एम. मदन जानते हैं कि शहद इकट्ठा करने के लिए 60 फीट ऊंचे पेड़ों पर चढ़ना और ख़तरनाक ढंग से वहां बैठना, मुदुमलाई के घने जंगल में जंगली हाथियों के आसपास काम करना, और ऐसे ख़तरनाक जंगल में रहना क्या होता है, जहां लगभग 65 बाघ अपने शिकार की खोज में हों।
इनमें से किसी ने भी उन्हें भयभीत नहीं किया है। हम जब उनसे पूछते हैं कि उन्होंने क़रीब से कितने बाघों को देखा है, तो वह हंसने लगते हैं: “मैंने गिनती बंद कर दी!”
लेकिन यह एक अलग तरह का भयावह ख़तरा है जिसने अब उन्हें चिंता में डाल दिया है। मदन और बेन्ने – मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व के बफ़र ज़ोन के भीतर लगभग 90 परिवारों की सात बस्तियों में से एक – के अन्य निवासियों को जल्द ही अपने पैतृक घरों और भूमि को छोड़ना पड़ सकता है।
मदन ने हमें जंगल में अपनी वासभूमि दिखाई। मिट्टी और छप्पर से बने उनके परिवार के घर के बगल में देवी मरियम्मा का एक मंदिर है, और पेड़ों के झुरमुट से घिरा एक क़ब्रिस्तान है जहां उनके पूर्वजों की पीढ़ियां दफ़न हैं। वह घाटी में एक जलधारा और अपने परिवार के सब्ज़ियों के खेत की ओर इशारा करते हैं, जिसे भूखे जानवरों से बचाने के लिए कंटीली झाड़ियों से घेर दिया गया है। “यह हमारा घर है,” वह कहते हैं।
बेन्ने, मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व के बफ़र ज़ोन के भीतर स्थित सात बस्तियों (वन विभाग के दस्तावेज़ में दर्ज है) में से एक है। इन बस्तियों के सभी निवासी कट्टुनायकन और पनियन आदिवासी समुदायों के हैं। तमिलनाडु के जंगलों में 688 वर्ग किलोमीटर के टाइगर रिज़र्व को 2007 में बाघों के एक संकटमय निवास स्थान के रूप में अधिसूचित किया गया था। और 2013 में, वन विभाग ने उन लोगों के लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के पुनर्वास प्रस्ताव पर सक्रियता से काम करना शुरू कर दिया था, जो 10 लाख रुपये लेकर जंगल से बाहर पुनर्स्थापित होने को तैयार थे। एनटीसीए का पुनर्स्थापन कार्यक्रम, जैसा कि इसमें 2006 में संशोधन किया गया, ‘बाघों के संरक्षण को मज़बूत करने’ की बात कहता है और मौद्रिक क्षतिपूर्ति की पेशकश करता है।
बेन्ने के निवासियों ने प्रस्ताव पर विचार किया और फ़ैसला किया कि वे वहीं रुके रहेंगे, अपने मंदिरों और क़ब्रिस्तानों से छेड़-छाड़ किए बिना और उनके बिल्कुल पास रहते हुए। बेन्ने की 50 सदस्यी ग्राम सभा की 17 जनवरी 2016 को होने वाली बैठक में सर्वसम्मति से दो प्रस्ताव पारित हुए और उन पर हस्ताक्षर किए गए, जिनमें तमिल भाषा में लिखा है: ‘बेन्ने का आदिवासी गांव किसी दूसरे इलाक़े में स्थानांतरित नहीं होगा। हमें ना तो दूसरी जगह की ज़रूरत है और ना ही पैसे की।’
