आप जंगल के राजा को अभी और इंतज़ार करने के लिए नहीं कह सकते हैं.
शेरों को आना था - वह भी सैकड़ों मील दूर गुजरात से. और यह ज़िम्मेदारी हर एक आदमी की थी कि उनके आने पर उन्हें किसी तरह की कोई तक़लीफ़ नहीं होने पाए.
यह ठीक बात भी थी. भले ही मध्यप्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में बसे गांवों को इस अनिश्चितता की स्थिति से गुज़रना पड़ा था कि यह सब कैसे संभव हो पाएगा.
“शेरों के यहां आने से यह इलाक़ा बहुत मशहूर हो जाएगा. हमलोगों को गाइड के रूप में रोज़गार मिल जाएगा. आसपास के इलाक़ों में हम नई दुकानें और ढाबे खोल सकेंगे. हमारे परिवारों को फलने-फूलने का मौक़ा मिलेगा.” यह कहना 70 साल के रघुलाल जाटव का है जो कूनो उद्यान की परिधि पर बसे अगारा गांव के हैं.
रघुलाल जाटव कहते हैं, “बदले में हमें सिंचाई की अच्छी सुविधा से लैस उपजाऊ ज़मीनें, गांवों में पक्की सड़कें और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं मिलेंगी.”
वह कहते हैं, “सरकार ने तो बहरहाल हमसे इन्हीं सुविधाओं के बारे में आश्वस्त किया था.”
और इस तरह पैरा गांव के लोग और 24 अन्य गांवों के कोई 1,600 परिवारों ने कूनो राष्ट्रीय उद्यान में बसे अपने घरों को खाली कर दिया. वे मुख्य रूप से सहरिया आदिवासी, दलित और निर्धन पिछड़ी जातियों के लोग थे. उनके विस्थापन में एक अकारण जल्दीबाज़ी दिखाई गई.
इस काम के लिए बड़ी संख्या ट्रेक्टर मंगाए गए और कई पीढ़ियों से जंगलों में रहने वाले लोगों को अपनी गृहस्थी और परिसंपत्तियां छोड़ कर विस्थापन के लिए विवश कर दिया गया. उनके प्राथमिक विद्यालय, नलकूप, कुएं और जो ज़मीनें वे पीढ़ियों से जोतते आए थे, सभी कुछ छूट गए. यहां तक कि उनके मवेशियों को भी उनके साथ नहीं जाने दिया गया, क्योंकि जंगल जैसे विस्तृत चरागाहों की अनुपलब्धता की स्थिति में वे पशु एक बोझ हो सकते थे.
तब से तेईस साल बीत चुके हैं और उन्हें अभी भी शेरों के आने का इंतज़ार है.
अपने बेटे के घर के बाहर चारपाई पर बैठे रघुलाल कहते हैं, “सरकार ने हमारे साथ धोखाधड़ी की.” अब तो उनके भीतर का आक्रोश भी ठंडा पड़ चुका है. उन्हें बस इसका इंतज़ार है कि सरकार अपने कहे का लाज रख लेगी. दलित समुदाय से आने वाले रघुलाल जैसे हज़ारों ग़रीब और अभावग्रस्त लोग अपने घर, अपनी ज़मीनें और अपने रोज़गारों से हाथ धो चुके हैं.
दुर्भाग्य से रघुलाल को अपना सबकुछ गंवा देने के बाद भी कूनो राष्ट्रीय उद्योग को कुछ भी हासिल नहीं हो हो पाया. शेरों के आने की ख़बर भी दूसरों के काम नहीं आईं. शेरों को तो उनसे कुछ तभी मिल पाता, जब वे यहां आए होते. शेर तो आए ही नहीं.
