महेश्वर चमुआ के दिलोदिमाग़ पर उस दिन की याद बिल्कुल ताज़ा है, जब बाढ़ की वजह से उन्हें पहली बार अपना आसरा बदलना पड़ा था. तब वह केवल पांच साल के थे. “पानी हमारे गांव के एक घर को बहा ले गया था. हम जल्दी-जल्दी अपनी नावों पर सवार हुए, और सुरक्षित ठिकाने की तलाश में वहां से भाग निकले. हमें द्वीप के पास की एक ज़मीन पर आसरा मिला,” चमुआ, जो अब 60 साल की उम्र पार कर चुके हैं, हमें बताते हैं.

चमुआ की तरह माजुली – जो असम में नदी का एक द्वीप है – के 1.6 लाख निवासियों पर बार-बार आने वाली इन बाढ़ों और दिन-बदिन कम होती ज़मीनों का बुरा असर पड़ा है. इस नदी की ज़मीन 1995 के मोटामोटी 1,245 वर्ग किलोमीटर से सिकुड़कर 2017 में 703 वर्ग किलोमीटर रह गई है. यह आंकड़ा ज़िला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट पर आधारित है.

“यह वास्तव में सल्मोरा नहीं है,” चमुआ आगे बताते हैं. “सल्मोरा को तो कोई 43 साल पहले ब्रह्मपुत्र [नदी] लील गई.” उसके बाद ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदी सुबनसिरी ने नए शालमरा का निर्माण किया. चमुआ अपनी पत्नी, बेटी और बेटे के परिवार के साथ पिछले 10 सालों से यहीं रहते हैं.

उनका नया घर एक अधूरा ढांचा है, जो सीमेंट और मिट्टी से बना है. शौचालय तक, जो घर के बाहर बना है, एक सीढ़ी के ज़रिए ही पहुंचा जा सकता है. “हर साल हमारी थोड़ी ज़मीन को ब्रह्मपुत्र का पानी बहा ले जाता है,” वह कहते हैं.

PHOTO • Nikita Chatterjee
PHOTO • Nikita Chatterjee

बाएं: ‘यहीं मेरा घर हुआ करता था’ एक चपोरी (एक छोटा सा रेत का टापू) की तरफ़ इशारा करते हुए महेश्वर चमुआ बताते हैं. जब बह्मपुत्र ने द्वीप को निगल लिया, तब उन्हें जान बचाने के लिए उस जगह शरण लेनी पड़ी जिसे अब सल्मोरा के नाम से जाना जाता है. महेश्वर को अपनेआप और अपने परिवार को सुरक्षित रखने के लिए कई  जगहों पर शरण लेनी पड़ी है. दाएं: ईश्वर हज़ारिका, जो शालमरा गांव के सरपंच हैं, बताते हैं कि बार-बार बाढ़ आने के कारण ज़मीन का कटाव हुआ और इसका बुरा असर गांव में खेतीबाड़ी पर पड़ा

बार-बार आने वाली बाढ़ ने गांव में खेतीबाड़ी को बुरी तरह से प्रभावित किया है. “हम चावल, माटी दाल [उड़द की दाल], और बैंगन या पत्तागोभी जैसी सब्ज़ी-तरकारी नहीं उगा सकते हैं. अब किसी के पास ज़मीन बची ही नहीं,” शालमरा के सरपंच ईश्वर कहते हैं. बहुत से ग्रामीणों ने नाव बनाने, मिट्टी के बर्तन बनाने और मछली पकड़ने जैसे दूसरे काम शुरू कर दिए हैं.

“शालमरा में बनाए गए नावों की मांग पूरे द्वीप में है,” चमुआ कहते हैं. वह ख़ुद भी नावें बनाते हैं. चपोरियों [छोटे टापू] में रहने वाले लोगों को नदी पार करने के लिए नावों का ही सहारा लेना पड़ता है – मसलन बच्चों को स्कूल आने-जाने के लिए, मछलियां पकड़ने के लिए और बाढ़ के दिनों में.

