चिकनपाड़ा में जागरण रात 10:30 बजे से शुरू हुआ। बस्ती के बाकी लोग तो सो चुके थे, लेकिन सानद का घर गीत और मंत्रों से गूंज रहा था।
प्लास्टिक की बोरियों से बनी एक चटाई पर कालू जंगली बैठे हुए थे। वह अनुष्ठान कराने के लिए पड़ोस की एक बस्ती, पंगड़ी से आए थे। का ठाकुर आदिवासी समुदाय के कई मेहमान ईंट और मिट्टी से बने घर के सामने वाले कमरे में जमा थे, जहां वे फ़र्श और प्लास्टिक की कुर्सियों पर बैठे हुए थे। वे जागरण – रात भर भक्ति गीत गाकर वाणी देवी की पूजा-अर्चना करने के अनुष्ठान – में भाग लेने आए थे।
कमरे के बीच में, 50 वर्षीय कालू की अध्यक्षता में पूजा की सामग्रियां रखी हैं, जिनमें चावल के दाने, तांबे के बर्तन पर एक नारियल जो लाल रंग के कपड़े से ढका है (जिसे स्थानीय लोग ओरमल कहते हैं) और अगरबत्तियां हैं।
“यह अनुष्ठान अंतिम चरण के रूप में किया जाता है, जब रोगी पर भगत की दवाओं का असर हो जाता है और बुरी नज़र से बचाने के लिए भी,” चिकनपाड़ा से कालू के साथ आए एक भगत, जैत्य दीघा ने कहा, जो एक पारंपरिक वैद्य भी हैं।
एक पुरानी नीली मैक्सी पहने और शॉल ओढ़े दुर्बल, 18 वर्षीय निर्मला फ़र्श पर बैठ गई, शांत मुद्रा में सिर हिलाते और कालू के निर्देशों का पालन करते हुए। जब भी उससे कहा जाता, वह खड़ी हो जाती। जैत्य ने स्टील की एक प्लेट पर चावल के दाने की जांच की, “यह समझने के लिए पूर्वजों से जवाब मांगते हुए कि क्या कोई नकारात्मक बल निर्मला को आगे भी परेशान करेगा।”
“उसे तेज़ बुखार था, भूख नहीं लग रही थी, शरीर में काफ़ी दर्द था,” निर्मला के पिता शत्रु सानद ने कहा, जो धान की खेती करते हैं और जिनके पास एक एकड़ से कम भूमि है। “[सितंबर की शुरुआत में] हम इसे मोखाडा के ग्रामीण अस्पताल ले गए थे। पीलिया का पता चला था। लेकिन उन्होंने जो दवाइयां दीं, वे काम नहीं आईं। इसकी हालत और बिगड़ गई। इसका वज़न काफ़ी घट गया, ठीक से नींद नहीं आती थी और यह हर समय भयभीत, थकी हुई और चिड़चिड़ी रहती थी। हम डरे हुए थे कि किसी ने इस पर जादू कर दिया है। इसीलिए हम इसे कालू के पास ले गए।”
शत्रु आगे बताते हैं कि भगत ने इसे अगरबत्ती की राख से भरी एक टैट (चांदी की तावीज़) और औषधीय जड़ी बूटियों का चूर्ण दिया, जिसे वह कुछ दिनों से खा रही थी। “इससे फ़ायदा हुआ और हमने इस जागरण का आयोजन किया है ताकि बुरी नज़र का प्रभाव पूरी तरह से खत्म हो जाए।”
कालू ने भी रोग की पुष्टि की थी – हां, निर्मला को पीलिया था। लेकिन, उन्होंने कहा, “इसके ऊपर प्रेतात्मा की भारी छाया भी थी।” कालू ने ‘नकारात्मक बल’ को बाहर निकालने के लिए ओरमल के चारों ओर हाथ लहराए और एक रस्सी को सिर से पैर तक और फिर आगे-पीछे घुमाया।
भगत अनुष्ठानों से ज़्यादा औषधीय जड़ी-बूटियों का सहारा लेते हैं और कहते हैं, ‘लेकिन अगर कोई चीज़ हमारे नियंत्रण से बाहर हुई, तो हम उन्हें अस्पताल जाकर उपचार कराने के लिए कहते हैं’
मध्य मुंबई से लगभग 180 किलोमीटर दूर, पालघर के मोखाडा तालुका में, चास ग्राम पंचायत के पांच पाड़ों (बस्तियों) में उनकी परिचर्या, और भगतों को सानद परिवार का निमंत्रण कोई असामान्य बात नहीं है।
