चंद्रिका बेहरा नौ साल की है और क़रीब दो साल से स्कूल नहीं जा रही है. वह बाराबंकी गांव के उन 19 छात्रों में से हैं जिन्हें पहली से पांचवीं कक्षा में होना चाहिए था. लेकिन ये बच्चे 2020 से नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पाए हैं. चंद्रिका बताती है कि उसकी मां उसे स्कूल नहीं जाने देती.
बाराबंकी का अपना स्कूल साल 2007 में शुरू हुआ था, लेकिन 2020 में ओडिशा सरकार ने इसे बंद कर दिया. प्राथमिक स्कूल के बच्चों, जिनमें से ज़्यादातर चंद्रिका के गांव की तरह संथाल और मुंडा आदिवासी समुदाय से हैं, को क़रीब 3.5 किलोमीटर दूर जमुपसी गांव के स्कूल में दाख़िला लेने को कहा गया.
चंद्रिका की मां मामी बेहरा बताती हैं, "बच्चे रोज़ाना इतना पैदल नहीं चल सकते. और इतनी दूर जाते वक़्त वे एक-दूसरे से लड़ पड़ते हैं. हम ग़रीब मज़दूर लोग हैं. हम रोज़ काम खोजने जाएं कि बच्चों को स्कूल छोड़ें?” वह आगे कहती हैं, "सरकार को हमारे पास वाले स्कूल को फिर से खोल देना चाहिए.”
कंधे उचकाते हुए वह अपनी बेबसी ज़ाहिर करती हैं कि जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक 6 से 10 साल के उनके बच्चों को स्कूल से दूर रहना पड़ेगा. इस 30 वर्षीय मां को यह भी डर है कि कहीं यहां जाजपुर ज़िले के दानागढ़ी प्रखंड के जंगल में बच्चा-चोर न होते हों जो उनके बच्चों को उठा ले जाएं.
मामी ने अपने बेटे जोगी के स्कूल आने-जाने के लिए एक पुरानी साइकिल का जोगाड़ किया है. जोगी 6 किमी दूर के एक स्कूल में कक्षा 9 में पढ़ता है. उनकी बड़ी बेटी मोनी कक्षा 7 में है और उसको पैदल ही जमुपसी वाले स्कूल जाना होता है. सबसे छोटी चंद्रिका घर पर रहती है.
मामी सवाल करती हैं, “हमारी पीढ़ी अपने ज़माने में ख़ूब पैदल चली है, पहाड़ की चढ़ाई की है, ख़ूब मेहनत की है. लेकिन क्या हम अपने बच्चों से भी यही उम्मीद रखें?”
बाराबंकी में रहने वाले 87 परिवार मुख्य रूप से आदिवासी हैं. कुछ के पास थोड़ी-बहुत ज़मीन है, लेकिन ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं और स्टील प्लांट या सीमेंट कारखाने में काम करने के लिए 5 किमी दूर स्थित सुकिंडा तक जाते हैं. कुछ पुरुष कताई मिल में या बीयर कैन पैकेज़िंग का काम करने के लिए तमिलनाडु चले गए हैं.
बाराबंकी में, स्कूल बंद होने से स्कूल के मध्याह्न भोजन की उपलब्धता पर भी सवाल उठने लगे, क्योंकि अत्यंत ग़रीब परिवारों के लिए यह भोजन का एक अनिवार्य स्रोत रहा है. किशोर बेहरा कहते हैं, "हमें स्कूल के गर्म खाने के बदले नक़द और चावल देने का वादा किया गया था. पिछले कम से कम सात महीनों से हमें कुछ भी नहीं मिला है." कुछ परिवारों को खाते में भोजन के बदले पैसा मिला था. कभी-कभी उन्हें कहा जाता था कि 3.5 किमी दूर स्थित नए स्कूल के परिसर में खाना मिलेगा.
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इसी प्रखंड में पुरनमंतिरा नाम का एक पड़ोसी गांव है. साल 2022 में अप्रैल महीने का पहला हफ़्ता चल रहा है. दोपहर के समय, गांव से बाहर जाने वाली संकरी सड़क पर चहल-पहल है. महिला, पुरुष, बुज़ुर्ग महिलाएं और साइकिल पर सवार कुछ बड़े किशोर लड़कों से पगडंडी भर गई है. हर कोई अपने काम में लगा है, बिना ज़्यादा बातचीत के अपनी ऊर्जा को बचाकर रखना चाहता है. क़रीब 42 डिग्री की तपती गर्मी से बचने के लिए, पुरुषों ने गमछे (तौलिया जैसा पतला कपड़ा) और महिलाओं ने साड़ी से अपना सिर ढंका हुआ है.
