“उनका कहना है कि हमारे यहां मछली बेचने से दुर्गंध फैलती है, यह जगह गंदी दिखती है और यहां कूड़े-करकट का ढेर इकट्ठा हो जाता है,” आक्रोश से भरी हुई एन. गीता मछलियों के बक्सों और सड़क की दोनों तरफ़ मछली बेचते हुए व्यापारियों की तरफ़ इशारा करती हुई कहती हैं. “ये कूड़े-करकट ही हमारी दौलत हैं, यह दुर्गन्ध हमारी रोज़ी-रोटी है. हम इनको छोड़ कर कहां जाएंगे?” 42 वर्षीया गीता पूछती हैं.

हम कामचलाऊ ढंग से लूप रोड पर बनाए गए नोचिक्कुप्पम मछली बाज़ार में खड़े हैं, जो मरीना बीच के साथ 2.5 किलोमीटर की लंबाई में फैला हुआ है. ‘वे लोग’ जो इन मछली बिक्रेताओं को यहां से शहर के सौन्दर्यीकरण के नाम पर विस्थापित करना चाहते हैं वे अभिजात्य क़ानून निर्माता और नौकरशाह हैं. गीता जैसे मछुआरों के लिए नोचिक्कुप्पम उनका रु (गांव) है. यह वह जगह है जहां से वे हमेशा जुड़े रहे हैं – किसी भी तूफ़ान या सुनामी के बाद भी.

गीता बाज़ार में भीड़भाड़ बढ़ने से पहले सुबह-सुबह ही अपना स्टाल तैयार कर रही हैं. कुछ उलटकर रखे गए क्रेटों पर प्लास्टिक बोर्ड रखकर बनाए गए अपने कामचलाऊ टेबल पर वे पानी की छींटे मारकर उसकी सफ़ाई कर रही हैं. वे अपने स्टाल पर 2 बजे दोपहर तक रहेंगी. कोई बीस साल से भी पहले हुए अपने विवाह से समय से ही वे यहां मछली बेचने का काम कर रही हैं.

हालांकि, कोई एक साल पहले 11 अप्रैल, 2023 को उनके अलावा लूप रोड पर मछली बेचने वाले लगभग 300 दूसरे विक्रेताओं को ग्रेटर चेन्नई कॉर्पोरेशन (जीसीसी) द्वारा इस जगह को खाली करने का नोटिस दिया गया. मद्रास उच्च न्यायालय के एक आदेश में जीसीसी को इस सड़क से हफ़्ते भर के भीतर हटने का आदेश दिया गया.

“ग्रेटर चेन्नई कारपोरेशन सभी अतिक्रमणों [मछली बेचने वाले मछुआरों, स्टालों, पार्क की गई गाड़ियों] को क़ानून सम्मत प्रक्रिया का पालन करते हुए लूप रोड से हटाएगी. पुलिस इस काम में कॉर्पोरेशन की सहायता करेगी, ताकि पूरी सड़क और पटरियों को अतिक्रमण से मुक्त कराया जा सके और उनपर पदयात्रियों के निर्बाध आवागमन को सुनिश्चित किया जा सके,” न्यायालय ने अपने आदेश में कहा.

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बाएं: गीता तिलपिया, मैकेरल, और थ्रेडफिन्स मछलियों के साथ, जिन्हें वे नोचिकुप्पम बाज़ार में बेचेंगी. दाएं: नोचिकुप्पम मछली बाज़ार में आज पकड़ी गई मछलियों की छंटाई करते मछुआरे

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बाएं: अहाते के भीतर नए बाज़ार का एक हिस्सा, जिसके बीच में एक कार पार्किंग की जगह भी है. दाएं: नोचिकुप्पम तट पर सक्रिय लगभग 200 नावों में से कुछ नावें

ख़ुद अपनी दृष्टि में मछुआरा समुदाय के लोग यहां के पूर्वकुड़ी अर्थात मूल निवासी हैं, और शहर ने धीरे-धीरे उनकी उस ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया जो ऐतिहासिक रूप से कभी उनकी हुआ करती थी.

