सुधीर कोसरे थोड़े अजीब ढंग से चारपाई पर बैठे हैं, ताकि वह अपने घाव दिखा सकें. उनके दाएं पैर में एक गहरा घाव है, दाईं जांघ में पांच सेंटीमीटर लंबा कटने का निशान, दाहिनी कोहनी के नीचे एक घाव, जिसमें टांके लगाने पड़े थे. उनके पूरे शरीर पर ही चोटों के निशान थे.
अपने दो कमरों के कच्चे मकान के एक कोने में वह घबराए हुए बैठे थे. कमरे में रोशनी काफ़ी कम थी. वह बहुत तक़लीफ़ में थे और उन्हें ज़रा भी आराम नहीं था. उनकी पत्नी, मां और भाई उनके पास ही थे. बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी - लंबे इंतज़ार के बाद आख़िरकार इस हिस्से में भारी बारिश हुई.
बीते 2 जुलाई, 2023 की शाम, गाड़ी लोहार समुदाय (गाड़ी लोहार के नाम से भी जाना जाता है, जो राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग के तौर पर सूचीबद्ध है) से ताल्लुक़ रखने वाले एक भूमिहीन मज़दूर सुधीर जब खेत में काम कर रहे थे, तो उन पर एक जंगली सुअर ने हमला कर दिया, जिसमें वह बाल-बाल बचे. हालांकि, इस हमले में वह बुरी तरह घायल हो गए थे. शरीर से दुबले-पतले 30 वर्षीय खेतिहर मज़दूर सुधीर कहते हैं कि यह उनकी अच्छी क़िस्मत थी कि उनके चेहरे और सीने पर कोई चोट नहीं लगी.
पारी ने 8 जुलाई को सुधीर से कवठी गांव में मुलाक़ात की, जहां वह रहते हैं. यह गांव चंद्रपुर ज़िले के सावली तहसील में है, जो चारों ओर से जंगलों से घिरा है. वह कुछ ही समय पहले अस्पताल से डिस्चार्ज होकर वापस घर आए थे.
वह बताते हैं कि कैसे खेत में ट्रैक्टर चला रहे एक साथी मज़दूर मदद की उनकी पुकार को सुनकर वहां दौड़े-दौड़े आए और उन्होंने सुअर को पत्थर से मार-मार कर भगाया. उन्होंने उस वक़्त अपने जान की परवाह भी नहीं की.
शायद वह एक मादा सुअर थी. उसने उन्हें ज़मीन पर गिरा दिया और उन पर अपने दांतों से हमला किया था. उनकी आंखें आसमान की ओर देख रही थीं, और उनमें मौत का ख़ौफ़ भरा हुआ था. सुधीर बताते हैं, "वह बार-बार पीछे हटती और फिर से छलांग लगाकर मुझ पर हमला करती और अपने दांत मुझमें घुसेड़ती." जैसा कि उनकी पत्नी दर्शना अविश्वास के साथ बताती हैं. वह जानती हैं कि उनके पति मौत के मुंह से वापस आए हैं.
वह जानवर पास की झाड़ियों में कूदकर भाग गया, लेकिन तब तक वह उन्हें (सुधीर) बुरी तरह घायल कर चुका था.
जिस खेत में सुधीर काम कर रहे थे वह उस दिन रुक-रुक कर हो रही बारिश के कारण गीला था. दो हफ़्तों से भी ज़्यादा समय से बुआई का काम रुका हुआ था. सुधीर जंगल से लगी हुई सीमा पर मेड़ बनाने का काम कर रहे थे. उस दिन उन्हें इस काम के 400 रुपए मिलने वाले थे. इस काम के अलावा वह अपने परिवार को चलाने के लिए और भी कई काम करते हैं. वह अपने इलाक़े के दूसरे भूमिहीन मज़दूरों की तरह काम की तलाश में दूरदराज़ के क्षेत्रों में जाने की बजाय, वहीं गांव में ही काम मिलने का इंतज़ार करते हैं.
उस रात सावली के सरकारी अस्पताल में प्राथमिक उपचार के बाद सुधीर को वहां से 30 किमी दूर गढ़चिरौली शहर के ज़िला अस्पताल में भेज दिया गया, जहां उन्हें टांके लगाए गए और उन्हें छह दिनों तक अस्पताल में ही रखा गया, ताकि वह जल्दी ठीक हो सकें.
हालांकि, कवठी गांव चंद्रपुर ज़िले में आता है, लेकिन वहां से गढ़चिरौली शहर ज़्यादा क़रीब है, जबकि चंद्रपुर शहर वहां से लगभग 70 किमी दूर है. उन्हें रेबीज़ के लिए रैबिपूर इंजेक्शन लगवाने, पट्टी बदलवाने और अन्य जांच के लिए सावली के छोटे से सरकारी अस्पताल में जाना होगा.
सुधीर पर जंगली सुअर के हमले की घटना से खेती से जुड़े नए ख़तरों का पता चलता है. क़ीमतों में उतार-चढ़ाव, जलवायु परिवर्तन और कई अन्य कारकों ने कृषि को सबसे जोखिम भरे व्यवसायों में से एक बना दिया है. लेकिन चंद्रपुर ही नहीं, भारत में जंगलों (संरक्षित और असंरक्षित दोनों) के आसपास के इलाक़ों में कृषि एक ख़ूनी व्यवसाय भी बन गया है.
जंगली जानवर फ़सलों को नुक़सान पहुंचाने लगे हैं, जिससे किसानों की रातों की नींद हराम हो गई है और वे फ़सलों को बचाने के लिए अजीबोगरीब तरीक़े अपना रहे हैं, क्योंकि उनकी फ़सलें ही उनकी आमदनी का एकमात्र ज़रिया हैं. पढ़ें: ‘हमारे लिए यह किसी सूखे से कम भयावह नहीं’
अगस्त 2022 से (और पहले भी कुछ मौक़ों पर) इस रिपोर्टर ने बाघ, तेंदुए और अन्य जंगली जानवरों के हमले में गंभीर रूप से घायल हुए पुरुषों, महिलाओं, किसानों या सुधीर जैसे खेतिहर मज़दूरों से मुलाक़ात की है और उनका साक्षात्कार किया है. वे चंद्रपुर ज़िले में ताडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व (टीएटीआर) के अंतर्गत आने वाले संरक्षित जंगली इलाक़ों के आसपास के तहसीलों - मूल, सावली, सिंदेवाही, ब्रम्हपुरी, भद्रावती, वरोरा, चिमूर के गांवों में रहते हैं और वहीं काम करते हैं.
इस संवाददाता द्वारा जुटाए गए आंकड़ों (डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट डाटा) के मुताबिक़, पिछले साल अकेले चंद्रपुर ज़िले में बाघ के हमलों में 53 लोग मारे गए, जिनमें से 30 घटनाएं सावली और सिंदेवाही तहसील में हुई थीं. यह आंकड़े बताते हैं कि ये इलाक़े इंसानों और जानवरों के बीच संघर्ष के प्रमुख क्षेत्र हैं.
घायल होने या मौत की घटनाओं के अलावा टाइगर रिज़र्व के आसपास मध्यवर्ती क्षेत्र (बफ़र ज़ोन) में आने वाले गांवों और उसके बाहर के इलाक़ों में भी डर और आतंक का माहौल है. कृषि गतिविधियों पर पड़ने वाले प्रभाव हमारे सामने हैं. किसान जानवरों के डर से रबी की फ़सल लगाना छोड़ रहे हैं. वे इस बात से परेशान हैं कि अगर उन्होंने ऐसा किया, तो जंगली सुअर या हिरण या नीलगाय जैसे जानवर सारी फ़सल बर्बाद कर देंगे.
सुधीर क़िस्मत के धनी थे, इसलिए बच गए. उन पर जंगली सुअर ने हमला किया था, किसी बाघ ने नहीं. पढ़ें: खोलदोडा: किसानों का रतजगा और फ़सल की पहरेदारी .
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अगस्त 2022 में बरसात की एक दोपहर में जब वह अन्य मज़दूरों के साथ खेत में धान की रोपाई कर रहे थे, 20 वर्षीय भाविक ज़ारकर को उनके पिता के दोस्त वसंत पीपरखेड़े का फ़ोन आया.
उनके पिता के दोस्त, पीपरखेड़े ने उन्हें फ़ोन पर बताया कि कुछ देर पहले एक बाघ ने उन पर हमला किया था. हमले में भाविक के पिता भक्तदा की मौत हो गई और बाघ उनकी लाश को घसीटकर जंगल में ले गया.