उन्हें 2006 के वन अधिकार अधिनियम से समर्थन मिल रहा था, जिसमें कहा गया है कि जंगल के पारंपरिक निवासियों को ‘वन की भूमि रखने और उसमें रहने का अधिकार है’। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि लोगों को उनकी बस्तियों और गांवों से पुनर्स्थापित करने से पहले, ‘प्रस्तावित पुनर्वास और पैकेज के लिए ग्राम सभा की स्वतंत्र सूचित सहमति’ लिखित रूप से प्राप्त करना ज़रूरी है।
लेकिन ग्राम सभा के प्रस्ताव के एक साल बाद, मदन के परिवार ने बेन्ने के 44 अन्य कट्टुनायकन आदिवासी परिवारों के साथ अपना विचार बदल लिया और 10 लाख रुपये का पुनर्स्थापन पैकेज स्वीकार कर लिया। “हमें कोई विकल्प नहीं दिया गया था,” मदन ने अक्टूबर 2019 में मुझसे कहा था। “वन संरक्षक हमसे व्यक्तिगत रूप से मिलता और पुनर्विचार करने का आग्रह करता। उसने कहा कि अगर हम अभी नहीं जाते हैं, तो बाद में हमें जबरन बाहर निकाल दिया जाएगा और पैसे भी नहीं मिलेंगे।”
मदन के परिवार को जून 2018 में, 7 लाख रुपये की पुनर्वासन राशि की पहली किस्त के रूप में 5.50 लाख रुपये मिले। (एनटीसीए के दिशानिर्देश बताते हैं कि शुरू में 7 लाख रुपये ज़मीन ख़रीदने के लिए दिए जाएंगे, और बाकी के 3 लाख रुपये तीन साल के बाद दिए जाएंगे।) यह पैसा उसी दिन, वन संरक्षक द्वारा परिचय कराए गए ज़मींदार को हस्तांतरित कर दिया गया, जिसने इस परिवार को बेन्ने में अपने घर से लगभग एक किलोमीटर दूर 50 सेंट ज़मीन (आधा एकड़) देने की पेशकश की थी। “एक साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है और मुझे उस भूमि का स्वामित्व नहीं मिला है, इसीलिए मैं यहां से गया नहीं। मेरे पास ना तो कोई भूस्वामित्व है और ना ही कोई पैसा,” वह कहीं दूर देखते हुए कहते हैं।
“वन संरक्षक ज़मीन के दलालों को लाता और हम में से एक-एक को प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के लिए तैयार करता, जिसमें अच्छी भूमि और आवास का वादा किया गया था,” बेन्ने ग्राम सभा के अध्यक्ष, 40 वर्षीय जी अप्पू बताते हैं। अप्पू ने अपने पुनर्वास पैकेज के पैसे को चार अन्य परिवारों के साथ मिलकर जमा किया, ताकि 25 लाख रुपये से दो एकड़ भूमि ख़रीदी जा सके। “उन्होंने [ज़मींदार, वकील और वन-संरक्षक] अदालत के सामने के कार्यालय में पैसा हस्तांतरित करने के लिए चालान भरा,” वह बताते हैं। “अब वे कह रहे हैं कि हमें उस पैसे में से 70,000 रुपये और दो जो तुम्हें अगली किस्त के तौर पर मिले हैं, उसके बाद ही हम तुम्हें ज़मीन का मालिकाना हक़ देंगे।”
बकाया राशि से वंचित कर दिया जाना और किसी भी समय विस्थापित होने का ख़तरा, अब मदन और अप्पू आय के पारंपरिक स्रोतों तक नहीं पहुंच पाने से भी जूझ रहे हैं। “मैं औषधीय पत्तियां, शहद, नेल्लिकाई [करौंदा], कपूर और अन्य वनोपजों को इकट्ठा करता था। अब मुझे रोक दिया गया है और प्रवेश करने की अनुमति नहीं है,” अप्पू कहते हैं। “अगर हम जाते हैं, तो हमें पीटा जाता है,” मदन कहते हैं, “हालांकि हम कोई नियम नहीं तोड़ रहे हैं।”
