“एक दिन मैं भी भारत के लिए ओलंपिक में एक मैडल जीतना चाहती हूं,” डामर की बनी सड़क पर लंबी दौड़ लगाने के बाद अपनी बेक़ाबू होती सांसों को नियंत्रित करने की कोशिश करती हुई वह कहती है. यह सड़क उनकी स्पोर्ट्स अकेडमी की बगल से गुज़रती है. चार घंटों की कड़ी मेहनत के बाद आख़िरकार उनके थके और चोटिल नंगे पांवों को रुककर थोड़ी देर आराम करने की मोहलत मिली है.

क़रीब 13 साल की उम्र की यह लंबी दौड़ की धाविका किसी आधुनिकता की सनक के कारण नंगे पांव नहीं हैं. “मैं नंगे पावों से इसलिए दौड़ती हूं, क्योंकि मेरे मां-बाप दौड़ने वाले महंगे जूते ख़रीदने में असमर्थ हैं,” वह कहती है.

वर्षा कदम, परभणी के खेतिहर मज़दूर विष्णु और देवशाला की बेटी हैं. परभणी, सूखे से जूझने वाले मराठवाड़ा के सबसे ग़रीब ज़िलों में से एक है. उनका परिवार मातंग समुदाय से संबंध रखता है, जो महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध है.

“मुझे दौड़ लगाना बहुत पसंद है,” जब वह ऐसा कहती है, तो उसकी आंखों में एक अनोखी चमक दिखती है. “पांच किलोमीटर की बुलढाणा अर्बन फ़ॉरेस्ट मैराथन मेरी पहली दौड़ थी, जो मैंने 2021 में पूरी की थी. मैं बहुत ख़ुश थी, क्योंकि मैं दूसरे स्थान पर रही थी और मैंने अपने जीवन का पहला मेडल भी जीता था. मैं अधिक से अधिक मुक़ाबले जीतना चाहती हूं,” दृढसंकल्प से भरी यह किशोरी कहती है.

उसके मां-बाप दौड़ के प्रति उसके जुनून को उसी समय समझ गए थे, जब वह केवल आठ साल की थी. “मेरे मामा पाराजी गायकवाड़ एक प्रांतीय स्तर के एथलीट थे. अब वह सेना में हैं. उन्हीं से प्रभावित होकर मैंने भी दौड़ना शुरू किया था,” वह आगे बताती है. साल 2019 में राज्य-स्तरीय अंतर्विद्यालय प्रतियोगिता में चार किलोमीटर की लंबी एक क्रॉस-कंट्री दौड़ में उसे दूसरा स्थान मिला और “उस दौड़ ने मुझे आगे भी दौड़ते रहने के लिए ज़रूरी आत्मविश्वास दिया.”

arsha Kadam practicing on the tar road outside her village. This road used was her regular practice track before she joined the academy.
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Right: Varsha and her younger brother Shivam along with their parents Vishnu and Devshala
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बाएं: अपने गांव के बाहर डामर की सड़क पर अभ्यास करती वर्षा कदम. अकेडमी आने से पहले यही सड़क उसका प्रैक्टिस ट्रैक हुआ करती थी. दाएं: अपने माता-पिता - विष्णु और देवशाला - और छोटे भाई शिवम के साथ वर्षा

महामारी के कारण मार्च 2020 से उसका स्कूल जाना बंद हो गया. “मेरे माता-पिता के पास ऑनलाइन कक्षाओं के लिए फ़ोन [स्मार्टफ़ोन] नहीं था,” वर्षा बताती है. उस खाली समय का उपयोग उसने दौड़ने के लिए अभ्यास करने के लिए किया. वह सुबह के समय दो घंटे और शाम के समय दो घंटे दौड़ने की प्रैक्टिस करने लगी.

अक्टूबर 2020 में 13 साल की उम्र में उसने श्री समर्थ एथलेटिक्स  रेसिडेंशियल स्पोर्ट्स अकेडमी में दाख़िला लिया, जो महाराष्ट्र के परभणी ज़िले के पिम्पलगांव ठोम्बरे के बाहरी हिस्से में स्थित था.