चेन्नई (या मद्रास के भी) बसने से बहुत पहले इस तटरेखा पर बहुत सारे कट्टुमरम (कैटमरेन) तैरते रहते थे. मछुआरे यहां नीम रौशनी में हवाओं को महसूस करते हुए, उनकी नमी को सूंघते हुए और वंड - तन्नी के संकेतों को देखते हुए धैर्यपूर्वक बैठे रहते थे. वंड तन्नी, कावेरी और कोलिदम नदियों की वे गादयुक्त धाराएं हैं जो चेन्नई की तटीय सीमाओं पर मौसमी तौर में उमड़ती हैं.

“मछुआरे तो आज भी वंड तन्नी की प्रतीक्षा करते हैं, लेकिन शहर की रेत और कंक्रीट ने उन यादों को मिटा डाला है जिनको चेन्नई ने एक मछेरा कुप्पम [उन लोगों की बस्ती जो एक ही पेशे से जुड़े होते हैं] के रूप में सहेजा था,” ठंडी सांस लेते हुए एस. पालयम कहते हैं. वे उरुर आल्काट कुप्पम में रहते हैं जो नोचिकुप्पम बाज़ार के पास बहती नदी के पार एक गांव है. “क्या लोगों को वह याद है?”

तट पर बसा हुआ यह बाज़ार मछुआरों की जीवनरेखा है. और, जीसीसी की योजना के अनुसार बाज़ार को कही और स्थानांतरित करने से शहर के निवासियों को भी छोटी-मोटी ही असुविधाएं होने की संभावनाएं हैं, लेकिन नोचिकुप्पम बाज़ार में मछली बेचने वाले मछुआरों के लिए यह उनकी आजीविका और पहचान से भी जुड़ा मसला है.

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मरीना बीच पर वर्चस्व का यह द्वंद्व कोई नया नहीं है.

ब्रिटिश शासन के बाद से हर एक सरकार, जो आई और गई है, के पास मरीना बीच के सौन्दर्यीकरण में उनकी भूमिकाओं के बारे में कहने को ढेरों क़िस्से और कहानियां हैं. एक लंबी सार्वजनिक सैरगाह, किनारे के लॉन, करीने से संवारे गए पेड़-पौधे, साफ़-सुथरा रास्ता, सुंदर छतरियां, रैंप और भी बहुत कुछ इन क़िस्सों की मिसालें हैं.

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बाएं: नोचिकुप्पम लूप रोड पर गश्त लगाते पुलिसकर्मी. दाएं: नोचिकुप्पम बाज़ार में बिकते ताज़ा समुदी झींगे

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बाएं: नोचिकुप्पम में मछुआरों द्वारा जाल रखने और मरम्मत करने के लिए लगाए गए कामचलाऊ टेंट और शेड. दाएं: मरीना बीच पर अपने गिल नेट से मछलियों को निकालते मछुआरे

इस बार न्यायालय ने लूप रोड में ट्रैफिक की अव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए सुओ मोटो याचिका के ज़रिए मछुआरा समुदाय पर सीधी कार्रवाई की शुरुआत की है. मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायधीश स्वयं भी इसी रास्ते से प्रतिदिन आते-जाते हैं. सड़क के किनारों से फिश स्टाल को हटाने का आदेश दिया गया, क्योंकि जैसा मछुआरों को बताया गया कि इन स्टालों के कारण व्यस्ततम समय में इस सड़क पर अफ़रा-तफ़री मच जाती थी.

बीते 12 अप्रैल को जब जीसीसी और पुलिसकर्मियों ने लूप रोड के पश्चिमी हिस्से की फिश स्टालों को तोड़ना शुरू किया, तब इस इलाक़े के मछुआरों ने कई बार संगठित होकर इसका सामूहिक विरोध किया. यह विरोध प्रदर्शन तब स्थगित हुआ, जब जीसीसी ने न्यायालय को यह वचन दिया एक आधुनिक मछली बाज़ार के बनकर तैयार हो जाने तक वह लूप रोड के मछली विक्रेताओं पर नियंत्रण रखेगा. अब इस इलाक़े में पुलिस की उपस्थिति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है.

“जज हों या चेन्नई कॉर्पोरेशन, वे सभी सरकार का ही हिस्सा हैं. है कि नहीं? तो सरकार यह काम क्यों कर रही है? एक तरफ़ तो वे हमें समुद्रतट का प्रतीक बताते हैं, और दूसरी तरफ़ वे हमें हमारी रोज़ीरोटी कमाने से रोकते हैं,” 52 साल की एस. सरोजा कहती हैं जो तट पर मछली बेचने का काम करती हैं.

