शोभा सहनी को लगता था कि उनको अपने बेटे की मौत का कारण पता था, लेकिन सात महीने बाद वह यह बात पूरे दावे से नहीं कह सकती थीं.
फ़रवरी की यह एक शांत दोपहरी थी. ब्रह्मसारी गांव की तीस वर्षीया शोभा अपने एक कमरे के घर की दहलीज़ पर बैठी उस दिन को याद कर रही थीं जब उनका छह साल का बेटा आयुष बीमार पड़ गया था, “उसे बुख़ार था, फिर उसने पेटदर्द की शिकायत की,” वह बोलीं.
जुलाई 2021 के आख़िरी दिन थे. उत्तरप्रदेश के गोरखपुर ज़िले का उनका गांव बारिश के पानी में डूबा हुआ था. बारिश से हुआ जल जमाव इस इलाक़े में कोई नई घटना नहीं थी. उन्होंने कहा, “ऐसा हर साल होता है. पानी की निकासी का कोई रास्ता नहीं है.”
जब कभी बरसात होती है, ब्रह्मसारी में पानी इकट्ठा हो जाता है, और पानी मवेशियों के गोबर, गांव में फैले कचरे और खुले में शौच के कारण मानव मलमूत्रों के साथ मिलकर पूरे गांव में बेतरह गंदगी फैला देता है. शोभा ने बताया, “पानी में मृत जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़े, और मच्छर भी होते हैं. गंदा पानी हमारे घरों में वहां तक घुस आता है जहां हम खाना पकाते हैं. हम कितना भी रोकें, हमारे बच्चे भी इसी पानी में खेलते हैं. इसलिए बारिश के मौसम में बहुत सारे लोग बीमार पड़ते हैं.”
पिछले साल उनका बेटा चपेट में आ गया. शोभा ने बताया, “पहले हमने बड़हलगंज और सिकरीगंज के दो निजी अस्पतालों में उसका इलाज कराया, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ."
एक हफ़्ते तक बुख़ार नहीं उतरने के बाद शोभा अपने बेटे को लेकर बेलघाट के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) गईं, जो केवल 7 किलोमीटर की दूरी पर है. वहां से उसे गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज (BRD मेडिकल कॉलेज) भेज दिया गया. गोरखपुर उनके गांव से सबसे क़रीबी शहर है जो ब्रह्मसारी से कोई 50 किलोमीटर दूर है.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज एक राज्य सरकार द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेज और अस्पताल है, और इस क्षेत्र का अकेला सरकारी संस्थान है जो जनता को चिकित्सा-सेवाएं मुहैया कराता है. यह पूर्वी उत्तरप्रदेश के साथ-साथ बिहार के निकटवर्ती ज़िलों और नेपाल से आए मरीज़ों को चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराता है, और ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इससे लगभग 5 करोड़ जनता लाभान्वित होती है. यह अस्पताल सामान्यतः खचाखच भरा रहता है और कर्मचारियों को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं रहती है.
गोरखपुर में अस्पताल में दाख़िले के बाद आयुष पर बेहोशी का दौरा पड़ने लगा. शोभा याद करती हुई बोलीं, “डॉक्टरों ने हमें बताया कि उसे दिमाग़ी बुख़ार था." तक़रीबन पांच दिनों के बाद, 4 अगस्त, 2021 को उसकी मौत हो गई. “उसके साथ यह अनर्थ नहीं होना चाहिए था. मेरा बेटा एक नेक बच्चा था,” ये शब्द बोलते-बोलते उनकी आंखों से आंसू बहने लगे.
गोरखपुर ज़िला 1978 में तब से ही दिमाग़ी बुखार की भयावह चपेट में है, जब यहां जापानी इंसेफेलाइटिस (जेआई) का पहला संक्रमण फैला था. पिछले चार से भी अधिक दशकों से बार-बार एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के भयावह प्रकोप के कारण इस इलाक़े में अभी तक हज़ारों जानें जा चुकी हैं.
सामान्यतः मस्तिष्क के सूजन से संबंधित स्वास्थ्य के अन्य जटिल लक्षणों के लिए प्रयुक्त एईएस भारत में आज सामान्य स्वास्थ्य की एक गंभीर समस्या का रूप ले चुका है. आम तौर पर मच्छरों से उत्पन्न होने वाले वायरस जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस (जेईवी) एईएस का सबसे बड़ा कारण हैं. जीवाणु, कवक, और ग़ैर-संक्रामक कारक (एजेंट) के अतिरिक्त विविध तरह के वायरस इस रोग का हेतुवैज्ञानिक (इटियोलॉजिकल) कारण हैं.
तेज़ बुख़ार, मानसिक स्थिति में गिरावट और बदलाव (मसलन मानसिक संभ्रम, एकाग्रहीनता, अर्धमूर्छा या अर्धचेतना) और बेहोशी के दौरे इस बीमारी के प्रमुख लक्षण हैं. ऐसे तो यह व्याधि किसी भी उम्र के व्यक्ति को किसी भी मौसम में हो सकती है, लेकिन 15 साल के कम उम्र के बच्चों को इसकी जद में आने की ज़्यादा संभावना होती है, यह बीमारी विकलांगता और उच्च मृत्यु-दर के कारण भारी तबाही पैदा कर सकती है. इस बीमारी के सबसे अधिक मामले मानसून और बारिश के बाद वाले मौसम में सामने आते हैं.
शुद्धता और सफ़ाई, साफ़ पानी, और स्वच्छता की कमी इस बीमारी के जड़-कारण हैं.
दुर्भाग्य से ब्रह्मसारी इन सभी मानदंडों पर खरा उतरता है.
आयुष को दिमाग़ी बुख़ार था, यही मानकर हमने बीआरडी मेडिकल कॉलेज द्वारा उसके परिजनों को निर्गत किए गए प्रमाणपत्र को देखने की इच्छा प्रकट की. शोभा ने बताया, “वह मेरे बहनोई के पास है. यह उसका नंबर लीजिए और उसे प्रमाणपत्र व्हाट्सएप में भेजने के लिए कह दीजिए.”
हमने यही किया. कुछेक मिनटों के बाद ही फ़ोन से बीप की आवाज़ आई. काग़ज़ात के मुताबिक़ उसे एक्यूट मेनिन्जाइटिस था और उसकी मृत्यु दिल के काम करना बंद होने के कारण हुई थी. शोभा ने हैरत से कहा, “लेकिन डॉक्टर ने तो हमसे यह कहा कि आयुष का इंसेफेलाइटिस का इलाज किया जा रहा था. वे मुझसे कुछ और कहते हैं और मृत्यु प्रमाणपत्र में कोई दूसरी बात कैसे लिख सकते हैं?”
*****
बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज अगस्त 2017 में भी सुर्ख़ियों आया था, जब अस्पताल के ऑक्सीजन पाइप में आपूर्ति बंद हो जाने के कारण दो दिनों के भीतर 30 बच्चों की मौत हो गई थी. यह 10 अगस्त की घटना थी. उस समय राज्य सरकार ने इस बात से स्पष्ट इनकार किया था कि इस त्रासदी का कारण ऑक्सीजन की कमी थी. सरकार के मुताबिक़ सभी मौतें इंसेफेलाइटिस सहित अन्य स्वाभाविक कारणों से हुई थीं. सरकार ने बल्कि यह दावा भी किया कि 7 अगस्त और 9 अगस्त के बीच भी इतनी ही संख्या में बच्चों की मौत हुई थी.
इतनी बड़ी तादाद में अस्पताल में बच्चों की मौत कोई विसंगतिपूर्ण घटना नहीं थी.
साल 2012 से अगस्त 2017 के बीच बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 3,000 से भी अधिक बच्चों की मौत हो चुकी थी. ये उन 50,000 बच्चों में शामिल थे जो इस अस्पताल में पिछले तीस सालों में अपनी जान गंवा चुके थे. अधिकतर बच्चे जेई या एईएस के कारण मारे गए थे. 2017 का हादसा तो बस उन घटनाओं की एक पुनरावृति मात्र था जो गोरखपुर के इस सबसे भीड़भाड़ अस्पताल पर विगत दशकों से किसी प्रेतछाया की तरह मंडराता रहा है. इसकी एक वजह यह भी है कि इसी अस्पताल इस क्षेत्र के लगभग सभी एईएस मरीज़ों का इलाज होता है.
यह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए एक दुखती रग की तरह है, क्योंकि गोरखपुर उनका गृहनगर है. मुख्यमंत्री बनने से पहले उन्होंने 1998 से पांच बार लगातार गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया है.
राज्य के स्वास्थ्य विभाग के अधिकरियों के अनुसार मुख्यमंत्री ने 2017 की घटना के बाद से इंसेफेलाइटिस को नियंत्रित करने के सरकारी प्रयासों में निजी रुचि दिखाई. गोरखपुर के मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी डॉ. आशुतोष दुबे ने कहा, “हम पूरी मुस्तैदी के साथ संभावित स्थानों पर मच्छरों का प्रजनन रोकने के लिए कीटनाशकों का नियमित छिड़काव करते हैं. जेई पर काबू पाने के लिए हमने अप्रैल से ही टीकाकरण अभियान की शुरुआत कर दी है. पहले यह जून या जुलाई के महीने में होता था. तब तक देर हो चुकी होती थी, क्योंकि मानसून के वक़्त मरीज़ों की तादाद असमान छूने लगती थी.”
पिछले कुछ सालों से मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने इस बात को बार-बार दोहराते हुए सुने गए हैं कि उनकी सरकार ने एईएस पर काबू पाने में सफलता पा ली है. नेशनल वेक्टर बोर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम के निदेशालय द्वारा प्रकाशित आकड़े इस दावे का समर्थन करते हैं.
उत्तरप्रदेश में एईएस और जेई के मामले में लगातार कमी आने की ख़बरें आ रही हैं. साल 2017 में उत्तरप्रदेश में एईएस के कुल 4,742 मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें से 693 मामले जेई के थे. कुल मृतकों की संख्या 654 थी, जिनमें 93 मरीज़ जेई से ग्रस्त थे.
साल 2020 में राज्य में एईएस के कुल 1,646 मामले सामने आए और 83 लोगों की जानें गईं. साल 2021 में आकड़े में और सुधार देखा गया और कुल 1,657 मामलों में 58 लोगों की जानें गईं. जेई के कारण सिर्फ़ चार जानें गईं.
एईएस और जेई के कारण होने वाली मौतों में साल 2017 से 2021 तक क्रमशः 91 प्रतिशत और 95 प्रतिशत की दर से आई गिरावट एक चौंकाने वाली घटना है.
विगत विधानसभा चुनावों में अपनी जीत के एक महीने के भीतर ही आदित्यनाथ ने 2 अप्रैल 2022 को कहा कि उनकी सरकार ने प्रदेश में “ इंसेफेलाइटिस उन्मूलन ” में सफलता प्राप्त कर ली थी.
बहरहाल जैसा कि आयुष के मामले से पता चलता है कि मृत्यु-प्रमाणपत्र में दर्ज मृत्यु के कारणों में दिखता विरोधाभास इस बात की तरफ़ स्पष्ट संकेत करता है कि आकड़ों को प्रस्तुत करने के मामले में भी लापरवाही बरती गई होगी.
बेलघाट खंड जिसके अधीन ब्रह्मसारी गांव है, के सीएचसी के प्रभारी डॉ, सुरेन्द्र कुमार ने कहा, “आयुष संभवतः इंसेफेलाइटिस से नहीं मरा है. मैं इस मामलों से अवगत हूं जिनके बारे में आप बात कर रहे हैं. यह एईएस से होने मृत्यु नहीं थी. मेरे इलाक़े से यदि कोई एईएस मरीज़ का दाख़िला हुआ होता, तो मेडिकल कॉलेज मुझे सूचित ज़रूर करता.”
पारी की टीम जब फ़रवरी के महीने में बाबा राघब दास मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. गणेश कुमार से मिली तो उन्होंने बेलघाट सीएचसी के प्रभारी के वक्तव्य से बिल्कुल भिन्न बात कही. “तकनीकी रूप से मैनेंजाइटिस भी एईएस के ही दायरे में आता है,” उनका कहना था. “हरेक मरीज़ को अस्पताल में दाख़िले के बाद एक एईएस नंबर दिया जाता है.”
हमने उन्हें आयुष का मृत्यु प्रमाणपत्र दिखलाया, जिस पर यह साफ़ उल्लेख किया गया था कि उसको मैंनेन्जाइटिस था. अपने ही मेडिकल कॉलेज के अस्पताल से निर्गत काग़ज़ात देखने के बाद गणेश कुमार ने दुविधापूर्ण लहज़े में कहा, “इसपर तो कोई एईएस नंबर नहीं है. यहां कोई नंबर तो होना चाहिए."