गर्मी को नज़रअंदाज़ करते हुए, पुरनमंतिरा के लोग अपने छोटे बच्चों को स्कूल से लाने के लिए 1.5 किमी पैदल चलकर आए हैं.
दीपक मलिक, पुरनमंतिरा के रहने वाले हैं और सुकिंडा में एक सीमेंट प्लांट में ठेके पर काम करने वाले मज़दूर हैं. सुकिंडा घाटी अपने विशाल क्रोमाइट भंडार के लिए जानी जाती है. उनकी तरह, अनुसूचित जाति के लोगों की बहुलता वाले इस गांव के अन्य लोग, अच्छी तरह से जानते हैं कि अच्छी शिक्षा ही बच्चों के बेहतर भविष्य का एकमात्र रास्ता है. वह कहते हैं, "हमारे गांव में ज़्यादातर लोगो को रोज़ काम करना पड़ता है, ताकि रात में खाना खा सकें. यही कारण है कि 2013-2014 में स्कूल भवन का निर्माण हम सभी के लिए ख़ुशी का मौक़ा था.”
सुजाता रानी सामल कहती हैं कि 2020 में महामारी आने के बाद से, पुरनमंतिरा में कक्षा 1-5 के 14 बच्चों के लिए कोई प्राइमरी स्कूल नहीं है. इसके बजाय, प्राथमिक स्कूल के इन छोटे बच्चों को एक व्यस्त रेलवे लाइन के पास स्थित एक पड़ोसी गांव चकुआ तक की 1.5 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है. सुजाता 25 परिवारों वाले गांव पुरनमंतिरा की रहने वाली हैं.
अगर कोई रेलवे लाइन पार नहीं भी करना चाहे, तो वह एक ओवरब्रिज वाली मुख्य सड़क से भी जा सकता है, लेकिन ऐसा करने पर उन्हें 1.5 के बजाय 5 किमी चलना होगा. ब्राह्मणी रेलवे स्टेशन तक जाने वाली रेलवे क्रॉसिंग के समाप्त होने से पहले, गांव के किनारे से एक छोटी सड़क पुराने स्कूल और कुछ मंदिरों से होते हुए गुज़रती है.
ज़ोर की आवाज़ के साथ मालगाड़ी गुज़र जाती है.
भारतीय रेलवे की हावड़ा-चेन्नई मुख्य लाइन पर, हर दस मिनट में मालगाड़ी और सवारी ट्रेनें ब्राह्मणी स्टेशन को पार करती हैं. और इसलिए, पुरनमंतिरा में कोई भी परिवार अपने बच्चों को बिना किसी बड़े के अकेले स्कूल नहीं जाने देते.
पटरियां अभी भी कांप रही है, और हर कोई अगली ट्रेन के आने से पहले रेलवे क्रासिंग पार कर लेना चाहता है. कुछ बच्चे प्लेटफॉर्म से सरकते-कूदते उतर जाते हैं और छोटे बच्चों को उठाकर पार कराया जाता है. क़रीब 25 मिनट की इस मशक्कत में किसी के पांव गंदे हो जाते हैं, किसी के सख़्त हो जाते हैं, धूप में जल जाते हैं. नंगे पांव चलते-चलते पैर थक जाते हैं, फिर उनमें और चलने की ताक़त नहीं बचती.
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ओडिशा में क़रीब 9,000 स्कूलें बंद हो चुके हैं, जिनमें बाराबंकी और पुरनमंतिरा के प्राथमिक स्कूल भी शामिल हैं. इन स्कूलों को केंद्र सरकार के शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में 'सस्टेनेबल एक्शन फ़ॉर ट्रांसफ़ॉर्मिंग ह्यूमन कैपिटल (साथ)' नामक कार्यक्रम के ज़रिए, पड़ोस के स्कूलों के साथ मिला दिया गया, जिसे आधिकारिक शब्द में 'समेकित' या 'विलय' करना कहते हैं.
साथ-ई को नवंबर 2017 में तीन राज्यों - ओडिशा, झारखंड और मध्य प्रदेश में स्कूली शिक्षा में 'सुधार' के लिए लॉन्च किया गया था. साल 2018 की प्रेस सूचना ब्यूरो की एक विज्ञप्ति के अनुसार, इसका उद्देश्य "पूरी सरकारी स्कूल शिक्षा प्रणाली को हर बच्चे के लिए उत्तरदायी, आकांक्षी और परिवर्तनकारी" बनाना था.