उनका अभिप्राय सरकार द्वारा 2009-2015 के बीच आवंटित किए गए उस नोचिकुप्पम हाउसिंग काम्प्लेक्स पर भित्तिचित्र बनवाने से था, जो सड़क की दूसरी तरफ़ है, जो उन्हें समुद्रतट से अलग करती है. मार्च 2023 में तमिलनाडु अर्बन हाउसिंग डेवेलपमेंट बोर्ड, एसटी+आर्ट नाम के एक गैर सरकारी संगठन और एशियन पेंट्स ने मछुआरों के आवासों की मरम्मत की पहल की. उन्होंने नेपाल, ओडिशा, केरल, रूस और मेक्सिको से कलाकारों को नोचिकुप्पम के 24 घरों की दीवारों पर भित्तिचित्र बनाने के लिए आमंत्रित किया.

“उन्होंने हमारी ज़िंदगियों को दीवारों पर पेंट किया और उसके बाद हमें उस इलाक़े से बेदख़ल कर दिया,” उन इमारतों की तरफ़ देखती हुई गीता कहती हैं. इन इमारतों में ‘मुफ़्त में रहने का’ दूसरा पक्ष यह था कि यहां सबकुछ संभव था, लेकिन मुफ़्त में रहना संभव नहीं था. “एक एजेंट ने मुझसे एक अपार्टमेन्ट के बदले 5 लाख रुपया चुकाने को कहा,” 47 वर्षीय पी. कन्नदासन बताते हैं जो नोचिकुप्पम के एक अनुभवी मछुआरे हैं. “अगर हम पैसे नहीं देते, तो अपार्टमेन्ट किसी और को आवंटित कर दिया जाता,” उनके दोस्त अरसु (47) बात पूरी करते हैं.

एक तेज़ गति से बढ़ते हुए शहर के रूप में चेन्नई का रूपांतरण, और मछुआरों की बस्ती और समुद्रतट का अधिग्रहण कर लूप रोड के निर्माण के कारण मछुआरों और महानगर के कॉर्पोरेशन में कई बार टकराव की स्थिति आ चुकी है.

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बाएं: नोचिकुप्पम में कन्नदासन. दाएं: अरसु (सफ़ेद दाढ़ी में) और उनके पुत्र नीतीश (कत्थई रंग की टी-शर्ट में) बाज़ार में नीतीश की दादी के साथ छाते के साए में फ़ोटो खिंचवा रहे हैं

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बाएं: नोचिकुप्पम बाज़ार में मछली बेचते रंजीत. दाएं: मछुआरों के रहने के लिए सरकार द्वारा आवंटित हाउसिंग काम्प्लेक्स पर बने भितिचित्र

मछुआरे ख़ुद को एक कुप्पम [बस्ती] से जुड़ा हुआ मानते हैं. “अगर पुरुषों को समुद्र और तटों पर काम करना हो, लेकिन महिलाओं को घरों से दूर काम करना पड़े, तो कुप्पम का क्या होगा?” 60 वर्षीय पालयम कहते हैं. “हमारे भीतर पारस्परिकता और सहयोग का कोई संबंध नहीं बचेगा. समुद्र के साथ भी हमारे रिश्तों में दूरी आ जाएगी.” अधिकतर परिवारों को आपस में बातचीत करने की फ़ुर्सत उतनी ही देर मिलती है जब मछलियों की ढुलाई पुरुषों की नावों से महिलाओं के स्टालों तक की जाती है. कारण यह है कि पुरुष मछलियां पकड़ने के लिए रात में निकलते हैं और लौटकर दिन में अपनी नींद पूरी करते हैं, जो महिलाओं के मछली बेचने का समय होता है.

दूसरी तरफ़, सुबह टहलने या जॉगिंग करने निकले लोग यह मानते हैं परंपरागत रूप से यह ज़मीन मछुआरों की है. “सुबह-सुबह यहां बहुत से लोग आते हैं,” रोज़ सुबह मरीना की सैर पर निकलने वाले 52 वर्षीय चिट्टिबाबू कहते हैं. “खास तौर पर वे मछली खरीदने आते हैं. यह मछुआरों का पैतृक व्यवसाय है, वे यहां लंबे समय से रहते आए हैं. उन्हें दूसरी जगह जाने का आदेश देना मुनासिब नहीं है,” वे कहते हैं.

