बित्रा द्वीप पर रहने वाले 60 वर्षीय मछुआरे बी. हैदर कहते हैं, “लड़कपन में मुझे बताया गया था कि हमारा द्वीप एक बड़े प्रवाल (मूंगा) पर टिका हुआ है. प्रवाल नीचे है, इसे थामे हुए है. और हमारे आसपास एक लगून (खाड़ी) है, जो हमें महासागर से बचाती है.”

बित्रा के एक अन्य मछुआरे अब्दुल खादर (60 वर्ष) कहते हैं, “जब मैं छोटा था, तो ज्वार कम होने पर हम प्रवाल को देख सकते थे. यह बहुत सुंदर दिखता था. अब ज़्यादा प्रवाल बचा नहीं है. लेकिन बड़ी लहरों को दूर रखने के लिए हमें उन प्रवाल की ज़रूरत है.”

प्रवाल (मूंगा), लक्षद्वीप के द्वीपसमूहों की कहानियों, कल्पनाओं, जीवन, आजीविकाओं, और पारिस्थितिकी तंत्र का केंद्र हुआ करता था, लेकिन अब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है. साथ ही, कई अन्य परिवर्तन भी हो रहे हैं, जिसे यहां के मछुआरे दशकों से देख पा रहे हैं.

अगाती द्वीप के 61 वर्षीय मछुआरे मुनियामिन केके बताते हैं, “बात बहुत सीधी है. प्रकृति का स्वभाव बदल गया है.” मुनियामिन ने 22 साल की आयु से ही मछली पकड़ना शुरू कर दिया था. वह बताते हैं, “उन दिनों, मानसून सही समय पर [जून में] आता था, लेकिन आज हम यह नहीं बता सकते कि मानसून कब आएगा. इन दिनों मछलियां कम हो गई हैं. उन दिनों, हमें मछलियां पकड़ने के लिए ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ता था, मछलियों के सभी झुंड क़रीब में ही रहा करते थे. लेकिन अब मछलियों की तलाश में लोग कई दिनों तक भटकते रहते हैं, कभी-कभी तो हफ़्तों तक.”

केरल के तट से आगे, अरब सागर में स्थित भारत के सबसे छोटे केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप के अगाती और बित्रा द्वीपों के बीच की दूरी नाव से लगभग सात घंटे की है, जहां सबसे कुशल मछुआरे रहते हैं. मलयालम और संस्कृत, दोनों भाषाओं में ‘लक्षद्वीप’ का मतलब होता है एक लाख द्वीप. लेकिन हमारे युग की वास्तविकता यह है कि अब यहां पर केवल 36 द्वीप हैं, जो कुल 32 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हुए हैं. हालांकि, द्वीपसमूह का पानी 400,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और समुद्री जीवन तथा संसाधनों से समृद्ध है.

केवल एक ज़िले वाले इस केंद्र शासित प्रदेश का हर सातवां व्यक्ति मछुआरा है, और 64,500 की आबादी (जनगणना 2011) में से 9,000 से अधिक लोगों का पेशा यही है.

PHOTO • Sweta Daga

बित्रा (ऊपर) और लक्षद्वीप के बाक़ी हिस्से भारत के एकमात्र ऐसे द्वीप हैं जो कोरल (प्रवाल) द्वीप कहे जाते हैं. बित्रा के एक मछुआरे अब्दुल खादर (नीचे बाएं) कहते हैं, ‘जब मैं छोटा था, तो ज्वार कम होने पर हम प्रवाल [अग्रभाग, नीचे दाएं] को देख सकते थे. अब ज़्यादा प्रवाल बचा नहीं है’

द्वीपों के बुज़ुर्ग बताते हैं कि मानसून आने पर वे अपने कैलेंडर सेट कर सकते थे. मछुआरे यूपी कोया (70 वर्ष) कहते हैं, “लेकिन अब समुद्र में किसी भी समय उथल-पुथल होने लगती है - पहले ऐसा नहीं था.” कोया के पास मछली पकड़ने का चार दशकों का अनुभव है. वह कहते हैं, “मैं शायद कक्षा 5 में था, जब मिनिकॉय द्वीप [लगभग 300 किलोमीटर दूर] से लोग आए और हमें ‘पोल और लाइन’ विधि से मछली पकड़ना सिखाया. तब से, लक्षद्वीप में हम ज़्यादातर उसी विधि से मछली पकड़ते हैं - हम जाल का उपयोग नहीं करते, क्योंकि वे मूंगे की चट्टानों में फंस जाती हैं और फट जाती हैं. हम पक्षियों के कारण, और अपने कुतुबनुमा की मदद से मछलियां ढूंढ पाते हैं.”

