को ज़िंदा रखने के लिए सरकारी मदद पाने की कोशिश में हैं और गांव में बांस के शिल्पकारों का पंजीकृत स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) बनाने का प्रयास कर रहे हैं. उन्हें उम्मीद है, "अगर सरकार हमें वर्कशॉप लगाने के लिए तकनीकी और आर्थिक मदद दे देगी, तो यह हुनर ज़िंदा रहेगा."

मुस्लिम समुदाय ने इस काम को इसलिए अपनाया था, क्योंकि उनके पास ज़मीनें नहीं थीं और वे खेती नहीं कर सकते थे. वार्ड ए के टोकरी बुनकर और सामाजिक कार्यकर्ता 61 साल के अब्दुल जलील कहते हैं, "बांस की टोकरियां सब्ज़ी के कारोबार की शृंखला का अभिन्न हिस्सा हैं, क्योंकि यह इलाक़ा खेती पर निर्भर है."

वह बताते हैं, “यहां के लोगों को अपनी उपज बाज़ारों तक ले जाने के लिए टोकरियों की ज़रूरत थी और विक्रेताओं को सब्ज़ियां लाने-ले जाने के लिए उन्हें पैक करना होता था. इसलिए हम पीढ़ियों से ये टोकरियां बना रहे हैं.”


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बाएं: मुर्शिदा बेगम के इलाक़े के बहुत से परिवार पलायन करके कर्नाटक और केरल जैसे अन्य राज्यों में चले गए हैं. दाएं: टोकरी बनाने वाले और सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल जलील कहते हैं, 'हम इस काम में अपना ख़ून-पसीना बहाते हैं, लेकिन इसकी उचित क़ीमत नहीं मिलती है'

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बाएं: मुंसेर अली दो दशकों से भी अधिक समय से टोकरी निर्माताओं को बांस बेच रहे हैं. दाएं: बिक्री में गिरावट के बीच, बुनकरों के घर में टोकरियों का ढेर लगता जाता है

बांस की टोकरियों की ऊंची क़ीमतों की वजह कच्चे माल की ख़रीद में होने वाले ज़्यादा ख़र्च को भी मानते हैं. चापोरी समूह के 43 वर्षीय बांस शिल्पकार अफ़ाज उद्दीन के मुताबिक़ हर 50 रुपए की टोकरी के लिए उन्हें क़रीब 40 रुपए ख़र्च करने होते हैं, जिसमें बांस, धागा, बुनकरों का पैसा और ढुलाई की लागत शामिल होती है.

मुंसेर अली दो दशक से ज़्यादा वक़्त से जगह-जगह से बांस इकट्ठा करके बेचीमारी बाज़ार में बेच रहे हैं. मुंसेर (43) के अनुसार, परिवहन इसमें बड़ी रुकावट होती है. मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम 2019 के तहत ओवरलोडिंग करने पर 20,000 रुपए का जुर्माना लगता है और हर अतिरिक्त टन भार पर 2,000 रुपए देने पड़ते हैं.

हालांकि, असम की हस्तशिल्प नीति ( 2022 ) में यह तय किया गया है कि बांस को उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी राज्य के बांस मिशन और वन विभाग की दूसरी एजेंसियों और पंचायतों की है.

क़ीमतें बढ़ने के साथ ही मुंसेर अली के प्रमुख ग्राहक यानी बांस की टोकरी बनाने वाले घट गए हैं. वह कहते हैं, “उन्हें हर बांस की छड़ी 130-150 रुपए में ख़रीदनी पड़ती है. अगर उन्हें इसे 100 रुपए में बेचना पड़े, तो फिर क्या मतलब है?”

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अब्दुल जलील कहते हैं, खासा बनाने की लंबी-चौड़ी प्रक्रिया बांस हासिल करने से शुरू होती है. उन्होंने बताया, “क़रीब 20-30 साल पहले हम बांस इकट्ठा करने दरंग के गांवों में जाते थे. मगर जैसे ही बांस बाग़ानों में कमी के साथ इसका मिलना दुर्लभ हुआ, कारोबारियों ने इसे कार्बी आंगलोंग और लखीमपुर ज़िलों जैसी दूसरी जगहों या अरुणाचल प्रदेश और दूसरे पहाड़ी इलाक़ों से लाना शुरू कर दिया."