मदन और अप्पू के विपरीत, 2018 में उनकी पड़ोसन, के ओनाती बेन्ने के नए गांव ज़रूर चले गए थे (वे इसे ‘नंबर एक’ कहते हैं), जो कि उनके पुराने घर से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर है।
मैं जब वहां पहुंची, तो ओनाती अपने नए घर – सीमेंट से बनी दो कमरे की इमारत, जिसकी पुताई पहले से ही झड़ रही है और दरवाज़ों में दरारें दिखाई दे रही हैं – के बाहर बांस के खंभों और प्लास्टिक की चादरों से बनी अस्थाई रसोई में अपने परिवार के लिए सुबह का नाश्ता पका रही थीं। ओनाती कभी-कभी पास के चाय के बागान, जहां काम का अभाव है, में एक मज़दूर के रूप में, या फिर जनवरी-फरवरी में कॉफी और काली मिर्च तोड़ने के मौसम में दैनिक 150 रुपये कमाती हैं।
ओनाती जैसे कट्टुनायकन आदिवासी (तमिलनाडु में उनकी संख्या 2,500 के आसपास है, नीलगिरी में राज्य द्वारा संचालित जनजातीय अनुसंधान केंद्र के पूर्व निदेशक, प्रोफ़ेसर सीआर सत्यनारायणन कहते हैं), लंबे समय से टाइगर रिज़र्व के बफ़र ज़ोन में स्थित कॉफ़ी और काली मिर्च के छोटे बागानों में दिहाड़ी मज़दूरों के रूप में काम करते रहे हैं। लेकिन 2018 के आसपास जब बहुत से बागान मालिकों ने भी पुनर्वास पैकेज ले लिया और यहां से चले गए, तो मज़दूरी के विकल्प कम हो गए।
“मैं यहां यह सोचकर आई थी कि हमें कुछ पैसे [10 लाख रुपये] मिलेंगे, लेकिन लगभग सभी कुछ छिन गया है,” ओनाती कहती हैं। “छह लाख रुपये उन दलाल और विक्रेताओं को चले गए, जिन्होंने मुझसे 50 सेंट ज़मीन का वादा किया था। यह घर पांच सेंट ज़मीन पर बना हुआ है, और मुझे नहीं पता कि बाकी 45 सेंट कहां हैं। मेरे पास कोई काग़ज़ नहीं है।” वन-संरक्षक ने जिस वकील से उनका परिचय कराया था, “उसने अपनी फ़ीस के रूप में 50,000 रुपये ले लिए, घर बनाने के लिए मुझे 80,000 रुपये ख़र्च करने पड़े और बिजली के कनेक्शन के लिए उन्होंने 40,000 रुपये का भुगतान करने को कहा।”
बेन्ने से लगभग 30 किलोमीटर पूर्व में, नागमपल्ली की बस्ती है। यह टाइगर रिज़र्व के छह किलोमीटर अंदर है। फ़रवरी 2018 में, 32 वर्षीय कमलाची एम अपने 35 वर्षीय पति माधवन, जो कि एक दिहाड़ी मज़दूर हैं, अपने बच्चों, अपने माता-पिता, एक विधवा बहन और उसके दो बच्चों के साथ यहां से अभ्यारण्य के बाहर स्थित मचिकोली चली गई थीं।
कमलाची ने जब यह जगह छोड़ी, तो उन्हें तसल्ली थी कि 10 लाख रुपये देने का वादा पूरा होगा और कुछ बकरियां जिन्हें वह पाल रही थीं, उससे उनका काम चल जाएगा। बकरियों की संख्या तो बढ़ रही है, लेकिन उनके पुनर्वास मुआवज़े का पैसा जमा होने के कुछ ही मिनटों में वापस निकाल लिया गया था। उनकी पासबुक से पता चलता है कि 28 नवंबर, 2018 तक उन्हें 5.73 लाख रुपये मिले थे और उसी दिन 4.73 लाख रुपये आधा एकड़ भूमि के भुगतान के रूप में ‘रोसम्मा’ को हस्तांतरित कर दिए गए। हालांकि, उन्हें अभी भी स्वामित्व साबित करने के लिए कोई पंजीकृत दस्तावेज़ नहीं मिला है।