अकेडमी में वंचित समुदायों के 13 अन्य बच्चे भी प्रशिक्षण लेते हैं. इनमें आठ लड़के और पांच लड़कियां हैं. इनमें से कुछ एथलीट राज्य में विशेष रूप से वंचित जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) से आते हैं. उनके माता-पिता किसान, गन्ने की कटाई करने वाले श्रमिक, खेतिहर मज़दूर और भयानक सूखे की समस्या से ग्रस्त मराठवाड़ा क्षेत्र से आए विस्थापित दिहाड़ी मज़दूर हैं.

यहां से प्रशिक्षण पाने के बाद इन किशोर उम्र के एथलीटों ने प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन किया है, और उनमें से कईयों ने तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व भी किया है.

शानदार प्रदर्शन करने वाले एथलीट साल भर अकेडमी में रहते हैं और वहीं से परभणी के स्कूल-कॉलेजों में अपनी पढ़ाई करने जाते हैं. परभणी वहां से कोई 39 किलोमीटर दूर है. ये एथलीट सिर्फ़ छुट्टियों में ही अपने-अपने घर लौटते हैं. “उनमें से कुछ सुबह के स्कूल में जाते हैं और बाक़ी दोपहर में जाते हैं. उनके अभ्यास का समय उसी हिसाब से निर्धारित किया जाता है,” अकेडमी के संस्थापक रवि रासकाटला बताते हैं.

“इस इलाक़े के बच्चों में खेलकूद के क्षेत्र में पर्याप्त संभावनाएं हैं, लेकिन उनके लिए एक कैरियर के रूप में खेलकूद का चुनाव करना इसलिए बहुत कठिन है, क्योंकि उनके परिवारों को दो वक़्त के भोजन के लिए भी कड़ा संघर्ष करना पड़ता है,”  रवि कहते हैं. साल 2016 में इस अकेडमी की शुरुआत करने से पहले तक वह ज़िला परिषद के स्कूलों में खेलकूद का प्रशिक्षण देते थे. “मैंने बहुत छोटी उम्र के ग्रामीण बच्चों का चुनाव किया और उन्हें मुफ़्त में सबसे बढ़िया प्रशिक्षण देने का फ़ैसला किया,” 49 साल के ये कोच बताते हैं जिन्हें इन एथलीटों के प्रशिक्षण, भोजन और जूतों के लिए अच्छे प्रायोजकों की तलाश रहती है.

Left: Five female athletes share a small tin room with three beds in the Shri Samarth Athletics Sports Residential Academy.
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Right: Eight male athletes share another room
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बाएं: श्री समर्थ एथलेटिक्स स्पोर्ट्स रेसिडेंशियल अकेडमी की पांच महिला एथलीट. ये पांचों लड़कियां अकेडमी के तीन बिस्तर वाले एक ही कमरे में रहती हैं, जिसकी छत टीन की है. दाएं: एक अन्य कमरे में आठ पुरुष एथलीट रहते हैं

The tin structure of the academy stands in the middle of fields, adjacent to the Beed bypass road. Athletes from marginalised communities reside, study, and train here
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अकेडमी का अस्थायी भवन टीन का बना है, जिसे नीले रंग में रंग दिया गया है. यह भवन एक मैदान के बीच में है, जिसके क़रीब से ही बीड बाईपास की सड़क गुज़रती है. वंचित समुदायों के एथलीटों को यहां मुफ़्त प्रशिक्षण मिलता है, और उनके रहने और पढ़ने की व्यवस्था भी यहीं है

अकेडमी का अस्थायी भवन टीन से निर्मित है, जिसे नीले रंग में रंग दिया गया है. यह भवन एक मैदान के बीच में है, जिसके क़रीब से ही बीड बाईपास की सड़क गुज़रती है. अकेडमी डेढ़ एकड़ की एक ज़मीन पर बनी है, जो परभणी की एक एथलीट ज्योति गवते के पिता शंकरराव की है. वह राज्य परिवहन विभाग के कार्यालय में चपरासी थे, और ज्योति की मां एक रसोइया का काम करती हैं.