एईएस के रोगियों की पहचान करना कोई मुश्किल काम नहीं है, ऐसा डॉ. कफील खान का कहना है. उन्होंने विस्तार से हमें बताया, “एईएस एक प्रारंभिक निष्कर्ष है. अगर किसी भी मरीज़ को 15 दिन से कम समय तक बुख़ार रहता है, और साथ में बेहोशी या कोई दूसरा लक्षण दिखता है, तो उन्हें एईएस नंबर दे दिया जाता है. ऐसे मरीज़ों को कोई जांच कराना नहीं होता है. अगस्त 2017 तक हमारे कामकाज का यही तरीक़ा था."
उस दिन 10 अगस्त 2017 को बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ड्यूटी पर खान ही थे, जिस दिन वहां 23 बच्चों की मौत हुई थी. उस हादसे के बाद उनपर अपने उत्तरदायित्व-निर्वहन में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया गया और उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा सेवा से निलंबित कार दिया गया. उसके बाद अन्य अभियोगों के अतिरिक्त कर्तव्यहीनता का आरोप लगाते हुए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. अप्रैल 2018 में जमानत पर रिहा होने से पहले उन्हें सात महीने जेल में गुज़ारने पड़े.
उनका मानना है कि साल 2017 के हादसे के बाद उन्हें बलि का बकरा बनाया गया था. उन्होंने कहा, “मुझे मेरी नौकरी पर दोबारा बहाल करने से इसलिए मना किया जा रहा है, ताकि सबूतों और आकड़ों से छेड़छाड़ की जा सके." नवंबर 2021 में उत्तरप्रदेश सरकार ने उन्हें बीआरडी के शिशुरोग विभाग में व्याख्याता के पद से उन्हें मुअत्तल कर दिया. बहरहाल उन्होंने सरकार के इस निर्णय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी है.
खान ने बताया कि एईएस के मामलों को एक्यूट फेब्राइल इलनेस (एएफआई) के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है, ताकि उनकी संख्या को प्रमुखता के साथ रेखांकित किया जा सके. “लेकिन एएफआई का मस्तिष्क से कोई संबंध नहीं है. यह सिर्फ़ बहुत तेज़ बुख़ार होता है.”
ज़िले के सीएमओ आशुतोष दुबे सरकार के स्तर पर ग़लत जानकारी देने की बात को सिरे से ख़ारिज करते हैं. उन्होंने कहा, “एएफआई के कुछ मामले एईएस के मामले हो सकते हैं. यही कारण है कि मामलों की पहले अच्छे से जांच होती है, फिर उनका वर्गीकरण किया जाता है. लेकिन एएफआई के सभी मामले ज़रूरी नहीं कि एईएस के ही मामले हों.”
एक्यूट फेब्राइल इलनेस, एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम के रूप में विकसित हो सकता है और दोनों बीमारियों के कुछ साझा कारण भी हैं. इनमें एक जीवाणु-संबंधित संक्रमण भी है जिसे स्क्रब टाइफस कहा जाता है. इस संक्रमण को अभी हाल के सालों में गोरखपुर और आसपास के प्रदेशों में एईएस के फैलने के एक बड़े कारण के रूप में चिन्हित किया गया है. साल 2015 और 2016 में किए गए अध्ययन के अनुसार स्क्रब टाइफस, एईएस के 60 प्रतिशत मामलों के लिए ज़िम्मेदार था.
कुछ विलंब से ही सही किंतु 2019 से बीआरडी मेडिकल कॉलेज ने एक्यूट फेब्राइल इलनेस को एक बिल्कुल भिन्न बीमारी के रूप में देखना शुरू किया है. लेकिन दुबे और गणेश कुमार – दोनों में से कोई भी संख्या से संबंधित सही सूचनाओं के साथ आगे आने के लिए तैयार नहीं हैं.
एईएस के मुख्य लक्षण तेज़ बुख़ार, मानसिक उद्विग्नता और संभ्रम तथा मूर्छा जैसी परेशानियां हैं. यह बीमारी किसी भी उम्र के व्यक्ति को किसी भी मौसम में हो सकती है, लेकिन यह सामान्यतः 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों को अधिक प्रभावित करती है
बहरहाल पारी किसी तरह से उन लोगों की सूची प्राप्त करने में सफल रहा जिनका इलाज उस साल मेडिकल कॉलेज में किया गया था. ठीक एईएस और जेई की तरह, ये मामले बरसात के मौसम में अधिकतम स्तर पर थे. डेंगू, चिकनगुनिया और मलेरिया उन संक्रमणों में हैं जिनके कारण एईएस होता है. साल 2019 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में पाए गए एएफआई के कुल 1,711 मामलों में 240 अगस्त 2019 और 683 और 476 मामले क्रमशः सितंबर और अक्टूबर के महीने में दर्ज़ हुए थे. लेकिन साल के पहले छह महीनों तक एक भी मामला सामने नहीं आया था.