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किसी समय शेर मध्य, उत्तर, और पश्चिम भारत के जंगलों में आसानी से देखे जा सकते थे. दुर्भाग्यवश आज एशियाई शेर (पैन्थेरा लियो लियो) केवल गिर के जंगलों और उससे लगे सौराष्ट्र प्रायद्वीप के 30,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र तक ही सीमित होकर रह गए हैं. इस क्षेत्र का केवल छह फीसदी से भी कम भूभाग - 1,883 वर्ग किलोमीटर ही उनका एकमात्र सुरक्षित गढ़ रह गया है. यह तथ्यात्मक स्थिति वन्यजीव प्राणीविज्ञानियों और पर्यावरण संरक्षणकों के लिए एक बड़ी चिंता का कारण है.
सौराष्ट्र प्रायद्वीप में 674 एशियाई शेरों के होने की आधिकारिक पुष्टि की गई है और दुनिया की अग्रणी संरक्षण एजेंसी आईयूसीएन ने इन्हें विलुप्तप्राय प्रजातियों के तौर पर सूचीबद्ध किया है. यहां दशकों तक काम कर चुके वन्यजीवन शोधकर्ता डॉ. फैयाज़ ए. ख़ुदसार एक स्पष्ट संकट की तरफ़ साफ़-साफ़ इशारा करते हैं. वह कहते हैं, “जैवसंरक्षण विज्ञान स्पष्ट संकेत करता है कि किसी भी प्रजाति की छोटी आबादी को अगर एक छोटे से समूह तक ही सीमित कर दिया जाए तो उसके विलुप्त होने के अनेक ख़तरे होते हैं.”
एशियाई शेरों पर जिन विभिन्न ख़तरों की तरफ़ डॉ. ख़ुदसार ने इशारा किया है उनमें कैनाइन डिस्टेंपर वायरस का संक्रमण, जंगल की आग, जलवायु परिवर्तन, स्थानीय जनांदोलन, और अन्य अनेक कारण प्रमुख हैं. उनके कथनानुसार, ये ख़तरे बहुत तेज़ी के साथ शेरों की छोटी सी आबादी को नष्ट कर देने में सक्षम हैं. शेर हमारे आधिकारिक राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह हैं और हमारे आधिकारिक मुहरों पर भी अंकित हैं, इस बात को ध्यान में रखें तो भारत के लिए शेरों की विलुप्ति का संकट ख़ासा चिंताजनक है.
ख़ुदसार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि एक अतिरिक्त अभयारण्य के रूप में भारतीय शेरों के लिए कूनो के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. वे कहते हैं: “इन शेरों के जीनोम पुंसत्व को प्रोत्साहित करने के लिए उनके पुराने भौगोलिक क्षेत्रों के साथ उनका पुनार्परिचय बहुत आवश्यक है.”
इस अतिरिक्त अभयारण्य का विचार बहुत पहले 1993-95 में उपन्न हुआ माना जा सकता है, जब शेरों को कूनो में बसाए जाने की योजना का प्रारूप पहली बार बनाया गया था. इस योजना के अनुसार कुछ शेरों को गिर से 1,000 किलोमीटर दूर कूनो में लाकर बसाया जाना था भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के डीन डॉ. यादवेन्द्र झाला बताते हैं कि जिन नौ स्थानों को इस काम के लिए चिन्हित किया गया था उनमें इस योजना के लिए सबसे उपयुक्त कूनो को ही पाया गया.
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और राज्यों के वन्यजीव विभागों के लिए डब्ल्यूआईआई एक तकनीकी सहयोगी के रूप में अपनी सेवाएं देता है. सरिस्का, पन्ना, बांधवगढ़ के गौर और सतपुड़ा के बारहसिंघा में बाघों के पुनर्वास में संस्थान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
संरक्षण वैज्ञानिक डॉ. रवि चेल्लम कहते हैं, “कूनो का विशाल विस्तार (आसपास के गांवों को मिलाकर लगभग 6,800 वर्ग किलोमीटर), आदमियों की आबादी का न्यूनतम हस्तक्षेप, इससे होकर गुज़रने वाले किसी हाईवे की अनुपस्थिति आदि इसे शेरों के लिए एक आदर्श अभ्यारण्य बनाते हैं.” उन्हें इस वैभवशाली और ताक़तवर स्तनपायी की रिहाइश में चार से भी अधिक दशकों तक काम करने का अनुभव रहा है.