“हम टीन की छत वाले एक घर में रहा करते थे. जब मेरे पास कुछ पैसे इकट्ठे हुए, तब मैंने किसी तरह अपना ख़ुद का एक एक मंज़िला घर बनवाया. मेरे भाई जो महाराष्ट्र पुलिस में कांस्टेबल हैं वह भी अब पहले से अधिक कमाते हैं,” ज्योति बताती हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन दौड़ को समर्पित कर दिया है. उन्हें लगा कि उनका परिवार अपनी कृषियोग्य ज़मीन को ‘रवि सर’ के स्पोर्ट्स अकेडमी को देने में सक्षम है. उनके माता-पिता और भाई ने भी उनके इस विचार का समर्थन किया. “हमने मिलजुल कर यह फ़ैसला किया.”

अकेडमी में टीन के बने केवल दो कमरे हैं. उन कमरों का आकार लगभग 15 X 20 फीट है और दोनों कमरों के बीच की दीवार भी टीन से से ही बनाई गई है. एक कमरे में पांच लड़कियां रहती हैं. उनके लिए तीन बिस्तर लगे हैं, जो अकेडमी को दानकर्ताओं से मिले हैं. दूसरा कमरा लड़कों का है, जो कंक्रीट की फ़र्श पर बिछी गद्दों पर सोते हैं.

दोनों कमरों में एक-एक ट्यूबलाइट और पंखा लगा है. वे तभी चलते हैं, जब बिजली आती है और बिजली की स्थिति यहां बहुत अच्छी नहीं है. गर्मियों में इस इलाक़े का तापमान 42 डिग्री तक बढ़ जाता है और सर्दियों में पारा लुढ़ककर 14 डिग्री तक नीचे जा पहुंचता है.

महाराष्ट्र की राज्य खेलकूद नीति, 2012 के अनुसार, राज्य के लिए इन खिलाड़ियों के प्रदर्शन में सुधार के उद्देश्य से स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, अकेडमी, प्रशिक्षण-शिविर और खेलकूद के उपकरणों को मुहैया कराना अनिवार्य है.

हालांकि, जैसा रवि बताते हैं, “दस साल बाद आज भी ये नीतियां केवल काग़ज़ों पर ही हैं. इसके वास्तविक क्रियान्वयन की दिशा में कोई पहल नहीं की गई है. सरकार ऐसी प्रतिभाओं की पहचान तक करने में नाकाम रही है. खेलकूद विभाग के अधिकारियों में इससे संबंधित कार्यक्रमों को लेकर घोर उदासीनता का वातावरण है.

यहां तक कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक द्वारा 2017 में पेश की गई ऑडिट रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि तालुका स्तर से प्रान्त-स्तर तक खेलकूद के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचों के विकास की सरकार की खेल-नीति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने से अभी भी बहुत दूर है.

Left: Boys showing the only strength training equipments that are available to them at the academy.
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Right: Many athletes cannot afford shoes and run the races barefoot. 'I bought my first pair in 2019. When I started, I had no shoes, but when I earned some prize money by winning marathons, I got these,' says Chhagan
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बाएं: अकेडमी में शक्ति प्रशिक्षण के लिए उपलब्ध एकमात्र उपकरण को दिखाते हुए लड़के. दाएं: ऐसे अनेक एथलीट हैं जो जूते का ख़र्च नहीं उठा सकते हैं और प्रतियोगिताओं में नंगे पांव दौड़ते हैं. ‘मैंने अपने लिए जूते की पहली जोड़ी 2019 में ख़रीदी. जब मैंने दौड़ना शुरू किया था, तब मेरे पास जूते नहीं थे. लेकिन जब मैराथनों में जीत हासिल करने के बाद मैंने पुरस्कार से कुछ पैसे कमाए, तब अपने लिए नए जूते ख़रीदे,’ छगन कहती हैं