कुछ आकड़े सर्वप्रथम पत्रकार मनोज सिंह ने अपने वेबसाइट गोरखपुर न्यूज़लाइन में 2019 के अंत में प्रकाशित किये थे. लंबे समय से बीआरडी मेडिकल कॉलेज के आए इंसेफेलाइटिस के मामलों की रिपोर्टिंग कर रहे मनोज सिंह का कहना था, “यदि अस्पताल प्रशासन कुछ छुपाना नहीं चाहता है, तो वह पहले की तरह ही पीड़ितों की संख्या की सही जानकारी क्यों नहीं उपलब्ध कराता है?” उन्होंने 2019 में दाख़िल हुए एएफआई मरीज़ों के बीच जेई मामलों की तादाद की तरफ़ भी संकेत किया. इस आंकड़े के अनुसार कुल 1,711 एएफआई मरीज़ों में जेई मरीज़ों की संख्या 288 थी.
बहरहाल, पूरे उत्तरप्रदेश में 2019 में जेई के केवल 235 मामले ही दर्ज किए गए थे.
“यह भी संभव है कि बीआरडी में दाख़िल 288 मरीज़ों में कुछ लोग उत्तरप्रदेश के नहीं रहे हों, क्योंकि इस मेडिकल कॉलेज में पश्चिमी बिहार और नेपाल के मरीज़ भी आते हैं,” सिंह ने बताया. “लेकिन अधिकतर मरीज़ उत्तरप्रदेश के ही होते हैं. इसलिए यह संख्या कई सवालों को जन्म दे रही है.”
बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य गणेश कुमार ने कहा: “बिहार और नेपाल से आए मरीज़ों की सही संख्या के बारे में बता पाना कठिन है, लेकिन सामान्यतः वह 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होते हैं.”
यह बात भी एईएस के मरीज़ों से संबंधित ग़लत सूचनाओं और संख्याओं को कम बताने की आशंका की ओर संकेत करती है.
*****
एईएस के मामलों को एएफआई मान कर इलाज करने के दूरगामी दुष्परिणाम हो सकते हैं. “एईएस और एएफएस के उपचारों में एक बड़ा अंतर मैनीटोल नाम की दवा के उपयोग का है, जो मस्तिष्क की सूजन को रोकने के लिए दिया जाता है. जैसे ही इस दवा का इस्तेमाल शुरू होता है वसे ही मामले को एईएस के रूप में समूहबद्ध कर दिया जाता है,” कफील खान ने बताया. “एक एईएस के मरीज़ का एईएस के मरीज़ की तरह इलाज करने का सीधा मतलब यह है कि उसे मैनीटोल नहीं दिया जा रहा है. और अगर आप इस दवा को नहीं देते हैं तो जीवित बचने के बाद भी एईएस से पीड़ित बच्चों के जीवन भर के लिए विकलांग होने का ख़तरा बढ़ जाता है.”
इंसेफेलाइटिस के किसी मरीज़ का परिवार सरकार से किसी भी मुआवजे के लिए तभी आवेदन कर सकता है जब मरीज़ को एईएस नंबर दिया गया हो. मरीज़ की मृत्यु हो जाने की स्थिति में परिजन राज्य सरकार से 50,000 रुपए की धनराशि मुआवजे के रूप पाने के हक़दार हैं, और बीमारी से जीवित बच निकलने की स्थिति में पीड़ित की भावी चुनौतियों और इंसेफेलाइटिस से उत्पन्न स्वास्थ्यसंबंधी जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए 1 लाख रुपए के मुआवजे का प्रावधान है.
एईएस सामान्यतः अभावग्रस्त और निर्धनों को अपना शिकार बनाता है जिन्हें मुआवजे की सबसे अधिक ज़रूरत है.
शोभा भी उन में ही शामिल हैं.