देखें: असम में प्लास्टिक की भेंट चढ़ी बांस की टोकरी

न-माटी के बहुत से परिवार बांस से जुड़ी शिल्पकारी करते थे. अब घर खाली पड़े नज़र आते हैं, क्योंकि ये शिल्पकार कॉफ़ी बाग़ानों में काम करने के लिए केरल और कर्नाटक चले गए हैं

बांस के पेड़ को घर लाने के बाद, बुनकर परिवार के पुरुष टोकरी का आधार बनाने के लिए नीचे से 3.5 फ़ीट से 4.5 फ़ीट तक के अलग-अलग आकार की बेटी (पट्टियां) काटते हैं. जोड़ने वाली पट्टियां बनाने के लिए 8, 12 या 16 फ़ीट की पट्टियां बीच से काटी जाती हैं और फिर ऊपरी सिरे का इस्तेमाल टोकरी के ऊपरी हिस्से को पूरा करने के लिए पट्टियां बनाने में होता है.

अपेक्षाकृत मोटी पट्टियों का इस्तेमाल टोकरी की टोली (आधार या फ़्रेम) बनाने में होता है. जलील बताते हैं, “टोली से टोकरी का आकार तय होता है. एक बार आधार बनने के बाद महिलाएं और बच्चे उन्हें बीच से घुमाकर पतली पट्टियां बुनते हैं. इन पट्टियों को पेचनी बेटी कहा जाता है.”

उन्होंने आगे बताया, “सबसे ऊपर बुनाई पूरी करने के लिए मज़बूत पट्टियों को दो-तीन बार दोहरा कर बांधा जाता है, जिसे हम पेचनी कहते हैं. टोकरी पूरी करने के लिए आधार के बचे हुए सिरे को तोड़कर बुने हुए बांस के धागों में डाल दिया जाता है. हम इस प्रक्रिया को मुड़ी भांगा कहते हैं.”

मुर्शिदा कहती हैं कि पूरा काम हाथ से होता है. उनके अनुसार “बांस को ज़रूरी आकार में काटने के लिए हम आरी इस्तेमाल करते हैं. बांस का तना काटने के लिए हम कुरहाइल [कुल्हाड़ी] या दाओ [चाकू] इस्तेमाल करते हैं. बांस के धागे बनाने के लिए बहुत तेज़ छुरी होती हैं. टोकरियों के ऊपरी सिरे बांधने के लिए हम तोलिर बेटी के बचे हुए सिरों को पेचनी बेटी में डालने के लिए बटाली [छेनी] जैसा औज़ार इस्तेमाल करते हैं."

मुड़ी भांगा और टोली भांगा की प्रक्रिया छोड़ दें तो एक टोकरी बुनने में क़रीब 20-25 मिनट लगते हैं. साप्ताहिक बाज़ार से एक दिन पहले महिलाएं कभी-कभी रात में जितना हो सके अधिक से अधिक टोकरियां बना लेती हैं. इस काम से उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर ख़राब असर पड़ता है.

मुर्शिदा कहती हैं, ''हमें पीठ में दर्द होता है और हमारे हाथों में घट्टे पड़ जाते हैं. हमें बांस के नुकीले हिस्से चुभ जाते हैं. कभी-कभी बांस के सुई जैसे टुकड़े हमारी खाल में चुभ जाते हैं, जिससे बहुत दर्द होता है. साप्ताहिक बाज़ार से पहले हम देर रात तक काम करते हैं और अगले दिन दर्द के कारण सो नहीं पाते.”

यह स्टोरी मृणालिनी मुखर्जी फ़ाउंडेशन (एमएमएफ़) से मिली फेलोशिप के तहत लिखी गई है.

अनुवाद: अजय शर्मा

Mahibul Hoque

महीबुल हक़, असम के एक मल्टीमीडिया पत्रकार और शोधकर्ता हैं. वह साल 2023 के पारी-एमएमएफ़ फ़ेलो हैं.

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Editor : Shaoni Sarkar

शावनी सरकार, कोलकाता की स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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Translator : Ajay Sharma

अजय शर्मा एक स्वतंत्र लेखक, संपादक, मीडिया प्रोड्यूसर और अनुवादक हैं.

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