कमलाची अपने समुदाय के शिक्षित लोगों में से एक हैं – कट्टुनायकन आदिवासियों में साक्षरता दर 48 प्रतिशत है। उनके पास 12वीं कक्षा का प्रमाणपत्र है और उन्होंने शिक्षक बनने का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया है (हालांकि वह दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करती हैं)। फिर भी, वह यहां पर धमकियों का भी सामना नहीं कर सकीं। “उसने [वन रक्षक] चारों ओर जाकर लोगों से कहना शुरू कर दिया कि आपको यहां से निकलना है और आपको मुआवज़ा तभी मिलेगा, जब आप अभी निकलेंगे, बाद में नहीं। हम नागमपल्ली में पांच पीढ़ियों से अधिक समय से रहते आए हैं। उस जगह को छोड़ते हुए हमें ऐसा लगा जैसे कोई आपदा आ गई हो, मानो हमने सब कुछ खो दिया हो।”
नागमपल्ली के दो अन्य कट्टुनायकन और 15 पनियन परिवार भी बिना भूस्वामित्व के ऐसे घरों में चले गए जहां कोई सुविधा नहीं थी। इसलिए 2 अक्टूबर, 2018 को, नागमपल्ली ग्राम सभा ने यह कहते हुए एक प्रस्ताव पारित किया कि उनमें से कुछ को भूस्वामित्व के बिना और ऊंची क़ीमत पर ज़मीन बेची गई थी, और उन्होंने नीलगिरि के जिला कलेक्टर के हस्तक्षेप की गुहार लगाई थी कि उन्हें पानी, बिजली, सड़क और क़ब्रिस्तान जैसी सुविधाओं के साथ मकान दिए जाएं।
कुछ महीनों के बाद, जनवरी 2019 में, आदिवासी मुन्नेत्र संगम (एएमएस) के श्रीमदुरई कार्यालय में मदन, ओनाती और कमलाची की चिंताओं पर चर्चा की गई। गुडालुर स्थित आदिवासियों के इस संगठन का गठन 1986 में उनके भूमि और अधिकारों के मुद्दों को मज़बूत करने और संबोधित करने के लिए किया गया था। गुडालुर और पंडालुर तालुकों में इसके 20,000 से अधिक सदस्य हैं। इन्होंने 26 जनवरी, 2019 को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आयोग, दिल्ली के अध्यक्ष को एक पत्र लिखा था।
एएमएस के सचिव, केटी सुब्रमणि, एक मुल्लुकुरुम्बा आदिवासी, का कहना है कि उन्होंने 6 मार्च, 2019 को उदगमंडलम (ऊटी) की कलेक्टर (इन्नोसेंट दिव्या) को दो पेज की याचिका भी दी थी। याचिका में धोखाधड़ी का विस्तृत रूप से वर्णन था और उनसे कार्रवाई करने का अनुरोध किया गया था। यह नागमपल्ली ग्राम सभा के लेटरहेड पर था और इस पर 20 से ज़्यादा सदस्यों के हस्ताक्षर थे।
अंत में, 3 सितंबर 2019 को, गुडालुर पुलिस स्टेशन (नागमपल्ली बस्ती से गुडालुर शहर क़रीब 20 किलोमीटर दूर है) में दर्ज एक एफ़आईआर (पहली सूचना रिपोर्ट) में नौ लोगों को नामज़द किया गया था। इसमें सुरेश कुमार (वन संरक्षक) और सुगुमारन (वकील) के साथ ज़मींदारों और दलालों के नाम भी शामिल थे। एफ़आईआर में भारतीय दंड संहिता की कई धाराएं लगाई गई हैं, जिनमें ‘आपराधिक साज़िश’ और ‘जालसाज़ी की सज़ा’ भी शामिल है। इसमें नौ लोगों के ख़िलाफ़ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत आरोप भी लगाए गए हैं।
