मोहम्मद असग़र के हाथ मशीन निहर एकदम सटीक चलेला आ बतियावत के भी उनकर हाथ ना रुकेला.

“कुछ पल के लिए भी हाथ रुक गया तो काम ख़राब हो जायेगा (तनिको देरी खातिर हमार हाथ रुक गईल त काम गड़बड़ा जाई),” ई कलाकार अइसन कला के बारे में बतावत बाड़ें जेकरी विषय में कहल जाला कि ई तीन सौ साल पुरान ह.

मोहम्मद असगर एगो छापा कारीगर (हाथे से ब्लाक प्रिंटिंग करे वाला कलाकार) हवें आ ई काम लगभग दस साल से करत बाड़ें. बकिया लोग जे लकड़ी के ब्लाक डाई में डुबा के कपड़ा पर डिजाईन बनावेला, उनसे अलग ऊ कपड़न पर अलमुनियम के पत्तर से धातु के फूल आ अलग-अलग डिजाईन बनावेलन.

एल्मुनियम के ई पत्तर के तबक कहल जाला जेसे साड़ी, शरारा, लहंगा जईसे मेहरारुन के कपड़ा पर प्रिंट कईला पर एकदम त्यौहार वाला रंगत आ जाला. उनकरी पीछे एगो आलमारी पर दर्जनों लकड़ी के सांचा राखल बा जेप्पर जटिल डिजाईन बनल बा जवन कवनो साधारण कपड़ा के त्यौहार वाला कपड़ा में बदल देला.

Mohammad Asghar (left) is a chhapa craftsman during the wedding season. The rest of the year, when demand shrinks, he works at construction sites. He uses wooden moulds (right) to make attractive designs on clothes that are worn on festive occasions, mostly weddings of Muslims in Bihar's Magadh region
PHOTO • Shreya Katyayini
Mohammad Asghar (left) is a chhapa craftsman during the wedding season. The rest of the year, when demand shrinks, he works at construction sites. He uses wooden moulds (right) to make attractive designs on clothes that are worn on festive occasions, mostly weddings of Muslims in Bihar's Magadh region
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मोहम्मद असगर (बाएं) शादी बियाह के मौसम में छापा कारीगर रहेलन. साल के बाकी समय में जब उनकर मांग घट जाला त उ निर्माण वाला जगह पर काम करेलन. कपड़न पर आकर्षक डिजाईन बनावे खातिर उ लकड़ी के सांचा के उपयोग करेलन. ई कपड़न के खुशी के अवसर पर खास तौर पर बिहार के मगध क्षेत्र में मुस्लिम लोगन के शादी बियाह में अधिक उपयोग होखेला

बिहार के नालंदा जिला के बिहारशरीफ कस्बा में आधा दर्जन छापा के दोकान बाड़ी सन. अपने ग्राहकन निहर छापा कारीगर भी ज्यादातर मुसलमान बाड़ें जे रंगरेज (कपड़ा रंगे वाला) जाति से सम्बंधित बाड़ें. इनके बिहार में आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) में राखल गईल बा. बिहार सरकार की ओर से करवावल गईल नवीनतम जाति सर्वेक्षण के अनुसार ई लोगन के अनुमानित संख्या 43,347 बाटे.

“तीस साल पहिले, हमरी लगे कवनो काम (रोजगार) ना रहे. त, हम इहे करे लगनी,” पप्पू बतावेलन. “हमार नाना छापा के काम करें. उनहीं से ई हमके मिलल बा. उ एही में आपन समय बितवलें आ हमहूं समय बितावतानी,” बिहार के राजधानी पटना के व्यस्त आ गझिन आबादी वाले क्षेत्र सब्जीबाग में 30 साल से छापा वाला कपड़ा के दोकान चलावे वाला 55-वर्षीय पप्पू बतावेलन.