Athletes practicing on the Beed bypass road. 'This road is not that busy but while running we still have to be careful of vehicles passing by,' says coach Ravi
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बीड बाईपास की सड़क पर अभ्यास करते एथलीट. ‘यह सड़क बहुत व्यस्त नहीं रहती है, लेकिन दौड़ते हुए हमें सड़क से गुज़रती हुई गाड़ियों से सावधान रहना पड़ता है,’ कोच रवि कहते हैं

रवि बताते हैं कि अकेडमी के रोज़मर्रा के ख़र्च का जुगाड़ करने के लिए वह निजी कोचिंग देते हैं. “मेरे बहुत से छात्र जो अब सफल और जानेमाने मैराथन धावक हैं, वे पुरस्कारों में मिली धनराशि से अकेडमी की मदद करते हैं.”

अपने सीमित वित्तीय संसाधनों और सुविधाओं के बाद भी अकेडमी इसका विशेष ध्यान रखती है कि एथलीटों को पौष्टिक आहार मिले. उन्हें सप्ताह में तीन से चार बार चिकन या मछली दिया जाता है. अन्य दिनों में उन्हें अंडे, हरी सब्ज़ियां, केले, ज्वारी, बाजरी और भाकरी के अलावा मटकी, मूंग और चना जैसे अंकुरित अनाज और फलियां दी जाती हैं.

एथलीट डामर की सड़क पर अपनी प्रैक्टिस सुबह 6 बजे शुरू कर देते हैं और 10 बजे तक दौड़ते रहते हैं. शाम को उसी सड़क पर 5 बजे से वह ‘स्पीड वर्क’ का अभ्यास करते हैं. “यह सड़क हालांकि बहुत व्यस्त नहीं है, लेकिन फिर भी अभ्यास करते हुए हम सड़क से गुज़रती हुई गाड़ियों से ख़ासी सावधानी बरतते हैं. मैं उनकी सुरक्षा का बहुत ख़याल रखता हूं.” उनके कोच कहते हैं. “स्पीड वर्क का मतलब अधिकतम दूरी को न्यूनतम समय में पूरा करना होता है. मिसाल के तौर पर एक किलोमीटर की दूरी तय करने में 2 मिनट 30 सेकंड से अधिक का समय नहीं लगना चाहिए.”

वर्षा के माता-पिता बेसब्री से उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं, जब उनकी एथलीट बेटी का राष्ट्रीय-स्तर की एथलीट बनने का सपना पूरा होगा. साल 2021 से ही वह महाराष्ट्र में आयोजित होने वाली विभिन्न मैराथन प्रतियोगिताओं में भाग लेती आ रही है. “हम चाहते हैं कि वह दौड़ में सबसे बेहतर बन जाए. हम अपनी तरफ़ से उसका मनोबल बढ़ाने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं. हम जानते हैं कि एक दिन वह हमारा और अपने देश का नाम रोशन करेगी,” उनकी मां ख़ुशी और गर्व से कहती हैं. “हम सचमुच उसे प्रतियोगिताओं में दौड़ते हुए देखना चाहते हैं. हम देखना चाहते हैं कि वह कैसा प्रदर्शन करती है,” उनके पति विष्णु भी अपनी बात कहने से ख़ुद को रोक नहीं पाते हैं.

यह जोड़ा साल 2009 में अपनी शादी के बाद से आजीविका की तलाश में लगातार भटकता रहा है. जब उनकी सबसे बड़ी संतान - वर्षा - तीन साल की थी, तब वे दिहाड़ी पर गन्ना काटने के काम की तलाश में गांव से बाहर चले जाते थे. यह परिवार टेंट में जीवन गुज़ारता था और कभी भी एक जगह टिक कर नहीं रहता था. “ट्रकों पर लगातार सफ़र करते रहने के कारण वर्षा की तबियत बिगड़ जाती थी, इसलिए हमने बाहर जाना बंद कर दिया,” देवशाला याद करती हैं. उन्होंने गांव में ही काम तलाश करना शुरू कर दिया, “जहां महिलाओं को एक दिन का 100 रुपया और पुरुषों को 200 रुपया मिलता है,” विष्णु बताते हैं. वह स्वयं साल में छह महीने प्रवासी मज़दूर के रूप में शहर में काम करते हैं. “मैं नाशिक या पुणे जाता हूं, और वहां सुरक्षा गार्ड के रूप में या किसी निर्माण स्थल पर मज़दूर के तौर पर या नर्सरी में माली का काम करता हूं.” विष्णु 5 से 6 महीनों में 20,000 से 30,000 रुपए तक कमा लेते हैं. देवशाला घर में ही रहती हैं, ताकि उनके दो अन्य बच्चों - एक लड़की और एक लड़के - का स्कूल जाना नहीं छूटे.