“क्योंकि कुछ लोग पढ़ नहीं सकते, इसलिए उनसे बैंक चालान पर हस्ताक्षर कराया गया और उनके खाते से पैसे निकाल लिए गए। हमने एफ़आईआर में उन्हें नामज़द किया है,” एएमएस को वकील, जी मल्लईचामी कहते हैं।
अक्टूबर 2019 में, एफ़आईआर में नामित वन संरक्षक सुरेश कुमार ने मुझसे फ़ोन पर बात की और आरोपों का खंडन किया: “मैंने किसी को मजबूर नहीं किया था, वे यहां से जाना चाहते थे। मैंने एनटीसीए के दिशानिर्देशों का पालन किया है। जांच चल रही है। मैंने कोई गलती नहीं की। मैं एक सरकारी कर्मचारी हूं।”
एफ़आईआर में नामित वकील, के सुकुमारन ने भी आरोपों को ख़ारिज कर दिया: “यह झूठी सूचना पर आधारित एक झूठी एफ़आईआर है और मैंने अग्रिम ज़मानत ली है [नवंबर में] क्योंकि मुझे असामाजिक तत्वों द्वारा अलग-थलग किया जा रहा है।”
टाइगर रिजर्व के क्षेत्र निदेशक के कार्यालय द्वारा जारी एक दस्तावेज़ में कहा गया है कि 701 परिवारों को पुनर्वास मुआवज़े के लिए योग्य पाया गया था। चरण 1 और 2 में, सात बस्तियों के 490 परिवारों को स्थानांतरित कर दिया गया है। शेष 211 परिवारों को वर्तमान में जारी चरण 3 में स्थानांतरित कर दिया जाएगा। अन्य 263 परिवारों को स्थानांतरण के लिए ‘अयोग्य’ चिह्नित किया गया है क्योंकि उनके पास भूस्वामित्व नहीं है या वे अभ्यारण्य के बाहर रहते हैं।
“एनटीसीए के दिशानिर्देशों के अनुसार यह एक स्वैच्छिक स्थानांतरण है,” केके कौशल कहते हैं, जिन्होंने मार्च 2019 में एमटीआर के क्षेत्र निदेशक के रूप में पदभार संभाला था। “हमारे रिकॉर्ड के अनुसार, कुल 48 करोड़ रुपये पहले ही वितरित किए जा चुके हैं और 20 करोड़ रुपये चरण 3 के लिए हैं।”
इस बीच, केवी राजकुमार, जिन्होंने दिसंबर 2018 में गुडालुर राजस्व विभागीय अधिकारी के रूप में कार्यभार संभाला था (यह उनकी पहली पोस्टिंग है), पुनर्वास मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया है। उनका कहना है कि उन्होंने केस का अध्ययन करने में कई महीने लगाए। “दिसंबर 2019 में मैंने एमटीआर के डिप्टी डायरेक्टर को लिखा। मैंने एनटीसीए के दिशानिर्देशों के अनुसार परिसंपत्ति निर्माण सुनिश्चित करने के लिए कहा, न कि केवल 10 लाख रुपये सौंपने के लिए। हमें सिर्फ पुनर्वास ही नहीं, बल्कि आजीविका के पुनर्वास और पुनर्निर्माण को भी देखना चाहिए।”
वापस बेन्ने में, अप्पू और मदन जैसे दृढ़ और आत्मविश्वास से भरे ग्राम सभा सदस्य अब चिंता में रहते हैं। “हम बाघों और हाथियों से नहीं डरते। हम केवल कुछ मनुष्यों से डरते हैं,” अप्पू कहते हैं। मदन को अपने पीछे मंदिर और क़ब्रिस्तान को छोड़ने की चिंता है: “उन्होंने हमेशा हमारी रक्षा की है। मैं भविष्य से डरा हुआ हूं।”
संवाददाता इस कहानी को इकट्ठा में उदार मदद के लिए, गुडालुर के एएम करुणाकरण को धन्यवाद कहना चाहती हैं।
हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़