उनके मुताबिक़ इस परियोजना का एक अन्य सकारात्मक पक्ष है कि: “इस प्राकृतिक वास की विविधता और गुणवत्ता - मसलन घासवनों की पर्याप्त उपलब्धतता, बांस, दलदली भूमि आदि के कारण यहाँ छोटे पशुओं की अच्छी तादात है. इस इलाक़े में चंबल की अनेक सहायक और नदियां भी जो सालों भर पानी से भरी रहती हैं और वनक्षेत्र में पाए जाने वाले छोटे जीवों के जीवनयापन का एक महत्वपूर्ण आधार हैं. इन्हीं ख़ूबियों ने इस राष्ट्रीय उद्यान को शेरों के संभावित अभ्यारण्य के रूप में प्रयुक्त होने में बड़ी भूमिका निभाई हैं.”
बहरहाल इसके लिए हज़ारों-हज़ार लोगों का कूनो अभ्यारण्य से निर्वासन कर उन्हें मीलों दूर दूसरी जगहों पर बसाया जाना ज़रूरी था. अब तक वे जंगल और उसमें उपलब्ध संसाधनों से अपना भरण-पोषण कर रहे थे, किंतु अब आने वाले सालों में उनके लिए रोज़गार के दूसरों ज़रियों की तलाश ज़रूरी था.
बहरहाल तब से अब तक तेईस साल गुज़र चुके हैं और कूनो राष्ट्रीय उद्यान अभी भी शेरों के आगमन की बाट जोह रहा है.
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कूनो के सीमा क्षेत्र में आने वाले 24 गांवों के निवासियों को अपने विस्थापन का पहला खटका 1998 में हुआ, जब इस इलाक़े के वन रक्षकों ने स्थानीय लोगों से बातचीत के क्रम में यह यह बात कहनी शुरू कर दी कि जल्दी ही इस अभ्यारण्य को राष्ट्रीय उद्यान बना दिया जाएगा और इसे आदमियों की उपस्थिति से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाएगा.
मंगू आदिवासी सवालिया लहजे में कहते हैं, “हमने कहा भी अतीत में भी हमें शेरों और दूसरे जानवरों के साथ-साथ जीने का हुनर पता है, इसलिए हमें विस्थापित करने का क्या तुक है?” वह चालीस के आसपास की उम्र के एक सहरिया हैं और उन लोगों में एक हैं जिन्हें विस्थापित कर दिया गया है.
साल 1999 की शुरुआत में ग्रामीणों को उचित तरह से आश्वस्त किए बिना ही वन विभाग ने कूनो की सीमा से लगे भूभागों की सफ़ाई की प्रक्रिया शुरू कर दी. पेड़ों को काटकर गिरा दिया गया और ज़मीनों को जे.सी. बैमफोर्ड एक्स्कवेटरों (जेसीबी) की मदद से समतल कर दिया गया. .
साल 1999 में कूनो में ज़िला वन पदाधिकारी रह चुके जे.एस. चौहान बताते हैं, “यह पुनर्वास स्वैच्छिक था, और मेरी देखरेख में पूरा हुआ था.” संप्रति वह मध्यप्रदेश के प्रिंसिपल चीफ कंजरवेटर ऑफ फॉरेस्ट्स एंड वाइल्डलाइफ वार्डन (पीसीसीएफ़) हैं.