अपनी तरफ़ से कोई कमी नहीं छोड़ने के बाद भी वर्षा के माता-पिता वर्षा के लिए एक जोड़ी जूते ख़रीदने में सक्षम नहीं हैं. लेकिन यह युवा एथलीट इस बात से रत्ती भर भी हतोत्साहित नहीं होती है. वह कहती है, “मैं अपनी गति बढ़ाने और दौड़ने की अपनी तकनीक पर अधिक ध्यान देने का प्रयास करती हूं.”

Devshala’s eyes fills with tears as her daughter Varsha is ready to go back to the academy after her holidays.
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Varsha with her father. 'We would really like to see her running in competitions. I wonder how she does it,' he says
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बाएं: अपनी छुट्टियां बिताने के बाद जब वर्षा वापस अकेडमी जाने के लिए तैयार हैं, तो देवशाला की आंखें आंसुओं से भर जाती हैं. दाएं: अपने पिता के साथ वर्षा. ‘हम उसे सचमुच प्रतियोगिताओं में दौड़ते हुए देखना चाहते हैं. हम देखना चाहते हैं कि वह कैसा प्रदर्शन करती है,’ वह कहते हैं

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छगन बोम्बले एक मैराथन धावक हैं, जिन्हें अपने जूतों की पहली जोड़ी ख़रीदने के लिए दौड़ प्रतियोगिता में अपनी पहली जीत का इंतज़ार करना पड़ा था. “मैंने अपने पहले जूते 2019 में ख़रीदे थे. जब मैंने दौड़ना शुरू किया, तब मेरे पास जूते नहीं थे, लेकिन जब मुझे मैराथन जीतने के पुरस्कार के रूप में थोड़ी धनराशि मिली, तब मैंने इन्हें ख़रीदा,” वह उन जूतों की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं जो फ़िलहाल उनके पांवों में है और अब बहुत घिस चुके हैं.

क़रीब 22 साल का यह एथलीट अंध जनजातीय समुदाय के एक खेतिहर मज़दूर का बेटा है, जिसके परिवार के लोग हिंगोली ज़िले के खम्बाला गांव में रहते हैं.

उनके पांवों को जूते भले ही मिल गए हैं, लेकिन जुराबों के बिना उन जूतों के चिथड़े हो चुके तलवों के कारण डामर की सड़क की कठोरता को वह अच्छी तरह से महसूस कर सकते हैं. “बेशक ये तक़लीफ़ देते हैं. सिंथेटिक ट्रैक और अच्छी क़िस्म के जूते, दोनों ही चीज़ें हमारे पैरों की हिफ़ाज़त करते हैं और हमें चोटिल होने से बचाते हैं,” वह इस रिपोर्टर को वस्तुस्थिति समझाते हुए कहते हैं. “चूंकि हम अपने माता-पिता के साथ पैदल चलने, दौड़ने-भागने खेलने-कूदने, पहाड़ों पर चढ़ने और बिना चप्पलों के खेतों में काम करने के आदी हैं, इसलिए हमारे लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है.” रोज़-बरोज़ की चोटों और कटने-फटने के मसले को खारिज़ करते वह करते हैं.