नाव बनाने का हुनर चमुआ ने ख़ुद सीखा है; यह काम वे तीन लोगों के एक समूह में करते हैं. नाव बनाने के लिए हिज़ल गुरि की ज़रूरत होती है. यह एक महंगी लकड़ी है जो बहुत आसानी से नहीं मिलती है. इस लकड़ी का उपयोग इसलिए किया जाता है, क्योंकि चमुआ के मुताबिक़ यह “मज़बूत और टिकाऊ” होती है. वे इस लकड़ी को शालमरा और आसपास के गांवों के विक्रेताओं से ख़रीदते हैं.

एक बड़ी नाव को बनाने में एक हफ़्ते का समय लग जाता है, और छोटी नाव पांच दिन में तैयार हो जाती है. चूंकि, इस काम में एक साथ कई लोग शामिल रहते हैं, इसलिए  वे सभी मिलकर महीने में 5 से 8 नावें बना सकते हैं. एक बड़ी नाव, जिसपर 10-12 लोग और तीन मोटरसाइकिलें सवार हो सकती हैं, की क़ीमत 70,000 तक हो सकती है, जबकि एक छोटी नाव 50,000 तक में बिकती है; यह आमदनी दो-तीन लोगों में बंट जाती है.

PHOTO • Nikita Chatterjee
PHOTO • Nikita Chatterjee

बाएं: शालमरा में बनी नावों की अच्छी-ख़ासी मांग है. नाव बनाने की कला महेश्वर ने ख़ुद से सीखी है. यह काम वह दो या तीन दूसरे लोगों की मदद से करते हैं और इससे होने वाली कमाई को उनके साथ साझा करते हैं. दाएं: शालमरा के लोगों में मछली पकड़ने का काम भी बहुत लोकप्रिय है. महेश्वर अटोवा जाल का उपयोग करते हैं. यह जाल बांस की मदद से बनाई जाती है और होरू माछ या छोटी मछली पकड़ने के काम आती है. उनके साथ शालमरा की एक अन्य निवासी मोनी हज़ारिका हैं

PHOTO • Nikita Chatterjee
PHOTO • Nikita Chatterjee

बाएं: रूमी हज़ारिका नदी में भटक-भटककर जलावन की लकड़ी इकट्ठा करती हैं, जिसे वह बाद में बेच देती हैं. दाएं: वह काली मिट्टी से सत्रिय शैली के बर्तन भी बनाती हैं और उन्हें स्थानीय बाज़ार में बेचती हैं

नाव बनाने से होने वाली कमाई के बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि नाव बनाने के अधिकतर ऑर्डर मानसून और बाढ़ के समय आते हैं. इसलिए चमुआ के पास कई महीनों से काम नहीं है और उनकी कोई स्थायी मासिक आमदनी नहीं है.

लगभग 50 वर्ष की रूमी हज़ारिका एक कुशल मल्लाह हैं, और जब बाढ़ आती है, तब वह जलावन की लकड़ी इकट्ठा करने के लिए डोंगी लेकर नदी में निकल जाती हैं. उन लकड़ियों को गांव के बाज़ार में बेचकर उन्हें प्रति क्विंटल कुछ सौ रुपयों की कमाई हो जाती है. वह कलह माटी [काली मिट्टी] से बनाए गए अपने बर्तनों को भी 15 रुपए प्रति बर्तन की दर पर गरमूर और कमलाबाड़ी में बेचती हैं. मिट्टी के बने लैंप 5 रुपए में बिकते हैं.

“अपनी ज़मीनों के साथ-साथ हम अपने परंपरागत काम-धंधे भी गंवाते जा रहे हैं,” वह कहती हैं. “हमारी काली माटी को भी ब्रह्मपुत्र बहाकर ले जा रही है.”

इस रपट को तैयार करने में सहयोग करने के लिए, यह रिपोर्टर कृष्णा पेगू का आभार व्यक्त करती हैं.

अनुवाद: देवेश

Nikita Chatterjee

Nikita Chatterjee is a development practitioner and writer focused on amplifying narratives from underrepresented communities.

Other stories by Nikita Chatterjee
Editor : PARI Desk

PARI Desk is the nerve centre of our editorial work. The team works with reporters, researchers, photographers, filmmakers and translators located across the country. The Desk supports and manages the production and publication of text, video, audio and research reports published by PARI.

Other stories by PARI Desk
Translator : Devesh

Devesh is a poet, journalist, filmmaker and translator. He is the Translations Editor, Hindi, at the People’s Archive of Rural India.

Other stories by Devesh