विस्थापन को आसान बनाने के लिए सभी परिवारों को आश्वस्त किया गया कि उन्हें सिंचाई की सुविधा के साथ दो हेक्टेयर कृषियोग्य भूमि दी जाएगी. 18 से ऊपर की उम्र के सभी पुरुष सदस्यों को इस सुविधा का प्रलोभन दिया गया. साथ ही उन्हें अपना ख़ुद का घर बनाने के लिए 38,000 रुपए की आर्थिक सहायता देने का अधिकारी भी बताया गया. 2,000 रुपए की अतिरिक्त मदद परिवहन और गृहस्थी के अन्य साजो-सामान के नाम पर देने का वादा किया गया. उन्हें आश्वस्त किया गया कि उनके नए गांव सभी बुनियादी सुविधाओं से लैस होंगे.
और उसके बाद पलपुर थाने को निष्क्रिय कर दिया गया. “ इस इलाक़े में डकैतों के भय से थाने का अलार्म वक़्त-बेवक्त बजता ही रहता था,” सैयद मेराजुद्दीन (43 वर्षीय) कहते हैं जो उस समय इस क्षेत्र में एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में सक्रिय थे.
मेज़बान गांवों से इस संबंध में कोई पूर्व संपर्क नहीं किया गया था और न उन्हें नए विस्थापितों को बसाने के लिए ज़रूरी सुविधाएं ही मिली थीं. बल्कि राष्ट्रीय उद्यान के पर्याप्त विस्तार के लिए उनकी भूमि जो कब्ज़ा किया गया था, उसकी भी भरपाई नहीं की गई थी
और फिर 1999 की गर्मियां आ गईं. लोगबाग अपनी अगली फ़सल की रोपाई की तैयारियां कर रहे थे, जबकि दूसरी तरफ कूनो के निवासियों ने पलायन करना भी शुरू कर दिया था. वह अगारा में और उसके आसपास के भूक्षेत्रों में नीली प्लास्टिक के बने तंबुओं में अपना अगले दो-तीन सालों के लिए अपना डेरा डाल लिया था.
मेराजुद्दीन बताते हैं, “राजस्व विभाग ने शुरुआत में तो ज़मीन के इन नए पट्टेदारों के मालिकाना हक़ को मानने से इंकार किया इसलिए उन्हें इस भूमि के काग़ज़ात बनाकर नहीं दिए गए. स्वास्थ, शिक्षा, सिंचाई और दूसरों महकमों को भी हरकत में आने में 7-8 साल लग गए.” फ़िलहाल वह आधारशिला शिक्षा समिति के सचिव हैं. यह एक लाभरहित संस्था है, जो अगारा गांव के विस्थापितों के लिए एक विद्यालय चलाने के अलावा दूसरे सामाजिक काम करती है.
तेईस साल बाद पीसीसीएफ़ चौहान यह स्वीकार करते हैं कि “गांवों का पुनर्वास वन विभाग का उत्तरदायित्व नहीं है. यह सरकार की ज़िम्मेदारी है और तभी विस्थापितों को सरकारी राहत का पूरा लाभ मिलना संभव है. सभी विभागों को विस्थापितों के दरवाजों पर पहुंचना होगा. यह हमारा कर्तव्य है.” अधूरे वायदों के संबंध में पूछने पर उनका यही कहना है.
शिवपुर ज़िले के विजयपुर तहसील में उमरी, अगारा, अर्रोड़, चेंतिखेड़ा और देवरी गांवों में 24 विस्थापित गांवों से आए हज़ारों लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा. स्थानीय लोगों के अनुसार इन गावों की वास्तविक संख्या अट्ठाईस थी. मेज़बान गांवों से इस संबंध में कोई पूर्व संपर्क नहीं किया गया था और न उन्हें नए विस्थापितों को बसाने के लिए ज़रूरी सुविधाएं ही मिली थीं. बल्कि राष्ट्रीय उद्यान के पर्याप्त विस्तार के लिए उनकी भूमि जो कब्ज़ा किया गया था, उसकी भी भरपाई नहीं की गई थी.