बाराबंकी, जहां गांव के स्कूल को बंद कर दिया गया था, वहां 'बदलाव' थोड़ा अलग रूप में दिख रहा है. गांव में एक इंसान ने डिप्लोमा तक की पढ़ाई की, कुछ ने 12वीं कक्षा तक की, और कुछ लोग मैट्रिक में फेल हो गए. बंद पड़े स्कूल की प्रबंधन समिति के अध्यक्ष किशोर बेहरा कहते हैं, "अब हमारे लोग इतना भी नहीं पढ़ पाएंगे."
उन प्राथमिक विद्यालयों को बंद करके पड़ोसी गांव के किसी चुनिंदा स्कूल के साथ 'विलय' कर दिया जाता है जिन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या कम है. नीति आयोग के तत्कालीन सीईओ, अमिताभ कांत ने साथ-ई पर नवंबर 2021 की रिपोर्ट में विलय (या स्कूल बंदी) को "साहसिक और पथप्रदर्शक सुधारों" में से एक बताया.
पुरनमंतिरा से चकुआ अपने नए स्कूल तक रोज़ाना लंबी दूरी तय करने से, पैरों के दर्द से जूझने वाले छात्र सिद्धार्थ मलिक के लिए यह इतना आसान नहीं है. उनके पिता दीपक कहते हैं कि इस कारण से कई बार दीपक स्कूल नहीं जाता.
भारत के लगभग 11 लाख सरकारी स्कूलों में से, क़रीब 4 लाख में 50 से कम छात्र पढ़ते हैं, और 1.1 लाख में 20 से कम छात्र हैं. साथ-ई रिपोर्ट ने इन्हें "सब-स्केल स्कूल" के रूप में संदर्भित किया है और उनकी कमियों को सूचीबद्ध किया है, जिनमें बिना विषय-विशिष्ट विशेषज्ञता वाले शिक्षक, अच्छे प्रधानाध्यापकों की कमी, खेल के मैदान की कमी, चारदीवारी और पुस्तकालय न होना शामिल है.
हालांकि, पुरनमंतिरा के अभिभावकों का कहना है कि उनके स्कूल में ही अतिरिक्त सुविधाओं की व्यवस्था की जा सकती थी.
किसी को नहीं पता है कि चकुआ के स्कूल में पुस्तकालय है या नहीं; लेकिन इस स्कूल के चारों ओर चारदीवारी है, जो पुराने स्कूल में नहीं थी.
ओडिशा में, वर्तमान में साथ-ई परियोजना का तीसरा चरण चल रहा है. इस चरण में "विलय" के लिए कुल 15,000 स्कूलों को चिह्नित किया गया है.
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झिली देहुरी तक़रीबन अपने घर के पास पहुंच गई हैं, लेकिन अब उसे साइकिल चलाने में दिक्कत हो रही है. बाराबंकी में उसके गांव में आम के एक बड़े पेड़ की छांव में नारंगी रंग की तिरपाल की चादर बिछी हुई है. स्कूली शिक्षा की समस्या पर चर्चा करने के लिए, बच्चों के माता-पिता यहां जमा होते हैं. झिली घर आते-आते थक के चूर हो जाती है.
बाराबंकी के उच्च प्राथमिक के बच्चे और पुराने छात्र (11 से 16 वर्ष की आयु के) 3.5 किमी दूर जमुपसी के स्कूल जाते हैं. किशोर बेहरा कहते हैं, उन्हें दोपहर की धूप में पैदल चलना और साइकिल चलाना दोनों ही थका देने वाला काम लगता है. उनके भाई की बेटी, जो महामारी के बाद पिछले साल 2022 में कक्षा 5 में गई थी, स्कूल से घर की लंबी दूरी को लेकर अनजान थी. पिछले सप्ताह स्कूल से घर जाते समय वह बेहोश हो गई. जमुपसी के लोगों ने उसे मोटरसाइकिल पर घर पहुंचाया.
किशोर कहते हैं, "हमारे बच्चों के पास मोबाइल फ़ोन नहीं है. न ही स्कूलों में आपात स्थिति के लिए माता-पिता का फ़ोन नंबर रखा जाता है."
