वह बचपन से ही लंबी क़तारों में खड़ी थी, अपनी बारी आने का इंतज़ार करती हुई— कभी पानी भरने के लिए नल की क़तार में खड़ी मिलती, तो कभी स्कूल में, मंदिरों में, राशन की दुकानों के बाहर, कभी बस स्टॉप पर, तो कभी सरकारी दफ़्तरों के बाहर. अक्सर ऐसा होता कि उसे मुख्य क़तार से थोड़ी दूर एक अलग क़तार में खड़ा कर दिया जाता, क्योंकि मुख्य क़तार उनकी होती थी जो कथित तौर पर 'मुख्य' थे. उसे उन निराशाओं की भी आदत पड़ चुकी थी जो उसे अक्सर अपनी बारी आने पर झेलनी पड़ती थी. लेकिन आज श्मशान के बाहर वह इसे और सहन नहीं कर सकती थी. वह उसके शव को अपने पड़ोसी निज़ाम भाई के ऑटो में छोड़कर अपने घर वापस भाग जाना चाहती थी.
कुछ दिन पहले जब भीखू अपनी बूढ़ी मां का शव लेकर यहां आया था, तो उसे इतनी लंबी क़तार देखकर हैरानी हुई थी. लेकिन केवल भीखू की मां की मृत्यु ही नहीं थी जिसने उसे तोड़ के रख दिया था; उसकी रूह बहुत पहले ही टूट चुकी थी, जब उसके लोग बिना पैसों के, बिना खाने के, बिना नौकरी के तमाम दुख झेल रहे थे और अपने मालिक से बकाया मेहनताना हासिल करने के लिए महीनों से आंदोलन कर रहे थे. साथ ही, कुछ काम पाने के लिए संघर्ष कर रहे थे जिससे उन्हें पर्याप्त पैसे मिल सकें. ये सभी लोग क़र्ज़ के बोझ तले कुचले जा रहे थे कि कोरोना ने उन्हें निगलना शुरू कर दिया. यह बेरहम वायरस शायद उनके लिए एक वरदान था, ऐसा वह सोचती थी. लेकिन एक दिन ऐसा आया…
क्या उस ख़ास इंजेक्शन ने उसे बचा लिया होता? कॉलोनी के पास के निजी क्लीनिक का डॉक्टर इंजेक्शन लगाने के लिए तैयार भी था, अगर वे इसकी व्यवस्था कर लेते. वह जानती थी कि वह और कोशिश कर सकती थी. तो क्या हुआ अगर क़तारें बहुत लंबी थीं और अंत में क़िस्मत काम नहीं आने वाली थी? अस्पताल में किट ख़त्म हो चुके थे. उन्होंने अगले दिन आने को कहा था. निश्चित तौर पर वह जा सकती थी? निज़ाम भाई ने गहरी सांस लेते हुए कहा था कि “मैं उस जगह को जानता हूं जहां से तुम इसे 50,000 में ख़रीद सकती हो. वह उस राशि का छोटा सा हिस्सा भी कहां से जुटाती? एडवांस में पैसे मिलने की बात तो दूर थी, उसकी मेमसाहेब ने तो उसे उन दिनों की तनख़्वाह देनी भी बंद कर दी थी जिस दिन वह किसी कारण से काम पर नहीं आ सकी थी.
उसका शरीर भट्टी की तरह दहक रहा था और उसे सांस लेने में काफ़ी परेशानी हो रही थी, जब आख़िरकार उसे आधी रात में निज़ाम भाई के ऑटो में बैठाया गया. उसने जब 108 पर कॉल किया था, तो उन्होंने कहा था कि दो से तीन घंटे लगेंगे और वैसे भी कहीं पर बिस्तर नहीं उपलब्ध था. सरकारी अस्पताल के बाहर क़तार और भी ज़्यादा लंबी थी. उसे बताया गया था कि उसे ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ेगा, क्योंकि वह निजी ऑटो में है. उसने बड़ी मुश्किल से अपनी आंखें खोली थीं. वह उसका हाथ पकड़े हुए थी, पीठ और छाती को सहला रही थी, उसे पानी के छोटे-छोटे घूंट पीने के लिए कह रही थी, उसे हिम्मत बंधा रही थी. वे तीनों बिना सोए, बिना खाए, अंतहीन प्रतीक्षा में जुटे थे — जब तक कि भोर में उसने दम तोड़ दिया, अपनी बारी आने से महज़ दो मरीज़ पहले.
श्मशान के बाहर एक और क़तार थी, जो उसकी प्रतीक्षा में थी...
मोक्ष
उधार की यह सांस लो
और डुबा दो इसमें अपनी जिजीविषा
जाओ, गुम हो जाओ वादियों में
अपनी बंद पलकों के पीछे, घुप अंधेरे में,
मत करो तलाश रोशनी की.
तुम्हारे गले में सिसकियों की तरह फंसी
जीने की इस चाहत को,
अब बह जाने दो
एंबुलेंसों की उन बेचैन चीखों के साथ
हवा में तैरती जो, रात के अंधेरे में,
हमारी दुनिया में घोलती मातम
मंत्रों की तरह
गूंजती.
बंद कर लो ज़ोर से अपने कान
इस भारी, उजाड़
झुलसी हुई तन्हाई से
जो फैल रही है गलियों में.
तुलसी अब सूख चुकी है.
इसके बजाय,
अपने प्यार के उस नारायणी नाम को
जीभ के मुहाने पर रखो
और निगल जाओ इसे
चमकती यादों
के गंगाजल के साथ.
आंसुओं से धो लो अपना शरीर
इसे चंदन के सपनों से ढक लो
अपनी बंद हथेलियों को रख लो छाती पर
और ओढ़ लो कफ़न
मोटा और दुख जैसा सफ़ेद.
प्यार की थोड़ी झिलमिलाहट रहने दो
अपनी आंखों में, गहरी नींद में जाने से पहले,
और अपनी आख़िरी दहकती हुई आह से
इस खोखले शरीर के नीचे दबे जीवन को जला दो,
सब टूटकर, घास के ढेर की तरह इकट्ठा हो गया है
एक चिंगारी के इंतज़ार में बेसब्र,
आओ, आज की रात अपनी चिता को आग दो और इंतज़ार करो
जब तक लपटें
तुम्हें घेर न लें.
ऑडियो : सुधन्वा देशपांडे , जन नाट्य मंच से जुड़े अभिनेता और निर्देशक हैं. साथ ही, वे लेफ़्टवर्ड बुक्स के संपादक हैं.
अनुवादः मोहम्मद क़मर तबरेज़