साल 2020 में कोरोना के चलते लॉकडाउन की घोषणा हो गई थी. गांव से ख़बर आई थी कि मेरे दादा गिर गए थे और उनका पैर टूट गया था. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टर नदारद थे, आस-पास के जितने निजी क्लिनिक थे कोरोना के चलते बंद थे. दादा के टूटे पैर पर घरवालों ने जैसे-तैसे प्लास्टर चढ़वा दिया था और घर पर ही उनकी देखभाल होने लगी. लेकिन, कभी बुख़ार तो कभी पैर की अथाह पीड़ा से वह चिल्ला उठते. उनका शरीर कमज़ोर होता गया, और मई महीने के आख़िरी हफ़्ते में उन्होंने अंतिम सांस ली.

इस घटना के समय मैं मुंबई में था. अचानक सब बंद पड़ जाने से लोगों की ज़िंदगी में तूफ़ान सा आ गया था. एक तरफ़ महामारी का भय पसरा हुआ था, दूसरी तरफ़ सड़कों पर पुलिस डंडे बरसा रही थी. कामकाज ठप था, प्रवासी मज़दूर अपने गांवों की तरफ़ लौटने लगे थे. मैं मुंबई में रुका रहा, क्योंकि सब्ज़ी बेचता था, और इस धंधे को चलने की इजाज़त थी. लेकिन, उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले में स्थित मेरे गांव से जब दादा के गुज़र जाने की ख़बर आई, तो घर जाने की तुरंत इच्छा हुई. उनके साथ मेरा भावनात्मक लगाव था. इसके अलावा, गांव में मां के सिवा कोई दूसरा ज़िम्मेदार इंसान भी मौजूद न था.

यह वही दौर था, जब कई ख़बरों ने भीतर से तोड़ दिया था. कुछ मज़दूर पैदल अपने घर की तरफ़ जा रहे थे, और रात में थकान के मारे ट्रेन की पटरी पर ही सो गए थे . ट्रेन आई और उन्हें काटती हुई चली गई थी. कोई मां बिना दाना-पानी के गोद में दुधमुंहा बच्चा लिए चल रही थी. मैंने दादा के देहांत के बाद पैकिंग की और ट्रेन का पता लगाने के लिए मुंबई के अंधेरी (वेस्ट) के नज़दीकी थाने में गया. लेकिन वहां जाने पर पता चला कि इलाहाबाद जाने वाली ट्रेन नहीं चल रही है. इस बीच वाराणसी में ट्रेन के अंदर से दो लाशें मिलने की ख़बर आई. एक ट्रेन को उत्तर प्रदेश जाना था, वह ओडिशा निकल गई. और मुझे तो गांव तक पहुंचने के लिए इलाहाबाद (प्रयागराज) से भी 70 किमी आगे जाना था, इसलिए इन ख़बरों ने टूटते मनोबल को और तोड़ दिया. टैक्सी बुक करके कोई जाना चाहे, तो जा सकता था, जिसके लिए 40,000-50,000 रुपए चुकाने होते. लेकिन, मेरे लिए यह संभव नहीं था, इसलिए, मैंने गांव जाने का इरादा त्याग दिया. इसके अलावा, कोई विकल्प कहां था.

Mithun Kumar (facing the camera) in a BEST bus, on his way to the vegetable market
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Inspecting lemons at the mandi in Dadar, Mumbai
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बाएं: (कैमरे की तरफ़ मुंह करके बैठे) मिथुन कुमार बीईएसटी की बस से सब्ज़ी मंडी जा रहे हैं. दाएं: मुंबई की दादर सब्ज़ी मंडी में नींबू की परख करते हुए

अंतिम संस्कार के लिए दादा को इलाहाबाद के झूंसी क़स्बे में ले जाया गया था. मां बताती है कि गाड़ियों को जाने नहीं दिया जा रहा था. पुलिस तरह-तरह की पूछताछ करती थी. कई जगह पर तो घाटों पर अंतिम संस्कार करने पर भी रोक थी. डर के साए में जैसे-तैसे दादा का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

वैसे मेरा जन्म मुंबई में ही हुआ था. लेकिन बचपन उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले में बीता और पढ़ाई-लिखाई भी वहीं हुई. पापा साल 1975 के आस-पास 15 साल की उम्र में जौनपुर से मुंबई आए थे. हालांकि, उनका मुंबई आना इतना आसान नहीं रहा था. जब वह पैदा हुए ही थे, उनकी मां गुज़र गई थीं. दादा के पास रोज़गार के नाम पर दूसरों के खेतों में मज़दूरी करने, मिट्टी के बर्तन और छत के खपरैल बनाने के अलावा कोई काम न था. दूसरों के खेतों में हल जोतने, फावड़ा चलाने पर उतनी मज़दूरी न मिलती थी कि सबका पेट भर सकें. पहनने के नाम पर परिवार के मर्दों के पास धोती-नुमा छोटे कपड़े होते थे, जिसे भगई कहते हैं और जिससे सिर्फ़ जननांगों को ही ढका जा सकता था. खाने में गेहूं या चावल जैसी चीज़ें न थीं. बाजरा, मकई, आलू, महुआ आसपास के खेतों में उगता था, और भोजन का मुख्य स्रोत होता था.

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शायद यह बताने की भी ज़रूरत नहीं कि दादा किन लोगों के यहां हरवाही करते थे. किनके हिस्से ज़मीनें थीं और मज़दूर कौन था

दादा को कितनी ही बार मेहनत के बदले मजूरी न मिलती थी. मांगने पर कहा जाता कि तुम्हारे पुरखों का अभी बहुत क़र्ज़ बाक़ी है, जिसे तुमको चुकाना है. “तुम्हारे दादा ने इतना क़र्ज़ लिया था, परदादा का उतना पैसा बाक़ी है…” शायद यह बताने की भी ज़रूरत नहीं कि किन लोगों के यहां दादा हरवाही करते थे - किनके हिस्से ज़मीनें थीं और मज़दूर कौन था. पापा जब थोड़े बड़े हुए, तो उन्हीं लोगों के यहां रहने लगे जहां दादा हरवाही करते थे. मां थी नहीं और दादा के अपने संघर्ष थे, तो पापा और उनके बड़े भाई का ख़याल कौन रखता. पापा पूरा दिन उन्हीं लोगों के यहां बिताते, और खेतों से लेकर घर तक के जो काम बताए जाते वह करते. जब काम न रहता, तो उनकी गायें-भैसें लेकर चराने निकल जाते. इन सबके एवज में कुछ खाने को मिल जाता था. यही उनकी मज़दूरी थी. पापा बताते हैं कि काम छोड़कर जाने का विकल्प नहीं था.

