यह स्टोरी जलवायु परिवर्तन पर आधारित पारी की उस शृंखला का हिस्सा है जिसने पर्यावरण रिपोर्टिंग की श्रेणी में साल 2019 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड जीता है.

कडल ओसई रेडियो स्टेशन पर ए यशवंत घोषणा करते हैं, “सुबह के 11 बजकर 40 मिनट हो चुके हैं, इसलिए अब गति की ताज़ा स्थिति के बारे में बताया जा रहा है. पिछले एक सप्ताह या एक महीने से, कचान काथू [दक्षिणी हवा] बहुत तीव्र थी. उसकी गति 40 से 60 [किलोमीटर प्रति घंटा] थी. आज यह मानो मछुआरों की मदद के लिए, यह कम होकर 15 [किमी प्रति घंटा] पर पहुंच गई है.”

तमिलनाडु के रामनाथपुरम ज़िले के पामबन द्वीप के मछुआरों के लिए यह बहुत अच्छी ख़बर है. यशवंत, जो ख़ुद एक मछुआरे हैं, बताते हैं, “इसका मतलब है कि वे बिना किसी डर के समुद्र में जा सकते हैं." वह इस इलाक़े में रहने वाले समुदाय के एक रेडियो स्टेशन, कडल ओसई (समुद्र की आवाज़) में रेडियो जॉकी भी हैं.

रक्तदान पर एक विशेष प्रसारण शुरू करने के लिए, यशवंत मौसम की रिपोर्ट से संबंधित अपनी बात इन शब्दों के साथ खत्म करते हैं: “तापमान 32 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच चुका है. इसलिए पर्याप्त मात्रा में पानी पीते रहें और धूप में न जाएं.”

यह एक आवश्यक सावधानी है, क्योंकि पामबन में अब 1996 के मुक़ाबले, जिस साल यशवंत का जन्म हुआ था, कहीं ज़्यादा गर्म दिन देखने को मिल रहे हैं. तब, इस द्वीप पर एक साल में कम से कम 162 दिन ऐसे होते थे जब तापमान 32 डिग्री सेल्सियस के निशान को छू लेता था या उसके पार पहुंच जाता था. उनके पिता एंथनी सामी वास - जो अब भी एक पूर्णकालिक मछुआरे हैं - जब 1973 में पैदा हुए थे, तो इतनी गर्मी साल में 125 दिन से ज़्यादा नहीं पड़ती थी. लेकिन आज उन गर्म दिनों की संख्या साल में कम से कम 180 हो चुकी है, यह कहना है जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग पर एक इंटरैक्टिव उपकरण से की गई गणना का, जिसे न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा इस साल जुलाई में ऑनलाइन पोस्ट किया गया था.

इसलिए, यशवंत और उनके सहयोगी न केवल मौसम को, बल्कि जलवायु के बड़े मुद्दे को भी समझने की कोशिश कर रहे हैं. उनके पिता और अन्य मछुआरे - जिनकी वास्तविक संख्या इस द्वीप के दो मुख्य शहरों, पामबन और रामेश्वरम में 83,000 के क़रीब है - उनसे यह उम्मीद पाले हुए हैं कि वे इन परिवर्तनों का सही मतलब समझाएंगे.

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अपने पिता एंथनी सामी और अपनी नाव (दाएं) के साथ रेडियो जॉकी यशवंत: ‘बाहर निकलने से पहले हम हवाओं और मौसम का अंदाज़ा लगाया करते थे. लेकिन आज हमारा कोई भी अंदाज़ा सटीक नहीं बैठता’

एंथनी सामी कहते हैं, “मैं 10 साल की उम्र से मछली पकड़ रहा हूं. समुद्रों में निश्चित रूप से [तब से] भारी परिवर्तन हुआ है. पहले, बाहर निकलने से पहले हम हवाओं और मौसम का अंदाज़ा लगाया करते थे. लेकिन आज, हमारा कोई भी अंदाज़ा सटीक नहीं बैठता. इतने भयंकर बदलाव हुए हैं कि वे हमारे ज्ञान को ग़लत साबित कर देते हैं. पहले, समुद्र में जाते समय इतनी गर्मी कभी नहीं होती थी. लेकिन आज, गर्मी हमारे लिए बहुत ज़्यादा कठिनाइयां पैदा कर रही है.”