मछली पकड़ने की ‘पोल और लाइन’ विधि में, मछुआरे रेलिंग पर या अपने जहाजों पर बने विशेष प्लेटफ़ॉर्मों पर खड़े होते हैं. आख़िरी किनारे पर एक मज़बूत हुक के साथ एक छोटी, मज़बूत लाइन पोल से जुड़ी होती है, जो अक्सर फाइबर ग्लास से बनी होती है. यह मछली पकड़ने का ज़्यादा स्थायी रूप है, और यहां पर इसका उपयोग ज़्यादातर पानी की ऊपरी परतों में रहने वाली टूना प्रजाति की मछलियों को पकड़ने के लिए किया जाता है. अगाती और लक्षद्वीप के अन्य द्वीपों पर लोग भोजन में मुख्य रूप से नारियल और मछली - ज़्यादातर टूना - खाते हैं.

बित्रा सबसे छोटा (0.105 वर्ग किलोमीटर या लगभग 10 हेक्टेयर) और इस द्वीपसमूह के उन 12 द्वीपों में सबसे दूर-दराज़ स्थित है जहां लोग रहते हैं. इसमें नरम, सफ़ेद रेत वाले समुद्र तट हैं, नारियल के पेड़ हैं, और यह चार रंगों - नीला, फ़िरोज़ा, ऐक्वामरीन, और समुद्री हरा - के पानी से घिरा हुआ है. पर्यटकों को यहां जाने की अनुमति नहीं है; यहां पहुंच जाने के बाद, चलना ही एकमात्र विकल्प होता है, कोई कार या मोटरबाइक मौजूद नहीं होती है, यहां तक कि साइकल भी दुर्लभ हैं. साल 2011 की जनगणना के अनुसार, बित्रा में केवल 271 लोग रहते हैं.

हालांकि, इस केंद्र शासित प्रदेश का सबसे बड़ा लगून (खाड़ी) इसी द्वीप में है - क्षेत्रफल में लगभग 47 वर्ग किलोमीटर बड़ा. बित्रा तथा लक्षद्वीप के बाक़ी हिस्से भारत के एकमात्र कोरल (प्रवाल) द्वीप कहे जाते हैं. अर्थात, यहां की लगभग पूरी आबाद भूमि वास्तव में प्रवालद्वीप है. इसकी मिट्टी मोटे तौर पर प्रवालों से आई है.

प्रवाल जीवित अवयव हैं, जो चट्टान बनाते हैं और समुद्री जीवन, विशेष रूप से मछलियों को पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान करते हैं. मूंगे की चट्टानें एक प्राकृतिक अवरोधक हैं, जो इन द्वीपों को समुद्र में डूबने से बचाती हैं और खारे पानी को सीमित मीठे पानी के स्रोतों से बाहर रखती हैं.

अंधाधुंध मछलियां पकड़ने, विशेष रूप से जाल वाली मशीनीकृत नौकाओं द्वारा गहराई में जाकर मछलियां पकड़ने से बेट-फिश (चारा मछली) कम हो रही है और मूंगे की चट्टानों तथा संबंधित जैव-विविधता को भी नुक़सान पहुंच रहा है

वीडियो देखें: नाव से बेट-फिश (चारा मछली) पकड़ने जाते मछुआरे

मूंगे की चट्टानों में छोटी चारा मछलियां (बेट-फ़िश) भी होती हैं जो टूना और लगून मछली की दर्जनों प्रजातियों को लुभाने के लिए पकड़ी जाती हैं. जलवायु परिवर्तन पर साल 2012 के यूएनडीपी लक्षद्वीप एक्शन प्लान के अनुसार, भारत में कुल जितनी मछलियां पकड़ी जाती हैं उनमें से 25 प्रतिशत यही समृद्ध जल और मूंगे की चट्टानें प्रदान करती हैं. और टूना प्रजाति की मछलियों को पकड़ने में इन चारा मछलियों की केंद्रीय भूमिका है.