बीआरडी मेडिकल कॉलेज में आयुष को दाख़िल कराने से पहले दो निजी अस्पतालों में उसके इलाज में शोभा ने एक लाख रुपए ख़र्च कर दिए थे. निषाद समुदाय से आने वाली शोभा ने बताया, “हमने अपने रिश्तेदारों से क़र्ज़ लिया था." उनकी जाति उत्तरप्रदेश में अन्य पिछड़े वर्ग के रूप में सूचीबद्ध है. उनके पति रवि आज़मगढ़ ज़िले के मुबारकपुर शहर में एक कपड़ों की एक छोटी दुकान चलाते हैं. मुबारकपुर उनके गांव से कोई 75 किलोमीटर दूर है. उनकी मासिक आय लगभग 4,000 रुपए है.
यदि आयुष को एईएस नंबर मिल गया होता, तो शोभा कम से कम अपने देवर का क़र्ज़ चुकाने में सक्षम हो पातीं. “मेरे देवर ने अपनी पढ़ाई के लिए 50,000 रुपए बचाए थे. हमने वह भी ख़र्च कर डाले.”
परिवार के पास खेती के लिए एक एकड़ से भी कम ज़मीन है जहाँ वे अपने खाने के लिए गेहूँ उपजाते हैं. ब्रह्मसारी में अपने घर के सामने लगे चापानल को चलाती हुई शोभा बोलीं, “हम साल भर में सिर्फ़ एक ही फ़सल उगा पाते हैं, क्योंकि हमारी ज़मीन मानसून के दिनों में डूब जाती है."
गांव से लगभग पांच किलोमीटर दूर बेलघाट ग्राम पंचायत में, 26 साल के करमबीर बेलदार को अच्छी तरह यह याद है कि वह बीआरडी कॉलेज अस्पताल के डॉक्टरों से अपनी भतीजी की बीमारी का कारण लगातार पूछते रहे. लेकिन उनके सवाल का किसी ने जवाब नही दिया – रिया की मौत के बाद भी नहीं.
उनकी पांच-वर्षीय भतीजी रिया को अगस्त 2021 में बहुत तेज़ बुख़ार आया और साथ ही बेहोशी के दौरे भी पड़ने लगे. उन्होंने बताया, “उसमें सारे लक्षण एईएस के समान ही थे. वह मानसून का मौसम था और हमारे घर की चारों ओर गंदा-बदबूदार पानी जमा था. हम उसे फौरन सीएचसी लेकर गए, जहां उसे बीआरडी भेज दिया गया.”
रिया को अस्पताल के उसी कुख्यात शिशुरोग वार्ड में दाख़िल किया गया. बेलदार ने कहा, “हमने डॉक्टरों से उसकी बीमारी के बारे में जानने की कोशिश की लेकिन हमें कोई ठोस जवाब नहीं मिला. जब भी हम उनसे सवाल करते, हमें वार्ड से जबरन बाहर निकाल दिया जाता था. एक कर्मचारी ने मुझे फटकार लगाते हुए कहा कि क्या मैं उसका इलाज करूंगा.”
अस्पताल में दाख़िल किए जाने के दूसरे दिन ही रिया की मौत हो गई. उसके मृत्यु प्रमाणपत्र में उसकी मौत का कारण ‘सेप्टिक शॉक क्रश फेलियर’ बताया गया है. बेलदार बोले, “हमें तो इसका मतलब तक मालूम नहीं है. बात को छिपाने का क्या कारण है? मृत्यु प्रमाणपत्र में इंसेफेलाइटिस के बारे में कुछ भी नहीं लिखा हुआ है, इसके बावजूद बच्चे हर साल मर रहे हैं.”
शोभा के भय का कारण भी यही है.
आयुष तो अब नहीं रहा, लेकिन उन्हें अब अपने छोटे बेटों राजवीर (5 साल) और कुणाल (3 साल) की चिंता है. स्थितियां कुछ ख़ास नहीं बदली हैं. इस साल भी मानसून में उनके गांव में पानी जमा हो जाने की आशंका है और चापानल में भी वही गंदा पानी आएगा. जिन परिस्थितियों के कारण आयुष को अपनी जान गंवानी पड़ी, वे परिस्थितियां उसके छोटे भाइयों के सामने आज भी ख़तरे के रूप में उपस्थित हैं. और शोभा इस ख़तरे के नतीजे को दूसरे की बनिस्बत बेहतर जानती हैं.
पार्थ एम एन, ठाकुर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन से मिले एक स्वतंत्र पत्रकारिता अनुदान के ज़रिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता के मसले पर रिपोर्टिंग करते हैं. ठाकुर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन ने इस रिपोर्ताज के कॉन्टेंट पर एडिटोरियल से जुड़ा कोई नियंत्रण नहीं रखा है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद