जयपुर के राजस्थान पोलो क्लब में यह फरवरी का एक गर्म दिन है और शाम के 4 बज रहे हैं.
दोनों टीमों के सभी चार-चार खिलाड़ी अपनी-अपनी जगह तैयार खड़े हैं.
इस प्रदर्शनी मैच में टीम पीडीकेएफ़ की भारतीय महिला खिलाड़ियों का मुक़ाबला पोलोफ़ैक्ट्री इंटरनेशनल टीम से है - और यह भारत में खेला जा रहा पहला अंतरराष्ट्रीय महिला पोलो मैच है.
सभी खिलाड़ी हाथ में लकड़ी का मैलेट (छड़ी) लिए खेल शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं. यह अशोक शर्मा का इस सीज़न का पहला मैच है. लेकिन वह इस खेल में नए नहीं हैं.
अशोक पोलो मैलेट बनाने वाले कारीगरों की तीसरी पीढ़ी से हैं, जिन्हें इस काम का 55 साल का तजुर्बा है. मैलेट, बेंत से बनी एक छड़ी होती है, जो किसी भी पोलो खिलाड़ी की किट का अहम हिस्सा है. अपने परिवार की सौ साल की पुरानी इस परंपरा के बारे में बताते हुए वह गर्व से कहते हैं, “मैं मैलेट बनाने के शिल्प के साथ ही पैदा हुआ था.” घोड़े की पीठ पर सवार होकर खेला जाने वाला पोलो दुनिया भर में घुड़सवारी के सबसे पुराने खेलों में से एक है.
वह पूरे शहर का सबसे पुराना और मशहूर कारखाना - जयपुर पोलो हाउस चलाते हैं. यह उनका घर भी है, जहां वह अपनी पत्नी मीना और भतीजे जितेन्द्र जांगिड़ (37), जिन्हें वह प्यार से जीतू बुलाते हैं, के साथ मिलकर विभिन्न प्रकार के पोलो मैलेट बनाते हैं. उनका परिवार जांगिड़ समुदाय से संबंध रखता है, जो राजस्थान में अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में सूचीबद्ध है.
अंपायर दोनों टीमों के बीच बॉल घुमाते हैं, जो एक दूसरे के आमने-सामने खड़ी हैं; मैच शुरू होता है, और दूसरी तरफ़ 72 वर्षीय अशोक पुरानी स्मृतियों में खो जाते हैं, “पहले मैं साइकिल चलाकर मैदान आता था, और फिर मैंने एक स्कूटर ख़रीद लिया.” लेकिन यह सिलसिला 2018 में थम गया, जब एक हल्के ब्रेन स्ट्रोक (दिमाग़ी आघात) के बाद उनकी आवाजाही कम हो गई थी.
तभी दो पुरुष खिलाड़ी आते हैं और कहते हैं नमस्ते “पॉली जी”. अशोक भाई की नानी ने उनको यह उपनाम दिया था, फिर जयपुर में पोलो की दुनिया में भी लोग इसी नाम से उन्हें बुलाने लगे. “मैं इन दिनों यहां ज़्यादा आना चाहता हूं, जिससे अधिक से अधिक खिलाड़ी जान सकें कि मैं अभी भी इस काम में सक्रिय हूं और वे अपनी छड़ियां मरम्मत के लिए मेरे पास भेजें."
लगभग दो दशक पहले तक जब कोई अशोक भाई के कारखाने में आता था, तो उसकी दीवारें तैयार रखीं मैलेट से भरी नज़र आती थीं, और मुंह की तरफ़ से छत से बंधी लटक रही होती थीं. वह बताते हैं कि इतने मैलेट रखे होते थे कि कारखाने की धूसर दीवारों का ज़रा सा हिस्सा भी दिखता नहीं था. उनके मुताबिक़, “बड़े खिलाड़ी आते थे, और अपनी पसंद की छड़ी चुनते थे, साथ बैठते थे, चाय पीते थे, तब जाते थे.”