जाजपुर ज़िले के सुकिंडा और दानागढ़ी ब्लॉकों में, दूरदराज़ के गांवों में सैकड़ों माता-पिता ने स्कूल जाने के इस लंबे रास्ते में पड़ने वाले ख़तरों के बारे में बात की. वे बताते हैं कि रास्ते में या तो घने जंगल हैं या व्यस्त सड़के हैं, रेलवे क्रासिंग है, खड़ी पहाड़ी या मानसून के जलधाराओं से भरी हुई सड़कें हैं. गांव के रास्ते से होते हुए जंगली कुत्ते, हाथी आदि के झुंड गुज़रते हैं.
साथ-ई रिपोर्ट कहती है कि बंद होने वाले स्कूलों से, संभावित नए स्कूलों की दूरी का पता लगाने के लिए भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) डेटा का इस्तेमाल किया गया था. हालांकि, जीआईएस-आधारित दूरियों की गणितीय गणना इन ज़मीनी हक़ीक़तों को नहीं दर्शाती.
पुरनमंतिरा की पूर्व पंचायत वार्ड सदस्य गीता मलिक कहती हैं कि मांओं को ट्रेन और दूरी के अलावा और भी चिताएं हैं. वह कहती हैं, "हाल के वर्षों में मौसम का कुछ अंदाज़ा नहीं रहता. मानसून में कभी-कभी सुबह धूप निकल जाती है और स्कूल बंद होते-होते तूफन आ जाता है. ऐसे हालात में आप किसी बच्चे को दूसरे गांव कैसे भेज सकते हैं?”
गीता के दो लड़के हैं. एक 11 साल का है, जो कक्षा 6 में है. और, एक 6 साल का है, जिसने अभी-अभी स्कूल जाना शुरू किया है. वह भगचाशी (बटाईदार) के परिवार से हैं और वह चाहती हैं कि उनके लड़के कुछ अच्छा करें. वह उम्मीद करती हैं कि उनके बच्चे बड़े होकर अच्छी कमाई करेंगे और खेती के लिए खुद की ज़मीन ख़रीदेंगे.
आम के पेड़ के नीचे जमा हुए सभी माता-पिताओं ने माना कि जब उनके गांव का प्राथमिक स्कूल बंद हो गया, तो या तो उनके बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया या फिर वे रोज़ाना स्कूल नहीं जाते हैं. कुछ बच्चे तो महीने में 15-15 दिन स्कूल नहीं जाते हैं.
पुरनमंतिरा में, जब स्कूल बंद हो गया, तो 6 साल से कम उम्र के बच्चों के आंगनवाड़ी केंद्र को भी स्कूल परिसर से हटा दिया गया और अब यह भी क़रीब 3 किमी दूर है.
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कई लोगों के लिए गांव का स्कूल प्रगति का प्रतीक है; संभावनाओं और आकांक्षाओं की एक सूरत.
माधव मलिक एक दिहाड़ी मज़दूर हैं, जिन्होंने कक्षा 6 तक पढ़ाई की है. उनका कहना है कि 2014 में पुरनमंतिरा गांव में स्कूल बनने के बाद ऐसा लगा कि उनके बेटों मनोज और देबाशीष के लिए आने वाले साल बहुत शुभ होने वाले हैं. वह कहते हैं, “हमने अपने स्कूल का पूरा ख़्याल रखा, क्योंकि यह हमारी उम्मीदों का प्रतीक था.
यहां के बंद हो चुके सरकारी प्राइमरी स्कूल की कक्षाएं अब बेदाग़ और साफ़-सुथरी हैं. दीवारों को सफ़ेद और नीले रंग से रंगा गया है और उड़िया वर्णमाला, अंकों और चित्रों को प्रदर्शित करने वाले चार्ट से भर दिया गया है. एक दीवार पर ब्लैकबोर्ड बनाया गया है. चूंकि अब कक्षाएं नहीं लगेंगी, तो ग्रामीणों ने फ़ैसला किया कि स्कूल सामुदायिक प्रार्थनाओं के लिए सबसे पवित्र स्थान है. एक कक्षा में अब कीर्तन (भक्ति गीत) किया जाता है. एक देवता की फ्रेम की गई तस्वीर दीवार पर लगी है, जिसके सामने पीतल के बर्तन रखे गए हैं.
स्कूल की देखभाल करने के अलावा, पुरनमंतिरा के निवासी इस बात का पूरा-पूरा ख़्याल रखते हैं कि उनके बच्चों को उचित शिक्षा मिलती रहे. उन्होंने गांव के प्रत्येक छात्र के लिए ट्यूशन कक्षाओं की व्यवस्था की है, जिसे लेने के लिए 2 किमी दूर स्थित गांव से साइकिल चलाकर एक शिक्षक आते हैं. दीपक कहते हैं कि बरसात के दिनों में अक्सर वह या कोई और बंदा शिक्षक को मोटरसाइकिल से ले लाते हैं, ताकि मुख्य सड़क पर पानी भर जाने के बाद भी ट्यूशन क्लास चल पाए. ट्यूशन उनके पुराने स्कूल में पढ़ाया जाता है, और शिक्षक को हर परिवार से प्रति माह 250 से 400 रुपए मिलते हैं.
दीपक कहते हैं, ''ट्यूशन क्लास में लगभग सारे विषयों की पढ़ाई होती है.''
बाहर, पलाश के एक पेड़ की विरल छाया में बैठकर लोग इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि आख़िर स्कूल क्यों बंद हुआ. मानसून में जब ब्राह्मणी नदी में बाढ़ आती है, तो पुरनमंतिरा तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है. वहां के लोगों को असली आपात स्थिति का सामना तब करना पड़ता है, जब किसी बीमार के लिए एंबुलेंस गांव तक न पहुंच पाए, और पूरा दिन बिना बिजली के गुज़र जाता है.
माधव कहते हैं, "स्कूल का बंद होना इस बात का संकेत है कि हम पीछे जा रहे हैं, और अब चीज़ें और भी बदतर होंगी."
वैश्विक सलाहकार फर्म बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी), जो साथ-ई परियोजना में केंद्र सरकार का भागीदार है, ने इसे एक " मार्की एज़ुकेशन ट्रांसफ़ॉर्मेशन प्रोग्राम " कहा है, जो सीखने के बेहतर परिणामों को दर्शाता है.
हालांकि, जाजपुर के इन दो ब्लॉकों और ओडिशा के अन्य गांवों के अभिभावकों का कहना है कि स्कूल बंद होने के कारण अब शिक्षा प्राप्त करना अपनेआप में चुनौती बन गई है.
गुंडुचीपसी गांव को 1954 में अपना एक स्कूल मिल गया था. सुकिंडा ब्लॉक में खरडी पहाड़ी वन क्षेत्र में स्थित इस गांव में ज़्यादातर सबर समुदाय के लोग रहते हैं, जिसे शबर या सावर के नाम से भी जानते हैं, और राज्य में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध हैं.
स्कूल बंद होने से पहले उनके 32 बच्चे गांव के सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे. एक बार जब स्कूल फिर से खुले, तो बच्चों को पास के खरड़ी गांव पैदल जाना पड़ता था. यदि कोई जंगल के रास्ते से जाता है, तो उसे सिर्फ़ एक किमी ही चलना होगा, लेकिन दूसरे रास्ते के नाम व्यस्त रहने वाली मुख्य सड़क है, जो वह बच्चों के लिए काफ़ी ख़तरनाक है.
अब कम बच्चे पढ़ने जा रहे हैं. माता-पिता का मानते हैं कि अब उन्हें अपने बच्चों की सुरक्षा और मध्याह्न भोजन में से एक को चुनना पड़ रहा है.
ओम देहुरी कक्षा 2 में, और सूरजप्रकाश नाइक कक्षा 1 में पढ़ता है. दोनों कहते हैं कि वे साथ स्कूल जाते हैं. वे प्लास्टिक की बोतलों में पानी भरकर ले जाते हैं, लेकिन उनके पास न तो खाने के लिए कुछ होता है और न ही पैसे. कक्षा 3 में पढ़ने वाली रानी बारिक कहती है कि उसे स्कूल जाने में एक घंटा लगता है, लेकिन ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वह दोस्तों के आने का इंतज़ार करती है और धीरे-धीरे चलती है.
रानी की दादी बकोटी बारिक कहती हैं कि उन्हें समझ में नहीं आता कि छह दशकों से चल रहे स्कूल को बंद करने और बच्चों को जंगल के रास्ते पड़ोसी गांव भेजने का क्या मतलब है. उस जंगल में "कुत्ते और सांप, कभी-कभी भालू भी दिख जाते हैं. क्या शहर में रहने वाले माता-पिता स्कूल जाने के लिए इस रास्ते को सुरक्षित मानेंगे?"