नोचिकुप्पम के मछुआरे रंजीत कुमार (29) भी इस बात से सहमत हैं. “अलग-अलग लोगों के लिए इस जगह का अलग-अलग महत्व है. मिसाल के तौर पर सैर करने वाले लोग सुबह 6-8 बजे आते हैं. वह हमारे समुद्र में रहने का समय है. जब हम लौटते हैं, और महिलाएं अपना स्टाल लगा रही होती हैं, तब तक सैर के लिए निकले लोग जा चुके होते हैं. ये बस सरकारी अधिकारी और कर्मचारी हैं, जो समस्याएं पैदा कर रहे हैं.”

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यहां मछलियों की अनेक क़िस्में मिलती हैं. कुछ छोटी प्रजाति की मछलियां हैं, जो छिछले पानी में मिलती हैं. मसलन क्रिसेंट ग्रन्टर (टेरापोन जार्बुआ) और पुग्नोस पोनीफिश (डेवेक्सीमेंटम इंसिडिएटर) नोचिकुप्पम बाज़ार में सिर्फ़ 200-300 रुपए प्रतिकिलो पर ख़रीदी जा सकती है. ये स्थानीय मछलियां हैं और गांव की 20 किलोमीटर की परिधि में ही उपलब्ध हैं. इन मछलियों को मछली बाज़ार की एक तरफ़ बेचा जाता है. बड़ी और महंगी मछलियां बाज़ार की दूसरी तरफ़ बेची जाती हैं. मसलन सीर मछली (स्कोम्बेरोमोरस कॉमर्सन) 900-1000 रुपए प्रति किलो और बड़े आकार की ट्रेवेली (स्यूडोकैरैंक्स डेंटेक्स) मछली 500-700 रुपया प्रति किलो की दर पर ख़रीदी जा सकती है. यहां के मछुआरे इन क़िस्मों के लिए स्थानीय नामों का इस्तेमाल करते हैं - कीचन, कारपोडी, वंजरम, पारई - जिन्हें वे बेचते हैं.

धूप की तीव्रता के कारण मछलियां ख़राब हो जाती हैं, इसलिए ख़राब होने से पहले मछलियों को बेचना एक बड़ी चुनौती है. पारखी ग्राहक ताज़ा मछलियों और ख़राब हो रही मछलियों के बीच आराम से फ़र्क कर लेते हैं.

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बाएं: नोचिकुप्पम में एक मछली विक्रेता उस दिन पकड़ी गई सार्डिन मछलियों को छांटते हुए. दाएं: बाज़ार में सड़क पर बैठी मछुआरिनें मछलियों की सफ़ाई कर रही हैं

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बाएं: नोचिकुप्पम में सूखने के लिए पसरी हुईं मैकरल मछलियां. दाएं: बिकने के लिए ढेर के रूप में छांट कर रखी गईं फ़्लाउंडर, गोटफिश और सिल्वर बिडीज़ मछलियां

“अगर मैं अधिक मात्रा में मछलियां नहीं बेचूंगी, तो मेरे बच्चों की फीस कौन देगा?” गीता पूछती हैं. उनके दो बच्चे हैं. एक स्कूल जाता है और एक कॉलेज में है. “मैं अपने पति से यह उम्मीद नहीं कर सकती कि वे रोज़ मछली पकड़ने जाएं. मुझे मछली ख़रीदने के लिए कासिमेडु [नोचिकुप्पम से 10 किलोमीटर उत्तर] जाना पड़ता है, और इसके लिए मुझे रात को 2 बजे ही जगना पड़ता है. लौटकर मैं स्टाल लगाती हूं. अगर मैं यह सब नहीं करूं, तो फीस तो जाने ही दीजिए, हमे दो वक़्त की रोटी भी नहीं मिलेगी,” वे बताती हैं.