उ बतावेलन कि ए कला के मांग धीरे-धीरे कम होता. “पहिले पटना में 300 दोकान रहली सन बाकिर अब ओमे से 100 गो ही चलत बाड़ी सन,” आ चांदी सोना के प्रिंटिंग अब उपयोग ना होखेला – अलमुनियम सबकर जगह ले लेले बा.

असगर, जे सब्जी बाजार में एगो छोट कारखाना में भी काम करेलन, बतावेलन कि 20 साल पहिले ले तबक बिहारशरीफ कस्बा में ही बनल करे. “ पहिले तबक शहर में ही बन जाओ बाकिर मजदूरन के कमी होखला से अब ई एइजा ना बनेला. अब ई पटना से मंगवावल जाला,” उ बतावेलन.

Left: Pappu inherited chhapa skills from his maternal grandfather, but he he says he will not pass it on to his sons.
PHOTO • Umesh Kumar Ray
Right: Chhapa clothes at Pappu's workshop in the Sabzibagh area of Patna, Bihar. The glue smells foul and the foil comes off after a couple of washes, so the clothes are not very durable
PHOTO • Umesh Kumar Ray

बाएं: पप्पू के छापा के हुनर अपनी नाना से मिलल बाकिर उनकर कहनाम बा कि उ अपनी बेटन के ई काम ना करे दिहन. दायें: बिहार के पटना के सब्जीबाग क्षेत्र में पप्पू के कारखाने में छापा वाला कपड़ा. गोंद के महक नीक ना बुझाला आ कुछ धुलाई के बाद पत्तर निकल आवेला एसे ई कपड़ा बहुत टिकाऊ नईखे

छापा के ई खेल के सबसे बड़ खिलाड़ी तबक हवे जवन एतना महीन होखेला कि तनिको हवा से उड़े लागेला, कुछ असगर के चेहरा आ कपड़ा पर लाग जाला. दिन खतम भईला पर, उनके हाथ मुंह धोवे के पड़ेला आ गोंद के मोट परत से भरल आपन हथेली भी साफ़ करे के पड़ेला. “हाथ से गोंद छोड़ावे में हमके दू घंटा लाग जाला. एकरा खातिर हम गरम पानी के उपयोग करेनी,” उ बतावेलन.

“गोंद बहुत जल्दी सूख जाला एसे कुल प्रक्रिया बहुत तेजी से निपटावे के पड़ेला,” असगर ई बतावत के हमनी के प्रक्रिया भी देखावेलन. पहिले ऊ टिन के डिब्बा में राखल गोंद अपनी बायां हथेली पर रगड़ेलन. जब गोंद बढ़िया से पूरा हथेली पर फईल जाला, ई लकड़ी के फूल वाला सांचा हथेली पर घुमावेलन ताकि उ गोंद में डूब जाए आ ओकरी बाद उ सांचा से कपड़ा पर छाप लगावेलन.

तेजी से काम करत उ पत्तर के दबावे खातिर रखल पेपरवेट के नीचे से पत्तर सावधानी से निकालेलन आ एके छापा वाला हिस्सा पर राखेलन. गोंद के वजह से पत्तर ब्लाक के पैटर्न पर चपक जाला.

एक बेर पत्तर कपड़ा पर लाग जाला ओके गद्दीदार कपड़ा से तब ले दबावल जाला जबले ऊ पूरी तरह से चिपक ना जाओ. “ई ए खातिर करे के पड़ेला कि तबक गोंद से बढ़िया से चिपक जाओ,” उ बतावेलन. ई बारीक काम तेजी से कईल जाला आ सेकेंडो में कपड़ा पर एगो चमकत वृत्त के आकार उभर आवेला. नया नया छापा बनावल कपड़ा कम से कम एक घंटा ले सूरज के प्रकाश में राखल जाला ताकि गोंद बढ़िया से सूख जाओ आ पत्तर हमेशा खातिर चपक जाओ.

कारीगर ई प्रक्रिया बिना रुके लगातार करत रहेला लोग. अभी जवन लाल कपड़ा उ बनावत बाड़ें ओके डालढक्कन कहल जाला. ई अइसन कपड़ा हवे जेके बांस के टोकरी ढके खातिर उपयोग कईल जाला.

Left: Mohammad Asghar rubs the glue kept in a tin pot onto his left palm. Due to continuous application, a thick layer of glues sticks to the palm and takes him two hours to remove.
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Right: He rotates the wooden flower mould on his palm to soak up the glue
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बाएं: टिन के डिब्बा में राखल गोंद मोहम्मद असगर अपनी बायां हथेली पर रगड़ेलन. लगातार लगवला से उनकी हथेली पर गोंद के एगो मोट परत बन जाला जेके हटावे में उनकरा दू घंटा लाग जाला. दायें: लकड़ी के फूल के सांचा उ अपना हथेली पर घुमावेलन ताकि उ गोंद में बढ़िया से डूब जाओ

Left: Asghar stamps the sticky mould onto the cloth. Then he carefully pastes the foil sheet on the stamped part and further presses down with a pad until it is completely stuck.
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Right: The delicate process is performed swiftly and the design appears on the cloth which now has to be laid out to dry in the sun
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असगर कपड़ा पर चिपके वाला सांचा से छापा बनावेलन. ओकरी बाद छापा वाला हिस्सा पर सावधानी से पत्तर चिपकावेलन आ पूरी तरह चिपकावे खातिर गद्देदार कपड़ा से दबावेलन. ई बारीक प्रक्रिया तेजी से कईल जाला आ कपड़ा पर डिजाईन उभर आवेला जेके अब बहरा सूरज के प्रकाश में सुखावे के पड़ी

एल्मुनियम के 10 से 12 वर्ग सेंटीमीटर के पत्तर के 400 पीस के दाम 400 रुपिया पड़ेला; एक किलो गोंद 100 से 150 रुपिया के पड़ेला. “छापा के वजह से कपड़ा के दाम 700-800 रुपिया बढ़ जाला,” एगो छापा कपड़ा के दोकान मालिक पप्पू (उ इहे नाम लेवे के कहेलन) बतावेलन. “ग्राहक लोग एतना रुपिया देवे के तैयार नईखे.”

छापा वाला कपड़ा बिहार के मुस्लिम समुदाय के लोगन के बियाह में ढेर उपयोग होखेला, ओहू में राज्य के दक्षिण में मगध क्षेत्र में एकर खपत ढेर बा. कुछ रीती रिवाज खातिर ई जरूरी होखेला– सामाजिक हैसियत कईसनो होखे, दुल्हिन आ ओकर परिवार के छापा साड़ी या त बियाह वाला कपड़ा के संगे एके पहिनहि के पड़ेला.

सांस्कृतिक महत्व के बावजूद छापा वाला पकड़ा के लम्बा समय ले ना पहिनल जा सकेला. “प्रिंटिंग में उपयोग होखे वाला गोंद के महक बहुत ख़राब होखेला. एकरी बाद प्रिंटिंग एतना कमजोर होखेला कि एक या दू धुलाई में अलमुनियम वाला पत्तर उखड़ जाला,” पप्पू बतावेलन.

शादी बियाह के तीन चार महिना के मौसम के बाद छापा के काम ठप पड़ जाला आ कारीगर लोग दूसर काम-धंधा खोजे लागेलन.

Mohammad Reyaz (wearing glasses) works as a chhapa karigar in Pappu’s shop. He is also a plumber and a musician and puts these skills to use when chhapa work is not available
PHOTO • Umesh Kumar Ray
Mohammad Reyaz (wearing glasses) works as a chhapa karigar in Pappu’s shop. He is also a plumber and a musician and puts these skills to use when chhapa work is not available
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मोहम्मद रियाज़ (चश्मा वाले) पप्पू के दोकान में छापा कारीगर के तौर पर काम करेलन. उ ठठेरा के काम भी जानेलन आ संगीतकार भी हवें. छापा के काम ना रहला पर ऊ आपन ई हुनर देखावेलन

“हम आठ से दस घंटा दोकान पर काम करेनी आ तीन साड़ी पर छापा के काम पूरा कर देनी,” असगर बतावेलन. “ए काम खातिर हमके एक दिन के 500 रुपिया मिलेला बाकिर ई काम खाली तीन से चार महिना ले उपलब्ध रहेला. छापा के काम ना रहेला तब हम घर बिल्डिंग बनावे वाला काम से जुड़ जायेनी.”

असगर बिहारशरीफ कस्बा में रहेलन जवन उनकी कारखाना से एक किलोमीटर के दूरी पर बा जहाँ उ सबेरे 10 बजे से राती के 8 बजे ले काम करेलन. “पइसा बचावे खातिर हमार बेटा दुपहरिया में हमरा खातिर घर के बनल खाना ले आवे ला,” उ कहेलन.

पांच साल के छोट समय खातिर उ दिल्ली चल गईल रहलें जहां उ निर्माण वाला जगह पर काम कईलन. अब उ अपनी मेहरारू आ दू गो बेटा संघे एइजे रहेलन. उनकर दुनों बेटा 14 आ 16 साल के बाड़ें सन आ दूनो स्कूले जाले सन. असगर कहेलन कि बिहारशरीफ में उ अपना कमाई से संतुष्ट बाड़ें आ परिवार के संघे रहला के मौका मिलल उनकरा खातिर बोनस निहर बाटे. “यहाँ भी काम होइए रहा है तो काहे ला बाहर जायेंगे (एइजा काम मिलता त बहरी गईला के कवन जरूरत बा)?” ए पत्रकार के उ बतवलन.

मोहम्मद रियाज पप्पू के दोकान में छापा कारीगर के काम करेलन. पूरा साल कुछ काम पावत रहे खातिर 65-वर्षीय रियाज कई गो दूसर हुनर भी सिखले बाड़ें. “छापा के काम ना रहेला त हम एगो (संगीत) बैंड के संघे काम करेनी. एकरी अलावे, हमरा ठठेरा के काम भी आवेला. ए कुल काम से हमरा पूरा साल कुछ न कुछ काम रहेला.”

पप्पू कहेलन कि एसे होखे वाला कमाई कम बा आ परिवार चलावल मुश्किल होखेला. उनकरी परिवार में उनकर मेहरारू आ सात से 16 साल ले के उनकर तीन गो बच्चा बाड़ें सन. “एमे नहीं के बराबर कमाई रहि गईल बा. आज ले हमरा ई नईखे बुझा पाईल कि एगो छापा वाला कपड़ा पर हमके केतना मुनाफा होखेला.  केहू तरे परिवार खातिर खाना जुटा लेवेनी,” उ कहेलन.

ई कला विरासत में अपनी बेटन के दिहला के उ खिलाफ बाड़ें. “हम पागल नहीं हैं जो चाहेंगे कि मेरे बेटे इस लाइन में आयें (हम पागल ना हईं कि चाहब कि हमार बेटा भी ए क्षेत्र में आवें सन).”

The star of the chhapa show is tabak (aluminium foil), so fine that it starts flying in the slightest breeze, some of it sticking to the craftsmen's face and clothes
PHOTO • Umesh Kumar Ray


छापा के खेल के सबसे बड़ खिलाड़ी हवे तबक (अलमुनियम के पत्तर), इ एतना महीन होखेला कि तनिको हवा में उड़े लागेला, एमे से कुछ कारीगर लोगन के चेहरा आ कपड़ा पर भी लाग जाला

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छापा के विषय में बहुत जानकारी नईखे कि कईसे एकर आगमन भईल आ कईसे ई बिहारी मुस्लिम के संस्कृति के एतना महत्वपूर्ण भाग बन गईल.  बिहार में मैनुअल ब्लाक प्रिंटिंग करे वाला कलाकारन खातिर ब्रिटिश भारत में सर्जन आ सर्वेकर्ता फ्रांसिस बुचानन ‘छापागर’ शब्द के उपयोग कईले बाड़ें. “इ बतावल कठिन बा कि बिहार के मुसलमानन में बियाह में प्रिंटिंग वाला कपड़ा पहिने के चलन कईसे आईल. बाकिर बिहार में मगध क्षेत्र वाला मुस्लिम लोगन में ई संस्कृति बहुत देखे के मिलेला, एसे अंदाजा लगावल जा सकेला कि एकर सुरुआत एही क्षेत्र से भईल होई,” पटना के रहे वाला इतिहास के जानकर उमर अशरफ बतावेलन.

इहाँ के हेरिटेज टाइम्स नाम के एगो वेब पोर्टल चलावेनी आ इनकर एगो फेसबुक पेज बा जेप्पर इहाँ के बिहार के मुस्लिमन के लुप्त संस्कृति आ विरासत के दस्तावेजीकरण करेनी.

ए क्षेत्र में ई कला के विकास के श्रेय 12वीं सदी में मुस्लिमन के मगध क्षेत्र में आन्तरिक पलायन के दिहल जा सकेला. “हो सकेला शादी बियाह में छापा पहिने के आपन संस्कृति उ लोग ले के आईल आ इहे मगध में भी चले लागल,” अशरफ बतावेलन.

छापा के कला दुनिया के और हिस्सा में भी पहुँचल बाटे: “हमनी के लगे बहुत उदाहरण बा जहाँ बिहारी मुस्लिम लोग यूरोप, अमेरिका, कनाडा भा कवनो देश में बस गईल लोग बाकिर शादी बियाह में पहिने खातिर भारत से छापा वाला कपड़ा ही मंगवावल गईल,” उ बतावेलन.

इ खबर बिहार के एगो ट्रेड यूनियन के नेता के याद में फेलोशिप खातिर समर्थित बा जे राज्य में हाशिये के लोगन के संघर्ष के अगुवाई कईलें.

अनुवाद: विमल चन्द्र पाण्डेय

Umesh Kumar Ray

उमेश कुमार राय साल 2022 के पारी फेलो हैं. वह बिहार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं और हाशिए के समुदायों से जुड़े मुद्दों पर लिखते हैं.

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प्रीति डेविड, पारी की कार्यकारी संपादक हैं. वह मुख्यतः जंगलों, आदिवासियों और आजीविकाओं पर लिखती हैं. वह पारी के एजुकेशन सेक्शन का नेतृत्व भी करती हैं. वह स्कूलों और कॉलेजों के साथ जुड़कर, ग्रामीण इलाक़ों के मुद्दों को कक्षाओं और पाठ्यक्रम में जगह दिलाने की दिशा में काम करती हैं.

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सर्वजया भट्टाचार्य, पारी के लिए बतौर सीनियर असिस्टेंट एडिटर काम करती हैं. वह एक अनुभवी बांग्ला अनुवादक हैं. कोलकाता की रहने वाली सर्वजया शहर के इतिहास और यात्रा साहित्य में दिलचस्पी रखती हैं.

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श्रेया कात्यायिनी एक फ़िल्ममेकर हैं और पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के लिए बतौर सीनियर वीडियो एडिटर काम करती हैं. इसके अलावा, वह पारी के लिए इलस्ट्रेशन भी करती हैं.

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Translator : Vimal Chandra Pandey

विमल चन्द्र पाण्डेय राष्ट्रीय समाचार एजेंसी से पत्रकारिता की शुरुआत से ही केन्द्रीय सूचना का अधिकार आन्दोलन से जुड़े रहे और पांच साल की पत्रकारिता के बाद नौकरी से इस्तीफा देकर फिल्मों से जुड़े. फ़िलहाल कथा पटकथा लेखन के साथ फिल्मों के निर्देशन और निर्माण से जुड़े हैं. हिंदी अख़बार नवभारत टाइम्स, मुंबई में भोजपुरी स्तम्भ ‘माटी की पाती’ लिखते हैं.

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