खेल शुरू हो चुका है और राजस्थान पोलो क्लब के पूर्व सचिव वेद आहूजा हमारे बगल में बैठे हैं. आहूजा मुस्कराते हुए कहते हैं, “हर कोई अपने मैलेट सिर्फ़ पॉली से ही बनवाता है. पूर्व में, पॉली इस क्लब को बांस की जड़ों से बनी गेंदें भी मुहैया कराते थे.”
अशोक भाई बताते हैं कि बहुत अमीर लोग या फ़ौज के सदस्य ही पोलो खेलने का ख़र्च वहन कर सकते हैं. साल 2023 के आंकड़ों के अनुसार साल 1892 में स्थापित हुए इंडियन पोलो असोसिएशन (आईपीए) के अंतर्गत केवल 386 खिलाड़ी ही पंजीकृत हैं. चूंकि एक मैच चार से छह चक्करों में बंटा होता है, और हर खिलाड़ी को हर एक चक्कर के बाद अलग घोड़े पर सवार होना पड़ता है, इसलिए उनके मुताबिक़, “मैच खेलने के लिए खिलाड़ी के पास ख़ुद के कम से कम 5-6 घोड़े होने चाहिए.”
भूतपूर्व शाही घरानों, ख़ासकर राजस्थान के राजा-रजवाड़े इस खेल के संरक्षक थे. अशोक भाई कहते हैं, “मेरे ताऊ केशू राम 1920 के दशक में जयपुर और जोधपुर के शासकों के लिए पोलो मैलेट बनाया करते थे.”
पिछले तीन दशकों से, पोलो की दुनिया में खेल, उत्पादन और विनियमन तीनों ही क्षेत्र में अर्जेंटीना का राज है. अशोक कहते हैं, “उनके पोलो घोड़े हिंदुस्तान में सुपरहिट हैं, और इसी तरह उनके पोलो मैलेट और फाइबर ग्लास वाली गेंदों का भी बोलबाला है. यहां तक कि प्रशिक्षण के लिए भी खिलाड़ी अर्जेंटीना जाते हैं.”
उनके मुताबिक़, “मेरा काम अर्जेंटीना में बनी छड़ियों के कारण ठप हो गया था, लेकिन शुक्र है कि मैंने 30-40 साल पहले साइकिल पर बैठकर पोलो खेलने में इस्तेमाल होने वाली छड़ियां बनानी शुरू कर दी थीं, इसलिए मेरे पास अभी तक काम है.”
साइकिल पोलो किसी भी बनावट और आकार की सामान्य साइकिल पर खेला जाता है. घोड़े की पीठ पर बैठकर खेले जाने वाले पोलो के उलट, अशोक के मुताबिक़, “यह खेल आम आदमी के लिए है.” उनकी 2.5 लाख रुपए की सालाना आमदनी मोटे तौर पर साइकिल पोलो के मैलेट बनाने से होती है.
अशोक को केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर-प्रदेश के नागरिकों और फ़ौजी टीमों से 100 से ज़्यादा साइकिल पोलो मैलेट के सालाना ऑर्डर मिलते हैं. प्रत्येक मैलेट पर वह सिर्फ़ 100 रुपए के आसपास क्यों कमाते हैं, इसे समझाते हुए कहते हैं, “खिलाड़ी अक्सर ग़रीब होते हैं, इसलिए मैं उन्हें इतनी छूट दे देता हूं.” उन्हें कैमल (ऊंटों पर बैठ कर खेले जाने वाले) पोलो और एलीफैंट (हाथी पर बैठ कर खेले जाने वाले) पोलो के लिए भी मैलेट के ऑर्डर मिलते हैं, लेकिन ये ऑर्डर बेहद कम ही आते हैं. इसके अलावा, तोहफ़े के तौर पर देने के लिए इनके लघु रूप बनाने के भी ऑर्डर उन्हें मिलते हैं.
मैदान में चलते हुए अशोक बताते हैं, “आज यहां बमुश्किल कोई दर्शक मौजूद है.”
वह भारत और पाकिस्तान के बीच हुए उस मैच को याद करते हैं, जब 40,000 से अधिक लोग उसे देखने आए थे और कुछ लोग तो पेड़ों पर चढ़कर मैच देख रहे थे. ऐसी स्मृतियां उन्हें वक़्त के अनुसार ढलने और पोलो मैलेट बनाने की परिवार की परंपरा को जारी रखने की प्रेरणा देती हैं.
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“लोग मुझसे कहते हैं कि इस काम में कैसी कारीगरी...? बस बेंत ही तो है ये.”
वह कहते हैं, “मैलेट का निर्माण भिन्न तरह के प्राकृतिक कच्चे माल को कौशल के साथ एक साथ तैयार करने का परिणाम होता है, जिससे खेल का अभूतपूर्व अनुभव हासिल किया जा सके. संतुलन, लचीलेपन, मज़बूती और साथ-ही-साथ हल्के वज़न के सामंजस्य से ऐसा हो पाता है. इसमें ऐंठन नहीं होनी चाहिए.”
हम उनके घर की तीसरी मंज़िल पर स्थित कारखाने तक पहुंचने के लिए मध्यम रोशनी में संकरी सीढ़ियों पर चढ़ते हैं. वह बताते हैं कि ब्रेन स्ट्रोक आने के बाद से उनके लिए काम करना आसान नहीं रहा है, लेकिन वह दृढ़ संकल्पित हैं. घोड़े पर बैठकर खेले जाने वाले पोलो के मैलेट की मरम्मत का काम पूरे साल चलता है, जबकि साइकिल पोलो की छड़ियां बनाने का काम सीज़न - सितंबर से मार्च - के दौरान ही ज़्यादा रहता है.
अशोक कहते हैं, “मैलेट बनाने की प्रक्रिया में सभी मोटे काम जीतू करते हैं, और मैडम व मैं बाक़ी का काम नीचे अपने कमरे में करते हैं.” वह अपनी पत्नी मीना को ‘मैडम’ बुलाते हैं, जो उनके बगल में बैठी हैं. उम्र के लिहाज़ से 60 से ज़्यादा की हो चुकीं मीना उनके द्वारा लगातार ‘बॉस’ कहे जाने की बात पर हंसती हैं. इस दौरान वह आंशिक रूप से ही हमारी बात सुन रही हैं, और किसी संभावित ग्राहक को अपने फ़ोन से मैलेट के लघु रूपों वाले सेट की सैम्पल तस्वीरें भेज रही हैं.
यह काम हो जाने के बाद वह रसोई में हमें खिलाने के लिए कचौड़ियां बनाने चली जाती हैं. मीना बताती हैं, “मैं 15 साल से पोलो का काम कर रही हूं.”
दीवार से एक पुराना मैलेट उतारते हुए वह उसके तीन मुख्य पुर्ज़ों की ओर इशारा करते हैं: बेंत की मूठ, लकड़ी का सिरा और रबर या रैक्सीन से बना हैंडल, जिसके साथ कपड़े की एक लटकन लगी होती है. प्रत्येक पुर्ज़े को बनाने की ज़िम्मेदारी उनके परिवार के अलग-अलग सदस्य संभालते हैं.
मैलेट बनाने की प्रक्रिया तीसरी मंज़िल पर काम रहे जीतू के साथ शुरू होती है. वह एक मशीनी कटर का इस्तेमाल करते हैं, जिसे उन्होंने बेंत को काटने के लिए ख़ुद बनाया है. इस बेंत को घुमावदार बनाने के लिए वह रंदे का इस्तेमाल करते हैं, जिससे मूठ लचीली बनती है और खेलते हुए उसमें लोच पैदा हो पाती है.
अशोक कहते हैं, “हम बेंत की पेंदी में कीलें नहीं ठोकते, क्योंकि इससे घोड़े घायल हो सकते हैं. मानो अगर घोड़ा लंगड़ा हो गया, तो आपके लाखों रुपए बेकार.”
जीतू कहते हैं, “मेरा काम शुरू से तकनीकी रहा है.” वह पहले फर्नीचर बनाया करते थे, और फ़िलहाल राजस्थान सरकार के सवाई मान सिंह अस्पताल के ‘जयपुर फुट’ विभाग में कार्यरत हैं, जहां उनके जैसे कारीगर किफ़ायती कृत्रिम अंग बनाते हैं.
जीतू मैलेट के सिरे को दिखाते हुए बताते हैं कि कैसे वह इसमें ड्रिल मशीन का प्रयोग करते हुए छेद बनाते हैं, जिससे इसके रास्ते बेंत की मूठ को टिकाया जा सके. इसके बाद, वह इन्हें मीना को सौंप देते हैं.
रसोई ग्राउंड फ्लोर (भूतल) पर है, जिसके साथ में दो शयनकक्ष बने हुए हैं. मीना इन कमरों के बीच ज़रूरत के मुताबिक़ आवाजाही करते हुए काम करती रहती हैं. वह कोशिश करती हैं कि मैलेट का काम दोपहर के समय करें; खाना बनाने के बाद या पहले, दोपहर के 12 से शाम 5 के बीच. लेकिन अल्पावधि में ऑर्डर आ जाने पर, उनका काम थोड़ा लंबा खिंच जाता है.
मीना के हिस्से ऐसे काम आते हैं जिनमें मैलेट बनाने की प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा वक़्त लगता है - मूठ को मज़बूत बनाने और पकड़ को बांधने का काम. इसमें मूठ के पतले छोर पर फेवीकोल में डूबी सूती पट्टियां बांधने का बारीक काम भी शामिल है. एक बार यह हो जाने पर वह मूठ को सूखने के लिए 24 घंटे तक सपाट ज़मीन पर छोड़ देती हैं, जिससे इसका आकार ठीक बना रहे.
फिर वह रबर या रैक्सीन के ग्रिप को बांधती हैं, और गोंद और कीलों का इस्तेमाल करके मोटे हत्थे पर कॉटन की लटकन लगाती हैं. यह ग्रिप दिखने में साफ़ और लटकन को मज़बूत होना चाहिए, जिससे यह खिलाड़ी की कलाई से फिसल न जाए.
इस दंपति के 36 वर्षीय पुत्र सत्यम पहले इन कामों में हाथ बंटा दिया करते थे, लेकिन एक सड़क हादसे के बाद उनके पैर की तीन सर्जरी हुई, और अब वह ज़मीन पर बैठ पाने में असमर्थ हैं. कई बार शाम को वह रसोई में रात के खाने के लिए सब्ज़ी बना देते हैं या दाल में ढाबे जैसा तड़का लगा देते हैं.
उनकी पत्नी राखी सप्ताह के सातों दिन सुबह 9 बजे से रात के 9 बजे तक, घर से पास में ही स्थित पिज़्ज़ा हट में काम करती हैं. वह अपना खाली समय अपनी बेटी नैना के साथ बिताती हैं, और महिलाओं के ब्लाउज और कुर्तियां सिलती हैं. सात वर्षीय नैना अपने स्कूल का काम आमतौर पर सत्यम की मदद से पूरा करती है.
नैना 9 इंच आकार के छोटे व सजावटी पोलो मैलेट के एक सेट से खेलने लगी है, जिसे जल्द ही उससे ले लिया जाता है, क्योंकि ये नाज़ुक है. दो मैलेट वाले इस सेट का पेंदा लकड़ी का बना हुआ है, जिस पर गेंद के रूप में एक नकली मोती जड़ा हुआ है. इस सेट का मूल्य 600 रुपए है. मीना कहती हैं कि खेलने में इस्तेमाल होने वाले बड़े मैलेट की तुलना में, तोहफ़े में दिए जाने वाले छोटे मैलेट को बनाने में अधिक मेहनत लगती है. “उन पर काम करना ज़्यादा पेचीदा है.”
मैलेट बनाने की प्रक्रिया में, दो अलग-अलग हिस्सों - छड़ी के सिरे और बेंत की मूठ - को आपस में जोड़ना अपने आप में एक मुश्किल काम है. इसी से मैलेट का संतुलन तय होता है. मीना कहती हैं, “संतुलन एक ऐसी चीज़ है जिसे हर कोई नहीं साध सकता.” इस उपकरण के लिए यह एक ऐसी विशेषता है जिसके साथ समझौता नहीं किया जा सकता, और अशोक सहज भाव से कह उठते हैं, “यही काम तो मैं करता हूं.”
फ़र्श पर बिछी लाल गद्दी पर अपनी बाईं टांग सीधी करके बैठे हुए, वह छड़ी के सिरे में छेद के आस-पास गोंद लगा देते हैं, जबकि उनके पैर के अंगूठे और तर्जनी उंगली के बीच बेंत की मूठ टिकी हुई है. जब उनसे पूछा जाता है कि बेंत की मूठ को पिछले साढ़े पांच दशकों में उन्होंने कितनी दफ़ा फंसाया होगा, तो अशोक हौले से हंस देते हैं और कहते हैं, “इसकी कोई गिनती नहीं है.”
जीतू कहते हैं, “ये चूड़ी हो जाएगी, फिक्स हो जाएगी, फिर ये बाहर नहीं निकलेगी.” गेंद के लगातार प्रहार को देखते हुए बेंत और इस लकड़ी को जमाकर रखा जाता है.
एक महीने में क़रीब 100 मैलेट बनाए जाते हैं. पिछले 40 साल से अशोक भाई के साथ काम कर रहे मोहम्मद शफ़ी उन्हें वार्निश (रोगन) करते हैं. वार्निश करने से उनमें चमक आ जाती है, जो उन्हें नमी और धूल से भी बचाती है. शफ़ी भाई मैलेट की लंबाई को एक तरफ़ से पेंट के ज़रिए दर्ज करते हैं. इसके बाद, अशोक भाई, मीना, और जीतू मैलेट के हैंडल के नीचे ‘जयपुर पोलो हाउस’ का लेबल चिपकाते हैं.
एक मैलेट को बनाने में लगने वाले माल की लागत 1,000 रुपए आती है, और अशोक भाई बताते हैं कि बिक्री में इसका आधा दाम भी हाथ नहीं आता. वह एक मैलेट को 1,600 रुपए में बेचने की कोशिश करते हैं, लेकिन हमेशा कामयाब नहीं होते. उनके मुताबिक़, “खिलाड़ी सही दाम नहीं चुकाते. वे बस 1,000-1,200 रुपए चुकाने की बात करते हैं.”
अफ़सोस जताते हुए कि मैलेट से होने वाली कमाई बेहद कम है, वह बताते हैं कि इसका हर हिस्सा बहुत सावधानी से चुना जाता है. अशोक भाई के अनुसार, “बेंत [केवल] असम और रंगून से कोलकाता आता है.” इसमें नमी का अनुपात, लचीलापन, सघनता और मोटाई का स्तर सही होना चाहिए.
अशोक कहते हैं, “कोलकाता में बेंत मुहैया कराने वाले कारोबारियों [सप्लायर] की बेंत मोटी होती है, जो पुलिसवालों का डंडा और बुज़ुर्गों की छड़ी बनाने के ज़्यादा काम आती है. इस तरह की एक हज़ार बेंतों में से केवल सौ के क़रीब ही मेरे काम की होती हैं.” सप्लायर जितनी बेंतें भेजते हैं, उनमें से अधिकांश मैलेट बनाने के लिहाज़ से ज़्यादा मोटी होती हैं, इसलिए महामारी से पहले तक वह सही बेंत चुनने के लिए ख़ुद ही हर साल कोलकाता जाया करते थे. “अब मैं कोलकाता तब ही जा सकता हूं, जब मेरी जेब में एक लाख रुपया हो.”
अशोक भाई कहते हैं कि स्थानीय लकड़ी बाज़ार की लकड़ी के सालों के इस्तेमाल और असफलता ने उन्हें मैलेट के सिरे के लिए आयात की जाने वाली स्टीम बीच लकड़ी और मेपल के पेड़ की लकड़ी पर निर्भर रहने को मजबूर किया है.
वह बताते हैं कि उन्होंने कभी लकड़ी विक्रेताओं को यह नहीं बताया कि वह ख़रीदी हुई लकड़ियों से क्या बनाते हैं. “वे यह कहते हुए दाम बढ़ा देंगे कि ‘आप बड़ा काम कर रहे हैं!’”
इसलिए, वह उन्हें बताते हैं कि वह मेज के पाये बनाते हैं. वह हंसते हुए कहते हैं, “अगर कोई पूछता है कि क्या मैं बेलन भी बनाता हूं, तो मैं हां कह देता हूं.”
उनका कहना है, “अगर मेरे पास 15-20 लाख रुपए होते, तो मुझे कोई रोक नहीं सकता था.” उनके मुताबिक़, अर्जेंटीना में होने वाले टिपुआना टिपु पेड़ की टिपा लकड़ी सबसे अच्छी होती है, जिससे अर्जेंटीना के पोलो मैलेट के सिरे बनाए जाते हैं. वह कहते हैं, “यह बहुत हल्की होती है और टूटती नहीं, बस छिली जाती है.”
अर्जेंटीना के मैलेट कम से कम 10,000 से 12,000 रुपए में बिकते हैं. “बड़े खिलाड़ी अर्जेंटीना से ही ऑर्डर करते हैं.”
वर्तमान में, अशोक भाई ऑर्डर मिलने पर घोड़े पर सवार होकर खेले जाने वाले पोलो के मैलेट बनाते हैं और विदेशी मैलेट की मरम्मत करते हैं. भारत में सबसे ज़्यादा पोलो क्लब जयपुर ज़िले में हैं, लेकिन इसके बावजूद शहर में स्थित खेलकूद के सामानों की दुकानें पोलो मैलेट को बेचने के लिए नहीं रखतीं.
लिबर्टी स्पोर्ट्स (1957) के अनिल छाबड़िया मुझे अशोक भाई का बिजनेस कार्ड पकड़ाते हुए कहते हैं, “अगर कोई पोलो मैलेट के बारे में पूछता है, तो हम उसे हमेशा पोलो विक्ट्री के सामने स्थित जयपुर पोलो हाउस ही भेजते हैं.”
पोलो विक्ट्री सिनेमा (अब एक होटल) को अशोक भाई के ताऊ केशू राम ने 1933 में इंग्लैंड के दौरे पर गई जयपुर टीम की ऐतिहासिक जीतों की याद में बनवाया था. केशू राम पोलो मैलेट बनाने वाले अकेले कारीगर थे, जो टीम के साथ उस दौरे पर गए थे.
आज की तारीख़ में, जयपुर और दिल्ली में होने वाली सालाना पोलो खेल-प्रतियोगिताएं जयपुर की ऐतिहासिक टीम के तीन सदस्यों - मान सिंह द्वितीय, हनूट सिंह और पृथी सिंह - के नाम पर आयोजित की जाती हैं. हालांकि, भारतीय उपमहाद्वीप के पोलो से जुड़े इतिहास में अशोक भाई और उनके परिवार के योगदान को कोई ख़ास पहचान नहीं मिली है.
वह कहते हैं, “जब तक केन [बेंत] की स्टिक से खेलेंगे, तब तक प्लेयर्स को मेरे पास आना ही पड़ेगा.”
यह स्टोरी मृणालिनी मुखर्जी फ़ाउंडेशन (एमएमएफ़) से मिली फ़ेलोशिप के तहत लिखी गई है.
अनुवाद: सीत मिश्रा