तमिलनाडू के 608 गांवों में समुद्र में मछली पकड़ने के काम में लगे 10.48 लाख मछुआरों में लगभग आधी तादाद महिलाओं की है. और, इस बस्ती से आई महिलाएं ही मुख्यतः इन अस्थायी स्टालों पर दुकानदारी करती हैं. उनकी आमदनी का ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना तो मुश्किल है, लेकिन यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि नोचिकुप्पम में व्यापार करने वाले मछुआरे और मछली बेचने के काम में लगे पुरुष और महिलाएं दूरदराज़ और सरकार द्वारा स्वीकृत कासिमेडु बन्दरगाह और किसी अन्य घरेलू बाज़ारों की तुलना में बढ़िया कमाई करते हैं. यह बात वहां इस व्यवसाय में लगी महिलाएं बताती हैं.

“सप्ताह के आख़िरी दो दिन मेरे लिए सबसे व्यस्त होते हैं,” गीता बताती हैं. हर बार बिक्री के बाद मैं मोटा-मोटी 300 से 500 रुपए बना लेती हूं. और, मैं 8:30-9:00 बजे सुबह से 1:00 बजे दोपहर तक लगातार मछली बेचती रहती हूं. लेकिन यह बता पाना मुश्किल है कि मैं कितना कमाती हूं, क्योंकि मुझे सुबह के समय मछलियों को ख़रीदने और आने-जाने पर भी पैसा ख़र्च करना होता है. यह ख़र्चा मछलियों की क़िस्मों और रोज़ की क़ीमतों पर निर्भर है.”

प्रस्तावित घरेलू बाज़ार के कारण ये मछुआरिनें आमदनी में गिरावट की आशंका से जूझ रही हैं. “यहां होने वाली आमदनी से ही हम अपना घर-परिवार चलाने और बच्चों की देखभाल करने में सक्षम हैं,” तट पर मछली बेचने वाली एक मछुआरिन नाम न छापने की शर्त पर कहती हैं. “मेरा बेटा कॉलेज जाता है! हम अगर किसी ऐसे बाज़ार में बैठने लगें जहां ख़रीदार आए ही नहीं, तो हम उसे और अपने दूसरे बच्चों को कॉलेज में कैसे पढ़ाएंगे?” वे सरकार के बारे में शिकायत करने के दुष्परिणामों से बहुत डरी हुई और विचलित हैं.

आर. उमा (45), जो उन महिलाओं में में एक हैं जिन्हें बसंत नगर बस स्टैंड के पास के एक दूसरे घरेलू बाज़ार में अपना व्यवसाय स्थानांतरित करने के लिए विवश कर दिया गया, कहती हैं, “एक चित्तीदार स्काट मछली [स्कैटोफैगस आर्गस], जो नोचिकुप्पम में 300 रुपया प्रति किलो बिकती है, बसंत नगर बाज़ार में अधिक से अधिक 150 रुपए में बिकेगी. अगर यहां हम क़ीमत बढ़ाकर बेचेंगे, तो कोई भी ख़रीदार नहीं मिलेगा. आसपास देखिए, बाज़ार मंदा है और मछलियां बासी हो गई हैं. यहां इन्हें ख़रीदने कौन आएगा? हम वहां तट पर एकदम ताज़ा मछलियां बेचते हैं, लेकिन सरकारी आदमियों को यह रास नहीं आता है. उन्होंने हमें इस घरेलू बाज़ार में आने के लिए मजबूर कर दिया. इसलिए हमें क़ीमतें घटानी पड़ीं, हम बासी मछलियां बेचने के लिए मजबूर हैं और हम मामूली कमाई के सहारे अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं.”

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बाएं: चिट्टिबाबू मरीना लाइटहाउस इलाक़े में सैर पर आने के दौरान अक्सर बाज़ार आते हैं. दाएं: कृष्णराज, जो एक अनुभवी मछुआरे हैं, नोचिकुप्पम बाज़ार को दूसरी जगह स्थानांतरित करने से जुड़ी अपनी मुश्किलों के बारे में बताते हैं

चिट्टिबाबू, जो इस समुद्रतट पर मिलने वाली मछलियों के ग्राहक भी हैं, कहते हैं, “मुझे पता है नोचिकुप्पम पर ताज़ा मछली ख़रीदने पर मुझे अतिरिक्त मूल्य चुकाना पड़ता है, लेकिन मुझे यह बात नहीं खलती है, क्योंकि मैं गुणवत्ता को लेकर पूरी तरह निश्चिन्त रहता हूं.” नोचिकुप्पम की गंदगी और दुर्गन्ध पर उनका कहना है, “क्या कोयमबेडु बाज़ार [जहां फूल, फल और सब्ज़ियां मिलती हैं] हमेशा साफ़-सुथरा रहता है? गंदगी सभी बाज़ारों में होती है, लेकिन कम से कम खुली हवा बेहतर होती है.”