राम दयाल जाटव और उनका परिवार जून 1999 में कूनो पार्क के मूल पैरा गांव से आकर अगारा के बाहरी इलाक़े में बसे छोटे से टोले पैरा जाटव में रहने लगे. अब वह पचास के आसपास की उम्र के हो चुके हैं और उन्हें अब भी इसका अफ़सोस है, “पुनर्वास हमारे लिए ठीक सिद्ध नहीं हुआ. हमारी मुश्किलें ख़त्म होने नाम नहीं ले रही हैं. आज भी हमारे कुओं में पानी नहीं है और हमें बीमार पड़ने की सुरत में इलाज में भारी ख़र्चों से गुज़रना पड़ता है और हमारे लिए रोज़गार के अवसर नहीं के बराबर हैं. इसके अलावा भी दूसरी दिक्कतें हैं.” वह बताते हैं: “उन्होंने केवल जानवरों के हक़ में सोचा लेकिन हमारे लिए कुछ भी अच्छा नहीं किया.”
रघुलाल जाटव कहते हैं कि पहचान का नष्ट होना उनके लिए सबसे बड़ा संकट था : “हमने अपने जीवन के 23 साल सिर्फ़ दिलासों पर गुजार दिए और हमें कुछ भी हासिल नहीं हुआ. यहां तक कि हमारी अपनी स्वतंत्र ग्रामसभा को भंग कर उसे यहां पहले से काम रही ग्रामसभा में मिला दिया गया.”
रघुलाल जाटव अपने गांव पैरा सहित 24 गांवों की असूचीबद्धता के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे है. रघुलाल के अनुसार जब 2008 में नई ग्राम का गठन हुआ, तो पैरा से उसके राजस्व ग्राम होने होने के अधिकार वापस ले लिए गए. पैरा के निवासियों को चार अलग छोटे गांवों में पहले से काम कर रही पंचायत में समायोजित कर लिया गया. “इस प्रकार हमने अपना पंचायत खो दिया.”
पीसीसीएफ़ चौहान के कथनानुसार यह एक ऐसी पीड़ा थी जिसका उपचार वे करना चाहते थे. वह कहते हैं, “मैंने सरकार में पदस्थापित अनेक लोगों से संपर्क किया कि पीड़ितों को उनकी पंचायत वापस दे दी जाए. मैंने सरकारी महकमों से कहा, ‘आपको यह नहीं करना चाहिए था.’ यह प्रयास मैंने इस साल भी किया.”
अपने ख़ुद के पंचायत के बिना विस्थापितों को अनेक क़ानूनी और राजनीतिक जटिलताओं का सामना करना पड़ रहा है, और इस संघर्ष में उनका साथ देने वाला कोई नहीं है.
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मंगू आदिवासी कहते हैं कि विस्थापित होने के बाद से ही “जंगल के दरवाज़े हमारे लिए बंद हो गए. हम घास और चारा बेचा करते थे, लेकिन अब हमारे पास इतना भी चारा नहीं बचता की हम अपनी गायों को खिला सकें.” मवेशी के लिए चारा, जलावन की लकड़ी, लकड़ी के अलावा अन्य वन्य उत्पाद और ऐसी अन्य दूसरी चीजों से भी उन्हें हाथ धोना पड़ा है.
सामाजिक समाजशास्त्री प्रो. अस्मिता काबरा इस विडंबना की तरफ़ इशारा करती हैं: “वन विभाग को इस बात की चिंता थी कि शेरों के आ जाने के बाद मवेशियों के जान पर संकट उत्पन्न हो जाएगा, इसलिए उन्हें शीघ्रतापूर्वक भेज दिया गया. लेकिन अंततः मवेशियों को छोड़ कर जाने के सिवा ग्रामीणों के पास कोई विकल्प नहीं बचा था, क्योंकि उनके लिए नई जगहों पर पर्याप्त चारा उपलब्ध नहीं था.”
खेती के भूमि तैयार करने के कारण पेड़ों की क़तारों को काटकर पीछे कर दिया गया. क़रीब 23 साल के शिक्षक और अहरवानी गांव, जहां विस्थापित सहरिया आदिवासियों का पुनर्वास किया गया है, के निवासी केदार आदिवासी बताते हैं, “अब हमे जलावन की लकड़ियां जमा करने के लिए 30-40 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. संभव है कि हमारे पास अनाज हों, लेकिन उन्हें पकाने के लिए हमारे पास पर्याप्त इंधन की लकड़ियां नहीं हैं.”
क़रीब 50 के आसपास की उम्र की गीता और 60 के आसपास की हरजनिया जब ब्याहने के बाद अपने घरों से शिवपुर की कराहल तहसील, जो इसी अभ्यारण्य का हिस्सा हैं, में स्थित अपने ससुरालों में आईं थीं तब वे देह से मज़बूत और स्वस्थ थीं. गीता बताती हैं, “अब हमें लकड़ियां जमा करने पहाड़ियों पर जाना पड़ता है. इसमें पूरा दिन लग जाता है, और अनेक बार वन विभाग के कर्मचारी हमें परेशान भी करते हैं. लिहाज़ा हमें बहुत जोखिम उठाकर यह काम करना होता है.”
प्रो. काबरा याद करती हुईं हमें बताती हैं कि राष्ट्रीय उद्यान को शेरों के लिए जल्दी से तैयार करने की शीघ्रता में वन विभाग ने पेड़ों और झाड़ियों को रौंद डाला. प्रख्यात समाजशास्त्री ने हमें आगे बताया, “जैवविविधता को कितना नुकसान पहुंचा, इसका कोई आकलन नहीं किया गया. उनकी पीएचडी का मूल विषय कूनो के आसपास के इलाक़े में विस्थापन, ग़रीबी और रोज़गार सुरक्षा था. एक संरक्षण और विस्थापन विशेषज्ञ के रूप में आज भी इस इलाक़े में उनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है.
गोंद और रेजिन हासिल करने के लिए चीड़ और अन्य पेड़ों तक न जा पाना एक बड़ा नुक़सान है. चीड़ से बने गोंद स्थानीय बाज़ारों में 200 रुपए प्रतिकिलो के भाव से बिकते हैं और हर परिवार 4-5 किलो रेजिन प्रतिदिन इकट्ठा कर लेता था. केदार कहते हैं, “तेंदू पत्ते (जिनसे बीड़ी बनती हैं) सहित अन्य पेड़ों से भी गोंद बनाने के लिए रेजिन इकट्ठे किए जाते हैं. बील, अचार, महुआ, शहद और बहुत तरह के दूसरे कंदमूलों का उत्पादन भी कम हो गया. हम सब आजीविका और खाने व कपड़े जैसी अन्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इन्हीं उत्पादों पर निर्भर थे. एक किलो गोंद के बदले हमें पांच किलो चावल मिल जाते थे.”
अब केदार की मां कुंगई आदिवासी, जिनके पास अहरवानी गांव में मानसून पर निर्भर सिर्फ़ दो बीघा खेती योग्य भूमि है, जैसे अनेक लोग हैं जिन्हें प्रतिवर्ष मुरैना और आगरा के शहरों में काम की तलाश में जाना पड़ता है. वे वहां कुछेक महीने निर्माण के कामों में दैनिक मज़दूरी करते हैं. लगभग 50 साल की हो चुकीं कुंगई कहती हैं, “अभावों के महीनों में हम दस-बीस लोग एक साथ काम की तलाश में निकलते हैं, क्योंकि यहां कोई कृषियोग्य काम नहीं उपलब्ध है.”
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लाल किले से 15 अगस्त, 2021 को दिए अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘ प्रोजेक्ट लायन ’ की घोषणा की थी. उन्होंने कहा था, “यह परियोजना देश में एशियाई शेरों के भविष्य को सुरक्षित बनाएगी.”
साल 2013 में जब सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को शेरों के स्थानान्तरण का आदेश दिया था, तब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. न्यायालय का स्पष्ट निर्देश था, “यह कार्य आज से 6 महीने की अवधि में हो जाना चाहिए.” और, लाल किले की प्राचीर से यह घोषणा करने का कारण भी देश में एशियाई शेरों के भविष्य को बचाना बताया गया था. तब से आज तक गुजरात सरकार के पास इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि इतना अरसा गुज़रने के बाद भी वह कुछ शेरों को कूनो भेजने में क्यों असफल रही.
स्थानान्तरण के विषय पर गुजरात वन विभाग के आधिकारिक वेबसाइट पर भी कोई सूचना उपलब्ध नहीं है. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने साल 2019 की प्रेस विज्ञप्ति में ‘एशियाटिक लायन कंज़रवेशन प्रोजेक्ट’ के लिए 97.85 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा अवश्य की, लेकिन इसमें सिर्फ़ गुजरात राज्य का उल्लेख किया.
सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले को 15 अप्रैल, 2022 को नौ साल पूरे हो गए जो उसने 2006 में दिल्ली की एक संस्था द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया था. इस याचिका में न्यायालय से “गुजरात सरकार को राज्य के कुछेक एशियाई शेरों को स्थानांतरित करने संबंधी निर्देश” देने की गुहार लगाई गई थी.
डब्ल्यूआईआई के डॉ. झाला कहते हैं, “सर्वोच्च न्यायालय के 2013 के निर्णय के बाद कूनो में शेरों के पुनर्वास की देखरेख करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई. बहरहाल पिछले ढाई सालों में विशेषज्ञ समिति की एक भी बैठक नहीं हुई है. और, गुजरात सरकार ने इस कार्ययोजना को अभी तक स्वीकृत नहीं किया है.”
दूसरी तरफ़, कूनो को इसी साल अफ़्रीकी चीतों के भारत में आगमन स्थल के रूप में भी नामित किया गया है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय अपने उसी निर्णय में कह चुका है कि “पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा कूनो में अफ़्रीकी चीतों को बसाने का फ़ैसला क़ानून की दृष्टि में सही नहीं माना सकता है और इसे निरस्त किया जाता है.”
साल 2020 में प्रोजेक्ट लायन पर जारी एक रिपोर्ट के अनुसार संरक्षणवादियों ने इस सन्दर्भ में जो आशंकाएं व्यक्त की थीं, वे दुर्भाग्य से सच साबित होना शुरू हो चुकी हैं. डब्ल्यूआईआई, और गुजरात, मध्यप्रदेश, और राजस्थान सरकार की रिपोर्टें इस स्थिति को लेकर अपनी-अपनी चिंताएं जता चुकी हैं. यह रिपोर्ट कहती है, “गिर में बबेसिओसिस और कैनाइन डिस्टेंपर वायरस का हालिया संक्रमण पिछले दो वर्षों में 60 से भी अधिक शेरों की मौत का कारण बन चुका है.”
वन्यजीव जैववैज्ञानिक डॉ. रवि चेल्लम का यही मानना है, “केवल मानवीय ज़िदों ने इस स्थानांतरण की प्रक्रिया को रोक रखा है.” वह स्थानान्तरण संबंधी सुनवाई में शीर्ष न्यायालय के वन्य पीठ के विशेषज्ञ वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में न्यायपालिका को अपनी सेवाएं दे चुके हैं. एक संरक्षण वैज्ञानिक और मेटास्ट्रिंग फाउंडेशन के मुख्य कर्यपालक अधिकारी (सीईओ) डॉ. चेल्लम ने शेरों के स्थानान्तरण की प्रक्रिया और उसमें होने वाले विलंब के कारणों पर पैनी नज़र रखी है.
डॉ. चेल्लम, जो कि बायोडायवर्सिटी कलैबरेटिव के भी सदस्य-मंडल में शामिल हैं, कहते हैं, “शेर एक गहरे संकटपूर्ण स्थिति से गुज़र चुके हैं और अब बहुत मुश्किल से दोबारा उनकी संख्या में वृद्धि दर्ज की गई है. लेकिन इस संबंध में दुर्भाग्यवश हम कभी भी कोई लापरवाही बरतने की स्थिति में नहीं हैं. विलुप्तप्राय प्रजातियों के सन्दर्भ में यह संभव भी नहीं है - क्योंकि संकट दिखता भले न हो, लेकिन कभी भी उपस्थित हो सकता है. इसके लिए बहुत गहरी और आंतरिक निगरानी रखने की ज़रूरत पड़ती है.”
“मनुष्यों को भगा दिया, पर शेर नहीं आया !”
कूनो में अपना घर गंवा चुके मंगू आदिवासी उपहास उड़ाने के लहजे में कहते हैं, लेकिन उनकी ख़ुद की आवाज़ में कोई हंसी नहीं झलकती है. सरकार के किए गए वायदों को पूरा करने में नाकाम हो जाने की सूरत में आदिवासियों को उनका घर और ज़मीन लौटाने की मांग के पक्ष में प्रदर्शन करते हुए उन्होंने लाठियां भी खाई हैं. उनके माथे पर टांके के निशान अभी भी दिखते हैं, “बहुत बार हमें लगा कि अब हम वापस लौट सकेंगे.”
15 अगस्त, 2008 को मुआवजे की अधिकारसम्मत मांग पर उन्होंने अपना आख़िरी प्रदर्शन किया था. रघुलाल कहते हैं, “हमने तय किया कि हमें मिली ज़मीन को छोड़कर हम अपनी पुरानी ज़मीन पर वापस लौट जाएंगे. क़ानून में भी यह प्रावधान है कि कुछेक स्थितियों में विस्थापन के 10 साल के भीतर की अवधि तक हम अपने मूल स्थान पर दोबारा लौट सकते हैं.”
बहरहाल एक मौक़ा गंवाने के बाद भी रघुलाल ने हार नहीं मानी है और स्थितियों को दुरुस्त करने के लिए अपना समय और पैसा दोनों लगा रहे हैं. वह ज़िला मुख्यालय और तहसील कार्यालय के सैकड़ों चक्कर लगा चुके हैं. वह अपने पंचायत का मामला उठाने के लिए भोपाल स्थित निर्वाचन आयोग तक जा चुके हैं. लेकिन उनकी इस भागदौड़ का अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है.
चूँकि इन विस्थापितों को कोई राजनैतिक समर्थन नहीं प्राप्त है, इसलिए उनकी आवाज़ उपेक्षित है और उसे दबा दिया गया है. “हम कैसे हैं, यह पूछने वाला भी कोई नहीं है. किसी को हमारी मुश्किलों या ज़रूरतों से कोई मतलब नहीं है. कोई यहां आता-जाता भी नहीं. यदि हम वन विभाग के दफ़्तर जाते हैं, तो वहां कोई कर्मचारी नहीं मिलता है.” पैरा निवासी राम दयाल बताते हैं. “जब हम उनसे मिलने में कामयाब भी होते हैं, तो वे हमे झूठा दिलासा देते हैं कि वे हमारा काम जल्दी ही कर देंगे, लेकिन पिछले 23 सालों में कुछ भी नहीं हुआ.”
कवर फ़ोटो: सुल्तान जाटव, पैरा गांव की उस जगह पर बैठे हुए हैं जहां कभी उनके परिवार का पुराना घर हुआ करता था.
रिपोर्टर, सौरभ चौधरी के प्रति अपना आभार प्रकट करना चाहती हैं, जिन्होंने इस रपट के लिए आवश्यक शोध और अनुवाद का काम किया.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद