आकार में यह उंगली के नाख़ूनों के बराबर होता है. इसकी कलियां हल्के पीले रंग की या सफ़ेद और सुंदर होती हैं. इसके खेत जहां-तहां झुंडों में खिले फूलों से रोशन होते हैं और इसकी तीखी-मादक गंध नासिका-रंध्रों में देर तक बसी रहती है. चमेली का फूल प्रकृति का एक अनुपम उपहार है, जो हमें इस इलाक़े की धूल भरी धरती, स्थूल पौधों और मेघों से घिरे आसमान के ज़रिए प्राप्त होती है.

हालांकि, इन फूलों को उगाने वाले कामगारों के पास इन स्मृतियों में खो जाने का ज़रा भी वक़्त नहीं है. उन्हें इन मल्लियों (चमेलियों) को खिलने से पहले ही पूकडई (फूलों के बाज़ार) तक पहुंचाने की जल्दी है. विनायक चतुर्थी, अर्थात भगवान गणेश का जन्मदिन आने में केवल चार दिन रह गए हैं और फूलों की अच्छी क़ीमत मिलने की उम्मीद है.

इन कलियों को तोड़ने के लिए स्त्री-पुरुष केवल अपनी पहली उंगली और अंगूठे का उपयोग करते हैं. तोड़ने के बाद वे उन्हें अपनी साड़ी या धोती के कोने को मोड़ कर बनाई गई थैलियों में जमा करते हैं, और थैलियों के भर जाने पर कलियों को बोरियों में उड़ेल देते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में एक एहतियात बरती जाती है: सबसे पहले पौधे की डाली को हौले से उठाया जाता है, उसके बाद कलियों को चुटकी की मदद से तोड़ा जाता है, और फिर अगले पौधे की तरफ़ बढ़ जाया जाता है. पौधों की ऊंचाई आमतौर पर तीन साल के किसी बच्चे की लंबाई के बराबर होती है. फिर थोड़ी गपशप के साथ कुछ और फूलों को तोड़ने का काम होता है. पूरब से आकाश पर चढ़ते हुए सूरज और बढ़ती हुई गर्मी के साथ, अक्सर रेडियो पर कोई लोकप्रिय तमिल गाना बजता रहता है...

जल्दी ही ये फूल मदुरई शहर के मट्टुतवानी बाज़ार तक पहुंच जाएंगे, जहां से वे तमिलनाडु के दूसरे शहरों में भेज दिए जाएंगे. इन फूलों की कुछ खेपें समुद्र का रास्ता तय करती हुईं दूसरे देशों तक भी जाती हैं.

पारी ने साल 2021, 2022 और 2023 में मदुरई ज़िले के तिरुमंगलम और उसिलमपट्टी तालुका की यात्रा की. मदुरई शहर से चमेली के खेतों तक पहुंचने में सड़कमार्ग से घंटे भर से भी कम का समय लगता है. अपने ऐतिहासिक मीनाक्षी अम्मां मंदिर और फूलों के बड़े बाज़ार के कारण यहां मल्ली का खुदरा और थोक व्यापार तेज़ी से फलफूल रहा है.

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मदुरई के तिरुमंगलम तालुका के एक छोटे से गांव में अपने खेतों के बीच खड़े गणपति. कुछ दिन पहले तक यहां पौधों में चमेली के फूल भरे हुए थे. लेकिन अब वे इतने भर बचे हैं कि रोज़ तोड़े जाने पर एक किलो से अधिक इकट्ठा नहीं होंगे

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हथेली में भरी हुईं ख़ुश्बूदार चमेली की कलियां

तिरुमंगलम तालुका के मेलौप्पिलिगुंडु गांव के 51 वर्षीय पी. गणपति मुझे मदुरई और उसके आसपास के इलाक़ों से गहरे रूप से जुड़े इन फूलों के बारे में बताते हैं. “यह इलाक़ा अपने ख़ुश्बूदार मल्ली के कारण बहुत प्रसिद्ध है. आप अपने घर के किसी भी कोने में सिर्फ़ आधा किलो चमेली रख दें, इसकी महक पूरे एक हफ़्ते तक बनी रहेगी!”

एकदम झक सफ़ेद कमीज़ जिसकी जेब में कुछ करेंसी नोट खुसे हुए हैं, और एक नीली लुंगी पहने गणपति के चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान खिली रहती है और वह धाराप्रवाह मदुरई तमिल में बातचीत करते हैं. “जब तक यह एक साल का नहीं हो जाता है, तब तक यह पौधा किसी बच्चे की तरह होता है,” वह कहते है. “आपको इसका ख़ूब ख़याल रखना होता है.” उनके पास ढाई एकड़ ज़मीन है जिसपर वह चमेली उगाते हैं.

छह महीने का हो जाने पर पौधे में फूल आने शुरू हो जाते हैं. लेकिन इसकी रफ़्तार एक बराबर नहीं रहती है. चमेली के एक किलोग्राम की क़ीमत की तरह यह भी घटती-बढ़ती रहती है. कई बार गणपति को एक एकड़ खेत से मुश्किल से एक किलो चमेली ही पैदा होती है. लेकिन दो हफ़्ते के बाद इसकी मात्रा बढ़कर 50 किलो भी पहुंच सकती है. “शादी-विवाह और त्योहारों के मौसम में इन फूलों के अच्छे-ख़ासे पैसे मिलते हैं. कई बार एक किलो चमेली एक से लेकर तीन हज़ार प्रतिकिलो तक बिक सकती है. लेकिन कई बार ख़ासी तादाद में फूल उगने से अनुकूल अवसरों के बावजूद क़ीमत में गिरावट देखी जा सकती है.” बहरहाल क़ीमत अच्छी मिले या ख़राब, लेकिन लागत-मूल्य में कभी कोई कमी नही आती - यह पक्की बात है.

और, न ही कभी श्रम कम लगता है. किसी-किसी सुबह वे और उनकी वीतुकरम्मा – गणपति अपनी पत्नी पिचैअम्मा को इसी नाम से बुलाते हैं – बहुत मेहनत से आठ किलो तक चमेली तोड़ते हैं. “हमारी पीठ में बेतहाशा दर्द होता है,” वे कहते हैं. “दर्द से हमारी पीठ अकड़ जाती है.” लेकिन इससे भी ज़्यादा तकलीफ उन्हें तब होती है कि जब वे खाद और कीटनाशकों को ख़रीदने और मजदूरों को दिहाड़ी देने लायक पैसे भी नहीं कमा पाते हैं. “ऐसी स्थिति में बढिया मुनाफे की उम्मीद क्या ही करना?” यह सितंबर 2021 की बात है.

दिनचर्या में शामिल यह फूल किसी भी नुक्कड़ पर सहजता से बिकता पाया जाता है. मल्ली कमोबेश तमिल संस्कृति का प्रतीक-चिन्ह है और एक शहर का पर्यायवाची है. चावल की एक किस्म इडली की तरह चमेली की गंध को सभी मंदिरों, शादी-विवाह के अवसरों और बाज़ारों में महसूस किया जा सकता है. यह किसी भी भीड़, बस या शयनकक्षों से आने वाली एक स्थायी महक है. लेकिन इसे उपजाना इतना आसान नहीं है...

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गणपति के खेतों का कलियों और चमेली के नवजात पौधों (दाएं) से भरा एक हिस्सा

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पिचईयम्मा खेत में काम करने वाले मज़दूरों के साथ मिलकर अपने चमेली के खेत की सफ़ाई कर रही हैं

जब अगस्त 2022 में हम वहां दूसरी बार गए, तो गणपति के खेतों में चमेली के नए पौधों की खेप लगी हुई थी. एक एकड़ में कुल 9,000 पौधे लगे थे और वे सात महीने की उम्र के थे. एक हाथ लंबे ये पौधे चार रुपए में एक की दर से रामनाथपुरम ज़िले के रामेश्वरम के पास तंगचिमदम की नर्सरियों से ख़रीदे गए थे. इन पौधों को वह ख़ुद ख़रीद कर लाए थे, ताकि बढ़िया क़िस्म के पौधों को चुना जा सके. अगर मिट्टी अच्छी है - उपजाऊ, बलुई और लाल रंग की, तो अपने हाथों से भरसक एक बड़ा घेरा बनाते हुए गणपति मुझसे कहते हैं, “आप इन्हें चार फीट की दूरी पर लगा सकते हैं, पौधे आकार में बड़े होंगे. लेकिन यहां जो मिट्टी है वह ईंट बनाने के लिए अधिक अनुकूल हैं.” यह चिकनी मिट्टी है.

मल्ली उपजाने के लिए गणपति एक एकड़ खेत की मिट्टी तैयार करने में तक़रीबन 50,000 रुपए तक ख़र्च करते हैं. “आप तो समझ सकते हैं कि मिट्टी को अच्छी तरह से तैयार करना एक ख़र्चीला काम है. “गर्मियों के दिनों में उनका खेत फूलों से जगमगाने लगता है. इस बात की वह तमिल में कहते हैं - “पलिचिन्नु पूकुम.” जिस दिन वह 10 किलो फूल तोड़ने में सफल होते हैं उस दिन को वह अपने लिए एक बढ़िया दिन मानते हैं. कुछ पौधों में बमुश्किल 100 ग्राम फूल लगते हैं, जबकि कुछ पौधों में 200 ग्राम फूल भी होते हैं. यह बताते हुए उनकी आंखें ख़ुशी के मारे फ़ैल जाती हैं, और आवाज़ में एक उत्साह दिखने लगता है. उन्हें उम्मीद है कि ऐसी ख़ुशी उनकी ज़िंदगी में जल्दी ही दोबारा लौटेगी - बहुत जल्दी. इस उम्मीद से उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट खिल उठती है.

गणपति के दिन की शुरुआत पौ फूटने के साथ होती है. पहले वह एक-दो घंटे पहले अपना काम शुरू करते थे, लेकिन अब “मज़दूर थोड़ी देर से आते हैं,” वह बताते हैं. कलियों को तोड़ने के लिए वह मज़दूरों को दिहाड़ी पर रखते हैं. और, उन्हें 50 रुपए प्रति घंटे  या एक “डब्बा” का 35 से 50 रुपए के हिसाब से भुगतान करते हैं. ‘डब्बा’ एक ऐसा माप है जो लगभग एक किलो फूल के बराबर होता है.

पारी की पिछली यात्रा के बाद के 12 महीनों में फूलों की क़ीमत में बढ़ोतरी हुई है. फूलों की क़ीमत इत्र बनाने वाली फैक्ट्रियां तय करती हैं. जब चमेली के फूल बड़ी मात्रा में उपलब्ध होते हैं, तो निर्माण इकाइयां इसे थोक मात्रा में ख़रीदती हैं. फूलों की क़ीमत आमतौर पर 120 रुपए से लेकर 220 रुपए प्रति किलो के बीच होती है. गणपति के अनुसार, प्रति किलो दो सौ रुपए के आसपास की क़ीमत मिलने से उन्हें नुक़सान नहीं उठाना पड़ता है.

जब फूलों की मांग बहुत बढी होती है, और उसकी तुलना में पैदावार कम होती है तब चमेली की कलियां बहुत महंगी बिकती हैं. त्योहारों के मौसम में ये कलियां 1,000 रुपए प्रति किलों तक बिकती हैं. लेकिन पेड़-पौधे कैलेंडर के हिसाब से नहीं चलते हैं, और न वे किसी ‘मुहूर्त नाल’ और ‘कारी नाल’ – अर्थात शुभ और अशुभ पलों को जानते हैं.

वे प्रकृति के नियमों से चलते हैं. लेकिन लगातार तेज़ धूप वाले मौसम के बाद जब अच्छी बरसात होती है, तब खेत फूलों से भर जाते हैं. “आप जिस तरफ़ देखेंगे, आपको सिर्फ़ चमेली के फूल नज़र आएंगे. आप पौधों को खिलने से तो नहीं रोक सकते! रोक सकते हैं क्या?” गणपति मुस्कुराते हुए कहते हैं.

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गणपति हमारे खाने के लिए पका अमरूद तोड़ रहे हैं

“टनों की मात्रा में चमेली के फूल खिलते हैं, पांच टन, छह टन, सात टन... एक बार तो तक़रीबन दस टन तक फूल आए!” वह बताते हैं कि उनमें से ज़्यादातर फूल इत्र बनाने वाली फैक्ट्रियों में भेज दिए गए.

मालाएं और वेणियां बनाने के लिए इन फूलों को 300 रुपए किलो तक की दरों पर बेचा जाता है. “लेकिन जब खिली हुई चमेलियां तोड़ ली जाती हैं, उसके बाद हम मुश्किल से एक किलो फूल ही तोड़ पाते हैं. ऐसे में आपूर्ति कम होने से क़ीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी होती है. मांग बहुत अधिक बढ़ने की स्थिति में 10 किलो चमेली के बदले 15,000 रुपए भी मिल सकते हैं. इससे बेहतर आमदनी और क्या हो सकती है?” वह एक चतुर हंसी हंसते हैं, जो उनके होठों से निकलती हुई उनकी आंखों तक फैल जाती है. “तब मैं कुर्सियां क्यों लगाऊंगा, बढ़िया खाने की व्यवस्था क्यों करूंगा, मैं तो बस यहां बैठकर आपको इंटरव्यू दूंगा!”

हालांकि, सच यही है कि वह ऐसा नहीं कर सकते हैं, और न उनकी पत्नी ही. उनके पास करने को बहुत से काम हैं. सबसे अधिक मेहनत उनको इस ख़ुश्बूदार फ़सल के लिए मिट्टी तैयार करने में लगती है. अपने बचे हुए डेढ़ एकड़ में गणपति अमरूद उगाते हैं. ”आज सुबह ही मैं 50 किलो अमरूद तोड़ कर बाज़ार ले गया था, जो 20 रुपए प्रतिकिलो की क़ीमत पर बिके. आने-जाने का ख़र्च काटने के बाद मुझे कोई 800 रुपयों का लाभ हुआ. जब अमरूद आसपास के इलाक़े में उपलब्ध नहीं होता था, तब ख़रीदार ख़ुद अमरूद तोड़ कर ले जाते थे और हमें बदले में 25 रुपए प्रति किलो के हिसाब से भुगतान करते थे. वे दिन अब गुज़र गए ...”

गणपति चमेली के फूल उपजाने के लिए ज़मीन तैयार करने और छोटे पौधों की ख़रीदारी करने में साल में लगभग एक लाख रुपए निवेश करते हैं. पौधों को लगाने में किए गए इस ख़र्च से वह दस सालों के लिए फूल पैदा कर सकते हैं. हरेक साल मल्ली का मौसम आठ महीनों तक चलता है - सामान्यतः मार्च से लेकर नवंबर तक. इस मौसम में अच्छे दिन और बहुत अच्छे दिन भी आते हैं, लेकिन ऐसे दिनों की भरमार भी होती है जब पौधों पर एक भी कली नहीं आई होती है. गणपति बताते हैं कि चमेली के मौसम में उन्हें एक एकड़ खेत से औसतन हर महीने तक़रीबन 30,000 रुपयों का लाभ होता है.

इस आंकड़े को बताते हुए वह उससे कहीं अधिक समृद्ध प्रतीत होते हैं जितने कि वह वास्तव में हैं. दूसरे किसानों की तरह ही वह अपने और उनकी पत्नी के श्रम को खेती के लागत में नहीं गिनते. यदि उन्होंने उस श्रम को भी गिना होता, तो कितने पैसे बनते? “हर दिन मैं 500 रुपए की दिहाड़ी जितनी मेहनत करता हूं, और मेरी पत्नी की एक दिन की मज़दूरी 300 रुपए होती है.” अगर वह इन्हें गिनते हैं, तो उनका एक महीने का मुनाफ़ा 30,000 रुपए से घटकर सिर्फ़ 6,000 रुपए रह जाता है.

वह कहते हैं, “इतना मुनाफ़ा भी आपको तभी मिलता है, जब आप ख़ुशक़िस्मत हों.” यह बात हमने उनके मोटर शेड के अंदर बातचीत करने के दौरान जानी कि क़िस्मत के साथ-साथ कुछ रसायनों की भूमिका इस कारोबार में बहुत महत्वपूर्ण है.

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गणपति के खेत का मोटर शेड, जिसकी ज़मीन कीटनाशकों की खाली बोतलों और और डिब्बों से पटी हुई है

मोटर शेड दरअसल एक छोटा सा कमरा है, जिसमें गणपति के कुत्ते दोपहर के समय सोते हैं. एक कोने में मुर्गियों का एक छोटा सा झुंड है. मेरी नज़र सबसे पहले एक अंडे पर ही पड़ी थी. गणपति उन्हें मुस्कुराते हुए उठा लेते हैं और उसे बहुत सावधानी के साथ अपनी हथेली पर रख लेते हैं. फ़र्श पर कीटनाशकों की ढेर सारी खाली बोतलें और डिब्बे बिखरे पड़े हैं. यह जगह उपयोग में आ चुके रसायनों के किसी वर्कशॉप की तरह दिखती है. “ये बहुत ज़रूरी रसायन हैं,” गणपति धैर्यपूर्वक बतलाते हैं. “इनके इस्तेमाल से ही पौधों में फूल आते हैं - ‘पलिचु’ मतलब सफ़ेद चमेली के फूल जिनकी गंध बहुत तेज़ होती है और शाखें थोड़ी मोटी होती हैं.”

गणपति मुझसे पूछते हैं, “इन्हें अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं?” उन्होंने अपने हाथ में कुछ डिब्बे पकड़े हुए हैं. मैं बारी-बारी से उनके नाम पढ़ती हूं. गणपति बताने लगते हैं, “यह लाल फतिंगों के मारने के काम आता है, वह कीटाणुओं के लिए है. और, यह हर तरह के कीटों के लिए है. चमेली के पौधों पर कई तरह के कीट हमले करते हैं.”

गणपति के सलाहकार उनके बेटे हैं. “वह एक मरुन्धु कड़ई [कीटनाशक बेचने वाली दुकान] में नौकरी करता है,” वह बताते हैं. टहलते हुए हम बाहर तेज़ धूप में आ जाते हैं, जो कमोबेश चमेली के सफ़ेद फूलों की तरह ही चमकीली है. बाहर की गीली मिट्टी पर कुत्ते का एक पिल्ला लोटता हुआ दिख रहा है जिसके कारण उसके सफ़ेद रोएं हल्के लाल हो गए हैं. शेड के पास एक भूरे रंग का दूसरा कुत्ता घूमता हुआ दिख रहा है. मैं उनसे पूछती हूं, “आप इन्हें क्या कहते हैं.” वह धीमी हंसी हंसते हैं, “मैं उन्हें ‘करुप्पु’ कह कर पुकारता हूं, और ये दौड़े चले आते हैं.” तमिल में करुप्पु का मतलब काला होता है. लेकिन ये कुत्ते काले नहीं हैं , मैं यह बात उनसे कहती हूं.

“जो भी हो, लेकिन वे दौड़ कर मेरे पास आ जाते हैं,” गणपति हंसते हुए कहते हैं और एक दूसरे कमरे में आ जाते हैं, जो आकार में थोड़ा बड़ा है. उसमें नारियलों के अंबार लगे हैं और एक बाल्टी में पक कर पिलपिले हो चुके अमरूद भी रखे हैं. “मेरी गाय इन्हें खा जाएगी. फ़िलहाल वह उस खेत में घास चर रही है.” पास ही कुछ देशी मुर्गियां घूमती-चहकती हुईं दाने चुग रही हैं.

वह मुझे स्टोर से ख़रीदे गए खाद दिखाने लगते हैं - एक बड़ी सफ़ेद बाल्टी में रखे ‘सॉइल  कंडीशनर्स’, जिसकी क़ीमत 800 रुपए है, सल्फर ग्रेन्यूल्स और कुछ जैव उर्वरक. “मैं चाहता हूं कि कार्तिगई मासम [15 नवंबर से 15 दिसंबर के बीच का महीना] में अच्छी उपज हो. उस समय क़ीमत बहुत ऊंची रहती है, क्योंकि यह शादियों का मौसम होता है.” बाहर के शेड के एक ग्रेनाईट के खंभे पर पीठ टिकाते हुए वह मुस्कुराते हैं और मुझे अच्छी खेती का राज़ बताने लगते हैं, “आपको वनस्पतियों की इज़्ज़त करनी होती है. आप उनकी इज़्ज़त करेंगे, तभी वे भी आपकी इज़्ज़त करेंगे.”

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गणपति अपने घर के अहाते में अपने दोनों कुत्तों के साथ. दोनों को वह करुप्पु (काला) कहकर बुलाते हैं. दाएं: दाना चुगती एक मुर्गी

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बाएं: खाद का एक डिब्बा. दाएं: गणपति चमेली के पौधे के वे हिस्से दिखाते हुए जहां आम तौर पर कीड़े हमला करते हैं

गणपति अपनी बात बहुत रोचक लहजे में कहना जानते हैं. उनकी नज़र में खेत एक रंगमंच की तरह है जिसपर प्रतिदिन कोई नाटक का खेल होता है. “कल ही रात 9:45 बजे की बात है, उस तरफ़ से चार सूअर आ गए. करुप्पु यहीं था, उसने सूअरों को देख लिया. वे पके हुए अमरूदों की गंध पाकर यहां आ गए थे. करुप्पु ने उनमें से तीन सूअरों को खदेड़ा. चौथा दौड़ कर उस तरफ़ भाग गया,” उन्होंने मुख्य सड़क और सड़क के पार के मंदिर और खुले खेतों की तरफ़ हाथ का इशारा करते हुए कहा. “आप कर भी क्या सकते हैं? बहुत पहले यहां ख़तरनाक जानवर आते थे - लोमड़ियां - अब वे नहीं आते.”

सूअर की तरह ही कीड़े भी एक बड़ी समस्या हैं. चमेली के खेत में चहलकदमी करते हुए गणपति विस्तार से यह बताने लगते हैं कि ताज़ा खिले फूलों पर कीड़े कितनी तेज़ी से और घातक हमला करते हैं. उसके बाद वह उंगलियों से हवाओं में ही काल्पनिक गोल और चौकोर आकार बनाते हुए पौधों के उगने के लिए ज़रूरी जगह की रुपरेखा बनाने की कोशिश करते हैं, और मुझे ख़ुश करने के लिए मोतियों की तरह कुछ चमकते हुए चमेली के फूल तोड़ते हैं. वह ख़ुद भी उनको सूंघते हैं, मदुरई के मल्ली की गंध सबसे अच्छी होती है,” वह निष्कर्ष के तौर पर कहते हैं.

मैं उनकी बात से सहमत हूं. इसकी ख़ुश्बू नशीली है, और इस कत्थई मिट्टी पर इस तरह चहलकदमी करना, इनमें मौजूद कंकड़ों को तलुओं से महसूस करना, खेती के बारे में गणपति और उनकी पत्नी पिचईयम्मा से उनके अनुभवों की बातें सुनना एक गौरव की बात है. “हम बड़े ज़मींदार नहीं हैं, हम चिन्न सम्सारी (छोटे किसान) हैं. हम आराम से बैठे रह कर ज़िंदगी नहीं गुज़ार सकते, और न दूसरों को हुक्म ही दे सकते हैं. मेरी पत्नी भी दूसरे मज़दूरों के साथ काम करती है. इसी तरह से हमारा गुज़ारा होता है.”

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इस इलाक़े में चमेली कोई 2,000 सालों से उगाई जाती रही है, और रूप तथा गंध - दोनों सन्दर्भों में तमिल अतीत में इस फूल का एक शानदार इतिहास रहा है. एक माला में गुंथे फूल की तरह चमेली का उल्लेख भी तमिल-इतिहास से परस्पर गुंथा हुआ है. संगम काल के साहित्य में 100 से अधिक बार मुल्लई (जैसा कि उस काल में चमेली को कहा जाता था) का उल्लेख मिलता है. हवाई में रहने वाली संगम तमिल की विदुषी और अनुवादक वैदेही हरबर्ट के अनुसार, तमिल इतिहास में इस फूल की अलग-अलग क़िस्मों का उल्लेख  भी मिलता है. वैदेही ने 300 ईस्वी पूर्व से लेकर 250 ईस्वी के बीच लिखे गए संगम-युग की सभी 18 पुस्तकों को अंग्रेज़ी में न केवल अनूदित किया है, बल्कि बिना किसी शुल्क के उन्हें ऑनलाइन उपलब्ध करने का महत्वपूर्ण काम भी किया है.

वह बताती हैं कि मल्लिगई शब्द से ही मुल्लई शब्द की उत्पत्ति हुई है. यही परिवर्तित होकर अब मल्ली बन गया है. संगम साहित्य में मुल्लई को पांच आंतरिक दृश्यों (अकम तिनईस) में एक बताया गया है. यह वनों और उनसे जुड़ी ज़मीनों की ओर संकेत करता है. शेष चारों के नाम भी फूलों या पेड़ों के नाम पर हैं. ये हैं - कुरिंजी (पहाड़), मरुतम (खेत), नेतल (समुद्रतट) और पलई (शुष्क बीहड़).

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मदुरई ज़िले के उसिलमपट्टी तालुका में स्थित छोटे से गांव नाडुमुडलईकुलम में पांडी के खेत में चमेली की कलियां और फूल

अपने ब्लॉग में वैदेही उल्लेख करती हैं कि संगम लेखक “अकम तिनईस का कविता में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए उपयोग करते थे.” वह कहती हैं, “ये रूपक और उपमाएं किसी ख़ास दृश्य को प्रस्तुत करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. वनस्पतियां, पशु-पक्षी और किसी ख़ास दृश्य का उपयोग भी कविता में वर्णित किसी चरित्र की भौतिक विशेषताओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए होता है.” मुल्लई परिदृश्य में ये श्लोक-समुच्चय की अभिव्यक्ति “धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा” के सन्दर्भ में की गई है. मतलब नायिका अपने प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही है जो यात्रा से लौटने वाला है.

क़रीब 2000 साल से भी ज़्यादा पुरानी इस ऐनकुरुनूरु कविता में वस्तुतः पुरुष अपनी प्रेयसी की सुंदरता से आसक्त दिखता है:

जैसे कोई मयूर तुम्हारी तरह नृत्य करता हो
जैसे कोई चमेली तुम्हारी ललाट की
सुगंध की तरह महकती हो
जैसे कोई हिरन तुम्हारी डरी हुई आंखों से देखती हो
मैं तुम्हारे बारे में ही सोचते तेज़ी से घर लौटता हूं
मेरी प्रेयसी मानसून के मेघ की गति से जाती दिखती है

संगमयुगीन कविताओं के अनुवादक और OldTamilPoetry.com चलाने वाले चेंतिल नाथन मुझे एक दूसरी कविता के बारे में बताते है जो संगम कविताओं में वर्णित है. यह एक लंबी कविता है, चेंतिल बताते हैं, लेकिन ये चार पंक्तियां सुंदर और अर्थपूर्ण हैं.

परी, जिसकी ख्याति दूर तक फैली हुई थी
उसने अपना राजसी रथ का त्याग कर दिया था, जिन पर घंटियां लटकी थीं
क्योंकि खिलती हुई चमेलियों की लतर ने उसे प्रेरित किया था
जो किसी सहारे के बिना  ऊपर चढ़ रही थी
हालांकि, उसकी प्रशंसा में गीत गाना असंभव है...

पुरनानूरु 200, पंक्ति 9-12

तमिलनाडु में बृहद स्तर पर उपजाई जाने वाली चमेली की मल्ली क़िस्म का वैज्ञानिक नाम जैस्मिनम सैम्बैक है. आज तमिलनाडु डंठलवाले फूलों के विपरीत, डंठलरहित फूलों के उत्पादन के मामले में देश में अग्रणी है. भारत में उगाई जाने वाली 240,000 टन चमेली के फूलों में अकेले तमिलनाडु का योगदान 180,000 टन है. इस दृष्टि से राज्य चमेली उत्पादन के क्षेत्र में पूरे देश में निर्विवाद रूप से शीर्ष उत्पादक है.

जीआई ( जिओग्राफ़िकल इंडिकेशन ) वाले मदुरई मल्ली की अपनी कुछ ख़ास विशेषताएं होती हैं. ये तेज़ सुगंध, मोटी पंखुरी, लंबी डंठल और देर तक ताज़ा बने रहने वाली होती हैं. इनको खिलने में भी अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है और इनके रंग अधिक देर तक बने रहते हैं.

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चमेली के फूल पर बैठ कर उसका रस पीती हुई तितली

चमेली की दूसरी प्रजातियों के भी दिलचस्प नाम होते हैं. मदुरई मल्ली के अलावा ये गुंडु मल्ली, नम्म ऊरु मल्ली, अम्बु मल्ली, रामबनम, मधनबनम, इरुवत्ची, इरुवत्चिप्पू, कस्तूरी मल्ली, ऊसी मल्ली और सिंगल मोगरा जैसी क़िस्में भी होती हैं.

हालांकि, मदुरई मल्ली केवल मदुरई में ही नहीं होती, बल्कि विरुदुनगर, तेनी, डिंडीगुल और शिवगंगई जैसे आसपास के ज़िलों में भी इनको उगाया जाता है. तमिलनाडु में कृषियोग्य भूमि के 2.8 प्रतिशत टुकड़े में फूलों की खेती होती है, जिसमें अकेले चमेली की क़िस्मों की खेती 40 फीसदी ज़मीन पर होती है. राज्य में चमेली का हर छठवां खेत मदुरई इलाक़े में है. क्षेत्रफल की दृष्टि से इसका अनुपात 13,719 हेक्टेयर के मुक़ाबले 1,666 हेक्टेयर है.

काग़ज़ पर यह एक लुभावना आंकड़ा है, लेकिन मूल्यों के अनिश्चित उतार-चढ़ाव के कारण किसानों की आर्थिक स्थिति इतनी मज़बूत नहीं है. यह सब इतना अनिश्चित है कि इत्र बनाने के लिए नीलकोट्टई बाज़ार की 120 रुपए प्रतिकिलो की बुनियादी क़ीमत से शुरू होकर यह मट्टुतवानी फ्लावर मार्किट में 3,000 और 4,000 रुपए प्रति किलो तक (सितंबर 2021 और दिसंबर 2022 में) कुछ भी हो सकती है. हालांकि, दोनों दरें ग़ैरवाजिब और अस्थायी हैं.

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फूलों की खेती लाटरी के खेल की तरह है. सब कुछ समय पर निर्भर है. “अगर आपके पौधे त्यौहार के मौसम में फूलते हैं तो आपको अवश्य लाभ होगा. नहीं तो आपके बच्चों को इस कारोबार में आने से पहले गंभीरता से सोचना होगा. है कि नहीं? उन्होंने केवल अपने मां-बाप की तक़लीफ़ें ही तो देखी हैं?” गणपति जवाब का इंतज़ार किए बगैर कहते जाते हैं, “एक छोटा किसान बड़े किसान की बराबरी नहीं कर सकता है. अगर किसी को अपने खेत के बड़े हिस्से से 50 किलो चमेली तोड़नी होती है, तो वह मज़दूरों को मजदूरी में 10 रुपए अतिरिक्त देकर उन्हें अपने साथ ले जाता है. वह उन्हें आने-जाने की सवारी मुहैय्या कराने के अलावा दिन का भोजन भी कराता है. क्या हम इतना कुछ कर सकते हैं?”

दूसरे छोटे किसानों की तरह उन्हें भी बड़े व्यापारियों के पास शरण (अडईकलम) लेना पड़ता है. “जब चमेली के फूलने का मौसम अपने शिखर पर होता है, तो मुझे सुबह, दोपहर या शाम किसी भी समय फूलों को बोरियों में लेकर बाज़ार जाना पड़ता है. व्यापारियों के सहयोग के बिना हम फूल नहीं बेच सकते हैं,” गणपति कहते हैं. एक किलो चमेली बेचने के एवज़ में व्यापारी उनसे 10 पैसा कमीशन के रूप में वसूलते हैं.

पांच साल पहले गणपति ने मदुरई के फूलों के एक बड़े व्यापारी (पूकडई) रामचंद्रन से कुछ लाख रुपए उधार लिए थे. रामचन्द्रन मदुरई फ्लावर मार्किट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं. अपना क़र्ज़ चुकाने के लिए गणपति उनको फूलों की आपूर्ति करते हैं. इस कारोबार में कमीशन 10 पैसे की जगह 12.5 पैसे की दर से चुकाना होता है.

छोटे किसान कीटनाशक जैसी चीज़ें ख़रीदने के लिए भी अल्पकालिक ऋण लेते हैं. लेकिन पौधों और कीड़ों के बीच का द्वंद्व पहले की तरह चलता रहता है. पौधे जब बढ़कर रागी की फ़सल की तरह थोड़े मजबूत हो जाते हैं, तब भी उनपर हाथी और अन्य पशुओं द्वारा रौंदे जाने की आशंका बनी रहती है. रागी की फ़सल को बचाने के लिए किसान सामान्य उपायों को अपनाते हैं, लेकिन वे हमेशा अपने प्रयासों में सफल नहीं होते हैं. उनमें से बहुत से किसानों ने चमेली की खेती की तरफ़ रुख़ कर लिया है. मदुरई और आसपास के इलाक़े के फूल उगाने वाले किसानों को बड वर्म (कृमि), ब्लॉसम मिज़ेस, लीफ़ वेबर और माईट जैसे छोटे कीटाणुओं से जूझना पड़ता है. इनके हमलों से फूल बदरंग हो जाते हैं और पौधे ख़राब हो जाते हैं. इसकी क़ीमत किसानों को चुकानी पड़ती है.

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मदुरई के तिरुमल गांव की चिन्नमा चमेली के अपने खेत में काम कर रही हैं. उनके पौधे कीटों के भयानक हमले से जूझ रहे हैं

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बच्चे और बूढ़े - दोनों फूलों को तोड़ने के काम में मदद करते हैं. दाएं: तिरुमल गांव में चमेली के खेत के पास कबड्डी का खेल

तिरुमल गांव में हमारी नज़र से बहुत से उजड़े हुए खेत गुज़रते हैं. यहां गणपति के घर से किसी वाहन के ज़रिए थोड़ी देर में ही पहुंचा जा सकता है. ये केवल फ़सल नहीं, किसानों के रौंदे हुए सपने हैं. ये मल्ली तोट्टम (चमेली के खेत) 50 वर्षीय आर. चिन्नमा और उनके पति रामर के हैं. उनके दो साल पुराने पौधे सफ़ेद फूलों से लदे हुए हैं, लेकिन ये सभी दोयम दर्जे के फूल हैं. वह कहती हैं, “ये फूल ख़राब गुणवत्ता के हैं, और हमें इनसे बहुत कम मिलेंगे.” उनके मुताबिक़ इन्हें बीमारी हो गई है. उनकी आवाज़ में एक अफ़सोस है. वह अपने माथे को अविश्वास के साथ हिलाती हैं और उनकी बड़बड़ाहट में एक दुःख है. “ये फूल पूरी तरह से नहीं खिल सकेंगे और न इनका आकार बड़ा हो सकेगा.”

हालांकि, इनकी खेती में अथाह श्रम लगा है. इन फूलों को तोड़ने में बूढी औरतों, छोटे बच्चों और कॉलेज जाने वाली लड़कियों सबका श्रम लगा है. हमसे बात करती हुई चिन्नमा हल्के हाथों से डालियों को उठा कर कलियों को देखती हैं, उन्हें तोड़ती हैं और कंडांगी शैली में पहनी हुई अपनी साड़ी के आंचल में रखती जाती हैं. उनके पति रामर ने अपने खेत में कई तरह के कीटनाशक आज़माए थे. “उन्होंने कड़ी दवाईयों का इस्तेमाल किया था, वे कोई सामान्य दवाइयां नहीं थीं. उनके एक लीटर की क़ीमत 450 रुपए थी, लेकिन कुछ काम नहीं आया! दुकानदार ने उन्हें समझाया भी था कि पैसे बर्बाद करने से कोई लाभ नहीं था.” रामर ने तब चिन्नमा से कहा भी था, “सभी पौधों को उखाड़ कर फेंक दो. हम डेढ़ लाख रुपए गंवा चुके हैं.”

यही कारण है कि उनके पति ख़ुद खेत पर मौजूद नहीं थे. “वयितेरिचल,” चिन्नमा कहती हैं. इस तमिल शब्द का शाब्दिक अर्थ पेट की जलन है, जो कड़वाहट और ईर्ष्या की ओर इशारा करती है. “जब दूसरों को एक किलो चमेली के बदले 600 रुपए मिल रहे हैं, तो हमें केवल 100 रुपए प्रति किलो से संतोष करना पड़ रहा है.” लेकिन पौधे उनके ग़ुस्से के निशाने पर नहीं हैं. वह बड़ी नरमी के साथ डालियों को पकड़ती हैं, और उन्हें बस उतना भर उठाती हैं कि फूलों को आसानी से तोड़ सकें. “अगर फ़सल अच्छी होती, तो एक बड़े पौधे से फूल तोड़ कर इकट्ठा करने में हमें कई मिनट लग जाते! लेकिन...” वह अपनी बात अधूरी छोड़कर दूसरे पौधे की ओर बढ़ जाती हैं.

तौलिये को अपने कंधे पर फेंकते हुए और चिन्नमा के पौधों पर हाथ फेरते हुए गणपति बताते हैं कि अच्छी पैदावार कई बातों पर निर्भर करती है. “यह मिट्टी की क़िस्म, पौधों के विकास, और किसान के कौशल वगैरह पर निर्भर है. आपको इसे बच्चों की तरह बड़ा करना होता है,” वह कहते हैं. “एक बच्चा आपको यह नहीं बता सकता कि उसे क्या चाहिए. है कि नहीं? आपको उसकी बात समझनी होती है, और उसी मुताबिक़ उसका ख़याल रखना होता है. बच्चा तो कम से कम रो भी सकता है, लेकिन एक पौधा यह भी नहीं कर सकता है. लेकिन अगर आपको अनुभव है, तो आप ख़ुद समझ जाएंगे...कि वह बीमार है, सूखने वाला है या मर रहा है.”

इनमें से बहुत से पौधे रसायनों को मिलाकर उपयोग करने से ठीक हो जाते हैं. मैं उनसे चमेली उगाने के लिए जैव तकनीकों के इस्तेमाल की बात कहती हूं. लेकिन उनका जवाब छोटे किसानों की दुविधा को प्रकट कर देता है. “हां, यह किया जा सकता है, लेकिन इसमें कई ख़तरे हैं. मैंने जैव-कृषि का प्रशिक्षण भी लिया हुआ है,” गणपति कहते हैं. “लेकिन इसके बदले में बेहतर क़ीमतें कौन देगा?” वह साफ़-साफ़ पूछते हैं.

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बाएं: अच्छे स्वस्थ पौधों से घिरा चमेली का एक सूखा पौधा. दाएं: एक बाल्टी में तोड़ कर रखे गए चमेली के फूल. साथ में एक ‘पडी’ भी रखी हुई है जो हरेक मज़दूर द्वारा तोड़े गए फूलों की मात्रा को मापने के काम में लाई जाती है. उन्हें माप के हिसाब से ही मज़दूरी दी जाती है

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चमेली के फूल तोड़ने वालों का एक झुंड. इनमें मालिक और श्रमिक दोनों शामिल हैं. वे आपस में बातचीत करते हुए और संगीत सुनते हुए तेज़ी से फूल तोड़ते हैं, ताकि खिलने से पहले उन्हें बज़ार तक पहुंचाया जा सके

“रासायनिक खाद के अच्छे परिणाम होते हैं. इनका उपयोग भी आसान है. जैव उर्वरक को तैयार करना न केवल मुश्किल है, बल्कि इससे गंदगी भी फैलती है. आप सभी चीज़ों को एक टब में भिंगोकर मिलाइए, उनका सावधानी से छिड़काव कीजिए, और जब उपज को लेकर बाज़ार जाइए तो आपको वही क़ीमत मिलेगी. यह दुखद है, क्योंकि जैविक चमेली न केवल आकार में बड़ी होती है, बल्कि उनकी चमक भी तेज़ होती है. अगर आपको इन चमेलियों की दोगुनी क़ीमत नहीं मिले, तो इतनी मेहनत करने और समय खपाने से क्या लाभ है.”

वह अपने घर लिए जैविक सब्ज़ियां उगाते हैं. “सिर्फ़ अपने घर के लिए और पड़ोस के गांव में रहने वाली अपनी शादीशुदा बेटी के लिए. मैं ख़ुद भी रसायनों से भरसक बचना चाहता हूं. लोग कहते भी हैं कि रसायनों से हमें बहुत नुक़सान होता है. ज़ाहिर सी बात है कि इतनी कड़ी कीटनाशक दवाइयों के उपयोग से हमारी सेहत को तो नुक़सान पहुंचेगा ही. लेकिन इसका विकल्प क्या है?”

*****

गणपति की पत्नी पिचईयम्मा के लिए भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है. वह हफ़्ते के सभी दिन, दिन भर काम करती हैं. उनकी उत्तरजीविता का राज़ उनकी मुस्कुराहट में छिपा है, जो उनके चेहरे पर हमेशा बनी रहती है और शायद ही कभी मुरझाती है. यह अगस्त 2022 की बात है, जब पारी की टीम दूसरी बार उनके घर गई थी. अपने आंगन में नीम की ठंडी छाया के नीचे एक खाट पर बैठी वह दिन भर के कामों को याद करती हैं.

“आडा पाका, माडा पाका, मल्लीगपु तोट्टम पाका, पूवा परिका, समईका, पुलईगला अन्नुपिविडा .. [गाय-बकरियों और चमेली के खेतों की देखभाल करना, मल्ली तोड़ना, खाना पकाना , बच्चों को स्कूल भेजना...]” सांस रोके बिना वह गिनाने लगती हैं.

इस हड्डीतोड़ मेहनत का कारण उनके बच्चे हैं. पिचईयम्मा (45) कहती हैं, “मेरा बेटा और बेटी दोनों पढ़े-लिखे हैं औंर उन्होंने डिग्री हासिल की हुई है.” वह कभी ख़ुद स्कूल नहीं गईं, और बचपन में ही अपने माता-पिता के खेत पर काम करने जाने लगी थीं. अब वह अपने खेतों की देखभाल करती हैं. उन्होंने अपने कान और नाक में मामूली गहने पहन रखे हैं, और गले में एक पीले धागे में ताली (मंगलसूत्र) भी पहना हुआ है.

जिस दिन हम उनसे मिलने गए उस दिन वह अपने खेत में खर-पतवार साफ़ कर रही थीं. यह कड़ी मेहनत का काम है, जिसमें पूरे समय कमर को झुकाए रखना होता है, छोटे-छोटे क़दमों से चलना होता है और कड़ी धूप में झुलसना होता है. लेकिन इस समय उन्हें केवल अपने अतिथियों (हमारी) की चिंता है. “कृपया कुछ खा लीजिए,” वह कहती हैं. गणपति हमारे लिए ख़ुश्बूदार, पके हुए, ताज़ा और रसीले अमरूद और कच्चे नारियल का पानी लेकर आते हैं. जब हम उनका स्वाद लेने लगते हैं, तो वह हमें बताते हैं कि गांव के सभी पढ़े-लिखे युवा अच्छे अवसरों की तलाश में शहर जा बसे हैं. यहां ज़मीन की क़ीमत 10 लाख रुपए प्रति एकड़ से कम नहीं है. अगर ज़मीन मुख्य सड़क के क़रीब है, तो क़ीमत चार गुना अधिक तक बढ़ जाती है. “तब यह घर बनाने के लिए ‘प्लॉट’ के रूप में बिकती हैं.”

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पिचईयम्मा दिन भर के अपने कामों के बारे में बताती हैं, और साथ ही इसी गांव से काम करने आए एक दिहाड़ी मज़दूर (दाएं) के साथ चमेली के खेत में काम कर रही हैं

जिन किसानों के पास अपनी ज़मीनें हैं, तो उनके मुनाफ़ा बनाने की कुछ गारंटी केवल तभी रहती है, जब उनके परिवार के लोग खेतों में ख़ुद भी श्रम करते हैं. गणपति यह मानते हैं कि महिलाओं का योगदान पुरुषों की तुलना में अधिक है. यदि यही श्रम आप दूसरों के लिए करतीं, तो आप एक दिन में कितना कमा लेतीं. यह बात पूछने पर पिचईयम्मा कहती हैं, “300 रुपया.” घर में वह जो काम करती हैं, वह तो अलग है. साथ ही, मवेशियों की ज़िम्मेदारी भी उनकी ही है.

“क्या यह कहना ठीक होगा कि वह अपने परिवार का कम से कम 15,000 रुपया प्रति महीना बचा रही हैं?” मैं पूछती हूं. उनके साथ-साथ गणपति भी मेरी बात से सहमत होते हैं. मै परिहास में उनसे कहती हूं कि उनको इसका हिस्सा मिलना चाहिए. वहां मौजूद हर आदमी हंसने लगता है, लेकिन उनमें सबसे लंबी हंसी पिचईयम्मा की है.

फिर एक हल्की मुस्कान और गहरी नज़रों के साथ वह मुझसे मेरी बेटी के बारे में पूछती हैं. वह जानना चाहती हैं कि उसकी शादी में मुझे कितना सोना देना पड़ेगा. “यहां हम 50 तोला देते हैं. और, उसका बच्चा होने पर हम हम बेटी को एक गले की सीकड़ और चांदी की पायल देते हैं. जब उसके कान छिदवाए जाते हैं, तो भोज के लिए एक बकरा देते हैं. यह सिलसिला चलता रहता है. यह सब हम अपनी आमदनी से करते हैं. आप ही बताइए, ऐसी स्थिति में मुझे तनख़्वाह मिल पाना क्या संभव है?”

*****

उस दिन चमेली उगाने वाले एक युवा किसान से मैंने यह सीखा कि वेतन की अवधारणा उनके लिए सही और आवश्यक है. यह खेती से होने वाली आमदनी का पूरक होता है. आय का एक निरंतर स्रोत काम की अधिकता के बावजूद बेहद महत्वपूर्ण है. छह साल पहले भी मैंने मदुरई ज़िले के उसिलमपट्टी तालुका के नाडुमुडलईकुलम गांव में धान की खेती करने वाले किसान जेयाबल और पोधुमणी से यह बात सुनी थी. अगस्त 2022 की इस यात्रा में जेयाबल ने मुझे अपने बचपन के दोस्त और चमेली के किसान एम. पांडी से मिलाया था. पांडी अर्थशास्त्र से परास्नातक हैं और तमिलनाडु स्टेट मार्केटिंग कॉर्पोरेशन लिमिटेड (टी.ए.एस.एम.ए.सी.), जिसे राज्य में ‘भारत में निर्मित विदेशी शराब’ (आई.एम.एफ.एल.) बेचने का विशेष अधिकार प्राप्त है, में पूर्णकालिक नौकरी करते हैं.

क़रीब 40 साल के पांडी जन्म से किसान नहीं हैं. वह अपने खेत जाने के रास्ते में मुझे अपनी आपबीती सुनाते हैं. उनका खेत उनके घर से सड़क के रास्ते दस मिनट की दूरी पर है. हम हरे-भरे पेड़ों, पहाड़ियों, नहर-तालाबों और चमेली के सफ़ेद फूलों से घिरे रास्तों से गुज़रते हुए उनके खेत तक पहुंचते हैं.

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अपने ख़ूबसूरत गांव नाडुमुडलईकुलम ख़ुद के चमेली के खेत में खड़े पांडी. इस गांव में अभी भी बहुत सारे किसान धान उगाते हैं

“मैंने अपनी पढ़ाई ख़त्म करने के फ़ौरन बाद टी.ए.एस.एम.ए.सी. में नौकरी शुरू कर दी थी. मैं आज भी वहां काम करता हूं, लेकिन सुबह के समय मैं अपने खेत में काम करता हूं.” साल 2016 में नवनिर्वाचित तत्कालीन मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की मुखिया जे. जयललिता ने टीएएसएमएसी में काम के घंटे को 12 घंटे से घटाकर दस घंटे कर दिया था. पांडी, जयललिता के नाम का उल्लेख करते हुए हर बार उन्हें ‘मंबुमिगु पुरात्ची तलईवी अम्मा अवर्गल’ (सम्मानित क्रांतिकारी नेता, अम्मा) के नाम से संबोधित करते हैं. यह उपाधि औपचारिक होने के साथ-साथ विशिष्ट भी है. उनके इस निर्णय ने पांडी के सुबह के समय को व्यस्तताओं से मुक्त कर दिया, और अब वह 12 बजे दोपहर तक दफ़्तर के लिए निकलते हैं. पहले उनको 10 बजे तक घर छोड़ देना होता था. यह दो घंटे अब वह अपने खेतों को देते हैं.

अपने पौधों पर कीटनाशक का छिड़काव करने के दौरान,  पांडी अपने दोनों कामों के बारे में स्पष्टता से बात करते हैं. “देखिए, मैं एक कर्मचारी हूं, और मेरे अधीन भी 10 लोग मेरे खेत में काम करते हैं.” वह ये बात स्वाभिमान के साथ कहते हैं, लेकिन उनके लहज़े में वास्तविकता का पुट भी है. “लेकिन यह भी सच है कि अगर आप के पास अपनी ज़मीन न हो, तो आप खेती नहीं कर सकते हैं. एक कीटनाशक का मूल्य सैकड़ों रुपए हैं. कई तो हज़ार रुपए में भी आते हैं. चूंकि मुझे वेतन मिलता है, इसलिए मैं ये सारे इंतज़ाम कर लेता हूं. नहीं तो खेती करना एक बहुत कठिन काम बन गया है.”

उसपर चमेली के फूलों की खेती तो और भी कठिन है, यह बात पांडी कहते हैं. और आपको अपनी पूरी दिनचर्या इसके आसपास निश्चित करनी होती है. “आप कही आ-जा नहीं सकते हैं. आपकी सुबह फूल को तोड़ने और उन्हें बाज़ार पहुंचाने जैसे काम से बंधी होती है. इसके अलावा, हो सकता है कि आज आप सिर्फ़ एक किलो फूल तोड़ें. लेकिन अगले हफ़्ते इनकी मात्रा बढ़ कर 50 किलो हो सकती है. आपको हर पल किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहना होता है.”

पांडी ने धीरे-धीरे करके अपने पौधों की संख्या बढ़ाई है और अपने एक एकड़ के खेत में चमेली की पैदावार करते हैं. चमेली के पौधों की देखभाल करने में किसानों को रोज़ कई-कई घंटे खपाने होते हैं. वह बताते हैं, “मैं अपने काम से देर रात लौटता हूं. सुबह में 5 बजे जाग कर अपने खेतों पर पहुंच जाता हूं. हमारे दो बच्चों को स्कूल भेजने के बाद मेरी पत्नी भी मेरी मदद के लिए आ जाती है. अगर हमदोनों आलस करें और सोते रहें, तो क्या हम जीवन में कभी भी सफल होंगे? और, क्या मैं 10 दूसरे लोगों को काम दे सकूंगा?”

पांडी अपने हाथ का इस्तेमाल करके फूलों के खिलने की बात पर ज़ोर देते हैं, और कहते हैं कि अगर पूरा खेत फूलों से भर जाता है, तो “फिर 20-30 मज़दूरों की ज़रूरत तो आपको पड़ती ही पड़ती है.” वे मज़दूर सुबह छह बजे से लेकर दस बजे तक खेतों में काम करते है और इस चार घंटे की मज़दूरी के एवज़ में उन्हें 150 रुपए की दर से दिहाड़ी चुकाई जाती है. जब फूल कम उगते हैं, तो उन्हें तोड़ने का काम पांडी और उनकी पत्नी शिवगामी अपने दोनों बच्चों के साथ करते है. “दूसरे इलाक़ों में मज़दूरी कम हो सकती है, लेकिन यह थोड़ी उपजाऊ ज़मीन है, और यहां धान के भी अनेक खेत हैं. ज़ाहिर है, यहां मज़दूरों की पर्याप्त मांग रहती है और आपको उन्हें बढ़िया भुगतान करना पड़ता है. साथ ही, उन्हें चाय और वडा देना होता है... “

गर्मी के महीनों (अप्रैल और मई) में फूल प्रचुरता में उगते हैं. “आप तक़रीबन रोज़ 40-50 किलो फूल तोड़ सकते हैं. लेकिन उनकी क़ीमतें गिर कर 70 रुपए प्रति किलो तक पहंच जाती हैं. लेकिन अब ईश्वर की कृपा से इत्र बनाने वाली कंपनियों की मांग ने क़ीमत में उछाल लाने का काम किया है, और अब एक किलो चमेली का मूल्य बढ़कर 220 रुपया तक हो गया है.” जब बाज़ार में टनों की मात्रा में फूल उपलब्ध हों, तो किसानों के लिए यह क़ीमत बहुत अच्छी मानी जाएगी. लेकिन इस दर पर भी किसानों को लाभ नहीं होता, हालांकि उन्हें कोई नुक़सान भी नहीं होता है.

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पांडी चमेली के अपने पौधों में कीटनाशक और उर्वरकों के घोल का छिड़काव कर रहे हैं

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गणपति चमेली के पौधों की क़तार के बीच चहलक़दमी कर रहे हैं. दाएं: अपने घर सामने खड़ीं पिचईयम्मा

वह अपने फूलों को निलकोट्टई के बाज़ार में ले जाते हैं, जो पड़ोस के डिंडीगुल ज़िले में पड़ता है और तक़रीबन 30 किलोमीटर की दूरी पर है. “मट्टुतवानी का बाज़ार भी बुरा नहीं है, लेकिन क्षमा कीजिए, वहां आप इन फूलों को किलो के हिसाब से बेचते हैं, जबकि निलकोट्टई में आप बोरियों के हिसाब से बेचते हैं. साथ ही व्यापारी भी वहीं आपके पास ही बैठे रहते हैं. वे अपने पास टैब रखते हैं और आपको आकस्मिक ख़र्चों, त्योहारों और कभी-कभार फूलों पर छिड़कने के लिए कीटनाशक और रसायन ख़रीदने के लिए एडवांस भी देते हैं.”

पांडी के अनुसार, छिड़काव बहुत महत्वपूर्ण है. वह अपने शेड में कपड़े बदल कर शॉर्ट्स और धारीदार टी-शर्ट पहन रहे हैं. चमेली से आकर्षित होने वालों की कोई कमी नहीं है. कीड़े भी उनमें से एक हैं. गणपति के घर में बेटे के रूप में ही विशेषज्ञ मौजूद है, जबकि पांडी को किसी ख़ास रसायन के लिए दुकान में जाना पड़ता है. वह जमीन पर बिखरे खाली डिब्बे और बोतलों की तरफ़ संकेत से दिखाते हैं, और शेड के भीतर से टैंक और स्प्रेयर लेकर बाहर आते हैं, और रोगर (एक कीटनाशक) और अस्ता (एक उर्वरक) को पानी में मिलाने लगते हैं. इस घोल का छिड़काव करने के लिए उन्हें प्रति एकड़ 500 रुपए ख़र्च करना पड़ता है और हर चौथे-पांचवें दिन वह इस काम को दोहराते हैं. “पैदावार अच्छी हो या औसत, आपको सभी मौसम में यह काम करना होता है. आपके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है...”

कोई 25 मिनट तक वह अपने पौधों पर कीटनाशक और खादों के इस घोल का छिड़काव करते रहते हैं. सुरक्षा के नाम पर उन्होंने अपनी नाक पर एक सूती कपड़े का मास्क चढ़ाया हुआ है. वह भारीभरकम उपकरण अपनी पीठ पर लादकर घनी झाड़ियों के बीच घूमते हैं और ध्यान से पौधे की एक-एक पत्ती और फूल पर छिड़काव करते हैं. पौधे उनकी कमर की ऊंचाई तक पहुंच चुके हैं. छिड़काव की फुहारें उनके चेहरे पर भी पड़ रही हैं. मशीन से भारी शोर उत्पन्न हो रहा है, और आसपास की हवा में रसायन की गंध और कण फ़ैल गए हैं. लेकिन पांडी घूम-घूम कर छिड़काव करना नहीं रोकते हैं. वह केवल तभी रुकते हैं, जब उनको दोबारा टैंक में घोल भरना होता है. उसके बाद वह फिर से अपने काम में लग जाते हैं.

छिड़काव के बाद, जब उन्होंने स्नान कर लिया और अपनी उतारी हुई सफ़ेद कमीज़ और नीली लुंगी दोबारा पहन ली, तब मैंने उनसे रसायनों से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में पूछा. वह शांत भाव से मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं, “अगर आप चमेली की खेती करते हैं, तो आपको सब करना पड़ेगा. अगर आप छिड़काव नहीं करना चाहते हैं, तो चुपचाप घर में बैठे रहिए.” वह अपनी दोनों हथेलियों को एक-दूसरे से दबाते हैं, मानो प्रार्थना कर रहे हों.

गणपति भी यही बात दोहराते हैं, जब हम लौटने की तैयारी कर रहे होते हैं. उन्होंने मेरे बैग में अमरूद भर दिए हैं, और दोबारा आने के आमंत्रण के साथ वह हमें सुखद यात्रा की शुभकामनाएं देते हैं. “अगली बार जब आप आएंगी, तो यह घर बन चुका होगा,” वह अपने पीछे के बिना प्लास्तर वाले ईंट के घर को दिखाते हुए कहते हैं. “और, हम यहीं बैठ कर बढ़िया खाना खाएंगे.”

गहरी सुगंध, और एक भव्य अतीत, और तमाम अनिश्चितताओं से भरे व्यापार और बाज़ार के केंद्र में रहने वाले इन सफ़ेद फूलों की खेती करते हज़ारों किसानों की तरह, पांडी और गणपति के सपने और उम्मीदें चमेली से बंधी हैं. एक ऐसा सपना,  जिसमें पांच मिनट के भीतर हज़ारों रुपए - और भारी मात्रा में मदुरई मल्ली - एक हाथ से दूसरे हाथ में चले जाते हैं.

हालांकि, अब यह कहानी किसी और दिन सुनाई जाएगी.

इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

Aparna Karthikeyan

अपर्णा कार्तिकेयन एक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, और पारी की सीनियर फ़ेलो हैं. उनकी नॉन-फिक्शन श्रेणी की किताब 'नाइन रुपीज़ एन आवर', तमिलनाडु में लुप्त होती आजीविकाओं का दस्तावेज़ है. उन्होंने बच्चों के लिए पांच किताबें लिखी हैं. अपर्णा, चेन्नई में परिवार और अपने कुत्तों के साथ रहती हैं.

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Photographs : M. Palani Kumar

एम. पलनी कुमार पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के स्टाफ़ फोटोग्राफर हैं. वह अपनी फ़ोटोग्राफ़ी के माध्यम से मेहनतकश महिलाओं और शोषित समुदायों के जीवन को रेखांकित करने में दिलचस्पी रखते हैं. पलनी को साल 2021 का एम्प्लीफ़ाई ग्रांट और 2020 का सम्यक दृष्टि तथा फ़ोटो साउथ एशिया ग्रांट मिल चुका है. साल 2022 में उन्हें पहले दयानिता सिंह-पारी डॉक्यूमेंट्री फ़ोटोग्राफी पुरस्कार से नवाज़ा गया था. पलनी फ़िल्म-निर्माता दिव्य भारती की तमिल डॉक्यूमेंट्री ‘ककूस (शौचालय)' के सिनेमेटोग्राफ़र भी थे. यह डॉक्यूमेंट्री तमिलनाडु में हाथ से मैला साफ़ करने की प्रथा को उजागर करने के उद्देश्य से बनाई गई थी.

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Editor : P. Sainath

पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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Translator : Prabhat Milind

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.

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