सामी जिस समुद्र की बात कर रहे हैं वह कभी-कभी घातक साबित हो जाता है. जैसा कि इस साल 4 जुलाई को हुआ था, जब यशवंत - जो अपने पिता की नाव पर जब भी मौक़ा मिलता है, मछली पकड़ने जाते हैं - रात में 9 बजे के बाद यह ख़बर लेकर आए कि समुद्र में ख़राब मौसम के कारण चार लोग अपना रास्ता भटक गए. उस समय कडल ओसई बंद हो चुका था - इसका प्रसारण सुबह 7 बजे से शाम 6 बजे तक होता है - लेकिन आरजे (रेडियो जॉकी) होने की वजह से वह रेडियो पर आए और घोषणा की कि कुछ मछुआरे संकट में फंसे हुए हैं. रेडियो स्टेशन की प्रमुख, गायत्री उस्मान कहती हैं, “हमारे पास इस परिसर में हमेशा एक आरजे होता है, भले ही यह आधिकारिक तौर पर बंद हो. इसलिए आपात स्थिति में हम हमेशा प्रसारण कर सकते हैं.” और अन्य कर्मचारी आसपास ही रहते हैं. उस दिन, कडल ओसई के कर्मचारियों ने पुलिस, तट रक्षक, जनता, और अन्य मछुआरों को सतर्क करने के लिए अविश्वसनीय तरीक़े से काम किया.

दो दिन की मशक़्क़त के बाद, केवल दो लोगों को बचाया जा सका. गायत्री कहती हैं, “वे क्षतिग्रस्त वल्लम [सामान्य देसी नाव] से लटके हुए थे. अन्य दो ने हाथ में दर्द की वजह से, बीच में ही नाव छोड़ दी." विदा होते समय उन्होंने अपने दोनों साथियों से कहा कि वे प्यार का संदेश उनके परिवारों तक पहुंचा दें और उन्हें समझा दें कि वे ज़्यादा देर तक नाव को पकड़े नहीं रह सके. उनके शव 10 जुलाई को समुद्र के किनारे पड़े मिले.

54 वर्षीय एके सेसुराज या ‘कैप्टन राज’ कहते हैं, “अब हालात पहले जैसे नहीं रहे." उन्होंने यह उपाधि अपनी नाव के नाम की वजह से अर्जित की है. वह बताते हैं कि नौ साल की उम्र में जब उन्होंने समुद्र में जाना शुरू किया था, तो उस समय “इसका स्वभाव मित्रतापूर्ण था. हमें पता रहता था कि मछली कितनी मिलेगी और मौसम कैसा रहेगा. आज, दोनों के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल है.”

वीडियो देखें: ‘'कैप्टन राज’ अंबा गीत सुना रहे हैं

54 वर्षीय एके सेसुराज या ‘कैप्टन राज’ कहते हैं, ‘अब हालात पहले जैसे नहीं रहे.' वह बताते हैं कि ‘समुद्र का स्वभाव मित्रतापूर्ण था...हमें पता रहता था कि मछलियां कितनी मिलेगी और मौसम कैसा रहेगा. आज, दोनों के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल है’

राज इन परिवर्तनों से असमंजस में हैं, लेकिन कडल ओसई के पास उनके लिए कुछ जवाब हैं. गैर सरकारी संगठन, नेसक्करंगल द्वारा 15 अगस्त 2016 को लॉन्च किए जाने के बाद से ही यह स्टेशन समुद्र, मौसम के उतार-चढ़ाव, तथा जलवायु परिवर्तन पर कार्यक्रम चलाता आ रहा है.

गायत्री कहती हैं, “कडल ओसई एक दैनिक कार्यक्रम चलाता है, जिसका नाम है समुथिरम पळगु (समुद्र को जानें). इसका उद्देश्य समुद्रों का संरक्षण है. हम जानते हैं कि इससे जुड़े बड़े मुद्दे समुदाय पर दीर्घकालिक प्रभाव डालेंगे. समुथिरम पळगु जलवायु परिवर्तन पर बातचीत को जारी रखने की हमारी एक कोशिश है. हम समुद्री स्वास्थ्य के लिए हानिकारक क्रियाकलापों और उनसे बचने के बारे में बात करते हैं [उदाहरण के लिए, नावों द्वारा हद से ज़्यादा मछली पकड़ना या डीज़ल और पेट्रोल, पानी को कैसे प्रदूषित कर रहे हैं]. कार्यक्रम के दौरान हमारे पास लोगों के फ़ोन आते हैं, जो ख़ुद अपने अनुभव साझा करते हैं. कभी-कभी, वे अपनी ग़लतियों के बारे में बताते हैं - और वादा करते हैं कि वे उन्हें दोहराएंगे नहीं.”

एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (MSSRF), चेन्नई में संचार प्रबंधक क्रिस्टी लीमा कहती हैं, “अपनी शुरूआत से ही, कडल ओसई की टीम हमारे संपर्क में है." यह संस्था इस रेडियो स्टेशन की सहायता करती है. “वे अपने कार्यक्रमों में हमारे विशेषज्ञों को बुलाते रहते हैं. लेकिन मई से, हमने जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए भी उनके साथ काम किया है. कडल ओसई के माध्यम से ऐसा करना आसान है, क्योंकि कम्युनिटी रेडियो के रूप में वे पामबन में पहले से ही काफ़ी लोकप्रिय हैं.”

इस रेडियो स्टेशन ने ‘कडल ओरु अदिसयम, अदई कापदु नम अवसियम’ (समुद्र एक अजूबा है, हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए) शीर्षक से, मई और जून में विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के मुद्दों पर चार एपिसोड प्रसारित किए.  एमएसएसआरएफ़ की तटीय प्रणाली अनुसंधान इकाई के विशेषज्ञ, इसके अध्यक्ष वी सेल्वम के नेतृत्व में इन एपिसोड में शामिल हुए. सेल्वम का कहना है, “ऐसे कार्यक्रम बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जब हम जलवायु परिवर्तन के बारे में बात करते हैं, तो हम शीर्ष पर जाकर या विशेषज्ञों के स्तर पर ऐसा करते हैं. इसके बारे में ज़मीनी स्तर पर चर्चा करने की आवश्यकता है, उन लोगों के बीच जाकर जो वास्तव में दिन-प्रतिदिन के आधार पर इसके प्रभावों को झेल रहे हैं.”

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बाएं: पामबन मार्ग पर कडल ओसई का कार्यालय, जहां भारी मात्रा में मछली का कारोबार होता है. दाएं: स्टेशन के 11 कर्मचारियों में से एक, डी रेडिमार जो आज भी समुद्र में जाते हैं

10 मई को प्रसारित एक एपिसोड ने पामबन के लोगों को अपने द्वीप पर हो रहे बड़े बदलाव को बेहतर ढंग से समझने में मदद की. दो दशक पहले तक, 2,065 मीटर लंबे इस पामबन पुल के क़रीब कम से कम 100 परिवार रहते थे जो रामेश्वरम शहर को भारत की मुख्य भूमि से जोड़ता है. लेकिन समुद्र के बढ़ते स्तर ने उन्हें इस जगह को छोड़ दूसरे स्थानों पर जाने के लिए मजबूर किया. एपिसोड में, सेल्वम श्रोताओं को समझाते हैं कि जलवायु परिवर्तन इस प्रकार के विस्थापन में कैसे तेज़ी ला रहा है.

न तो विशेषज्ञों या मछुआरों ने इस मुद्दे को सरल बनाने का प्रयास किया और न ही स्टेशन के संवाददाताओं ने. वे इन परिवर्तनों के लिए ज़िम्मेदार कोई एक घटना या कोई एक कारण बयान करने में भी नाकाम रहे. लेकिन वे इस संकट को फैलाने में मानव गतिविधि की भूमिका की ओर ज़रूर इशारा करते हैं. कडल ओसई की कोशिश है कि वह इन सवालों का जवाब ढूंढने में इस समुदाय का नेतृत्व करे, उन्हें खोजी दुनिया में ले जाए.

सेल्वम कहते हैं, “पामबन एक द्वीप पारितंत्र है और इसीलिए ज़्यादा असुरक्षित है. लेकिन रेत के टीलों की उपस्थिति द्वीप को जलवायु के कुछ प्रभावों से बचाती है. इसके अलावा, यह द्वीप श्रीलंकाई तट के चक्रवातों से कुछ हद तक सुरक्षित है."

वह आगे कहते हैं कि लेकिन समुद्री संपदाओं की हानि वास्तविक है, जिसके पीछे जलवायु तथा गैर-जलवायु कारकों का हाथ है. मुख्य रूप से नावों द्वारा हद से ज़्यादा मछलियां पकड़ने के कारण अब शिकार में कमी आ चुकी है. समुद्र के गर्म होने से मछलियां अब समूहों में नज़र नहीं आतीं.

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बाएं: एम सैलास उन महिलाओं का इंटरव्यू ले रही हैं , जो उन्हीं की तरह, पामबन द्वीप के मछुआरा समुदाय से हैं. दाएं: रेडियो स्टेशन की प्रमुख, गायत्री उस्मान सामुदायिक मंच के लिए एक स्पष्ट दिशा लेकर आई हैं

मछुआरा समुदाय से आने वाली तथा कडल ओसई की आरजे, बी मधुमिता ने 24 मई को प्रसारित एक एपिसोड में बताया, “ऊरल , सिरा , वेलकंबन ... जैसी प्रजातियां पूरी तरह से लुप्त हो चुकी हैं. पाल सुरा, कलवेती, कोंबन सुरा जैसी कुछ प्रजातियां अब भी मौजूद हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है. हैरानी की बात यह है कि केरल में किसी ज़माने में बहुतायत में पाई जाने वाली माथी मछली, अब हमारी तरफ़ भारी संख्या में मौजूद है.”

उसी एपिसोड में एक अन्य बुज़ुर्ग महिला, लीना (जिनका पूरा नाम उपलब्ध नहीं है) कहती हैं कि एक अन्य प्रजाति, मन्डईकलुगु , जो लगभग दो दशक पहले यहां टनों में उपलब्ध हुआ करती थी, अब ग़ायब हो चुकी है. वह बताती हैं कि कैसे उनकी पीढ़ी ने उस मछली का मुंह खोलकर उसके अंडे निकाले और खा गए. यह एक ऐसी अवधारणा है जिसे एम सैलास जैसी कम उम्र की महिलाएं, जो ख़ुद उसी समुदाय से हैं (और एक पूर्णकालिक कडल ओसई एंकर तथा निर्माता हैं, जिनके पास एमकॉम की डिग्री है), ठीक से समझ नहीं सकतीं.

लीना कहती हैं, “1980 के दशक तक, हम टनों कट्टई, सीला, कोंबन सुरा, और इस प्रकार की अन्य प्रजातियां प्राप्त किया करते थे. आज हम उन मछलियों को डिस्कवरी चैनल पर तलाश रहे हैं. मेरे दादा-परदादा [जिन्होंने गैर-मशीनीकृत देसी नावों का इस्तेमाल किया] कहा करते कि इंजन की आवाज़ मछलियों को दूर भगा देती है. और पेट्रोल या डीज़ल ने पानी में ज़हर घोल दिया और मछलियों के स्वाद को बदल दिया.” वह याद करते हुए बताती हैं कि उन दिनों महिलाएं भी समुद्र के किनारे पानी में उतर जाती थीं और जाल फेंककर मछली पकड़ लिया करती थीं. अब चूंकि किनारे पर मछलियां नहीं मिलतीं, इसलिए महिलाओं ने भी समुद्र में जाना कम कर दिया है.

17 मई के एक एपिसोड में मछली पकड़ने के पारंपरिक तरीक़े और नई तकनीकों पर चर्चा की गई - और समुद्री जीवन को संरक्षित करने के लिए दोनों को कैसे संयोजित किया जाए, इस पर भी बात हुई. गायत्री कहती हैं, “मछुआरों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि वे तटों पर पिंजरे डालें और मछलियों का प्रजनन करें. सरकार इस ‘पिंजरा कल्चर’ का समर्थन कर रही है, क्योंकि यह ख़त्म होती समुद्री संपदाओं के मुद्दे का मुक़ाबला करती है."

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मछुआरों के हितों की गूंज

पामबन के 28 वर्षीय मछुआरे, एंटनी इनिगो इसे आज़माने के इच्छुक हैं. “पहले, अगर ड्यूगांग (एक समुद्री स्तनपायी) हमारे हाथ लग जाते, तो हम उन्हें समुद्र में वापस नहीं छोड़ते थे. लेकिन कडल ओसई पर प्रसारित एक कार्यक्रम को सुनने के बाद हमें पता चला कि जलवायु परिवर्तन और मानव क्रिया ने उन्हें कैसे विलुप्त होने के कगार पर पहुंचा दिया है. हम उन्हें समुद्र में वापस छोड़ने के लिए अपने महंगे जालों को काटने के लिए तैयार हैं. कछुओं के साथ भी हम ऐसा ही करते हैं.”

गायत्री कहती हैं, “अगर हमारे पास आकर कोई विशेषज्ञ यह बताता है कि जलवायु परिवर्तन मछलियों को कैसे प्रभावित कर रहा है, तो वहीं हमसे कुछ ऐसे मछुआरे भी जुड़ जाते हैं जो अपने अनुभव से बताते हैं कि इस बात में कितनी सच्चाई है."

सैलास कहती हैं, “मछलियों के ग़ायब होने का दोषी हमने देवताओं और प्रकृति को ठहराया. अपने शो के माध्यम से हमने महसूस किया है कि यह पूरी तरह से हमारी ग़लती है." कडल ओसई के सभी कर्मचारी उन्हीं की तरह मछुआरा समुदाय से हैं - गायत्री को छोड़कर. वह एक योग्य साउंड इंजीनियर हैं, जो डेढ़ साल पहले उनके साथ शामिल हुई थीं और इस सामुदायिक मंच के लिए एक स्पष्ट दिशा और उद्देश्य लेकर आईं.

कडल ओसई का साधारण सा कार्यालय पामबन मार्ग पर स्थित है जहां अधिकतर दिन मछलियों का भारी व्यापार होता है. बोर्ड पर नीले रंग से इसका नाम लिखा है- नमतु मुन्नेट्रतुक्कन वानोली (हमारे विकास का साथी रेडियो). कार्यालय के अंदर आधुनिक रिकॉर्डिंग स्टूडियो के साथ एफ़एम स्टेशन है. उनके पास बच्चों, महिलाओं, तथा मछुआरों के लिए अलग-अलग कार्यक्रम हैं - और बीच-बीच में वे समुद्र में जाने वाले मछुआरों के लिए अंबा गाने बजाते रहते हैं. रेडियो स्टेशन के कुल 11 कर्मचारियों में से केवल यशवंत और डी. रेडिमर अब भी समुद्र में जाते हैं.

यशवंत का परिवार कई साल पहले तूतुकुडी से पामबन आ गया था. वह बताते हैं, “वहां पर मत्स्य पालन फ़ायदे का सौदा नहीं रह गया था. मेरे पिता के लिए प्रचुर मात्रा में मछलियां पकड़ना मुश्किल हो रहा था.” रामेश्वरम अपेक्षाकृत बेहतर था, लेकिन “कुछ वर्षों के बाद, यहां भी मछलियां कम होने लगीं.” कडल ओसई ने उन्हें महसूस कराया कि यह “दूसरों के द्वारा किए गए ‘काले जादू’ का नतीजा नहीं है, बल्कि शायद उस ‘काले जादू’ का नतीजा है जो ख़ुद हमने इस वातावरण पर किया है.”

वह लाभ कमाने को लेकर लोगों की सनक के बारे में चिंतित हैं. “कुछ बुज़ुर्गों का अब भी यह मानना है कि वे इसलिए ग़रीब हैं, क्योंकि उनके पूर्वजों ने मछलियां पकड़ने के मामले में ज़्यादा कुछ नहीं किया. वे ज़्यादा से ज़्यादा लाभ कमाने की कोशिश करते हैं, जिससे समुद्र का अधिक दोहन हो रहा है. हममें से कुछ युवा अब इसके ख़तरों को समझते हैं, इसलिए हम उस ‘काले जादू’ को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं.”