PHOTO • Courtesy: Mithun Kumar
PHOTO • Courtesy: Mithun Kumar

उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले में स्थित अपने गांव के खेत में काम कर रहीं मिथुन की मां. क़रीब 30 साल पहले जब उनके पति मुंबई में सब्ज़ी बेचने का काम करते थे, तब वह गांव से मुंबई आती-जाती रहती थीं

साल 1970 में गांव के एक पड़ोसी मुंबई आ गए थे और उन्होंने केले बेचने का काम शुरू किया था. कुछेक साल बाद, बड़े पिताजी (पापा के बड़े भाई) उन्हीं के सहारे मुंबई आ गए और उनके सहयोगी बनकर केले का धंधा चलाने लगे. कुछ समय बाद उन्होंने अपना ख़ुद का धंधा शुरू किया. अगली बार जब बड़े पिताजी गांव आए, तो पहली बार कुछ पैसों की वजह से घर में रौनक थी. जब वह फिर से मुंबई गए, तो इस बार पापा को भी साथ ले लिया. इस बात की भनक जब उन लोगों को पड़ी जिनके यहां पिताजी दिनभर काम करते थे, तो वे आकर घर के पड़ोसी से लड़ बैठे. उनका कहना था कि वह हमारे आदमी को भड़का रहे हैं, बिगाड़ रहे हैं. बात काफ़ी आगे बढ़ गई थी, मारपीट की नौबत आ गई थी. दोनों परिवारों को ख़ूब धमकियां मिलीं, पर सबने हिम्मत बरक़रार रखी और मुम्बई का रास्ता लिया. यह गुलामी की जंजीर को तोड़ने की दिशा में उठाया गया पहला क़दम था. कई बार यक़ीन नहीं होता कि यह सब आज से महज़ 40-45 साल पहले हो रहा था, एक आज़ाद देश में.

मुंबई में बड़े पिताजी के साथ कुछ समय तक काम करने के बाद, पापा फलों की अपनी दुकान चलाने लगे. स्थितियां थोड़ी बेहतर हुईं, तो गांव में उनकी शादी करा दी गई. शादी के बाद कुछ वक़्त तक गांव में ही रहने के बाद मां, पापा के साथ मुंबई आने-जाने लगीं. अब साल के कुछ महीने वह मुंबई में पापा के साथ रहतीं, फिर गांव चली जाती थीं. इसी क्रम में, साल 1990 में मुंबई के जूहू इलाक़े में स्थित कूपर अस्पताल में मेरा जन्म हुआ.

मम्मी जिस परिवार से थीं वहां आर्थिक स्थिति बेहतर थी. नाना के पास ठीक-ठाक खेतीबाड़ी थी. दोनों मामा ढंग से पढ़ लिख गए थे. आज से क़रीब 40 साल पहले, उनका बारहवीं तक पढ़ जाना बहुत बड़ी बात थी. इसके अलावा, उनका राजनीतिक झुकाव, समझ, समाज को लेकर नज़रिया आधुनिक था. लेकिन, इस पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों की हालत कितनी भी बेहतर हो जाए, महिलाओं के हिस्से का संघर्ष ख़त्म नहीं होता. मेरी मां, मौसियों, और मामियों की ज़िंदगी खेतों में ही खप रही थी.

मां की पहली शादी, समान आर्थिक स्थिति वाले एक परिवार में कर दी गई थी. पर कुछ अरसे बाद मम्मी मायके लौट आई थीं. मुझे वजह ठीक-ठीक नहीं मालूम, लेकिन जहां तक मैंने सुना है यही मालूम चला कि शायद मां के त्वचा रोग की वजह से ऐसा हुआ था. मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की. कुछ साल तक मां, नाना-मामा के साथ रहीं. इसके बाद, उनकी फिर से शादी करा दी गई. दूसरी शादी पापा के साथ हुई. बात सीधी सी थी, पापा के घर की आर्थिक हालत ठीक न थी, इसलिए थोड़ी बेहतर स्थिति वाले घर से आए रिश्ते को मना करने की कोई वजह न थी.

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मिथुन हर सुबह 4:30 बजे सब्ज़ी मंडी जाते हैं और अपनी ख़रीद को एक टेम्पो (दाएं) में लोड कर देते हैं, जो सब्ज़ियों को उनकी दुकान तक पहुंचा देता है

मेरे पैदा होने तक पापा की दुकान ठीक चल रही थी. फिर कुछ ऐसी मुश्किलें आईं कि दुकान छूट गई और पापा को भाड़े की दुकान पर काम शुरू करना पड़ा. वहीं, हम पांचों बच्चों की पैदाइश के बाद मां का मुंबई आना-जाना लगभग बंद हो गया था. मां, गांव में दादा के द्वारा ली गई बटाई की खेती में जुती रहती, और बाक़ी के समय मिट्टी के बर्तन बनाने में लगने वाली मिट्टी तैयार करने में सहायता करती. लेकिन, आर्थिक कारणों से परिवार में हुए आंतरिक कलह इतने बढ़ गए कि मां हम पांचों भाई-बहन को लेकर परिवार से अलग हो गई. अलग होने पर, एक कच्चे घर, कुछ बर्तनों, और थोड़े अनाज के अलावा हाथ में कुछ भी न था. हालांकि, तब मामाओं ने थोड़ी आर्थिक मदद की थी और राशन का शुरुआती जुगाड़ भी करके दिया था. फिर मां ने गांव के ही सवर्ण लोगों के खेत बटाई पर लेकर खेती करना शुरू किया. मां की मेहनत का असर ही था कि साल-दो साल के अंदर घर में पर्याप्त अनाज रहने लगा. मां दूसरों के घरों में काम भी करने लगी थी. उसकी कड़ी मेहनत का ही नतीजा था कि खाने-पहनने के मामले में हम बेहतर होने लगे.