53 वर्षीय मछुआरे अब्दुल रहमान कहते हैं, “हम चारा मछलियों को उनके द्वारा अपने अंडे जमा कर लेने के बाद ही पकड़ते थे, लेकिन अब लोग उन्हें कभी भी पकड़ लेते हैं.” अब्दुल, बित्रा से लगभग 122 किलोमीटर दूर, ज़िला मुख्यालय कवरत्ती में रहते हैं और 30 वर्षों से मछलियां पकड़ रहे हैं. वह कहते हैं, “नावों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन मछलियां कम हो गई हैं.” अंधाधुंध मछली पकड़ने, विशेष रूप से जाल वाली मशीनीकृत नौकाओं द्वारा गहराई में जाकर मछलियां पकड़ने से चारा मछली कम हो रही है और मूंगे की चट्टानों तथा संबंधित जैव-विविधता को भी नुक़सान पहुंच रहा है.

और यह समस्या का सिर्फ़ एक हिस्सा है.

एल नीनो जैसे गंभीर जलवायु पैटर्न समुद्र की सतह के तापमान को बढ़ाते हैं और बड़े पैमाने पर ‘प्रवाल विरंजन’ (मूंगे की चट्टानों के रंग और जीवन को छीनना और द्वीपों की रक्षा करने की उनकी क्षमता को कम करना) का कारण बनते हैं. लक्षद्वीप ने तीन बड़े प्रवाल विरंजन देखे हैं - साल 1998, 2010, और 2016 में. मैसूर स्थित गैर-लाभकारी वन्यजीव संरक्षण और अनुसंधान संगठन, नेचर कंज़र्वेशन फ़ाउंडेशन (एनसीएफ़) के 2018 के अध्ययन से पता चलता है कि मूंगे की चट्टानें ख़तरे में हैं. अध्ययन से पता चला कि 1998 से 2017 के बीच - केवल 20 वर्षो में - लक्षद्वीप में मूंगे की चट्टानों का क्षेत्र 51.6 प्रतिशत से घटकर 11 प्रतिशत हो गया.

बित्रा के एक मछुआरे अब्दुल कोया (37 वर्षीय) कहते हैं: “हम जब 4 या 5 साल के थे, तब मूंगे को पहचान लेते थे. पानी में जाने से पहले ही हम इसे किनारे पर तैरता हुआ देख लेते थे. इसका उपयोग हम अपना घर बनाने में करते थे.”

कवरत्ती में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के वैज्ञानिक, डॉक्टर केके इदरीस बाबू घटते हुए प्रवाल के बारे में बताते हैं: “उच्च समुद्री सतह के तापमान और प्रवाल भित्तियों के बीच एक संबंध है. साल 2016 में, समुद्र का तापमान 31 डिग्री सेल्सियस और इससे भी अधिक था!” अध्ययनों से पता चलता है कि 2005 तक, मूंगे की चट्टानों के क्षेत्रों में 28.92 सेल्सियस तापमान देखा गया था. साल 1985 में, यह 28.5 सेल्सियस था. गर्मी और जल स्तर में वृद्धि उन द्वीपों में चिंता का विषय है, जहां की औसत ऊंचाई समुद्र तल से अधिकतर 1-2 मीटर है.