भक्तदा (45 वर्षीय मृतक) अपने तीन साथियों के साथ जंगल के किनारे एक खेत में काम कर रहे थे. जब वह ज़मीन पर लेटे हुए आराम कर रहे थे, तभी अचानक एक बाघ कहीं से आया और उन पर हमला कर दिया. बाघ पीछे से आया और उसने भक्तदा की गर्दन दबोच ली. शायद उसने भूल से एक इंसान को अपना शिकार समझ लिया था.
पीपरखेड़े बताते हैं, “बाघ हमारे दोस्त को झाड़ियों में घसीटते हुए ले जा रहा था और हम यह देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे.” असहाय होकर इस भयानक हादसे को चुपचाप घटते हुए देखने के कारण वह अभी भी अपराध बोध से जूझ रहे हैं.
संजय राउत कहते हैं, "हमने बहुत शोर मचाया. लेकिन बाघ भक्तदा को अपने क़ब्ज़े में ले चुका था." वह भी इस हादसे के गवाह हैं.
दोनों दोस्त कहते हैं कि ये हादसा उनके साथ भी हो सकता था.
उस इलाक़े में बाघ की मौजूदगी की भनक होने के बावजूद उन्हें ये उम्मीद नहीं थी कि वह खेत में आकर हमला कर देगा. गांव में पहली बार बाघ के हमले में किसी (भक्तदा) ने अपनी जान गंवा दी थी. इससे पहले ग्रामीणों को मवेशियों और भेड़ों पर हमलों को सहन करना पड़ा था. पिछले दो दशकों में सावली और आसपास की अन्य तहसीलों में बाघ के हमले में लोगों की मौत हुई थी.
भाविक उस हादसे के बारे में याद करते हुए बताते हैं, "मैं सुन्न हो गया था." उनका घर हीरापुर गांव में है, जो सुधीर के गांव से बहुत दूर नहीं है. उस समय उनकी बहन रागिनी (18 वर्षीय) उनके पास थी. वह बताते हैं कि उन्हें यह ख़बर अचानक से मिली और यह उनके और उनके परिवारवालों के लिए एक बड़ा सदमा था. वह अभी भी अपने पिता की दुखद मौत को लेकर सदमे में हैं कि यह सब कैसे हुआ.
दोनों भाई-बहन अब घर चलाते हैं. जब पारी ने उनके घर का दौरा किया, तो उनकी मां लताबाई घर पर नहीं थीं. रागिनी कहती हैं, "वह अभी भी सदमे से बाहर नहीं आई हैं. इसे समझना और स्वीकार करना काफ़ी कठिन है कि एक बाघ के हमले में हमारे पिता की मौत हो गई."
गांव में डर का माहौल है और किसान कहते हैं, "आज भी, कोई भी अकेले बाहर नहीं जाता."
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धान के खेतों में सागौन और बांस के पेड़ लगे हुए हैं और वे चौकोर व आयताकार डब्बों जैसे दिखाई देते हैं, क्योंकि धान की पैदावार के लिए खेतों में बारिश का पानी जमा करने के लिए उसके चारों ओर मेड़ें लगाई गई हैं. जैव विविधता के मामले में यह चंद्रपुर के सबसे समृद्ध इलाक़ों में से एक है.
सावली और सिंदेवाही ताडोबा जंगलों के दक्षिण में स्थित हैं, जो बाघ संरक्षण के प्रयासों का परिणाम भुगत रहे हैं. जैसा कि 2023 में नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी द्वारा जारी की गई रिपोर्ट स्टेटस ऑफ़ टाइगर, 2022 में बताया गया है, ताडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व में बाघों की संख्या 2018 के 97 से बढ़कर इस साल 112 हो गई है.
कई बाघ संरक्षित क्षेत्रों से बाहर प्रादेशिक वन क्षेत्रों में घूमते हुए पाए गए हैं, जहां मानव बसावट के इलाक़े भी हैं. इसलिए, बाघों का संरक्षित क्षेत्रों से बाहर घने मानव बस्तियों में आने की घटनाएं बढ़ गई हैं. बफ़र जोन और उसके आसपास के इलाक़ों के जंगलों में बाघ के हमलों की घटनाएं सबसे ज़्यादा देखी गई हैं, जिसका साफ़ मतलब है कि कुछ बाघ रिज़र्व से बाहर आने लगे हैं.
साल 2013 में ताडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व के आसपास के इलाक़ों में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, ज़्यादातर हमले संरक्षित क्षेत्र से बाहर बफ़र जोन और आसपास के इलाक़ों में हुए हैं. जंगलों में सबसे ज़्यादा हमले हुए हैं, उसके बाद खेतिहर ज़मीनों, निर्जन जंगलों, उत्तर-पूर्वी गलियारे (रिज़र्व, बफर जोन और जंगलों को जोड़ने वाली सड़क) में ये घटनाएं देखी गईं.
बाघ संरक्षण प्रयासों का एक नकारात्मक पक्ष मानव-बाघ संघर्ष है. यह मामला इतना गंभीर है कि जुलाई 2023 में हाल ही संपन्न हुए राज्य विधानमंडल के मानसून सत्र के दौरान महाराष्ट्र के वन मंत्री सुधीर मुनगंटीवार ने एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का उत्तर देते हुए इस संबंध में किए जा रहे प्रयासों के बारे में बताया. उन्होंने बताया कि 'टाइगर ट्रांसलोकेशन (स्थानांतरण)’ योजना के तहत दो वयस्क बाघों को गोंदिया के नागझिरा टाइगर रिज़र्व में भेजा गया है और भविष्य में भी कुछ और बाघों को ऐसे इलाक़ों में स्थानांतरित करने के बारे में विचार किया जा रहा है जहां उनके रहने के लिए जगह है.
इसी जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि सरकार बाघों के हमलों में फ़सल के बर्बाद होने, मवेशियों के मारे जाने, किसी के घायल या मृत्यु होने पर पीड़ितों को दी जाने वाली मुआवजे की राशि में इज़ाफ़ा करेगी. बाघ के हमले में इंसानों की मौत होने पर मुआवजे की राशि को 20 लाख से बढ़ाकर 25 लाख कर दिया गया है. पर फ़सलों के बर्बाद होने या मवेशियों के मरने पर मिलने वाले मुआवजे को नहीं बढ़ाया गया है, जिसमें फ़सल ख़राब होने पर अधिकतम 25000 रुपए और जानवरों की मौत होने पर 50,000 रुपए की क्षतिपूर्ति दिए जाने का प्रावधान है.
हालांकि, हाल-फ़िलहाल इस समस्या का कोई अंत नहीं दिखाई देता है.
टीएटीआर क्षेत्र में (बफ़र जोन और रिज़र्व के बाहर के क्षेत्रों में) किए गए एक व्यापक अध्ययन में कहा गया है, "भारत के मध्य राज्य महाराष्ट्र में ताडोबा-अंधारी टाइगर रिज़र्व के आसपास पिछले दो दशकों में मनुष्यों पर मांसाभक्षी जानवरों के हमलों में तेज़ी से वृद्धि हुई है."
साल 2005-11 के दौरान किए गए अध्ययन में "इंसानों और बड़े मांसाभक्षी जानवरों के बीच संघर्ष को रोकने या कम करने के उपायों के बारे में जानने के लिए ताडोबा-अंधारी टाइगर रिज़र्व और उसके आसपास के इलाक़ों में बाघों और तेंदुओं के इंसानों पर हमलों की मानवीय और पारिस्थितिक विशेषताओं की जांच की गई." कुल 132 हमलों की जांच की गई, जिसमें 78 प्रतिशत हमलों के लिए बाघ और 22 प्रतिशत हमलों के लिए तेंदुए ज़िम्मेदार थे.
अध्ययन में कहा गया, "अन्य गतिविधियों की तुलना में गौण वन उत्पादों को इकट्ठा करने के दौरान ज़्यादातर लोगों पर हमले हुए हैं." जंगलों और गांवों से दूर हमले की संभावनाएं कम थीं. रिज़र्व के आसपास के क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को विनियमित किए जाने की ज़रूरत है, ताकि इंसानों की मौत की घटनाओं में कमी लाई जा सके और अन्य संघर्षों को रोका जा सके. अध्ययन का निष्कर्ष था कि ईंधन के वैकल्पिक संसाधनों (उदाहरण के लिए बायोगैस और सोलर) तक पहुंच बढ़ने से संरक्षित क्षेत्रों में लकड़ियां चुनने की मजबूरी कम हो जायेगी.
मानव बस्तियों में शिकारी जानवरों की मौजूदगी और जंगली शिकार की कमी ने बाघों के हमले की संभावना को बढ़ा दिया है.
हालिया वर्षों में हुई घटनाओं से पता चलता है कि जंगलों में मवेशी चराने या कृषि उत्पाद इकट्ठा करने की बजाय खेतों में काम के दौरान बाघों के हमले की संभावना कहीं अधिक होती है. चंद्रपुर के किसान जंगली जानवरों, ख़ासकर पेड़-पौधे खाने वाले जानवरों से काफ़ी परेशान हैं, क्योंकि वे उनकी फ़सलों को नष्ट कर देते हैं. लेकिन रिज़र्व के आसपास के इलाक़ों के खेतों या जंगलों की सीमा पर बाघ और तेंदुए के हमले बढ़ते जा रहे हैं और इसका कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा है.
पूरे क्षेत्र की यात्रा करने के बाद यह बात सामने आई कि जंगली जानवरों और बाघों के हमले से लोग सबसे ज़्यादा परेशान हैं. जैसा कि पुणे में रहने वाले वन्यजीव विज्ञानी डॉ. मिलिंद वाटवे कहते हैं, इन मुद्दों के कारण भारत के संरक्षण प्रयासों पर दीर्घकालिक असर देखने को मिल सकता है. अगर स्थानीय लोगों ने वन्य जीवों को अपना दुश्मन मानना शुरू कर दिया (जैसा वे स्वभावतः महसूस करते हैं), तो कैसे कोई जंगली जानवर संरक्षित क्षेत्रों के बाहर सुरक्षित रह पाएगा!
मौजूदा संकट किसी एक बाघ के कारण नहीं है; इस इलाक़े में कई बाघ हैं, जो इंसानों को अपना शिकार समझकर ग़लती से हमला कर बैठते हैं. जिन लोगों ने ऐसे हमलों में अपने परिवारवालों को खोया है और जिन लोगों ने अपनी आंखों से ऐसा होते देखा है, उनके लिए यह सब कभी न ख़त्म होने वाला सदमा है.
हीरापुर से क़रीब 40 किमी दूर सावली तहसील में चांदली बीके. गांव में रहने वाले प्रशांत येलट्टीवार का परिवार भी ऐसे ही दुःख से गुज़र रहा है. बीते 15 दिसंबर 2022 को उनकी पत्नी स्वरूपा एक वयस्क बाघ का शिकार बन गईं. गांव की पांच अन्य औरतों ने अपनी आंखों से ये पूरा वाक़या देखा कि एक बाघ स्वरूपा पर कूद पड़ा और उनके शरीर को खींचता हुआ जंगल में चला गया. उन औरतों की डर के मारे घिग्घी बंध गई थी. यह हादसा 15 दिसंबर 2022 को सुबह के लगभग 11 बजे हुआ था.
साल 2023 में येलट्टीवार ने हमसे बातचीत के दौरान कहाई, "उसे गए हुए छह महीने गुज़र गए हैं. मैं नहीं समझ पा रहा कि हुआ क्या."
येलट्टीवार परिवार के पास क़रीब एक एकड़ ज़मीन है और वे खेतिहर मज़दूर के रूप में भी काम करते हैं. स्वरूपा और दूसरी औरतें गांव के किसी व्यक्ति के खेत में कपास (मुख्य रूप से धान की खेती वाले इस इलाक़े में कपास एक नई फ़सल है) चुन रही थीं, जब ये हादसा हुआ. गांव के पास के एक खेत में बाघ ने अचानक से आकर स्वरूपा पर हमला कर दिया और उसे वहां से लगभग 500 मीटर दूर घसीटते हुए जंगल में लेकर गया. वन अधिकारियों और कर्मचारियों की मदद से ग्रामीण इस भयानक घटना के कुछ घंटों बाद उसके क्षत-विक्षत और निस्प्राण शरीर को वापस गांव लेकर आए. बाघ के हमलों में जान गंवाने वालों में स्वरूपा का नाम भी जुड़ गया.
विस्तारी अल्लुरवार कहते हैं, "हमें बाघ को डराने के लिए बहुत शोर मचाना पड़ा, थालियां बजानी पड़ीं और ढोल पीटने पड़े,” वह उन ग्रामीणों में से एक हैं जो उस दिन उनका शव लेने गए थे. सूर्यकांत मारुति पाडेवार, येलट्टीवार के पड़ोसी हैं, जिनकी अपनी 6 एकड़ ज़मीन है. वह कहते हैं, "हमने अपनी आंखों से वह डरावना मंज़र देखा." उसके बाद से वह बताते हैं कि "गांव में अब डर का माहौल है."
गांववाले ग़ुस्से में थे. उन्होंने मांग रखी कि वन विभाग उन बाघों को पकड़ ले या उन्हें मार गिराए और उन्हें इस समस्या से छुटकारा दिलाए, लेकिन कुछ समय बाद उनका विरोध ठंडा पड़ गया.
स्वरूपा की मौत के बाद उनके पति की वापस काम पर जाने की हिम्मत नहीं हुई. उनका कहना है कि एक बाघ अब भी इस गांव में अक्सर आता रहता है.
सात एकड़ ज़मीन पर खेती करने वाले किसान दिद्दी जागलू बद्दमवार (49 वर्षीय) कहते हैं, ''हमने सप्ताह भर पहले ही अपने खेत में एक बाघ को देखा था.'' वह बताते हैं कि बारिश के बाद जुलाई की शुरुआत में जब बुआई शुरू हुई थी, "हम किसी काम के लिए खेत में वापस गए ही नहीं. इस हादसे के बाद किसी ने रबी की फ़सल नहीं लगाई."
प्रशांत को उनकी पत्नी के मौत के मुआवजे के तौर पर 20 लाख रुपए दिए गए हैं, लेकिन इससे उनकी पत्नी वापस नहीं लौटेगी. स्वरूपा अपने पीछे एक बेटा और एक बेटी छोड़ गई हैं.
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यह साल भी पिछले साल की ही तरह ही है. चंद्रपुर ज़िले में टाइगर रिज़र्व के आसपास के इलाक़े के खेतों में बाघ और दूसरे जंगली जानवरों का ख़तरा अभी भी बना हुआ है.
एक महीने पहले (25 अगस्त, 2023 को) 60 साल की एक आदिवासी महिला किसान लक्ष्मीबाई कन्नाके बाघ के हमले में मारी गईं. उनका गांव, टेकाडी, भद्रावती तहसील में टाइगर रिज़र्व के किनारे बसा हुआ है, जो प्रसिद्ध मोहरली रेंज के क़रीब है. यह इस जंगल में प्रवेश का मुख्य द्वार है.
उस दिन वह शाम को अपनी बहू सुलोचना के साथ इरई बांध से सटे अपने खेत में काम कर रही थीं, जब यह भयावह घटना हुई. शाम के लगभग 5:30 बजे, सुलोचना ने देखा कि एक बाघ पीछे से लक्ष्मीबाई के पीछे आ रहा है और जंगली घास के बीच से चुपचाप उनकी ओर बढ़ रहा है. इससे पहले कि वह चिल्लातीं और अपनी सास को सावधान करतीं, बाघ उन बूढ़ी औरत पर झपट पड़ा, उसने उनकी गर्दन पकड़ी और उनके शरीर को बांध के पानी में खींचकर ले गया. सुलोचना अपनी जान बचाने में कामयाब रहीं और उन्होंने और लोगों को खेत में बुलाया. घंटों बाद लक्ष्मीबाई का शव जलाशय से निकाला गया.
वन अधिकारियों ने उनके अंतिम संस्कार के लिए तुरंत 50,000 रुपए जारी किए. और कुछ दिनों के बाद मुआवजे की रक़म को बढ़ाए जाने के सरकारी आदेश का पालन करते हुए उन्होंने मृतका के पति 74 वर्षीय रामराव कन्नाके को 25 लाख का मुआवजा दिया. उन्होंने गांववालों के ग़ुस्से और विद्रोह की संभावना को देखकर ऐसा किया.
वन रक्षकों की एक टीम टेकाडी गांव की निगरानी करती है, बाघ की हरकतों पर नज़र रखने के लिए उन्होंने कैमरे लगाए हैं और गांववाले समूहों में अपने खेतों में काम करने जाते हैं, क्योंकि वे सभी लोग डर के साए में जी रहे हैं.
उसी तहसील (भद्रावती) में, 20 साल के मनोज नीलकंठ खेरे से हमारी मुलाक़ात हुई. वह स्नातक के दूसरे वर्ष के छात्र हैं. बीते 1 सितंबर 2023 की सुबह उन पर एक जंगली सुअर ने हमला कर दिया, जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गए थे. इस समय वह हमले में लगी चोटों और अपने सदमे से उबरने की कोशिश रहे हैं.
मनोज कहते हैं, "मैं अपने पापा के खेत में शादी की तैयारियां देख रहा था. पीछे से एक जंगली सुअर आया और उसने अपने दांतों से मुझ पर हमला कर दिया."
भद्रावती तहसील के ही पिरली गांव में अपने मामा मंगेश आसुटकर के घर पर एक खाट पर लेटे हुए मनोज इस घटना के बारे में खुलकर बात करते हैं, “''बस 30 सेकंड में यह घटना हुई.''
जंगली सुअर ने उनकी बाईं जांघ को फाड़ दिया था. अब उस पर पट्टी बंधी हुई है. उसने इतने ग़ुस्से में हमला किया था कि मनोज के पैर से पिंडली की मांसपेशियां पूरी तरह अलग हो गई थीं. डॉक्टरों ने उनसे कहा है कि पिंडली की मांसपेशियों को भरने के लिए उन्हें प्लास्टिक सर्जरी कराना होगा. इसका मतलब ये हुआ कि उनके परिवार को उनके इलाज पर बहुत सारा पैसा ख़र्च करना पड़ेगा. वह कहते हैं, "मैं भाग्यशाली हूं कि मैं इस हमले में बच गया." इस घटना में कोई और घायल नहीं हुआ था.
मनोज हट्टे-कट्टे युवा हैं और अपने माता-पिता की इकलौती संतान हैं. उनके माता-पिता दोनों ही किसान हैं. क्योंकि उनका गांव वडगांव सुदूर इलाक़े में है और वहां सार्वजनिक परिवहन की सुविधा नहीं है, इसलिए उनके मामा उन्हें पिरली गांव ले आए, जहां से 27 किमी दूर स्थित भद्रावती शहर के अस्पताल जाना आसान है. वह अपने स्मार्टफ़ोन से उस दिन के अपने घावों को दिखाते हैं. तस्वीरों से पता चलता है कि उनके घाव कितने गंभीर थे.
चांदली गांव में अर्द्ध-घुमंतू पशुपालक समुदाय कुरमार (राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में सूचीबद्ध) से ताल्लुक़ रखने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता चिंतामन बालमवार का कहना है कि लोगों की जान जाने और उनके घायल होने के अलावा, इन घटनाओं के कारण क्षेत्र में कृषि गतिविधियों पर बुरा प्रभाव पड़ा है. वह कहते हैं, "किसान मुश्किल से ही अब रबी फ़सलों की खेती करते हैं और मज़दूर खेतों में जाने से डरते हैं."
जंगली जानवरों और बाघों के हमलों ने इलाक़े के कई गांवों में ख़ासकर रबी की फ़सलों को नुक़सान पहुंचाया है. रात में पहरेदारी पूरी तरह से बंद है. गांव के लोग गांव से बाहर जाने से डरते हैं और यहां तक कि किसी आपातकालीन परिस्थिति में भी वे पहले की तरह शाम को यात्रा करने से बचते हैं.
वहीं, कवठी गांव में सुधीर की मां शशिकला बाई (जो गांव में ही खेतिहर मज़दूर काम करती हैं) जानती हैं कि उनका बेटा सुधीर उस दिन जंगली सुअर के हमले में अपनी जान खो सकता था.
वह बार-बार मराठी में दोहराती हैं, "अजी माझा पोरगा वाचला जी" और भगवान को शुक्रिया कहती हैं. वह कह रही हैं, मेरा बेटा उस दिन मौत के मुंह में जाने से बच गया.
"यही हमारा सहारा है." सुधीर के पिता नहीं हैं. उनकी बहुत पहले मृत्यु हो गई थी. सुधीर की मां पूछती हैं, "अगर सुअर की जगह बाघ ने हमला किया होता, तब क्या होता?"
अनुवाद: प्रतिमा