पापा अगली बार जब गांव आए, तो मां ने जाते समय मुझे उनके साथ मुंबई भेज दिया. तब साल रहा होगा 1998-99, और मेरी उम्र 8 या 9 साल की रही होगी. मुंबई भेजने का उद्देश्य यही था कि मेरी आवारागर्दी वहां छूटेगी और पापा की मदद भी हो जाएगी. इस बीच पापा ने कई जगह दुकान बदली. कहीं पर धंधा न था, तो कहीं बीएमसी (बृहन्मुंबई महानगरपालिका) की कार्रवाई की अधिकता. उनके काम का कोई स्थायी पता नहीं था. कुछ लोगों के दबाव डालने पर पापा ने बीएमसी के एक स्कूल में मेरा एडमिशन करवा दिया. मेरा नाम उम्र के हिसाब से तीसरी कक्षा में लिखवा दिया गया था. स्कूल में कुछ नए बच्चों से मुलाक़ात हुई और मेरे भीतर स्कूल की तरफ़ दोबारा आकर्षण पैदा हो गया.

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हालात ऐसे नहीं थे कि पढ़ाई के लिए 3-4 साल की मोहलत मिल जाए. इसलिए, मैंने वह ख़्वाब देखना छोड़ दिया

पापा सुबह मंडी निकल जाते थे. मैं दूध और बिस्किट खाकर व कुछ पैसे लेकर सुबह सात बजे स्कूल चला जाता. क़रीब दस बजे जब लंच होता, तो स्कूल की कैंटीन से समोसा या वड़ा जो भी मिलता था वह खा लेता था. बारह बजे घर लौटकर मैं पापा के बताए अनुसार मिट्टी के तेल (केरोसिन) से चलने वाले स्टोप पर खाना बनाता. वह अमूमन खिचड़ी या दाल-चावल बनाने का तरीक़ा बता जाते. नौ साल की उम्र में जितना दिमाग़ काम करता था, मैं उस हिसाब से बनाने की कोशिश करता था. कितनी ही बार चावल गीला पकता, कई बार नीचे से जल जाता या कच्चा रह जाता. खाना बनाने के बाद मैं टिफिन पैक करता, और बीईएसटी (सड़क परिवहन) की बस पकड़कर कमरे से लगभग पांच किलोमीटर दूर स्थित पापा की दुकान पर ले जाता. पापा खाना खाते वक़्त अक्सर चिल्लाते कि “ये क्या बना डाला है, यही बताया था क्या? सत्यानाश कर दिया,” वगैरह-वगैरह.

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बाएं: मिथुन सुबह क़रीब 6:30 बजे सड़क के किनारे स्थित सब्ज़ी की अपनी दुकान खोलते हैं. दाएं: इसके बाद वह सामने वाली जगह की सफ़ाई करते हैं

दोपहर में पापा दुकान के नीचे की ज़मीन पर सो जाते और मैं दुकान संभालता. मेरा काम यहीं ख़त्म नहीं होता था. जब वह शाम को उठते, तो मैं आसपास की गलियों में धनिया और नींबू बेचने निकल जाता था. धनिया के बंडल को बाएं हाथ की कलाई पर रख, और दोनों हथेलियों में नींबू पकड़कर मैंने राहगीरों को बेचने की कला सीख ली थी. नींबू-धनिया बेचकर हर रोज़ 50 से 80 रुपए तक की कमाई हो जाती थी. यह सिलसिला क़रीब ढाई साल तक चला. फिर अचानक किसी वजह से पापा गांव गए, तो मुझे भी साथ जाना पड़ा. पांचवीं की मेरी पढ़ाई आधी-अधूरी रह गई.

इस बार मां ने मुझे गांव में रोक लिया. उन्हें ऐसा लगने लगा था कि शिक्षा ज़रूरी है, इसलिए घर का कोई बच्चा तो पढ़े. या शायद मुझे रोक लेने का कारण मुंबई का मेरा संघर्ष था. मैंने कभी जानने की कोशिश न की. उन्होंने मुझसे भी न जानना चाहा कि मुझे कहां रहना पसंद है. उन्हें जो बेहतर लगा उन्होंने मेरे लिए किया.

मामा के घर पढ़ाई का बेहतर माहौल था, इसलिए मां ने उनसे बात की और मैं क़रीब ग्यारह साल की उम्र में मामा के घर चला गया. वहां घर के सभी बच्चे स्कूल जाते थे. मुझे पहली बार पढ़ाई का ऐसा माहौल मिला था. मामा लोग कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे, तो माहौल अक्सर राजनीतिक भी होता. पहली बार मैंने यहीं पर देश की राजनीतिक पार्टियों के नाम सुने, क्षेत्रीय नेताओं के नाम जाने. एक दोपहर को देखा कि पड़ोस के एक व्यक्ति, जिन्हें हम मामा कहते हैं और लोग कॉमरेड बुलाते हैं, बहुत से लाल झंडे लिए द्वार पर खड़े थे. थोड़ा पूछने पर पता चला कि यह कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा है, किसान-मज़दूरों का झंडा है. वे लोग सरकारी नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के लिए जा रहे थे. मुझे तब पहली बार यह भी पता चला कि सरकार का विरोध भी किया जाता है.

साल 2008 में बारहवीं की परीक्षा पास कर लेने के बाद, मामा ने मुझे पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा करने के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने का सुझाव दिया. जब मैंने मां से इस बारे में चर्चा की, तो मां ने कहा कि अब पहले की तरह हालात नहीं रह गए हैं. उनके इस तरह से मना करने पर भी मामा ने पॉलीटेक्निक का फॉर्म डलवा दिया था. पहली बार में ठीक रैंक न आया. मैंने अगले साल फिर से कोशिश की और एक साल की मेहनत से रैंक बढ़िया आया और इस बार एक सरकारी कॉलेज मिल गया. काउंसलिंग का लेटर भी आ गया था, और साल भर की फ़ीस 6,000 रुपए थी. मैंने मां से एक बार फिर पूछा, लेकिन उन्होंने हाथ खड़े कर दिए. मामा ने कहा, “हम देख लेंगे.” लेकिन मां ने फिर दोहराया कि बहनें बड़ी हो रही हैं, पापा अब उतना नहीं कमा पाते. आगे का कैसे होगा? मां सही थी. हालात ऐसे नहीं थे कि पढ़ाई के लिए तीन-चार साल की मोहलत मिल जाए. मैंने वह ख़्वाब वहीं छोड़ दिया.

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बाएं: ग्राहकों के आने से पहले वह सब्ज़ियों को व्यवस्थित ढंग से रखते हैं. दाएं: पालक के बंडल को बिक्री के लिए रखने से पहले उसके सिरों को काटते हुए

इसके बाद, मैंने कई बार साइकिल उठाकर गांव से दूर के ऐसे बाज़ारों में जाकर काम तलाशने की कोशिश की, जहां मुझे कोई न जानता हो. जानने वालों से काम मांगने में झिझक होती थी. ख़ैर, काम ढूंढने के क्रम में एक जगह ट्यूशन पढ़ाने का काम मिला. लेकिन, दो-तीन महीने पढ़ाकर देखा कि पूरे पैसे नहीं मिल रहे थे, इसलिए मन टूट गया. मैंने सोचा कि मुंबई निकल जाता हूं; पापा भी थे वहां, तो लगा कि कुछ न कुछ काम मिल ही जाएगा. मां भी इस बात से राज़ी थीं. फिर एक दिन उन्हीं पड़ोसी के बेटे के साथ मैं मुंबई आ गया जिनके साथ पापा पहली बार आए थे.

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काम की तलाश फिर शुरू हुई. रहने का ठिकाना भी अनिश्चित ही था. मैं पूरा दिन काम ढूंढता फिरता था

मुंबई के अंधेरी (वेस्ट) इलाक़े में, जहां पापा सब्ज़ी की दुकान लगाते थे, वहीं फुटपाथ के कोने में खाना बनाते-खाते थे और वहीं सो भी जाते थे. ऐसे में उनके साथ रहना मुश्किल था. दूध की एक दुकान पर मुझे काम मिल गया. मालिक ने कहा कि बस दुकान देखनी है, कभी यहां-वहां सामान छोड़ना होगा, रहना-खाना यहीं होगा, काम महीने के तीसों दिन होगा, कोई छुट्टी नहीं, और पगार 1,800 रुपए. मैंने काम के लिए हामी भर दी थी. लेकिन, एक हफ़्ते में अचानक दोनों पैर सूज गए थे. भयानक दर्द होता था और बैठने पर ही थोड़ा सुकून मिलता. बीस-बाइस दिन काम करने के बाद, मैंने सेठ को कह दिया कि यह महीना पूरा हो जाने के बाद काम नहीं कर पाऊंगा.

काम की तलाश फिर शुरू हुई. रहने का ठिकाना भी अनिश्चित ही था. दिन भर काम ढूंढता था, फिर कभी बस स्टॉप या किसी दुकान के सामने सो जाता था. आख़िरकार, एक ऑनलाइन लॉटरी की दुकान में काम मिल गया, जहां लोग सट्टा लगाने आते थे. यहां मेरा काम बोर्ड पर लॉटरी के नंबर लिखने का था, जिसके लिए एक दिन के 80 रुपए मिलते थे. मेरा सेठ एक दिन ख़ुद सट्टा लगाने लगा, जिसमें उसने क़रीब 7-8 लाख रुपए डुबो दिए. इस कांड के बाद अगले दो दिनों तक दुकान नहीं खुली. तीसरे दिन किसी ने मुझे बताया कि सेठ के सेठ ने सेठ को पीट दिया था और अब दूसरे सेठ के आने तक दुकान नहीं खुलेगी. लेकिन दूसरा सेठ आया ही नहीं. मेरे क़रीब एक हज़ार रुपए बकाया थे, वे डूब गए. एक बार फिर मैं काम की तलाश में भटकने लगा.

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मिथुन के बहुत से ग्राहक नियमित रूप से उनसे सब्ज़ियां ख़रीदते हैं; और उनमें से कुछ तो उनके दोस्त भी बन गए हैं. वह लगभग साल 2008 से मुंबई में सब्ज़ियां बेच रहे हैं

इस बीच, पापा के पैर में समस्या शुरू हो गई थी. मैंने पापा से कहा कि अब मुझे काम करने दीजिए और आप गांव हो आइए, मैं आपकी दुकान यहां संभालता हूं. शुरू में तो पापा ने कहा कि नहीं कर पाओगे, दुनिया भर की दिक़्क़तें होती हैं सड़क पर. लेकिन, वह ख़ुद भी घर जाना चाहते थे, मैंने भी उन्हें दुकान चलाने के लिए राज़ी कर लिया.

अपने दम पर एक हफ़्ते दुकान चलाकर मैंने क़रीब डेढ़ हज़ार रुपए बचा लिए थे. यह मेरे लिए बहुत बड़ी रक़म थी. इस कमाई ने काम के प्रति समर्पण का भाव पैदा कर दिया और एक महीने की मेहनत के बाद मैंने पांच हज़ार रुपए बचा लिए. जब मैंने डाक से घर पर पहली बार पैसे भेजे, तो मां ख़ुश थी. पापा हैरान थे कि जिस दुकान पर वह कुछ न बचा पा रहे थे, मैंने इतने पैसे बचा लिए थे.

जहां मैं रेड़ी लगाता था, सड़क के उस पार एक सब्ज़ी की दुकान और थी जिस पर मेरी उम्र का एक लड़का आ गया था. धीरे-धीरे हम अच्छे दोस्त बन गए. मुझे याद है जब पहली बार उसने खाने की प्लेट आगे बढ़ाई थी. नाम उसका आमिर था. आमिर के साथ आकर खाने-पीने की मेरी टेंशन ख़त्म हो गई. अब आमिर मुझसे पूछता कि आज क्या बना लें. मुझे खाना बनाना नहीं आता था, इसलिए अक्सर मैं खाने के बाद सारे बर्तन धो देता था. जिस खुली जगह पर हम सोते थे वहां हमारी जेब से पैसे चोरी होने लगे. एक बार तो कोई जेब से मोबाइल ही निकाल ले गया था. इसलिए, कुछ दिन बाद मैंने और आमिर ने मिलकर भाड़े का घर लेने का फ़ैसला किया. एक पहचान वाले ने चाल में घर दिलवा भी दिया. कुछ पैसे पगड़ी के देने पड़े थे और महीने का भाड़ा तीन हज़ार था, जो मैं और आमिर आपस मे बांट लेते थे.

गांव का मेरा घर कच्चा बना हुआ था. कुछ समय पहले उसमें आग लग गई थी, और मरम्मत करवाने के बावजूद उसकी हालत जर्जर बनी हुई थी. इसलिए, कच्चा घर गिराकर उसी जगह पर पक्का घर बनने लगा था. उसी दौर में, साल 2013 के मई महीने में मेरे दोनों पैरों में अजीब तरह का दर्द शुरू हुआ. गांव के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टर से मिला, तो उन्होंने कैल्शियम की कमी बताई. जब मामला न ठीक हुआ, तो डॉक्टर ने तमाम जांच लिख दी. रिपोर्ट आने पर पता चला कि पीलिया है. इलाज के बावजूद मेरी हालत ख़राब होती जा रही थी. चूंकि राहत कुछ न मिल रही थी, तो घर वाले अक्सर किसी ओझा-सोखा के पास पहुंचे रहते. पैसे दोनों तरफ़ से जा रहे थे, दवाई और दुआ, दोनों में. लेकिन राहत कहीं न मिली. मैं पैसे से पूरी तरह खाली हो गया. मेरी हालत देखकर रिश्तेदारों ने मदद की. मैं मुंबई चला आया.

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बाएं: मिथुन नियमित रूप से जिम करते हैं, जिसे देखकर कई लोग आश्चर्यचकित होते हैं. मिथुन कहते हैं, ‘क्या सब्ज़ीवाले को सेहत बनाने का अधिकार नहीं है?’ दाएं: घर पर खाना पकाते हुए

मेरे दिमाग़ में तरह-तरह के ख़याल आते. कभी लगता मैं गांव में हूं, कभी लगता मुंबई में. ग्राहक से क़रीबी दोस्त बन चुकी कविता मल्होत्रा को मेरे बारे में पता चला, तो वह परेशान हो उठीं. पेशे से शिक्षक कविता मल्होत्रा अपने जानकार डॉक्टरों के पास ले जाने लगीं. सारा ख़र्च वह ख़ुद उठाती थीं. लोगों के बहुत कहने पर आमिर मुझे दरगाह भी ले गया. लोग बताते हैं कि मैं कभी बदन के पूरे कपड़े निकालकर फेंक देता, कभी इधर-उधर भागने लगता. एक दिन पापा मुझे ट्रेन में लेकर किसी पहचान वाले के सहयोग से फिर गांव आ गए. गांव में डॉक्टर और ओझाओं को दिखाने का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो चुका था. अक्सर लोग इलाहाबाद के तमाम डॉक्टरों के सुझाव देते, बोलेरो बुक की जाती, जिसमें मां मुझे लेकर चल पड़ती थी. पैसे मां के पास बिलकुल न थे, पर रिश्तेदार आर्थिक मदद कर देते थे. मेरा वज़न चालीस किलो तक आ गया था. खाट पर लेटता तो ऐसा लगता हड्डी का ढांचा हूं. लोग कहते कि अब बचने की कोई उम्मीद न है. एक मां थी जो हिम्मत न हारी थी. मां ने इलाज के लिए एक-एक कर अपने गहने बेचने शुरू कर दिए थे.

इस बीच, किसी के सुझाव पर मेरा इलाज इलाहाबाद के मनोरोग विशेषज्ञ डॉक्टर टंडन के पास शुरू हुआ. उन्होंने 15 अगस्त 2013 का नंबर दिया था. जिस बस से हम निकले वह आगे जाकर बंद पड़ गई. वहां से दो किलोमीटर दूर ही चौराहा था जहां से इलाहाबाद के लिए बसें मिलती थीं. मैंने हिम्मत बांधी और पैदल चलना शुरू किया, लेकिन थोड़ी ही दूर बाद हार गया, और सड़क के किनारे बैठ गया. मां ने कहा कि “चलो, मैं तुमको अपनी पीठ पर उठाकर ले चलूंगी.” उनकी बात सुनकर मैं रो पड़ा. तभी एक टेम्पो वहां से गुज़रा और मां के हाथ जोड़ने पर रुक गया. टेम्पो ड्राइवर ने हमें बस भी पकड़ाया और पैसे भी न लिए. मुझे अपनी बीमारी के दौर का कुछ भी याद नहीं है, लेकिन इस घटना की याद मुझे है. और ठीक यहीं से मेरी सेहत में सुधार होना शुरू हुआ था. धीरे- धीरे वज़न में भी बढ़ोतरी हुई. लेकिन कमज़ोरी अब भी थी. ज़्यादा वज़न न उठा पाता था. पर फिर भी हिम्मत करके काम करने लगा और फिर से मुंबई आ गया. व्यापार एक बार फिर रफ़्तार पकड़ चुका था, और अगले दो साल स्थितियां बेहतर रहीं. फिर साल 2016 में नोटबंदी की घोषणा हो गई, जिससे मेरा धंधा चौपट हो गया.

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भगतसिंह को पढ़कर मन में सवाल उठता था कि यह जो भारत आज है, क्या उन्होंने इसी भारत का सपना देखा था ?

बीते काफ़ी अरसे से मैं सोशल मीडिया का बहुत इस्तेमाल करने लगा था. व्हाट्सएप फ़ॉरवर्ड पढ़कर दिमाग दक्षिणपंथी रुझान की तरफ़ पूरी तरह से अग्रसर था. एक-डेढ़ साल में ही सोशल मीडिया ने ऐसे जकड़ा कि मैं एक मुस्लिम परिवार के साथ रहते हुए भी मुस्लिमों से नफ़रत करने लगा था. आमिर मेरी बातों को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेता था. पर मुझे देश के बाक़ी मुसलमानों से दिक़्क़त थी. मुझे पाकिस्तान, कश्मीर, पूर्वोत्तर के लोगों से दिक़्क़त थी. मैं जिस धर्म मे पैदा हुआ हूं उस धर्म को न मानने वालों से मुझे दिक़्क़त थी. किसी महिला को जीन्स पहने देखता तो लगता यह समाज ख़राब कर रही है. प्रधानमंत्री की आलोचना सुनकर ऐसे लगता जैसे कोई मेरे मसीहा को गाली दे रहा है.

ऐसा महसूस होने लगा था कि मुझे अपनी बात कहनी चाहिए, और इसलिए, मैं अपने ख़ुद के अनुभवों को सोशल मीडिया पर कहानी की तरह लिखने लगा, जिसे पढ़कर लोग मुझसे जुड़ते गए

वीडियो देखें: सब्ज़ियों के साथ, बराबरी का पाठ

एक दिन आमिर ने एक पत्रकार का ज़िक्र किया, जिनका नाम मयंक सक्सेना था. आमिर ने फेसबुक पर उनकी कई पोस्ट दिखाई. मुझसे लगा कि क्या बकवास आदमी है, देश-विरोधी. प्रधानमंत्री की आलोचना करने वाली बात लिखने वाले की आमिर तारीफ़ कर रहा था, जो मुझसे बर्दास्त न हुआ. लेकिन मैं आमिर से कुछ न कह सका. फिर एक दिन अचानक उनसे मुलाक़ात भी हो गई. छोटे कद और बड़े बाल वाला यह इंसान मुस्कुराते हुए मुझसे मिला. उस व्यक्ति के लिए घृणा अब भी मेरे मन में थी.

मयंक के अन्य दोस्त भी उसी की सोच वाले थे, उनसे भी मुलाक़ात होती रही. मैं उनको बहस करते देखता. इतने आंकड़ें, किताबों, जगहों, व्यक्तियों का नाम वे ले लेते जिन्हें मैंने कहीं कभी सुना ही न होता. मयंक ने एक किताब अपनी तरफ़ से दी. वह थी ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग'. यह गांधी की लिखी हुई किताब थी. गांधी-नेहरू को लेकर मेरे दिमाग़ में अब भी ज़हर भरा था. वह किताब मुझे बोरिंग लगी पर मैं पढ़ता गया. पहली बार गांधी के बारे में इतना जान पाया. पर अब भी बहुत कुछ पढ़ना-जानना बाक़ी थी. जो कूड़ा दिमाग़ में भरा था वह धीरे-धीरे निकलने लगा था.

एक बार दादर में एक धरना प्रदर्शन था. मयंक वहां जा रहे थे. उन्होंने मुझे चलने का पूछा तो मैं भी साथ हो लिया. दादर स्टेशन के बाहर बहुत से लोग घेरा बनाकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, नारे लगा रहे थे, और सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध कर रहे थे. बहुत सालों बाद मुझे लाल झंडा फिर दिखा. मयंक वहां डफली लेकर लोगों के साथ जनवादी गीत गाने लगे. प्रोटेस्ट का यह मेरा पहला अनुभव था और यह सब देखना किसी आश्चर्य से कम न था. मयंक थोड़ी फुरसत में आए, तो मैने उनसे पूछा कि इनको यहां आने के पैसे कौन देता है? मयंक ने पलटकर पूछ लिया, “तुम्हें किसने पैसे दिए थे यहां आने के?” इस प्रश्न में ही मुझे जवाब मिल गया था.

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ग्राहकों को देखने के बीच-बीच में मिथुन पढ़ने के लिए वक़्त निकाल लेते हैं. ‘लगातार पढ़ने का फ़ायदा यह हुआ कि मुझे लिखने की इच्छा होने लगी’
वह सात से अधिक वर्षों से सोशल मीडिया पर लिखते रहे हैं और उनका लिखा पढ़ने के लिए बहुत से लोग उन्हें नियमित रूप से फ़ॉलो करते हैं

इसी प्रदर्शन में मेरी मुलाक़ात अनवर हुसैन से हुई. वे अब अक्सर आते और दुकान से सब्ज़ियां ले जाते. उन्हें जब पता चला कि मुझे किताबें पढ़ने का शौक़ है, तो कुछ किताबें दे गए. उनमें मंटो, भगतसिंह, मुंशी प्रेमचंद की किताबें ज़्यादा थीं. मंटों ने मुझे ऐसा झकझोरा कि महिलाओं के प्रति एक अलग ही नज़रिया जन्म लेने लगा. भगतसिंह को पढ़कर मन में सवाल उठता था कि यह जो भारत आज है, क्या उन्होंने इसी भारत का सपना देखा था? मुंशी प्रेमचंद को पढ़कर तो ऐसा लगा जैसे मैं अपनी जीवनी, अपने लोगों, अपने समाज को देख रहा हूं. फिर मैंने हरिशंकर परसाई को पढ़ना शुरू किया. परसाई को पढ़कर समाज और अपने-आप के भीतर बदलाव लाने की ऐसी छटपटाहट उठती कि लगता कि यह इंसान अभी के समय में होना चाहिए था. होता तो सबको नंगा कर रहा होता.

अब मेरे अंदर की नफ़रत जो किसी समुदाय, जेंडर, क्षेत्र, नस्ल को लेकर थी, वह जाती रही. लगातार पढ़ने का फ़ायदा यह हुआ कि मुझे लिखने की इच्छा होने लगी. वैसे भी, सोशल मीडिया पर कई बड़े लेखकों को पढ़कर मुझे उनका लेखन बहुत बनावटी लगने लगा था, और महसूस होता था कि मुझे अपनी बात कहनी चाहिए. अब मैं अक्सर अपने ख़ुद के अनुभवों को सोशल मीडिया पर कहानी की तरह लिख देता, जिसे पढ़कर लोग मुझसे जुड़ते गए. मैं भी अच्छा लिखने वालों को फॉलो करने लगा. सीखने की प्रक्रिया लगातार चलती रही.

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शादी में न मंगल सूत्र था, न कन्यादान, और न दहेज. मैंने डॉली को सिंदूर लगाया, डॉली ने मुझे लगाया

मेरा सड़क का धंधा है, इसलिए पुलिसिया शोषण के न जाने कितने अनुभव रहे हैं. हफ़्ता वसूली, गाली-गलौज, थाने में ले जाकर लगातार बैठाए रहना, जब-तब 1,250 रुपए फाइन भरवा लेना, यह सब इतना हुआ है कि लिखने बैठूं तो एक मोटी किताब बन जाए. कितने ही पुलिसवालों ने पिटाई की है या पीटने की धमकी दी है. हफ़्ता न देने पर कई घंटे गाड़ी में बिठाकर शहर घुमाते रहे हैं. यह सब सामान्य था. इन अनुभवों को सोशल मीडिया पर लिखते हुए डर भी लगता. पर इस अंदाज में लिखता कि न किसी पुलिस वाले का नाम आता और न ही शहर राज्य का जिक्र होता. नोटबंदी के बाद के दौर में एक दिन वरिष्ठ पत्रकार और फिल्मकार रुक्मिणी सेन ने नोटिस किया और सबरंग इंडिया के लिए लिखने को कहा, जो सिलसिला अब तक जारी है.

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साल 2019 में हुई शादी में डॉली, मिथुन के माथे (बाएं) पर सिंदूर लगा रही हैं. इस जोड़े ने अपनी शादी में मंत्रों की जगह एक-दूसरे को बराबरी का वचन दिया

इस बीच साल 2017 में मेरी दूसरी बहन की शादी भी हो चुकी थी. अब मुझ पर भी शादी का दबाव बनने लगा. पर अबतक इतना तो समझ आ गया था कि शादी जैसे अहम फ़ैसले सामाजिक दबाव में नहीं लेने चाहिए. इस दौरान मेरी ‘ज़िंदगी में डॉली आई. हम साथ रहते, घूमते तो अक्सर लोगों को खटकता. लोग तरह तरह के सवाल पूछते. कौन है, कौन सी जात से है? मेरी जात में जन्मे लोगों को यह जानने की अधिक उत्सुकता थी कि लड़की कौन सी जात से है. दूसरी जाति का होने से सबकी नाक खतरे में आ जाती. पर मैं इन सबसे ऊपर उठ चुका था.

डॉली ने अपने घर पर मेरे बारे में बताया. कुछ दिन बाद मैं डॉली के मां-बाप से एक बार मिल आया. मेरे घरवाले चाहते थे कि मैं जल्द से जल्द शादी कर लूं. डॉली और मैं भी चाहते थे शादी करें, पर पहले ढंग से सेटल हो जाएं. दो-ढाई साल ऐसे ही निकल गया और अब डॉली के मां-बाप की तरफ़ से उस पर दबाव बढ़ गया था. वे लड़की के मां-बाप थे, उन पर अलग तरह का सामाजिक दबाव होना ही था. वे पारंपरिक शादी करवाना चाहते थे. मेरे घरवालों का भी यही इरादा था. पर मैं कोर्ट मैरिज करना चाहता था. डॉली भी यही चाहती थी. डॉली के परिवार को लगता था कि कहीं मैं उनकी बेटी को छोड़कर भाग न जाऊं. मेरे मां-बाप का कहना था कि मालूम तो पड़े कि बेटे की शादी हुई है. दबाव के बीच फ़ैसला तो लेना ही था. डॉली के परिवारवालों ने एक छोटे से हॉल में शादी रखी.

हालांकि, हमारी ज़िद के आगे हमारे परिवारों को झुकना पड़ा. शादी में न मंगल सूत्र था, न कन्यादान, और न दहेज. मैंने डॉली को सिंदूर लगाया, डॉली ने मुझे लगाया. सात फेरे हुए. पंडित अपने मंत्र पढ़ देता, और हर फेरे के बाद मयंक हमारे वचन पढ़ते, जो बराबरी की बात करने वाले थे. हॉल में इकट्ठा लोगों को हसीं आती, पर वे समझ रहे थे कि कुछ अलग हो रहा है और बेड़ियां टूट रही हैं. कुछ लोग नाराज़ थे. पर उनकी नाराज़गी से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हम दोनों के लिए सदियों से चली आ रही गैर-बराबरी, ब्राह्मणवादी व स्त्री-विरोधी रूढियों को तोड़ना था. शादी के बाद हम और डॉली नए घर में शिफ्ट हो गए. मार्च 2019 में जब हमने शादी की थी, तब घर में कुछ न था. धीरे-धीरे ज़रूरत की चीज़ें घर में आने लगीं. सुई से लेकर आलमारी तक, हमने सबकुछ अपनी मेहनत की कमाई से जैसे-तैसे जोड़ लिया.

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बाएं: मिथुन और डॉली कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान मुंबई में ही रहे. केंद्र: मिथुन कहते हैं, ‘ज़िंदगी से दो-दो हाथ करते रहेंगे.’ दाएं: उनका छोटा भाई रवि

साल 2020 के मार्च महीने में कोरोना की दस्तक हो गई थी और फिर लॉकडाउन लग गया. सामान ख़रीदने की लोगों में होड़ मच गई. कुछ ही मिनटों में दुकान पर जो भी सब्ज़ियां थीं, खाली हो गईं. कुछ लोग लूट ले गए, कुछ ने ही पैसे दिए. सारी दुकानों का यही हाल हुआ. कुछ ही पल बाद पुलिस ने सभी दुकानें बंद करवा दी. यह भी न बताया गया कि कब खुलेंगी दुकानें. लोग गांव भागने लगे. जिस बिल्डिंग में हम थे वह दो दिन में ही खाली हो गई. पलायन कोरोना के डर से कम, और इस बात से अधिक हो रहा था कि सब काम-धंधा बंद रहेगा तो खाएंगे क्या. डॉली, ट्रेकिंग के जैकेट बनाने वाले स्टोर में काम करती थी. वह भी 15 मार्च, 2020 को बंद हो गया था.

घर के लोग कहते कि अभी गांव आ जाओ, बाद में सब ठीक रहा तो देखेंगे. पर उस समय स्थिति ऐसी थी कि पास में जमा पूंजी नहीं बची थी,. इसलिए रुकना उचित समझा. काम सब्ज़ी से जुड़ा हुआ था, धंधा करने की इजाज़त थी. पर सबसे बड़ी मुश्किल सब्ज़ियों के मिलने की थी. मुख्य मार्केट दादर में तो ताला लग चुका था. सब्ज़ियां अक्सर चुना भट्टी, सुमैया ग्राउंड जैसी हाइवे की जगहों पर मिलती. इन जगहों पर काफ़ी भीड़ होती. डर लगता कि कहीं कोरोना हो न जाए; और मुझसे घर में डॉली को न हो जाए. लेकिन भीड़ में जाने के अलावा कोई चारा न होता. जैसे-तैसे काम भर का ख़र्च निकल रहा था. मई में बीएमसी ने दुकान खोलने का समय महज़ तीन घंटे, दोपहर 12 से 3 कर दिया. दिए गए समय से ज़रा भी देर होती, तो पुलिस का डंडा चलने लगता था. सब्ज़ी मंगाने के जितने भी ऑनलाइन पोर्टल थे, सुबह से देर रात तक खुले रहते. लोगों ने उस समय ऑनलाइन मंगाना ज़्यादा सही समझा. इससे धंधे पर बहुत फ़र्क़ पड़ा. उसी वक़्त दादा जी का पैर टूटा और कोरोना के समय किस तरह से वे इस दुनिया को छोड़ गए मैंने पहले बताया ही है.

कुछ महीने बाद, काम का समय बढ़ाकर शाम 7 बजे तक कर दिया गया था. एक शाम, मेरा छोटा भाई रवि सात बजे के बाद, बस ठेले पर रखे फलों में से सड़े हुए आम अलग कर रहा था. एक पुलिस वाला आया और वीडियो बनाने लगा. डर के चलते रवि ने उन्हें कुछ पैसे देने की पेशकश की, पर उसने बड़ी रक़म मांगी, और न देने पर केस बनाने की धमकी देने लगा. वह रवि को थाने ले गया. रात के एक-डेढ़ बजे एक पुलिसवाले ने रवि की जेब में पड़े क़रीब छह हज़ार रुपए निकाल लिए और उसे छोड़ दिया. ये रक़म उसकी कुल जमापूंजी थी. हालांकि, दो-तीन बाद एक पहचान के व्यक्ति के ज़रिए एक बड़े पद पर बैठे पुलिसवाले से बात हो गई. दो दिन बाद, जिस पुलिस वाले ने पैसे लिए थे वह रवि को ढूंढता हुआ आया और पूरे पैसे दे गया.

कोरोना के शुरुआती दौर से लेकर अब तक, धंधे की हालत सुधरी नहीं है. दुनिया से जूझते हुए हम आज भी ज़िंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश में हैं. इस समय जब मैं यह कहानी लिख रहा हूं, कोरोना पॉज़िटिव हूं. डॉली भी कोरोना संक्रमित हैं. हम दोनों ने ख़ुद को घर में बंद कर रखा है. दुकान पर जो सब्ज़ियां बची थीं, अगल-बगल के ठेलेवालों की मदद से बिक गई हैं. जो बची-खुची रक़म पास में थी वह कुछ दिनों की दवाई और कोरोना टेस्ट कराने में खाली हो गई है. पर ठीक है. जांच रिपोर्ट निगेटिव आएगी, तो फिर निकलेंगे बाहर. फिर करेंगे कोशिश. ज़िंदगी से दो-दो हाथ करेंगे. और विकल्प ही क्या है?

सुरक्षा के लिहाज़ से कुछ लोगों और जगहों के नाम स्टोरी में शामिल नहीं किए गए हैं.

लेखक ने यह स्टोरी मूलतः हिन्दी में लिखी थी, जिसका संपादन देवेश ने किया है.

कवर फ़ोटो: सुमेर सिंह राठौड़

Mithun Kumar

मिथुन कुमार, मुंबई में सब्ज़ी की दुकान चलाते हैं और सोशल मीडिया माध्यमों पर तथा विभिन्न वेबसाइटों के लिए सामाजार्थिक विषयों पर लेखन करते हैं.

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Photographs : Devesh

देवेश एक कवि, पत्रकार, फ़िल्ममेकर, और अनुवादक हैं. वह पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के हिन्दी एडिटर हैं और बतौर ‘ट्रांसलेशंस एडिटर: हिन्दी’ भी काम करते हैं.

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सुमेर एक विजुअल स्टोरीटेलर, लेखक व पत्रकार हैं तथा राजस्थान के जैसलमेर से ताल्लुक़ रखते हैं.

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