“चास ही नहीं, बल्कि मोखाडा तालुका के अधिकांश गांवों में, बहुत से लोग शिद्दत से मानते हैं कि आपकी प्रगति बुरी आत्मा या ईर्ष्यापूर्ण आंख या जादू से बाधित हो सकती है,” चास गांव के कमलाकर वारघड़े कहते हैं। इन स्थानीय विश्वास प्रणालियों के बारे में उन्हें संदेह है, लेकिन वह इससे सहानुभूति भी रखते हैं। सानद परिवार की तरह, वह भी का ठाकुर आदिवासी समुदाय से हैं, और स्थानीय कार्यक्रमों में एक बैंड के साथ ऑर्गन, हारमोनियम और कीबोर्ड बजाते हैं। “आमतौर पर, जब व्यक्ति बीमार होता है या किसी परियोजना या गतिविधि में रुकावट आती है। जब डॉक्टर भी समस्या का कारण नहीं खोज पाते, तो परिवार वाले भगत के पास जाते हैं।”
स्थानीय चिकित्सकों पर यह निर्भरता मोखाडा में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की अविश्वसनीयता से भी पैदा होती है। पांच बस्तियों के लिए, निकटतम स्वास्थ्य सुविधा चिकनपाड़ा से लगभग दो किलोमीटर दूर, चास गांव में राज्य द्वारा संचालित एक उप-केंद्र है।
“डॉक्टर का दौरा मंगलवार को होता है, लेकिन यह निश्चित नहीं होता कि हम उनसे कब मिल पाएंगे”, वारघड़े कहते हैं। “एक बहन [नर्स] रोज़ाना आती है, लेकिन केवल बुख़ार, खांसी या सर्दी की ही दवा दे सकती है। चिकित्सा की उचित आपूर्ति नहीं होती, कोई इंजेक्शन नहीं है, केवल गोलियां (टैबलेट्स) हैं। आशा कार्यकर्ता [मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता] घर का दौरा तो करती हैं, लेकिन अगर किसी रोगी की हालत गंभीर हुई, तो वे हमें मोखाडा [अस्पताल] जाने की सुझाव देती हैं।”
तो प्रमुख बीमारियों – निमोनिया, पीलिया, हड्डी टूटने, दुर्घटना या आपातकालीन प्रसव सहित – के लिए चास गांव और इसकी बस्तियों के 2,609 लोग लगभग 15 किलोमीटर दूर, मोखाडा ग्रामीण अस्पताल जाते हैं।
इसमें निकटतम बस स्टॉप तक पैदल चलना शामिल है, जो चास से तीन किलोमीटर (और कुछ बस्तियों से और भी अधिक) दूर है। या परिवार के लिए जीप किराए पर लेते हैं, जिससे उन्हें आने-जाने के लिए 500 रुपये देने पड़ते हैं। कभी-कभी, वे यहां पर साझा बोलेरो का इंतज़ार करते हैं, जिसमें चिकनपाड़ा से मोखाडा तक एक सीट का किराया 10 या 20 रुपये है। लेकिन उनकी संख्या कम है और वे बहुत देर में मिलते हैं।
“इस गांव के ज़्यादातर लोग छोटे किसान और खेतिहर मज़दूर हैं, जो रोज़ाना 250 रुपये तक कमाते हैं। किसी भी अस्पताल के ख़र्च के अलावा केवल परिवहन के लिए 500 रुपये का भुगतान निश्चित रूप से उनके लिए एक समस्या होती होगी,” कमलाकर कहते हैं।
स्वास्थ्य की देखभाल से संबंधित यही वे कमियां हैं जिसे भगत भरपाई करते हैं – और समुदाय के लोग उन्हें लंबे समय से विश्वसनीय पारंपरिक चिकित्सकों के रूप में जानते हैं। इसलिए बुख़ार या पेट में दर्द जैसी अपेक्षाकृत छोटी बीमारियों के लिए, चास की मुख्य रूप से आदिवासी आबादी – का ठाकुर, मा ठाकुर, कोली महादेव, वरली और कातकरी जैसे समुदायों के लोग भगतों के पास जाते हैं। और कभी-कभी वे ‘बुरी नज़र’ से स्वयं को बचाने के लिए भी उन पर भरोसा करते हैं।
अधिकांश भगत स्थानीय हैं (और सभी पुरुष हैं), जो उन परिवारों के लिए पूरी तरह परिचित हैं जो उनसे सहायता प्राप्त करते हैं। कालू जांगली, जो निर्मला का इलाज कर रहे थे, का ठाकुर जनजाति से हैं। वह 30 वर्षों से स्थानीय वैद्य हैं। “ये अनुष्ठान हमेशा से हमारी आदिवासी संस्कृति का आंतरिक हिस्सा रहे हैं,” उन्होंने मुझे जागरण की रात में बताया। “निर्मला के मामले में, इस जागरण के बाद अगली सुबह को, हम एक मुर्गा की बलि देंगे और उसके पूरी तरह स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना करेंगे। यह अनुष्ठान केवल तभी किया जाता है जब हमें पता चलता है कि रोगी के आसपास कोई नकारात्मक शक्ति है। हम उन मंत्रों को जानते हैं जो उस बुरी शक्ति को दूर कर सकते हैं।”
हालांकि, भगत अधिकतर औषधीय गुणों वाली जड़ी-बूटियों का उपयोग करते हैं। “हम उपयुक्त फूल, पत्ते और घास चुनने जंगल जाते हैं, और पेड़ की छाल के टुकड़े उखाड़ते हैं,” कालू कहते हैं। “फिर उनसे हम काढ़ा तैयार करते हैं या कभी-कभी जड़ी बूटियों को जलाकर उनकी राख रोगियों को खाने के लिए देते हैं। यह आमतौर पर तब काम करती है, जब व्यक्ति को कोई नकारात्मक ऊर्जा न घेरे हो। लेकिन अगर कुछ हमारे नियंत्रण से बाहर हुआ, तो हम उन्हें अस्पताल जाकर उपचार कराने के लिए कहते हैं।”
जिस तरह से कालू चिकित्सा सुविधाओं की भूमिका को स्वीकार करते हैं, उसी तरह प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और डॉक्टर भी पारंपरिक उपचारकर्ताओं को ख़ारिज नहीं करते। चास से लगभग 20 किलोमीटर दूर, वाशला गांव के पीएचसी में चिकित्सा अधिकारी, डॉ. पुष्पा गवारी कहती हैं, “हम उन्हें [अपने मरीज़ों को] कहते हैं कि अगर वे हमारे इलाज से संतुष्ट नहीं हैं, तो भगतों से भी सलाह ले लें। अगर आदिवासी भगत के इलाज से संतुष्ट नहीं हैं, तो वे दुबारा डॉक्टरों की सलाह लेते हैं।” इससे डॉक्टरों को स्थानीय समुदायों के प्रति विरोध नहीं जताने में मदद मिलती है, वह कहती हैं। “यह महत्वपूर्ण है कि लोगों का विश्वास चिकित्सा सुविधाओं और डॉक्टरों में भी बना रहे।”
“वे [डॉक्टर] अक्सर ऐसे कुछ मामलों में हमारी मदद लेते हैं, जिन्हें वे समझा नहीं सकते,” वाशला के 58 वर्षीय भगत, काशीनाथ कदम कहते हैं। “उदाहरण के लिए, एक महिला थी, जो कुछ महीने पहले, बिना किसी उचित कारण के, पागल हो गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसके ऊपर भूत-प्रेत हो। तब मैंने उसे ज़ोरदार थप्पड़ मारा और मंत्रों का जाप करके, उसे शांत करने में सफल हुआ। बाद में उसे डॉक्टरों ने शामक औषधि दी।”
अन्य भगतों की तरह, कदम भी अपने किसी ‘मरीज़’ से शुल्क नहीं मांगते। वह तीन एकड़ में धान और दालों की खेती से आय अर्जित करते हैं। मैंने जितने भी स्थानीय चिकित्सकों से बात की, उन्होंने यही कहा कि उनके पास आने वाले लोग जितना चाहें दे सकते हैं – 20 रुपये से शुरूआत करके। कुछ लोग प्रसाद के रूप में नारियल या शराब लाते हैं। और उपचार कराने वाले परिवार से अपेक्षा की जाती है कि वे दावत (जैसे कि जागरण) देंगे यदि उन्हें लगता है कि भगत ने रोगी को ठीक कर दिया है।