अब कक्षा 7 और 8 के बच्चों पर छोटे बच्चों को स्कूल ले जाने और वापस लाने का ज़िम्मा आ गया है. कक्षा 7 में पढ़ने वाली सुभश्री बेहरा को अपनी दो छोटी चचेरी बहनों भूमिका और ओम देहुरी को संभालने में समस्या होती है. वह कहती है, "वे कभी-कभी हमारी बात नहीं सुनतीं. अगर वे यहां-वहां भागने लगें, तो उनको संभालना मुश्किल हो जाता है."
मामीना प्रधान के बच्चे – कक्षा 7 में पढ़ने वाला राजेश, और कक्षा 5 में पढ़ने वाली लीजा - पैदल नए स्कूल जाते हैं. ईंटों और पुआल व छप्पर से बने अपने घर में बैठीं मामीना कहती हैं, "बच्चे लगभग एक घंटे पैदल चलते हैं, लेकिन हमारे पास और क्या ही विकल्प है?" वह एक दिहाड़ी मज़दूर हैं. वह और उनके पति महंतो खेती सीज़न में दूसरों के खेतों पर काम करते हैं, और सीज़न ख़त्म हो जाने पर कोई दूसरा काम करते हैं.
माता-पिता का कहना है कि उनके गुंडुचीपसी स्कूल में शिक्षा की गुणवत्ता काफ़ी बेहतर थी. गांव के नेता, 68 वर्षीय गोलकचंद्र प्रधान कहते हैं, "यहां शिक्षक हमारे बच्चों पर विशेष ध्यान देते थे. नए स्कूल में हमारे बच्चों को कक्षाओं में सबसे पीछे बैठाया जाता है.”
पास के सांतरापुर गांव में, जो सुकिंडा ब्लॉक में ही है, प्राथमिक स्कूल 2019 में बंद हो गया था. बच्चे अब 1.5 किमी पैदल चलकर जमुपसी के स्कूल जाते हैं. ग्यारह वर्षीय सचिन मलिक एक बार जंगली कुत्ते से बचने की कोशिश में झील में गिर गया था. सचिन के बड़े भाई, 21 वर्षीय सौरव कहते हैं, "यह 2021 के आख़िर की घटना है." सौरव यहां से 10 किमी दूर दुबुरी के एक स्टील प्लांट में काम करते हैं. वह आगे कहते हैं, "दो बड़े लड़कों ने सचिन को डूबने से बचा लिया, लेकिन उस दिन हर कोई इतना डरा हुआ था कि अगले दिन गांव के बहुत से बच्चे स्कूल नहीं गए."
जमुपसी के स्कूल में मिड-डे मील बनाने वाली एक विधवा महिला लाबन्या मलिक कहती हैं कि सांतरापुर-जमुपसी मार्ग पर आवारा कुत्तों ने वयस्कों पर भी हमला किया है. वह कहती हैं, “कुत्तों का एक झुंड है, जिसमें 15-20 कुत्ते हैं. एक बार जब उन्होंने मेरा पीछा किया, तो मैं मुंह के बल गिर गई थी. अंत में वे मेरे ऊपर से कूद गए. एक ने मेरे पैर पर काट लिया था."
सांतरापुर के 93 घरों में मुख्य रूप से अनुसूचित जाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के निवासी रहते हैं. गांव के प्राइमरी स्कूल के बंद होने के समय वहां 28 बच्चे पढ़ते थे. अब केवल 8-10 ही नियमित रूप से स्कूल जाते हैं.
सांतरापुर की गंगा मलिक जमुपसी में कक्षा 6 की छात्रा है. एक बार जंगल के रास्ते स्कूल जाते समय वह एक तालाब में गिर गई थी, और उसके बाद से उसने स्कूल जाना बंद कर दिया है. उसके पिता सुशांत मलिक, जो एक दिहाड़ी मज़दूर हैं, इस घटना को याद करते हुए कहते हैं: “वह झील में अपना मुंह धो रही थी और अचानक से फिसल गई. जब उसे बचाया गया, तब वह लगभग डूबने ही वाली थी. उसके बाद से उसने स्कूल जाना बेहद कम कर दिया.”
यहां तक कि गंगा अपनी अंतिम परीक्षा के लिए भी स्कूल जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. वह कहती है, "मैं तो अगली कक्षा में भेज ही दी गई थी."
रिपोर्टर, एस्पायर-इंडिया के कर्मचारियों का उनकी सहायता के लिए धन्यवाद व्यक्त करती हैं.
अनुवाद: अमित कुमार झा