“तट के मार्केट में बदबू हो सकती है,” सरोजा बीच में ही कहती हैं, “लेकिन धूप सभी चीज़ों को कम से कम सुखाती रहती है और सूखने के बाद उन्हें आसानी से बुहार कर निकाला जा सकता है. धूप धूलगर्द को भी साफ़ करने में मदद करती है.”

“बिल्डिंगों से घरेलू कूड़ा-करकट उठाकर ले जाने के लिए कूड़ा गाड़ी आती है, लेकिन बाज़ार की गंदगी उठाकर ले जाने के लिए कोई गाड़ी नही आती है,” नोचिकुप्पम के 75 वर्षीय मछुआरे कृष्णराज आर. कहते हैं. “उनको [सरकार को] लूप रोड बाज़ार भी साफ़ रखने की ज़रूरत है.”

“सरकार अपने नागरिकों को बहुत से नागरिक सुविधाएं देती हैं, तो इस सड़क [लूप रोड] के इलाक़े को साफ़ नहीं किया जाना चाहिए? क्या सरकार इसकी सफ़ाई की ज़िम्मेदारी हमारी और उपयोग का अधिकार दूसरों की समझती है?” पालयम पूछते हैं.

कन्नदासन कहते हैं, “सरकार केवल प्रभावशाली लोगों के पक्ष में सोचती है. उसे केवल सैर करने वालों के लिए रास्ता, रोप कार और अन्य प्रोजेक्ट की चिंता है. बड़े लोग सरकार को इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पैसे देते हैं, और सरकार इस काम के लिए बिचौलियों को भुगतान करती है.”

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बाएं-14: नोचिकुप्पम तट पर एक मुछुआरा अपने गिलनेट से सार्डिन मछलियां निकाल रहा है. दाएं: कन्नदासन गिलनेट से एन्चोवी (छोटी और नमकीन) मछलियां निकाल रहे हैं जिन्हें वे पकड़कर लाए हैं

“एक मछुआरा जीवन को ठीकठाक तरीक़े से तभी गुज़ार सकता है जब तट के पास रहे. अगर आप उसे वहां से उखाड़ देंगे तो वह कैसे ज़िंदा रहेगा? लेकिन जब वे अपने हक़ के लिए प्रदर्शन करते हैं, तो उनको जेल में डाल दिया जाता है. अगर हमें जेल में डाल देंगे, तो हमारे परिवार को कौन देखेगा?” कन्नदासन पूछते हैं. “लेकिन ये तो मछुआरों की समस्याएं हैं, जिन्हें कोई मामूली नागरिक के बराबर भी नहीं समझता है,” वे कहते हैं.

“अगर इस जगह पर उन्हें दुर्गन्ध आती है, तो उनको यहां से जाना चाहिए,” गीता कहती हैं. “हमें कोई मदद या किसी की मेहरबानी नहीं चाहिए. हम बस यह चाहते हैं कि कोई हमें बेमतलब तंग न करे और हमें मुक़दमे में न उलझाए. हमें पैसे नहीं चाहिए...फिश स्टोरेज बॉक्स...क़र्ज़, कुछ भी नहीं. हम जहां हैं हमें वहीँ रहने दीजिए. हमारे लिए यही बहुत है,” वे कहती हैं.

“नोचिकुप्पम में बेचीं जाने वाली मछलियां ज़्यादातर यहीं की होती हैं, लेकिन कई बार हम कासिमेडु से भी मछली लाकर बेचते हैं,” गीता कहती हैं. “इससे कोई फ़र्क नही पड़ता हैं कि मछली कहां से आई है,” अरसु टोकते हैं, “हम सभी यहां मछलियां ही बेचते हैं, और हम सभी हमेशा एक साथ हैं. आपको लग सकता है कि हम एक-दूसरे पर चिल्लाते हैं या एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हैं. लेकिन एक-दूसरे से हमारी शिकायतें बहुत मामूली होती हैं, और जब कोई मुश्किल आती है, तो हम फौरन एकजुट हो जाते हैं. अपने हक़ के लिए प्रदर्शन करते हुए हम अपने सभी काम भूल जाते हैं. यहां तक कि पड़ोस के गांवों को भी जब ज़रूरत पड़ती है, तो हम उनके साथ खड़े दिखते हैं.”

लूप रोड के किनारे कुप्पमों में रहने वाले मछुआरों के तीन समुदाय नए बाज़ार में मिलने वाले स्टाल को लेकर भी सशंकित हैं. “नए बाज़ार में कुल 352 नए स्टाल बनाए जा रहे हैं,” नोचिकुप्पम फिशिंग सोसाइटी के प्रधान रंजीत हमें वस्तुस्थिति से अवगत कराते हैं. “यदि ये स्टाल केवल नोचिकुप्पम के विक्रेताओं के लिए ही बनाए गए होते, तो शायद यह संख्या पर्याप्त होती. बहरहाल, सभी विक्रेताओं को बाज़ार में स्टाल एलॉट नहीं किए जा सकेंगे, क्योंकि इस बाज़ार में लूप रोड के किनारे के तीनों मछुआरा कुप्पमों को समावेशित किया जाएगा – जो नोचिकुप्पम से पट्टिनपक्कम तक फैला हुआ है. इस पूरे इलाक़े में कुल 500 मछुआरे हैं, और 352 स्टालों के आवंटन के बाद बच गए मछुआरों का क्या होगा? किनको स्टाल मिलेगा और बाक़ी लोगों के लिए क्या व्यवस्था होगी, इस मामले में कोई स्पष्टता नहीं है,” वे कहते हैं.

“मैं अपनी मछली सेंट जॉर्ज [विधानसभा का इलाक़ा] में बेचूंगा. हमारी पूरी बस्ती वहां जाएगी, और हम अपना प्रतिरोध दर्ज कराएंगे,” अरसु कहते हैं.

इस रपट में शामिल महिलाओं के नाम उनके अनुरोध पर बदल दिए गए हैं. .

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Divya Karnad

दिव्या कर्नाड एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार-प्राप्त मरीन भूगोल शास्त्री और संरक्षणवादी हैं. वे ‘इनसीज़न फिश’ की सह-संस्थापक भी हैं. उन्हें लिखना और रिपोर्टिंग करना प्रिय है.

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Photographs : Manini Bansal

मानिनी बंसल एक बेंगलुरु निवासी विज़ुअल कम्युनिकेशन डिज़ाइनर और फ़ोटोग्राफ़र हैं, जो पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय हैं. वे डाक्यूमेंट्री फ़ोटोग्राफ़ी भी करती हैं.

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Photographs : Abhishek Gerald

अभिषेक गेराल्ड, चेन्नई में रहने वाले एक मरीन जीववैज्ञानिक हैं. वे ‘फाउंडेशन फॉर इकोलॉजी रिसर्च एडवोकेसी एंड लर्निंग’ और ‘इनसीज़न फिश’ के साथ संरक्षण और सस्टेनेबल सीफूड पर काम करते हैं.

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Photographs : Sriganesh Raman

श्रीगणेश रमण एक मार्केटिंग प्रोफेशनल हैं और फ़ोटोग्राफ़ी में रुचि लेते हैं. वे टेनिस खेलते हैं और अलग-अलग विषयों पर ब्लॉग भी लिखते हैं. ‘इनसीज़न फिश’ में उनका काम पर्यावरण के बारे में सीखने से संबंधित है.

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Editor : Pratishtha Pandya

प्रतिष्ठा पांड्या, पारी में बतौर वरिष्ठ संपादक कार्यरत हैं, और पारी के रचनात्मक लेखन अनुभाग का नेतृत्व करती हैं. वह पारी’भाषा टीम की सदस्य हैं और गुजराती में कहानियों का अनुवाद व संपादन करती हैं. प्रतिष्ठा गुजराती और अंग्रेज़ी भाषा की कवि भी हैं.

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Translator : Prabhat Milind

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.

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