वह लाभ कमाने को लेकर लोगों की सनक के बारे में चिंतित हैं. ‘कुछ बुज़ुर्गों का अब भी यह मानना है कि वे इसलिए ग़रीब हैं, क्योंकि उनके पूर्वजों ने मछलियां पकड़ने के मामले में ज़्यादा कुछ नहीं किया…वे ज़्यादा से ज़्यादा लाभ कमाने की कोशिश करते हैं, जिससे समुद्र का अधिक दोहन हो रहा है’

वीडियो देखें: आरजे यशवंत, पामबन के लोगों को मौसम की सूचना दे रहे हैं

फिर भी, इस वृहद समुदाय का पारंपरिक ज्ञान, लोगों के सीखने का एक समृद्ध स्रोत बना हुआ है.  मधुमिता कहती हैं, “विशेषज्ञ अक्सर यही तो करते हैं. वे उस ज्ञान को प्रमाणित करते हैं और याद दिलाते हैं कि हमें इसे क्यों इस्तेमाल करना चाहिए. हमारा रेडियो स्टेशन पारंपरिक ज्ञान को एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान करता है. बदले में, हमारा समुदाय हमारे प्रसारण में आए विशेषज्ञों के ज्ञान का उपयोग करता है."

पामबन नाविक संघ (पामबन कंट्री बोट्स फ़िशरमेन असोशिएशन) के अध्यक्ष, एसपी रायप्पन इससे सहमत हैं. “हमने समुद्री जीवन के हद से ज़्यादा दोहन और इसके ख़तरों के बारे में हमेशा बात की है. कडल ओसई द्वारा मछुआरों के बीच फैलाई गई जागरूकता ज़्यादा प्रभावशाली है, हमारे लोग अब ड्यूगांग या कछुए को बचाने के लिए कभी-कभी इंपोर्टेड जाल भी त्याग देते हैं.” सैलास तथा मधुमिता को उम्मीद है कि उनका रेडियो स्टेशन, शायद एक दिन मन्डईकलुगु को भी द्वीप के पानियों में वापस लाने में मदद करेगा.

अधिकांश सामुदायिक रेडियो स्टेशनों की तरह ही, इसका प्रसारण भी 15 किलोमीटर से ज़्यादा दूर नहीं पहुंचता है.  गायत्री का कहना है, "लेकिन पामबन में लोगों ने कडल ओसई को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है - और हमें श्रोताओं से एक दिन में दस पत्र मिलते हैं. हमने जब शुरुआत की थी, तो लोगों को आश्चर्य हुआ था कि हम कौन हैं और किस विकास की बात कर रहे हैं. अब वे हम पर भरोसा करते हैं.”

अब वे अपना भरोसा सिर्फ़ जलवायु से ही खो रहे हैं.

कवर फ़ोटो: पामबन में 8 जून को संयुक्त राष्ट्र के विश्व महासागर दिवस समारोह में बच्चों के हाथ में एक बोर्ड है, जिस पर लिखा है कडल ओसई (फ़ोटो: कडल ओसई)

पारी का जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित  राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग का प्रोजेक्ट, यूएनडीपी समर्थित उस पहल का एक हिस्सा है जिसके तहत आम अवाम और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए पर्यावरण में हो रहे इन बदलावों को दर्ज किया जाता है.

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अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़

Reporter : Kavitha Muralidharan

कविता मुरलीधरन, चेन्नई की एक स्वतंत्र पत्रकार और अनुवादक हैं. वह 'इंडिया टुडे' (तमिल) की संपादक रह चुकी हैं, और उससे भी पहले वह 'द हिंदू' (तमिल) के रिपोर्टिंग सेक्शन की प्रमुख थीं. वह पारी के लिए बतौर वॉलंटियर काम करती हैं.

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Editor : P. Sainath

पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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पी. साईनाथ, पीपल्स ऑर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक हैं. वह दशकों से ग्रामीण भारत की समस्याओं की रिपोर्टिंग करते रहे हैं और उन्होंने ‘एवरीबडी लव्स अ गुड ड्रॉट’ तथा 'द लास्ट हीरोज़: फ़ुट सोल्ज़र्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम' नामक किताबें भी लिखी हैं.

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शर्मिला जोशी, पूर्व में पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के लिए बतौर कार्यकारी संपादक काम कर चुकी हैं. वह एक लेखक व रिसर्चर हैं और कई दफ़ा शिक्षक की भूमिका में भी होती हैं.

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Translator : Mohd. Qamar Tabrez

मोहम्मद क़मर तबरेज़, पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रुरल इंडिया के उर्दू के ट्रांसलेशन्स एडिटर हैं। वह दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं।

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