और यहां के अन्य पारंपरिक उपचारकर्ता की तरह, काशीनाथ भी अपने द्वारा उपयोग की जाने वाली जड़ी-बूटियों का विवरण बताने से इनकार करते हैं। “कोई भी भगत आपको यह नहीं बताएगा,” वह कहते हैं। “अगर हम किसी और को अपने ज्ञान की बातें बता दें, तो हमारी दवा की शक्ति कम हो जाएगी। इसके अलावा, हर मरीज़ के लिए दवा अलग-अलग होती है। हम गुर्दे की पथरी, आंत का फोड़ा, पीलिया, दांत में दर्द, सिर दर्द, पेट में दर्द, बुख़ार, पुरुषों और महिलाओं में बांझपन, गर्भपात और गर्भावस्था में जटिलताओं जैसी बीमारियों के लिए सूखी जड़ी बूटियों के काढ़ा या रस का उपयोग करते हैं। और बुरी नज़र से दूर रखने, किसी के व्यवहार को विशेष तरीके से प्रभावित करने और टैट [तावीज़] में सुरक्षात्मक मंत्र फूकने के लिए।”
मोखाडा के ओसरवीरा गांव की पसोडीपाड़ा बस्ती के भगत, केशव महाले थोड़ा आगे चलने वाले हैं। “हम किसी भी तरह की बीमारी के लिए तुलसी, कच्ची अदरक, घृतकुमारी, पहाड़ी पुदीना और अन्य औषधीय जड़ी-बूटियों और पौधों का इस्तेमाल उसी समय से कर रहे हैं, जब जंगल में रहने वाले हर किसी के लिए केवल हम ही ‘डॉक्टर’ हुआ करते थे,” वह कहते हैं। “आज, चिकित्सा में प्रगति के साथ, यह स्पष्ट है कि लोग डॉक्टरों के पास जाना पसंद करते हैं। लेकिन वे हमारे पास भी तब ज़रूर आते हैं, जब दवाओं से उनका काम नहीं चलता। सह-अस्तित्व में कोई बुराई नहीं है।” केशव के पास लगभग दो एकड़ ज़मीन है, जिस पर वह धान उगाते हैं।
और पालघर के विक्रमगढ़ तालुका के देहरजे गांव के कातकरीपाड़ा के जाने-माने भगत, सुभाष कातकरी उन महिलाओं के लिए अपने कुछ इलाजों का ‘खुलासा’ करते हैं जो गर्भधारण नहीं कर सकतीं या जिन्हें गर्भधारण में परेशानी होती है: “इसमें गर्भावस्था के दौरान निश्चित आहार लेना और परहेज़ करना शामिल है। महिला जब हमारी दवाओं के कारण गर्भ धारण करने में सफल हो जाती है, तो उसे खाना बनाते समय तेल का उपयोग बंद करना होगा। उसे नमक, हल्दी, चिकन, अंडे, मांस, लहसुन और मिर्च का सेवन नहीं करना चाहिए। उसे घर का सारा काम खुद से नहीं करना चाहिए, जिसमें पानी लाना भी शामिल है, और उसे अंतिम तिमाही तक भगत की दवाओं के अलावा कोई भी दवा लेना बंद कर देना चाहिए। हम महिला को और बाद में उसके बच्चे को एक टैट भी देते हैं, ताकि वे दोनों किसी भी बुरी ऊर्जा से सुरक्षित रहें।”
“दुर्भाग्य से,” मोखाडा ग्रामीण अस्पताल के चिकित्सा अधिकारी, डॉक्टर दत्तात्रेय शिंदे कहते हैं, “यह [आहार और अन्य परहेज़] यहां की गर्भवती आदिवासी महिलाओं में अल्प-पोषण को बढ़ाता है, जिसके कारण वे कम वज़न के बच्चों को जन्म देती हैं। मैंने मोखाडा में ऐसे मामले देखे हैं। अंधविश्वास अभी भी मौजूद है और लोगों को समझाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि भगतों में उनकी मज़बूत आस्था है।” (दरअसल, पालघर जिला, जहां लगभग 37 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजातियों की है, बच्चों की कुपोषण के कारण मौत की वजह से लंबे समय से ख़बरों में रहा है। लेकिन वह एक अलग कहानी है।)
वापस चिकनपाड़ा में, निर्मला की मां, 40 वर्षीय इंदु को जागरण की रात राहत मिली। “अब जब कि कालू और जैत्य ने बुरी ऊर्जा को मेरी बेटी के ऊपर से हटा दिया है, मुझे यकीन है कि वह जल्द ही ठीक हो जाएगी,” वह कहती हैं।
रिपोर्टर ने पब्लिक हेल्थ , 2019 में एक खोजी रिपोर्टिंग के तहत इस लेख पर काम किया , उन्हें इसके लिए अनुदान ठाकुर फाउंडेशन , अमेरिका ने दिया था।
हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़