छगन के माता-पिता - मारुति और भागीरता के पास अपनी ख़ुद की ज़मीन नहीं है और उनका परिवार खेतिहर मज़दूरी से होने वाली आमदनी पर निर्भर है. “कभी हम खेत में काम करते हैं, और कभी किसानों के बैलों को घास चराने ले जाते हैं - कोई भी काम जो हमसे करने को कहा जाता है वह हम करते हैं,” मारुति बताते हैं. दोनों मिलकर एक दिन में 250 रुपए कमा लेते है. लेकिन मुश्किल यह है कि उन्हें हर महीने सिर्फ़ 15-20 दिन ही काम मिल पाता है.

उनका धावक बेटा छगन परिवार की मदद करने के लिए शहर, तालुका, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बड़े-छोटे मैराथनों में हिस्सा लेता रहता है. “पहले तीन विजेताओं को पुरस्कार में धनराशि भी मिलती है. कभी 10,000 रुपए, कभी 15,000 रुपए,” वह कहते हैं. “मुझे साल में 8 से 10 मैराथन दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने का मौक़ा मिल जाता है. इनमें से हर एक प्रतियोगिता को जीतना मुश्किल होता है. साल 2022 में मैंने दो प्रतियोगिता जीती थी और तीन में उपविजेता रहा था. मैंने तब लगभग 42,000 रुपए कमाए थे.”

Left: 22-year-old marathon runner Chhagan Bomble from Andh tribe in Maharashra
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Right: Chhagan’s house in Khambala village in Hingoli district. His parents depend on their earnings from agriculture labour to survive
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बाएं: महाराष्ट्र के अंध जनजातीय समुदाय के 22 वर्षीय मैराथन धावक छगन बोम्बले. दाएं: हिंगोली ज़िले के खम्बाला गांव में छगन का घर. उनके माता-पिता परिवार के भरण-पोषण के लिए खेतिहर मज़दूरी पर निर्भर हैं

इधर खम्बाला गांव में छगन का एक कमरे का घर मेडलों और ट्रॉफियों से भरा हुआ है. उनके माता-पिता को इन मेडलों और सर्टिफिकेट को देखकर गर्व का अनुभव होता है. “हम अनाड़ी [अनपढ़] लोग हैं. मेरा बेटा दौड़कर अपने जीवन में कुछ करेगा,” 60 साल के मारुति कहते हैं. “हमारे लिए तो यह सोने से अधिक मूल्यवान है,” छगन की 57 वर्षीया मां भागीरता दबी हुई हंसी के साथ मिट्टी के अपने घर में फैले मेडल व सर्टिफिकेट की तरफ़ इशारा करते हुए कहती हैं.

छगन कहते हैं, “मैं कुछ बड़ा करने की तैयारी में लगा हूं. मुझे ओलंपिक में हिस्सा लेना है.” उनकी आवाज़ में  एक विशिष्ट संकल्प की अनुगूंज सुनाई देती है. लेकिन उन्हें अवरोधों का अनुमान है. “हमें कम से कम खेलकूद की बुनियादी सुविधाओं की ज़रूरत है. एक धावक के लिए सबसे बेहतर प्रदर्शन का मतलब न्यूनतम समय में अधिकतम दूरी तय करना होता है, लेकिन सिंथेटिक ट्रैक और मिट्टी या डामर की सड़क पर यह समय अलग-अलग होता है. नतीजा यह होता है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दौड़ प्रतियोगिताओं या ओलिंपिक के लिए हमारे चयन में कठिनाइयां आती हैं,” वह विस्तार से समझाते हैं.

परभणी के इन उभरते हुए एथलीटों को शक्ति प्रशिक्षण के लिए दो डम्बल और चार पीवीसी जिम प्लेटों से अपना काम चलाना पड़ रहा है. “परभणी ही नहीं, पूरे मराठवाड़ा में राज्य सरकार की एक भी अकेडमी नहीं है,” रवि बताते हैं.

वायदों और नीतियों की संख्या में कोई कमी नहीं है. साल 2012 में बनी राज्य की खेलकूद नीति को अब 10 साल से ज़्यादा हो चुके हैं, जिसके तहत खेलकूद को प्रोत्साहित करने के लिए तालुका स्तर पर आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने का वायदा किया गया था. खेलो इंडिया के आने के बाद भी भी स्थितियों में बदलाव नहीं आया, जिसके अंतर्गत महाराष्ट्र सरकार को पूरे राज्य में 36 (प्रत्येक ज़िले में एक) खेलो इंडिया सेंटर की शुरुआत करनी थी.

Left: Chhagan participates in big and small marathons at city, taluka, state and country level. His prize money supports the family. Pointing at his trophies his mother Bhagirata says, 'this is more precious than any gold.'
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Right: Chhagan with his elder brother Balu (pink shirt) on the left and Chhagan's mother Bhagirata and father Maruti on the right
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बाएं: छगन लगातार शहर, तालुका, राज्य और राष्ट्रीय स्तर के बड़े-छोटे मैराथनों में हिस्सा लेते हैं. उनको पुरस्कार में मिलने वाली धनराशि से परिवार को मदद मिल जाती है. उनको मिली ट्रॉफियों को दिखाती हुईं उनकी मां भागीरता कहती हैं, ‘यह किसी भी सोने से अधिक मूल्यवान है.’ दाएं: छगन और उनके बड़े भाई बालू; साथ में मां भागीरता और पिता मारुति बाईं तरफ़ हैं

भारत के ‘स्पोर्टिंग पॉवरहाउस’ (खेलों की महाशक्ति) कहे जाने वाले ग्रामीण महाराष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर के 122 नए स्पोर्ट्स कॉप्लेक्स बनाने की मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की घोषणा पर सबकी नज़रें टिकी हैं. यह घोषणा मुख्यमंत्री ने जनवरी 2023 में महाराष्ट्र स्टेट ओलंपिक गेम आरंभ करने के अवसर पर की थी.

परभणी के ज़िला क्रीडा अधिकारी नरेंद्र पवार टेलीफ़ोन पर बताते हैं, “हम अकेडमी बनाने के लिए एक उपयुक्त स्थान की तलाश कर रहे हैं, और तालुका-स्तर के स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स का निर्माण कार्य चल रहा है.”

अकेडमी में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे एथलीट नहीं जानते हैं कि वे किस बात पर विश्वास करें. “यह दुख की बात है कि राजनेता और साधारण लोग भी हमें तभी महत्व देते हैं, जब हम ओलंपिक में मेडल जीतते हैं,” छगन कहते हैं. “तब तक हम किसी को नहीं दिखते हैं. खेलकूद की बुनियादी सुविधाओं के लिए हमारे संघर्षों को महत्व देने वाला कोई नहीं है. मुझे उस समय और बुरा लगता है, जब मैं देखता हूं कि ओलंपिक में हिस्सा लेने वाले हमारे पहलवान न्याय पाने के लिए लड़ रहे हैं, और उनकी मदद करने के बजाय उनके साथ क्रूर बर्ताव किया जाता है.”

वह मुस्कुराते हुए कहते हैं, “लेकिन हम खिलाड़ी जन्मजात योद्धा होते हैं. सिंथेटिक रनिंग ट्रैक हो या किसी अपराध के विरुद्ध न्याय का मामला हो, हम अपनी आख़िरी सांस तक लड़ना नहीं छोड़ेंगे.”

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Jyoti Shinoli

ज्योति शिनोली, पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया की एक रिपोर्टर हैं; वह पहले ‘मी मराठी’ और ‘महाराष्ट्र1’ जैसे न्यूज़ चैनलों के साथ काम कर चुकी हैं.

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Editor : Pratishtha Pandya

प्रतिष्ठा पांड्या, पारी में बतौर वरिष्ठ संपादक कार्यरत हैं, और पारी के रचनात्मक लेखन अनुभाग का नेतृत्व करती हैं. वह पारी’भाषा टीम की सदस्य हैं और गुजराती में कहानियों का अनुवाद व संपादन करती हैं. प्रतिष्ठा गुजराती और अंग्रेज़ी भाषा की कवि भी हैं.

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Translator : Prabhat Milind

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.

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