PHOTO • Rohan Arthur, Nature Conservation Foundation, Mysuru

ऊपर की पंक्ति: एल नीनो जैसे गंभीर जलवायु पैटर्न समुद्र की सतह के तापमान को बढ़ाते हैं और बड़े पैमाने पर ‘प्रवाल विरंजन’ - मूंगे की चट्टानों के रंग और जीवन को छीनना और द्वीपों की रक्षा करने की उनकी क्षमता को कम करना - का कारण बनते हैं. नीचे की पंक्ति: साल 2014 में पावोना क्लैवस कोरल का एक बड़ा किनारा, आलू के टुकड़े जैसा दिखने वाला पारिस्थितिकी तंत्र, और रीफ़ मछली के लिए एक आश्रय स्थल. लेकिन 2016 की एल नीनो घटना के दौरान, जैसे-जैसे तापमान बढ़ता गया, मूंगे में मौजूद जंतुओं ने अपने सहजीवी शैवाल को बाहर निकाल दिया और सफ़ेद हो गए

कवरत्ती में सबसे बड़ी नाव - 53 फ़ीट लंबी - के मालिक, 45 वर्षीय निज़ामुद्दीन भी परिवर्तनों को महसूस करते हैं और कहते हैं कि पारंपरिक ज्ञान के खो जाने से उनकी समस्याओं में वृद्धि हुई है: “मेरे पिता भी मछुआरे थे, और यह जानते थे कि मछली कहां मिलेगी, उस पीढ़ी के पास वह जानकारी होती थी. हमने वह ज्ञान खो दिया और अक्सर एफ़एडी [ज़्यादा मछलियां पकड़ने वाले उपकरणों] पर भरोसा करने लगे. हमें जब टूना नहीं मिलती, तो हम लगून मछली के पीछे भागते हैं.” एफ़एडी, एक बेड़ा या तैरता हुआ लकड़ी का टुकड़ा भी हो सकता है - जो मछलियों को आकर्षित करता है, जो तब चारों ओर या उसके नीचे इकट्ठा हो जाती हैं.

लक्षद्वीप पर 20 वर्षों तक काम कर चुके समुद्री जीवविज्ञानी और वैज्ञानिक, डॉक्टर रोहन आर्थर कहते हैं, “हालांकि, इस समय मेरी मुख्य चिंता मूंगे की चट्टानों की जैव-विविधता नहीं है, लेकिन उनका कार्यात्मक उद्देश्य ज़रूर है. यहां के लोगों का अस्तित्व उन्हीं पर निर्भर है. चट्टानों का संबंध केवल मूंगे से नहीं है, बल्कि ये संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करती हैं. इसे पानी के नीचे के जंगल के रूप में देखें - और जंगल का मतलब सिर्फ पेड़ नहीं है.”

डॉक्टर आर्थर, जो एनसीएफ़ में महासागर और तट कार्यक्रम के प्रमुख हैं, ने हमें कवरत्ती में बताया कि “लक्षद्वीप की भित्तियों ने लचीलापन दिखाया हैं, लेकिन सुधार की वर्तमान दर जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के साथ गति बनाए रखने में असमर्थ हैं; और वह भी बिना मानवजनित तनावों में वृद्धि किए, जैसे कि हद से ज़्यादा मछली पकड़ना.”

जलवायु की घटनाओं और प्रक्रियाओं ने, विरंजन घटनाओं के अलावा, अन्य प्रभाव भी डाले हैं. चक्रवातों - 2015 में मेघ और 2017 में ओखी - ने भी लक्षद्वीप को बर्बाद किया है. और मत्स्य पालन विभाग का मात्स्यिकी आंकड़ा मछली पकड़ने की मात्रा में तेज़ गिरावट को दिखाता है, जो साल 2016 के लगभग 24,000 टन (सभी टूना प्रजातियां) से गिरकर 2017 में 14,000 टन हो गया - यानी 40 प्रतिशत की गिरावट. साल 2019 में, यह पिछले वर्ष के 24,000 से घटकर 19,500 टन हो गया. इस बीच बहुत अच्छे साल भी रहे हैं, लेकिन जैसा कि मछुआरों का कहना है, लेकिन पूरी प्रक्रिया अनिश्चित और अप्रत्याशित हो गई है.

और पिछले एक दशक से रीफ़ मछलियों की वैश्विक मांग में वृद्धि के कारण, यहां के मछुआरों ने स्थानीय रूप से चम्मम के नाम से प्रसिद्ध बड़ी शिकारी मछलियों की खोज तेज़ कर दी है.

PHOTO • Sweta Daga

बाएं: कवरत्ती द्वीप के मछुआरों का कहना है, ‘नावों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन मछलियां कम हो गई हैं’; यहां तस्वीर में, वे टूना लेकर आ रहे हैं. दाएं: बित्रा द्वीप पर अब्दुल कोया अपनी मछलियां सुखा रहे हैं

अगाती द्वीप के 39 वर्षीय उम्मेर एस - जो 15 साल से मछली पकड़ने और नाव बनाने का काम कर रहे हैं - बताते हैं कि वह बड़ी शिकारी मछलियां क्यों पकड़ते हैं. “पहले बहुत सारी टूना मछलियां लगून के पास हुआ करती थीं, लेकिन अब हमें उन्हें पकड़ने के लिए 40-45 मील दूर जाना पड़ता है. और यदि हमें अन्य द्वीपों पर जाने की ज़रूरत पड़ी, तो इसमें दो सप्ताह लग सकते हैं. इसलिए, मैं उतने समय में चम्मम पकड़ता हूं. बाज़ार में उनकी मांग है, लेकिन उन्हें पकड़ना मुश्किल काम है, क्योंकि केवल एक चम्मम पकड़ने में आपको एक घंटा इंतज़ार करना पड़ सकता है.”

इस क्षेत्र के विकास का अध्ययन करने वाली एक वैज्ञानिक, रुचा करकरे ने हमें बित्रा में बताया, “मूंगे के गिरते स्वास्थ्य के साथ ही बड़ी शिकारी मछलियों (चम्मम) की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में गिरावट आई है. अनिश्चितता और जलवायु परिवर्तन के असर के बीच, जब टूना उपलब्ध नहीं होती, तो मछुआरे रीफ़ मछलियों को पकड़ने की होड़ में लग जाते हैं, जिससे उनकी संख्या और भी घट रही है. हमने सुझाव दिया था कि वे उस महीने में पांच दिन मछलियां न पकड़ें, जिस महीने में मछलियां अंडे देती हैं.”

बित्रा के मछुआरों ने उन दिनों में अपनी गतिविधियां रोकने की कोशिश की, लेकिन पाया कि अन्य लोग ऐसा करने के लिए तैयार नहीं थे.

अपनी सूखी हुई मछलियों को छांटते हुए हमसे बातें कर रहे अब्दुल कोया कहते हैं, “किल्तान द्वीप के लड़के यहां बित्रा आते थे और रात में मछलियां पकड़ते थे. इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए...ऐसा अक्सर होता है और बेट-फ़िश, रीफ़, और टूना सभी में गिरावट आ रही है.”

बित्रा पंचायत के मुखिया बी हैदर कहते हैं, “मुख्य भूमि से, और कई अन्य देशों से भी बड़ी नौकाएं आ रही हैं, जिनके पास बड़ी जाल होती है. हम अपनी छोटी नावों के साथ उनका मुक़ाबला करने में सक्षम नहीं हैं.”

इस बीच, मौसम और जलवायु की घटनाएं अनिश्चित रूप से बढ़ रही हैं. हैदर कहते हैं, “मुझे 40 साल की उम्र तक केवल दो चक्रवात याद हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चक्रवात बार-बार आते रहे हैं, और भित्तियों को तोड़ देते हैं.”

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बाएं: कवरत्ती द्वीप के मछुआरे अब्दुल रहमान कहते हैं, ‘हम बेट-फिश को उनके द्वारा अपने अंडे जमा कर लेने के बाद ही पकड़ते थे, लेकिन अब लोग उन्हें कभी भी पकड़ लेते हैं.’ दाएं: कवरत्ती की सबसे बड़ी नाव के मालिक निज़ामुद्दीन के. भी बदलावों को महसूस कर रहे हैं

कवरत्ती में, अब्दुल रहमान भी चक्रवात के प्रभाव की बात करते हैं, “पहले हमें स्किपजैक मछलियां भित्तियों के क़रीब ही मिल जाती थीं, लेकिन ओखी के बाद सब कुछ बदल गया है. साल 1990 के दशक में, हम समुद्र में सिर्फ़ 3-4 घंटे बिताते थे. हमारे पास कोई यंत्रीकृत उपकरण नहीं होता था, लेकिन आपूर्ति इतनी प्रचुर थी कि हम जल्दी से अपना काम समाप्त कर सकते थे. अब हमें पूरे दिन या उससे अधिक समय के लिए बाहर रहना पड़ता है. हम रीफ़ मछलियां नहीं पकड़ना चाहते, लेकिन अगर टूना उपलब्ध नहीं होती है, तो हम कभी-कभी रीफ़ मछलियां पकड़ने चले जाते हैं.”

रहमान का यह भी कहना है कि “नावों की संख्या (अब तो और भी बहुत बड़ी-बड़ी नावें आ गई हैं) बढ़ गई है. लेकिन मछलियां कम हो गई हैं, और हमारी परिचालन लागत भी बढ़ गई है.”

डॉक्टर आर्थर कहते हैं कि मछुआरों की कमाई का अनुमान लगाना आसान नहीं है और यह हर महीने अलग-अलग होती है. “उनमें से कई लोग अन्य नौकरियां भी करते हैं, इसलिए वहां से होने वाली कमाई को मछलियां पकड़ने से होने वाली आय से अलग करना मुश्किल है.” लेकिन यह स्पष्ट है कि “पिछले एक दशक में इस आय में बड़े उतार-चढ़ाव देखे गए हैं.”

वह कहते हैं कि “लक्षद्वीप में एक ही समय में दो बड़े बदलाव हो रहे हैं, जलवायु परिवर्तन से मूंगे की चट्टानों को नुक़सान पहुंच रहा है, जिससे मछलियों की आपूर्ति प्रभावित हो रही है, और मछुआरों व उनकी आजीविका प्रभावित हो रही है. हालांकि, लक्षद्वीप में वह क्षमता है, जिसे हम ‘उज्ज्वल स्थान’ कहते हैं. यदि हम समुद्री जीवन के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करके, भित्तियों को स्वस्थ होने में मदद करने में सक्षम रहे, तो हमारे पास उन्हें लंबे समय तक संरक्षित करने का मौक़ा होगा.”

उधर कवरत्ती में, निज़ामुद्दीन के. कहते हैं, “बीस साल पहले इतनी ज़्यादा मछलियां थीं कि हम 4 या 5 घंटे में अपना काम समाप्त कर लेते थे, लेकिन अब हमें नाव भरने में कई दिन लग जाते हैं. मानसून का समय भी आगे-पीछे हो गया है, और हमें पता ही नहीं रहता कि बारिश कब होगी. समुद्र में मछली पकड़ने के मौसम में भी उथल-पुथल होने लगती है. हम जून में अपनी नावों को पूरी तरह से किनारे पर ले आते थे - जोकि एक कठिन काम है - क्योंकि हमें मालूम होता था कि उस समय मानसून आएगा. लेकिन फिर, मानसून एक महीना आगे खिसक गया! हमारी नावें किनारे पर ही अटक गईं, और हमें नहीं पता कि उन्हें फिर से समंदर में ले जाना है या इंतज़ार करना है. इसलिए हम भी फंस गए हैं.”

पारी का जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग का प्रोजेक्ट, यूएनडीपी समर्थित उस पहल का एक हिस्सा है जिसके तहत आम अवाम और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए पर्यावरण में हो रहे इन बदलावों को दर्ज किया जाता है.

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अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

Reporter : Sweta Daga

स्वेता डागा, बेंगलुरु स्थित लेखक और फ़ोटोग्राफ़र हैं और साल 2015 की पारी फ़ेलो भी रह चुकी हैं. वह मल्टीमीडिया प्लैटफ़ॉर्म के साथ काम करती हैं, और जलवायु परिवर्तन, जेंडर, और सामाजिक असमानता के मुद्दों पर लिखती हैं.

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Editor : P. Sainath

पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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शर्मिला जोशी, पूर्व में पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के लिए बतौर कार्यकारी संपादक काम कर चुकी हैं. वह एक लेखक व रिसर्चर हैं और कई दफ़ा शिक्षक की भूमिका में भी होती हैं.

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क़मर सिद्दीक़ी, पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रुरल इंडिया के ट्रांसलेशन्स एडिटर, उर्दू, हैं। वह दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं।

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